भाग -02
भारी कदमों से मैं मा मुक्ति के पास से उठ कर थका हार बाहर आया। सामने स्वामी अनुपम जी मेरा इंतजार ही कर रहे थे। शायद वह हालात को पहले से ही जानते थे। परंतु उनकी अपनी मजबूरी है। हालांकि ये उनके विश्राम का टाइम था। परंतु शायद उसे भी इस घटना को देख कर कुछ अजीब लगा होगा। वरना तो वह क्यों मेरा सामान मेरे साथ ले जाकर कमरे में रखवाता। कितने कमरे खाली है जगह है या नहीं ये तो स्वामी अनुपम की ड्यूटी है की कमरे देना पैसे आदि लेना। इस में मां मुक्ति का हस्तक्षेप न के बराबर होना चाहिए। परंतु शायद इस बार उसे भी जरूर कुछ डाट खाना पड़ी होगी। कि तुम हम से पूछे बिना कैसे कमरे में सामान ले गये।
खेर उनके के पास एक गाड़ी वाले का नम्बर था। उसने उसे फोन मिलाया और पूछा की गाड़ी है। उसने पूछा हां है कहां जाना है। तब स्वामी जी ने मुझे से पूछा की गंगा धाम या कहीं और तब मैंने कहां की नहीं हथियारी में ओशो पिरामिड चले जाते है। वहां का एकांत भी बहुत गहरा है। उपर से जमना का किनारा। मैं जानता था की मोहनी नीचे यमुना तक नहीं उतर सकेगी। फिर भी वहां के उतार चढ़ाव काफी नीचे थे। परंतु गंगा धाम में भी तो यहीं सब था। वहां हमेशा भीड़ ही रहती है। आखिर एक घंटे के इंतजार के बाद गाड़ी आई। 2000/-किराया मांगा। ज्यादा दूरी नहीं थी। परंतु उसे हमें छोड़ कर वापस भी तो आना था।
इस के बाद हथियारी फोन किया वहां के संचालक अब इंद्रजीत जी है। परंतु वहां
पर जो काम करता है, महिपाल वह लोकल आदमी है। बहुत ही शांत सेवा भाव है उसमें। मैं पहले भी हथियारी
गया था। शायद 2018 में उस समय वेद स्वामी उसे देखते थे। तब महिपाल का छोटा भाई
गोविंद वहां काम करता था।
इस बीच मैंने सामान दोबारा पैक किया। और मोहनी को दवाई दी और कहां की
विश्राम कर लो। क्योंकि कम से कम तीन घंटे का सफर बाकी है। सबसे अधिक समस्या थी की
पहाड़ी इलाकों में जब गाड़ी उपर नीचे घुमाती है तो हमें उलटी आती है। आखिर तीन बजे
गाड़ी आई। हमने सामान रखा और चल दिये। मैं ड्राइवर को कहां की दवाई की दुकान के
पास एक मिनट के लिए रोक देना। क्योंकि उलटी की गोली तो लेनी ही है। जाने के समय भी
और आने के समय भी।
करीब एक घंटा शहर की भीड़ में गाड़ी चली उसके बाद तो वह हिमालय कि वादियों
में प्रवेश कर गई वहां की हवा पानी एक दम आप बदला हुआ महसूस करेंगे। बस एक ही बात
का दूख था की अगर मोटर साइकिल होती तो आस पास की बहुत सुंदर नजारे भी दोनों देख
लेते पिछली बार जब आया था तो अपनी मोटरसाइकिल को ले कर आया था। खेर कुछ हवा पानी
तो बदलेगा। ड्राइवर को भी रास्ते का अधिक पता नहीं था। और मैं भी सालो पहले एक बार
ही यहां आया था। खेर तीन घंटे के सफर के बाद हम हथियारी आश्रम पहुंच गये। मैंने
गेट खोला जो महिपाल ने हमारे लिए खोल के रखा था। गाड़ी अंदर की और जाने के बाद मैंने
ड्राइवर को कहा की आप अंदर चलो मैं गेट बंध कर के आता हूं।
सामने महिपाल ने हमारा स्वागत किया। सामान उतार और ड्राइवर को पैसे दिये और
तब तक महिपाल चाय तैयार करने लगा। मैंने आवाज दी की महिपाल हम चाय कुछ अधिक ही
