दिनांक
6 अगस्त, सन्
1986;
प्रात:
सुमिला, जुहू,
बंबई।
मेरे
प्रणाम को आप
स्वीकार
करें। मेरा
प्रश्न ज्योतिष
के संबंध में
है। ज्योतिष
के संबंध में
आपके विचार
क्या है? क्या इसमें
कोई सत्यांश
है? क्या
आप इसमें
विश्वास करते
है? क्या
यह सच है कि एक
ज्योतिषी ने
आपके पिताजी से
यह
भविष्यवाणी
की थी कि आप
सात साल से
अधिक जीवित
नहीं रहेंगे
और यदि जीवित
रहे तो आप
बुद्ध हो
जाएंगे?
मैं
जीवित रहा, यह पर्याप्त
सबूत है कि
ज्योतिष में
कोई सत्यांश
नहीं है।
ज्योतिष
मनुष्य की
कमजोरी है। मनुष्य
की कमजोरी है,
क्योंकि वह
भविष्य के
झांक नहीं
सकता और वह देखना
चाहता है। वह
पथभ्रष्ट
होने से सदा
भयभीत रहता
है। वह आश्वस्त
होना चाहता है
कि वह ठीक
रास्ते पर है।
और भविष्य
बिलकुल ही
अज्ञात है,
इसके बारे
में कुछ
अनुमान नहीं
लगाया जा सकता।
लेकिन ऐसे लोग
हैं जो मनुष्य
की कमजोरियां
का फायदा
उठाने को सदा
तत्पर हैं।
जीवन
में सिर्फ एक
बात निश्चित
है, और वह है
मृत्यु। सब
कुछ अनिश्चित
है, संयोगिक
है। मनुष्य तो
यही चाहेगा कि
मृत्यु अनिश्चित
हो और बाकी सब
सुनिश्चित
हो। ज्योतिष
जीवन को
सुनिश्चित
बनाने का
मनुष्य का एक
प्रयास है।
मुझे एक
पुरानी कहानी
याद आती है।
एक महान
सम्राट को
स्वप्न आया कि
उसके सामने एक
काली छाया खड़ी
है। यहां तक कि
स्वप्न में भी
वह भय से कांप
उठा। उसने
छाया से पूछा, मेरी नींद
में मुझे इतना
भयभीत करने
में क्या सार
है?
छाया
बोली, यह
तुम्हारे ही
हित में है।
मैं तुम्हारी
मौत हूं। और
कल शाम जब
सूरज डूबने
लगेगा तब मैं
फिर तुमसे
मिलने आऊंगी।
केवल करुणावश
मैं तुम्हें
आगाह करने आयी
हूं। तुम भले
आदमी हो, इसलिए
तुम्हारे लिए
यह अपवाद किया
गया है। मैं
लोगों को यह
कभी नहीं
बताती कि वे
कब मरने वाले
हैं। तो यदि
तुम कुछ करना
चाहते हो, तो
तुम्हारे पास
अब भी बारह
घंटे का समय
है। तुम्हारी
कुछ करने की
इच्छा रह गई
हो तो कर लो।
यह तुम्हारा
आखिरी दिन है।
वह
इतना घबड़ा गया
कि उस घबराहट
में उसकी नींद
खुल गई। वह
स्वप्न खो
गया। वह पसीने
से तर बतर था।
वह स्वप्न
नहीं, दुःस्वप्न
था और उसके मन
में बड़ा
संभ्रम था कि
इसमें कोई
तथ्य है या
नहीं? उस
आधी रात में
उसने राजधानी
के सारे
ज्योतिषियों
को बुलाया—यह
जानने के लिए
कि उस स्वप्न
का मतलब क्या
है। वे सब
ज्योतिष
शास्त्र के
विभिन्न मतों
के ग्रंथ लेकर
आए। और आपसे
में चर्चा
करने लगे लड़ने
लगे।
जब
सूर्यों होने
के करीब था, उसका बूढ़ा
नौकर, जो
उसके पिता
तुल्य था...क्योंकि
जब उसके पिता
की मृत्यु हुई
थी तब वह बिलकुल
छोटा था, और
इस बूढ़े नौकर
ने उसकी सब
तरह से देखभाल
की थी, उसकी
सुरक्षा की, उसके
साम्राज्य का
संरक्षण किया,
उसका
राज्याभिषेक
किया। उस बूढ़े
आदमी का वह सम्राट
बहुत समादर
करता था। उस
बूढ़े आदमी ने
उसके कानों
में धीरे से
कहा मेरा
सुझाव मानें
तो...आपने ये जो
मूढ़ इकट्ठे
किए हैं यहां
पर, वे समय
के अंत तक
किसी
निष्कर्ष पर
नहीं पहुंचे।
वे सदियों—सदियों
से चर्चा करते
रहे हैं। उनकी
चर्चा शालीन
है। चर्चा
करने में उनकी
निपुणता
वर्णनातीत
है। लेकिन अभी
आपको उनके
प्रकांड
पांडित्य की
जरूरत नहीं
है। इस समय
आपको जरूरत है
एक खास निर्णय
की। और हमारे
पास ज्यादा
समय नहीं है।
मेरा सुझाव तो
यह है कि आपके
पास विश्व का श्रेष्ठतम
घोड़ा है। यह
घोड़ा लो, और
कम से कम इस
महल से और इस
राजधानी से
जितना दूर भाग
सको, उतना
भाग सको, उतना
भाग जाओ।
यह बात
राजा को जंच
गई। उसने उन
ज्योतिषियों
को उसी
तरह चर्चा
करते हुए छोड़
दिया और वह उस महल
से भाग गया।
जब तुम्हारे
सामने मौत खड़ी
हो तो न
तुम्हें भूख
लगती है, न
प्यास लगती है
और न ही
विश्राम करने
की जरूरत
महसूस होती
है। वह
राजधानी से
जितना दूर हो सके
उतनी दूर भागना
चाहता था।
उसने अपने
राज्य की
सीमाएं पार कर
लीं। सूरज
डूबते डूबते
वह एक सुंदर
बगीचे में, राज्य से
सैकड़ों मील
दूर पहुंच गया
था। जब वह अपना
घोड़ा एक वृक्ष
से बांध रहा
था, तो
उसने घोड़े को
धन्यवाद देते
हुए कहा, मैं
जानता था कि
तुम दुनिया के
श्रेष्ठतम
घोड़े हो, लेकिन
आज तुमने इसे
सिद्ध कर दिया
है। तुम हवा
की गति से
दौड़े हो और
तुमने मुझे
सारे भय से बाहर
कर दिया है।
जो ये
ज्योतिषी
नहीं कर सके, तह तुमने कर
दिखाया।
और ठीक
उसी क्षण सूरज
डूबा, और
अचानक उसने
अपने कंधे पर
किसी हाथ का
अनुभव किया।
उसने पीछे
देखा। वही पुरानी
काली छाया, जिसे उसने
स्वप्न में
देखा था। वहां
खड़ी थी। उसने
कहा, तुम्हारा
घोड़ा तो सचमुच
सर्व श्रेष्ठ
है। न केवल
तुम्हें
बल्कि मुझे भी
उसे धन्यवाद
देना चाहिए।
क्योंकि मुझे
बड़ी फिकर थी।
क्योंकि इसी
स्थान में, इसी समय
तुम्हें करना
था। तुझे
चिंता थी कि तुम
यहां किस तरह
पहुंचोगे।
लेकिन
तुम्हारा घोड़ा
एक चमत्कार
है। वह
तुम्हें ठीक
जगह, ठीक
समय पर ले
आया।
तुम्हारे
जीवन भर तुम
मृत्यु से
डरते हो। तुम अपन
को उलझाए रखते
हो। तुम इस
तथ्य को
स्वीकार करना
नहीं चाहते कि
मौत छाया की
तरह तुम्हारा
पीछा कर रही
है। और कोई
नहीं जानता, अगले क्षण
क्या होने
वाला है। लोग
इस तरह जगत में
जीते हैं जैसे
वे यहां सदा
रहने वाले
हैं। और वे
अच्छी तरह
जानते हैं कि
यहां कोई सदा
के लिए नहीं
है। लेकिन ये
सारे भयभीत
लोग—मृत्यु से
भयभीत, बीमारी
से भयभीत, असफलता
से भयभीत—धूर्त
लोगों के
शिकार हो जाते
हैं।
ज्योतिष
एक शोषण है।
और वह
तुम्हारा
शोषण नहीं
करता, तुम्हें
एक
अहंकारपूर्ण
खयाल भी
पकड़ाता है। जैसे
लाखों करोड़ों
प्रकाश वर्ष
पूरी के सितारे
तुम में रस
लेते हों!
