दो तीन बातें सिर्फ उल्लेख कर दूँ जो घटित होती है। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस पास किन्हीं आत्माओं की उपस्थिति का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी—थोड़ी बहुत जोर से होगा। बहुत गहरा होगा। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्यादा है।
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बुधवार, 28 अप्रैल 2010
तीर्थ—10 ( कैलाश अलौकिक निवास है)
दो तीन बातें सिर्फ उल्लेख कर दूँ जो घटित होती है। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस पास किन्हीं आत्माओं की उपस्थिति का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी—थोड़ी बहुत जोर से होगा। बहुत गहरा होगा। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्यादा है।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
तीर्थ—9 ( पाप-पूण्य )

यह दो बातें समझ लेनी जरूरी है। एक तो यह, कि पाप असली घटना नहीं है। स्मृति असली घटना है—मैमोरी । पाप नहीं, ऐक्ट नहीं असली घटना जो आप में चिपकी रह जाती है। वह स्मृति है। आपने हत्या की है। यह उतना बड़ा सवाल नहीं है। आखिर में। आपने हत्या की है, यह स्मृति कांटे की तरह पीछा करेगी।
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
तीर्थ—8 कुंभ , स्नान ओर रहस्य
तीसरी बात एक और थी। यह हमारा भ्रम ही है आमतौर से कह हम अलग-अलग व्यक्ति है—यह बड़ा थोथा भ्रम है। यहां हम इतने लोग बैठे है, अगर हम शांत होकर बैठें तो यहां इतने लोग नहीं रह जाते, एक ही व्यक्तित्व रह जाता है। और हम सब की चेतनाएं एम दूसरे में तरंगित और प्रवाहित होने लगती है।
तीर्थ ‘मास एक्सपेरीमेंट’ एक वर्ष में विशेष दिन, करोड़ों लोग एक तीर्थ पर इकट्ठे हो जाएंगे; एक ही आकांक्षा ,एक ही अभीप्सा से सैकड़ों मील की यात्रा करके आ जाएंगे। वह सब एक विशेष घड़ी में , एक विशेष तारे के साथ, एक विशेष नक्षत्र में एक जगह इकट्ठे हो जाते है। इसमें पहली बात समझ लेने की यह है, कि यह करोड़ों लोग इकट्ठा होकर एक अभीप्सा, एक आकांक्षा, एक पार्थ ना से एक धुन करते हुए आ गए है, यह एक ‘पुल’ बन गया है। चेतना का। अब यहां व्यक्ति नहीं है।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
तीर्थ--7(मिश्र के पिरामिड एक रहस्य)
सब तीर्थ बहुत ख्याल से बनाये गए है। अब जै कि मिश्र में पिरामिड है। वे मिश्र में पुरानी खो गई सभ्यता के तीर्थ है। और एक बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड के अंदर....। क्योंकि पिरामिड जब बने तब, वैज्ञानिको का खयाल है, उस काल में इलैक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती।
आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती। बिजली का आविष्कार उस वक्त कहां, कोई दस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है, कई बीस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है। तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था। और इनके अंदर इतना अँधेरा कि उस अंधेरे में जाने का कोई उपाय नहीं है। अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों, या दीये ले जाते हो। लेकिन धुएँ का एक भी निशान नहीं है इतने पिरामिड में कहीं । इसलिए बड़ी मुश्किल है। एक छोटा सा दीया घर में जलाएगें तो पता चल जाता है। अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों तो इन पत्थरों पर कहीं न कहीं न कहीं धुएँ के निशान तो होने चाहिए।

रास्ते इतने लंबे, इतने मोड़ वाले है, और गहन अंधकार है। तो दो ही उपाय हैं, या तो हम मानें कि बिजली रही होगी लेकिन बिजली की किसी तरह की फ़िटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है। बिजली पहुंचाने का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए। दूसरा आदमी सोच सकता है—तेल, धी के दीयों या मशालों का। पर उन सबसे किसी न किसी तरह के निशान पड़ते है, जो कहीं भी नहीं है। फिर उनके भीतर आदमी कैसे जाता रहा है, कोई कहं—नहीं जाता रहा होगा, तो इतने रास्ते बनाने की कोई जरूरत नहीं है। पर सीढ़ियाँ है, रास्ते है, द्वार है, दरवाजे है, अंदर चलने फिरने का बड़ा इंतजाम हे। एक-एक पिरामिड में बहुत से लोग प्रवेश कर सकते है, बैठने के स्थान है अंदर। वह सब किस लिए होंगे। यह पहेली बनी रह गई हे। और साफ नहीं हो पाएगी कभी भी। क्योंकि पिरामिड की समझ नहीं है साफ, कि ये किस लिए बनाए गए है? लोग समझते है, किसी सम्राट का फितूर होगा, कुछ और होगा।
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
तीर्थ--6 (गंगा अल्केमी का प्रयोग)

