प्यार और दुलार
पिरामिड ऊपर और ऊपर उठता चला जा रहा था। इतना ऊपर की अब मैं उसे सर उठा कर देख भी नहीं सकता था। इतने ऊपर सर करने से मुझे चक्कर आने लग जाते थे। मुझे वह दूर आसमान के उस कोने को छूता सा प्रतीत होता था। उसके उस छोर तक मेरी आंखें अब उसे निहार नहीं पा रही थी। जैसे—जैसे वह ऊपर उठता जा रहा था चारों और से पतला और अपना आकार छोटा करता जा रहा था। लेकिन उस घटते आकार के कारण वह अति सुंदर प्रतीत हो रहा था। अंदर से देखने पर तो और भी अधिक भय लगता था। क्योंकि बीच से खाली होने के कारण चारों और से दीवारें ऐसे लग रही थी। जैसे अंदर की और अब गिरी की तब गिरी। ये नजारा जब तक आपकी आंखें नहीं देखेंगी आप उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते है। की अंदर से कैसा लगता होगा अधूरा बना पिरामिड। उसके अंदर से चढ़ने के लिए जो पेड़ बंधी थी। और अब जब भी मैं मोका देख कर उस पर चढ़ जाता था। वह गिरने वाली बात तो न जाने मैं कब का भूल गया था। हमारे शरीर में कोई भय यह सोच इतनी देर तक थिर नहीं रह सकती। कोई पीड़ा या दुख हमारा पीछा मनुष्य की तरह नहीं करता जन्म—जन्म तक। यही हमारे लिए सुविधापूर्ण भी था। हम जल्दी ही उससे छुटकारा पा लेते है।
परंतु फिर भी उस के
ऊपर और ऊपर चढ़ना मेरे बूते के बहार की बात थी। जब मैंने पैड़ से दीवार के बहार की
और झांक कर देखा तो मेरे प्राण ही निकल गये। बाप रे बाप कितना नीचा है ये सब। मैं
अब कितना उपर आ या था। पहले मैं जहां से कूद कर भाग जाता था। वह तो नीचे धरातल पर
ही रह गया। अब तो हम बादलों के पास आ गये थे। एक मजेदार डर और मनोरंजन जैसा हो गया
था। जब हम ऊंचे पैड़ पर चढ़े होते और आसमान में बादल चलते से लगते थे। तब अचानक
आपको कुछ ऐसा लगेगा जैसे की बादल तो खड़े हुए है, और ये पिरामिड उड़े
जा रहा है। कितना डर लगता था, उस समय ऊपर खड़े आदमी को। पिरामिड
न जाने कहा चला जाये और हम कभी अपने घर लोट ही न पाये। हर बंधी पैड़ के आखिर चिनाई
के रद्दे पर लोहे की पतली तारों को जाली की तरह से बिछाया जाता था। फिर उस पर
रोड़ियां सीमेंट और बदरपूर में मिला कर भर दी जाती थी। तब मैं समझ जाता की आज का
काम इतना ही है। और कल यह पैड़ और ऊपर जाने वाली थी। ऐसा अनेक बार हुआ था, इसलिए यह फार्मुला मेरी समझ में आ गया था।
आँगन में जो अमरूद
और बेलपत्र के वृक्ष थे। उन के लिए अलग से खाली जगह छोड़ दी गई थी। ताकि वह आसमान
को निहार से। ऊंचे वृक्षों को अगर अम्बर न दिखाई दे तो वह जीवित नहीं रह सकते। उन
पेड़ो को जरा भी काटा नहीं गया था। पापाजी को पेड़ पौधों बहुत ही अच्छे लगते थे। मानो
उनके अंदर तो उसके प्राण बसे थे। कोई एक पत्ता भी तोड़ेगा तो पेड़ से अधिक पापाजी
को दर्द होता था। न जाने ये कैसा प्रेम था जो मेरी समझ के तो बाहर था। पास ही जो
आडू का जो पेड़ था,
वह बेचारा अब बूढ़ा हो गया था। जिस के जीने की उम्मीद अब न के
बराबर रह गई थी। परंतु उस पर भी न जाने कितनी चिड़ियाँ श्याम को आकर बैठती थी।
पूरा अंगन उनकी मधुर नाद से गूंज उठता था। कितना लयवदिता से एक साथ मिल कर गाती
हुई कितनी भली लगती थी। मानो हजारों—हजार महीन घंटियां कोई बजा रहा हो। घर का आँगन
