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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

तीर्थ--6 (गंगा अल्‍केमी का प्रयोग)


       जैसे रात को आपको नींद आती है। रोज आप दस बजे सोते है, दस बजे नींद आने लगेगी। अगर आप टीक जाएं दस बजे और सोने से मना कर दें, तो आप आधा घंटे में..होना तो यह चाहिए था कि नींद और जो से आए। लेकिन आधा घंटे में यह होगा की अचानक अप पाएंगे कि सुबह से भी ज्‍यादा क्रैश हो गए है। और अब नींद आना मुश्‍किल हो जाएगी। यह जो प्वाइंट था। जहां से आप अपनी स्‍थिति में वापस गिर सकते थे, अगर सो गए होते तो....तब आप कंटीन्‍यु रखे होते ..। आपने भीतर की व्‍यवस्‍था तोड़ दी।
      तो शरीर से नया शक्‍ति वापस आ गयी। शरीर ने देख लिया कि आप सोने की तैयारी नहीं कर रहे। जागना ही पड़ेगा। तो शरीर के पास जो रिजर्व है जहां वह शक्‍ति संरक्षित है। जरूरत के वक्‍त के लिए वह अपने छोड़ दी और आप ताजे हो गए। इतने ताजे जितने आप सुबह भी ताजे नहीं थे।


 
   अब एक आदमी ऊब गया है। एक हजार दफा पानी को बदल चुका है। कहते है उसका गुरु कह रहा है। लाख दफा बदलना है दस लगें
, पंद्रह साल लगें, कि कितने साल लगें। वह ऊब गया है। लेकिन बदले चला जा रहा है। बदले चला जा रहा है। एक घड़ी आएगी जब कि उसे ऐसा लगेगा कि अब अगर मैंने एक दफ़ा और बदला तो मैं गिरकर मर ही जाऊँगा। अब बहुत हो गया। इसको अब मैं न सह सकूंगा। लेकिन उस का गुरु कह रहा है। बदले जाओ। और वह  बदलता ही चला जाता है। और लोटता नहीं है।
            उसका ये पानी तो इधर परिवर्तित हो ही रहा है। उसकी चेतना भी भीतर परिवर्तित होती हे। और फिर इस विशिष्‍ट पानी के प्रयोग से चेतना में परिणाम होते है। जैसे गंगा का जो पानी है। अभी तक साफ़ नहीं हो सका की उसमें इतनी विशेषतायें क्‍यों है। विज्ञानिक तरीके से भी जानने के बाद। माना की दुनिया की दुनियां के नदियों के पानी में न हो, लेकिन गंगा की बिलकुल बगल से जो नदिया निकलता है। उस के पानी में भी नहीं है। ठीक उसी पहाड़ से जो नदी निकलती हे। उसके पानी में नहीं। एक ही बादल दोनों नदियों में पानी गिराता हे।  और एक ही पहाड़ की बर्फ पिघलकर दोनों नदियों में जाती है। फिर भी उस पानी में वह क्वालिटी नहीं है। जो गंगा के पानी में है।
      अब इस बात को सिद्ध करना मुशिकल होगा। कुछ बातें है जिनको सिद्ध करना एकदम मुश्‍किल है। लेकिन पूरी गंगा अल्क मिस्ट को प्रयोग है, पूरी की पूरी गंगा। इसको सिद्ध करना मुश्‍किल होगा। मैं आपसे कहता हूं,और बहुत सी बातें जो में कह रहा हूं उसमें से बहुत सी बातें सिद्ध करना मुश्‍किल होगी। पूरी गंगा साधारण नदी नहीं है। पूरी की पूरी गंगा को अल्‍केमिकली शुद्ध करने की चेष्‍टा की गयी है। और इसलिए हिंदुओं ने सारे तीर्थ उसने गंगा के किनारे निर्मित किए है।