जैसे उनकी गति
तुम्हारे
भाग्य को तय
करती है आर
दिशा देती है।
इस भांति एक
छोटा सा आदमी
भी पूरे विश्व
का केंद्र बन
जाता है।
ज्योतिषी
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्त करते हैं, तुम्हारे भय
दूर करते हैं।
लेकिन यह
विज्ञान नितांत
मिथ्या है।
इससे तो यह
स्मरण रखना
बेहतर होगा, उत्साहजनक
और
आध्यात्मिक
भी होगा, कि
हम बहुत छोटे
हैं। इतने
छोटे, जितना
कि घास का एक
तिनका। और इस
तथ्य को ठीक
से जान लेना
कि यह अच्छा
है कि भविष्य
पूर्व
निर्धारित
नहीं है; नहीं
तो तुम्हें
कोई
स्वतंत्रता
नहीं मिलेगी।
ज्योतिष
स्वतंत्रता
के विपरीत है।
शायद तुमने
कभी इन बातों
का मेल नहीं
किया होगा।
यदि कल
सुनिर्धारित
है तो मैं एक
यंत्र हो गया, मानव नहीं।
केवल यंत्रों
को ही
ज्योतिषियों की
सलाह लेनी
चाहिए, मनुष्य
को नहीं।
मनुष्य का
भविष्य तो
मुक्त है। और
मुक्त भविष्य
ही
स्वतंत्रता
देता है—स्वयं
का निर्माण
करने की
स्वतंत्रता।
ज्योतिष
तुम्हें
स्वतंत्रता
नहीं देता। वह
बड़ी से बड़ी
गुलामी है। उसमें
हर सूक्ष्म
घटना लिखी है।
और उसे बदलने का
कोई उपाय नहीं
है। घटनाएं
उसी तरह
घटेंगी जैसी
कि तय है।
उसने आदमी को
एक कठपुतली
बना रखा है—अंधी
शक्तियों के
हाथ की
कठपुतली।
मैं
ज्योतिष की
सार्थकता को
पूर्णतः
अस्वीकार
करता हूं
क्योंकि मैं
हर प्रकार की
गुलामी के
खिलाफ हूं।
मेरा पूरा
प्रयास यह है
कि तुम्हें
तुम्हारी
स्वतंत्रता
के बोध से भर
दूं। यदि
ज्योतिष सही
है तो गौतम
बुद्ध, कबीर,
दादू, सम्मान
के पात्र नहीं
हैं। यह तो
पहले से तय था।
वे जो हुए, वैसा
उन्हें होना
था। इसमें
उनकी महिमा
क्या है? और
हत्यारों की
भी निद्रा
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। जैसे
बुद्ध एक
कठपुतली हैं,
वैसे ही
हत्यारा भी एक
कठपुतली है।
और उन दोनों
को नचाने वाले
जो हाथ हैं, उनको कोई
नहीं जानता।
उन हाथों से
हमारा कोई परिचय
नहीं है।
नहीं, मैं इस
निर्धारण को
इंकार करता
हूं। मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि बुद्ध,
कबीर और
नानक की
उपलब्धियां
अपनी
उपलब्धियां
हैं। यह उनका
निर्माण है, उनका प्रयास
है, उनका
संघर्ष है। और
इसलिए वे पूरे
सम्मान के पात्र
है। और
हत्यारे, बलात्कारी,
अपराधी, ये
लोग भी अपने
को निर्मित कर
रहे हैं। वे
स्वयं को
बुद्ध भी बना
सकते थे लेकिन
उन्होंने
स्वयं को
हत्यारे
बनाने का तय
किया। पूरी
जिम्मेदारी
उन्हीं की है।
ज्योतिष तुम्हारी
सब
जिम्मेदारी
छीन लेता है।
और आदमी से जो
भी उसकी
जिम्मेदारी
छीन लेता है
वह चीज खतरनाक
है। क्योंकि
जिम्मेदारी
हमारी हत्या
है।
जिम्मेदारी
हमारी गरिमा
है।
जिम्मेदारी के
बगैर हम सिर्फ
यंत्र मानव
बनकर रह
जाएंगे। जिम्मेदारी
के साथ मनुष्य
की
स्वतंत्रता
का उदय होता
है।
ज्योतिष
का कोई
विज्ञान नहीं
है, और न कभी
हो सकता है।
वह मनुष्य के
आध्यात्मिक
विकास
के खिलाफ है,
मनुष्य की
स्वतंत्रता
के खिलाफ है, मनुष्य की
मनुष्यता के
खिलाफ है।
हस्तरेखा
विज्ञान के
संबंध में
आपका क्या खयाल
है? इन
रेखाओं का
क्या मतलब
होता है?
इन
रेखाओं का
भविष्य से कोई
संबंध नहीं
है। हम तुम्हारे
दोनों हाथ काट
सकते हैं, फिर भी
तुम्हारा
भविष्य होगा।
हम प्लास्टिक सर्जरी
करके
तुम्हारी
पूरी चमड़ी बदल
सकते हैं, फिर
भी भविष्य
होगा। ये
रेखाएं केवल
तुम्हारे हाथ में
मोड़ने के कारण
बने हुए निशान
हैं। लेकिन हम
गैर
जिम्मेदार
होना चाहते
हैं गहरे में
हम नाचते हैं
कि कोई हमारी
जिम्मेदारी
ले, कोई
परमात्मा
तुम्हारी
जिम्मेदारी
ले और तुम्हारी
तकदीर लिखे।
भारत
में तुम हाथ
की रेखाएं पढ़ते
हो लेकिन कभी
तुमने पैर की
रेखाएं पढ़ी हैं? तुम उनकी
उपेक्षा
क्यों करते हो?
लेकिन इस
पृथ्वी पर कुछ
ऐसे आदिवासी
भी हैं हो हाथ
की रेखाएं
नहीं पढ़ते, बल्कि पैर
की रेखाएं
पहुंचते हैं।
और उससे वे सोचते
हैं कि वे
अंधेरे में
अपना भविष्य
टटोलने की
कोशिश कर रहे
हैं। और ये
सिर्फ मूढ़
मान्यताएं
हैं। और तुम
इसे सब कहीं
घटता हुआ देख
सकते हो। कई
तरह से तुम इसके
उपाय करते हो।
हम
कुंडली तैयार
करते हैं, और उस
कुंडली के
अनुसार हम तय
करते हैं कि
कौन सा पुरुष
उपयुक्त है
किस स्त्री से
शादी के लिए।
तुम्हारी
सारी
कुड़लियां गलत
सिद्ध हुई है
क्योंकि किसी
का किसी से
मेल होता
दिखाई नहीं
पड़ता।
मुझे
आज तक ऐसा पति
नहीं मिला जो
पत्नी से खुश है।
वह दूसरे की
पत्नी के साथ
खुश हो सकता
है, लेकिन उन
दूसरों की
पत्नियों से
उसकी कुंडली मेल
नहीं खाती।
मुझे ऐसी एक
भी स्त्री
हनीं दिखाई दी
जो अपने स्वयं
के पति से खुश
हो। लेकिन बड़े
बड़े ज्योतिषी
पंडित
हस्तरेखा
शास्त्री, इन
लोगों ने तय
किया था।
मैं
कुछ दिनों तक
रायपुर में
रहा। ठीक मेरे
सामने ही एक
ज्योतिष था, जो रायपुर
में
सर्वश्रेष्ठ
था। उसकी फीस
बहुत महंगी
थी। और
प्रतिदिन
उसके पास
लोगों की भीड़
आती जो अपने
बेटों की, बेटियों
की शादियों के
बार में पूछती
थी। एक दिन
मैंने उससे
कहा कि तुम
बाकी लोगों के
भविष्य तय
करते हो, तुम्हारा
अपने बार में
क्या खयाल है?
क्योंकि
उसकी पत्नी
उसे पीटती थी।
उसने कहा, यह
सब व्यवस्था
है। मैं नहीं
जानता कि इन
रेखाओं का
क्या अर्थ होता
है। उनका कोई
अर्थ ही नहीं
होता।
क्योंकि मैं
अपने जीवन भर
मेल करता रहा,
कोई मेल
नहीं होता।
लेकिन
इस सो खेल के
पीछे एक गहन
प्यास है—कि
अपनी
जिम्मेदारी न
लेनी पड़े। और
जो आदमी अपनी
जिम्मेदारी
उठाने के लिए
तैयार नहीं है, उसने आदमी
होने से ही
इनकार कर
दिया। वह
मनुष्य की
गरिमा से नीचे
गिर गया।
मैं
रायपुर से कुछ
दूर, बिलासपुर
में था। एक
ज्योतिषी
मेरा हाथ रखने
के लिए, मेरी
कुंडली देखने
के लिए बड़ा
उत्सुक था।
मैंने कहा, मेरे पास
कोई कुंडली
नहीं है लेकिन
मेरे हाथ तुम
देख सकते हो।
लेकिन इससे
पहले कि तुम
मेरा हाथ देखो,
अपना हाथ
ठीक से देख
लो। उसने पूछा,
क्यों? मैंने
कहा, वह
बाद में तय
करेंगे। उसने
काफी मेहनत की,
अपने
शास्त्रों मग
देखा और फिर
कई बातें कहीं।
मैंने कहा:
धन्यवाद।
उसने पूछा, मेरी फीस का
क्या? मैंने
कहा, मैंने
तुमसे पहले ही
कहा था कि
मेरा हाथ
देखने से पहले
अपना स्वयं का
हाथ देखो—यह
आदमी मेरी फीस
देने वाला
नहीं है। अगर
तुम इतनी छोटी
सी और इतनी
जरूरी बात की
भविष्यवाणी
नहीं कर सकते,
तो फिर बाकी
सब अर्थहीन हो
जाता है।
मनुष्य
एक कोरे कागज
की तरह पैदा
होता है—एक
साफ, अलिखित
स्वतंत्रता।
और यही उसकी
गरिमा है।
कुत्ता
सिर्फ कुत्ता
हो सकता है और
कुछ भी नहीं—यह
निर्धारित
है। कुत्ते की
नियति होती
है। तुम्हारे
सब ज्योतिषी
को कुत्ते, बल्लियां और
सभी तरह के
प्राणियों की
ओर ध्यान देना
चाहिए। उनका
एक सुनिश्चित
स्वभाव होता
है। यदि तुम
भैंस का
अध्ययन करो, तो तुम्हें
दिखाई देगी कि
वह सब तरह की
घास भी नहीं
खाएगी...एक खास तरह
की घास।
मनुष्य
जानवरों से
ऊपर उठ गया
है। और मनुष्य
का मूलभूत
विकास यह है
कि उसने तमाम
अंधी बेड़ियों
से स्वयं को
मुक्त कर लिया
है। वह जैसा
चाहे जैसा
अपने को
निर्मित करने
के लिए
स्वतंत्र है।
उसे हर तरह का
अवसर उपलब्ध
है। वह चेतना
के उच्चतम
शिखर को छू
सकती है। और
वह अंधकार की
निम्रतम खाई
में गिर सकता
है। वह स्वर्ग
और नर्क, दोनों
ही अपने में
लिए रहता है।
लेकिन उसको छोड़कर,
दूसरा कोई
भी उसके संबंध
में निर्णय
नहीं ले सकता:
और न ही उसके
संबंध में कोई
भविष्यवाणी कर
सकता है।
अभी
बंबई में कुछ
मित्र एक महान
और प्रसिद्ध ज्योतिषी
को ले आए।
मैंने उस
ज्योतिषी से
कहा कि तुम आज
से लेकर सिर्फ
एक वर्ष तक की
भविष्यवाणी
कर सकते हो।
और मैं
तुम्हें लिख
कर देता हूं
कि तुम जो भी
भविष्य
बनाओगे, मैं
उसके बिलकुल
ही खिलाफ
वर्तन
करूंगा। यहां
तक कि यदि
कहोगे कि मैं
पूरा जीवन
जीऊंगा, तो
मैं मर
जाऊंगा।
लेकिन मैं
किसी तरह की
गुलामी को
सहारा नहीं
दूंगा।
वह
आदमी उन लोगों
की तरफ देखने
लगा, जो उसको
ले आए थे। और
उनसे कहा, तुम
मुझे कहां ले
आए हो? यह
आदमी खतरनाक
है। अगर इससे
आत्महत्या कर
ली तो मैं पकड़ा
जाऊंगा, कि
जब इन्होंने
कहा था कि तुम
जो लिखोगे मैं
उसने ठीक
उल्टा कर
दिखाऊंगा, तो
तुमने ऐसा
लिखा ही क्यों?
