एक खूबसूरत अध्याय
पिरामिड के बनने का
काम कुछ विश्राम के बाद फिर से शुरू हो गया था। परंतु बीच—बीच में उसमें एक विराम
भी आ ही जाता था। क्योंकि राम रतन अंकल जब भी अपने घर जाते तो दो तीन महीने से
पहले कभी नहीं आते थे। चाहे वह दीपावली हो या होली का त्योहार कही क्यों न हो।
शायद घर पर जाने के बाद पाँच काम आपका इंतजार कर रहे होते है, सो
उन्हें भी निपटाना होता था। फिर यहां आने के बाद वहां के वो काम उनके बिना तो
अधूरे ही पड़े ही रह जायेंगे। परंतु ये कोई चिंता का विषय नहीं था। उनका इस तरह से
लेट आना। ये तो खास कर मेरे लिए एक आनंद
उत्सव और छुट्टी का माहौल हो जाता था। क्योंकि जब राम रतन अपने घर जाते तो इन्हीं
दिनों तो जंगल में घूमने में आनंद आता था। होली के दिनों में मौसम बसंत का होता
है। और दीपावली के समय में भी बरसात जा चुकी होती है और शरद ऋतु आने वाली होती है।
सौ दोनों संधिकाल का मिलन बड़ा ही सुंदर हो जाता है।
परंतु इस बार राम रतन के आने के बाद काम की गति कुछ पहले से अधिक हो गई थी। शायद और कारणों में से एक कारण ये भी था कि राम रतन अंकल ने अब इधर उधर के सारे काम छोड़ दिये थे। केवल यही एक पिरामिड बनाने का काम अपने हाथ में रख लिया था। काम को न देखो तो कौन काम करता है। अब वह तन और मन से पापा जी के साथ ही मन लगा कर काम करने लगे थे। पहले तो चार—पाँच बजे आते थे और रात देर तक काम करते थे।
क्योंकि पिरामिड के बनने के समय तो यह नियम ठीक था। परंतु अब तो कुछ बात जमती नहीं थी। पहले तो आपको मात्र पिरामिड की कटिंग करनी होती थी। तो आप तीन कटिंग से अधिक नहीं कर सकते। और जैसे—जैसे पिरामिड ऊपर उठ रहा था तो उसका घेरा अधिक छोटा और छोटा होता जा रहा था। पहले जो आपको एक दिन में पाँच सौ ईंट लगानी होती थी तो ऊपर जाकर मात्र 200 ही रह गई। इससे ऊपर तो 100 ही रह गई। परंतु मेहनत तो देखिए पापा जी और पांचू की कि इन इंटों को जमीन से सौ फीट ऊपर कैसे ले जाते होंगे। इस सब के करते—करते दोपहर हो जाती थी। और फिर ही इसके बाद राम रतन मिस्री का काम शुरू होता था।अब पिरामिड का ढांचा
बन कर पूरा हो चूका था। और एक बरसात भी उस पर से गुजर गई थी। अंदर से उसके छेदो
में से जब मैं उपर देखता तो कितने सुंदर चमकदार लगता था वह नजारा। कभी- कभी उन में
कुछ पक्षी भी आकर गीत गाते या शोर मचाते तब मुझे बहुत गुस्सा आता था। मुझे लगता
की ये ऊपर बैठ कर मुझे चिढ़ाते से लगते थे। इस तरह से मेरे गुस्से को देख कर सब
हंसते थे क्योंकि में उस पक्षी को पकड़ नहीं सकता उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था।
फिर भी मेरा स्वभाव मुझे चैन से बैठने नहीं देता था। जब बरसात आती तो उन छेदो में
से नन्हीं—नन्हीं फुहारें पिरामिड के अंदर आती तो शरीर को छूती तो कितनी सुखद
लगती थी। कुल मिलाकर घर बहुत ही सुंदर बन रहा था। जिसे देख कर मैं ही नहीं गांव का
प्रत्येक प्राणी अति विस्मय से भर जाता था।
राम रतन अंकल अब
