दिनांक, 26
दिसम्बर,
1973; संध्या।
बुडलैण्डस,
बंबई।
प्रश्न
सार:
1—योग—पथ
पर चलने के
लिए क्या
निराशा और
विफलता का भाव
नितान्त जरूरी
है?
2—क्या
योग एक नास्तिक
वादी दर्शन है?
3—योग
के मार्ग पर
शिष्यत्व की
बड़ी महत्ता है, लेकिन
एक नास्तिक
शिष्य कैसे हो
सकता है?
4—यदि
योग आस्था की
मज़ा नहीं करता
है तो शिष्य का
समर्पण कैसे
हो?
5—क्या
सत्संग का
अर्थ सद्गुरु
से शारीरिक
निकटता है? शारीरिक
दूरी से क्या
शिष्य हानि
में रहता है?
6—मन
को यदि समाप्त
होना है, तो
आपके
प्रवचनों को
कौन समझेगा?
7—अगर
योग आंतरिक रूपांतरण
की प्रक्रिया
है तो यह बिना
उद्देश्य के
कैसे संभव
होगा?
पहला
प्रश्न—
आपने
कल रात कहा कि
एक समग्र
निराशा
विफलता और
आशारहितता
योग का
प्रारंभिक
आधार बनाती
हैं। यह बात
योग को
निराशावादी स्वप्न
देती है। योग
के पथ पर बढ़ने
के लिए क्या
सचमुच
निराशापूर्ण
अवस्था की जरूरत
होती है?
क्या आशावादी
व्यक्ति भी
योग के पथ पर
बढ़ना आरंभ कर
सकता है?
योग इन
दोनों में से
कुछ नहीं। यह
न निराशावादी
है और न ही
आशावादी।
क्योंकि
निराशावाद और आशावाद
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
निराशावादी
व्यक्ति वह है
जो पहले अतीत
में आशावादी
था। आशावादी
का अर्थ है वह
जो भविष्य में
निराशावादी
बनेगा। सारे
आशावाद ले
जाते हैं
निराशावाद तक
क्योंकि हर
आशा ले जाती
है निराशा तक।
यदि
तुम अब तक
आशाएं किये
चले जा रहे हो, तब
योग तुम्हारे
लिए नहीं।
इच्छाएं हैं,
आशाएं हैं,
वहां संसार
अभी है।
तुम्हारी
इच्छाएं ही
संसार है और
तुम्हारी आशा
बंधन है, क्योंकि
आशा तुम्हें
वर्तमान में
होने न देगी।
यह तुम्हें
जबरदस्ती
भविष्य की ओर
ले जाती जायेगी,
तुम्हें
केंद्रीभूत न
होने देगी। यह
खीचेगी और
धकेलेगी
लेकिन यह
तुम्हें विश्रामपूर्ण
क्षण में, स्थिरता
की अवस्था में
रहने न देगी।
यह तुम्हें
ऐसा न होने
देगी।
इसलिए
जब मैं कहता
हूं समग्र
निराशा की बात, तो
मेरा मतलब
होता है कि
आशा विफल हो
गयी और निराशा
भी निरर्थक बन
गयी। तब वह
निराशा समग्र
है। एक
संपूर्ण
निराशा का
अर्थ है कि
कहीं कोई निराशा
भी नहीं है, क्योंकि जब
तुम निराशा
अनुभव करते हो
तो एक सूक्ष्म
आशा वहां होती
है, वरना
तुम निराशा
महसूस करो ही
क्यों? आशा
अभी बाकी है, तुम अब भी
उससे चिपके
हुए हो; इसलिए
निराशा भी है।
संपूर्ण
निराशा का
मतलब है कि अब
कोई आशा न रही।
और जब कोई भी
आशा न रहे तो
निराशा भी बच
नहीं सकती।
तुमने पूरी
प्रक्रिया को
ही गिरा दिया।
दोनों पहलू
फेंक दिये गये, सारा
सिक्का ही
गिरा दिया गया।
मन की इस
अवस्था में ही
तुम योग के
मार्ग में प्रविष्ट
हो सकते हो, इससे पहले
हरगिज नहीं।
इससे पहले तो
कोई संभावना
नहीं। आशा योग
के विपरीत है।
योग
निराशावादी
नहीं है। तुम
आशावादी या निराशावादी
हो सकते हो, लेकिन
योग इन दोनों
में से कुछ
नहीं है। अगर
तुम
निराशावादी
हो, तो तुम
योग के मार्ग
पर नहीं बढ़
सकते क्योंकि एक
निराशावादी
व्यक्ति अपने
दुखों से ही
चिपका रहता है।
वह अपने दुखों
को तिरोहित न
होने देगा। एक
आशावादी
व्यक्ति
चिपका रहता है
अपनी आशाओं से
और
निराशावादी
चिपका रहता है
अपने दुखों से,
अपनी
निराशा से। वह
निराशा ही
संगी—साथी बन जाती
है। योग उसके
लिए ही है जो न
तो आशावादी है
और न ही निराशावादी।
यह उसके लिए
है जो पूरी
तरह यूं निराश
हो चुका है कि
निराशा को
महसूस करना तक
व्यर्थ हो गया
है।
वह
विपरीतता, नकारात्मकता
केवल तभी
अनुभव हो सकती
है अगर तुम
गहरे में कहीं
सकारात्मक से
चिपके ही चले
जाते हो। यदि
तुम आशा से
चिपकते हो, तुम निराशा
का अनुभव कर
सकते हो। अगर
तुम अपेक्षा
से चिपकते हो
तो तुम विफलता
अनुभव कर सकते
हो। लेकिन यदि
तुम सिर्फ
इतना भर पूरी
तरह समझ जाओ
कि अपेक्षा की
कोई संभावना
है ही नहीं तो
कुंठा कहां हो
सकती है? तो
अस्तित्व का
यह स्वभाव है
कि अपेक्षा के
लिए, आशा
के लिए कोई
संभावना नहीं
है। जब ऐसा
होना
निश्रितता बन
जाता है तब
तुम निराशा
कैसे अनुभव कर
सकते हो! और तब
आशा और निराशा
दोनों विलीन
हो जाती हैं।
पतंजलि
कहते हैं, ' अब
योग का
अनुशासन।’ वह
'अब' केवल
तभी घटित होगा
जब तुम न तो
निराशावादी
रहे और न ही
आशावादी।
निराशावादी
और आशावादी
दृष्टिकोण, ये दोनों ही
बीमार
दृष्टिकोण है।
लेकिन ऐसे
शिक्षक मौजूद
हैं जो
आशावादिता की भाषा
में बातें
किये चले जाते
हैं—विशेषकर
अमरीकी ईसाई
प्रचारक। वे
आशा, आशावादिता,
भविष्य और
स्वर्ग की
भाषा में ही
बोले चले जाते
हैं। पतंजलि
की दृष्टि में
यह केवल
बचकानापन है
क्योंकि तुम
एक और नयी
बीमारी ला रहे
हो। तुम नयी
बीमारी को
पुरानी
बीमारी की जगह
रख रहे हो।
तुम दुखी हो
और किसी भी
तरह सुखी होने
की सोच रहे हो।
इसलिए जो कोई
भी तुम्हें
आश्वासन देता
है कि यह
रास्ता
तुम्हें खुशी
की ओर ले
जायेगा, तुम
उसी के पीछे
चल पड़ोगे। वह
तुम्हें आशा
दे रहा है।
लेकिन तुम
अतीत की आशाओं
के कारण ही
इतने ज्यादा
दुखी हो रहे
हो; वह फिर
किसी आगामी नरक
का निर्माण
किये दे रहा
है।
योग
तुमसे ज्यादा
वयस्क, ज्यादा
परिपक्व होने
की अपेक्षा
रखता है। योग
कहता है कि
कोई संभावना
नहीं है
अपेक्षा की; भविष्य में
कोई संभावना
नहीं है किसी
परितोष की।
भविष्य में
कोई स्वर्ग
तुम्हारी
प्रतीक्षा नहीं
कर रहा है और
ईश्वर क्रिसमस
का उपहार लिये
तुम्हारी
प्रतीक्षा नहीं
कर रहा है।
कोई नहीं है
जो तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है। इसलिए
भविष्य के
पीछे ललकते मत
फिरो।
और
यदि तुम सचेत
हो गये हो कि
कुछ ऐसा नहीं
है जो कहीं
भविष्य में
घटित होने
वाला है, तो
तुम अभी और
यहीं जागरूक
हो जाओगे क्योंकि
कहीं कुछ है
नहीं आगे बढ़ने
के लिए। तब
कंपित होने का
कोई कारण नहीं
है। तब एक
स्थिरता
तुममें घटित
होती है।
अचानक तुम
गहरे विश्राम
में होते हो।
तुम कहीं जा
नहीं सकते, तुम घर में
हो। गति
समाप्त हो
जाती है; बेचैनी
गायब हो जाती
है। अब समय है
योग में उतरने
का।
पतंजलि
तुम्हें कोई
आशा नहीं
देंगे। तुम
जितना अपना
आदर करते हो, उससे
कहीं अधिक आदर
करते हैं वे
तुम्हारा। वे
सोचते हैं, तुम परिपक्व
हो और खिलौने
तुम्हारी मदद
न करेंगे। जो
भी अवस्था है
उसके प्रति जागरूक
होना अच्छा है।
पर जैसे ही
मैं कहता हूं 'समग्र
निराशा' की
बात तो
तुम्हारा मन
कहता है, यह
तो
निराशावादी
लगता है।
क्योंकि
तुम्हारा मन
आशा के द्वारा
