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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

तीर्थ--7(मिश्र के पिरामिड एक रहस्‍य)

   सब तीर्थ बहुत ख्‍याल से बनाये गए है। अब जै कि मिश्र में पिरामिड है। वे मिश्र में पुरानी  खो गई  सभ्‍यता के तीर्थ है। और एक बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड के अंदर....। क्‍योंकि पिरामिड जब बने तब, वैज्ञानिको का खयाल है, उस काल में इलैक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती।
      आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती। बिजली का आविष्‍कार उस वक्‍त कहां, कोई दस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है, कई बीस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है। तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था। और इनके अंदर इतना अँधेरा कि उस  अंधेरे में जाने का कोई उपाय  नहीं है। अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों, या दीये ले जाते हो। लेकिन धुएँ का एक भी निशान नहीं है इतने पिरामिड में कहीं । इसलिए बड़ी मुश्‍किल है। एक छोटा सा दीया घर में जलाएगें तो पता चल जाता है। अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों तो इन पत्‍थरों पर कहीं न कहीं न कहीं धुएँ के निशान तो होने चाहिए।
      रास्‍ते इतने लंबे, इतने मोड़ वाले है, और गहन अंधकार है। तो दो ही उपाय हैं, या तो हम मानें कि बिजली रही होगी लेकिन बिजली की किसी तरह की फ़िटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है। बिजली पहुंचाने का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए। दूसरा आदमी सोच सकता है—तेल, धी के दीयों या मशालों का। पर उन सबसे किसी न किसी तरह के निशान पड़ते है, जो कहीं भी नहीं है। फिर उनके भीतर आदमी कैसे जाता रहा है, कोई कहं—नहीं जाता रहा होगा, तो इतने रास्‍ते बनाने की कोई जरूरत नहीं है। पर सीढ़ियाँ है, रास्‍ते है, द्वार है, दरवाजे है, अंदर चलने फिरने का बड़ा इंतजाम हे। एक-एक पिरामिड में बहुत से लोग प्रवेश कर सकते है, बैठने के स्‍थान है अंदर। वह सब किस लिए होंगे। यह पहेली बनी रह गई हे। और साफ नहीं हो पाएगी कभी भी। क्‍योंकि पिरामिड की समझ नहीं है साफ, कि ये किस लिए बनाए गए है? लोग समझते है, किसी सम्राट का फितूर होगा, कुछ और होगा।
  