अकेला काम नहीं करता था उसके दोनों लड़के भी उसके साथ उनकी मदद के लिए आ गए थे। और
चौथे मदद गार पापा जी थे,
वह भी उनके साथ मज़दूरों की तरह ही काम करते थे। कितनी बल्लियां आ
रही थी रस्सियां आ रही थी पैड़ बांधी जा रही थी। एक प्रकार से पूरे पिरामिड को
बाहर से चारों और से घेर लिया था। पहले तो अंदर से पूरा काम किया गया। परंतु अंदर
टाइलें नहीं लगाई गई थी केवल प्लास्टर ही किया था। और साथ के साथ एक नशेड़ी,
मूर्जी साहब रंग करने में तो वह मास्टर था, मैंने
देखा पापा जी के पास जो भी व्यक्ति काम करने लिए आ जाता वह लम्बे समय तक काम करता
ही रहता था। क्योंकि अंदर जैसे-जैसे प्लास्टर होता जा रहा था उसमें साथ के साथ
पैंट भी किया जा रहा था वरना तो शायद ही उस में दोबारा कोई रंग रोगन कर सके। भला
इतनी उंचाई पर आप किसी सहारे से रंग कर सकते है। न ही आप उसके अंदर इतनी बड़ी
सीढ़ी ले जा सकते हो और न बहार से ला सकते हो क्योंकि पिरामिड का दरवाजा अति संकरा
था। यानि की बहुत ही छोटा। साधना स्थलों का दरवाजा अकसर छोटा ही होता है। ये सब
काम मेरे दिमाग में तो आते नहीं थे परंतु मैं केवल एक अचरज से ये सब होते देखता
रहता था। परंतु आप देखो इन नई-नई जानकारी से मेरा मन कितना प्रसन्न और उत्साहित
होता होगा।
लेकिन बहार तो शायद
पैंट से काम चलने वाला नहीं था क्योंकि बरसात में वह एक दो साल में खराब हो जात
फिर...फिर कौन इस उंचाई पर रंग करता। इसलिए मम्मी-पापा जी ने वहां पर टाइलें लगाने
का सोचा जो एक दम से ठीक निर्णय था। परंतु पिरामिड पर लगाई जा रही टाईल का रंग
काला था। ये भी एक हंसी की बात थी। पापा जी पास के ही एक चाचा जी शायद जिनका नाम
दया नंद था के साथ टाईल लेने के लिए गये। और काले रंग की टाईल को आर्डर देकर आ
गये। अब दुकानदार को भरोसा नहीं आ रहा था की भला कोई अपने घर में भी काली टाईल
लगता है। वह बेचारा पक्का करने के लिए घर पर आये और पिरामिड के ढांचे को देख कर
अचरज कर गए। सोचते होगे हर युग में कुछ पागल लोग रहते है। उनमें हमारे पापा जी भी
एक थे। लोग सोचते थे की इतने पैसे में अगर ये किराये के लिए मकान बनाता तो कितना
अधिक किराया आ जाता। परंतु नहीं समझ आ रहा था लोगों को पापा जी जो काम कर रहे थे
पैसे के पार की बात है।
लेकिन वो सब समझना
बुझना अब मेरी पहुंच के बाहर होता जा रहा था। गांव वालों की समझ के तो वह पहले ही
बाहर था। उसकी उंचाई इतनी थी कि मैं तो उसे ऊपर सर कर देख भी नहीं सकता था। ऊपर
काले रंग की टाइलें लग रही थी जो कितनी सुंदर दिख रही थी। सूर्य की रोशनी में कैसे
स्वर्ण की तरह चमकती थी। पूर्णिमा की रातों में वह चाँदी का भ्रम पैदा कर रही थी।
जब मैं नीचे से देखता तो उपर बैठे पापा जी कितने छोटे से लगते थे। ऊपर से जब मुझे
बुलाते तो मुझे बहुत गुस्सा आता था। कि खूद तो जाकर आप उपर मजे ले रहे हो मुझे
नीचे छोड़ दिया। और जब वह नीचे आते तो मैं कुछ देर उनसे बात तक नहीं करता था। टाईल
