कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

22 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्याय - 22)

(मेरी शरारतें|

जैसे—जैसे मैं बड़ा हो रहा था, मेरी शरारतें भी बढ़ती जा रही थी। हालांकि में उन पर काबू पाने की भरपूर कोशिश कर रहा था। परंतु मेरा पशु स्वभाव जो मुझे पीढ़ी दर पीढ़ी मिला था, वह मेरे बस के बहार था। कितना ही कोशिश करूं परंतु अंदर धक्के मारती उर्जा मुझे कुछ न कुछ गलती करने को मजबूर कर ही देती थी। शरीर का विकास भी इन घटनाओं की जड़ था। जैसे नए दांतों का उगना। अब वह दाँत किसी चीज को फाड़ना चाहते है। वही अभ्यास उनकी मजबूती की जड़ है। अब इस बात का पता नहीं चलता कि किसे काटे या किसे फाड़े या किसे छोड़े।

जब सब लोग ध्‍यान में चले जाते उस समय मुझे बहुत अकेला पन खलता था। उस समय मुझे मेरे कुत्ता होने का आभास सबसे अधिक होता था। इसी बात की हीनता मुझे क्रोध करने को उकसाती थी। कि सब लोग अंदर चले गये और मुझे बहार छोड़ दिया। जब की मुझे अंदर जाना बहुत अच्‍छा लगता था। मैं किसी को कुछ कहता भी नहीं था किसी एक कोने में आराम से बैठ कर आंखें बद कर लेट जाता था।

मेरे हिसाब से उनमें सबसे ज्‍यादा ध्‍यानी और शांत मैं ही था। जिसे उन लोगों ने बाहर निकल दिया था। कभी—कभी कुछ अंजान लोग भी आ जाते थे ध्‍यान करने के लिए। उस दिन तो मुझे और भी बुरा लगता था कि बाहर से अंजान लोग तो अंदर चले जाते है। और मैं यहां बाहर बैठा सूख रहा हूं। मेरे सब्र का प्याला भर गया और उस दिन मुझे कुछ ज्‍यादा ही जीद्द चढ़ गई। अंदर जैसे ही ध्‍यान का संगीत बजा मुझे अकेलापन ने और भी अधिक घेर लिया। तब अचानक मुझे न जाने क्या सुझी या यूं कह लीजिए एक अंजान सा डर भी मुझे आकर घेर लिया था। इस सब से घबरा कर मैं दरवाजे को जोर—जोर से पंजों से नोचने लगा। की मुझे भी अंदर जाना है...दरवाजा खोलो। अंदर ध्‍यान चलता रहा। और मैं लगा तार पंजों से दरवाजे को खरोचता रहा। इतनी ताकत मुझमें कहां से आ गई ये बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। एक प्रकार से मुझमें एक जुनून एक पागल पन चढ़ गया था। मेरे सोचने समझने की शक्‍ति खत्‍म हो गई थी। लेकिन मुझे तब झटका लगा जब संगीत खत्‍म हुआ। क्‍या इतनी जल्‍दी, पूरा एक घंटा गुजर गया। हो नहीं सकता। परंतु सच ही ऐसा हुआ था।