      एक महान प्रयोग था गंगा को एक विशिष्‍टता देने का। जो कि दुनिया की किसी नदी में नहीं है। अब तो कैमिस्ट भी राज़ी है कि गंगा का पानी विशेष है। किसी नदी का पानी रख लें,सड़ जायेगा। गंगा का पानी वर्षों नहीं सड़े गा। सड़े गा ही नहीं, सड़ता ही नहीं। इसलिए गंगा जल आप मजे से रख सकते है। उसके पास आप किसी दुसरी बोतल में पानी भरकर रख दें,वह पंद्रह दिन में सड़ जायेगा। पर गंगा जल अपनी पवित्रता और शुद्धता को पूरा कायम रखेगा। किसी जल में भी आप लाशें डाल दें, वह नदी गंदी हो जायेगी। गंगा कितनी ही लाशों को हजम कर जाएगी और कभी गंदी भी नहीं होगी।
      एक और हैरानी की बात है, कि हड्डी साधारणत: नहीं गलती , पर गंगा में गल जाती है। गंगा पूरा पचा डालती है, कुछ भी नहीं बचता उसमें। सभी लीन हो जाता है पंच तत्‍व में। इसलिए गंगा में फेंकने का लाश को आग्रह बना। क्‍योंकि बाकी सब जगह से पूरे पंच तत्‍वों में लीन होने में सैकड़ों, हजारों और कभी लाखों वर्ष लग जाते है। गंगा का समस्‍त तत्‍वों में वापस लौटा देने के लिए बिलकुल केमिकल काम है। वह निर्मित इसलिए की गई,वह पूरी की पूरी नदी साधारण पहाड़ से बही हुई नदी नहीं है। बहाई गयी नदी है। पर वह हमारे ख्‍याल में नहीं आ सकता। और गंगो त्री को यात्री बहुत छोटी-सी जगह है। जहां से गंगा बहती है।
      बड़े मजे की बात यह है कि जहां गंगा त्री को यात्री नमस्‍कार करके लोट आते है। वह फाल्‍स गंगो त्री है। वह सही गंगो त्री नहीं है। सही को सदा बचाना पड़ता है। वह सिर्फ शो है, वह सिर्फ दिखावा है जहां से यात्री को लौटा दिया जाता है। और यात्री नमस्‍कार करके लोट आता है। सही गंगा त्री को तो हजारों साल से बचाया गया है। और इस तरह निर्मित किया गया है कि वहां साधारण पहुंचना संभव नहीं है। सिर्फ एस्‍ट्रल ट्रैवलिंग हो सकती है। सही गंगा त्री  पर, सशरीर पहुंचना संभव नहीं है।
      जैसा मैंने कहा कि सूफियों का अल्‍कुफा है। इसमें सशरीर जा सकता है। इसलिए कभी कोई भूल-चूक से भी पहुंच सकता है। यानी चाहे कोई खोजने वाला न पहुंच सके, क्‍योंकि खोजने वाले को अप धोखा दे सकते है। गलत नक्‍शे पकड़ा सकते है। लेकिन जो खोजने नहीं निकला है, आकारण पहुंच जाए तो उसको आप धोखा नहीं दे सकते। वह पहुंच सकता है। लेकिन गंगो त्री पर पहुंचने के लिए सिर्फ सूक्ष्‍म शरीर में ही पहुंचा जा सकता है। इस शरीर में से नहीं पहुंचा जा सकता है। इस तरह का सारा इंतजाम है। गंगो त्री का दर्शन सशरीर कभी नहीं किया जा सकता,वह एस्‍ट्रल ट्रैवलिंग है।
      ध्‍यान में इस शरीर को यहीं छोड़कर यात्रा की जा सकती है। और जब कोई गंगो त्री को देख ले, एस्ट्रल ट्रैवलिंग में, तब उसको पता चले कि गंगा की पूजा का राज क्‍या है। इसलिए मैंने कहा कि सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जिस जगह से वह गंगा वह जगह बहुत ही विशिष्‍ट रूप से निर्मित है। और वहां से जो पानी प्रवाहित हो रहा है वह अल्केमिकली है। उस अल्केमिकली धारा के दोनों तरफ हिंदुओं ने अपने तीर्थ खड़े किए हे।