ही जीवित है, तुम्हारा मन
इच्छाओं से, अपेक्षाओं
से चिपका रहता
है।
अभी
तुम इतने दुखी
हो कि तुम
आत्महत्या कर
लेते अगर कोई
आशा न होती।
यदि पतंजलि
वास्तव में
सही है, तो तुम्हारा
क्या होगा? अगर कोई आशा
न हो, कोई
भविष्य न हो
और तुम अपने
वर्तमान में
फेंक दिये जाओ, तो तुम
आत्महत्या कर
लोगे। तब जीने
के लिए कोई
आधार नहीं
होता। तुम
किसी उस बात
के लिए जीते
हो जो कभी और
कहीं घटित
होगी। वह घटित
होने वाली
नहीं है लेकिन
ऐसी आशा कि वह
घटित हो सकती
है, तुम्हारी
सहायता करती
है, जिंदा
रहने के लिए।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि जब तुम उस
बिंदु तक आ गये
हो जहां आत्महत्या
अर्थपूर्ण बन
गयी है, जहां
जीवन ने अपने
सारे अर्थ खो
दिये हैं, जहां
तुम स्वयं को
मार सकते हो, उसी घडी में
योग संभाव्य
बनता है। क्योंकि
तुम अपने को
बदलने के लिए
राजी ही न होओगे,
जब तक कि
जीवन की यह
तीव्र
व्यर्थता तुम
में घटित न हो
जाये। तुम
अपने को बदलने
के लिए तभी
राजी होओगे, जब तुम
अनुभव करो कि
या तो साधना
या आत्महत्या;
इसके
अतिरिक्त कोई
दूसरा रास्ता
नहीं है। या
तो आत्महत्या
कर लो या अपने
अस्तित्व को स्वपांतरित
कर लो। जब
केवल दो
विकल्प बचते
हैं, केवल
तभी योग चुना
जाता है, उसके
पहले हरगिज
नहीं। लेकिन
योग
निराशावादी
नहीं है। अगर
तुम आशावादी
हो, तो योग
तुम्हें
निराशावादी
लगेगा। ऐसा
लगता है
तुम्हारे
कारण ही।
पश्चिम
में बुद्ध को निराशावाद
की पराकाष्ठा
मान लिया गया
है क्योंकि
बुद्ध ने कहा
है कि जीवन
दुख है, तीव्र
व्यथा है।
इसलिए
पश्चिमी
दार्शनिक
बुद्ध के बारे
में कहते रहे
हैं कि बुद्ध
निराशावादी
हैं। एल्वर्ट
श्वाइत्जर
जैसा व्यक्ति
भी—ऐसा
व्यक्ति
जिसके कुछ
जानने की आशा
हम रख सकते हैं,
वह भी इसी
भ्रम में है।
वह सोचता है
कि सारा पूरब
निराशावादी
है। और यह
बहुत बड़ी
आलोचना है। वह
अनुभव करता है
कि सारा पूरब
निराशावादी
है। बुद्ध, पतंजलि, महावीर,
लाओत्सु ये
सभी उसके लिए
निराशावादी
हैं। वे
निराशावादी
लगते हैं। वे
ऐसा लगते हैं
क्योंकि वे
कहते है कि
तुम्हारा
जीवन अर्थहीन
है। ऐसा नहीं
है कि वे जीवन
को अर्थहीन
कहते हैं। वे
केवल उसी जीवन
को कहते हैं
जिसे कि तुम
जानते हो। और
जब तक यह जीवन
पूर्णत:
अर्थहीन नहीं
हो जाता, तुम
इसका अतिक्रमण
नहीं कर सकते।
तुम इससे
चिपके रहोगे।
जब
तक तुम इस
जीवन के, अपने
होने के इस
ढंग के पार
नहीं जाते, तुम नहीं
जान पाओगे कि
आनंद क्या है।
लेकिन बुद्ध
या पतंजलि
आनंद के बारे
में अधिक नहीं
कहेंगे
क्योंकि
उनमें एक गहरी
करुणा है तुम्हारे
लिए। यदि वे
आनंद के बारे
में कहना शुरू
करते तो तुम
फिर आशा बनाने
लगते। तुम
दुःसाध्य हो।
तुम फिर आशा
बना लेते। तुम
कह दोगे, ठीक
है। तो हम यह
जीवन छोड़ सकते
हैं। यदि एक
अधिक भरपूर
जीवन, एक
अधिक ज्ञानदार
जीवन की
संभावना है तो
हम इच्छाएं
छोड़ सकते हैं।
यदि इच्छाएं
छोड़ने से
आत्यंतिक
सत्य और आनंद का
शिखर मिलना
संभव है, तो
हम इच्छाएं
छोड़ सकते हैं।
लेकिन इन्हें
हम केवल बड़ी
इच्छा के कारण
छोड़ सकते है।
तब
तुम छोड़ कहां
रहे हो? तुम
बिलकुल ही
नहीं छोड़ रहे।
तुम तो बस
पुरानी
इच्छाओं की
जगह नयी
इच्छाएं रख
रहे हो। और
नयी इच्छा
कहीं ज्यादा
खतरनाक होगी
पुरानी इच्छा
से क्योंकि
पुरानी के
प्रति तो तुम
निराश हो ही।
नयी इच्छा के
प्रति निराश
होने के लिए, जहां कह सको
कि ईश्वर
व्यर्थ है, जहां कह सको
कि स्वर्ग की
बात
मूर्खतापूर्ण
है, जहां
तुम कह सको कि
सारा भविष्य
निरर्थक है, ऐसे बिंदु
तक पहुंचने के
लिए तुम्हें
कुछ और जन्म
लेने पड सकते
है।
यह
सांसारिक
इच्छाओं का
प्रश्न नहीं
है। यह इच्छा
मात्र का
प्रश्न है।
इच्छा करना ही
बंद होना
चाहिए। केवल
तभी तुम तैयार
होते हो, केवल
तभी तुम साहस
एकत्र करते हो,
केवल तभी
द्वार खुलता
है और तुम
अज्ञात में प्रवेश
कर सकते हो।
अत: पतंजलि का पहला
सूत्र:
'अब
योग का
अनुशासन।’
दूसरा
प्रश्न:
ऐसा
कहा जाता है
कि योग एक
नास्तिकवादी
पद्धति है!
क्या आप इससे
सहमत हैं?
योग न
तो आस्तिक है
और न नास्तिक।
योग एक सीधा
विज्ञान है।
पतंजलि सचमुच
अपूर्व हैं, एक
चमत्कार है।
वे ईश्वर के
विषय में कभी
बोलते ही नहीं।
और यदि
उन्होंने एक
बार ईश्वर का
उल्लेख किया
भी है, तब
भी वे इतना ही
कहते हैं कि
ईश्वर परम
सत्य तक
पहुंचने की
विधियों में
से एक विधि ही
है। और ईश्वर
है नहीं।
ईश्वर में
विश्वास करना
पतंजलि के लिए
केवल एक उपाय
है। क्योंकि
ईश्वर में
विश्वास करने
से प्रार्थना संभव
होती है, ईश्वर
में विश्वास
करने से
समर्पण संभव
होता है।
महत्व समर्पण
और प्रार्थना
का है, ईश्वर
का नहीं।
पतंजलि
सचमुच अद्भुत
हैं।
उन्होंने कहा
कि ईश्वर, ईश्वर
में किया गया
विश्वास, ईश्वर
की धारणा—
अनेक विधियों
में से एक
विधि है सत्य
तक पहुंचने की।
ईश्वर—प्रणिधान—ईश्वर
में विश्वास
करना तो केवल
एक मार्ग है।
लेकिन यह
अपरिहार्य
नहीं है। तुम
कुछ और चुन
सकते हो।
बुद्ध परम
यथार्थ तक
पहुंच जाते है
ईश्वर में
विश्वास किये
बगैर। वे
भिन्न मार्ग
चुनते हैं, जहां ईश्वर
की आवश्यकता
नहीं है।
यह
ऐसे है जैसे
तुम मेरे घर
आये हो और एक
निश्चित गली
से गुजरे हो।
लेकिन वह गली
साध्य नहीं थी, वह
साधन मात्र थी।
तुम उसी घर
में किसी
दूसरे रास्ते
से भी पहुंच
सकते थे और कई
लोग दूसरे
रास्तों से भी
पहुंचे हैं।
तुम्हारे
रास्ते पर हो
सकता है हरे
वृक्ष हों, विशाल वृक्ष
हों और दूसरे
रास्तों पर न
हों। अत:
ईश्वर केवल एक
मार्ग है, फर्क
को जरा ध्यान
में रखना।
ईश्वर लक्ष्य
नहीं है, ईश्वर
बहुत से
मार्गों में
से मात्र एक
मार्ग है।
पतंजलि
कभी इनकार
नहीं करते, वे
कभी अनुमान
नहीं लगाते।
वे पूर्णतया
वैज्ञानिक
हैं। ईसाई
लोगों के लिए
कठिन है यह
समझना कि
बुद्ध कैसे
परम सत्य को
उपलब्ध हो
सके! क्योंकि
उन्होंने कभी
ईश्वर में
विश्वास नहीं किया।
और हिंदुओं के
लिए यह
विश्वास करना
कठिन है कि
महावीर मोक्ष
उपलब्ध कर सके
क्योंकि
महावीर ने
ईश्वर में कभी
विश्वास नहीं
किया।
पूर्वी
धर्मों के
प्रति सचेत
होने से पहले, पश्चिमी
विचारकों ने
धर्म को हमेशा
ईश्वर—केंद्रित
स्वप्न में
परिभाषित
किया। जब वे
पूर्वी
विचारधारा के
संपर्क में
आये तो उन्हें
शात हुआ कि
सत्य तक
पहुंचने के
लिए एक परंपरागत
मार्ग भी रहा
है, जो कि
ईश्वरविहीन
मार्ग है। वे
तो घबड़ा गये।
उनके लिए यह
असंभव था।
एच.