संगीत खत्‍म होते ही मैं अपने होश में आया। एक दम से मैं डर गया। कि ये सब मैं क्‍या कर रहा था। मेरे इस हरकत के कारण अंदर ध्‍यान करने वालों को कितनी बाधा पहुंच  रही होगी। परंतु अब तो समय हाथ से जा चूका था। और धीरे—धीरे एक अंजान से भय ने मुझे घेरना शुरू कर दिया। तब मैं नीचे भागा। वैसे तो इतने महीने मुझे इस घर में आये हो गये थे। मैंने कभी कोई घर की चीज चुरा कर नहीं खाई थी। खेर ये मैं अपनी तारीफ नहीं कर रहा हूं, ये इस घर के लोगों की महानता अधिक थी। कि मुझे हर वो चीज खाने को मिलती थी जो इस घर में बनती थी। फिर भला चोरी करने की जरूरत ही कहां रही थी। फिर भी हम पशु है। और मनुष्‍य—मनुष्‍य होते हुए भी कभी—कभी चोरी चकारी तो कर ही लेता है। परंतु फिर भी हम उनका मुकाबला कहा कर सकते थे। परंतु अभी तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मुझे चोरी करनी पड़ती। परंतु आज ने जाने क्यों मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई या यूं कह लो की मति मारी गई थी। ऊपर तो अभी एक घंटा सब को ध्‍यान में बाधा पहुंचाता रहा और नीचे आकर मैंने देखा की दही के डोंगे जमे थे। वैसे तो वह रोज ही दुकान के लिए यही पर जमाये जाते थे। मैं इनके आस पास हमेशा घूमता रहता था। उनको खाना तो दूर उन्हें देखता भी नहीं था जैसे मेरे को इस सब से क्या लेना देना।

आँगन में जब भी पनीर बनता था तब बड़े—बड़े दूध के वर्तन भरे रखे रहते थे। और कई बार तो बचा हुआ दूध पूरी रात अंगन में मेरे भरोसे पर ही रख होता था। मैं पूरी रात बिल्ली से उसकी रखवाली करता रहता था। मैं एक प्रकार से यहां का मालिक था। परंतु मैं कभी उस की और देखता तक नहीं था। इस सब की जरूरत ही नहीं होती थी। मेरे मन में ही चोरी कर पीने का प्रश्न ही नहीं उठता था। हां कभी—कभी कोई बिल्‍ली जब दूध पीने आती तो उसे भगा जरूर देता। इस सब बातों से घर के प्रत्‍येक प्राणी के मन में मेरा एक आदर—एक सम्‍मान था। की मैं बहुत ही अच्‍छा हूं। और आज उस अच्‍छाई पर न जाने क्‍यों मैं जान बुझ कर कालिख पोते जा रहा हूं। नीचे जाते ही दही के एक डोंगे से मैंने दही को खाना शुरू कर दिया। खाना कहना भी गलत है एक प्रकार से उसे झूठा किया। इस गलती के कारण सार डोंगा खराब हो गया, मुझे नहीं खाना चाहिए था, क्‍योंकि पेट तो मेरा पहले ही भरा हुआ था।

परंतु आज सोचता हूं उस दिन मुझसे ये क्‍या हो गया था। वो मेरी जीद्द थी या बदले की भावना। फिर भी जो गलत था वह तो गलत ही था। अब उस झूठी दही को कौन खायेगा। उसे दुकान पर बेचा नहीं जा सकता था। कम से कम मम्‍मी—पापा तो ऐसा कभी नहीं कर सकते की झूठी दही को ग्राहकों को बचे दे। वह पैसे कमाने के लिए अपने सिद्धांतों को कभी ताक पर नहीं रखेंगे। आखिर इसे फेंकना होगा या बाहर किसी जानवर को देना होगा। जो एक बरबादी ही होगी। पैसे की भी मेहनत की भी। या फिर हो सकता है मम्‍मी गली के कुत्तों को खिलायेंगे। और मजे की बात वह भी उसे वे भी नहीं खाते क्‍योंकि, ये उनके नखरे कह लीजिए या इतनी अधिक चीज देखने की उनकी आदत नहीं होती। अधिक चीज देख कर उनके खाने की भूख ही खत्‍म हो जाती है।