तो शरीर से नया शक्ति वापस आ गयी। शरीर ने देख लिया कि आप सोने की तैयारी नहीं कर रहे। जागना ही पड़ेगा। तो शरीर के पास जो रिजर्व है जहां वह शक्ति संरक्षित है। जरूरत के वक्त के लिए वह अपने छोड़ दी और आप ताजे हो गए। इतने ताजे जितने आप सुबह भी ताजे नहीं थे।
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
एक यहूदी लोक कथा—(गधे की कब्र)
एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था। गधे के साथ, अब उसे पेदल यात्रा न करनी पड़ती थी। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था। और गधा बड़ा स्वामीभक्त था।
लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा और मर गया। दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी, और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।
रविवार, 18 अप्रैल 2010
तीर्थ: और अल्केमी (भाग-5)

उसे किसी ने मेरे पास भेजा। मैंने उसको कहा कि तुम्हें कभी नींद आएगी नहीं, ट्रैंकोलाइजर से या और किसी उपाय से। तुम बुद्ध का अनापान सती योग तो नहीं कर रहे हो। क्योंकि बौद्ध भिक्षु के लिए वह अनिवार्य है। उसने कहा वह तो मैं कर ही रहा हूं। उसके बिना तो......मैं फिर मैंने कहा, तुम नींद का ख्याल छोड़ दो।
तीर्थ: अल्कुफा एक रहस्य—(भाग--4)
तीर्थ शब्द का अर्थ होता है—घाट। उसका अर्थ होता है, ऐसी जगह जहां से हम उस अनंत सागर में उतर सकते है। जैनों का शब्द तीर्थकर तीर्थ से बना है, उसका अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला। असल में उस को ही तीर्थ कहां जा सकता है। तीर्थकर कहा जा सकता है जिसने ऐसा तीर्थ निर्मित किया हो जहां साधारण जन खड़े होते, पाल खोलते, ऐसे ही यात्रा पर संलग्न हो जाए। अवतार न कहकर तीर्थकर कहा, और अवतार से बड़ी घटना तीर्थ कर है। क्योंकि परमात्मा, आदमी में अवतरित हो यह तो एक बात है लेकिन आदमी परमात्मा में प्रवेश का तीर्थ बना ले, यह और भी बड़ी बात हे।
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
तीर्थ: सम्माद शिखर भाग--3

विपरीत स्थल पर खड़े होकर यात्रा अत्यंत कठिन भी हो सकती है। हवाएँ जब उल्टी तरफ बह रही हो और आप पाल खोल दें, तो बजाय इसके कि आप पहुंचे ओर भटक जाएं, इसकी पूरी संभावना है।
अब जैसे अगर आप किसी ऐसी जगह में ध्यान कर रहे है जहां चारों और नकारात्मक भावावेश प्रवाहित होते है। निगेटिव इमोंशंस प्रवाहित होते है। समझ लें कि आप एक जगह बैठ कर ध्यान कर रहे है। और आपके चारों आरे हत्यारे बैठे हुए है। तो आपको कल्पना भी नहीं हो सकती कि ध्यान करने के क्षण में आप इतने रिसेप्टिव हो जाते है कि आस-पास जो भी हो रहा है वह तत्काल आप में प्रवेश कर जाता है। ध्यान एक रिसेप्टिविटि है, एक ग्राहकता है। ध्यान में आप वलन्रेबल हो जाते है, खुल जाते है और कोई भी चीज आप में प्रवेश कर सकती हे।
इसलिए ध्यान के संग में आस-पास कैसी तरंगें है, चेतना की,विचार की ये देखना बहुत उपयोगी है। अगर ऐसी तरंगें आपके चारों और है जो कि आपको गलत तरफ झुका सकती है। तो ध्यान महंगा भी पड़ सकता है। और यह फिर ध्यान एक जद्दोजहद और एक संघर्ष बन जाएगा। जब कभी ध्यान में आपको अचानक ऐसे ख्याल आने लगते है जो कि आपको कभी भी नहीं आये थे, जब ध्यान के क्षण में आपको एक क्षण भी शांत होना मुश्किल होने लगता है कि इससे ज्यादा शांत तो आप बिना ध्यान के ही रहते थे। और कभी आपको ऐसा लगता है। तो आपको कभी ख्याल न आया होगा कि ध्यान के क्षण में आस-पास जो भी प्रवाहित होता है वह आप में सुगमता से प्रवेश पा जाता है।
कारागृह में भी बैठकर भी ध्यान किया जा सकता है। पर बड़ा सबल व्यक्तित्व चाहिए। और कारागृह में बैठकर ध्यान करना हो तो प्रतिक्रियाएँ भिन्न चाहिए। ऐसी प्रक्रियाएं चाहिए जो पहले आपके चारों तरफ अवरोध की एक सीमा रेखा निर्मित कर दें, जिसके भीतर कुछ प्रवेश न कर सके। पर तीर्थ में वैसे अवरोध की कोई जरूरत नहीं है। तीर्थ में ऐसी ध्यान की प्रक्रिया चाहिए जो आपके आस-पास का सब अवरोध सब रेसिस्टेंस सब द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दे। हवाएँ वहां बह रहीं है।
सैकड़ों लोगों ने उस जगह से अनंत में प्रवाहित होकर एक मार्ग निर्मित किया है। ठीक मार्ग ही कहना चाहिए जैसे कि हम रास्ते बनाते है। सड़को पर एक जंगल में हम एक रास्ता बना देते है। दरख़्त गिरा देते है और एक पक्का रास्ता बना लेते है। और दूसरे पीछे चलनेवाला यात्री को बड़ी सुगमता हो जाए। ठीक आत्मिक अर्थों में भी इस तरह के रास्ते निर्मित करने की कोशिश की गयी है। कमजोर आदमियों को जिस तरह भी सहायता पहुँचाई जा सके उस तरह की सहायता, जो शक्तिशाली थे, उनहोंने सदा पहुंचने की कोशिश की। तीर्थ उनमें एक बहुत बड़ा प्रयोग है।.