      आप यह जान कर हैरान होंगे कि हिंदुओं के सब तीर्थ नदी के किनारे है और जैनों के सब तीर्थ पहाड़ों पर है। जैन उस पहाड़ पर ही तीर्थ बनाएँगे जो बिलकुल रूखा हो जि पर हरियाली भी न हो, हरियाली वाले पहाड़ पर वह न चढ़ेंगे। हिमालय जैसा बढ़िया पहाड़ जैनों ने बिलकुल छोड़ दिया। अगर पहाड़ ही चुनना था तो हिमालय से बेहतर कुछ भी न था। पर हिमालय को बिलकुल छोड़ दिया। उन्‍हें सूखा पहाड़ा चाहिए, खुला पहाड़ चाहिए, कम से कम हरियाली हो कम से कम पानी हो। क्‍योंकि जैन जिस अल्‍केमी का प्रयोग कर रहे थे, वह अल्‍केमी शरीर के भीतर जो ‘’अग्नि तत्‍व’’ है। उससे संबंधित है। और हिंदू जो प्रयोग कर रहे थे वह अल्‍केमी के भीतर जो ‘’पानी तत्‍व’’ है, उससे संबंधित है। दोनों की अपनी कुंजियां है, और अलग है।
      हिंदू तो सोच ही नहीं सकता कि नदी के बिना कैसे तीर्थ हो सकता है। नदी के बिना तीर्थ होने का कोई अर्थ हिंदुओं की समझ में नहीं आता है। हरियाली और सौंदर्य और इस सबके बिना तीर्थ हो सकता है, उसकी समझ के बाहर की बात है। वह जिस तत्‍व पर काम कर रहा था। वह जल है। इसलिए उसके सब तीर्थ जल आधारित है, जल से निर्मित है।   
      जैन जो मेहनत कर रहा था उसका मूल तत्‍व अग्‍नि है। इसलिए तप पर बहुत जोर है। इधर हिंदू शास्‍त्र और हिंदू साधु का जोर बहुत भिन्‍न है। हिंदू साधना का सूत्र यह है कि संन्‍यासी को योगी को दूध, घी, दही, पनीर, इनकी पर्याप्‍त मात्रा का उपयोग करना चाहिए। ताकि भीतर आर्द्रता रहे—सूखापन न आ सके। भीतर सूखापन आ जायेगा तो उसकी ‘’की’’ काम नहीं कर सकेगी—वह आर्द्र रहे।
      जैन की सारी की सारी चेष्‍टा यह है कि भीतर सब सूख जाए, आर्द्रता रहे ही नहीं। इसलिए अगर जैन मुनि ने स्‍नान भी बंद कर दिया। जो उसके कारण है। उतना भी पानी का उपयोग नहीं करना। अब आज वह सिवाय गंदगी के कुछ नहीं दिखायी पड़ेगा। यह जैन मुनि भी नहीं बता सकता कि वह किस लिए नहीं नाह रहा है। काहे के लिए परेशान है वह बिना नाहये, या क्‍यों चोरी से स्‍पंज कर रहा है। लेकिन जल में उसकी ‘’की’’ नहीं है, उसकी कुंजी नहीं है।
      पंच महा भूतों में उनकी कुंजी है, वह है—तप, वह है—अग्‍नि। तो सब तरफ से भीतर अग्‍नि को जगाना है। उपर से पानी डाला तो उस अग्‍नि को जगना मुशिकल हो जाएगा। इसलिए सूखे पहाड़ पर जहां हरियाली नहीं पानी नहीं, जहां सब तप्‍त है, वहां जैन साधक खड़ा है। वह धीरे-धीरे पत्‍थरों में खड़ा रहेगा। जहां सब बाहर भी सूखा है।
      दुनिया में सब जगह उपवास है, लेकिन सिर्फ जैनों को छोड़कर उपवास में पानी लेने की मनाही कोई नहीं करेगा। सब दुनियां उपवास में सब चीजें बंद कर दो, पानी जारी रखो। सिर्फ जैन है, जो उपवास में पानी का भी निषेध करेंगे। पानी भी नहीं। साधारण गृहस्‍थ यही समझता हे कि रात्रि का पानी इसलिए त्‍याग करवाया जा रहा है कि पानी में कहीं कोई कीड़ा मकोड़ा न मिल जाए, कोई फलां न हो जाए। पर उससे कोई लेना-देना नहीं। असल में अग्नि तत्व की कुंजी के लिए तैयारी करवायी जा रही हे।