जी. वेल्स ने
बुद्ध के विषय
में लिखा है
कि बुद्ध सबसे
अधिक
ईश्वरविहीन
व्यक्ति हैं
और फिर भी वे
सबसे अधिक
ईश्वरीय हैं।
उन्होंने कभी
विश्वास नहीं
किया और वे
कभी किसी से
कहेंगे भी
नहीं किसी
ईश्वर में
विश्वास करने
के लिए, फिर
भी वे स्वयं
सबसे
उत्कृष्ट घटना
है दिव्य
सत्ता के घटित
होने की। और
महावीर भी उस
मार्ग की
यात्रा करते
है जहां ईश्वर
की आवश्यकता
नहीं है।
पतंजलि
पूर्णतया
वैज्ञानिक
हैं। पतंजलि
कहते हैं, हम
साधनों से
नहीं बंधे हुए
हैं, साधन
हजारों हैं।
सत्य ही
लक्ष्य है।
उसे कइयों ने
ईश्वर के
द्वारा उपलब्ध
किया, तो
वही ठीक। तो
ईश्वर में
विश्वास करो
और लक्ष्य
प्राप्त करो,
क्योंकि जब
लक्ष्य
उपलब्ध हो
जाता है, तुम
अपने विश्वास
को फेंक दोगे।
इसलिए
विश्वास तो बस
उपकरण है। यदि
तुम विश्वास
नहीं करते, वह भी ठीक है।
मत करो
विश्वास।
अविश्वास के
मार्ग की
यात्रा करो और
लक्ष्य तक
पहुंचो।
पतंजलि
न तो आस्तिक
हैं और न ही
नास्तिक। वे
किसी धर्म का
निर्माण नहीं
कर रहे हैं।
वे तो बस, तुम्हें
सारे मार्ग
दिखा रहे हैं
जो कि संभव हैं।
और दिखा रहे
हैं सारे नियम,
जो
तुम्हारे रूपांतरण
के लिए कार्य
करते है।
ईश्वर उन्हीं
मार्गों में
से एक है
लेकिन वह जरूरी
नहीं है। यदि
तुम
ईश्वररहित हो
तो अधार्मिक
होना जरूरी
नहीं है।
पतंजलि कहते
हैं कि तुम भी
पहुंच सकते हो।
इसलिए बने रहो
ईश्वररहित।
ईश्वर की
चिंता ही मत
करो। ये नियम
हैं और ये
प्रयोग हैं और
यह ध्यान है।
गुजरो इसमें
से।
वे
किसी धारणा पर
जोर नहीं देते।
ऐसा करना बहुत
कठिन है।
इसीलिए
पतंजलि के 'योगसूत्र'
विरले हैं,
बेजोड़ है।
ऐसी पुस्तक
पहले कभी हुई
ही नहीं, और
आगे कभी होगी
ऐसी संभावना
नहीं।
क्योंकि जो
कुछ भी योग के
विषय में लिखा
जा सकता है, उन्होंने
लिख दिया है।
उन्होंने कुछ
भी बाकी नहीं
छोड़ा है।
इसमें कोई कुछ
नहीं जोड़ सकता।
पतंजलि के
योगसूत्र
जैसे अन्य
किसी शास्त्र की
रचना होने की
भविष्य में
कोई संभावना
नहीं।
उन्होंने
कार्य
संपूर्ण स्वप्न
से समाप्त कर
दिया है। और
वे इतनी
समग्रता से
ऐसा कर सके
क्योंकि वे एकांगी
नहीं थे। यदि
वे एकांगी
होते तो वे
इतनी समग्रता
से इसे संपन्न
न कर सकते थे।
बुद्ध
एकांगी हैं, महावीर
एकांगी हैं, जीसस एकांगी
हैं, मोहम्मद
फनी हैं।
इनमें से हर
एक का एक
निश्चित
मार्ग है।
लेकिन उनकी यह
आंशिकता
तुम्हारी वजह
से हो सकती है।
यह तुम्हारे
प्रति गहरी
दिलचस्पी, गहरी
करुणा के कारण
हो सकती है।
वे एक निश्चित
मार्ग पर जोर
देते हैं।
जिंदगी भर वे
उसी पर जोर
देते रहे। वे
कहते रहे, 'दूसरी
हर बात गलत है
और यही है ठीक
मार्ग।’ वे
ऐसा कहते केवल
तुममें आस्था
निर्मित करने के
लिए। तुम इतने
आस्थाहीन हो,
तुम इतनी
शंकाओं से भरे
हो कि यदि वे
कहते कि यह
मार्ग ले जाता
है लेकिन
दूसरे मार्ग
भी ले जाते
हैं तो तुम
किसी मार्ग पर
चलोगे नहीं।
इसलिए वे जोर
देते है कि
केवल 'यह' मार्ग ले
जाता
यह
सच नहीं है।
यह तो
तुम्हारे लिए
निर्मित एक
उपाय मात्र ही
है। क्योंकि
तुम उनमें कोई
अनिश्चयात्मकता
अनुभव करते, अगर
वे कहते, 'यह
भी ले जाता है,
वह भी ले
जाता है; यह
भी सच है, वह
भी सच है; ' तो
तुम अनिश्चयी
बन जाओगे। तुम
पहले से
अनिश्चयी हो,
इसलिए
तुम्हें कोई
ऐसा चाहिए जो
कि बिलकुल निश्चित
हो। तुम्हें
निश्चित
देखने के लिए
ही वे आंशिक
होने का बहाना
करते है।
लेकिन
यदि तुम आंशिक
हो,
तो तुम सारे
आयाम नहीं
समेट सकते।
पतंजलि आंशिक
नहीं हैं। वे
तुमसे कम
संबंधित हैं
और मार्ग के
पूर्ण रूपांकन
से अधिक
संबंधित है।
वे झूठ का
प्रयोग नहीं
करेंगे। वे
युक्ति का
प्रयोग नहीं
करेंगे। वे
तुम्हारे साथ
समझौता नहीं
करेंगे। कोई
वैज्ञानिक
समझौता नहीं
कर सकता।
बुद्ध
समझौता कर
सकते हैं, वे
करुणामय हैं।
वे वैज्ञानिक
तौर से
तुम्हारा
उपचार नहीं कर
रहे।
तुम्हारे लिए
उनमें इतनी
गहरी मानवीय
भावना है कि
वे झूठ तक कह
सकते हैं
तुम्हारी
सहायता के लिए।
और तुम सत्य
को समझ नहीं
सकते, इसलिए
वे तुम्हारे
साथ समझौता करते
है। लेकिन
पतंजलि
तुम्हारे साथ
समझौता नहीं
करेंगे। जो
कुछ भी है
तथ्य वे उसी
तथ्य के विषय
में बोलेंगे।
वे एक कदम भी
नीचे नहीं
उतरेंगे
तुमसे मिलने के
लिए। वे
नितांत
असमझौतावादी
हैं। वितान को
ऐसा होना ही
होता है।
विज्ञान
समझौता नहीं
कर सकता, वरना
वह —स्वयं
तथाकथित धर्म
बन जायेगा।
पतंजलि
न तो नास्तिक
हैं और न ही
आस्तिक। वे न
तो हिंदू है न
मुसलमान, न
ईसाई हैं न
जैन और न ही
बौद्ध। वे एक
बिलकुल
वैज्ञानिक
खोजी हैं। बस
उद्घाटित कर
रहे हैं—जैसी
भी बात है; उद्घाटित
कर रहे हैं
बिना किसी
पौराणिकता के।
वे एक भी दृष्टांतमयी
कथा का प्रयोग
नहीं करेंगे।
जीसस कथाओं
द्वारा बोलते
जायेंगे
क्योंकि तुम
बच्चे हो और
तुम केवल
कहानियां समझ
सकते हो। वे
कथाओं के
सहारे बात
कहेंगे। और
बुद्ध इतनी
सारी
कहानियों का
उपयोग करते हैं
केवल एक हलकी—सी
झलक पाने में
तुम्हारी मदद
करने के लिए।
मैं
पढ़ रहा था एक
हसीद, एक
यहूदी गुरु
बालशेम के
बारे में। वह
रबाई था एक
छोटे से गांव
में, और जब
कभी कोई
विपत्ति आती,
कोई रोग, कोई संकट
गांव में
फैलता, वह
जंगल में चला
जाता। वह एक
निश्चित
स्थान पर, निश्चित
वृक्ष के नीचे
जाता। वहां वह
धार्मिक
कर्मकांड
संपन्न करता
और फिर उसके
बाद परमात्मा
से प्रार्थना
करता। और ऐसा
हमेशा ही हुआ
कि विपत्ति
गांव छोड़ गयी,
महामारी
गांव से गायब
हो गयी, आपदा
चली गयी।
फिर
बालशेम मर गया।
उसका एक
उत्तराधिकारी
था। और समस्या
फिर आयी। वह
गांव मुसीबत
में था। कोई
संकट आ पड़ा था
और गांव के
लोगों ने उस
उत्तराधिकारी, उस
नये रबाई से
जंगल में जाकर
प्रार्थना
करने के लिए
कहा। वह नया
रबाई बहुत
घबड़ा गया
क्योंकि सही
स्थान और उस
वृक्ष का उसे
पता नहीं था।
वह परिचित न
था। .लेकिन
फिर भी वह
किसी एक
पुराने वृक्ष
के नीचे चला
गया। उसने आग
जलाई, कर्मकांड
संपन्न किये
और प्रार्थना
की। उसने
परमात्मा से
कहा, 'देखो,
मुझे उस
स्थान का कुछ
पता नहीं जहां
मेरे गुरु
जाया करते थे
लेकिन आप
जानते हैं। आप
सर्वशक्तिमान
हैं, आप
सर्वव्यापी
हैं, इसलिए
आप जानते ही
हैं और सुनिश्चित
स्थान को
खोजने की आवश्यकता
नहीं है। मेरा
गांव मुसीबत
में है इसलिए सुनिए
और कुछ कीजिए।’
वह विपत्ति
दूर हो गयी।
फिर
जब यह रबाई भी
मर गया और
उसका
उत्तराधिकारी
वहां था, तब
फिर एक समस्या
आ खड़ी हुई। वह
गांव एक
निश्चित संकट—स्थिति
में से गुजर
रहा था और फिर
गांव वाले चले
आये। वह रबाई
घबड़ा गया। वह
प्रार्थना तक
भूल चुका था।
वह जंगल में
गया और यों ही
कोई स्थान चुन
लिया। वह नहीं
जानता था कि
विधि के
अनुसार अग्रि
कैसे जलायी
जाती है, लेकिन
किसी तरह उसने
आग जलायी और
कहने लगा परमात्मा
से, 'सुनो, मैं नहीं
जानता कि विधि
के अनुसार
अग्रि कैसे जलायी
जाती है। वह
सही स्थान
मुझे मालूम
नहीं और मैं
वह प्रार्थना
भूल गया हूं।
लेकिन आप
सर्वज्ञ है
इसलिए आप
जानते ही हैं,
इसकी कोई
आवश्यकता
नहीं। इसलिए
जो जरूरी है
वह कर दें।’ वह वापस आ
गया और गांव
संकट को पार
कर गया।
फिर
वह भी मर गया
और उसका भी एक
उत्तराधिकारी
था। उस गांव
पर फिर मुसीबत
आयी इसलिए
गांव के लोग फिर
उसके पास आये।
वह अपनी आराम
कुर्सी पर
बैठा था। उसने
कहा,
'मैं कहीं
नहीं जाना
चाहता। सुनो
ईश्वर! आप तो
सब जगह हैं।
प्रार्थना
मुझे आती नहीं।
किसी
कर्मकांड का
मुझे कुछ पता
नहीं। लेकिन
उससे कुछ नहीं
होता। मेरे
जानने की तो
बात ही नहीं।
आप सब कुछ
जानते हैं
इसलिए क्या
प्रयोजन है प्रार्थना
का? क्या
उपयोग है
कर्मकांड का
और क्या
प्रयोजन है
किसी विशेष
पवित्र स्थान
का? मुझे
तो केवल अपने
पूर्वज
रबाइयों की
कहानियों का
ही पता है।
मैं तो वही
कहानी आपको
सुनाऊंगा कि
ऐसा बालशेम के
समय में घटित
हुआ, फिर
उसका
उत्तराधिकारी
हुआ, फिर
उसका भी
उत्तराधिकारी
हुआ। और ऐसी
कहानी है। अब
वही करें जो ठीक
है और इतना ही काफी
होगा।’ और विपत्ति
चली गयी। ऐसा कहा
जाता है कि परमात्मा
को वह कहानी
बडी प्यारी लगी।
लोग
अपनी
कहानियों से
प्रेम करते हैं
और उनका
परमात्मा भी
उन्हें प्रेम
करता है। और
कहानियों के द्वारा
तुम्हें कुछ
आभास मिल सकते
है। लेकिन पतंजलि
किसी बोध कथा का
प्रयोग नहीं करेंगे।
जैसे कि मैंने
तुमसे कहा, वे
आइंस्टीन और
बुद्ध का जोड
हैं। यह एक
बहुत ही
दुर्लभ संयोग
है। उनके पास
बुद्ध का आंतरिक
साक्षी—भाव था
और आइस्टीन के
मन जैसा क्रिया
तंत्र था।
अत:
वे न तो
आस्तिक है और
नहीं नास्तिक।
आस्तिकता किस्सा—कहानी
है,
नास्तिकता प्रति—कहानी
है। वे हैं
मात्र
काल्पनिक
कथाएं मानव—निर्मित
नीति कथाएं
हैं। कइयों को
एक रास्ता भा
जाता है और
कइयों को दूसरा।
पतंजलि की कहानियो
मे, काल्पनिक
कहानियो में कोई
दिलचस्पी नही।
वे रुचि रखते हैं
नग्न सत्य में।
वे उसे वस्त्र
तक नहीं
पहनायेंगे।
किसी तरह का
आवरण नहीं
रखेंगे उस पर,
वे उसे नहीं
सजायेंगे।
आवरण—सज्जा उनका
ढंग नहीं है, इसे ध्यान
में रखना।
हम
बहुत ही रूखी—सूखी
धरती पर चलेंगे, मरुस्थल
जैसी भूमि पर।
लेकिन मरुस्थल
का अपना सौदर्य
है। उसमे वृक्ष
नहीं होते, उस में नदिया
नही होती, लेकिन
उसका एक अपना विस्तार
होता है। किसी
जगल की तुलना
उससे नहीं की जा
सकती। जंगलों का
अपना सौदर्य है,
पहाडियों का
अपना सौदर्य है,
नदियों की अपनी
सुदरताएं हैं।
मरुस्थल की
अपनी विराट
अनतता है।
हम
मरुभूमि की
राह से चलेंगे।
साहस की
आवश्यकता है।
पतंजलि
तुम्हें एक भी
वृक्ष नहीं देगें
कि तुम उसके नीचे
आराम कर सको।
वे तुम्हें कोई
कहानी नहीं देगे, देंगे
केवल नग्न तथ्य।
वे किसी एक भी अनावश्यक
शब्द का उपयोग
नहीं करेंगे।
इस लिए एक शब्द
है 'सूत्र'.