मैंने
कहा, एक छोटे
से प्रयोग के
लिए तुम कह
सकते हो कि आप मुझे
चांटा नहीं
मारेंगे, और
मैं तुम्हें
अभी चांटा
मारता हूं। और
उससे मामला तय
हो जाएगा।
वह
आगबबुला हो
गया। मैंने
कहा, इसका कोई
सवाल नहीं है।
सवाल इस बात
का है कि मेरे
कृत्य हैं। और
मैं अपने
कृत्यों की
पूरी जिम्मेदारी
लेता हूं।
अच्छे हों या
बुरे, लेकिन
मैं उन्हें
ईश्वर या
किस्मत या
नियति के
कंधों पर
डालना नहीं
चाहता हूं। यह
सब बकवास है।
अब समय आ गया
है। कि हम
इनसे मुक्त हो
जाएं।
इसी
तरह से यह देश
गरीब रहा है।
क्योंकि तुम क्या
कर सकते हो, तुम्हारी
गरीबी
तुम्हारे
सितारों में
लिखी है। तुम
बढ़ती हुई
आबादी को रोक
नहीं सकते।
तुम कर ही
क्या कसते हो—बच्चे
तो परमात्मा
की भेंट हैं।
तुम
किसी भी बात
के लिए किसी
तरह की
जिम्मेदारी
नहीं लेते। और
जिम्मेदारी
के बिना कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। और जिम्मेदारी
के बिना तुम
जानवरों के तल
पर आ गिरते हो, मनुष्य के
नहीं।
ज्योतिष
जानवरों के
लिए है, मनुष्य
के लिए नहीं।
आपकी
दृष्टि हमेशा
बदलती रहती है, स्थिर नहीं
है। तो आज इस
क्षण में, महावीर
और कृष्ण, मोहम्मद
और क्राइस्ट
इनके बारे में
आपके क्या
विचार हैं, क्या दृष्टि
हैं?
जीवन
स्थिर नहीं
है। अस्तित्व
में सिर्फ एक
चीज है जो कभी
परिवर्तित
नहीं होता, और वह है:
परिवर्तन।
मैं कोई पत्थर
नहीं हूं। मैं
गतिमान हूं, मैं बदलता
हूं—ये
जीवंतता के
लक्षण हैं।
लेकिन मैं
हमेशा श्रेष्ठतर
के लिए बदलता
हूं।
मैं
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, इन
लोगों से
प्रेम करता
हूं। लेकिन
मेरा प्रेम
अंधा नहीं है।
मैं भी देख
सकता हूं कि
इन लोगों ने
चेतना के
उत्तुंग शिखर
छुए हैं।
लेकिन इन
लोगों ने बहुत
गंभीर
गलतियां भी की
हैं। और जब
छोड़ा आदमी एक
गलती करता है
तो वह गलती भी
छोटी होती है।
और जब महावीर,
बुद्ध और
कृष्ण की
ऊंचाई के लोग
गलतियां करते हैं,
तो वह गलती
भी उस व्यक्ति
जितनी ही बड़ी
होती है।
मैं
उनसे प्रेम
करता हूं
क्योंकि
उन्होंने बहुत
महान प्रयास
किया, बहुत
भारी प्रयास
किया, अचेतन
के अंधकार से
बाहर आने का—प्रकाश
की ओर जाने
का। लेकिन उस
मार्ग में उन्होंने
कुछ गलतियां
भी कीं। और
मुश्किल यह है
कि उनके पीछे
चलने वाले ये
लाखों लोग, उनकी चेतना
की ऊंचाई तक
तो नहीं पहुंच
सकते, लेकिन
उनकी गलतियों
के शिकार
आसानी से हो
सकते हैं।
क्योंकि
गिरना सरल है,
चढ़ना बहुत
मुश्किल है।
यह किसी
दुर्गम पर्वतारोहण
की तरह है।
लोग सोचते हैं
कि आदमी या तो अच्छा
है या बुरा।
लोग हमेशा यह
या यह की भाषा में
सोचते हैं। यह
ठीक नहीं है।
एक बुरे आदमी में
कुछ महान और
सुंदर बात हो
सकती है। और
एक अच्छे आदमी
में कोई कुरूप
और निंदनीय
बात हो सकती
है। लेकिन
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
तो पहले
तो बात स्पष्ट
हो जाए कि मैं
यह या वह की
भाषा में नहीं
सोचा। मैं
समग्र व्यक्ति
को देखता हूं।
उसमें जो
अच्छा है, उसकी मैं
प्रशंसा करता
हूं। लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं है कि उसकी
बुराई के
प्रति मैं
अंधा हो जाता
है।
कृष्ण
का उदाहरण
लें। पृथ्वी
ने आज तक
जितने लोग
पैदा किए हैं, उनमें वे
सबसे प्यारे
व्यक्ति हैं।
वे अकेले व्यक्ति
हैं जिनका
धर्म संगीत, नृत्य और
प्रेम से
भरपूर है। मैं
इस बात का प्रशंसक
हूं। लेकिन वे
भारत के सबसे
बड़े युद्ध—महाभारत—के
कारण भी बने।
इससे मैं राजी
नहीं हो सकता।
और कभी—कभी तो
महात्मा आंधी
जैसे लोग भी
बिलकुल अंधे हो
सकते हैं। तुम
इसे देख सकते
हो, यह
इतना स्पष्ट
है।
महात्मा
गांधी अहिंसा
की शिक्षा
देते हैं और गीता
को अपनी माता
कहते हैं। और
गीता एकमात्र शास्त्र
है, जो हिंसा
सिखाता है। और
गांधी
को उनके पूरे
जीवन में किसी
ने नहीं कहा
कि बात बिलकुल
असंगत है। यदि
तुम कृष्ण के
साथ हो, तो
तुम अहिंसा के
प्रवर्तक
नहीं हो सकते।
वस्तुतः
अर्जुन
अहिंसा होने
की कोशिश कर
रहा था। वह
युद्ध भूमि
छोड़ देना
चाहता था यह
देखकर कि
लाखों लोग
मारे जाएंगे।
और इन लाखों
लोगों की
कब्रों पर यदि
मैं स्वर्ण
सिंहासन पर भी
विराजमान हो
जाऊं, तो
उसमें कौन सा
आनंद होगा? वह एक
कब्रिस्तान
होगा उससे तो
बेहतर होगा कि
मैं हिमालय
चला जाऊं, ध्यान
करूं और असली
स्वर्ण
सिंहासन पा
लूं, तो
लोगों की
हत्या पर
निर्भर नहीं
करता।
गीता
में, कृष्ण से
कहीं अर्जुन
ज्यादा
धार्मिक
प्रतीत होता
है। वह तो
कृष्ण ही है, जो उसे
फुसलाए जाते
हैं, उसे
लड़ने के लिए
प्रेरित करने
के तर्क दिए
जाते हैं।
पूरी गीता और
कुछ नहीं है
सिवाय इसके कि
अर्जुन युद्ध
से प्रेरित
करने के तर्क
दिए जाते हैं।
पूरी गीता और
कुछ नहीं है
सिवाय इसके कि
अर्जुन युद्ध
से बचने की
कोशिश करता है
और कृष्ण हर तरह से
उसे लड़ने के
लिए राजी करते
हैं। और अंततः
जब वह बौद्धिक
रूप से अर्जुन
को मना नहीं
सके तब वे
अतार्किक ढंग
से कोशिश करते
है कि यह
परमात्मा की
इच्छा है। क्योंकि
परमात्मा की
इच्छा के बिना
पता भी नहीं
हिलता। तो तुम
इस
जिम्मेदारी
को इतनी गंभीरता
से मत लो।
परमात्मा
चाहता है कि
युद्ध हो। यह
उसका निर्णय
है।
अगर
मैं अर्जुन की
जगह होता तो
मैं तत्क्षण
छोड़ देता और
कृष्ण से कहा
कि मुझे
परमात्मा कह रहा
है कि युद्ध
करना छोड़ दो; यह उसका
निर्णय है। और
मैं आपकी
क्यों सुनूं?
आप कोई
परमात्मा के
और मेरे बीच
मध्यस्थ नहीं है।
मुझे कोई
मध्यस्थ नहीं
चाहिए। मुझे लड़ना
नहीं है। आप
सिर्फ सारथी
हैं। परमात्मा
मुझसे भी बोल
रहा है।
और मैं
तुमसे कहता
हूं, अर्जुन
जो कह रहा था
वह कृष्ण के वक्तव्य
से, परमात्मा
के अधिक करीब
था। लेकिन
कृष्ण ज्यादा
तार्किक थे, ज्यादा
बौद्धिक थे।
और अर्जुन
उनका सम्मान करता
था। और जब
उन्होंने कहा,
यह
परमात्मा की
इच्छा है, उसको
समर्पण करो, तो उस
बेचारे ने
समर्पण कर
दिया। और
करोड़ों लोग
मारे गए।
और
महाभारत के
युद्ध के बाद
भारत ने अपनी
सारी गरिमा खो
दी। इसकी पूरी
जिम्मेदारी
कृष्ण की है।
भारत की रीढ़
ही टूट गई। वह
बौनों का देश
हो गया। और
महाभारत का अनुभव
इतना भीषण था
कि उसकी
प्रतिक्रिया
के बतौर, अन्यथा
भारत एक था, उसकी
प्रतिक्रिया
के रूप में, जैन और
बौद्ध धर्म
पैदा हुए, जिन्होंने
अहिंसा की
शिक्षा दी।
क्योंकि हिंसा
हमने देख ली
थी। उसने सारे
देश को, उसकी
गरिमा को नष्ट
कर दिया।
स्वभावतः मन
घड़ी के
पेंडुलम की
तरह एक अति से
दूसरी अति पर
घूमता है।
मैं
कोई
अतिवादी
नहीं हूं। मैं
गौतम
बुद्ध की
प्रशंसा करता
हूं, महावीर
का प्रशंसा
करा हूं, लेकिन
उनकी अतियों
का प्रशंसक
नहीं हूं। क्योंकि
पहले कृष्ण ने
देश को विनाश
की आंधी में ढकेला,
फिर उन
लोगों ने
अहिंसा के नाम
पर एक तरह की
नपुंसकता
पैदा की। दो
हजार साल तक
तुम गुलाम बने
रहे। कौन
जिम्मेदार है?