उनकी गुंजन से कैसे एक तालवद्ये गुंजन से भर जाता था। जब पेड़ों पर फल लगते थे उस
समय तो न जाने कितने ही तोते आकर फलों का स्वाद लेते थे। और पड़ोस में हमारे
सामने जो जामुन का वृक्ष था उस पर एक कौवे का जोड़ा रहता था। वह इतना पाजी था कि
जब वह अंडे देता तो हमारा सब का जीना दूभर कर देता था। भला हम उसके घोंसले के पास
कैसे जा सकते थे। और खास कर मैं तो जा ही नहीं सकता था। मैं कोई बिल्ली तो हूं
नहीं की वृक्ष पर चढ़ जाऊं। परंतु वह छत पर चढ़ना आना जाना कुछ दिनों के लिए हराम
कर देता था। मेरा ही नहीं सभी का। वह किसी पर भी भरोसा नहीं करता था।
हम अपने घर में काम
कर रहे होते परंतु उसे लगता की हम यहां क्यों है। और आकर वह चोंच से मुझे राम रतन
को और पांचु को मारता था,
परंतु पापाजी को कभी नहीं मारता था। मुझे यह देख कर बड़ा अचरज होता
था। और खुशी भी होती की पापाजी से न जाने क्या दोस्ती हो गई थी, इस पाजी कौवा की। शायद पापाजी पर वह थोड़ा विश्वास करता था। परंतु पापाजी
उसे खाने के लिए भी तो देते थे। पानी का एक बर्तन भी उसके लिए रखते थे। सच कौवा
बहुत चतुर होता है, पानी के अंदर रोटी को भिगो-भिगो कर किस
चाव से खाता था। पापाजी कभी-कभी उसके द्वारा लाये पैसे भी हमें दिखाते की देखो ये
पाँच रूपये का सिक्का आज पानी में डला हुआ मिला। और उसे दीदी को दे देते। कितनी
अजीब बात थी। एक पक्षी पैसे या सोने के महत्व को जानता था।
उन दिनों पिरामिड
के बनाने का काम नहीं चल रहा था। शायद राम रतन मिस्री और पांचू अपने गांव चले गये
थे। पिरामिड की अंदर से सफाई कर के उसे ध्यान करने के लिए तैयार कर लिया गया था।
अभी उस में कोई दरवाजा भी नहीं लगा था। और न ही प्लास्टर और बिजली का भी प्रबन्ध
भी नहीं था। फिर भी जिसे जिसकी चाह होती है वह उसके लिए राह निकाल ही लेता है।
लेकिन जब बरसात होती तो उसके छेदो के अंदर से बरसात की बुंदे टपकती रहती थी। एक वो
पीले रंग की काबर (बुलबुल) चिड़ियाँ उन छेदो के अंदर बैठ कर क्या शेर मचाती थी।
बस देखते ही बनता था। लेकिन उसे उड़ाया भी नहीं जा सकता था। क्योंकि पिरामिड अंदर
से बहुत उँचा था। अगर उस पर कोई कंकर फेंकी जाये तो वह फेंकने वाले को भी लग सकती
थी। किसी तरह से ताली वगैरह बजा कर उसे डराया जाता पर वह थी बड़ी ढीठ थी। उड़ने का
नाम ही नहीं लेती थी। उसकी की....की......की....पूरे ध्यान में चलती रहती थी। और
उसकी ये आवाज पिरामिड में कई गुणा हो कर गुंजती रही थी। पिरामिड के अंदर मुझे बहुत
मजा आया न तो यहां पर बाहर का शोर ही आयेगा और आवाज भी प्रतिगूंज रूप ले लगी।
मैं देख रहा था की
इन दिनों मम्मी पापा को कुछ आराम मिल रहा था। एक तो राम रतन मिस्त्री नहीं थे।
दूसरा कोई ध्यान करने वाला भी नहीं आता था। शायद काम के चलने की वजह से सब समझ
गये थे की अब ध्यान का कमरा तो टूट गया। जब बनेगा तो देखा जायेगा। पकी पकाई सब
खाते है हाथ कौन जलाये। खेर चलो जैसे भी हो। पर इन दिनों घर में बहुत शांति थी।
खाना खाने के बाद मम्मी पापाजी के साथ दो घंटे मैं भी मजे से सो लेता था। लेकिन
एक बात थी रह—रह कर मुझे अपनी मां की बहुत याद आती थी। क्या ऐसा नहीं हो सकता की