लेते है। थोड़ी अधिक बनाना। चाय पीने के बाद वह हमारे कमरों में ले कर गया। सुंदर
कमरे बनें हुए थे। पुराने कमरे तो कुछ अधिक ही छोटे थे। जिस कमरे में मैं पहली बार
रुका था वह तो और उपर चढ़ कर था। परंतु नये कमरों में तो अटेच बाथरूम आदि सब है। सामान
रख कर मैंने गीजर ऑन किया मोहनी थक गई थी, सो वह लेट गई पानी गर्म होने पर मैंने उनसे कहां की चलो स्नान
कर लो, तब उसने एक बार मना
किया, शायद थकावट के कारण
परंतु मैंने कहां की ये सब थकावट, चक्र आदि जो आ रहे है वह ठीक हो जायेंगे। सुबह चार बजे से चले थे और करीब 14
घंटे से सफर में हो। तब वह उठी और स्नान करने चली गई। उसके बाद मैंने भी स्नान किया
और प्रवचन लगा कर विश्राम करने लगे। शायद बीच में महिपाल आया था। परंतु हमारे कमरे
प्रवचन चल रहा था तो उसने हमें नहीं को इस अवस्था में बाधा नहीं डाली। हम एक सफर में
हमेशा स्पीकर साथ रखते है। क्योंकि एक तो वह बांसुरी के लिए बहुत उपयोगी होता है। और
उससे हम प्रवचन सून सकते हे। तब अचानक मेरी आंख खुली तो 8-30 रात के बज गये थे। मैंने
मोहनी को कहां की चलो खाना खाने चलते हे। महिपाल ने बहुत प्रेम से भोजन कराया। तब हमने
कहां की महिपाल कल से रात को आधा किलो दूध ले आया करना। उसने कहां की सुबह का क्या, हमने कहां की हम दो
ही है आश्रम में और कोई नहीं तब हम नाश्ता नहीं करेंगे। एक बार खाना ही खायेंगे। आप
सुबह के लिए आधा किलो दही ले आना। तब वह पिरामिड की चाबी दे कर घर चला गया। हमारे आने
के कारण उसे कुछ आजादी मिली। मैंने कहां की आराम से आना। कोई जल्दी नहीं है। उसने किचन
की चाबी भी हमें बतला दी। क्योंकि हमारी रात जल्दी आंख खुल जाती है। इस लिए एक चाय
तो जल्दी ही पीते है।
अब हम दोनों ही वहां थे। आसमान तारों की चादर औढे़ कितना सुंदर लग रहा था। ऐसे
तारे तो कभी बचपन में जब छत पर सोते थे दिखलाई देते थे। जिन्हें मां आपने खास नाम से
पुकारती थी। देखो वह हिरणी है। वह सप्तऋषि मंडल को हिरणी कहती थी। और गैलेक्सी को झुमका।
और मैंने देखा वो लोग तारों से ही समय को जांच लेते थे। परंतु हम वहां कितनी रात देर
तक बाते करते रहे। नीचे यमुना नदी का कलरव गान था। झींगुर अपनी तान लगाये हुए थे बेपरवाह।
आश्रम में आम के दो बहुत बड़े वृक्ष थे जो करीब सो साल पुराना तो जरूर होगे। महिपाल
कह रह था अब ये आम के फल देता है। साथ में यमुना की ढाल में पीपल और पिलखन के भी विशाल
वृक्ष थे। बाकी तो आश्रम ने अपने वृक्ष लगाये थे। आंवला, कटहल, आम, जामुन.....अमरूद आदि
के। वह भी धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे। ये आश्रम तीन और से पहाड़ियों से घिरा हुआ था।
इस लिए यहां हवा का वेग भी बहुत तेज होता है।
कभी तो हवा पूर्व की और से घूम कर आती थी कभी उत्तर की और से। लेकिन उन सब का
एक ही समय करीब था। हवा इतनी शुद्ध थी की जिसे हम दिल्ली वाले तो लगभग भुल ही गये थे।
आज मोहनी बहुत खुश थी और बाते थी बहुत ठीक कर रही थी। इस तरह से बात करते हुए मैंने
पिछले आठ साल से नहीं महसूस किया। तब एक बार फिर से हमने चाय बनाई और पीने के बाद वहां