तना विशाल
देश—छोटी छोटी
जातियां आई और
तुम पर शासन
किया! क्योंकि
अहिंसा
तुम्हारा अभीप्सित
लक्ष्य बन
गया।
प्रज्ञावान
पुरुष मध्य
में ठहरता है।
वह किसी की
हिंसा नहीं
करता, लेकिन
किसी को स्वयं
की हिंसा भी
नहीं करने देता।
क्योंकि
दोनों हालत
में वह हिंसा
को सहारा दे
रहा है।
इस
घटना के फल
स्वरूप सिक्ख
धर्म पैदा हो
गया, जो ठीक
मध्य में।
केवल हिंसा को
या अहिंसा को आदर्श
मानकर ऊंचा
उठाने का कोई
सवाल ही नहीं
था। लेकिन
उसने मनुष्य
को एक
अंतदृष्टि दी
विध्वंसक
होना बुरा है;
जीवन को
नष्ट करना
बुरा है।
लेकिन दूसरे
को तुम्हें
नष्ट करने
देना भी उतना
ही बुरा है। तो
दूसरों के साथ
हिंसक मत होओ,
लेकिन अगर
कोई तुम्हारे
साथ हिंसक हो
रहा है तो
तुम्हारी
तलवार तैयार
रहे। उसे साथ
रखे रहो।
सिक्ख धर्म ने
इस बात की
फिकर की कि जो
पांच चीजें
सिक्ख धर्म की
आधारभूत साधन
हैं, उनमें
तलवार एक रहे।
यह तलवार किसी
को काटने के
लिए नहीं है
बल्कि लोगों
को इस बात की
चेतावनी देने
के लिए हैं, कि हम घास
पात नहीं हैं,
कि तुम हमें
काटते जाओ और
हम कुछ न
कहेंगे।
मैं
महावीर का
प्रशंसक हूं।
आत्मा की खोज
में उनकी
बराबरी का
आदमी खोजना
मुश्किल है...
असीम शक्तिशाली
व्यक्ति थे।
लेकिन फिर वे
दूसरी अति पर
चले गए।
अपरिग्रह
अच्छी बात है, क्योंकि
तुम्हारा सब
संग्रह अंततः
तुम्हारी
चिंता का कारण
बन जाता है।
और उसका कोई
अंत नहीं है।
तुम इकट्ठा
किए जाते हो, और मन अधिक
और अधिक की
मांग करता
रहता है।
महावीर
राजकुमार थे।
उनका
राज्यारोहण
होने वाला था।
उत्तराधिकारी
बनने वाले थे।
उन्होंने
राज्य दौड़
दिया। मुझे उस
पर कोई आपत्ति
नहीं है।
लेकिन चीजों
को अति पर मत
ले जाओ। अगर
तुम कोई चिंता
या तनाव नहीं चाहते
हो, तो राज्य
त्याग बिलकुल
उचित है। और
राज्य का अनुशासन
निरंतर चिंता,
तनाव और
पीड़ा का कारण
बनता है।
तुम्हें
शांति और मौन
की खोज है, और
तुम अपनी
समस्त ऊर्जा
आंतरिक विकास
में लगाना
चाहते हो, यह
बात समझ में
आती है। लेकिन
उसके लिए नग्न
रहना... मैं
इसका पक्ष
नहीं ले सकता।
कपड़े
कोई इतनी
चिंता का कारण
नहीं हैं। मैं
कपड़ों का
उपयोग करता
रहा हूं और
मुझे उससे कोई
अड़चन नहीं आई।
तो मैं नहीं
सोचता, तुम
भी कपड़ों का
उपयोग करते आए
हो, लेकिन
मैं नहीं
सोचता कि
तुम्हारी
आध्यात्मिक
प्रगति में
बाधा डालते
हैं। उल्टे, ठंड में तुम
कपड़े न पहनो
तो उससे
तुम्हारी साधना
में रुकावट आ
सकती है
क्योंकि
तुम्हारे भीतर
तनाव पैदा
होगा।
लेकिन
महावीर इतनी
अति पर चले गए
कि वे कोई
उपकरण काम में
नहीं लाएंगे।
यहां तक की
अपनी दाढ़ी या
बाल बनाने के
लिए उस्तरे का
उपयोग भी नहीं
करेंगे। अब
उस्तरा कोई अणु
बम तो नहीं
है। उन्होंने
आपने बाल
उखाड़ने शुरू
किए। अब यह
मूढ़ता है। और
मैं यह
सैद्धांतिक
रूप से कहना
चाहता हूं कि
प्रतिभाशाली
व्यक्ति में
भी ऐसा अंश हो
सकता है, जो
मूढ़तापूर्ण
है। प्रति
वर्ष वे अपने
बाल हाथ से
उखाड़ेंगे
क्योंकि वे
किसी उपकरण का
उपयोग नहीं कर
सकते। और मुझे
उसमें कोई
आध्यात्मिक
नहीं दिखाई
देती।
जब भी
मैं कोई ऐसी
बात देखता हूं
जो चेतना कि विकास
में सहयोगी हो, तो मैं उसके
पक्ष में होता
हूं। इस बात
से कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
वह मोहम्मद से
आती है या
मोजेस से, या
महावीर से।
आदमी गौण है, चेतना का
विकास
महत्वपूर्ण
है। लेकिन एक
संतुलन होना
चाहिए।
अन्यथा
पेंडुलम
स्वाभाविक रूप
से दूसरी अति
पर जाता है।
मोहम्मद
ने अपने धर्म
को नाम दिया
इस्लाम।
इस्लाम शानी
शांति। और दुनिया
में इस्लाम ने
जितना उपद्रव
पैदा किया है, उतना किसी
धर्म ने नहीं
किया।
निश्चित ही, मोहम्मद
उसके लिए
जिम्मेदारी
होंगे। उन्होंने
अपनी तलवार पर
लिख रखा था, शांति मेरा
संदेश है—यह
कोई तलवार पर
लिखने की बात
नहीं है।
क्योंकि
तलवार शांति
का संदेश नहीं
है। ज्यादा से
ज्यादा वह
सुरक्षा बन
सकती है, लेकिन
संदेश नहीं बन
सकती। वे आदमी
बड़े प्यारे
थे। बहुत
व्यावहारिक
और
प्रयोगत्मक
थे। और अगर
देशों में
उन्होंने
देखा कि वहां
निरंतर युद्ध
चलते थे और वे
स्वयं सतत
युद्ध में
उलझे रहते थे,
तो पुरुष
मारे जाते थे,
और पुरुषों
और स्त्रियों
का अनुपात बड़ा
विचित्र हो
गया था।
प्रकृति
एक संतुलन
बनाए रखती है।
प्रकृति में
स्त्रियों की
और पुरुषों की
संख्या करीब—करीब
समान होती है।
यह इस बात का
निदर्शक है कि
प्रकृति एक
प्रतीक है।
तुम बच्चों की
जन्म दर की
चांज करो तो
तुम्हें
आश्चर्य
होगा। 110 लड़के
पैदा होते हैं
और 100 लड़कियां
पैदा होती
हैं। तुम
कहोगे, यह
बात जरा अजीब
मालूम पड़ती
है। शायद तुम
सोचोगे कि
पुरुष
श्रेष्ठ है
इसलिए 110 लड़के
पैदा होते हैं
और स्त्री
कनिष्ठ है
इसलिए 100
लड़कियां पैदा
होती हैं। लेकिन
ऐसा नहीं है।
तथ्य तो इससे
बिलकुल उल्टा
है। पुरुष
कमजोर होते है
और स्त्री
ताकतवर होती
है—मांसपोशियों
की दृष्टि से
नहीं कह रहा
हूं। तो जब तक
ये लड़के विवाह
की उम्र के
योग्य बनते हैं
तब तक ये लड़के
विवाह की उम्र
के योग्य बनते
हैं तब तक वे
अतिरिक्त 10
लड़के मर चुके
होते हैं।
लेकिन 100
लड़कियां अभी
भी जिंदा होती
हैं। तो विवाह
के समय ठीक 100
लड़के और 100
लड़कियां होती
हैं।
प्रकृति
की अपनी
प्रज्ञा है।
स्त्रियां
पुरुषों से
पांच साल अधिक
जाती हैं।
लेकिन पुरुष का
अहंकार बड़ी
विचित्र है।
कोई पुरुष
अपने से पांच
साल बड़ी
स्त्री से
विवाह करने को
राजी नहीं
होता। हर देश
में लोग चाहते
हैं कि
लड़कियां
लड़कों से कुछ
साल छोटी हों।
अगर लड़का 25 साल
का है तो लड़की 20
की होनी
चाहिए। पर यह
पूर्णतः
प्रकृति के
खिलाफ हैं। 5
साल लड़की
ज्यादा जीने
वाली है लड़के
से। तो जब लड़का
75 साल का होगा तब
वह मरेगा, और उसकी
पत्नी सिर्फ 70
साल की होगी।
और वह व्यर्थ
ही बुढ़ापे के
दस साल पीड़ा
और एकाकीपन से
भरे हुए
बिताएगी।
अपने
से चौदह साल
बड़ी स्त्री से
शादी करके मोहम्मद
ने बहुत
हिम्मत का काम
किया। बात थोड़ी
विचित्र लगती
है लेकिन
प्रकृति से
अधिक मेल खाती
है। और चूंकि
स्त्रियां
चार गुना ज्यादा
थी, परिस्थिति
बहुत खतरनाक
थी। अगर
प्रत्येक पुरुष
एक ही स्त्री
से शादी करता
तो बाकी जो 3
स्त्रियां
बचतीं, उनका
क्या होता? वे वेश्या
बनेंगी।
क्योंकि
