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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

तीर्थ: सम्माद शिखर भाग--3

तीर्थों को बनाने का एक तो प्रयोजन यह था कि हम इस तरह से चार्जड़, ऊर्जा से भरे हुए स्‍थल पैदा कर लें जहां से कोई भी व्‍यक्‍ति सुगमता से यात्रा कर सके। करीब-करीब वैसे ही है जैसे—एक तो होता है कि हम नाव में पतवार लगाकर और नाव को खै वें। दूसरा यह होता है कि हम पतवार को चलाएँ ही न, नाव के पाल खोल दे और उचित समय पर, और उचित समय और उचित हवा की दिशा में नाव को बहने दें। तीर्थ वैसी जगह थी, जहां से कि चेतना की एक धारा अपने आप प्रवाहित हो रही हो। जिसको प्रवाहित करने के लिए सदियों से मेहनत कि गई हो। आप सिर्फ उस धारा में खड़े हो जाएं और आपकी चेतना का पाल तन जाए और आप एक यात्रा पर निकल जाएं। जितनी मेहनत आपको अकेले में करनी पड़े उससे बहुत अल्‍प मेहनत में यात्रा संभव हो सकती है। 
      विपरीत स्‍थल पर खड़े होकर यात्रा अत्‍यंत कठिन भी हो सकती है। हवाएँ जब उल्‍टी तरफ बह रही हो और आप पाल खोल दें, तो बजाय इसके कि आप पहुंचे ओर भटक जाएं, इसकी पूरी संभावना है।
      अब जैसे अगर आप किसी ऐसी जगह में ध्‍यान कर रहे है जहां चारों और नकारात्‍मक भावावेश प्रवाहित होते है। निगेटिव इमोंशंस प्रवाहित होते है। समझ लें कि आप एक जगह बैठ कर ध्‍यान कर रहे है। और आपके चारों आरे हत्‍यारे बैठे हुए है। तो आपको कल्‍पना भी नहीं हो सकती कि ध्‍यान करने के क्षण में आप इतने रिसेप्‍टिव हो जाते है कि आस-पास जो भी हो रहा है वह तत्‍काल आप में प्रवेश कर जाता है। ध्‍यान एक रिसेप्‍टिविटि है, एक ग्राहकता है। ध्‍यान में आप वलन्‍रेबल हो जाते है, खुल जाते है और कोई भी चीज आप में प्रवेश कर सकती हे।
      इसलिए ध्‍यान के संग में आस-पास कैसी तरंगें है, चेतना की,विचार की ये देखना बहुत उपयोगी है। अगर ऐसी तरंगें आपके चारों और है जो कि आपको गलत तरफ झुका सकती है। तो ध्‍यान महंगा भी पड़ सकता है। और यह फिर ध्‍यान एक जद्दोजहद और एक संघर्ष बन जाएगा। जब कभी ध्‍यान में आपको अचानक ऐसे ख्‍याल आने लगते है जो कि आपको कभी भी नहीं आये थे, जब ध्‍यान के क्षण में आपको एक क्षण भी शांत होना मुश्किल होने लगता है कि इससे ज्‍यादा शांत तो आप बिना ध्‍यान के ही रहते थे। और कभी आपको ऐसा लगता है। तो आपको कभी ख्‍याल न आया होगा कि ध्‍यान के क्षण में आस-पास जो भी प्रवाहित होता है वह आप में सुगमता से प्रवेश पा जाता है।
      कारागृह में भी बैठकर भी ध्‍यान किया जा सकता है। पर बड़ा सबल व्‍यक्‍तित्‍व चाहिए। और कारागृह में बैठकर ध्‍यान करना हो तो प्रतिक्रियाएँ भिन्‍न चाहिए। ऐसी प्रक्रियाएं चाहिए जो पहले आपके चारों तरफ अवरोध की एक सीमा रेखा निर्मित कर दें, जिसके भीतर कुछ प्रवेश न कर सके। पर तीर्थ में वैसे अवरोध की कोई जरूरत नहीं है। तीर्थ में ऐसी ध्‍यान की प्रक्रिया चाहिए जो आपके आस-पास का सब अवरोध सब रेसिस्‍टेंस सब द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दे। हवाएँ वहां बह रहीं है।
      सैकड़ों लोगों ने उस जगह से अनंत में प्रवाहित होकर एक मार्ग निर्मित किया है। ठीक मार्ग ही कहना चाहिए जैसे कि हम रास्‍ते बनाते है। सड़को पर एक जंगल में हम एक रास्‍ता बना देते है। दरख़्त गिरा देते है और एक पक्‍का रास्‍ता बना लेते है। और दूसरे पीछे चलनेवाला यात्री को बड़ी सुगमता हो जाए। ठीक आत्‍मिक अर्थों में भी इस तरह के रास्‍ते निर्मित करने की कोशिश की गयी है। कमजोर आदमियों को जिस तरह भी सहायता पहुँचाई जा सके उस तरह की सहायता, जो शक्‍तिशाली थे, उनहोंने सदा पहुंचने की कोशिश की। तीर्थ उनमें एक बहुत बड़ा प्रयोग है।.
      पहला तो तीर्थ का प्रयोजन यह है कि आपको जहां हवाएँ शरीर से आत्‍मा की तरफ बह ही रही है, जहां पूरा तर गायित  है वायुमंडल जहां से लोग ऊर्ध्‍वगामी हुए, जहां बैठकर लोग समाधिस्‍थ हुए, जहां बैठकर लोगों ने परमात्‍मा का दर्शन पाया जहां यह अनूठी घटना घटती रही है, सैकड़ों वर्षों तक वह जगह एक विशेष आविष्ट जगह हो जाती हे। उस आविष्ट जगह में आप अपने पाल को भर खुला छोड़ दें, कुछ और न करें तो भी आपकी यात्रा शुरू होगी। तो तीर्थ का पहला प्रयोग तो यह था।
      इसलिए सभी धर्मों ने तीर्थ निर्मित किए। उन धर्मों ने भी तीर्थ निर्मित किए जो मंदिर के पक्ष में नहीं थे। यह बड़े मजे की बात है। कि मंदिर के पक्ष में कोई तीर्थ निर्मित करे धर्म, समझ में आता है। लेकिन जो धर्म मंदिर के पक्ष में न थे। जो धर्म मूर्ति के विरोधी थे। उनको भी तीर्थ निर्मित करना ही पडा। मूर्ति का विरोध आसान हुआ, मूर्ति हटा दी यह भी कठिन न हुआ, लेकिन  तीर्थ को हटाया नहीं जा सका। क्‍योंकि तीर्थ का और भी व्‍यापक उपयोग था जिसको कोई धर्म इनकार न कर सका।
      जैसे कि जैन भी मूलत: मूर्तिपूजक नहीं है। मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं है। सिक्‍ख मूर्तिपूजक नहीं है—बुद्ध मूर्तिपूजक नहीं थे प्रांरभ में—लेकिन इन सबने भी तीर्थ निर्मित किए है। तीर्थ निर्मित करने ही पड़े। सच तो यह है कि बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ठीक है.....बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ न कोई प्रयोजन ही रह जाता है। फिर एक-एक व्‍यक्‍ति जो करना चाहे या जो कर सकता है करे। लेकिन फिर समूह में खड़े होने का कोई प्रयोजन, कोई अर्थवत्‍ता नहीं है।....क्रमश: अगले अंक में
ओशो---(मैं कहता आंखन देखी)

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