मैं एक बार उस जगह और पहुंच जाऊं जहां मेरी मां मरी थी।
परंतु वह जगह मेरी
देखी भाली नहीं थी। पापाजी एक बार देख लेते तो जरूर उसे पहचान लेते। परंतु पापाजी
तो कभी वहां गये नहीं थे। तो क्या किया जाये। शरद ऋतु खत्म हो रही थी, और
अभी गर्मी पड़नी शुरू नहीं हुई थी। होली का त्यौहार बसंत के सुंदर मौसम में आता
है। और ये दिन इतनी सुहाने होते है, आप पल में छांव में पल
में धूप का आनंद ले सकते है। जब आप छांव में बैठे होगे तो कैसी मीठी ठंडक महसूस हो
रही होती है। और कुछ ही देर में आपको सीतलता चारों और से घेर लेती है। ओर तब आपका
मन करता है कि अब फिर घूप में बैठा जाये। तब धूप की तपीस भी कितनी सुहावनी लगेगी
आपके तन को। और इन दिनों जंगल का तो आनंद ही अलग था। क्योंकि फिर तो राम रतन होली
के बाद आ जायेगा तब जाना अति कठिन हो जायेगा।
पुराने पत्ते टूट
कर गिर गये थे। और नए आपने आने का इंतजार कर रहे थे। इसी तरह का इंतजार मेरे मन
में भी अंकुरित हो रहा था। इन दिनों सबसे अधिक पलाश के वृक्ष पर यौवन आया हुआ था।
सभी जंगली पेड़ो पर फूल खिले थे। कुछ जंगली झाड़ियों पर मौसमी फल भी लगे थे। कुल
मिला कर इन दिनों अगर जंगल में न जाया—जाये तो जरूर कुछ अधूरा रह जायेगा। सो
छुट्टी वाले दिन एक पंथ दो काम वाला दिन होता था। घर से खाना बना कर सब लोग जंगल
की और चल देते थे। शायद इन दिनों बच्चों के स्कूल के पेपर होने वाले हो इसलिए
कुछ खेल आदि खेला नहीं जाता था। सब अपनी किताबें साथ ले कर जाते थे और धूप में बैठ
कर खुब पढ़ाई की जाती थी। दीदी मम्मी के साथ पहले कपड़े धुलवाती। फिर वह पढ़ाई
करती थी।
आज कल पापाजी भी
कपड़े धोने में उन लोगों की मदद करते थे। चलते पानी से आप बहुत जल्द कुछ भी काम
कर सकते थे। पानी इतना ठंडा होता था कि आपने पैर अंदर डाले नहीं की तुरंत सून हो
जाते थे। परंतु एक आनंद इन दिनों और लिया जाता था। सब नहाते थे। मुझे भी नहलाया
जाता था। मम्मी—और दीदी दूसरे घाट पर झाडियों की ओट में जाकर नहाती थी। मैं बच्चों
के साथ नहाता था। बच्चे तो एक बार ठंड के मारे कांप जाते थे। एक तो खुला स्थान
और ऊपर से इन दिनों हवा जरूर चल रहती होती थी। वो भी पुरवा जो अपने अंदर ही ठंड
समेटे चलती है। ऊपर से ठंडा पानी परंतु कुछ देर ही ठंड लगनी थी उसके बाद लगनी बंध
हो जाती थी। चलते पानी में आप कितनी ही देर नहा सकते हो। पहले तो बच्चे कुछ
कांपते। फिर मजे से गुप्ची लगा—लगा कर नहाते। स्नान के बाद सब धूप में बैठ कर
गरमा—गर्म चाय जो घर से बना कर लाई गई होती थी सब पीते थे। बस मैं और हिमांशु भैया
चाय नहीं पीते थे हम तो दूध ही पीते थे। खेर मेरा तो क्या मुझे तो मीठा कुछ भी
मिल जाये पी सकता हूं परंतु मुझे चाय दि ही नहीं जाती थी।
खुली घास में चारों
और कपड़े सूखा दिये जाते थे। जिनकी देख भाल करना अब मेरी जिम्मेदारी थी। सच बात
तो यह थी कि मुझे लगता था कि मैं कुछ तो काम कर सकता हूं। वहीं पर एक साफ सुथरी
जगह देख कर एक बड़ी सी चादर बिछा दी जाती जिस पर हम सब बैठ जाते थे। जगह भी वह
चुनी जाती थी जहां पर सूर्य भगवान खूब चमक के साथ गर्मी दे रहे होते थे।
मैं जानता था कि अब