   लेकिन ये तीर्थ है। और इन पिरामिड में प्रवेश का सूत्र ही यही है
, कि जब कोई अंतर अग्‍नि पर ठीक से प्रयोग करता है तो उसका शरीर आभा फेंकने लगता है। और तब वह अंधेरे में प्रवेश कर सकता है। तो न तो यहां बिजली उपयोग की गई है, न यहां कभी दीया उपयोग किया गया है। न मशाल का उपयोग किया गया है। सिर्फ शरीर की दीप्‍ति उपयोग कि गई थी। लेकिन वह शरीर की दीप्ति अग्‍नि के विशेष प्रयोग से ही होती है। इनमें प्रवेश ही वही करेगा। जो इस अंधकार में मजे से चल सके। वह उसकी कसौटी भी है। परीक्षा भी है, और उसको प्रवेश का हक भी है। वह हकदार भी है।
      जब पहली बार 1905 या 10 में एक-एक पिरामिड खोजा जो रहा था तो जो वैज्ञानिक उस पर काम कर रहा था उसका सहयोगी अचानक खो गया। बहुत तलाश की गई कुछ पता न चला। यहीं डर हुआ कि वह किसी गलियारे में अंदर है। बहुत प्रकाश ओ सर्च लाईट ले जाकर खोजा,वह कोई चौबीस घंटे खोया रहा। चौबीस घंटे बाद, कोई रात दो बजे वह भागा हुआ आया, करीब पागल हालत में। उसने कहा, में टटोल कर अंदर जा रहा था। की कहीं मुझे दरवाजा मालूम पड़ा, मैं अंदर गया और फिर ऐसा लगा कि पीछे कोई चीज बंद हो गई। मैंने लौटकर देखा तो दरवाजा तो बंद हो चुका था। जब मैं आया तब खुला था। पर दरवाजा भी नहीं था कोई, सिर्फ खुला था। फिर इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था कि में आगे चला जाऊँ, और मैं ऐसी अद्भुत चीजें देखकर लोटा हूं जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्‍किल है।
      वह इतनी देर गुम रहा, वह पक्‍का है, वह इतना परेशान लोटा है, पक्‍का है, लेकिन जो बातें वह कह रहा है वह भरोसे की नहीं है। कि ऐसी चीजें होंगी। बहुत खोजबीन की गई उस दरवाजे की,लेकिन दरवाजा दुबारा नहीं मिल सका। न तो वह यह बता पाया कि कहां से प्रवेश किया, न यह बता पाया कि वह कहां से निकला। तो समझा गया कि यहाँ तो वह बेहोश हो गया, या उसने कहीं सपना देखा। यहाँ वह कहीं सो गया। और कुछ समझने का चारा नहीं था।
      लेकिन जो चीजें उसने कहीं थी वह सब नोट कर ली गयीं। उस साइकिक अवस्‍था में, स्वप्नवत् अवस्‍था में जो-जो उसने वहां देखीं। फिर खुदाई में कुछ पुस्‍तकें मिलीं जिनमें उन चीजों का वर्णन भी मिला, तब बहुत मुसीबत हो गई। उस वर्णन से लगा कि वह चीजें किसी कमरे में वहां बंद है, लेकिन उस कमरे का द्वार किसी विशेष मनोदशा में खुलता है। अब इस बात की संभावना है कि वह ऐ सांयोगिक घटना थी कि इसकी मनोदशा वैसी रही हो। क्‍योंकि इसे तो कुछ पता नहीं था। लेकिन द्वार खुला अवश्‍य।
      तो जिन गुप्‍त तीर्थों की मैं बात कर रहा हूं उनके द्वार है, उन तक पहुंचने की व्‍यवस्‍थाएं है। लेकिन उस सबके आंतरिक सूत्र है। इन तीर्थों में ऐसा सारा इंतजाम है कि जिनका उपयोग करके चेतना गतिमान हो सके। जैसे कि पिरामिड के सारे कमरे, उनका आयतन एक हिसाब में हे। कभी आपने ख्‍याल किया, कहीं छप्‍पर बहुत नीचा हो, यद्यपि आपके सिर को नहीं छू रहा हो, और यही छप्‍पर थोड़ा सरक कर नीचे आने लगे। हमको दबाए गा नहीं हम से अभी दो फिट ऊँचा है, लेकिन हमें भास होगा कि हमारे भीतर कोई चीज दबने लगी।
      जब नीचे छप्‍पर में आप प्रवेश करते है, तो आपके भीतर कोई चीज सिकुड़ती है। और आप जब ऐ बड़े छप्‍पर के नीचे प्रवेश करते है तो आपके भीतर कोई चीज फैलती हे। कमरे का आयतन इस ढंग से निर्मित किया जा सकता है , ठीक उतना किया जा सकता है जितने में आपको ध्यान  आसान हो जाए। सरलतम हो जाए ध्‍यान आपको,उतना आयतन निर्मित किया जा सकता है। उतना आयतन खोज लिया गया था। उस आयतन का उपयोग किया जा सकता है। आपके भी सिकुडने ओर फैलने के लिए। उस कमरे के भीतर रंग, उस कमरे के भीतर गंध, उस कमरे के भीतर ध्‍वनि—इस सबका इंतजाम किया जा सकता है। जो आपके ध्‍यान के लिए सहयोगी हो जाए।