      और बड़े मजे कि बात हे। कि अगर पानी कम कर दिया जाए, अगर कम से कम न्‍यूनतम, जितना महावीर की चेष्‍टा है उतना पानी लिया जाए, तो ब्रह्मचर्य के लिए अनूठी सहायता मिलती हे। क्‍योंकि वीर्य सूखना शुरू हो जाता है। और अंतर-अग्‍नि के जलाने के , जो इसके संयुक्‍त प्रयोग है वह बिलकुल सुखा डालते है। जरा-सी भी आर्द्रता वीर्य को प्रवाहित करती है। यह उनकी कुंजी है। जैनों ने सारे के सारे अपने तीर्थों का र्निमार्ण नदियों से दूर किया है। फिर नकल में कुछ पीछे के तीर्थ खड़े कर लिए, उनका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आथेंटिक नहीं है।
      जैन आथेंटिक तीर्थ पहाड़ पर होगा। हिंदू आथेंटिक तीर्थ नदी के किनारे होगा। हरियाली में होगा, सुंदर जगह होगा। जैन जो भी पहाड़ चुनें गे वह  कई हिसाब से कुरूप होगा। क्‍योंकि पहाड़ का सौंदर्य उसकी हरियाली के साथ खो जाता है। वे स्‍नान नहीं करेंगे, दातुन नहीं करेंगे। इतना कम पानी का उपयोग करना है कि दातुन भी नहीं करेंगे। अगर वह पूरी बात समझ ली जाए उनकी, तो फिर उनके जो सूत्र है वह कारगर होंगे, नहीं तो नहीं कारगर होंगे। उन सूत्रों की साधना से भीतर की अग्‍नि भड़कती है और भीतर की अग्‍नि के भड़काने का यह निगेटिव उपाय है कि पानी का संतुलन तोड़ दिया जाए।
      इन सारे तत्‍वों का भीतर ऐ बैलेंस है। इन मात्रा में भीतर पानी, इन मात्रा में अग्‍नि , इन से बैलेंस है। अगर आपको एक तत्‍व से यात्रा करनी है तो बैलेंस देना पड़ेगा और विपरीत से तोडना पड़ेगा। जो भी अग्‍नि पर मेहनत करेगा वह पानी का दुश्‍मन हो जाएगा। क्‍योंकि पानी जितना कम हो जाए उसके भीतर उतना उस अग्‍नि का संचार हो जाए।
      गंगा एक अल्‍केमिक प्रयोग है, एक बहुत गहरा रासायनिक प्रयोग है। इसमें स्‍नान करके व्‍यक्‍ति तीर्थ में प्रवेश करेगा। इसमे स्‍नान के साथ ही उसके शरीर के भीतर के पानी का जो तत्‍व है वह रूपांतरित होता है। वह रूपांतरण थोड़ी देर ही टिकेगा, लेकिन उस थोड़ी देर में अगर ठीक प्रयोग किए जाएं तो गति शुरू हो जाएगी। रूपांतरण तो थोड़ी देर में विदा हो जाएगा लेकिन गति शुरू हो जाएगी।  
      और ध्‍यान रहे जिसने एक बार गंगा के पानी को पीकर जीना शूर कर दिया वह फिर दूसरा पानी नहीं पी सकेगा। फिर बहुत कठिनाई हो जाएगी, क्‍योंकि दूसरा पानी फिर उसके लिए हजार तरह की अड़चनें पैदा करेगा। और भी बहुत जगह इस तरह गंगा जैसी गंगा पैदा करने की कोशिशें की गई लेकिन कोई भी सफल नहीं हुई। बहुत नदियों में प्रयोग किए है, वह सफल नहीं हो सके, क्‍योंकि पूरी कुंजियां खो गयी हे। लोगों को थोड़ा ख्‍याल होगा की क्‍या किया गया होगा। पर मैं नहीं जानता, कितने लोगों को ख्‍याल है। शायद ही दो चार आदमी हों, जिनको ख्‍याल हो कि अल्‍केमी का इतना बड़ा प्रयोग हो सकता हे।     
      गंगा में स्‍नान, तत्‍काल प्रार्थना या पूजा या मंदिर में प्रवेश, या तीर्थ में प्रवेश, यह पदार्थ का उपयोग है अंतर-यात्रा के लिए। तीर्थ में और सब तरह के पदार्थों का भी उपयोग है।
ओशो—(मैं कहता आंखन देखी)

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