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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

तीर्थ--परम की गुह्य यात्रा--भाग-1

प्रशांत महासागर में एक छोटे से द्वीप पर, ईस्‍टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है। जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्‍या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से भी बड़ी विशाल मूर्तियां है। जब पहली दफा इस छोटे से द्वीप का पता चला तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए...ओर ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्‍यादा रही हो। क्‍योंकि उस द्वीप की सामर्थ्‍य ही नहीं है इससे ज्‍यादा लोगों के लिए जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्‍यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्‍थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। एक आदमी के पीछे पाँच मूर्तियां हो गयीं। और इतनी बड़ी मूर्तियां ये दो सौ लोग खोदना भी चाहें तो नहीं खोद सकते है। इतना महंगा काम ये गरीब आदिवासी करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते। इनकी जिंदगी तो सुबह से सांझ तक रोटी कमाने में ही व्‍यतीत हो जाती है। और इन मूर्तियों को बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे।
      क्‍या प्रयोजन होगा इतनी मूर्तियों का? किसने इन मूर्तियों को बनाया होगा, इतिहासविद् के सामने बहुत से सवाल थे।
      ऐसी ही एक जगह मध्‍य एशिया में है। और जब तक हवाई जहाज नहीं अपलब्‍ध था, तब तक उस जगह को समझना बहुत मुश्‍किल पडा। हवाई जहाज के बन जाने के बाद ही यह ख्‍याल में आया, कि वह जगह कभी जमीन से हवाई जहाज उड़ने के लिए एयरपोर्ट का काम करती रही होगी। उस तरह की जगह के बनाने का और कोई  प्रयोजन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह हवाई जहाज के उड़ने और उतरने के काम में आती रही हो। फिर वह जगह नहीं है। उसको बने हुए अंदाजन बीस हजार और पंद्रह हजार वर्ष के बीच को वक्‍त हुआ होगा। लेकिन जब तक हवाई जहाज नहीं बने थे तब तक तो हमारी समझ के बाहर की बात थी। हवाई जहाज बने, और हमने एयरपोर्ट बनाए, तब हमारी समझ में आया कि कभी एयरपोर्ट के काम की होगी ये जगह। जब तक यह नहीं था। तब तक तो सवाल ही नहीं उठता था। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि तीर्थ को हम न समझ पाएंगे जब तक कि तीर्थ पुन: आविष्‍कृत न हो जाए।
      अब जाकर उन ईस्‍टर आईलैंड की मूर्तियों है, उनके जो एयरव्‍यु, आकाश से हवाई जहाज के द्वारा जो चित्र लिए गये उनसे अंदाज लगया है कि वह इस ढंग से बनायी गई है, और इस विशेष व्‍यवस्‍था में बनाई गई है कि किन्‍हीं खास रातों में चाँद पर से देखा जा सकें। वह जिस ज्योमैट्री के जिन कोणों में खड़ी की गयी है, वह कोण बनाती है पूरा का पूरा। और अब जो लोग उस सबंध में खोज करते है, उनका ख्‍याल यह है कि यह पहला मौका नहीं है कि हमने दूसरे ग्रहों पर जो जीवन है, उसके संबंध स्‍थापित करने की कामना की है। इसके पहले भी जमीन पर बहुत से प्रयोग किए गए, जिनसे हम दूसरे ग्रहों पर अगर कोई जीवन, कोई प्राणी हो  तो उससे हमारा संबंध स्थापित हो सके। और दूसरे प्राणी-लोको से भी पृथ्‍वी तक संबंध स्‍थापित हो सकें, इसके बहुत से सांकेतिक इंतजाम किए है।