तुमने उन्हें
कोई और शिक्षा
नहीं दी है।
तुमने उन्हें
कोई आर्थिक
स्थिरता नहीं
दी है। तो
मोहम्मद ने यह
तय किया कि हर
पुरुष 4 या 5
स्त्रियों से
शादी कर सकता
है। यह बड़ी
सुंदर व्यवस्था
थी। उन्होंने
खुद नौ
स्त्रियों से शादी
की। लेकिन
उससे उनके
अनुयायियों
को जैसे
अनुज्ञा मिल
गई। हैदराबाद
के निजाम की
पांच सौ
पत्नियां थी।
क्योंकि चार
या चार से
ज्यादा...फिर
उसकी कोई सीमा
नहीं है।
मोहम्मद
पढ़े लिखे नहीं
थे। उनके पास
यह समझ नहीं
थी कि वे जो कर
रहे हैं, उसकी
गलत ढंग से
व्याख्या की
जा सकती है।
उन्होंने
सोचा भी नहीं
होगा कि उनके
अनुयायी पांच
सौ औरतों से
शादी करने
लगेंगे। और अब
जब अनुपात
बराबर हैं, स्त्रियों
और पुरुषों की
संख्या समान
है, इसलिए
मोहम्मद के
खयाल का निषेध
होना चाहिए और
उसे स्वीकृति
किया जाना
चाहिए। वह उस
समय, चौदह
सौ साल पहले
ठीक था, लेकिन
आज नहीं।
ये
सारे
महापुरुष, जो इस
पृथ्वी पर हुए,
उनके प्रति
मेरा
दृष्टिकोण
इतना ही है:
उनमें हमारे
लिए जो संगत
है उसे चुनें
और असंगत है उसे
छोड़ दें।
इस्लाम
धर्म उस दंश
में पैदा हुआ
था जो ज्यादा
सुसंस्कृत
नहीं था। उसे
सिर्फ एक ही
तर्क मालूम था—तलवार
का तर्क। और
तलवार कोई
तर्क नहीं है।
और इस्लाम धर्म
ठीक उसी बिंदु
पर अटका रह
गया है, जहां
मोहम्मद छोड़
गए थे।
क्योंकि कहा
है, और मैं
उसका निषेध
करता हूं, कि
मैं अल्लाह का
आखिरी पैगंबर
हूं; कि
अल्लाह के
पूर्ववर्ती
संदेशों में
कुरान अंतिम
सुधार है। अब
इसके बाद कोई
और पैगंबर नहीं
होगा और अन्य
कोई परिवर्तन
नहीं होंगे।
अब यह
धर्मांधता
है। और यह
किसने कहा है
कि इसको कोई
सवाल नहीं है—बात
ही गलत है।
जीवन विकसित
होता रहेगा और
लोगों को नए
संदेशों की
जरूरत पड़ेगी
और नए लोगों की
जरूरत पड़ेगी
जो नई
समस्याओं का
हल खोजेंगे।
और कुरान कोई
बहुत बड़ा धर्म
ग्रंथ नहीं
है। उसमें
उपनिषद की वह
उड़ान नहीं है।
उसमें गौतम
बुद्ध की
विचार संपदा
नहीं है।
लेकिन यह
स्वाभाविक भी
था क्योंकि
मोहम्मद
अशिक्षित
लोगों से बोल
रहे थे। लेकिन
वे अशिक्षित
लोग अब भी वही
ढोए चले जा
रहे हैं। एक
हाथ में तलवार
और दूसरे हाथ
में कुरान। या
तो कुरान को
स्वीकार करो
या तलवार को।
भारत
में जो
मुस्लिम रहते
हैं, जिन
मुस्लिम
लोगों ने
पाकिस्तान
निर्मित किया
है, उन्हें
बौद्धिक रूप
से यह बात
स्वीकृत नहीं
है कि वे जिस
धर्म को छोड़
रहे हैं, उससे
इस्लाम धर्म
कोई अधिक
श्रेष्ठ धर्म
है। उनसे
जबरदस्ती की
जा रही है। और
कम से कम धर्म
के मामले में
जोर जबरदस्ती
नहीं की जा
सकती है, नहीं
होनी चाहिए।
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना दर्शन
अभिव्यक्त
करने की छूट
होनी चाहिए।
और प्रत्येक
व्यक्ति को
उसे स्वीकार
या अस्वीकार
करने की छूट
होनी चाहिए।
उसका
अस्वीकार करना
उसका अपमान
नहीं है। धर्म
केवल स्वतंत्रता
की आबोहवा में
विकसित होता
है। इस्लाम ने
खुद
मुस्लिमों को
भी यह
स्वतंत्रता
नहीं दी है।
मेरी
बातों से लोग
पशो पेश में
पड़ जाते हैं
क्योंकि
मैंने जो कल
कहा था वह मैं
शायद आज नहीं कहूंगा।
और जो मैं आज
कह रहा हूं
शायद वह कल नहीं
कहूंगा।
क्योंकि मैं
जीवित
व्यक्ति हूं।
मैं मुर्दा
नहीं हूं। जब
मैं मर जाऊं
तभी तुम्हें
मेरे साथ
सुविधा हो
सकती है, अन्यथा
नहीं।
तुम्हारी हाथ
में जो भी आता
है उसे जल्दी
से पकड़ लेना
चाहते हो। और
फिर तुम उसे
बदलना नहीं
चाहते। भय!
लेकिन जीवन
बहती गंगा है।
वह बहता रहता
है। और
प्रामाणिक
आदमी सदा नदी
की भांति होता
है। सिर्फ मृत
लोग तालाब की
भांति होते
हैं। उनका
पानी भाप बन जाता
है, वे
ज्यादा से
ज्यादा कीचड़
से भर जाते
हैं। और वे
मुर्दा हैं
क्योंकि वे
बहते नहीं है।
लेकिन
आज मैं जो भी
कह रहा हूं वे
कल असंगत होनेवाला
नहीं है। वह
आज से कहीं अधिक
बेहतर और
श्रेष्ठतर
होगा। लेकिन
उस श्रेष्ठतर
और बेहतर को
समझने के लिए
तुम्हें उस ऊंचाई
तक उठना होगा, नहीं तो वह
असंगत मालूम
पड़ेगा।
मैं एक
सरल सहज आदमी
हूं। मेरे पास
कोई सिद्धांत
नहीं है, न
कोई मत है।
मेरे पास
सिर्फ एक
स्पष्टता है। और
मेरे पास
देखने की आंखें
है। और जब मैं
देखता हूं कि
परिवर्तन जरूरी
है, तब मैं
फिकर नहीं
करता कि इसके
मेरे लिए क्या
परिणाम
होंगे।
इसीलिए सारी
दुनिया में
व्यर्थ ही
मेरी निंदा हो
रही है।
क्योंकि अगर
मैं जीसस के
खिलाफ कुछ
कहता हूं तो
ईसाई क्रोधित
हो उठते हैं।
तुम्हें
आश्चर्य होगा, मैं कुछ
पहले जीसस पर
बोला, तब
यूरोप और
अमेरिका के
बहुत से ईसाई
प्रकाशन उसे
प्रकाशित
करने को
उत्सुक थे।
उन्होंने उसे
प्रकाशित भी
किया।
इंग्लैंड की
एक ईसाई प्रकाशन
संस्था ने दस
किताबें
प्रकाशित
कीं। और अभी
कुछ दिन पहले
मुझे उनका
पत्र मिला, कि आप जो कह
रहे हैं उसे
अब हम
प्रकाशित
नहीं कर सकते।
मैंने कहा, मैं जो कह
रहा हूं उसे
तो तुमने कभी
प्रकाशित किया
ही हनीं। तुम
केवल इसलिए
प्रकाशित कर
रहे थे, क्योंकि
मैंने जीसस
क्राइस्ट के
उज्जवल पक्ष
को उजागर
किया। अब मैं
उस चित्र को
पूरा कर रहा
हूं। उनका
दूसरा पहलू भी
तुम्हें
दिखाना है। और
तुम्हारे पास
वह दूसरा पहलू
देखने का साहस
नहीं है।
मेरी
आलोचना में
किसी की निंदा
नहीं होती। सवाल
यह है कि वह
सत्य के निकट
आता है या
नहीं। और सत्य
पर किसी का
एकाधिकार
नहीं है। सत्य
इतना विराट है
और हम इतने
क्षुद्र है।
सत्य के इतने
पहलू होते हैं, और एक समय हम
सिर्फ एक ही
पहलू देख सकते
हैं, तुम
जब दूसरा पहलू
देखते हो, तो
यदि तुम डरपोक
होगे तो तुम
चुप रह जाओगे।
क्योंकि लोग
कहेंगे कि तुम
अपना
दृष्टिकोण बदल
रहे हो। मैं
किसी
दृष्टिकोण से,
किसी
सिद्धांत से
बंधा नहीं
हूं। मेरे
दर्शन में जो
भी आता है उसे
मैं तुम्हें
बांटना
चाहूंगा।
मैं
नहीं चाहता कि
तुम मुझसे
सहमत होओ। मैं
यह भी नहीं
चाहता कि तुम
मुझसे असहमत
होओ। मैं केवल
इतना ही चाहता
हूं कि तुम
खुले रहो, उपलब्ध रहो,
मेरी बात
सुनने के लिए
तैयार रहो, यदि उसमें
कोई सत्य है
तो वह
तुम्हारे
हृदय तक पहुंचेगा।
यदि उसमें कोई
सत्य नहीं है
तो वह अपने आप
गिर जाएगा, तुम्हारे
हृदय तक नहीं
पहुंचेगा।
आप
महाविद्यालय
में
प्राध्यापक
थे, और आज भी
आप शिक्षक हैं
गुरु। आप
हमारे विद्यालयों
और
महाविद्यालयों
में किस तरह
की शिक्षा
प्रणाली लाना
चाहेंगे?