धूप में कैसे चमकती कि उन्हें देखा नहीं जाता था। जब पापा जी नीचे उतर कर आते तो
में गुस्से में पापा जी की छाती पर चढ़ जाता और उनका हाथ पकड़ लेता की मुझे ऊपर क्यों
नहीं ले जाते। मैं भी तो ऊपर से जाकर गांव का नजारा देखना चाहता था। कि दूर—दराज
गांव कैसा लगता है। मेरी नाराजगी को पापा समझ जाते की तुम उपर नहीं जा सकता। और
मुझे खुब प्यार करते परंतु मैं उनके हाथ से छूड़ा कर नाराजगी को दिखाने लग जाता।
पिरामिड में बहार
की टाईल का काम पूरा हो गया था। अब अंदर फर्श के काम का नम्बर था जो सबसे पहले पिरामिड
से शुरू हुआ। पहले कितने दिनों तक तो उसके अंदर शीशे से डिज़ाइन बनाये गये थे।
मुझे अंदर जाने से मना किया जाता था। क्योंकि शीशा एक दम से खड़ा लगाया गया था।
शायद उसके बीच में कुछ मसाला भरा जाये। परंतु मैं कहा मानने वाला था। हर काम को
देखना तो मेरी फितरत में था। कई बार हल्का सा पैर भी कट गया था। इसलिए उसके बाद
पापा जी एक मिस्त्री को बुला कर एक साधारण सा दरवाजा लगवा दिया। ताकि मैं अंदर न
जा सकूं। अब पिरामिड के अंदर काला सफेद बहुत सुंदर रंग का फर्श बनाया जा रहा था।
नीचे की दीवारों पर करीब दस फिट तक काली टाइलें लगाई गई थी। वही टाइल्स जो बाहर
लगाई थी। फर्श तो बन गया परंतु मुझे दिखाई नहीं दे रहा था कि ये क्या बना। अब वो
शीशे जो खड़े किए थे सब मसाले से भर दिए गए थे। इसलिए वहाँ सब एक जैसा लग रहा था।
मैं सोच रहा था की फिर इतनी मेहनत क्यों कि गई।
बाद में जब उस की
घिसाई हुई तब वह सुंदर फर्श दिखाई दिया। सच वह कितना ही सुंदर था। उसे में आपको
शब्दों में नहीं बता सकता। और उसमें एक बात हो हुई बाद में एक ऐसी चीज एक मशीन उस
में लगी जो चलने पर बहुत ठंडी हवा देती थी। धीरे—धीरे में उस ध्वनि को भी समझ
गया। उसका नाम था ए. सी....यानि ठंडी हवा की मशीन। अब तो उसमें जाने के लिए में
तरसता था। क्योंकि उसमें दरवाजा जो लग गया था। तब मैं इस फिराक में रहता था कि
कैसे दरवाजा खुले और मैं फटाक से उसके अंदर जाऊं। ध्यान के समय तो मैं भी एक शरीफ
बच्चे की भांति एक कोने में बैठ जाता था। एक तो वहां की शांति दूसरा उसी ठंडी
मशीन का लालच। दीवार के पास जब मैं चारों टांगे उपर कर के मस्त लेता तो उस सुखद
आनंद को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता।
धीरे—धीरे मेरी इस
उत्सुकता को जब पापा जी ने देखा तो मेरी लिए भी एक दरी बिछा दि गई थी। मैं ध्यान
के उन पलो की शांति और आनंद का सुख लेने लगा था। पिरामिड की बात ही कुछ और थी।
वहां की शांति कहीं बतलाई नहीं जा सकती उसे आप केवल प्राणों से ही महसूस कर सकते
है। वहाँ नींद भी कितनी अजीब सी आती थी। एक बात के लिए मैं सबसे तेज था की अगर हम
अंदर ध्यान कर रहे होते और घर की घंटी बज जाती तो वह केवल मुझे ही सुनाई देती थी।
मेरे भोंकने का वहां बहुत महत्व बढ़ जाता था। सोते हुए भी मेरे कान की इंद्री काम
करती थी। और अंदर जाते हुए मुझे पता चल गया की कोने की बजाए अगर मैं अब एक दम बीच