पहला तो तीर्थ का प्रयोजन यह है कि आपको जहां हवाएँ शरीर से आत्मा की तरफ बह ही रही है, जहां पूरा तर गायित है वायुमंडल जहां से लोग ऊर्ध्वगामी हुए, जहां बैठकर लोग समाधिस्थ हुए, जहां बैठकर लोगों ने परमात्मा का दर्शन पाया जहां यह अनूठी घटना घटती रही है, सैकड़ों वर्षों तक वह जगह एक विशेष आविष्ट जगह हो जाती हे। उस आविष्ट जगह में आप अपने पाल को भर खुला छोड़ दें, कुछ और न करें तो भी आपकी यात्रा शुरू होगी। तो तीर्थ का पहला प्रयोग तो यह था।
इसलिए सभी धर्मों ने तीर्थ निर्मित किए। उन धर्मों ने भी तीर्थ निर्मित किए जो मंदिर के पक्ष में नहीं थे। यह बड़े मजे की बात है। कि मंदिर के पक्ष में कोई तीर्थ निर्मित करे धर्म, समझ में आता है। लेकिन जो धर्म मंदिर के पक्ष में न थे। जो धर्म मूर्ति के विरोधी थे। उनको भी तीर्थ निर्मित करना ही पडा। मूर्ति का विरोध आसान हुआ, मूर्ति हटा दी यह भी कठिन न हुआ, लेकिन तीर्थ को हटाया नहीं जा सका। क्योंकि तीर्थ का और भी व्यापक उपयोग था जिसको कोई धर्म इनकार न कर सका।
जैसे कि जैन भी मूलत: मूर्तिपूजक नहीं है। मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं है। सिक्ख मूर्तिपूजक नहीं है—बुद्ध मूर्तिपूजक नहीं थे प्रांरभ में—लेकिन इन सबने भी तीर्थ निर्मित किए है। तीर्थ निर्मित करने ही पड़े। सच तो यह है कि बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ठीक है.....बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ न कोई प्रयोजन ही रह जाता है। फिर एक-एक व्यक्ति जो करना चाहे या जो कर सकता है करे। लेकिन फिर समूह में खड़े होने का कोई प्रयोजन, कोई अर्थवत्ता नहीं है।....क्रमश: अगले अंक में
ओशो---(मैं कहता आंखन देखी)
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
तीर्थ: काबा—भाग-2

लेकिन काबा लाखों वर्ष पुराना पत्थर है। और भी दूसरे एक मजे की बात है कि वह पत्थर जमीन का नहीं है। वह पत्थर जमीन का पत्थर नहीं है। अब तक तो विज्ञानिक.... क्योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था। वह जमीन का पत्थर नहीं है। यह तो तय है। एक ही उपाय था हमारे पास कि वह उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर है। जो पत्थर जमीन पर गिरते है। वह थोड़े पत्थर नहीं गिरते। रोज दस हजार पत्थर जमीन पर गिरते है। चौबीस घंटे में। जो आपको रात तारे गिरते हुए दिखाई पड़ते है वह तारे नहीं होते वह उल्का है, पत्थर है जो जमीन पर गिरते है। लेकिन जोर से धर्षण खाकर हवा का वे जल उठते है। अधिकतर तो बीच में ही राख हो जाते है। कोई-कोई जमीन तक पहुंच जाते है। कभी-कभी जमीन पर बहुत बड़े पत्थर पहुंच जाते है। उन पत्थरों की बनावट ओ निर्मिति सारी भिन्न होती है।
यह जो काबा का पत्थर है, यह जमीन का पत्थर नहीं है। तो सीधा व्याख्या तो यह है कि यह उल्का पात में गिरा होगा। लेकिन जो और गहरे जानते है। उनका मानना है, वह उल्कापात में गिरा पत्थर नहीं है। जैसे हम आज जाकर चाँद पर जमीन के चिन्ह छोड़ आए है—समझ लें कि एक लाख साल बाद यह पृथ्वी नष्ट हो चुकी हो, इसकी आबादी खो चुकी हो, कोई आश्चर्य नहीं है। कल अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए तो यह पृथ्वी सूनी हो जाए, पर चाँद पर जो हम चिन्ह छोड़ आए है, हमारे अंतरिक्ष यात्री चाँद पर जो वस्तुएँ छोड़ आए है वे वहीं बनी रहेंगी, सुरक्षित रहेंगी। उन्हें बनाया भी इस ढंग से गया है कि लाखों वर्षो तक सुरक्षित रह सकें।
अगर कभी कोई चाँद पर कोई भी जीवन विकसित हुआ, या किसी और ग्रह से चाँद पर पहुंचा, और वह चीजें मिलेंगी, तो उनके लिए भी कठिनाई होगी कि वे कहां से आयी है? उनके लिए भी कठिनाई होगी। काबा का जो पत्थर है वह सिर्फ उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर नहीं है। वह पत्थर पृथ्वी पर किन्हीं और ग्रहों के यात्रियों द्वारा छोड़ा गया पत्थर है। और उस पत्थर के माध्यम से उस ग्रह के यात्रियों से संबंध स्थापित किए जा सकते थे। लेकिन पीछे सिर्फ उसकी पूजा रह गयी। उसका पूरा विज्ञान खो गया; क्योंकि उससे संबंध के सब सूत्र खो गए।