कुछ ही देर में मम्मीजी खाने का पिटारा खोलेगी और मेरे मजे आ जायेंगे। न जाने
क्यों खाने का नाम सून कर ही मुझे क्या कुछ हो जाता है। पता नहीं मुझे ही होता है
या हमारी मेरी पूरी जाति इस की दीवानी थी। इतने सालों कितना स्वादिष्ट खाना खाने
को मिला है,
फिर भी हमारी नीयत नहीं भरती। शायद इसलिए ये गाली सिर्फ हमारे लिए
ही बनी थी। ‘’ खोने का कुत्ता‘’ कितना बुरा लगता है ये सून कर। परंतु इस समय ये
सब बातें याद कर मैं अपने खाने के आनंद को कम नहीं करना चाहता। अरे खाना यानि कि
खान और क्या भला जिंदा रहना है खाना तो खाना ही होगा।
आज का खाना बहुत
मजेदार था चाऊमिंग न्यूडल ले कर आई थी मम्मी जी। क्या मजेदार चीज थी। मुंह से
पकड़ कर अंदर करते जाओ खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। परंतु होती बड़ी लजीज
थी। और वह भी मम्मीजी के हाथ की बनी हुई। मम्मीजी के हाथों में कुछ जादू था वह
जिस खाने को हाथ लगा देती वह कितनी स्वादिष्ट हो जाता थी। खाना खाने के बाद मम्मी
पापा कुछ देर के लिए धूप में लेट जाते थे। हम सब बच्चे को फिर भी कहां चेन आराम
था। हम सब इधर उधर झाड़ियों में कुछ जंगली फल तोड़—तोड़ कर खाने और घूमने लग जाते
थे।
अब मेरी ड्यूटी
अधिक हो गई एक तरफ तो कपड़े का ध्यान रखना मम्मी पापा भी आंखें बद कर धूप में
लेटे थे। और दूसरी और इन बच्चों को देखना इसलिए मैं जंगल में खाना खाने के बाद
आराम नहीं करता था। कभी बच्चों के पास कभी मम्मी पापा के पास। बच्चे जंगली फल
तोड़ रहे होते तो मैं उनके पास जाकर खड़ा हो जाता था। वह समझते की मैं भी मांगने
के लिए आया हूं। और एक दो फल मुझे भी खिला दिये जाते कभी—कभी तो मैं उन्हें लेता
भी नहीं था। कि ये सब मुझे नहीं चाहिए तुम ज्यादा दूर मत जाओ। जानते हो जंगल
कितनी खतरनाक है।
परंतु वह मेरी एक
नहीं सुनते थे। मैं भौंकता और वो हंस कर मेरा मजाक उड़ते थे। काश उन्होंने मेरी मां का हाल देखा होता तो
उन्हें पता चल जाता की यहां पर कितना खतरा है। मैं इस बीच वह जगह देखने की कोशिश
भी कर रहा था जहां पर मेरी मां मरी थी। क्योंकि पानी तो मैं इसी नाले से लेकर के
गया था।
इसी बीच क्या
देखता हूं कि एक गीदड़ दूर झाड़ी की ओट से हमें देख रहा था। अब मेरी समझ में आया
कि मम्मी पापा जब भी जंगल में आते तो दो बड़ी ब्रेड क्यों लेकर के आते थे। इन
पाजियों के लिए लेकिन इन्होनें तो मेरी मां.......तभी अचानक मेरे दिमाग में एक
शेतानियत आई। चुप चाप दबे पांव धीरे—धीरे मैं उस गीदड़ की और बढ़ने लगा। मैं अब उस
गीदड़ के एक दम पास था। हवा का रूख भी गीदड़ की तरफ से मेरी और आ रहा था।
इसलिए वह मेरी
खुशबु भी नहीं ले पाया। उसे क्या पता है कि अब मेरी ऊपर हमला होने वाला था। मैंने
मन ही मन कल्पना कर ली कि इन्हीं लोगों ने मेरी मां को मार था। इन्हें में जीवित
नहीं छोडूंगा। बस फिर क्या मैं बिजली की तेजी से उस पर झपटा। वह इस हमले के लिए
कतई तैयार नहीं था। वह बचाव के लिए दो कदम पीछे की और हटा। तभी मैंने उसे पीछे से
पकड़ लिया उसने भी पलक झपकते ही अपने छरहरा बदन को पल में छुड़ा लिया। और सुरक्षा
के लिए अकड़ कर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसके दो और झाड़ियां थी और सामने मैं खड़ा