ध्‍यान खत्‍म होने पर पापा जी नीचे आये, मैं आँगन में बैठा उन्‍हें आते देखता भर रहा। आज अपने चिर परिचित पूंछ हिलाने के अंदाज को भी आज भूल गया था। एक हल्की सी अकड़ और एक नाराजगी को अपने में समेटे। मैं ऐसे बैठा रहा जैसे मैंने उन्हें आते देखा ही नहीं। पापा जी अंदर साल वाले कमरे में गये। तब मैं थोड़ा डर गया। अंदर से जब बाहर आये तो मुझे गर्दन से पकड़ कर अंदर ले गये और दिखाने लगे वो दही का डोंगा जो मैंने खराब कर दिया था। परंतु मैं उनके हाथ में ही ऐसे गुर्राया कि जैसे मुझे छोड़ दो वरना काट लूंगा। फिर तो क्‍या था पापा जी पास ही पड़ा वह डंडा उठाया और एक लगाया मेरी पीठ पर मारे दर्द के मेरी जान निकल गई। लाड़ अपनी जगह है और अगर मैं बिगडेल पना करूंगा तो पापा मुझे भी सज़ा देंगे।

मैंने कभी सोचा भी न था कि डंडा लगने से इतना दर्द होता है। फिर तो क्‍या था। मारे डर के मैं प्यांऊ—प्यांऊ कर के वहीं लेट गया। मेरा सू—सू भी वहीं निकल गया। और लेट कर मैंने टाँग ऊपर कर ली। कि मुझे छोड़ दो मैं मर जाऊँगा....और एक प्रकार से दया की भीख मांगने लगा। मेरी सारी अकड़ पल भर में काफुर हो गई। मैं डर के मारे पापा जी की आंखों की और देखे जा रहा था। पापा जी का चेहरा एक दम से बदल गया। उन्‍होंने डंडा दूर रख दिया। तब जाकर मुझे चैन आया। फिर उन्‍होंने मेरे शरीर पर हाथ फेरा और जहां पर अभी—अभी डंडा मारा था उसे सहलाने लगे।

धीरे—धीरे वहां पर दर्द की जलन कम हो रही थी। कम से कम इतना तो था की और दर्द नहीं मिलेगा। अब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। पापा जी ने मुझे चूमा और कहा की गंदे बच्‍चे कोई ऐसा काम करते है। तब मैंने अपने कान बोच लिए और डरी सहमी सफेद डूपी—डूपी आंखें निकाल कर उनको चटाने लगा।

फिर तो उसके बाद मैंने कान पकड़ लिये कि बाबा ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा। परंतु एक गलती हो तो। हर कदम पर मैं कुछ न कुछ ऐसा कर जाता की वह गलत होता ही था। परंतु एक गलती दूसरी बार न करने का संकल्प जरूर कर लेता था।

अब दूसरी बड़ी गलती। जिस पर मुझे बड़े विचित्र ढंग से डंडा पड़ा। वह भी कथा बड़ी मजेदार है। ज्‍यादा गर्मी या बरसात के दिनों में हम जंगल नहीं जाते थे। क्‍योंकि उस समय जंगल में साँपों का खतरा सबसे अधिक होता था। श्‍याम के समय सांप अपने बदन को ठंडा करने के लिए रास्‍ते की उस ठंडी मुलायम रेत पर आकर लेट जाते थे। जो श्‍याम होने के कारण छद्म मिटी के ही रंग के होने के कारण दिखाई नहीं पड़ते थे। अगर आप का अंजाने में पैर उस पर पड़ गया तो, वह जान लेवा भी हो सकता था। प्रत्‍येक प्राणी का छद्म रूप उनकी सुरक्षा के मध्य नजर रख कर प्रकृति उसके रंग बनाती है।

दूसरा अधिक बरसात होने पर बरसाती नालें पानी से इतने भर जाते की उन्‍हें किसी भी कीमत पर पार नहीं किया जा सकता था। उनका बहाव इतना तेज होता की उन्‍हें देख कर डर लगता था। जब अगले दिन या बाद में हम घूमने के लिए आते तो वहां पर टूटी और मुड़ी हुई घास और टूटे पेड़ की टहनियाँ देख कर अंदाज लगाया जा सकता था कि किस वेग से यहां पानी बहता है।