वह अगर किसी ग्रह पर गिर जाए तो उस ग्रह के यात्री भी क्या करेंगें? अगर उनके पास इतनी वैज्ञानिक उपलब्धि हो कि उसके रेडियो को ठीक कर सकें,तो हमसे संबंध स्थापित हो सकता है। अन्यथा उसको तोड़-फोड़ करके वह उनके पास अगर कोई म्यूजियम होगा तो उसमें रख लेंगे और किसी तरह की व्याख्या करेंगे कि वह क्या है। और रेडियो तक उनका विकास हुआ हो तो वह भयभीत हो सकते है उससे डर सकते है। अभिभूत हो सकते है, आशर्चय चकित हो सकते है। पूजा कर सकते है।
काबा का पत्थर उन छोटे से उपकरणों में से एक है जो कभी दूसरे अंतरिक्ष के यात्रियों ने छोड़ा और जिनसे कभी संबंध स्थापित हो सकते थे। ये में उदाहरण के लिए कह रहा हूं आपको, क्योंकि तीर्थ हमारी ऐसी व्यवस्थाएं है। जिससे हम अंतरिक्ष के जीवन से संबंध स्थापित नहीं करते बल्कि इस पृथ्वी पर ही जो चेतनाएं विकसित होकर विदा हो गयीं, उनसे पुन:-पुन: संबंध स्थापित कर सकते है।
और इस संभावनाओं को बढ़ाने के लिए जैसे कि सम्मेत शिखर पर बहुत गहरा प्रयोग हुआ—बाईस तीर्थ करों का सम्मेत शिखर पर जाकर समाधि लेना, गहरा प्रयोग था। वह इस चेष्टा में था कि उस स्थल पर इतनी सघनता हो जाए कि संबंध स्थापित करने आसान हो जाएं। उस स्थान से इतनी चेतनाएं यात्रा करें दूसरे लोक में, कि उस स्थान और दूसरे लोक के बीच सुनिश्चित मार्ग बन जाएं। वह सुनिश्चित मार्ग रहा है।
और जैसे जमीन पर सब जगह एक सी वर्षा नहीं होती, घनी वर्षा के स्थल है, विरल वर्षा के स्थल है। रेगिस्तान है जहां कोई वर्षा नहीं होती, और ऐसे स्थान है जहां पाँच सौ इंच वर्षा होती है। ऐसी जगह है जहां ठंडा है सब और बर्फ के सिवाए कुछ भी नहीं है, और ऐसे स्थान है जहां सब गर्म हे। और बर्फ भी नहीं बन सकती।
ठीक वैसे ही पृथ्वी पर चेतना की डैंसिटी और नान-डेंसिटी के स्थल है। और उनको बनाने की कोशिश की गई हे। उनको निर्मित करने की कोशिश कि गई हे। क्योंकि वह अपने आप निर्मित नहीं होंगे,वह मनुष्य की चेतना से निर्मित होंगे। जैसे सम्मेत शिखर पर बाईस तीर्थ करों का यात्रा करके, समाधि में प्रवेश करना, और उसी एक जगह से शरीर को छोड़ना, उस जगह पर इतनी घनी चेतना को प्रयोग है कि वह जगह चार्ज ड हो जाएगी विशेष अर्थों में। और वहां कोई भी बैठे उस जगह पर और उन विशेष मंत्रों का प्रयोग करे जिन मंत्रों को उन बाईस लोगों ने किया है तो तत्काल उसकी चेतना शरीर को छोड़कर यात्रा करनी शुरू कर देगी। वह प्रक्रिया वैसी ही विज्ञान की है जैसी कि और विज्ञान की सारी प्र क्रियाएं है।......अगले भाग में क्रमश:........
--ओशो ( मैं कहता हूं आंखन देखी)
तीर्थ--परम की गुह्य यात्रा--भाग-1
प्रशांत महासागर में एक छोटे से द्वीप पर, ईस्टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है। जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से भी बड़ी विशाल मूर्तियां है। जब पहली दफा इस छोटे से द्वीप का पता चला तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए...ओर ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्यादा रही हो। क्योंकि उस द्वीप की सामर्थ्य ही नहीं है इससे ज्यादा लोगों के लिए जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। एक आदमी के पीछे पाँच मूर्तियां हो गयीं। और इतनी बड़ी मूर्तियां ये दो सौ लोग खोदना भी चाहें तो नहीं खोद सकते है। इतना महंगा काम ये गरीब आदिवासी करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते। इनकी जिंदगी तो सुबह से सांझ तक रोटी कमाने में ही व्यतीत हो जाती है। और इन मूर्तियों को बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे।
क्या प्रयोजन होगा इतनी मूर्तियों का? किसने इन मूर्तियों को बनाया होगा, इतिहासविद् के सामने बहुत से सवाल थे।
ऐसी ही एक जगह मध्य एशिया में है। और जब तक हवाई जहाज नहीं अपलब्ध था, तब तक उस जगह को समझना बहुत मुश्किल पडा। हवाई जहाज के बन जाने के बाद ही यह ख्याल में आया, कि वह जगह कभी जमीन से हवाई जहाज उड़ने के लिए एयरपोर्ट का काम करती रही होगी। उस तरह की जगह के बनाने का और कोई प्रयोजन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह हवाई जहाज के उड़ने और उतरने के काम में आती रही हो। फिर वह जगह नहीं है। उसको बने हुए अंदाजन बीस हजार और पंद्रह हजार वर्ष के बीच को वक्त हुआ होगा। लेकिन जब तक हवाई जहाज नहीं बने थे तब तक तो हमारी समझ के बाहर की बात थी। हवाई जहाज बने, और हमने एयरपोर्ट बनाए, तब हमारी समझ में आया कि कभी एयरपोर्ट के काम की होगी ये जगह। जब तक यह नहीं था। तब तक तो सवाल ही नहीं उठता था। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि तीर्थ को हम न समझ पाएंगे जब तक कि तीर्थ पुन: आविष्कृत न हो जाए।