था। बच्चे भी इस लड़ाई की आवाज सून कर इधर ही देखने लगे।
कुछ देर हम दोनों
एक योद्धा की तरह इसी अवस्था में खड़े रहे। परंतु मुझे अब सब्र नहीं था। मैंने उस
पर उछल का हमला किया और उसकी गर्दन पकड़ ली इस सब के लिए वह तैयार नहीं था। वह तो
भाग जाने का रास्ता देख रहा था। कि किसी तरफ से जान बचा कर भाग चलू। अब वह
छटपटाने लगा। मैंने उसे नीचे गिरा लिया और उसे अच्छी तरह से रगड़ने लगा। मैं आज
उस का कचूमर निकाल देना चाहता था। इस आवाज को सून कर पापाजी डंडा लेकर भागे। और वह
पल में ही हमारे पास आ गये। मैं उसकी गर्दन को पूरे जोर से पकड़ हुए था। वह
छुड़ाने के लिए जी जान से कोशिश कर रहा था। परंतु छुड़ा नहीं पा रहा था। पापाजी
समझ गये की उसकी जान खतरे में थी। उन्होंने दो तीन बार आवाज दे कर मुझे हटने के
लिए कहा। परंतु मैं कहां उन की बात सुनने वाला था। तब उन्होंने वह डंडा मेरी पीठ
पा मारा। इस से मेरे दांतों की पकड़ ढीली पड़ गई और मेरा ध्यान भी पापाजी की और
चला गया था। अरे यह क्या पापाजी गीदड़ को न मार कर मुझे डंडा क्यों मारा। अगर
मारना ही था तो इस गीदड़ के बच्चे को मारते जो बच्चों पर भी हमला कर सकता था। इस
सब के बीच गीदड़ अपनी जान बचा का झाड़ियों की और भागा मैं भी उसके पीछे भागा। परंतु
वह छोटे कद का था इसलिए झाड़ियों के नीचे से बड़े मजे से निकल कर भाग गया।
आखिर वह यहां का
चप्पा—चप्पा जानता होगा। मैं एक अनाड़ी वह खिलाड़ी परंतु आज तो उस खिलाड़ी का खेल
खत्म कर ही देता। मेरे जलते बदन को कुछ तो शांति मिल जाती। तब मैं पछता रहा था कि
आखिर पापाजी क्यों आ गए?
पापाजी ने जो किया वह मेरी समझ के बाहर की बात थी। जब मैं उस पागल
गीदड़ के पीछे भागा तो पापाजी भी मेरे पीछे दस बीस कदम भागे थे। कि ऐसा न हो की
गीदड़ों का झुंड मुझ पर हमला न कर दे।
परंतु मेरी समझ में
यह बात नहीं आ रही थी की आखिर पापाजी ने मुझ हमला क्यों किया? वह
गीदड़ मेरा दुश्मन था। और बच्चों के इतने पास था। जो इस बात को जानते भी नहीं थी।
कि खतरा उनके इतनी पास था। फिर उनमें से किसी ने मेरी मां को भी जरूर मारा था। उस
बेचारी को कितना घायल किया था इन पाजियों ने। मेरे मुंह से तेज सांस के साथ लार भी
टपक रही थी। मैं मम्मीजी के पास जाकर बैठ गया। इस सब के बीच मम्मीजी भी पूछ रही
थी कि क्या हो गया मुझे भी तो पता चले। पापाजी और बच्चे के साथ वहां पर आये।
मम्मीजी मुझे प्यार
कर रही थी और मुझे पीने के लिए पानी भी दिया। परंतु में नीची गर्दन किए पास ही
बैठा रहा। इतनी देर में बच्चे ओर पापाजी आ गये और वह कहने लगे की देखो मम्मीजी आज
पोनी ने एक गीदड़ को पकड़ कर नीचे गिरा लिया था। अगर पापाजी समय पर नहीं आते तो वह
उसे जान से मार देता। पोनी कितना ताकत वर हो गया है। पापाजी मेरे पास आकर बैठ गये
और मेरे बदन पर हाथ फेर कर देखने लगे की कहीं मुझे भी तो एक आध दाँत का घाव तो
नहीं लग गया है। क्योंकि वह जानते थे की ये जंगली जानवरों के थूक में हम पालतू
जानवरों से अधिक जहर होता है। परंतु मैं तो इस सब से अनभिग था और अपना गुस्सा पाप
पर दर्शाने के लिए दूर जाकर बैठ गया। पापाजी समझ गये कि मैं उनसे नाराज हूं।