में लेट जाता तो मुझे ध्यान की अधिक गहराई मिलती थी। इस बात से सबको बहुत ही अचरज
होता था की पोनी बहुत ज्ञानी हो गया है।
बच्चे तो रोज
ध्यान के लिए आ नहीं सकते थे। क्योंकि उस समय वह स्कूल में गये होते थे। परंतु
में तो घर पर ही रहता था। तो अब मेरी सबसे अधिक मोज थी। वहां की हवा वहां की तरंगें
मुझे धीरे—धीरे अंदर तक भेदती जाती थी। मैं धीरे—धीरे खाली हो रहा था। और एक
निर्भरता उसके विस्तार को अनुभव करने लगा था। मुझमें एक ठहराव सा आने लगा था। जब
मैं अंदर आँख बद कर के लेट जाता तो वहां पर कभी भी मुझे गहरी नींद नहीं आती थी। क्योंकि
कहीं एक कोने में जागरण बना रहने लगा था। मन के आंगन के एक कोने में धूप का एक
धब्बा सा बन कर। चिपका रहता था। सचेत मैं पहले भी रहता था। परंतु उस सचेतता और इस
जागरण की में गुणात्मक भेद था। इसमें तनाव नहीं था उसमें एक भय और तनाव साथ-साथ
चलता रहता था। क्योंकि कुदरती तोर पर हम इतना गहरे कभी नहीं सोकते की हमारे सोते
में कोई हमला कर दे। ये एक सुरक्षा का कवच भी था।
इन करोड़ों सालों
की लम्बी प्रक्रिया के बाद का ही तो ये विकास था। और ये जागरण तो मुझे अभी कुछ ही
दिनों से मैं महसूस कर रहा था। वह इतना ताजा था, मानों अभी मेहमान बन
कर खड़ा हुआ है,मेरे सिरहाने। पिरामिड के अंदर इतनी शांति
होती थी की मुझे अपने दिल कि धक—धक भी बहुत जोर से सुनाई देती थी। एक और नई ध्वनि
मुझे सुनाई देने लगी थी....ची...ची...ची.....झींगुर....की कीर....कीर की तरह। शायद
वह मेरे शरीर में दौड़ते खून की गति की ध्वनि थी।
अंदर जब संगीत बजता
और उसके बाद शांति आती तो वह एक नई गहराई साथ लिये हुए आती थी। जो मेरे शरीर के
अंदर अचेत तलों और बाहर मन पर बदलाव करती जा रही थी। उस बतलाओ को मैं साफ—साफ देख
रहा था। जिसे अगर मैं रोकना भी चाहूं तो वह रोक मेरे बस की बात नहीं थी। अंदर की तरंगें
नि-ध्वनी एक,
एक ध्वनि शून्यता अजीब उर्जा मेरे शरीर के अंदर भर रही थी। एक तो वो
संगीत अपने में एक खास किस्म की मधुरता समेटे होता था। दूसरी और एक भय भी मेरे
प्राणों में भरता जा रहा था। उन दोनों को समांतर आते मैं साफ—साफ देख रहा था। शरीर
पर संगीत की छुअन उसका स्पर्श.....ओर अंदर प्राणों में घँसता भय....जो एक तेज
धारदार नोक की तरह घूसे जा रहा था। उस समय मेरे मुख से एक अजीब से
उं....ऊं...ऊं....भय भरी आवाज निकलने लग जाती थी। और साथ में मेरा पूरा शरीर
कांपने भी लग जाता था। मैं उस सब को अंदर से देख रहा होता था। परंतु उसके साथ कुछ
कर भी नहीं पा रहा था। मानो ये मेरा शरीर ही नहीं है। मैं एक परबस सा केवल अंदर से
डर रहा होता था। केवल सुबकी भर मेरे मुख से निकल रही होती, दूसरी
और शरीर भय से कांपता मुझे साफ दिखाई दे रहा होता था। इस घटना के कारण मुझे एक सुख भी मिल रहा होता था। क्योंकि जो
भय मेरे शरीर पर हो रहा था वह मुझे दूर कहीं घटता हुआ दिखाई दे रहा था। मानो वो
मैं नहीं हूं, एक देखने वाला हूं, तब