एक दिन श्‍याम को सुहाना मौसम था, हम सब जंगल में घूमने के लिए चल दिये। श्‍याम के समय जब भी हम जाते तो मम्‍मी जी हमारे साथ नहीं होती थी। क्योंकि किसी न किसी को तो दुकान पर रहना होता था। ठंडी हवा चल रही थी। पास ही एक पीली कोठी थी जो पूरे जंगल में अलग ही दिखाई देती थी। मैं यही सोच कर अचरज करता था कि इतने जंगल में इस घर को बनाने की क्‍या जरूरत थी। कच्‍चा और साफ सुथरा करीब दो—तीन मील रास्ता बना रखा था। जिस पर भैया लोग साइकिल चलाते थे। परंतु कहीं—कहीं पर अधिक रेत होने के कारण साइकिल के टायर फंस जाते थे। और चलाने वाला गिर भी जाता था। परंतु घोड़ों के लिए या हम पशु के लिए तो वह रास्ता स्‍वर्ग तुल्‍य था। वहां पर दौड़ना कितना अच्‍छा लगा था।

वहां मैं सब को दौड़ में हरा देता था। चाहे वह साइकिल पर है या पैदल। शायद पापा जी बच्‍चों को बता रहे थे जब भारत में एशियाई खेल यहीं हुए थे, तब यह गौरव इसी जंगल को मिला था। घोड़ों की दौड़, उनके करतब और न जाने अनेक खेल यहाँ हुए थे। कितनी रौनक मेला हुआ था उस समय पर यहां। खेर मेरा तो जन्‍म भी नहीं हुआ था। परंतु पापा जी जब बच्‍चों को ये सब किस्‍से सुनते थे तो मैं भी उसे बड़े चाव से सुनता था। यहां पर एक बहुत बड़ा खेल का मैदान था। जिस में पापा जी हर बचपन में कभी क्रिकेट खेला करते थे। वह आज भी इतना ही साफ सुथरा है। बस उसमें छोटे—मोटे झाड़ों ने अपना प्रभुत्‍व जमा लिया था। परंतु वह इतना स्‍थाई नहीं थी। साफ दिखाई दे रहा है ये बाद में उगी है इन्हें आराम से इस मैदान से हटाया जा सकता था।

उस मैदान को देख कर लगता था जंगल के अंदर यही एक मात्र जगह है जहां, खेल का मैदान बनाया जा सकता था। उसके दो और तो पहाडियाँ थी। उसके चिकने नीले पत्‍थर, दर्शकों को बैठ कर मैच देखने का काम करते होंगे। जब पापा जी यहां खेलते होंगे तो कितना रौनक मेला यहाँ होता होगा। यह मैदान गांव से करीब एक या डेढ मील दूर तो जरूर होगा। गर्मी के दिनों में जब हम घूमने के लिए यहां आते है तो कितनी जल्‍दी प्‍यास लग जाती थी। खेलने या दौड़ने वालों को और भी अधिक प्यास लगती होगी। कहां से पानी लाते होंगे पापा जी  हर। खेर इसी मैदान को और विस्तरित और साफ सुथरा कर के उसके एक कोने पर पीली कोठी का निर्माण किया गया था।

जो दो मंजिल होने पर भी बहुत ऊँची लगती थी। उस की घुमावदार सीढ़ीयां। कितनी सुंदर थी। एक बार हम सब को पापा जी उस के ऊपर ले कर गये थे। मैं तो पहली बार उस पर चढ़ भी नहीं रहा था। परंतु नीचे अकेला रहने के कारण हिम्मत कर के चढ़ गया था। दूर—दूर तक जहां नजर जाती थी। जंगल का नजारा कितना सुहाना लग रहा था। पाप जी बता रहे थे कि एशियाई खेलों में यहाँ पर दूरदर्शन की टीम अपने—अपने केमरे लगा रखे थे। ताकि खेल को टेलीविजन पर दिखाया जा सके। अंदर, बड़े—बड़े हाल कमरे थे। जो अब उजाड़ हो गये थे। कितनी गर्मी में भी वह ठंडक महसूस हो रही थी। उसे आज भी गांव के लोग पीली कोठी के नाम से पुकारते और जानते थे। क्‍योंकि उस पर जो रंग रोगन हुआ है पीला है।