पर दो चार चक्र काटे। और फिर लाईट बंद कर के कमरे में सोने चले गये। मेरी आंख सुबह
पांच बजे खुली। शायद थकावट की वजह से फिर मैंने चाय बनाई क्योंकि हमारे कमरे से किचन
कुछ दूरी पर था। इस लिए मैंने मोहनी को नहीं जगाया। वैसे भी मोहनी के बीमार होने के
बाद मैं ही चाय बनाता हूं। समझो मास्टर हो गया हूं। पहले चालीस साल से मुझे चाय तक
बनाना नहीं आती थी।
चाय पीने के बाद हम हाथ मुख धोया और तरोताजा हुए और फिर पिरामिड की और चल दिये।
आश्रम बहुत सुंदर है परंतु सीढ़ियां कुछ अधिक ही है। सड़क से करीब पिरामिड चालीस फिट
नीचे हे। इस लिए मोहनी को यही परेशानी हो रही थी। फिर भी वह हिम्मत कर के या मेरा सहारा
ले कर उतरी चढ़ती रही। ध्यान के बाद बाहर निकले तो धूप आ गई थी। नीचे यमुना अपनी पतली
लकीर बनाती हुई शांत बह रही थी। जिस वैग से वह रात को बह रही थी वह लगभग खत्म हो गया
था। क्योंकि पास ही एक बांध बना दिया गया है। जिसके कारण वह समय पर ही पानी को छोड़ते
है। नौ बजे के बाद महिपाल आया। और पूछा की स्वामी जी क्या सब्जी बनाऊँ मैंने कहां जो
है वही बना लो। तब उसने कहां की चलो आलू गौभी और गौभी के परांठे। साथ में दही हो गई।
सच वह बहुत प्रेम से खाना बनाता और खिलाता था। वहां हम दस दिन रहे कभी, पूरी छोले, कभी राजमा चावल, कभी खीर, रोज बदल कर खाना खिलाता
था। वहां से विकास नगर कुछ दूरी पर है। जहां से खाने का सामना लाता था। दूसरे दिन जब
वह गया तो उससे मैंने अनार, सेब और शरीफा मंगवा लिया।
हम वहां चौबीस की श्याम को गये थे। जिस दिन 28 तारीख हुई यानि की हम चार दिन
हो गये। तब आप विश्वास करे की लगा ही नहीं की चार दिन हो गये। लगा अभी तो तीन ही दिन
हुए है। एक दिन पूरा बीच से गायब हो गया। मैं वहां पर तीन ध्यान करता था। मोहनी दो
एक सुबह और रात का संध्या सत्संग। में श्याम की चाय के बाद कुंडलिनी ध्यान जरूर करता
था। वैसे एक बात और जो लोग सुबह डायनामिक ध्यान करते है उन्हें कुण्डली ध्यान जरूरी
करना चाहिए। क्योंकि ये एक दूसरी के सहायक ध्यान हे। यानि की सक्रिय ध्यान मेल ध्यान
है और कुंडलिनी फीमेल इस लिए बहुत से सन्यासी मित्र सालों से डायनामिक ध्यान कर रहे
है और गहराई न मिल पाने का एक कारण ये भी हो सकता है। क्योंकि अंतस के जो गहरे द्वारा
फीमेल ध्यान खोलता है वो सुबह साधक को एक खुल ही पाते है उनके लिए मेहनत नहीं करनी
होती।
सच जो होता है अच्छा ही होता है परंतु घटते समय हम नहीं जान पाते। परंतु सही
समय पर जब हम देखते है तो वही हमारे लिए सही होता है। अब मोहनी कह रही थी अच्छा हुआ
मुक्ति मां ने वहां रहने नहीं दिया वरना तो इतने सुंदर आश्रम का आनंद मैं शायद ले पाती
या नहीं।
सच ही एकांत के लिए वह बहुत सुंदर जगह है। हमें दस दिन में जो आनंद मिला वह
शब्द में कहने पर भी बहुत कुछ उससे छूट गया। लगता है जो कहना चाह रहे थे वो तो अधूरा
ही रह गया। सच ही शब्द कितने लाचार और छोटे पड़ जाते है किसी भी अनुभव को लिखने के
लिए।
ओशो प्रेम
अति शुभम
मनसा-मोहनी
दसघरा ओशोबा हाऊस
नई दिल्ली

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