अब जाकर उन ईस्टर आईलैंड की मूर्तियों है, उनके जो एयरव्यु, आकाश से हवाई जहाज के द्वारा जो चित्र लिए गये उनसे अंदाज लगया है कि वह इस ढंग से बनायी गई है, और इस विशेष व्यवस्था में बनाई गई है कि किन्हीं खास रातों में चाँद पर से देखा जा सकें। वह जिस ज्योमैट्री के जिन कोणों में खड़ी की गयी है, वह कोण बनाती है पूरा का पूरा। और अब जो लोग उस सबंध में खोज करते है, उनका ख्याल यह है कि यह पहला मौका नहीं है कि हमने दूसरे ग्रहों पर जो जीवन है, उसके संबंध स्थापित करने की कामना की है। इसके पहले भी जमीन पर बहुत से प्रयोग किए गए, जिनसे हम दूसरे ग्रहों पर अगर कोई जीवन, कोई प्राणी हो तो उससे हमारा संबंध स्थापित हो सके। और दूसरे प्राणी-लोको से भी पृथ्वी तक संबंध स्थापित हो सकें, इसके बहुत से सांकेतिक इंतजाम किए है।
यह जो बीस तीस फीट ऊंची मूर्तियां हे। ये अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है। लेकिन जब ऊपर से उड़कर उनके पूरे पैटर्न को देखा जाए, तब इनका पैटर्न किसी संकेत की सूचना देता है। वह संकेत चाँद से पढ़ा जा सकता है। पर जिन लोगों ने यह बनाया होगा—जब हम हवाई जहाज में उड़कर न देख सके, तब तक हम कल्पना भी नहीं कर सकेंगे...तब तक वह हमारे लिए मूर्तियों से अधिक कुछ नहीं थी। ऐसी इस पृथ्वी पर बहुत सी चीजें है, जिनके संबंध में तब तक हम कुछ भी नहीं जान पाते, जब तक की किसी रूप में हमारी सभ्यता, उस घटना का पुन: आविष्कार न कर ले।
अभी मैं दो तीन दिन पहले बात कर रहा था। तेहरान में एक छोटा सा लोहे का डिब्बा मिला था। फिर वह ब्रिटिश म्यूजियम में पडा रहा। ये कोई वर्षो उसने प्रतीक्षा की उस डिब्बे ने। वह तो अभी-अभी जाकर पता चला कि वह बैट्री है जो दो हजार साल पहले तेहरान में उपयोग में आती रही। मगर उसकी बनावट का ढंग ऐसा था। कि ख्याल में नहीं आ सका। लेकिन अब तो उसकी पूरी खोज-बीन हो गई है। तेहरान में दो हजार साल पहले बैट्री हो सकती है। इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। इसलिए कभी सोचा नहीं इस तरह लेकिन अब तो उसमें पूरा साफ हो गया है। कि वह बैट्री ही है। पर अगर हमारे पास बैट्री न होती तो हम किसी भी तरह से इस डिब्बे को बैट्री खोज नहीं पाते। ख्याल भी नहीं आता, धारणा भी बनती।
तीर्थ पुरानी सभ्यता के खोजें हुए बहुत-बहुत गहरे, संकेतिक, और बहुत अनूठे आविष्कार है। लेकिन हमारी सभ्यता के पास उनको समझने के सब रूप खो गए है। सिर्फ एक मुर्दा व्यवस्था रह गई है। हम उसको ढोए चले जा रहे है। बिना यह जाने कि वह क्यों निर्मित हुए, क्या उनका उपयोग किया जाता रहा। किन लोगों ने उन्हें बनाया क्या प्रयोजन था? और जो ऊपर से दिखाई पड़ता है वही सब कुछ नहीं है, भीतर कुछ और भी है जो ऊपर से कभी भी दिखाई नहीं पड़ता।
पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि हमारी सभ्यता ने तीर्थ का अर्थ खो दिया है। इसलिए जो आप तीर्थ को जाते है वह भी करीब-करीब व्यर्थ जाते है। जो उसका विरोध करते है वह भी करीब-करीब व्यर्थ विरोध करते है। बल्कि विरोध करने वाला ही ठीक मालूम पड़ता है। वह भी ना समझ होने पर समझदार मालूम होता है। सही बात का उसे भी कुछ पता नहीं है। वह जिस तीर्थ का विरोध कर रहा ळ वह तीर्थ की धारणा नहीं है। यद्यपि वह तीर्थ जानेवाला जिस तीर्थ में जा रहा है वह भी तीर्थ की धारणा नहीं है। तो चार-पाँच चीजें पहले ख्याल में लेनी चाहिए।
एक तो जैसे कि जैनों का तीर्थ है—सम्मत शिखर। जैनों के चौबीस तीर्थकर में से बाईस तीर्थ करों का समाधि स्थल है वह चौबीस में से बाईस तीर्थ करों ने सम्मेत शिखर पर शरीर विसर्जन किया है—आयोजित थी वह व्यवस्था। अन्यथा एक जगह पर जाकर इतने तीर्थ करों का चौबीस में से बाईस का जीवन अंत होना आसान मामला नहीं है। बिना आयोजन के। एक ही स्थान पर हजारों साल के लंबे फासले में अगर हम जैनों का हिसाब मानें और मैं मानता हूं कि हमें जहां तक बन सके, जिसका हिसाब हो उसका मानने की पहले कोशिश करनी चाहिए, तब तो लाखों वर्षो का फासला है—उनके पहले तीर्थकर में और चौबीसवे तीर्थकर में। लाखों वर्षो के फासले पर एक ही स्थान पर बाई तीर्थ करों का जाकर शरीर को छोडना विचारणीय है।.......अगले भाग में...........