      सब तीर्थों का अपना संगीत था। सच तो यह है कि सब संगीत, तीर्थों में पैदा हुए। और सब संगीत साधकों ने पैदा किए। सब संगीत किसी दिन मंदिर में पैदा हुए,सब नृत्‍य किसी दिन मंदिर में पैदा हुए। सब सुगंध पहली दफा मंदिर में उपयोग की गई। एक दफा जब यह बात पता चल गई कि संगीत के माध्‍यम से कोई व्‍यक्‍ति परमात्‍मा की तरफ जा सकता है। तो संगीत के माघ्‍यम से परमात्‍मा के विपरीत भी जा सकता है, यह भी ख्‍याल में आ गया। और तब बाद में दूसरे संगीत खोजें गए। किसी गंध से जब कि परमात्‍मा की तरफ जाया जा सकता है। तो विपरीत किसी गंध से कामुकता की तरफ जाया जा सकता है। गंधें भी खोज ली गई। किसी विशेष आयतन में ध्‍यानस्‍थ हो सकता है तो किसी विशेष आयतन में ध्‍यान से रोका जा सकता है। वह भी खोज लिया गया।
      जैसे अभी चीन में ब्ररेन वाश के लिए जहां कैदियों को खड़ा करते है, उस कोठरी का एक विशेष आयतन है। उस विशेष आयतन में ही खड़ा करते है। और उन्‍होंने अनुभव किया कि उस आयतन में कभी-बेशी करने से ब्ररेन वाश करने में मुसीबत पड़ती है। एक निश्चित आयतन , हजारों प्रयोग करके तय हो गया कि इतनी ऊंची, इतनी चौड़ी इतनी आयतन की कोठरी में कैदियों को खड़ा कर दो तो कितनी देर में डिटीरीओरेशन हो जाएगा। कितनी देर में खो देगा वह अपने दिमाग को। फिर उसमें एक विशेष ध्‍वनि भी पैदा करो तो और जल्‍दी खो देगा। खाज जगह उसके मस्‍तिष्‍क पर हेम रिंग करो तो और जल्दी खो देगा।
      वे कुछ नहीं करते, एक मटका ऊपर रख देते है और एक-एक बूंद पानी उसकी खोपड़ी पर टपकता रहता है। उसकी अपनी लय है रिदिम है.....बस, टप-टप वह पानी सर पर टपकता रहता है। चौबीस घंटे वह आदमी खड़ा है, बैठ भी नहीं सकता, हिल भी आयतन इतना है कोठरी का लेट भी नहीं सकता। वह खड़ा है। मस्‍तिष्‍क में पानी टप-टप गिरता जा रहा है। आधा घंटा पूरे होते-होते तीस मिनट पूरे होते-होते सिवाय टिप-टिप की आवाज के कुछ नहीं बचता। आवाज इतनी जोर से मालूम होने लगेगी जैसे पहाड़ गीर रहा है। अकेली आवाज रह जाएगी उस आयतन में और चौबीस घंटे में वह आपके दिमाग को अस्‍त–व्‍यस्‍त कर देगी। चौबीस घंटे के बाद जब आपको बाहर निकालेंगे तो आप वहीं आदमी नहीं होगें। उन्‍होंने आपको सब तरह से तोड़  दिया है।
      ये सारे के सारे प्रयोग पहली दफा तीर्थों में खोजें गए, मंदिरों में खोजें गए। जहां से आदमी को सहायता पहुँचाई जा सके। मंदिर के घंटे है, मंदिर की ध्वनियों है, धूप है, गंध है, फूल है, सब नियोजित था। और एक सातत्य रखने की कोशिश की गई। उसकी कंटीन्यु टी न टूटे, बीच में कहीं कोई व्‍यवधान न पड़े अहर्निश धारा उसकी जारी रखी जाती रही। जैसे सुबह इतने वक्‍त आरती होगी, इतनी देर चलेगी। इस मंत्र के साथ होगी। दोपहर आरती होगी। इतनी देर चलेगी। इस मंत्र के साथ होगी। सांझ आरती होगी: दोपहर आरती होगी, इतनी देर चलेगी,यह क्रम ध्‍वनियों का उस कोठरी में गूंजता रहेगा। पहला क्रम टूटे उसके पहले दूसरा री प्लेस हो जाए। यह हजारों साल तक चलेगा।
      जैसा मैंने कहा—पानी के अगर लाख दफा पुन: पुन: पानी बनाया जाए भाप बनाकर, तो जैसे उसकी क्‍वालिटी बदलती है अल्‍केमी के हिसाब से उसी प्रकार एक ध्‍वनि को लाखों दफा पैदा किया जाए एक कमरे में तो उस कमरे की पूरी तरंग, पूरी गुणवत्‍ता बदल जाती है। उसकी पूरी क्वालिटी बदल जाती है। आस के बीच व्‍यक्‍ति को खड़ा कर देना उसके पास खड़ा कर देना,उसके रूपांतरित होने के लिए आसानी जुटा देगा। और चूंकि हमारा सारा का सारा व्‍यक्‍तित्व को बदलने लगते है। और आदमी इतना बाहर है कि पहले बाहर से ही फर्क उसको आसान पड़ते है, भीतर के फर्क तो पहले बहुत कठिन पड़ते है। दूसरा उपाय था पदार्थ के द्वारा सारी ऐसी व्‍यवस्‍था दे देना कि आपके शरीर को जो-जो सहयोगी हो, वह हो जाए।
ओशो—(मैं कहता आंखन देखी)
     
     

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