पापाजी ने मुझे
देखते हुए कहां की इसे देखो जंगल में आकर तो यह अपना रूप रंग ही बदल लेता है। ये
हो न हो जरूर किसी भेड़िया की औलाद होगा। तभी तो इतना खतरनाक है। देखा तुम लोगों
ने गीदड़ को क्या गांव के पालतू कुत्ते पकड़ सकते थे। इतनी चपलता और चालाकी उन
में कहा है,
वह तो देख कर भौंकना शुरू कर देते। और यह इतना चालाक है कि शिकार को
देख कर उस पर घात लगाता है। उसे डरा कर भागता नहीं। ये आदत केवल खूंखार जंगली
जानवरों में ही पाई जाती है। मेरी तारीफ के कसीदे पढ़े जा रहे थे। जिस में मुझे
जरा भी मजा नहीं आ रहा था। मजा तो तब आता जब मैं उस गीदड़ को फाड़ देता। मेरे दाँत
कुलमूला रहे थे।
और पापा जी कि ये
बात सत्य भी थी,
मैं जंगल में जाकर अपनी ताकत भी अधिक महसूस करता था। गांव के कुत्तों
के साथ एक प्रकार का भय बना रहता था मेरे मन में। एक अकेला पन का कि यहां पर मेरा
कोई नहीं है। परंतु यहां भी तो मेरा कोई नहीं है। फिर भी ऐसा क्यों महसूस नहीं
हुआ। खेर पापाजी की बात में दम जरूर था। ये जंगल ये हवा मुझे एक अपने पन का अजीब
सा साहस देता है। परंतु अब तो मेरा यहां कोई भी नहीं है। मेरी मां भी मेरी आंखों
के सामने दम तोड़ कर मर गई थी। भाई बहनों का क्या पता। और उन के व्यवहार के बारे
में मैं क्या जानु वह भी मुझे अपना दुश्मन समझ सकते है। नहीं यहां मेरा अपना कोई
नहीं है। अब यही परिवार मेरा अपना है। ये मुझे कितने प्यार दुलार से अपने पास
रखते है। मेरे नाज नखरे भी उठता है। मुझे खाने को देता है। जो खुद खाते है वही
खाना मुझे भी खिलाया जाता है। और मां तो सच में वही होती है जिसने तुम्हें पाला
हो। ठीक है उस मां ने मुझे गर्भ में रखा ये शरीर दिया। परंतु अब पालन पौषण तो इन्हीं
मां ने किया है। सच मैं अब इन्हें ही सच्चे दिल से अपने मां मानता हूं।
वह तो प्रकृति की
एक पकड़ है और ये पालना पोसना और प्यार दुलार इसी मम्मी ने तो ने दिया है। यही
जननी से भी महान है। और मैं पल में सब गिला शिकवा शिकायत भूल भाल गया था। और मम्मीजी
के पास जाकर उनके हाथ चाटनें लगा। उन्होंने मुझे प्यार किया मेरे बदन पर प्यार
से हाथ फेरा परंतु आज तो मैं उन्हें अपने में समा लेना चाहता था। तब मैंने अपने
दोनों पैर मम्मीजी के कंधे पर रख लिये और प्यार से उसका मुख चाट गया। सब जोर—जोर
से हंसने लगी। कि पौनी मम्मी का बेटा बन गया हिमांशु भैया रह गया। सब लोग मेरी इस
हरकत से हिमांशु को चिड़ा रहे थे।
और इस हंसी खुशी के
माहौल में घर चलने की तैयारी होने लगी। सब ने मिल कर कपड़े उठा कर एक जगह बाँध
दिया गया। और हम नाचते कूदते अपने घर की और चल दिए। उस मुलायम रेत पर मैं आज भी
सबसे तेज भाग रहा था......परंतु कभी—कभी रूक कर वहां पर छपे पैरों के निशान सूँघने
भी लग जाता था। उस समय सब मुझे कानून मंत्री की संज्ञा देते थे। कि देखो एक और
कर्म चंद जासूस पैदा हो गया है यहां। मैं कहां उस सब बातों की परवाह करने वाला था।
मेरा मन और तन तो उस समय हवा से बातें कर रहा था। और पीछे रह जाती उड़ती धूल का
गुबार और कुछ मधुर यादें।
आज इतना ही
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