मैं
अध्यापक रहा
हूं। और
विश्वविद्यालय
में मैंने
पढ़ना छोड़ दिया
है क्योंकि
मैं अपनी
अंतरात्मा के
विपरीत कुछ भी
नहीं कर सकता।
और तुम्हारी
पूरी शिक्षा प्रणाली
मनुष्य की
सहायता करने
के लिए नहीं
है, उसे पंगु
बनाने के लिए
है। तुम्हारी
शिक्षा प्रणाली
न्यस्त
स्वार्थी को
मजबूत करने के
लिए बनी है।
मैं यह करने
मैं असमर्थ
था। मैंने इसे
करने से इनकार
कर दिया।
वास्तविक
शिक्षा
विद्रोही
होगी, क्योंकि
उसकी भविष्य
की ओर होंगी, अतीत की ओर
नहीं।
प्रकृति ने
तुम्हारे सिर
में पीछे की
और आंखें नहीं
दी है। अगर
प्रकृति यही
चाहती कि तुम
पीछे की ओर
देखते रहो तो
उसने तुम्हें
आगे की ओर
देखने के लिए व्यर्थ
ही आंखें दीं।
भारत
की शिक्षा
प्रणाली वही
है, जो
अंग्रेज
सरकार ने भारत
के मन पर थोपी
है। उनका
उददेश्य केवल
क्लर्क और
गुलाम पैदा
करने का था।
और वही शिक्षा
प्रणाली चलती
है क्योंकि आज
जो ताकत में
हैं, अब वे क्लर्क
और गुलाम
तैयार करना
चाहते हैं।
कोई नहीं
चाहता कि सत्य
बोला जाए।
भविष्य का
निर्माण करने
में किसी का
रस नहीं है, बल्कि सभी
अतीत का शोषण
करना चाहते
हैं।
मैं
चाहता हूं कि
शिक्षा सरकार
की अनुगामिनी न
हो। शिक्षा इस
सड़े हुए समाज
की परिपुष्टि
न करे बल्कि मनुष्य
के प्रति, विकासमान
बच्चों के
प्रति
समर्पित हो।
मनुष्य
का शरीर है, लेकिन
शिक्षा
मनुष्य के
शरीर के लिए
कुछ नहीं करती।
जब कि हम
जानते हैं कि
मनुष्य का
शरीर शक्तिशाली,
स्वस्थ और
युवा बना रहने
के लिए
प्रशिक्षित किया
जा सकता है।
लेकिन शरीर की
किसी को फिक्र
ही नहीं है।
शिक्षा में
ऐसा कोई
कार्यक्रम नहीं
है।
मनुष्य
का मन है, लेकिन
शिक्षा सिर्फ
इसकी फिकर
करती है कि
सत्ताधारीयों
की सेवा करने
के लिए मन को
संस्कारित
किया जाए, ताकि
वह वह उनकी
खिदमत कर सके।
यह मनुष्यता
के खिलाफ है।
मन को स्वच्छ,
पैना और
बुद्धिमान बनाना
चाहिए। लेकिन
बुद्धिमान मन
कोई नहीं चाहता।
प्रखर चेतना
कोई नहीं
चाहता। ये
खतरनाक बातें
है। क्योंकि
वे किसी भी
मूढ़ता के आगे सिर
नहीं
झुकाएंगे।
शिक्षा को इस
अर्थ में विद्रोही
होना चाहिए कि
आदमी के पास
अपने बल पर हां
या ना कहने का
ताकत होनी
चाहिए।
तुम्हें
यह जानकर
आश्चर्य होगी
कि दक्षिण
अमेरिका की एक
सरकार—उरुग्वे—मुझे
वहां स्थायी
निवास देने के
लिए राजी थी। वे
मुझे वहां
नागरिकता
देना चाहते
थे। क्योंकि
उस देश का
राष्ट्रपति
एक बुद्धिमान
आदमी है। जिस
दिन वह कागजात
पर दस्तखत
करने वाला था, उस दिन
अमेरिकन राष्ट्रपति
से उसे संदेश
मिला कि
छत्तीस घंटे
के भीतर इस
आदमी को
ऊरुग्वे से
बाहर किया जाए;
क्योंकि यह
आदमी अति
बुद्धिमान
है। उन्होंने
जो कारण बताया
वह बड़ा हैरानी
का था: वह आदमी
अति
बुद्धिमान है,
और वह
तुम्हारी
युवा पीढ़ी और
उसका मन बदल
देगा। वह
तुम्हारा
धर्म, तुम्हारा
अतीत नष्ट कर
सकता है। और
बाद में शायद
तुम पछताओगे
कि तुमने उस
प्रवेश करने
दिया। क्योंकि
तुम्हारे
राजनीतिक दल
केवल कचरे के
आधार पर जी
रहे हैं। यह
तुम्हारे
अपने हित में है
कि यह आदमी
छत्तीस घंटे
के भीतर यह
देश छोड़ दे।
और हर एक घंटे बाद
अमेरिकन
राष्ट्रपति
के सचिव का
फोन बार—बार
आता रहा: वहां
आदमी गया कि
नहीं?
मैंने
उस
राष्ट्रपति
से कहा, चिंता
की कोई बात
नहीं है, मैं
खुद छत्तीस
घंटों के भीतर
चला जाऊंगा।
और अमेरिकन
राष्ट्रपति
ने जो भी कहा
है, वह
मेरी निंदा
नहीं है, वह
तुम्हारी और
तुम्हारे देश
की निंदा है।
जहां तक मेरा
संबंध है, यह
मेरी प्रशंसा
है। यदि
ज्यादा
बुद्धिमत्ता
खतरनाक है, तो हर देश, हर सरकार
चाहती है कि
लोग मानसिक
रूप से अपंग हों।
मानसिक अपंग
लोग
आज्ञाकारी
होते हैं।
मैंने
सुना है, प्रथम
विश्वयुद्ध
के बाद
मनोवैज्ञानिक
ने पहली बार
आदमी की
बुद्धि नापने
की कोशिश की।
इस काम के लिए
सेना बहुत अच्छी
जगह थी। और यह
देखकर बहुत
धक्का लगा कि
सेना में हर
सैनिकों की
औसतन मानसिक
आयु केवल तेरह
साल है। आदमी
चाहे सत्तर
साल का हो, लेकिन
उसके मन ने
तेरह साल के
बाद विकसित
होना बंद कर
दिया है।
लेकिन सेना
में वे
बुद्धिमान
लोग नहीं
चाहते हैं।
दूसरे
विश्वयुद्ध
में एक
प्राध्यापक
को सेना में
भरती किया गया, क्योंकि
सैनिकों की
कमी थी। वह प्राध्यापक
बार—बार कह
रहा था, कि
मैं बिलकुल भी
सैनिक बनने के
योग्य नहीं हूं,
लेकिन किसी
ने उसकी न
सुनी।
पहले
दिन उसे मैदान
पर भेजा गया।
कप्तान आदेश
देने लगा, बाएं घूम, दाएं घूम, पीछे घूम।
और वह आदमी
जैसे का वैसा
खड़ा रहा। कप्तान
बड़ा हैरान
हुआ। वह जानता
था कि यह आदमी एक
विख्यात
प्राध्यापक
था। जब दाएं
घूम बाएं घूम,
पीछे घूम, कुछ कदम आगे
चलो, फिर
पीछे जाओ, यह
सारी कवायद
खत्म हुई और
जब वे फिर से अपनी
मूल स्थिति
में वापिस आए,
तब वह उस
प्राध्यापक
के पास आया, जो पूरे
वक्त उसी
स्थिति में
खड़ा था।
उसने
पूछा, आपको
हो क्या गया
है? क्या
आप मेरे आदेश
नहीं सुन सकते?
वह
बोला, मैं
आपके आदेश सुन
सकता हूं
लेकिन इसमें
क्या मतलब है?
ये मूढ़ दाएं
गए, बाएं
गए, वहां गए,
और अंततः
उसी स्थिति
में आ गए, जिसमें
मैं पूरे समय
से खड़ा था। और
जब तुम कहते
हो, दाएं
घूम, तो
मैं एकदम से
दाएं नहीं घूम
सकता। मुझे
अपने आपको
समझाना पड़ता
है कि क्यों, क्यों दाएं
घूमूं।—बाएं
क्यों नहीं? किसी
तर्कपूर्ण
आधार के बिना
मैं दाएं या
बाएं नहीं घूम
सकता। तुम
मुझे बुद्धू
नहीं बना
सकते। दाएं
घूमने से मतलब
क्या है?
यह बात
उस कप्तान से
किसी ने कभी
पूछी नहीं थी।
मुझे अपने ऊपर
के
अधिकारियों
से पूछना
पड़ेगा कि इस
आदमी का क्या
करें! अगर यह
दाएं घूम सकता, और इसे पहले
तर्कपूर्ण
स्पष्टीकरण
चाहिए...और मैं
उसे क्या कारण
बताऊं? यह
महज एक कवायद
है।
प्राध्यापक
बोला, कवायद
मैं अपने घर
में भी कर
सकता हूं।
इतनी ठंड में
यहां आकर यह
मूढ़तापूर्ण
कवायद करने की
कोई जरूरत
नहीं है।
उच्चतर
अधिकारियों
ने कहा, वह
एक प्रसिद्ध
प्राध्यापक
है। वह कोई भी
काम बौद्धिक
तार्किक आधार
के बिना नहीं
करता। तुम उसे
मेरे पास भेज
दो, मैं
उसे कुछ और
काम देता हूं।
वह उसे
सेना के
भोजनालय में
ले गया, और
हरे मटर का एक
ढेर दिखाया और
कहा, तुम
बैठकर बड़े
दाने एक तरफ
करो और छोटे
दाने एक तरफ
करो। एक घंटे
के बाद मैं
आकर देखूंगा
कि तुमने क्या
किया है।
एक घंटे
बाद जब वह
वापिस लौटा, तो उसने
देखा कि
प्राध्यापक
बैठा है और
मटर का ढेर
वासा का वैसा
उसके सामने
पड़ा है। एक
दाना भी उसने
छुआ नहीं है।
उसने पूछा, तुमने कुछ
किया नहीं? वह बोला, इसमें
इतनी सारी
समस्याएं थीं
और उसके इतने
परिणाम थे।
उसने पूछा, इतने छोटे
से काम में
क्या
समस्याएं हो
सकती है? वह
बोला, पहली
समस्या तो यह
है कि कुछ मटर
छोटे हैं और कुछ
बड़े हैं, लेकिन
कुछ दाने ऐसे
हैं, जो
बीच में हैं।
उन्हीं कहां
रखूं? और
इस सारी मूढ़ता
में सार क्या
है? ये
सारे मटर—छोटे
और बड़े, एक
ही पात्र में
रहेंगे, तो
मुझे क्यों
तकलीफ दे रहे
हो?