इस तरह जब बहुत गर्मी या बरसात का मौसम होता तब हम लोग जंगल नहीं जा कर इधर आ जाते थे। अगर कभी जाते भी तो श्‍याम के समय कभी नहीं जाते थे। आज सुहाना मौसम होने के कारण शायद दूसरा बच्चे आज घर पर ही थे। इसलिए रोज—रोज स्‍कूल जाकर या घर पर रह कर बच्चे कुछ ऊब सी महसूस करते तो पापा जी घूमाने के लिए यहां ले आते थे। मैं अपनी बात क्‍या कहूं, मुझे तो ये घर सारा दिन एक कैद ही लगता था। और जिस दिन जंगल जाना होता तो मैं तो हफ्ते भर की थकान अपने शरीर में भर लेता था। इतना दौड़ता भागता था कि दो तीन दिन तो मैं हड्डियां सेंकता रहता था।

और अपने शरीर के दर्द में मन का तनाव भूलने कि कोशिश करता था। हम नाला पार कर के मैदान की और चले ही थे। दूर आसमान पर सूर्य पीले रंग बिखेर रहा था। दूर कहीं—कहीं आसमान पर फैल बादलों को सूर्य कि किरणों ने पीला और नारंगी कर दिया था। कहीं—कहीं आसमान पर बादलों के धब्‍बे थे वो कैसे गुच्‍छों में आकर अपना आकार बदल रहे थे। जो किसी चित्रकार की कुच्‍ची की अभद्रता ही दर्शा रहे थे। परंतु परमात्‍मा की कृति में वही धब्‍बे भी एक सौंदर्य दे रहे थे। सूर्य की चमक में अचानक दूर कहीं धूल का गुब्‍बार हवा में उठा, वह मेरे लिए एक अप्रत्‍यक्षित घटना थी। वह धूल का गुब्‍बार धीरे—धीरे हमारी और आ रहा था।

मैं चित्रवत भयाक्रांत सा उस और बिना पलक मारे देखता ही रह गया। देखते ही देखते वह धूल का गुब्‍बार नाले के अंदर गायब हो गया। दूर तक धूल की लंबी चादर फैलती चली गई थी। जो मन को मोह रही थी। परंतु उस सौंदर्य में मुझे कुछ भय भी लग रहा था। वह क्‍या है जो इतनी धूल उड़ाता हुआ आ रहा है। और मेरा भय सच ही निकला। चार घोड़े सरपट दौड़ते हुए हमारी और आ गये। न जाने कहां से भय अनायास आया जो अचेतन में मेरे अंदर समाया था। भय मेरे अंदर कहीं गहरे से निकल कर बहार आ गया था। जिस से मैं अपरिचित और अंजान था अब तक। मैं डर कर जमीन पर बैठ गया।

उस ऊंचे तगड़े प्राणी को देख कर मेरी सांस अटक गई थी। उन कि पीठ पर आदमी भी बैठे थे। कितने ताकत वर थे वह पशु अपनी पीठ पर मनुष्‍य को बैठा कर कितने आराम से दौड़ रहे थे। एक बार तो मैं उन्‍हें देख कर इतना डर गया की दौड़ कर पापा जी के पास आ कर खड़ा हो गया। कि न जाने ये क्‍या है। परंतु जैसे—जैसे वह पास आ रहे थे। मैं डर के मारे इधर उधर छुपने कि कोशिश कर रहा था। ताकि वह मुझे देख न पाये।