--ओशो (मैं कहता हुं आंखन देखी)
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
भारत एक सनातन यात्रा--देवता और प्रेतात्मातएं—
यह देवता शब्द को थोड़ा समझना जरूरी है। इस शब्द से बड़ी भ्रांति हुई है। देवता शब्द बहुत पारिभाषिक शब्द है।
देवता शब्द का अर्थ है........इस जगत में जो भी लोग है, जो भी आत्माएं है। उनके मरते ही साधारण व्यक्ति का जन्म तत्काल हो जाता है। उसके लिए गर्भ तत्काल उपलब्ध होता है। लेकिन बहुत असाधारण शुभ आत्मा के लिए तत्काल गर्भ अपलब्ध नहीं होता। उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसके योग्य गर्भ के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहुत बुरी आत्मा, बहुत ही पापी आत्मा के भी गर्भ तत्काल उपल्बध नहीं होता है। उसे भी बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। साधारण आत्मा के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता है।
इसलिए साधारण आदमी इधर मरा और उधर जन्मा। इस जन्म और मृत्यु और नए जन्म के बीच में बड़ा फासला नहीं होता। कभी क्षणों का भी फासला होता है। कभी क्षणों का भी नहीं होता। चौबीस घंटे गर्भ उपलब्ध; तत्काल आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती है। ,
लेकिन एक श्रेष्ठ आत्मा नए गर्भ में प्रवेश करने के लिए प्रतीक्षा में रहती है। इस तरह की श्रेष्ठ आत्माओं का नाम देवता है। निकृष्ट आत्माएं भी प्रतीक्षी में होती है। इस तरह की आत्माओं का नाम प्रेतात्माएं है। वे जो प्रेत है, ऐसी आत्माएं जो बुरा करते-करते मरी है। लेकिन इतना बुरा करके मरी है। अब जैसे कोई हिटलर, कोई एक करोड़ आदमियों की हत्या जिस आदमी के ऊपर है, इसके लिए कोई साधारण मां गर्भ नहीं बन सकती है। और न कोई साधारण पिता गर्भ बन सकता है। ऐसे आदमी को भी गर्भ के लिए बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेकिन इसकी आत्मा इस बीच क्या करेगी? इसकी आत्मा इस बीच खाली नहीं बैठी रह सकती। भला आदमी तो कभी खाली भी बैठ जाए, बुरा आदमी बिलकुल खाली नहीं बैठ सकता। कुछ न कुछ करने को कोशिश जारी रहेगी।
तो जब भी आप कोई बुरा काम करते है। तब तत्काल ऐसी आत्माओं को आपके द्वारा सहारा मिलता है, जो बुरा करना चाहती है। आप वैहिकल बन जाते है। आप साधन बन जाते है। जब भी आप कोई बुरा काम करते हो, तो ऐसी आत्मा अति प्रसन्न होती है। और आपको सहयोग देती है। जिसे बुरा करना है, लेकिन उसके पास शरीर नहीं है। उस लिए कई बार आपको लगा होगा कि बुरा काम आपने कोई किया और पीछे आपको लगा होगा, बड़ी हैरानी की बात है, इतनी ताकत मुझमें कहां से आ गई कि मैं यह बुरा का कर पाया। यह अनेक लोगों का अनुभव है। इसलिए अच्छा आदमी भी अकेला नहीं इस पृथ्वी पर और बुरा आदमी भी अकेला नहीं है, सिर्फ बीच के आदमी अकेले होते है। सिर्फ बीच के आदमी अकेले होते है। जो न इतने अच्छे होते है कि अच्छों से सहयोग पा सकते सकें, न इतने बुरे होते है कि बुरों से सहयोग पा सकें। सिर्फ साधारण, बीच का मीडिया कर, मिडिल क्लास—पैसे के हिसाब से नहीं कह रहा—आत्मा के हिसाब से जो मध्यवर्गीय है, उनको, वे भर अकेले होते है। वे लोनली होते है। उनको कोई सहारा-वहारा ज्यादा नहीं मिलता। और कभी-कभी हो सकता है कि या तो वे बुराई में नीचे उतरें, तब उन्हें सहारा मिले; या भलाई में ऊपर उठे, तब उन्हें सहारा मिले। लेकिन इस जगत में अच्छे आदमी अकेले नहीं होते, बुरे आदमी अकेले नहीं होते।
जब महावीर जैसा आदमी पृथ्वी पर होता है या बुद्ध जैसा आदमी पृथ्वी पर होता है, तो चारों और से अच्छी आत्माएं इकट्ठी सक्रिय हो जाती है। इसलिए जो आपने कहानियां सुनी है; वे सिर्फ कहानियां नहीं है। यह बात सिर्फ कहानी नहीं है कि महावीर के आगे और पीछे देवता चलते है। यह बात कहानी नहीं है कि महावीर की सभा में देवता उपस्थित है। यह बात कहानी नहीं है कि जब बुद्ध गांव में प्रवेश करते है, तो देवता भी गांव में प्रवेश करते है। यह बात, यह बात माइथेलॉजी नहीं है, पुराण नहीं है।
