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सोमवार, 12 अप्रैल 2010

भरत एक सनातन यात्रा--मां काली—जगदम्बा -भाग -2

मां काली—जगदम्‍बा
     सलिए खार कर यहूदी परंपराएं, ज्‍युविश परंपराएं—यहूदी, ईसाई और इसलाम, तीनों ही ज्युविश परंपराओं का फैलाव हैं—उन्‍होंने जगत को एक बड़ी भ्रांत धारणा दी, गॉड दि फादर।  यह धारणा बड़ी खतरनाक है। पुरूष के मन को तृप्‍त करती है। क्‍योंकि पुरूष अपने को प्रतिष्‍ठित पाता है। परमात्‍मा के रूप में। लेकिन जीवन के सत्‍य से उस बात का संबंध नहीं है। ज्‍यादा उचित एक जागतिक मां की धारणा है। पर वह तभी ख्‍याल में आ सकेगी, जब स्‍त्रैण रहस्‍य को आप समझ लें, लाओत्‍से को समझ लें। अन्‍यथा समझ में न आ सकेगी।
      कभी आपने देखा है काली की मूर्ति को, वह मां है और विकराल, मां है और हाथ में खप्‍पर लिए है। आदमी की खोपड़ी का। मां है, उसकी आंखों में सारे मातृत्‍व का सागर। और नीचे, वह किसी की छाती पर खड़ी है। पैरों के नीचे कोई दबा हे। क्‍योंकि जो सृजनात्मक है, वहीं विध्‍वंसात्‍मक होगा। क्रिएटिविटि का दूसरा हिस्‍सा डिस्ट्रैक्शन है। इसलिए बड़ी खूबी के लोग थे। जिन्‍होंने यह सोचा, बड़ी इमेज नेशन के, बड़ी कल्‍पना के लोग थे। बड़ी संभावनाओं को देखते थे। मां को खड़ा किया है, नीचे लाश की छाती पर खड़ी है। हाथ में खोपड़ी है आदमी की मुर्दा। खप्‍पर है, लहू टपकता है। गले में माला है खोप डियो की। और मां की आंखे है और मां का ह्रदय है, जिनसे दूध बहे। और वहां खोपड़ियो की माला टंगी है।
      असल में जहां से सृष्‍टि पैदा होती है। वहीं प्रलय होता है। सर्किल पूरा वहीं होता है। इसलिए मां जन्‍म दे सकती है। लेकिन मां अगर विकराल हो जाती है। शक्‍ति उसमें बहुत है। क्‍योंकि शक्‍ति तो वहीं  है, चाहे वह क्रिएशन बने और चाहे डिस्ट्रैक्शन बने। शक्‍ति तो वहीं है, चाहे सृजन हो या विनाश हो। जिन लोगों ने मां की धारणा के साथ सृष्‍टि और विनाश, दोनों को एक साथ सोचा था, उनकी दूरगामी कल्‍पना है। लेकिन बड़ी गहन और सत्‍य के बड़े निकट।
      लाओत्‍से कहता है, स्‍वर्ग और पृथ्‍वी का मूल स्‍त्रोत वहीं है। वहीं से सब पैदा होती है। लेकिन ध्‍यान रहे, जो मूल स्‍त्रोत होता है,वही चीजें लीन हो जाती हे। वह अंतिम स्‍त्रोत भी होता है।
ओशो—( ताओ उपनिषद-1, प्रवचन—18 )

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