उसे
छोड़ दिया गया।
वह किसी काम
का नहीं था।
हर
सेना सुबह शाम
लोगों को
प्रशिक्षण
देती रहती है
तुम सोचते हो, यह
प्रशिक्षण है—यह
प्रशिक्षण
नहीं है। यह
उनकी बुद्धि
को नष्ट करने
का आयोजन है।
यह उस बात की
तैयारी है, जब वे आदेश
देंगे, बंदूक
चलाओ, तो
वे यह नहीं
सोचने, क्यों?
वे सब गोली
चला देता हैं।
वे यह नहीं
सोचते कि इस
आदमी आदमी ने
मेरा कुछ नहीं
बिगाड़ा है, मैं इस पर
क्यों गोली
चलाऊं? इस
अनुशासन में
उनका क्यों खो
जाता है।
अनुशासन की
अपनी वजह है।
लेकिन
यह अनुशासन
सिर्फ सेना
में नहीं होता, यह समाज मग
सब जगह पाया
जाता है। अगर
तुम अपने माता—पिता
से परमात्मा
के संबंध में
पूछो तो, उनके
पास कोई उत्तर
नहीं है।
क्योंकि उनके
माता पिता ने
उन्हें कोई
उत्तर नहीं
दिया था। वे
कहते हैं, रुको,
जब तुम बड़े
हो जाओगे। तब
जान जाओगे।
मेरे
पिता के एक
मित्र शहर के
सबसे ज्ञानी
व्यक्ति माने
जाते थे। और
मैं उनसे
पूछता था, और वे हर बात
में कहते, जरा
रुको। जब तुम
बड़े हो जाओगे,
जरा प्रौढ़
हो जाओगे तब
तुम समझोगे।
बात इसी तरह
चलती रही। फिर
मैं
विश्वविद्यालय
से वापिस आया।
विश्वविद्यालय
में मैं प्रथम
आया था। मैं
उनके पास गया,
कि सब समय आ
गया है। मैं
पूरे
विश्वविद्यालय
में प्रथम आया
हूं। मेरे
सवालों का
क्या? वे
बोले, तुम
जरा ठहरो।
मैंने कहा, बस अब बहुत
ज्यादा हो
गया। मैंने
बहुत प्रतीक्षा
कर ली।
ईमानदारी से
कहो, आप
इनके उत्तर
जानते हैं या
नहीं? वे
ईमानदार आदमी
थे। उन्होंने
कहा, सच
कहूं, तो
मैं नहीं इनके
उत्तर जानते
हैं या नहीं? वे ईमानदार
आदमी थे।
उन्होंने कहा,
सच कहूं, तो मैं नहीं
जानता। यह
सिर्फ एक चाल
थी, जो
सदियों तक
इस्तेमाल की
गई थी।
तुम्हारे साथ
मुश्किल यह है
कि तुम पूछते
ही चले जाते
हो। अधिकतर
लोग जब बड़े हो
जाते हैं, तब
अन्य बातों
में उलझ जाते
हैं। और इन
बातों को
उन्हें कोई परवाह
नहीं होता, वे भूल ही
जाते हैं। और
अधिकतर तो
उनकी शादी हो
जाती है। उनके
बच्चे उनसे
पूछने लगते
हैं और वे
कहने लगते हैं,
रुको, जब
तुम बड़े हो
जाओगे तब
तुम्हें
उत्तर मिल जाएगा।
तुम्हारे साथ
मुश्किल यह है
कि तुम
अविवाहित हो।
मैंने
कहा, यह तो बड़ी
अजीब बात हुई।
आप सोचते हैं
कि शादी सब
समस्याएं
सुलझा देगी।
मुझे तो इसमें
कोई तुक नहीं
दिखाई देती कि
विवाह करने से
ही मैं ईश्वर
को जान लूंगा।
अन्यथा जो
विवाहित हैं,
उस ने जान
लिया होता।
आपने तीन बार
शादी की है, आप सब रहस्य
जान गए होंगे।
वे बोले, मैं कुछ
नहीं जानता।
लेकिन बच्चों
से छुटकारा
पाने का यही
उपाय है, नहीं
तो वे
तुम्हारा सिर
खा जाएंगे।
लेकिन
इससे उनकी
बुद्धि का
विकास नहीं
होगा। बेहतर
होता यदि वे
कहते, हमें
पता नहीं है, हम खुद खोज
रहे हैं तो
उसमें ज्यादा
प्रामाणिकता
होती; उसमें
अधिक
धार्मिकता
होती। यह तो
धूर्तता हुई।
और यह धार्मिक
नहीं है। और
सारा समाज इस
पाखंड में जी
रहा है। तुम
ईश्वर को नहीं
जानते, फिर
भी उसकी पूजा
करते हो। तुम
कुछ नहीं
जानते, फिर
भी उत्तर देने
के लिए तैयार
हो चूंकि वे उत्तर
तुम्हें दिए
गए हैं, तुम
उन्हें तोतों
की तरह
दोहराते रहते
हो।
मैं एक
ऐसी शिक्षा
प्रणाली
चाहूंगा, जो
तुम्हें
उत्तर ने दे
बल्कि
तुम्हारे
प्रश्न अधिक
तीव्र करे, तुम्हारी
बुद्धि अधिक
पैनी करे और
तुम्हें एक
अखंडता
प्रदान करे।
तुम्हारी
शरीर की समुचित
देखभाल की जाए,
तुम्हारे
मन में एक स्वच्छता
हो और
तुम्हारी
आत्मा जो कि
पूरी तरह से
उपेक्षित है;
उसका कोई
उल्लेख ही
नहीं करता।
तुम्हें ध्यान
के अनुकूल
वातावरण
मिलना चाहिए।
तुम्हें मौन
होने की कला
सिखायी जानी
चाहिए। और मौन
न हिंदू होता
है, न
मुसलमान होता
है, न
ईसाई। मौन
सिर्फ मौन
होता है। शांति
की गहन झीन
बनने में
तुम्हारी मदद
करनी चाहिए, ताकि तुम
अपनी आत्मा को
पहचान सको। यह
तुम्हें यह
धार्मिक
व्यक्ति
बनाएगा—बिना
तुम्हें
ईश्वर की
जानकारी दिए,
बिना
तुम्हें ऐसी
बातें सिखाए
जिन पर मूढ़ से
मूढ़ व्यक्ति
को भी संदेह
होगा। तुम
मुसलमान नहीं
बनाए जाओगे, ईसाई या जैन
या सिख नहीं
बनाए जाओगे, बल्कि तुम
एक संगठित, स्वस्थ, सचेतन,
आत्मवान, दृढ़मूल
व्यक्ति
बनोगे। लेकिन
यह बस सभी
शक्ति के
खिलाफ जाती
हैं। क्योंकि
तब फिर वे
तुम्हें
गुलाम नहीं
बना सकते।
बाकी
सब बातें जो
सिखायी जा रही
है, सिखायी
जा सकती है, लेकिन उनमें
ये बात और जोड़
देनी चाहिए।
जो शिक्षा
तुम्हारे
भीतर
वैयक्तिकता
विकसित नहीं
करती वह शिक्षा
नहीं है, वह
अशिक्षा है।
आपकी
दृष्टि में
आपका धर्म या
अध्यात्म
क्या है?
कृपा
कर दो बातें
समझाएं: क्या
इसमें कोई
अध्यात्म
है...लोगों के
मन में इस बात
के संबंध में
बड़ा संभ्रम है, और वे जानना
चाहते हैं कि
आपको 93 रोल्स
रायस, हीरे और इस
तरह की अन्य
बातों की
जरूरत क्या है?
क्या इसमें
कोई अध्यात्म
है?
और
दूसरा प्रश्न:
लोग वास्तव
में जानना
चाहते हैं, कि क्या
इसमें कोई
धार्मिकता है
कि स्त्रियां
पुरुषों के
सामने नग्न हो
जाएं? इसमें
कौन सा
अध्यात्म है?
क्या वह
जरूरी है, आवश्यक
हैं?