इसलिए भी कहता हूं पुराण नहीं है। क्योंकि अब तो वैज्ञानिक अधारों पर भी सिद्ध हो गया है कि शरीरहीन आत्माएं है। उनके चित्र भी, हजारों की तादात में लिए जा सके है। अब तो विज्ञानिक भी अपनी प्रयोगशाला में चकित और हैरान है। अब तो उनकी भी हिम्मत टूट गई है। यह कहने की कि भूत-प्रेत नहीं है। कोई सोच सकता था कि कैलिफ़ोर्निया या इलेनाइस ऐसी युनिवर्सिटीयों में भूत-प्रेत का अध्ययन करने के लिए भी कोई डिपार्टमैंट होगा। पश्चिम के विश्वविद्यालय भी कोई डिपार्टमैंट खोलेंगे, जिसमें भूत-प्रेत का अध्ययन होगा। पचास साल पहले पश्चिम पूर्व पर हंसता था कि सूपरस्टीटस हो। हालाकि पूर्व में अभी भी ऐसे नासमझ है, जो पचास साल पुरानी पश्चिम की बात अभी दोहराए चले जा रहे है।
पचास साल में पश्चिम ने बहुत कुछ समझा है और पीछे लौट आया है। उसके कदम बहुत जगह से वापस लौटे है। उसे स्वीकार करना पड़ा है कि मनुष्य के मर जाने के बाद सब समाप्त नहीं हो जाता। स्वीकार कर लेना पडा है कि शरीर के बाहर कुछ शेष रह जाता है। जिसके चित्र भी लिए जा सकते है। स्वीकार करना पडा है कि अशरीरी आस्तित्व संभव है। असंभव नहीं है। और यह छोटे-मोटे लोगों ने नहीं, ओली वर लाज जैसा नोबल प्राइज़ विनर गवाही देता है के प्रेत है। सी. डी. ब्रांड जैसा विज्ञानिक चकित गवाही देता है कि प्रेत है। जे. बी. राइन और मायर्स जेसे जिंदगी भर वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करने वाले लोग कहते है कि अब हमारी हिम्मत उतनी नहीं है पूर्व को गलत कहने की, जितनी पचास साल पहले हमारी हिम्मत होती थी।
--ओशो (गीता दर्शन-भाग-1,अध्याय-3, प्रवचन-3)
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
भरत एक सनातन यात्रा--मां काली—जगदम्बा -भाग -2
मां काली—जगदम्बा

कभी आपने देखा है काली की मूर्ति को, वह मां है और विकराल, मां है और हाथ में खप्पर लिए है। आदमी की खोपड़ी का। मां है, उसकी आंखों में सारे मातृत्व का सागर। और नीचे, वह किसी की छाती पर खड़ी है। पैरों के नीचे कोई दबा हे। क्योंकि जो सृजनात्मक है, वहीं विध्वंसात्मक होगा। क्रिएटिविटि का दूसरा हिस्सा डिस्ट्रैक्शन है। इसलिए बड़ी खूबी के लोग थे। जिन्होंने यह सोचा, बड़ी इमेज नेशन के, बड़ी कल्पना के लोग थे। बड़ी संभावनाओं को देखते थे। मां को खड़ा किया है, नीचे लाश की छाती पर खड़ी है। हाथ में खोपड़ी है आदमी की मुर्दा। खप्पर है, लहू टपकता है। गले में माला है खोप डियो की। और मां की आंखे है और मां का ह्रदय है, जिनसे दूध बहे। और वहां खोपड़ियो की माला टंगी है।
असल में जहां से सृष्टि पैदा होती है। वहीं प्रलय होता है। सर्किल पूरा वहीं होता है। इसलिए मां जन्म दे सकती है। लेकिन मां अगर विकराल हो जाती है। शक्ति उसमें बहुत है। क्योंकि शक्ति तो वहीं है, चाहे वह क्रिएशन बने और चाहे डिस्ट्रैक्शन बने। शक्ति तो वहीं है, चाहे सृजन हो या विनाश हो। जिन लोगों ने मां की धारणा के साथ सृष्टि और विनाश, दोनों को एक साथ सोचा था, उनकी दूरगामी कल्पना है। लेकिन बड़ी गहन और सत्य के बड़े निकट।
लाओत्से कहता है, स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्त्रोत वहीं है। वहीं से सब पैदा होती है। लेकिन ध्यान रहे, जो मूल स्त्रोत होता है,वही चीजें लीन हो जाती हे। वह अंतिम स्त्रोत भी होता है।
ओशो—( ताओ उपनिषद-1, प्रवचन—18 )
भारत एक सनातन यात्रा--काली की प्रतिमा
काली की प्रतिमा—जन्म और मृत्यु
पूरब में जितना ही हमने गौर से समझ पायी, उतना ही हमें दिखाई पड़ा, कुछ बातें दिखाई पड़ीं। एक, जन्म मिलता है स्त्री से तो निश्चित ही मृत्यु भी स्त्री से ही आती होगी। क्योंकि जहां से जन्म आता है वहीं से मृत्यु भी वहीं से आती होगी। जहां से जन्म आया है, वहीं से जन्म खींचा भी जाएगा।