सूत्र का
अर्थ है मूलभूत
अल्पतम।
एक
सूत्र एक पूरा
वाक्य तक नहीं
है! वह तो
अल्पतम सार भूत
है। वह तो ऐसे है
जैसे तुम तार देते
हो और तुम
अनावश्यक
शब्द काटते जाते
हो। तब वह एक सूत्र
हो जाता है
क्योंकि केवल नौ
या दस शब्द उसमें
रखे जा सकते हैं।
अगर तुम पत्र
लिख रहे होते तो
तुमने दस पन्ने
भर दिये होते
और दस पन्नो में
भी संदेश पूरा
न हो पाता।
लेकिन एक तार में, दस
शब्दों में वह
केवल पूरा ही
नहीं होता, वह पूरे से
भी अधिक होता है।
वह हृदय पर चोट
करता है सारतम
उसमे होता है।
टेलीग्राम
हैं पतंजलि के
ये सूत्र। वे
कंजूस हैं। वे
एक भी फालतू
शब्द का उपयोग
नहीं करेंगे।
तो वे
कहानियां
कैसे कह सकते हैं? वे
कह नहीं सकते,
इसलिए कोई
आशा मत रखो।
तो मत पूछो कि वे
आस्तिक हैं या
नास्तिक? ये
तो मात्र किस्से—कहानियां
हैं।
दार्शनिकों
ने कितनी पुराण
कथाए रची हैं!
और यह एक खेल है।
यदि तुम्हें नास्तिकवाद
का खेल पसंद है
तो हो जाओ नास्तिक।
यदि तुम्हें
आस्तिक वाद का
खेल पंसद है, आस्तिक
हो जाओ। लेकिन
ये सब खेल हैं,
सत्य नहीं।
यथार्थ, वास्तविकता
और ही चीज है।
वास्तविकता तुमसे
सबंध रखती है,
उससे नहीं जो
कि तुम्हारा
विश्वास है।’तुम' हो वास्तविकता,
तुम्हारा विश्वास
नही।
वास्तविकता मन
से परे है, मन
की तरंगो में नही।
आस्तिकता मन की
एक लहर है, नास्तिकता
मन की ही एक लहर
है। वे मन की ही
तरंगे हैं।
हिंदुत्व मन की
एक धारणा है।
क्रिश्चएनिटी
मन का एक विषय है।
पतंजलि
की रुचि है 'पार'
में—मन के
खेलों में
नहीं। वे कहते
हैं, फेंक
दो पूरे सारे
मन को ही।
इसमें जो है, व्यर्थ है।
तुम सुंदर—सुंदर
दार्शनिक
विचारों को ढो
रहे हो। लेकिन
पतंजलि
कहेंगे, फेंको
उन्हें, ये
सब बकवास हैं।
यह कठिन है।
यदि कोई कहता
है कि
तुम्हारी
बाइबिल फिजूल
है, तुम्हारी
गीता फिजूल है,
तुम्हारे
धार्मिक
ग्रंथ फिजूल
हैं, बकवास
हैं; उन्हें
फेंक दो!
तुम्हें बहुत
धक्का लगेगा।
लेकिन यही
होने जा रहा
है। पतंजलि
तुमसे कोई
समझौता नहीं
करने वाले हैं।
वे अडिग—अटल
हैं। और यही
सौंदर्य है, यही उनकी
बेजोड़ता है।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
योग के मार्ग
पर शिष्यत्व
की सार्थकता
के विषय में
कहा। एक
नास्तिक
शिष्य कैसे हो
सकता है?
न तो
आस्तिक शिष्य हो
सकता है और
नहीं नास्तिक।
उन्होंने पहले
ही धारणाएं पकड़ी
हुई हैं, वे
पहले ही
निर्णय ले
चुके हैं, तो
शिष्य होने का
क्या प्रश्न रहा?
यदि तुम पहले
ही जानते हो, तो तुम शिष्य
कैसे हो सकते
हो? शिष्य होने
का अर्थ है यह बोध
कि तुम नहीं जानते।
न नास्तिक और न
आस्तिक, वे
शिष्य नहीं हो
सकते। यदि तुम
किसी धारणा
में विश्वास करते
हो तो तुम शिष्यत्व
के सौदर्य को खो
देते हो। यदि तुम
पहले ही कुछ
जानते हो, वह
जानना तुम्हें
अहंकार को, वह तुम्हे विनम्र
नहीं बनायेगा।
इसीलिए पंडित
और विद्वान चूक
जाते हैं। कई
बार पापी पहुचे
है लेकिन विद्वान
कभी नही। वे बहुत
ज्यादा जानते
हैं। वे बहुत चालाक
हैं। उनकी
चालाकी उनकी बीमारी
है, वह
आत्म घातक बन
जाती है। वे सुनेगे
नहीं, क्योंकि
वे सीखने को
राज़ी नहीं है।
शिष्यत्व का सीधा
अर्थ है—सीखने
का भाव। पल—पल सचेत
रहना कि तुम नहीं
जानते। यह जानना
कि तुम नही जानते,
यह सजगता कि
तुम अज्ञानी हो,
तुम्हें एक खुलापन
देती है। तब तुम
बंद नहीं रहते।
जिस घडी तुम
कहते हो 'मैं
जानता हूं, तुम बंद
घेरे होते हो।
द्वार अब खुला
नहीं है।
लेकिन जब तुम कहते
हो, 'मैं नहीं
जानता', इसका
अर्थ है, तुम
सीखने को
राज़ी हो।
इसका अर्थ है,
द्वार खुला है।
यदि
तुम पहुच ही चुके
हो,
निष्कर्ष निकाल
चुके हो, तो
तुम शिष्य
नहीं हो सकते।
इसके लिए तो ग्रहणशील
होना पड़ता है।
लगातार सचेत
रहना होता है
कि सत्य
अज्ञात है और
जो कुछ भी तुम
जानते हो सतही
है, बिलकुल
कूड़ा—करकट है।
तुम जानते क्या
हो? हो सकता
है तुमने बहुत—सी
सूचनाएं इकट्ठी
कर ली हो लेकिन
वह ज्ञान नहीं
है। हो सकता है
विश्वविद्यालयों
द्वारा तुमने काफी
धूल जमा कर ली हो
लेकिन वह ज्ञान
नहीं है। तुम बुद्ध
के विषय में जान
सकते हो, तुम
जीसस के बारे
में जान सकते हो,
लेकिन वह ज्ञान
नहीं है। जब तक
तुम बुद्ध न हो
जाओ, कोई ज्ञान
नही। जब तक कि तुम
स्वयं एक जीसस
न हो जाओ; ज्ञान
फलित नहीं होता।
ज्ञान
अंतस सत्ता से
आता है, स्मृति
द्वारा नही।
तुम्हारी स्मृति
प्रशिक्षित हो
सकती है, लेकिन
स्मृति तो मात्र
एक यंत्र—रचना
है। यह तुम्हें
कोई समृद्धु
स्व—सत्ता नही
देगी। यह तुम्हे
बुरे सपने दे सकती
है, लेकिन यह
तुम्हे अधिक
समृद्ध—स्व—सत्तान
देगी। तुम वैसे
ही बने रहोगे—बहुत—सी
धूल से ढंके हुए।
ज्ञान और विशेषकर
वह अंहकार, जो ज्ञान के साथ
चला आता है, वह धारणा कि
मैं जानता हूं
तुम्हें बंद करती
है। अब तुम शिष्य
नहीं हो सकते।
और यदि तुम शिष्य
नहीं हो सकते तो
तुम योग के अनुशासन
मे,प्रवेश नहीं
कर सकते।
इसलिए योग के द्वार
पर आओ अज्ञानी
होकर अपने
अज्ञान के प्रति
जागरूक होकर
यह होश रख कर कि
तुम नहीं जानते।
और मैं तुमसे कहूंगा
कि केवल यही
जानना है जो
मदद कर सकता है
: यह बोध कि 'मैं
नहीं जानता'।
यह
तुम्हें
विनम्र
बनायेगा। एक
सूक्ष्म
विनम्रता आ
जायेगी
तुममें।
अहंकार धीरे—
धीरे विलीन
होता जायेगा।
यह जानते हुए
कि तुम नहीं
जानते, तुम
अहंकारी कैसे
हो सकते हो? ज्ञान सबसे
सूक्ष्म भोजन
है अहंकार के लिए।
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम कुछ हो।
तुम जानते हो,
इसलिए तुम
विशिष्ट हो
जाते हो।
अभी
दो दिन पहले
पश्चिम से आयी
एक युवती को
मैंने
संन्यास मैं
दीक्षित किया।
मैंने उसे नाम
दिया 'योग
संबोधि '।
और उससे पूछा
कि इसका
उच्चारण करना
सरल तो होगा न!
उसने कहा 'हां,
यह तो
बिलकुल अंग्रेजी
के शब्द 'समबडी
' जैसा
लगता है।’ लेकिन
संबोधि इसके
बिलकुल
विपरीत है। जब
तुम 'कोई
नहीं ' हो
जाते हो तब
संबोधि घटित
होती है।
संबोधि का
अर्थ है
बुद्धत्व।
यदि तुम 'कोई
' हो तो
संबोधि कभी
घटित न होगी।
यह 'कोई—हू—पन'
ही बाधा है।
जब
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम 'कोई' नहीं,
जब तुम
अनुभव करते हो
कि तुम 'कुछ
' नहीं, तब
अचानक तुम
सुलभ हो जाते
हो बहुत से रहस्यों
के तुममें
घटित होने के
लिए।
तुम्हारे
द्वार खुले
हैं।
सूर्योदय हो
सकता है, सूर्य
की किरणें
तुम्हारे
भीतर उतर सकती
हैं।
तुम्हारी
उदासी, तुम्हारा
अंधेरा विलीन
हो जायेगा।
लेकिन तुम बंद
हो। हो सकता
है सूरज
तुम्हारा
द्वार खटखटा
रहा हो, लेकिन
वहां कोई
खुलापन नहीं
है; एक
खिड़की तक नहीं
खुली है।
आस्तिक
या नास्तिक, हिंदू
या मुसलमान, ईसाई या
बौद्ध इस
मार्ग पर
प्रवेश नहीं
कर सकते। वे
विश्वास करते
हैं। वे पहुंच
ही चुके हैं, बिना कहीं
पहुंचे हुए!
उन्होंने
निर्णय ले
लिया है बिना
किसी बोध के।
उनके मन में
हैं—शब्द, धारणाएं
सिद्धांत और
शाख। और जितना
अधिक बोझ होता
है विचारों का,
उतने ही वे
मुरदा होते
जाते हैं।
चौथा
प्रश्न:
आपने
कहा कि योग
किसी आस्था की
मांग नहीं
करता। लेकिन
यदि
प्रारंभिक
शर्त के स्वप्न
में शिष्य को
निष्ठा
समर्पण और गुरु
में भरोसा
करने की
आवश्यकता हो,
तब वह पहला
कथन कैसे
तर्कसंगत
बनता है?