मुझमें कहां भय ठहरता, चाहे उस शरीर को कट दिया जाये।
दूसरी तरफ वह भय जब
मेरे अंदर धंस रहा होता तो उसके साथ-साथ प्राणों में एक टीस से कांप भी भर रहा
होता था। ठीक इसी समय पापा जी अपना ध्यान छोड़ कर मेरे पास आ कर बैठ जाते और अपने
मुलायम और प्रेम भरा हाथ मेरे शरीर पर हाथ फेरने लग जाते थे। तब मैं अपने अंदर एक
अजीब सा जादू फैलता सा महसूस करता था। मेरा डरना और कांपना कुछ ही समय में बंद हो
जाता था। उसके बाद एक गहरी शांति मेरे तन मन पर छा जाती थी। वह भय और कंपन एक आनंद
की बरसात कर के दूर छिटक गये होता था। मैं लेटा उस आनंद की बरसात में सराबोर होते
अपने को देख रहा होता था। वो क्षण कितना मधुर और आनंद से ओतप्रोत लगते थे। शब्द
उसके लिए बहुत ही कमजोर पड़ रहे थे। असल में जो जितना कीमती अनुभव होता है उसे हम
शब्दों में नहीं बाँध पाते हे।
धीरे—धीरे मेरे साथ
जो घट रहा था। वह निरभेद एक छनिक सा विराम था। एक कोलाहल का अनुछेद था। जो मुझे एक
गहरी और तंग सुरंग से गुजरने का अनुभव जैसा भी लगता था। जो मेरे शरीर से भी तंग
जगह मुझे भीचने के साथ-साथ खींचे भी जा रहा था। और उसमें इसके साथ-साथ एक विरोधाभास
था। वह आगे...ओर—और छोटी होती जा रही थी। तब मन कर रहा था अब बस आंखें खोल लूं या
यहां से भाग जाऊं। शायद यह वह स्थान है जब मानव उस भय के कारण अंदर जाने से रूक
जाता है। यही वह समय है जब साधना में गुरु की जरूरत होती है, एक
सहारे की एक विश्वास की जिस पर आपका पूर्ण भरोसा हो। जिस के लिए आप सब छोड़ सकते
है। अपने होने या न होने का उस सब के लिए कोई महत्व नहीं होता। उसी का नाम समर्पण
कहा जाता होगा। कितनी कम भाग्य शाली लोग होगे जो गुरु के हाथ में अपना हाथ ही नहीं
देते होगे की मैं नहीं अब आप ही आप है। अपने को पूर्ण छोड़ देना जितना सरल दिखता
है उतना सरल है नहीं। परंतु मैंने देखा की मम्मी पापा मेरे साथ है और उनके हाथ भर
रखने से मेरा शरीर एक दम शांत हो जाता है। उनकी इस छुअन के बाद मुझे किस बात का भय
नहीं रहता था। क्या डरना और क्यों डरना सब एक दम से तिरोहित हो जाता था। तब मेरे
अंदर एक अलग ही हिम्मत आ जाती थी। और शायद ये निर्भयता ही आगे साधक का द्वार
खोलती चली जा रही थी।
वो रास्ता जो इतना
तंग लग रहा था जिसमें मेरा मुंह भी नहीं समा सकता था मैं क्या देखता हूं कि मैं
जितना अंदर जा रहा हूं वह रास्ता मेरे शरीर से उतना ही दूर होता जा रहा है। वह
मुझे छूना तो दूर मैं उसकी बढ़ती दूरी को देखता रह जाता था। कि शायद मेरे आस पास
100 हाथी भी और हो तो वह उसमें से आराम से गुजर जाते। तब मेरा भय पल भर में काफूर
हो जाता। सच जीवन में जो क्षण मैंने देखे, जीये और जाने उनकी कोई कीमत
नहीं लगाई जा सकती थी वो अनमोल थे। वह इस घर के अलावा में कितने ही जन्म क्यों न
कहीं ओर ले लेता तो उन्हें जान नहीं सकता था।
इस सब के बाद मेरे
जीवन में कुछ—कुछ परिवर्तन शुरू हो गये....अब मेरी भूख बहुत कम होती जा रही थी। या