परंतु यह देख कर अचरज कर रहा था कि मेरे सिवाय और कोई नहीं डर रहा था। सबसे छोटा हिमांशु भैया भी खड़ा हो कर उन्‍हें बड़े आराम से उन्‍हें देखे जा रहा था। इस बात की तो कोई कल्‍पना भी नहीं कर सकता था। हाथी चल सकता है, क्‍योंकि वह डील—डौल में बलिष्ठ है, बैल वज़न ढो सकता है। परंतु यह पीठ पर बिठाना ये एक अलग ही बात थी। आपकी कमर की रीढ़ में ही नहीं आपके पैरों में भी अधिक जान होनी चाहिए। न जाने क्‍यों हम क्यों किसी से अचानक बहुत भय हो जाते है, जैसे हमने पहले देखा और जाना भी न होता है उस भय को।

या किसी को देख कर हमारे अंदर एक तरह की सिहरन एक आनंद की पुलक भर जाती है। इसी तरह से न जाने इन घोड़ों को देख कर क्‍यों मैं भय के मारे सुकड़—सिमट गया था। मुझे इस तरह से अपने पैरों में छुपा देख कर सब बच्‍चे मुझे बड़े गौर से देखने लगे थे। पापा जी मेरे सर पर हाथ रख कर मेरे पास बैठ गये। मेरा पूरा शरीर थर—थर कांप रहा था....किसी अंजान भय के कारण। वह घोड़े जैसे आये थे वह पल में धूल उड़ाते आंखों से ओझल हो गए।

तब पापा जी न उस दिन एक लोक कथा हम सब बच्‍चों को सुनाई, बच्‍चों को अपनी मन चाही मुराद आज श्‍याम को ही मिल गई वह भी इस खुले आसमान के तले। हम सब पापा जी घेर कर उसी जगह रेत पर बैठ गये और उस कहानी को बड़े चाव से सुनने लगे। वैसे तो पापा जी खुद ही कहते है कि दिन में कहानी नहीं सुननी चाहिए इससे आदमी रास्ता भूल जाता है। परंतु आज उनकी मोज....हमें क्या हमें तो मजा आयेगा कहानी सुनने में। हमारे बैठने के बाद पापा जी ने फिर से कहना शुरू किया—— कहते है किसी जमाने में जब सभी प्राणी जंगल में रहा करते थे। उनमें आपस में एक दूसरे को अपनी सीमा में आने नहीं दिया जाता था, जिसके कारण एक दूसरे से युद्ध हो जाता था। इसी तरह घोड़ा, गाय, और कुत्‍ता...भी जंगल में ही रहते थे।

एक बार कुछ गाय चरते हुए एक घास के मैदान पर घोड़ों के झुंड के पास आ गई। और उनके उस सुंदर इलाके में उगी नरम और रस भरी घास को देख कर अपना प्रभुत्व जमा लिया। अब घोड़ों के सर पर तो सींग भी नहीं थे। जो उन सींग वाली गायों के साथ लड़ कर भगा सके। इसलिए उन्‍हें मजबूरी में अपना वह प्रिय स्‍थान गायों के लिए छोड़ देना पड़ा। परंतु कहते है उनके मन में बदले की एक भावना समा गई थी। कि किस तरह से अपना वह पुश्तैनी स्‍थान कैसे हासिल किया जा सके। घोड़े उस शानदार चरागाह को छोड़कर कही भी गये उन्‍हें दुतकारा दिया गया।

धीरे—धीरे वह कमजोर होते चले गये। सब यही सोच रहे थे की क्या उपाय किया जाये की इन जंगली गायों के झूंड को वहाँ से भगाया जा सके। कोई तरकीब काम नहीं आ रही थी। एक दिन कुछ कुत्तों के झुंड ने भी उन्‍हें वहां से भगा दिया। अब लगभग उनके पास जंगल में कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां वह रह सके या अपना पेट भर सके। इस तरह से घोड़े आत्‍म हत्‍या के कगार पर पहुंच  गये। और उनके सरदार ने कहा की मैं मनुष्‍य के पास के पास जाकर उससे सहायता मांगता हूं। खेत में काम कर रहे किसानों के झुंड के पास घोड़ा गया। इस खूबसूरत जंगली प्राणी को देख कर सब लोग खुश भी हुए और डरे भी। तभी घोड़ों के सरदार ने कहां आप मुझसे भयभीत न हो, मैं तो यहां आपसे सहायता मांगने और आप की सहायता करने के लिए आया हूं।

