गीदड़ों से मुठभेड़
कल जंगल के उस आनंद
को मैं रात भर भूल नहीं पाया था। उसको अपनी सुंदर स्मृतियों में सजो रखना चाहता
था। परंतु मुझे क्या मालूम था कि अगले दिन भी फिर से जंगल में जाने का आनंद
मिलेगा। क्योंकि अभी राम रतन अंकल तो आये नहीं थे इसलिए पापा जी दुकान से जल्दी
आ जाते और हम नियम से जंगल में जाने लगे। जब हम दुकान के पास से जा रहे होते तो
मम्मी जी मुझे अपने पास बुलाना चाहती परंतु में कन्नी काट जाता था। क्योंकि
मम्मी जी रोज जंगल नहीं जाती थी वह थक जाती थी फिर उन्हें घर का भी काम करना होता
था। सोचता की अब दोस्ती ठीक नहीं है, जंगल में जाने के दावे को में किसी पनीर या किसी दोस्ती की कीमत पर
छोड़ना नहीं चाहता था। तब मेरी इस हरकत से मम्मी बहुत जोर से हंसती और मेरे पास
आकर मुझे प्यार करती थी। एक पनीर का टूकड़ा जबरदस्ती मेरे मुंह में ठूस देती थी।
मैं डर सहमा सा वहां से जल्दी जंगल की और जाने के छटपटाने लग जाता था। बीच—बीच
में गली के चम्मच कुत्ते भी पास आकर मुंह चाटते और समर्पण कर के लेट जाते तब भी
मुझे गुस्सा आता की नाहक टाइम खराब कर रहे हो।
सुबह का घूमना कितना अनमोल है यह मैंने पहली बार जाना था। वैसे हम अकसर तो दिन में 10—11 बजे ही जंगल जाते थे या श्याम 4—5 बजे परंतु आजकल हम सुबह सात बजे ही जा रहे थे, कई दिन से। पहले जब घूमने जाते तो जिस दिन घूमने जाते उस दिन तो बहुत अच्छा लगता परंतु अगले दिन बदन बहुत दुखता था। परंतु रोज—रोज जाने से थकावट महसूस नहीं होती। अभी प्रकृति पूरी तरह से जगी नहीं होती, दूर सूर्य की किरणें वक्षों के कोमल पत्तों को छूकर सहला रही थी। उन पर जमे उस ओस के लिबास को छू रही होती। तब वृक्ष के पत्ते की सोई आंखों में एक चुभन सी महसूस होती और वह करवट बदलने की नाहक सोने की कोशिश करते। पास का पीला पत्ता खड़खड़ाता और तब हवा भी मानो उस कोमल पत्ते को हिला जाती की उठो जनाब अब कितना सोओगे। लेकिन सच सोते में ही हर प्राणी का विकास होता है। इस कुदरत को विकास के लिए एक खास बेहोशी चाहिए।

