मैंने
कभी नहीं कहा
कि योग निष्ठा
की मांग नहीं
करता। मैंने
कहा कि योग
किसी विश्वास
की मांग नहीं करता।
निष्ठा
बिलकुल अलग
चीज है, श्रद्धा
बिलकुल अलग
चीज है।
विश्वास एक
बौद्धिक चीज
है, लेकिन
आस्था एक बहुत
गहरी
आत्मीयता है।
यह बौद्धिक
नहीं है। यदि
तुम गुरु से
प्रेम करते हो,
तब तुम
आस्था करते हो
और श्रद्धा
होती है।
लेकिन यह
आस्था किसी
धारणा में
नहीं है।
आस्था उस
व्यक्ति में
है। और यह
शर्त नहीं है,
यह
अपेक्षित
नहीं है, इस
भेद को ध्यान
में रखना। यह जरूरी
नहीं कि गुरु
में तुम्हारी
आस्था होनी ही
चाहिए, यह
कोई पूर्व—शर्त
नहीं है। जो
कहा गया वह यह
है यदि गुरु
और तुम्हारे
बीच श्रद्धा
घटित हो जाती
है, तब —सत्संग
संभव हो
जायेगा। यह
केवल एक
स्थिति है, शर्त नहीं।
अपेक्षित कुछ
नहीं है।
जैसा
प्रेम में
होता है वैसा
ही है यह। यदि
प्रेम हो जाता
है तो बाद में
विवाह हो सकता
है,
लेकिन तुम
प्रेम को एक
शर्त नहीं बना
सकते। तुम
नहीं कह सकते
कि पहले
तुम्हें
प्रेम करना ही
चाहिए और बाद
में विवाह
होगा। —तब तुम
पूछोगे, 'प्रेम
कैसे कर सकते
हैं? 'अगर
यह होता है, तो होता है; अगर यह नहीं
हो रहा, तो
नहीं हो रहा। तुम
कुछ नहीं कर
सकते। उसी तरह
तुम आस्था को
जबरदस्ती
नहीं लाद सकते।
पुराने
समय में खोजी
संसार भर में
घूमते थे। वे
एक गुरु से
दूसरे गुरु तक
घूम लेते थे।
एक अद्भुत
घटना के घटित
होने की
प्रतीक्षा करते
हुए। तुम इसे
जबरदस्ती
नहीं ला सकते।
हो सकता है जब
तक तुममें कोई
झरोखा खुले, तुम
बहुत से
गुरुओं के बीच
से खोजते हुए
गुजरो। तो
श्रद्धा कहीं
घटित हो चुकी
होगी, लेकिन
वह शर्त न थी।
तुम गुरु के
पास जाकर उस
पर श्रद्धा
करने का
प्रयत्न नहीं
कर सकते। तुम
श्रद्धा करने
का प्रयत्न
कैसे कर सकते
हो? वही
प्रयत्न, वही
प्रयास
दर्शाता है कि
तुम श्रद्धा
नहीं करते।
तुम किसी को
प्यार करने की
कोशिश कैसे कर
सकते हो? कैसे
कर सकते हो
तुम? यदि
तुम कोशिश
करते हो, तो
सारी बात ही
झूठी बन जायेगी।
यह
एक घटना है।
लेकिन जब तक
यह घटित नहीं
होती, सत्संग
संभव न हो
पायेगा। तब तक
गुरु अपनी
कृपा तुम्हें
नहीं दे सकता।
ऐसा नहीं है
कि इसे देने
से वह स्वयं
को रोके रखेगा।
लेकिन तुम
सुलभ नहीं
होते हो उसे ग्रहण
करने के लिए।
वह कुछ नहीं
कर सकता। तुम
खुले हुए नहीं
हो।
हो
सकता है सूरज
खिड़की के करीब
ही प्रतीक्षा
कर रहा हो
लेकिन यदि
खिड़की बंद है, सूर्य
क्या कर सकता
है? किरणें
पीछे लौट
आयेंगी। वे
आयेंगी, द्वार
खटखटायेंगी
और वापस लौट
जायेंगी।
ध्यान रखना, यह शर्त
नहीं है कि
यदि तुम द्वार
खोलो, तो
सूर्योदय
होगा। ऐसी
शर्त नहीं है।
हो सकता है
सूर्य वहां न
हो। हो सकता
है रात हो।
केवल द्वार
खोल कर ही तुम
सूर्य को
निर्मित नहीं
कर सकते।
तुम्हारा
खुलना, तुम्हारा
द्वार, बस
तुम्हें सुलभ
बनाते हैं।
यदि सूर्य
वहां है, तो
वह प्रविष्ट
हो सकता है।
इसलिए
खोजी चलते
रहेंगे।
उन्हें एक
गुरु से दूसरे
गुरु तक बढ़ते
ही रहना होगा।
केवल एक बात
जो उन्हें
ध्यान में
रखनी है वह यह
कि उन्हें
खुले रहना
चाहिए और
उन्हें फैसला नहीं
देना चाहिए।
यदि तुम किसी
गुरु के पास
आते हो और
उसके साथ कोई
तालमेल नहीं
पाते, तो आगे
बढ जाओ। लेकिन
निर्णय मत दो
क्योंकि
तुम्हारा
मूल्यांकन
गलत होगा। तुम
उसके संपर्क
में कभी नहीं
आये। जब तक कि
तुम उसे प्रेम
न करो, तुम
उसे जान नहीं
सकते इसलिए
निर्णय मत दो।
इतना ही कहो, 'यह गुरु
मेरे लिए नहीं,
मैं इस गुरु
के लिए नहीं।
वह बात घटित
हुई नहीं।’ और बस आगे बढ़
जाओ।
यदि
तुम निर्णय देना
आरंभ करते हो, तब
तुम स्वयं को
बंद कर लेते
हो दूसरे
गुरुओं के लिए
भी। तुम्हें
कई—कई
स्थितियों
में से गुजरना
पड़ सकता है, लेकिन इसे
ध्यान में
रखना : निर्णय
मत दो। जब कभी
तुम्हें लगे
कि इस गुरु
में कुछ गलत
है, आगे बढ़
जाओ। इसका
अर्थ है कि
तुम उसमें
श्रद्धा नहीं
रख सकते। कुछ
गलत हो गया; तुम उस पर
आस्था नहीं रख
सकते। लेकिन
मत कहना कि
गुरु गलत है।
तुम जानते
नहीं। केवल
आगे बढ़ जाना।
उतना काफी है।
कहीं और खोजना।
यदि
तुम निर्णय
देना, दोष
देना, निष्कर्ष
निकालना आरंभ
करते हो तो
तुम बंद हो
जाओगे। और आंखें
जो निर्णय
लेती हैं, कभी
भी श्रद्धा न
कर पायेंगी।
एक बार तुम
निर्णय के
शिकार बन गये
तो तुम कभी भरोसा
न कर पाओगे
क्योंकि तुम
हमेशा कुछ न
कुछ खोज लोगे
जो कि तुम्हें
आस्था न करने
देगा; जो
तुम्हें एक
संकीर्णता
देगा।
इसलिए
यदि तुम गुरु
में श्रद्धा
नहीं करते तो
उसे जांचो मत।
बस आगे बढ़ जाओ।
यदि तुम बढ़ते
रहो,
घटना घटित
होकर ही रहती
है—किसी दिन, कहीं, किसी
क्षण में।
क्योंकि ऐसे
क्षण होते हैं,
जब तुम अति संवेदनशील
होते हो और
गुरु
प्रवाहित हो
रहा होता है।
और तुम इसके
साथ कुछ कर
नहीं सकते।
तुम अति
संवेदनशील
होते हो इसलिए
तुम मिलते हो।
देश, स्थान
और समय के एक
विशेष बिंदु
पर यह भेंट घटित
होती है। तब
सत्संग संभव
हो जाता है।
सत्संग
का अर्थ है :
गुरु के निकट
की सन्निधि।
उस व्यक्ति के
निकट होना
जिसने जाना है।
क्योंकि उसने
जान लिया है, वह
प्रवाहित हो
सकता है। वह
प्रवाहित हो
ही रहा है।
सूफी कहते हैं
कि इतना काफी
है; गुरु
के निकट, उसके
सान्निध्य
में होना काफी
है। बस उसके
पास बैठना; उसके करीब
ही चलना; उसके
कमरे के बाहर
बैठ जाना; रात
में उसकी
दीवार के पास
बैठे जागना; उसे याद
करते रहना
काफी है।
लेकिन इसमें
बरसों लग जाते
हैं—प्रतीक्षा
के वर्ष। और
वह तुम्हारे
साथ अच्छा
व्यवहार नहीं
करेगा। वह हर
ढंग की बाधा
खड़ी करेगा। वह
तुम्हें बहुत
से अवसर देगा
कि तुम उसके
बारे में
निर्णय दो। वह
अपने बारे में
बहुत—सी
अफवाहें
फैलाएगा
जिससे कि तुम
सोच सको कि वह
गलत है और तुम
भाग सको। वह
हर तरह से
तुम्हारी मदद
करेगा निकल
भागने में।
इसलिए पहले
तुम्हें इन सब
बाधाओं को पार
करना होगा। और
ये आवश्यक हैं
क्योंकि
सस्ती आस्था
किसी काम की
नहीं। लेकिन
वह आस्था जो
मंजी हुई
आस्था है, जिसने
लंबी
प्रतीक्षा की
है, एक
मजबूत चट्टान
बन गयी है—और
केवल तभी
गहनतम परतो से
उतरा जा सकता
है।
पतंजलि
नहीं कहते कि
तुम्हें
विश्वास करना
ही है।
विश्वास
बौद्धिक है।
तुम हिंदुत्व
में विश्वास
करते हो लेकिन
यह आस्था नहीं
है। यह तो बस
ऐसा है कि तुम
संयोगवश
हिंदू परिवार में
पैदा हो गये, इसलिए
तुमने अपने
बचपन से ही
हिंदुत्व के
बारे में सुन
लिया है। तुम
इससे सरोबोर
हो चुके हो।
इसका गहरा
प्रभाव
तुम्हारे
सिद्धांतो, धारणाओं, चिंतनों पर
पड़ा है। वे
तुम्हारे
रक्त का
हिस्सा बन गये
हैं। वे
तुम्हारे
अचेतन में
प्रविष्ट हो
चुके हैं। तुम
उनमें
विश्वास करते
हो। लेकिन यह
विश्वास किसी
काम का नहीं
क्योंकि उसने
तुम्हें स्वपांतरित
नहीं किया। वह
मरी हुई चीज
है, उधार
ली हुई।
आस्था
मरी हुई चीज
बिलकुल नहीं
है। तुम अपने
परिवार सै
आस्था उधार
नहीं ले सकते।
यह एक
व्यक्तिगत
घटना है।
तुम्हें इस तक
आना होगा। हिंदुत्व
परंपरागत है, मुसलमान
होना परंपरागत
है। लेकिन
मोहम्मद के आस—पास
एकत्र पहले
समूह के लिए—
और वे वास्तव
में मुसलमान
थे—वह आस्था
ही थी। वे
गुरु तक स्वयं
आये थे। वे
गुरु के निकट
के सान्निध्य
में रहे थे, उन्होंने
सत्संग पाया
था।
उन्हें
मोहम्मद में
निष्ठा थी। और
मोहम्मद ऐसे
व्यक्ति न थे
जिन पर कि
आसानी से
आस्था की जा
सके। यह कठिन
था। यदि तुम
मोहम्मद के
पास गये होते
तो तुम भाग आते।
उनकी नौ
पत्नियां थीं।
ऐसे व्यक्ति
पर भरोसा करना
असंभव था।
उनके हाथ में
तलवार थी और
तलवार पर लिखा
था,
'शांति
आदर्श है।’ इसलाम शब्द
का अर्थ है
शांति। ऐसे
व्यक्ति का
तुम कैसे
विश्वास कर
सकते हो?