यू कहो की भूख कम लगने लगी। हमेशा मेरे अंदर एक खुशी भरी रहती थी। लगता था पेट भरा
हुआ है तब नाहक क्यों बोझ और भरा जाए। जब में पिरामिड के अंदर होता और घर की घंटी
बजती तब मैं अपने स्वभाव के अनुसार जरूर भौंकता था....इस सब के लिए मुझे कई बार
डांट भी खानी पड़ी थी। परंतु पहले मैं चाहकर भी चुप नहीं रह सकता था। भोंकना मेरे
अंदर से आता था। मैं तो केवल एक मशीन की तरह होता था। लेकिन अब एक चमत्कार की मैं
मजे से उस बजती घंटी को सुनता और अपने शरीर पर गहरे से उठ रही उस भोंकने की तरंग
को उठते देख पा रहा होता था। मैं उससे मुंह फेर लेता और चित का गियर बदल देता तब
वह लहर अचानक विलीन हो जाती।
कितना चमत्कारी
क्षण होता था वह। आप अपने मालिक खुद हो गये। और पहले मेरी वजह से सबका ध्यान भंग
होता था। और मेरे इस तरह से भौंकने के कारण अंदर डूबे साधक जरूर ही कंपा जाते
होंगे। क्योंकि आस पास फैली शांति को मैंने भंग कर दिया था। परंतु पहले मैं मजबूर
था कुछ भी नहीं कर सकता था। इस सब से बचने के लिए तो मैंने कितनी ही बार पिरामिड
में न जाने का मन बना लिया था। परंतु उसके अंदर फैली शांति में एक घंटा गुजारने के
लालच को में छोड़ नहीं पा रहा था। लेकिन अब इस घटना के बाद तो कितना आनंद आया। उस
दिन मम्मी पापा ने मेरे पास आकर जिस तरह से मुझे सहलाया मैं समझ गया। आज मेरा एक
द्वार खुल गया .....एक पड़ाव को मैं पार कर गया। मेरे जीवन की उर्जा ने एक नये
आयाम को चूम लिया है। और जब आप किसी एक तल से अचानक दूसरे तल पर अपनी उर्जा हाँ
हस्तांतरण होते हुए देखते है। तब आपके जीवन में एक अभूतपूर्व परिवर्तन होना शुरू
हो जाता है।
और ऐसा हुआ यहीं से
मेरे जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया था। अब तो ध्यान में जाना बहुत ही सुखद अनुभव
बन गया था। जीवन में एक सहजता आ गई थी एक ठहराव आ गया था। परंतु ऐसा नहीं था कि
मुझे कुत्ता होना चुभ रहा था। कि काश मैं मनुष्य होता। परंतु मनुष्य का समान
होने की चाह मेरे भीतर कहीं कुरेदनी शुरू हो गई थी। एक छलांग का साहस मन में भरता
जा रहा था कि मैं क्यों नहीं इसे पार कर सकता। और एक संकल्प उठ रहा था कि मैं भी
इस को भेदूंगा इसे प्राप्त करूंगा। यहीं तो है शायद चेतना का विकास जो प्रत्येक
प्राणी का मूलभूत अधिकार है। परंतु प्रकृति अपने सहज नियम से करती है। और हम उसमें
सहयोग देकर उस संग साथ में रह बैठ कर उसकी गति को बढ़ा सकते है। साहास और संग से
जिसे हम अर्जित करते है,
उस का नाम क्रांति है। प्रकृति प्रेम का नाम विकास है। और इस स्थान
और मानव के संग रह कर लगभग ये संभावना मेरे अंदर भरती जा रही थी। मैं एक उतुंग
छलांग लूं गा...वो तो लेनी ही होगी। ये स्वर्णिम अवसर बार-बार प्रकृति मुझे नहीं
देने वाली। मत चूक ...पोनी इसे पा ले। बस यही एक भाव मेरे अंदर तैरता रहता था।
भू..... भू......
भू.....
आज इतना ही।

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