किसानों को उसकी इस बात में कुछ रुचि दिखाई। क्‍योंकि तब तक वह किसी पशु का शोषण कर के उससे काम नहीं कराते थे। खेती बाड़ी का काम भी खुद ही करते थे। घोड़े ने कहा की कुछ ऐसे पशुओं को मैं जानता हूं जो बहुत ताकत वर है। जो आपकी खेती में आपका हाथ बटा सकते है। और मादाएं बहुत मीठा दूध प्रचुर मात्रा में देती है। किसान को उसकी बात कुछ समझ में नहीं आई, उसने अपने और साथियों को पास बुला लिया, और सब उसकी बात ध्‍यान से सुनने लगे। नदी के पार जो घास को मैदान है। वहां पर कुछ ऐसे पशु रहते है। जो आपकी खेती में आपकी मदद करेंगे। वह खतरनाक भी नहीं है। किसानों ने कहा की फिर भी हम उन्‍हें पकड़ कैसे सकते है। वह तो बहुत तेज भागते होंगे। तब घोड़े ने कहा की आप मेरी पीठ पर बैठो, में उनसे भी तेज दौड़ सकता हूं। और यही वह कहावत पूरी हुई आ बैल मुझे मार।

किसानों के मन में लडू फूटे, उनमें से एक न पूछा फिर आप उन्‍हें क्‍यों पकड़वाना चाहते है। घोड़े ने कहा की उन्होंने हमारा पुश्तैनी चरागाह हड़प लिया इसलिए। देखो उन्होंने हमें घर से बेघर कर दिया। न हम अब पेट भर खा सकते न पीने को कही और इतना मीठा पानी भी नहीं है। तब कहते है मनुष्‍य ने घोड़े की पीठ पर पहली बार सवारी की और उन जंगली गायों को पकड़ा, साथ की कुछ कुत्‍तों के बच्चों को भी पकड़ा, जो उनके खेतों की रक्षा कर सके। कई दिनों कि मेहनत के बाद जब गाये पकड़ ली गई तब घोड़े भी बहुत अधिक थक गये थे। और वह आराम करना चाहते थे। अपनी उस पुश्तैनी चरागाह में जाकर अपनी थकान मिटाना चाहते थे।

तब उन घोड़ों के सरदार ने मनुष्‍य से जाने की आज्ञा मांगी। की अब हमारा और आपका दोनों काम हो गया अब हमें जाने दो। तब मनुष्‍य हंसा, कि ये कैसे हो सकता है। की तुम जैसी प्‍यारी चीज की सवारी कर के हम तुम्हें कैसे छोड़ सकते है। हम बेलों से खेती करेंगे, सामान ढुलवायेंगे। कुत्ते हमारे घरों और खेतों की रक्षा करेंगे। और गाय का मीठा और स्वादिष्ट दूध का सेवन करेंगे। और तुम्‍हारी पीठ पर बैठ कर जो दौड़ने का वेग प्राप्त हुआ है। उस आनंद को हम खोना नहीं चाहते। अब तुम हमें छोड़ कर कभी नहीं जा सकते। कहते है उसी दिन से घोड़ा और गाय, कुत्ते मनुष्‍य के गुलाम हो गये। गुलाम बनाने में जिस पशु ने अपनी बलि दी वह भी गुलाम बन गया।