तुम
महावीर में
निष्ठा बना
सकते हो, जब वे
अहिंसा की
बातें करते
हैं। वे
अहिंसावादी
हैं। स्पष्ट
ही तुम महावीर
पर भरोसा कर
सकते हो।
लेकिन
मोहम्मद जो
तलवार को साथ
लिये हैं, उनमें
कैसे आस्था रख
सकते हो। और
वे कहते हैं, 'प्रेम संदेश
है और शांति
आदर्श है।’ तुम विश्वास
नहीं कर सकते।
यह व्यक्ति
बाधाएं खड़ी कर
रहा था।
मोहम्मद
एक सूफी थे, वे
एक गुरु थे।
वे हर कठिनाई
निर्मित
करेंगे।
इसलिए अगर
तुम्हारा मन
अब तक कार्य
कर रहा होगा, यदि तुम
संदेह करोगे,
यदि तुम संशय
से भरे हुए
होओगे, तो
तुम भाग सकते
हो। लेकिन यदि
तुम ठहरे, प्रतीक्षा
की, यदि
तुममें धैर्य
रहा—और असीम
धैर्य का
आवश्यकता
होगी—तो किसी
दिन तुम
मोहम्मद .को
जान जाओगे।
तुम मुसलिम हो
जाओगे। मात्र
उनको जान लेने
में, तुम
मुसलमान हो
जाओगे।
शिष्यों का वह
पहला समूह
बिलकुल ही अलग
था। बुद्ध के
शिष्यों का
पहला समूह भी
एक नितांत भिन्न
बात थी। अब
बौद्ध मृत हैं,
मुसलमान
मृत हैं; वे
परंपरागत स्वप्न
से मुसलमान
हैं, लेकिन
सत्य को
संपत्ति की
भांति
हस्तांतरित नहीं
किया जा सकता।
तुम्हारे
माता—पिता
तुम्हें सत्य
नहीं दे सकते।
वे तुम्हें
संपत्ति दे
सकते हैं
क्योंकि
संपत्ति
संसार को चीज
होती है लेकिन
सत्य संसार का
नहीं है। इसे
वे तुम्हें
नहीं दै सकते, वे
इसे एक खजाने
की तरह संजो
कर नहीं रख
सकते। वे इसे
बैंक में नहीं
रख सकते जिससे
कि यह तुम तक
हस्तांतरित
हो सके। इसे
तुम्हें
स्वयं ही
खोजना होगा।
तुम्हें कष्ट
सहन करना होगा,
तुम्हें
शिष्य होना
होगा और तुम्हें
कड़े अनुशासन
में से गुजरना
पड़ेगा। यह एक
व्यक्तिगत
घटना होगी।
सत्य हमेशा
व्यक्तिगत
होता है। यह
एक व्यक्ति
में ही घटित
होता है 1
आस्था
एक बात है और
विश्वास कुछ
अलग बात है।
विश्वास
तुम्हें
दूसरों के
द्वारा दिया
जाता है, लेकिन
आस्था
तुम्हारे
द्वारा स्वयं
अर्जित की
जानी चाहिए।
पतंजलि को
किसी विश्वास
की अपेक्षा
नहीं, लेकिन
आस्था न हो तो
कोई गति नहीं
हो सकती, आस्था
के बिना कोrd चीज संभव
नहीं। लेकिन
इसे जबरदस्ती
नहीं ला सकते।
इसे समझो। इसे
जबरदस्ती
लाना
तुम्हारे
अपने हाथ में
नहीं। यदि तुम
इसे जबरदस्ती
लाते हो, तो
यह नकली होगी।
और 'अनास्था
नकली आस्था से
बेहतर है।
नकली आस्था के
साथ तो तुम
अपने को
व्यर्थ गंवा
रहे हो। कहीं
और आगे बढ़
जाना बेहतर है,
जहां
वास्तविक
श्रद्धा घटित
हो सकती है।
निर्णय
मत करो., बस, अत्यो बढ़ते
रहो। किसी
दिन... कहीं, तुम्हारा
गुरु
प्रतीक्षा कर
रहा है। और
गुरु तुम्हें
दिखाया नही जा
सकता। कोई
नहीं कह सकता,
'यहां जाओ
और तुम्हें
तुम्हारे
सद्गुरु मिल जायेंगे।’
तुम्हें
खोजना होगा, तुम्हें
कष्ट झेलना
होगा, क्योंकि
कष्ट झेलने और
खोजने के
द्वारा ही तुम
उसे देखने के योग्य
होओगे। तुहारी
आंखें स्वच्छ
हो जायेंगी, आंसू गायब
हो जायेंगे।
तुम्हारी आंखों
के आगे
आये बादल छंट
जायेंगे और
बोध होगा कि
यह हैं
सद्गुरु!
ऐसा
कहा गया है कि
एक सूफी, जुन्नैद,
एक बूढ़े
फकीर के पास
आया। वह उससे
कहने लगा, 'मैंने
सुना है आप
जानते हैं।
मुझे राह
दिखाइए।’ बूढ़े
आदमी ने उत्तर
दिया, 'तुमने
सुना है कि
मैं जानता हूं।
तुम नहीं
जानते कि मैं
जानता हूं।’ जुन्नैद ने
कहा, ' आपके
प्रति मुझे
कुछ अनुभूति
नहीं हो रही, लेकिन बस एक
बात करें, मुझे
वह राह
दिखायें जहां
मैं अपने गुरु
को पा सकूं।’ वह बूढ़ा
आदमी बोला, 'पहले मक्का
जाओ; तीर्थयात्राएं
करो; और
ऐसे—ऐसे आदमी
को खोजो। वह
पेड़ के नीचे
बैठा होगा।
उसकी आंखें
ऐसी होगी कि
जो रोशनी
फेंकती होंगी।
तुम उसके
आसपास
कस्तूरी—सुगन्ध
महसूस करोगे।
जाओ और उसे
खोजो।’
जुन्नैद
बीस वर्ष तक
यात्रा ही
यात्रा करता रहा।
जहां कहीं
सुना कि कोई
गुरु है, वहां
गया। लेकिन
उसे न तो वह
पेडू मिला, न सुगन्ध, न कसूरी; और
न ही वे आंखें
जिनका वर्णन
बूढ़े आदमी ने
किया था। जिस
व्यक्तित्व
की खोज कर रहा
था वह मिलने
वाला ही नहीं
था। और उसके
पास एक बना—बनाया
फार्मूला था,
जिससे वह
तुंरत ही
निर्णय कर
लेता. 'यह
मेरा गुरु
नहीं है' और
वह आगे बढ़
जाता। बीस
वर्ष पच्श्रात
वह एक खास
वृक्ष तक
पहुंचा। गुरु
वहां था।
कसूरी की गंध
धुंध की भांति
उस व्यक्ति के
आस—पास हवा
में बह रही थी।
उसकी आंखें
प्रज्वलित था,
और लाल
प्रकाश उनसे
छलक रहा था।
यही था वह व्यक्ति।
जुन्नैद गुरु
कै चरणों पर
गिर पड़ा और बोला,
'गुरुदेव, मैं बीस
वर्ष से आपको
खोज रहा था।
गुरु
ने उत्तर दिया, 'मैं
भी बीस वर्ष
से तुम्हारी प्रतीक्षा
कर रहा था।
फिर से मेरी
ओर देखो। जुन्नैद
ने देखा, यह
वही व्यक्ति
था जिसने बीस
वर्ष पहले उसे
गुरु को खोजने
का मार्ग
दिखाया था।
जुन्नैद रोने
लगा और बोला, ' आपने ऐसा
क्यों किया? क्या आपने
मेरे साथ मजाक
किया? बीस
वर्ष बेकार हो
गये हैं! आप
क्यों नहीं कह
सके कि आप
मेरे गुरु हैं?'
बूढ़े
आदमी ने जवाब
दिया, 'उससे
मदद न मिलती, उसका कुछ
उपयोग न हुआ
होता।
क्योंकि जब तक
तुम्हारे पास
आंखें नहीं
हैं देखने के
लिए, कुछ
नहीं 'हो
सकता। इन बीस
वर्षों ने
तुम्हारी मदद
की है मुझे
देखने में।
मैं वही
व्यक्ति हूं
जैसा कि तब था,
लेकिन बीस
वर्ष पहले
तुमने मुझसे
कहा था कि तुम्हें
मेरे प्रति
कोई अनुभूति
नहीं होती। मैं
तो वही हूं
लेकिन अब तुम
अनुभूति पाने
मै सक्षम हो
गये हो। तुम
बदल गये हो, इन पिछले
वर्षों ने
तुम्हें जोर
से मांज दिया।
सारी धूल छंट
गयी, तुम्हारा
मन निर्मल है।
कस्तूरी की यह
सुगन्ध उस समय
भी थी, लेकिन
इसे सूंघने की
तुममें
क्षमता न थी।
तुम्हारी नाक
बन्द थी, तुम्हारी
आंखें कार्य
नही कर रही
थीं, तुम्हारा
हृदय सचमुच
स्पंदित नहीं
हो रहा था।
इसलिए संयोग
सम्भव नहीं था
तब।’
तुम
स्वयं नहीं
जानते। और कोई
नहीं कह सकता
कि तुम्हारी
श्रद्धा कहां
घटित होगी।
मैं नहीं कहता, गुरु
पर श्रद्धा
करो। मैं केवल
इतना कहता हूं
कि ऐसा
व्यक्ति खोजो
जहां श्रद्धा
घटित होती हो।
वही व्यक्ति
तुम्हारा
गुरु है। और
तुम कुछ कर
नहीं सकते इसे
घटित होने
देने में।
तुम्हें
घूमना होगा।
घटना घटित
होनी निश्चित
है, लेकिन
खोजना आवश्यक
है क्योंकि
खोज तुम्हें तैयार
करती है। ऐसा
नहीं है कि
खोज तुम्हें
गुरु तक ले
जाये। खोजना
तुम्हें
तैयार करता है
ताकि तुम उसे
देख सको। हो
सकता है वह
तुम्हारे बिलकुल
नजदीक हो।
पाँचवाँ
प्रश्न—
पिछली
रात्रि आपने
सत्संग और
शिष्य के गुरु—
के निकट होने
पर बात की
क्या इसका
अर्थ शारीरिक
निकटता है? वह
शिष्य जो गुरु
से बहुत
शारीरिक पर
रहता है नुकसान
में रहता है
क्या?