      यह जो बीस तीस फीट ऊंची मूर्तियां हे। ये अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है। लेकिन जब ऊपर से उड़कर उनके पूरे पैटर्न को देखा जाए, तब इनका पैटर्न किसी संकेत की सूचना देता है। वह संकेत चाँद से पढ़ा जा सकता है। पर जिन लोगों ने यह बनाया होगा—जब हम हवाई  जहाज में उड़कर न देख सके, तब तक हम कल्‍पना भी नहीं कर सकेंगे...तब तक वह हमारे लिए मूर्तियों से अधिक कुछ नहीं थी। ऐसी इस पृथ्‍वी पर बहुत सी चीजें है, जिनके संबंध में तब तक हम कुछ भी नहीं जान पाते, जब तक की किसी रूप में हमारी सभ्‍यता, उस घटना का पुन: आविष्‍कार न कर ले।
      अभी मैं दो तीन दिन पहले बात कर रहा था। तेहरान में एक छोटा सा लोहे का डिब्बा मिला था। फिर वह ब्रिटिश म्यूजियम में पडा रहा। ये कोई वर्षो उसने प्रतीक्षा की उस डिब्‍बे ने। वह तो अभी-अभी जाकर पता चला कि वह बैट्री है जो दो हजार साल पहले तेहरान में उपयोग में आती रही। मगर उसकी बनावट का ढंग ऐसा था। कि ख्‍याल में नहीं आ सका। लेकिन अब तो उसकी पूरी  खोज-बीन हो गई है। तेहरान में दो हजार साल पहले बैट्री हो सकती है। इसकी हम कल्‍पना नहीं कर सकते। इसलिए कभी सोचा नहीं इस तरह लेकिन अब तो उसमें पूरा साफ हो गया है। कि वह बैट्री ही है। पर अगर हमारे पास बैट्री न होती तो हम किसी भी तरह से इस डिब्‍बे को बैट्री खोज नहीं पाते। ख्‍याल भी नहीं आता, धारणा भी बनती।
      तीर्थ पुरानी सभ्‍यता के खोजें हुए बहुत-बहुत गहरे, संकेतिक, और बहुत अनूठे आविष्‍कार है। लेकिन हमारी सभ्‍यता के पास उनको समझने के सब रूप खो गए है। सिर्फ एक मुर्दा व्‍यवस्‍था रह गई है। हम उसको ढोए चले जा रहे है। बिना यह जाने कि वह क्‍यों निर्मित हुए, क्‍या उनका उपयोग किया जाता रहा। किन लोगों ने उन्‍हें बनाया क्‍या प्रयोजन था? और जो ऊपर से दिखाई पड़ता है वही सब कुछ नहीं है, भीतर कुछ और भी है जो ऊपर से कभी भी दिखाई नहीं पड़ता।
      पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि हमारी सभ्‍यता ने तीर्थ का अर्थ खो दिया है। इसलिए जो आप तीर्थ को जाते है वह भी करीब-करीब व्‍यर्थ जाते है। जो उसका विरोध करते है वह भी करीब-करीब व्‍यर्थ विरोध करते है। बल्‍कि विरोध करने वाला ही ठीक मालूम पड़ता है। वह भी ना समझ होने पर समझदार मालूम होता है। सही बात का उसे भी कुछ पता नहीं है। वह जिस तीर्थ का विरोध कर रहा ळ वह तीर्थ की धारणा नहीं है। यद्यपि वह तीर्थ जानेवाला जिस तीर्थ में जा रहा है वह भी तीर्थ की धारणा नहीं है। तो चार-पाँच चीजें पहले ख्‍याल में लेनी चाहिए।
      एक तो जैसे कि जैनों का तीर्थ है—सम्मत शिखर। जैनों के चौबीस तीर्थकर में से बाईस तीर्थ करों का समाधि स्‍थल है वह चौबीस में से बाईस तीर्थ करों ने सम्‍मेत शिखर पर शरीर विसर्जन किया है—आयोजित थी वह व्‍यवस्‍था। अन्‍यथा एक जगह पर जाकर इतने तीर्थ करों का चौबीस में से बाईस का जीवन अंत होना आसान मामला नहीं है। बिना आयोजन के। एक ही स्‍थान पर हजारों साल के लंबे फासले में अगर हम जैनों का हिसाब मानें और मैं मानता हूं कि हमें  जहां तक बन सके, जिसका हिसाब हो उसका मानने की पहले कोशिश करनी चाहिए, तब तो लाखों वर्षो का फासला है—उनके पहले तीर्थकर में और चौबीसवे तीर्थकर में। लाखों वर्षो के फासले पर एक ही स्‍थान पर बाई तीर्थ करों का जाकर शरीर को छोडना विचारणीय है।.......अगले भाग में...........
--ओशो (मैं कहता हुं  आंखन देखी)

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