अस्तित्व
में सिर्फ
आध्यात्मिक
है, कोई धर्म
नहीं है। धर्म
उसी का दूसरा
नाम है। उसे
आध्यात्मिक
कहना अधिक
उचित होगा
क्योंकि यह
शब्द उतना
प्रदूषित
नहीं है। धर्म
शब्द बहुत
प्रदूषित हुआ
है। धर्म शब्द
के उच्चारण
मात्र से ही
हिंदू धर्म
मुसलमान धर्म
या ईसाई धर्म
का खयाल उठता
है—यही
प्रदूषण है।
यह शब्द बड़ा
सुंदर है
लेकिन यह बहुत
प्रदूषित हो
गया है।
आध्यात्मिकता
अब भी प्रदूषण
से मुक्त है।
जब तुम
आध्यात्मिकता—इस
शब्द को सुनते
हो तो उसके
साथ कोई
विशेषण नहीं
जुड़े होते।
हालांकि
दोनों का
मूलभूत अनुभव
एक जैसा है।
आध्यात्मिकता
का अर्थ होता
है, तुम
जानते हो कि
केवल शरीर
नहीं हो, तुम
केवल मन नहीं
हो; कि
शरीर और मन
मरेंगे
क्योंकि वे
पैदा हुए थे।
तुम अपने जन्म
के पहले थे, और तुम अपनी
मृत्यु के बाद
भी रहोगे। और
यह अनुभव तुम्हें
जीते जी होता
है—अगर तुम
अपने भीतर
प्रवेश कर
सको। और यही
मैं मौन में, ध्यान में
कह रहा था।
आध्यात्मिकता
त्याग नहीं है, यह संसार का
त्याग नहीं है—यह
संसार का
रूपांतरण है।
आध्यात्मिकता
मतलब गरीबी
नहीं है।
आध्यात्मिकता
का मतलब है, तुम्हारे
पास एक आंतरिक
समृद्धि है, और इस बात की
पूरी कोशिश
करनी चाहिए कि
तुम बाहर से
भी समृद्ध हो
जाओ। क्योंकि
इन दोनों में
कोई
विरोधाभास
नहीं है।
हिमालय जाकर
किसी गुफा में
बैठकर ध्यान
करने की कोई
जरूरत नहीं है
जब कि तुम
अपने घर में
ही एक छोटा सा
एयर कंडीशंड,
साउंड
प्रूफ कक्ष
बना सकते हो—जो
हिमालय की
किसी भी गुफा
से कहीं बेहतर
होगा। पुराने
जमाने में ऐसा
स्थान खोजने
का कोई उपाय
नहीं था, जहां
कोई आवाज न हो:
लेकिन अब तुम
अपने घर में इसे
बना सकते हो।
हर घर में एक
छोटी सी ध्यान
गुफा होनी
चाहिए। यह
साउंड प्रूफ
होनी चाहिए। वह
एयर कंडीशंड
होनी चाहिए
ताकि तुम
उसमें आराम से
बैठ सको।
आध्यात्मिकता
का अर्थ स्वयं
को सताना नहीं
होता—कि अपन
सिरे के बल
खड़े हैं या
शरीर को विकृत
कर रहे हैं।
ये सब बातें
जादूगरों पर
छोड़ दो।
आध्यात्मिकता
का अर्थ है, शांति—इतनी
गहन कि
तुम्हारी
भीतर बहती हुई
वैश्विक
शांति की
अंतधार्रा के
साथ तुम एक हो
जाओ। और उसमें
कोई कारण नहीं
है कि तुम
संपन्न क्यों
न हो। वस्तुतः
आध्यात्मिक
व्यक्ति अधिक
बुद्धिमान, अधिक
रचनात्मक और
अधिक समझदार
होता है। वह
दुनिया का
सबसे संपन्न
व्यक्ति हो
सकता है। और उसकी
संपन्नता के
दो आयाम होंगे—एक
आंतरिक और एक
बाह्य।
मेरा
योगदान यह है
कि तुम इसे
अच्छी तरह से
समझ लो कि
बाह्य
समृद्धि
तुम्हारी
आंतरिक आध्यात्मिकता
को नष्ट नहीं
करती। और न
बाह्य दरिद्रता
उसमें सहयोग
करती है। भूखा
आदमी शांत बैठ
ही नहीं सकता।
ठंड से
ठिठुरता हुआ
नंगा आदमी भी
शांत नहीं बैठ
सकता। और तुम
भूखे या नंगे
न भी होओ, लेकिन
तुम चारों ओर
भिखारियों से
धीरे होओ, तो
भी तुम शांति
से बैठे नहीं
सकते।
क्योंकि तुम्हारे
पास हृदय है।
मैं इस
जगत को दोनों
प्रकार से
समृद्ध से
समृद्ध
चाहूंगा। और
जब जगत दोनों
प्रकार से
समृद्ध हो
सकता है, तब
एक ही दिशा
क्यों चुनें?
अब तक यही
स्थिति रही
है। पश्चिम ने
बाह्य समृद्धि
चुन ली और
पूरब ने
आंतरिक
समृद्धि चुन
ली। दूसरे
शब्दों में, पूरब ने
बाह्य
दरिद्रता
चुनी और
परिचित ने आंतरिक
दरिद्रता
चुनी। दोनों
मुसीबत में पड़
गए। उनके पास
सब कुछ है और
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारे
पास आंतरिक
समृद्धि पाने
का पूरा
विज्ञान और
कला है, लेकिन
तुम इतने गरीब
हो कि इस घोर
गरीबी में अंतर्जगत
की बात सोचना
भी कठिन है।
सुविख्यात
अंग्रेज कवि, रुडयार्ड
किपलिंग ने
लिखा है, पूरब
पूरब है, पश्चिम
पश्चिम है: और
दोनों मिल
नहीं सकते। और
मैं तुमसे कहना
चाहता हूं, वह सरासर
गलत है। न
पश्चिम
पश्चिम है, न पूरब पूरब
है। पृथ्वी एक
है। और इन
दोनों का मिलन
भौगोलिक रूप
से नहीं बल्कि
आध्यात्मिक रूप
से होने वाला
है।
यदि हम
स्वीकार
करें
कि बाह्य
समृद्धि और
आंतरिक
समृद्धि एक
दूसरे की
सहयोगी हैं—जो
कि वे हैं ही—तो
पूरब और
पश्चिम के बीच
किसी द्वंद्व
की कोई जरूरत
नहीं है।
मैंने
एक अमेरिकन
करोड़पति के
बारे में सुना
है, जो अपने
अरबों—अरबों
डालरों से थक
गया था। इतना
सारा धन और जरा
भी शांति
नहीं। शांति
की खोज में वह
दुनिया में
भटका लेकिन
कोई सदगुरु
नहीं मिला।
किसी ने कहा, हिमालय पर
बहुत ऊपर एक
आदमी रहता है।
शायद सिर्फ
वही तुम्हारी
सहायता कर
सकता है।
थका
मंदा वह किसी
तरह उस
सर्वोच्च
शिखर पर पहुंचा।
और बात सच थी।
वहां एक बूढ़ा
आदमी बैठा हुआ
था। और इससे
पहले कि वह
कुछ कहे, वह
बूढ़ा आदमी
बोला, तुम्हारे
पास सिगरेट है?
बहुत समय से
यहां कोई आया
हनीं। और
आध्यात्मिक
व्यक्ति होने
के नाते मैं
सिगरेट लाने
के लिए नीचे
नहीं जा सकता।
पहली बात
पहले:
तुम्हारे पास
सिगरेट है? उसके बाद
तुम अपने
आध्यात्मिक
सवाल पूछना। मुझे
सिगरेट का मजा
लेने दो, तुम
दर्शन का मजा
लेना।
उस
आदमी को बड़ा
धक्का लगा। वह
सारी दुनिया
में शांति की
खोज में घूमता
रहा, और अंततः
वह इस बूढ़े
मूढ़ के पास आ
पहुंचा है, जैसे जिसे
एक सिगरेट की
तलाश है। उसने
अपना सिगरेट
का पैक
निकालकर उसे
दिया। वह बूढ़ा
बाला, बहुत
खूब। अब कहो, तुम्हारी
समस्या क्या
है? वह
आदमी बोला, मेरी समस्या
यह है कि मुझे
आत्मा की
शांति चाहिए।
बूढ़े ने कहा, बात बड़ी सरल
है। घर जाओ।
यहां आने की
जरूरत नहीं
है। तुम मुझे
देख सकते हो, मैं किसी
तरह यहां फंस
गया हूं।
तुम्हारे पास सब
कुछ है। वह सब
वहीं रहने दो,
उसका मजा
लो। लेकिन
उसका बोझ अपने
सिर पर मत ढोओ।
मैं भी धनवान
था, लेकिन
इन मूढ़ संतों
ने मुझे त्याग
की शिक्षा दी।
मैंने सब छोड़
दिया और सब
कुछ है; अब
यही समय है जब
तुम विश्राम
कर सकते हो।
अब बाह्य जगत
में पाने के
लिए तुम्हारे
पास कुछ नहीं
है। तुम्हारी
सारी
महत्वाकांक्षाएं
पूरी हो चुकी
हैं। अब
विश्राम करो
और शांत बैठो
और तुम्हारे
पास समय है, आर्थिक
सुविधा है।
सिर्फ इतना
खयाल कि अगली
बार तुम जब आओ
तो सिगरेट के
कुछ और पैक ले
आना। क्योंकि
यहां सिगरेट
बिलकुल नहीं
मिलती। और मुझे
मन की शांति
के बारे में
कुछ मत पूछना;
क्योंकि
मैं सिगरेट के
अतिरिक्त और
कुछ सोचता ही
नहीं। वह
पुरानी
आदत...मैंने सब
छोड़ दिया
लेकिन पुरानी
आदत कैसे छोड़ी
जाए।
जीवन
में थोड़ी
बुद्धिमानी
से कम लो।
तुम्हारे पास
जो भी है उसका
उपयोग अपने
लिए ऐसा वातावरण
बनाने के लिए
करो, जिसमें
तुम
विश्रामपूर्ण
ढंग से रह
सको। एक सुंदर
मकान बनाओ, उसमें जो भी
सुंदर है उसे
ले आओ: चित्र, संगती, कला।
वे तुम्हें
आध्यात्मिक
बनने में कोई
बाधा नहीं
डालते। और
सौंदर्य, कला,
चित्र—इन
सबके बीच शांत
होकर बैठने के
लिए समय निकला
लो। तुम निकाल
सकते हो। अब
तुम्हारे पास
उतनी क्षमता
है। दूसरे
शब्दों में:
बाह्य
समृद्धि को
राह का रोड़ा
नहीं, सीढ़ी
का पत्थर
समझना चाहिए।
तो तुम्हारे
पास जो भी है, यदि वह
तुम्हारी
जरूरतों के
लिए काफी है, तो और अधिक
के पीछे मत
दौड़ो। तुम उस
बिंदु पर आ रहे
हो जहां से नई
यात्रा की
शुरुआत होती
है। वह पुराना
द्विभाजन, जो
तुम्हें बार—बार
सदियों से
सिखाया गया है,
कि अगर तुम
बाह्य जगत में
समृद्ध हो तो
तुम आंतरिक
समृद्ध नहीं हो
सकते, वह
एकदम बकवास
है। वस्तुतः
तुम बाहर से
जितने समृद्ध
होओगे, उतनी
ही तुम्हारी
आंतरिक
दृष्टि से
शांत और मौन
होने की
संभावना
बढ़ेगी। इसी
संश्लेषण उतनी
ही तुम्हारी
आंतरिक
दृष्टि से
शांत और मौन होने
की संभावना बढ़ेगी।
इसी संश्लेषण
को मैं मेरा
धर्म कहता हूं,
मेरा
अध्यात्म
कहता हूं।
आज इतना
ही।
6
अगस्त, 1986,
प्रातः
सुमिला, जुहू,
बंबई
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