हां और
नहीं। हां, आरंभ
में शारीरिक
निकटता
आवश्यक है
क्योंकि जैसे
कि तुम हो, अभी
तो तुम कोई
चीज समझ नहीं
सकते। तुम
शरीर को समझ सकते
हो, तुम
शारीरिक भाषा
समझ सकते हो।
तुम भौतिक
स्तर पर जीवित
हो, इसलिए
हां, शारीरिक
निकटता
आवश्यक है—
आरंभ में।
लेकिन
मैं कहता हूं
नहीं भी; क्योंकि
जैसे ही तुम
विकसित होते
हो, जैसे
ही एक अलग
भाषा सीखना
आरंभ करते हो
जो कि गैर—शारीरिक
है, तब
शारीरिक
निकटता की
आवश्यकता
नहीं है। तब
तुम कहीं भी
जा सकते हो।
तब दूरी से
कोई अन्तर
नहीं पड़ता।
तुम्हारा
सम्पर्क बना
रहता है। और
केवल स्थान की
दूरी ही नहीं,
समय से भी
कुछ अन्तर
नहीं पड़ता।
गुरु का शरीर
न रहे, लेकिन
तुम्हारा
सम्पर्क तब भी
बना रहता है।
उसने अपना
भौतिक शरीर त्याग
दिया हो लेकिन
तुम्हारा
सम्पर्क बना रहता
है। यदि
श्रद्धा घटित
होती है तो
समय और स्थान
दोनों का अतिक्रमण
हो जाता है।
श्रद्धा
ही वह चमत्कार
है। यदि
श्रद्धा है तो
बिलकुल अभी
तुम्हारी
निकटता बन
सकती है
मोहम्मद, जीसस
या बुद्ध के
साथ। लेकिन यह
कठिन है। यह कठिन
है क्योंकि
तुम जानते
नहीं कि
श्रद्धा कैसे
की जाये। तुम
एक जीवित
व्यक्ति पर
भरोसा नहीं कर
सकते तो एक
मृत व्यक्ति
पर भरोसा कैसे
कर सकते हो? लेकिन यदि
श्रद्धा घटित
हो, तो तुम
इस क्षण भी
बुद्ध के निकट
हो सकते हो।
और उनके लिए
बुद्ध जीवित
हैं, जिनकी
उनमें आस्था
है। कोई गुरु
कभी मरता नहीं
उनके लिए जो
श्रद्धा कर
सकते हैं। वह
मदद करता रहता
है। वह हमेशा
यहां ही है।
लेकिन
तुम्हारे लिए
बुद्ध यहां
शारीरिक स्वप्न
में भी मौजूद
हों, यदि
तुम्हारे आगे
या पीछे ही
खड़े हों, या
तुम्हारे साथ
ही बैठे हों, तुम उनके
निकट न होओगे।
तुम्हारे और
बुद्ध के बीच
एक बडी दूरी
बनी रहेगी।
प्रेम, श्रद्धा
और आस्था
स्थान और समय
दोनों को मिटा
देती हैं।
आरंभ में
क्योंकि तुम
दूसरी कोई
भाषा नहीं समझ
सकते हो, शारीरिक
निकटता
आवश्यक है—लेकिन
केवल आरंभ में
ही। एक घडी
आयेगी जब गुरु
स्वयं
तुम्हें दूर
जाने के लिए
विवश कर देगा
क्योंकि वह भी
आवश्यक हो
जाता है। वरना
हो सकता है
तुम शारीरिक
भाषा के साथ
ही चिपटे रहना
शुरू कर दो।
गुरजिएफ
जिंदगी भर, लगभग
हमेशा ही अपने
शिष्यों को
बाहर दूर भेजता
रहा। वह उनके
लिए इतनी दुखद
स्थितियां
निर्मित करता
कि उन्हें
जाना ही पड़ता।
उसके साथ रहना
असंभव हो जाता।
एक निश्चित
स्थिति तक
पहुंचने के
बाद चले जाने
में वह उनकी
मदद करता। वह
वास्तव में
उन्हें जाने
के लिए विवश
कर देता।
क्योंकि
शारीरिक स्वप्न
पर किसी को
बहुत निर्भर
नहीं रहना
चाहिए। वह
दूसरी उच्चतर
भाषा विकसित
होनी ही चाहिए।
तुम जहां भी
हो, गुरु
के निकट होने
की अनुभूति
पानी आरंभ
करनी होगी
क्योंकि शरीर
का अतिक्रमण
करना ही है।
केवल
तुम्हारे
शरीर का ही
नहीं, गुरु
के शरीर का भी अतिक्रमण
करना है।
लेकिन
आरंभ में
शारीरिक
निकटता से बड़ी
मदद मिलती है।
एक बार बीज बो
दिये जाते हैं, एक
बार वे जड़ें
पकड़ लेते हैं,
तुम काफी
मजबूत हो जाते
हो, तब तुम
दूर जा सकते
हो और तब भी
तुम गुरु को
अनुभव कर सकते
हो। यदि दूर
चले जाने भर
से संपर्क खो
जाता है, तब
वह संपर्क
बहुत
महत्वपूर्ण न
था। जितना दूर
तुम जाते हो, भरोसा और
अधिक बढ़ेगा।
क्योंकि इस
पृथ्वी पर तुम
चाहे जहां
कहीं हो गुरु
की उपस्थिति
का निरंतर
अनुभव करोगे।
भरोसा बढ़ेगा।
गुरु अब छिपे
हुए हाथों से,
अदृश्य
हाथों से
तुम्हारी मदद
कर रहा होगा।
वह सपनों
द्वारा तुम पर
कार्य कर रहा
होगा और तुम
निरंतर अनुभव
करोगे कि वह
परछाईं की
भांति
तुम्हारा
पीछा कर रहा है।
लेकिन
यह बहुत बड़ी
विकसित भाषा
है। बिलकुल
आरंभ से ही
इसके लिए प्रयत्न
मत करना
क्योंकि तब
तुम स्वयं को
धोखा दे सकते
हो। धीरे—
धीरे आगे बढ़ो।
जहाँ कहीं
भरोसा बने, श्रद्धा
घटित हो, आंखें
बंद कर लेना
और आंखें मूंद
पीछे हो लेना।
वस्तुत: जिस
घड़ी श्रद्धा
घटित होती है
तुमने आंखें
बंद कर ली
होती हैं। तब
तर्क करने या
सोचने का
प्रयोजन क्या
है? श्रद्धा
घटित हो गयी
है और श्रद्धा
अब कोई बात
सुनेगी नहीं।
तब
पीछे चलो और
गुरु के निकट
बने रहो, जब तक
कि वह स्वयं
तुम्हें दूर न
भेजे। और जब
वह स्वयं
तुम्हें दूर
भेजता है, तब
चिपके मत रहो,
तब आगे बढ़ो।
उसके अनुदेश
पर चलो और दूर
चले जाओ, क्योंकि
वह बेहतर
जानता है। वह
जानता है कि
क्या उपयोगी
है।
कई
बार कठिन हो
सकता है गुरु
के निकट
विकसित होना।
जैसे कि बड़े
वृक्ष के नीचे
एक नये बीज को
विकसित होने
में कई कठिनाइयां
आयेंगी। एक
बड़े वृक्ष के
नीचे, एक नया.
वृक्ष अपंग हो
जायेगा।
वृक्ष तक भी
ध्यान रखते हैं
कि अपने बीज बहुत
दूर तक फेंकेता
कि वे बीज फूट सके।
बीजों को दूर
भेजने के लिए
वृक्ष कई युक्तियां
प्रयोग करते है,
वरना यदि बीज
बडे वृक्ष के नीचे
गिर जाये, तो
वह मर जायेगा।
वहाँ इतनी अधिक
छांव है। वहाँ
कोई सूर्य
नहीं पहुंचता
सूर्य की किरणे
नहीं पहुंचती वहा।
तो
गुरु तुम से बेहतर
जानता है। यदि
वह अनुभव करता
है कि तुम्हें
दूर जाना चाहिए, तो
बाधा मत डालना।
तब बस मान लेना
और चले जाना।
यह दूर चले जाना
गुरु के और
अधिक निकट आना
हो जायेगा।
यदि तुम
स्वीकार कर सकते
हो बिना किसी प्रतिरोध
के, तो यह दूर
चले जाना और
अधिक निकट आना
होगा। तुम एक
नयी निकटता उपलब्ध
करोगे।
छटवां—प्रश्न:
जब
आप कोई बात
स्पष्टत:
समझने के लिए
हमसे कहते हैं
तब आप किसे
संबोधित कर
रहे होते हैं?
मन को तो
समाप्त होना
है इसलिए मन
को कुछ समझाने
का तो कोई
उपयोग नहीं!
तब किसे समझना
चाहिए?