तुमने देखा, काली की प्रतिमा को, काली को मां कहते है। वह मातृत्व का प्रतीक है। और देखा गले में मनुष्य के सिरों का हार पहले हुए है। हाथ में अभी-अभी काटा हुआ आदमी का सिर लिए हुए है, जिससे खून टपक रहा है। काली खप्पर वाली, भयानक, विकराल रूप है, सुंदर चेहरा है, जीभ बाहर निकली हुई है। भयावनी और देखा तुमने नीचे अपने पति की छाती पर नाच रही है। इसका अर्थ समझे, इसका अर्थ हुआ की मां भी है और मृत्यु भी है। यह कहने का एक ढंग हुआ—बड़ा काव्यात्मक ढंग है। मां भी है, मृत्यु भी है। तो काली को मां भी कहते है, और सारा का प्रतीक इकट्ठा किया हुआ है। भयावनी भी है और सुंदर भी है।
स्त्री प्रतीक है। स्त्री से तूम ‘स्त्री’ मत समझ लेना,अन्यथा सूत्र का अर्थ चूक जाओगे। स्त्री से तुम यह महत्वपूर्ण बात समझना की स्त्री जन्मदात्री है। तो जहां से वर्तुल शुरू हुआ है वहीं समाप्त होगा।
ऐसा समझो,वर्षा होती है बादल से। पहाड़ों पर वर्षा हुई, हिमालय पर वर्षा हुई, गंगोतरी से जल बहा, गंगा बनी, वहीं समुद्र में गिरी। फिर पानी भाप बन कर उठता है बादल बन जाते है। वर्तुल वहीं पूरा हाता है जहां से शुरू हुआ था। बादल बन कर ही वर्तुल पूरा होता है।
पूर्व ने हमने जान है हर चीज वर्तुलाकार है। सब चीजें वहीं आ जाती है। बूढा फिर बच्चे जैसा हाँ जाता है, असहाय। जैसे बच्चा बिना दाँत के पैदा होता है, ऐसा बूढ़ा फिर बिना दाँत के हो जाता है। जैसा बच्चा असहाय होता है मां बाप को चिंता करनी पड़ती है—उठाओ, बिठाओ, खिलाओ, ऐसी ही दशा बूढे की हो जाती है। वर्तुल पूरा हुआ।
जीवन की सारी गति वर्तुलाकार है, मंडलाकार है। स्त्री में जन्म मिलता है तो कहीं गहरे में स्त्री से ही मृत्यु भी मिलती होगी। अब अगर स्त्री शब्द को हटा दो चींजे और साफ हो जाएगी। क्योंकि हमारी पकड़ यह होती है: स्त्री यानी स्त्री।
हम प्रतीक नहीं समझ पाते; हम काव्य के संकेत नहीं समझ पाते । स्त्रियों को लगेगा, यह तो उनके विरोध में वचन है। और पुरूष सोचेगे, हम तो पहले ही से पता था, स्त्रीयां बड़ी खतरनाक है। यहाँ स्त्री से कोई लेना देना नहीं है। तुम्हारी पत्नी से कोई संबंध नहीं है। यह तो प्रतीक है, वह तो काव्य की प्रतीक है, यह तो सूचक है—कुछ कहना चाहते है इस प्रतीक के द्वारा।
कहना यह चाहते है कि काम से जन्म होता है और काम के कारण ही मृत्यु होती है। होगी ही। जिस वासना के कारण देह बनती है, उसी वासना के विदा हो जाने पर देह विसर्जित हाँ जाती है। वासना ही जैसे जीवन है। और जब वासना की ऊर्जा क्षीण हो गयी तो आदमी मरने लगता है। बूढे का क्या अर्थ है, इतना ही अर्थ है कि अब वासना की ऊर्जा क्षीण हो गई है। अब नदी सूखने लगी है अब जल्दी ही नदी तिरोहित हाँ जाएगी। बचपन का क्या अर्थ है—गंगोतरी। नदी पैदा हो रहीं है। जवानी का अर्थ है: नदी बाढ़ पर है। बुढ़ापे का अर्थ है, नदी विदा होने के करीब आ गई,समुद्र में मिलन का क्षण आ गया; नदी अब विलीन हो जाएगी।
कामवासना से जन्म है। इस जगत में जो भी, जहां भी जन्म घट रहा है—फूल खिल रहा है, पक्षी गुनगुना रहे है, बच्चे पैदा हो रहे है, अंडे रखे जा रहे है। सारे जगत में सृजन चल रहा है वह काम-ऊर्जा है, वह सेक्स-एनर्जी है। तो जैसे ही तुम्हारे भीतर से काम ऊर्जा विदा हो जाएगी, वैसे ही तुम्हारा जीवन समाप्त होने लगा, मौत आ गयी।
मौत क्या है, काम-ऊर्जा का तिरोहित हो जाना मौत है। इसलिए तो मरते दम तक आदमी कामवासना से ग्रसित रहता है। क्योंकि आदमी मरना नहीं चाहता।
इसलिए कामवासना के साथ हम अंत तक घिरे और पीड़ित रहते है। उसी किनारे को पकड़ कर तो हमारा सहारा है। न स्त्रीयां अपलब्ध हों तो लोग नंगे चित्र ही देखते रहेंगे; फिल्म में ही देख आयेंगे जा कर; राह के किनारे खड़े हो जायेंगे;बाजार मे धक्का-मुक्की कर आयेंगे। कुछ जीवन को गति मिलती मालूम होती है। वरना तो लगता है अब ठहरे तब ठहरे।
वासना, काम जीवन है। जीवन का पर्याय है काम। और काम का खो जाना है मृत्यु। इसलिए इन दोनों को एक साथ रखा है। काली के प्रतीक के रूप में।
ओशो--(अष्टावक्र: महागीता-4, प्रवचन—8)
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