पापा जी ने यह कहानी बड़ी चतुराई से सुनाई, सच आज भी गांव में जब घोड़े आ जाते है तो गाये डर के मारे भाग जाती है। और कुत्ते उनका रास्‍ता रोक कर भोंकते है....इसका कुछ तो मनोविज्ञान होगा ही चाहिए। मैं भी घोड़ों को देख कर कितना डर गया था। और दूर घास चरती वो गाय तो घोड़ों को देखकर एक दम से जंगल की और भाग गई। कहावतें भी कितनी सुंदर बनाई जाता है।

कहानी के चक्‍कर में सूर्य अस्‍त हो गया। धीरे—धीरे छद्म रूप से प्रकृति पर अंधकार अपना आवरण फैला रहा था। इतने आहिस्ता से कि किसी को कानों कान खबर भी नहीं हो रही थी। परंतु दूर कहीं सियारों की हाऊ.....हाऊ......जरूर इस शांति को भंग कर रही थी। पिछली बार की तरह से अंधकार होने से पहले हमने नाला पार कर लेना चाहिए। ये एक जंगल का मामला था इसमें सतर्कता बहुत जरूरी थी और इसके साथ हमारे साथ बच्चे भी इससे पापा जी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती थी। सो हम तेज कदमों से घर की और चल दिये आज सको को पता चला की तरह से हमें और घोड़े को मनुष्य के अपने स्वार्थ के कारण कैद किया था।  और हम सब घर की और तेज कदमों से चल रहे थे।

पहला नाला तो हमने दस मिनट में ही पार कर लिया था। उसके बाद तो अपने गांव की खुशबु आने लग जाती थी। आज उस दिन की तरह से डर नहीं था। क्योंकि उस दिन तो हम अधिक गहरे जंगल में थे। झाड़ियों में झींगुरों की कर्कश आवाज कितनी कर्ण भेदी सुनाई दे रही थी। कितना छोटा सा ये कीड़ा होता है और इसकी आवाज को सून कर नहीं लगता की वह इतनी तजे आवाज निकाल सकता है। दूर आसमान पर शुक्र तारा अपने यौवन पर आ कर चमक रहा था। कितना चमत्कार है कि शुक्र तारा छ: माह तो श्याम का तारा बन जाता है। और छ: माह सुबह भोर का। कैसा वक्र तारा है ये शुक्र तारा भी। जब आज आसमान पर चाँद नहीं है तो इसकी चमक देखने जैसी है। अंधेरे का भी आपना प्रकाश होता है। दूर तक फैला रेत कितना सुंदर लग रहा था। आज की संध्‍या बहुत सुंदर रही...रुचि कर भी और ज्ञान वर्धक भी। बच्‍चे भी खुशी के मारे उछलते कूदते धूल उड़ाते घर की और चल दिये.....।

गांव के पास आकर मुझे चेन से बाँध लिया जाता था। वह लगभग मेरी सुरक्षा के लिए ही होता था। ताकी कुत्ते पास न आये आए तो उन्हें डर कर भगा दिया जाये। और मुझे भी उनके पास न जाने दिया जाये। परंतु उस दिन मैं जोश में सबसे आगे भाग रहा था। पापा जी दीदी आवाज लगा रहे थे पोनी..रूक जा, पोनी....रूक जा परंतु आज पोनी रूकने वाला नहीं था पापा जी मेरे पीछे भागे और मैं और भी तेज भागा। तभी अचानक वह उड़ता हुआ डंडा मेरी और आया और मेरी पीठ पर लगा मैं सोच भी नहीं सकता था की इतनी दूर पापा जी है। तब कैसे डंडा मार सकते थे।

मैं डर के मारे वही रूक गया। मैं डर गया की आदमी की ताकत और उसकी बुद्धि अदभुत है। उससे टकराना नहीं चाहिए। ये है दूसरे डंडे की कथा फिर तो जब गांव आता तो उससे पहले ही मैं खड़ा हो कर कहता की लो महाराज चेन लगा लो। एक अच्छे बच्चे की तरह से। डंडे ने अक्ल दी।

भू..... भू....... भू........

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें