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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

एक यहूदी लोक कथा—(गधे की कब्र)

एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्‍न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्‍न था। गधे के साथ, अब उसे पेदल यात्रा न करनी पड़ती थी। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था। और गधा बड़ा स्‍वामीभक्‍त था।
      लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा और मर गया। दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी, और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।
  

   उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी है। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे
, उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ायेबंजारे को हंसी भी आई आयी। लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालुमन पडा।  और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्‍यवसाय है।
      फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी। और गधे की कब्र किसी पहूंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।     
      फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था। वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, ऐ महान आत्‍मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना। वह गया देखा उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, किसकी कब्र है यहा, और तू यहां बैठा क्‍यों रो रहा है। उस बंजारे ने कहां, अब आप से क्‍या छिपाना, जो गधा आप ने दिया था। उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया और मर कर और ज्‍यादा साथ दे रहा है। सुनते ही फकीर खिल खिलाकर हंसाने लगा। उस बंजारे ने पूछा आप हंसे क्‍यों? फकीर ने कहां तुम्‍हें पता है। जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भीएक पहूंचे हएं महात्‍मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है। बंजारे ने पूछा वह किस महात्‍मा की कब्र है। तुम्‍हें मालूम है। उसने कहां मुझे कैसे नहीं, पर क्‍या आप को मालूम  है।  नहीं मालूम हो सकता वह इसी गधे की मां की कब्र है।
      धर्म के नाम पर अंधविश्‍वासों का बड़ा विस्‍तार है। धर्म के नाम पर थोथे, व्‍यर्थ के क्रियाकांड़ो, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्‍तार है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्‍किल हो जाता है। जो बात लोगों के मन में बैठ गयी। उसे मिटाना मुश्‍किल हो जाता है। और इसे बिना मिटाये वास्‍तविक धर्म का जन्‍म नहीं हो सकता। अंधविश्‍वास उसे जलने ही न देगा।
      सभी बुद्धिमान व्‍यक्‍तियों के सामने यही सवाल थे। और दो ही विकल्‍प है। एक विकल्‍प है नास्‍तिकता का, जो अंधविश्‍वास को इन कार कर देता है। और अंधविश्‍वास के साथ-साथ धर्म को भी इंकार कर देता है। क्‍योंकि नास्‍तिकता देखती है इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्‍वास खड़े होते है। तो वह कूड़े-कर्कट को तो फेंक ही देती है। साथ में उस सोने को भी फेंक देती है। क्‍योंकि इसी सोने की बजह से तो कूड़ा कर्कट इक्‍कठ होता हे। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
--ओशो (जिन सुत्र—भाग-2, प्रवचन--3)
     

     

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