हां, मन
को समाप्त होना
है। लेकिन अभी
यह समाप्त हुआ
नही। मन पर कार्य
करना होगा। एक
समझ मन में निर्मित
करनी है। उस समझ
के द्वारा मन मर
जायेगा। वह समझ
विष की भांति है।
तुम विष लेते हो।
तुम्ही हो जो विष
लेते हो, और
तब वह विष तुम्हें
मार डालता है।
मन ही समझता है,
लेकिन यह समझ
मन के लिए विष है।
इसलिए मन इतने
प्रतिरोध डालता
है। यह न समझने
के ही प्रयत्न
किये चला जाता
है। यह संदेह
बनाता है, यह
हर तरह से लड़ता
है, यह
अपने को बचाता
है क्योंकि समझ
मन के लिए विष है।
यह तुम्हारे लिए
अमृत है, लेकिन
मन के लिए विष है।
इसलिए
जब मैं स्पष्ट
स्वप्न से समझने
के लिए कहता हूं
तो में राम तलब
तुम्हारे मन से
होता है, न कि तुम
से क्योंकि तुम्हे
किसी समझ की आवश्यकता
नहीं है। तुम समझे
ही हुए हो।
तुम्ही विवेक हो,
प्रज्ञा हो।’तुम्हें' मेरी या किसी
की भी मदद की कोई
आवश्यकता नहीं।
तुम्हारे मन को
बदलना होगा।
और यदि समझ मन में
घटित होती है,
तो मन मर
जायेगा। और मन
के साथ वह समझ
विलीन हो
जायेगी। तब
तुम अपनी
शुद्धता में
होओगे। तब तुम्हारा
अस्तित्व दर्पण
जैसी
विशुद्धता
उद्घाटित करेगा।
कोई विषय—वस्तु
नहीं, अंतर्वस्तु
रहित लेकिन आंतरिक
अस्तित्व को किसी
समझ की
आवश्यकता नहीं।
वह है ही समझ का
सार। उसे समझ की
कोई आवश्यकता नहीं
है। केवल मन के
बादलो को फुसलाना
होगा—विलीन होने
के लिए।
वास्तव
में समझ है क्या? मन
को चले जाने के
लिए फुसला लेने
का एक तरीका है।
ध्यान रहे मैं
लड़ने के लिए नहीं
कहता, मैं फुसलाने
के लिए कहता हूं।
यदि तुम लड़ते हो,
तो मन छोड़कर
कभी नहीं जायेगा
क्योंकि लड़ाई द्वारा
तुम अपना भय दिखाते
हो। यदि तुम लडते
हो, तो तुम दिखाते
हो कि मन कोई ऐसी
चीज है जिससे
तुम डरते हो।
बस मन को
राज़ी करो। ये
सारी शिक्षाए
ये सारे ध्यान
एक गहरे स्वप्न
से मन को फुसलाना
है, उस
बिंदु तक
पहुंचने के
लिए, जहां
मन आत्मघात कर
सके; जहां
यह बस, गिर
जाये; जहां
मन स्वयं एक
ऐसा बेतुकापन
बन जाता है कि
तुम उसे और
अधिक नहीं ढो
सकते। बस, तब
तुम उसे गिरा देते
हो। या कि यह
कहना ज्यादा उचित
है कि मन स्वयं
गिर जाता है।
इसलिए
जब मैं बोलता हूं
तब मैं तुम में
स्पष्ट समझ निर्मित
करने के लिए तुम्हें
संबोधित करता हूं; मैं
तुम्हारे मन
को
संबोधित कर
रहा होता हूं।
और कोई दूसरा
रास्ता नहीं
है। केवल
तुम्हारे मन
तक पहुँच हो
सकती है
क्योंकि तुम
अनुपलब्ध
हो। तुम भीतर
बहुत गहरे
छिपे हुए हो, और
केवल मन द्वार
पर है। मन को
राजी करना
पड़ता है द्वार
को छोड़ने के
लिए_ और
द्वार को खुला
रहने देने के
लिए। तब तुम
सुलभ हो
जाओगे।
मै
संबोधित कर
रहा हूं मन
को—तुम्हारे
मन को, न कि
तुमको। यदि मन
गिर जाये, तो
संबोधित करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। तब मैं
मौन बैठ सकता
हूं और तुम
समझ जाओगे। तब
संबोधित करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। मन
को शब्दों की
जरूरत है। मन
को विचारों की
आवश्यकता है।
मन को कुछ ऐसी
मानसिक चीज
चाहिए जो इसे
राजी कर सके।
जब बुद्ध या
पतंजलि या
कृष्ण तुमसे
बात करते हैं,
तो वे
तुम्हारे मन
को संबोधित
करके कह रहे
हैं।
एक
घड़ी आती है जब
मन सारे
बेतुकेपन के
प्रति जागरूक
हो जाता है।
यह कुछ इस तरह
है : यदि मैं देखता
हूं कि तुम
अपने जूतों के
फीते खींच रहे
हो और उनके द्वारा
स्वयं को ऊपर
खींचने का
प्रयत्न कर
रहे हो, तो
मैं तुमसे
कहता हूं कि
क्या बेवकूफी
कर रहे हो! कि
यह असंभव है।
मात्र अपने
जूतों के फीतों
द्वारा तुम
स्वयं को ऊपर
नहीं खींच
सकते। यह
असंभव ही है; यह हो नहीं
सकता। इसलिए
मैं तुम्हें
मना लेता हूं
सारी बात पर और
अधिक सोचने के
लिए, कि यह
बेतुका है।
तुम कर क्या
रहे हो? लेकिन
तब तुम दुखित
होते हो कि
कुछ हो नहीं
रहा है। इसलिए
मै तुमसे कहता
जा रहा हूं
जोर दे रहा
हूं चोट कर
रहा हूं। तब
एक दिन शायद
तुम्हें होश
आये और तुम
कहो, 'हां, यह बेतुका
है। क्या कर
रहा हूं मैं! '
मन
के साथ
तुम्हारा
प्रयत्न ऐसा
है जैसे अपने जूतों
के फीतों
द्वारा स्वयं
को ऊपर खींचने
का प्रयत्न
करना। जो कुछ
भी तुम कर रहे
हो,
बेतुका है।
यह तुम्हें
नर्क के
अतिरिक्त, दुख
के अतिरिक्त
और कहीं नहीं
ले जा सकता।
यह तुम्हें
हमेशा दुख तक
ले गया है, लेकिन
तुम अब तक होश
में नहीं आये
हो। मेरी ओर
से यह सारा संप्रेषण
मात्र
तुम्हारे मन
को सजग करने
के लिए ही है
कि तुम्हारा
सारा प्रयास
निरर्थक है, बेतुका है।
एक बार तुम
अनुभव करने
लगो कि सारा
प्रयास
बेतुका है, तो प्रयास
गिर जाते हैं।
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
अपने जूते के
फीते छोड़ने
होंगे, कि
तुम्हें कुछ
प्रयास करना
होगा जो
श्रमसाध्य
होने ही वाला
हैं—तुम सीधे
इस तथ्य को
देखोगे। तुम
अपना प्रयास
छोड़ दोगे और
तुम हंसोगे। तुम
प्रबुद्ध हो
जाओगे, यदि
तुम अपने
जूतों के फीते
छोड़ खड़े हो...... और
हंस भर सकते
हो। और यही
घटना होने
वाली है।
समझ
के द्वारा मन
गिर जाता है।
अचानक
तुम्हें होश आ
जाता है कि
कोई दूसरा
तुम्हारे दुख
के लिए
जिम्मेवार
नहीं था। तुम
सतत इसे
निर्मित कर
रहे थे, क्षण—प्रतिक्षण
तुम्हीं इसे
रचने वाले थे।
तुम दुख को
निर्मित कर
रहे थे और तुम
पूछ रहे थे इसके
पार कैसे
जायें? कैसे
हो कि दुखी न
बनें? आनंद
कैसे पायें, समाधि कैसे
पायें? और
जब तुम पूछ
रहे थे, तब
तुम दुख का
निर्माण किये
जा रहे थे। यह
पूछना कि 'समाधि
कैसे प्राप्त
करें'? दुख
निर्मित करता
है क्योंकि तब
तुम कहते हो, मैंने इतना
अधिक प्रयत्न
किया और समाधि
अब तक उपलब्ध
नहीं हुई! सब
कुछ जो किया
जा सकता है
मैं कर रहा
हूं और समाधि
अब भी नहीं
मिली है! मैं
बुद्ध कब
होऊंगा! जब
तुम संबोधि को
भी इच्छा का
लक्ष्यबिंदु बना
लेते हो, जो
असंगत है, तब
तुम नये दुख
का निर्माण कर
रहे होते हो।
कोई इच्छा
परितृप्ति
नहीं पा सकती।
इसे जब तुम जान
लेते हो, इच्छाएं
गिर जाती हैं।
तब तुम
प्रबुद्ध
होते हो।
इच्छा—विहीन
तुम प्रबुद्ध
हो जाते हो।
लेकिन
इच्छाओं के
साथ, दुख
के एक चक्र
में घूमते चले
जाते हो।
सातवां
प्रश्न:
आपने
कहा कि योग एक
विज्ञान है आंतरिक
जागरण की एक
विधि है।
लेकिन 'होने '
का और अ—मन
के निकट जाने
का प्रयत्न
उद्देश्य और
आशा को ध्वनित
करता है। आंतरिक
रूपांतरण की
प्रक्रिया से
गुजरना भी
किसी
उद्देश्य का
संकेत करता है।
आशा और
उद्देश्य साथ
लिये कोई योग
के मार्ग पर
कैसे बढ़ सकता
है? क्या
प्रतीक्षा
उद्देश्य का
संकेत नहीं
करती?
तुम
उद्देश्य को
साथ लिये, कामना
के साथ, आशा
के साथ योग के
मार्ग पर नहीं
बढ़ सकते। वास्तव
में योग का
मार्ग कोई
गतिमयता नहीं
है। जहां तुम
समझ जाते हो
कि सारी
इच्छाएं
बेतुकी है, सब इच्छाएं
दुख हैं, करने
को कुछ है
नहीं, क्योंकि
प्रत्येक
कार्य एक नयी
इच्छा होगा। करने
को कुछ है ही
नहीं। .तुम
कुछ कर ही
नहीं सकते
क्योंकि जो कुछ
भी तुम करते
हो वह तुम्हें
नये दुख में
ले जायेगा। तब
तुम कुछ नहीं
करोगे।
इच्छाएं मिट चुकी
होंगी, मन
समाप्त हो
चुका होगा। और
यही है योग।
.तो तुम
प्रविष्ट हो
चुके हो। यह
गति नहीं है, यह स्थिरता
है।
लेकिन
भाषा के कारण
समस्याएं उठ
खड़ी होती हैं।
जब मैं कहता
हूं कि तुम
प्रविष्ट हो
चुके हो, तो
ऐसा लगता है
जैसे कि तुम
आगे बढ़ गये
हो। लेकिन जब
इच्छाएं
समाप्त होती
हैं, सारी
गतियां थम
जाती हैं, तब
तुम योग में
हुए — 'अब
योग का
अनुशासन।’
योग
के नाम पर
उद्देश्य साथ
लेकर तुम फिर
दुखों का
निर्माण
करोगे। रोज
मैं लोगों से
मिलता हूं। वे
आते हैं और
कहते हैं, 'मैं
तीस वर्षों से
योग का अभ्यास
कर रहा हूं लेकिन
कुछ हुआ नहीं
है।’ लेकिन
तुमसे कहा
किसने कि कुछ
घटित होने
वाला है? तुम
कुछ घटित होने
की प्रतीक्षा
में लगे हुए होओगे,
इसलिए कुछ
घटित नहीं हुआ
है। योग कहता
है, भविष्य
की प्रतीक्षा
मत करो।
तुम
ध्यान करते हो
लेकिन तुम इस
उद्देश्य के साथ
ध्यान करते हो
कि ध्यान के
द्वारा तुम
कहीं किसी
लक्ष्य तक
पहुंच जाओगे।
तुम बात चूक
रहे हो। ध्यान
में डूबो और
उसका आनंद लो।
कोई लक्ष्य
नहीं है। कोई
भविष्य नहीं
है। आगे कुछ
नहीं है।
ध्यान करो अगर
आनंद मनाओ, बिना
किसी
उद्देश्य के।
तब
अचानक साध्य
वहां होता है।
अचानक बादल
छंट जाते हैं
क्योंकि वे
तुम्हारी
इच्छाओं द्वारा
निर्मित हुए
थे। तुम्हारा
उद्देश्य वह
धुआं है जो
बादलों को
निर्मित करता
है। अब वे तिरोहित
हो जायेंगे।
इसलिए ध्यान
के साथ खेलो, आनंदित
होओ। उसे साधन
मत बनाओ। वह
साध्य है। समझने
की सारी बात
ही यही है।
नयी
इच्छाएं मत
बनाओ। बल्कि
समझो कि इच्छा
का स्वभाव ही
दुख है। तुम
इच्छा के
स्वभाव को समझने
का प्रयत्न भर
करो,
तो तुम जान
जाओगे कि यह
दुख है।
तब
क्या करना
होगा? कुछ
नहीं करना है।
सजग हो जाने
पर कि इच्छा
दुख है, इच्छाएं
गिर जाती हैं।’
अब योग का
अनुशासन'।
तुम मार्ग पर
प्रवेश कर
चुके हो।
और
यह तुम्हारी
अपनी
प्रगाढ़ता पर
निर्भर करता
है। यदि
तुम्हारा यह
बोध कि इच्छा
दुख है इतना
गहरा है कि यह
समग्र है, तब
तुमने योग के
मार्ग पर ही
प्रवेश न किया
होगा, तुम
सिद्ध बन चुके
होओगे। तुम
साध्य तक पहुंच
चुके होओगे।
लेकिन
यह तुम्हारी प्रगाढ़ता
पर निर्भर करेगा।
यदि तुम्हारी प्रगाढता
समग्र है, तब
तुम लक्ष्य तक
पहुंच चुके होओगे,
तुम मार्ग पर
प्रवेश कर चुके
हो ओगे।
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