दिनांक:
10 अक्टूबर, 1976;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
पहला
प्रश्न :
आपने
बताया कि जब अष्टावक्र
मां के गर्भ में
थे,
उनके पिता ने
उन्हें शाप दिया,
जिसकी वजह से
उनका शरीर आठ जगहों
से आड़ा—तिरछा हो
गया। भगवान, इस आठ का क्या
रहस्य है? वे
अठारह जगह से भी
टेढ़े—मेढ़े हो सकते
थे और अष्टावक्र
कहलाते। यह आठ
का ही आंकड़ा क्यों?
यह आठ आंकड़ा
अर्थपूर्ण है।
ये छोटी—छोटी कहानियां
गहरे सांकेतिक
अर्थ लिए हैं।
इन्हें तुम इतिहास
मत समझना। इनका
तथ्य से बहुत कम
संबंध है। इनका
तो भीतर के रहस्यों
से संबंध है।
आठ
का आंकड़ा योग के
अष्टांगों से संबंधित
है। पतंजलि ने
कहा है. आठ अंगों
को जो पूरा करेगा—यम, नियम,
आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान,
समाधि—वही केवल
सत्य को उपलब्ध
होगा। यह पिता
की नाराजगी, यह पिता का अभिशाप
सिर्फ इतनी ही
सूचना देता है
कि वे आठ अंग, जिनसे व्यक्ति
परम सत्य को उपलब्ध
होता है, मैं
तेरे विकृत किए
देता हूं।
तुम्हें
घटना फिर से याद
दिला दूं। पिता
वेदपाठी थे। वे
सुबह रोज उठ कर
वेद का पाठ करते।
ख्यातिलब्ध थे, सारे
देश में उनका नाम
था। बड़े शास्त्रार्थी
थे। और अष्टावक्र
गर्भ में सुनता।
एक दिन अचानक बोल
पड़ा गर्भ से कि
हो गया बहुत, इस तोता—रटन से
कुछ भी न होगा।
जाने बिना सत्य
का कोई पता नहीं
चलता—पढ़ो कितना
ही वेद, शास्त्र
सत्य नहीं है—सत्य
तो अनुभव से उपलब्ध
होता है।
पिता
नाराज हुए। पिता
के अहंकार को चोट
लगी। पंडित और
पिता दोनों साथ—साथ।
बेटे की बात बाप
माने, यह बड़ी अनहोनी
घटना है। नाराज
ही होता है। बाप
कभी यह मान ही नहीं
पाता कि बेटा भी
कभी समझदार हो
सकता है। बेटा
सत्तर साल का हो
जाए तो भी बाप समझता
है कि वह नासमझ
है। स्वाभाविक
है। बेटे और बाप
का फासला उतना
ही बना रहता है
जितना शुरू में,
पहले दिन होता
है, उसमें कोई
अंतर नहीं पड़ता।
अगर बाप बीस साल
बड़ा है तो वह सदा
बीस साल बड़ा होता
है। उतना अंतर
तो बना ही रहता
है। तो बेटे से
ज्ञान ले लेना
कठिन, फिर पंडित,
तो और भी कठिनाई।
बाप तो सोचता था
मैं जानता हूं, और अब यह गर्भस्थ
शिशु कहने लगा
कि तुम नहीं जानते
हो—यह तो हद हो गई!
अभी पैदा भी नहीं
हुआ।
तो
बाप ने अभिशाप
दिया होगा; वह
अभिशाप ज्ञान के
आठ अंगों को नष्ट
कर देने वाला है।
जिन आठ अंगों से
व्यक्ति ज्ञान
को उपलब्ध होता
है, बाप ने कहा,
तेरे वे नष्ट
हुए। अब देखूं
तू कैसे ज्ञान
को उपलब्ध होगा—जिस
ज्ञान की तू बात
कर रहा है, जिस
परम ज्ञान की तू
घोषणा कर रहा है?
अगर
शास्त्र से नहीं
मिलता सत्य तो
दूसरा एक ही उपाय
है कि साधना से
मिलता है। तू कहता
है शास्त्र से
नहीं मिलता है, चल
ठीक, साधना
के आठ अंग मैं तेरे
विकृत किए देता
हूं अब तू कैसे
पाएगा?
और
अष्टावक्र ने फिर
भी पाया। अष्टावक्र
के सारे उपदेश
का सार इतना ही
है कि सत्य मिला
ही हुआ है, न शास्त्र
से मिलता है न साधना
से मिलता है। साधना
तो उसके लिए करनी
होती है जो मिला
न हो। सत्य तो हम
लेकर ही जन्मे
हैं। सत्य तो हमारे
साथ गर्भ से ही
है, सत्य तो
हमारा स्वरूप—सिद्ध
अधिकार है। जन्म—सिद्ध
भी नहीं, स्वरूप—सिद्ध
अधिकार! सत्य तो
हम हैं ही, इसलिए
मिलने की कोई बात
नहीं। आठ जगह से
टेढ़ा, चलो कोई
हर्जा नहीं; लेकिन सत्य टेढ़ा
नहीं होगा। स्वरूप
टेढ़ा नहीं होगा।
यह शरीर ही इरछा—तिरछा
हो जाएगा।
साधना
की पहुंच शरीर
और मन के पार नहीं
है। तो तुम अगर
इरछे—तिरछे का
अभिशाप देते हो
तो शरीर तिरछा
हो जाएगा, मन
तिरछा हो जाएगा,
लेकिन मेरी आत्मा
को कोई फर्क न पड़ेगा।
यही तो अष्टावक्र
ने जनक से कहा कि
राजन! आंगन के टेढ़े
—मेढ़े होने से आकाश
तो टेढ़ा—मेढ़ा नहीं
हो जाता। घड़े के
टेढ़े —मेढ़े होने
से घड़े के भीतर
भरा हुआ आकाश तो
टेढ़ा—मेढ़ा नहीं
हो जाता। मेरी
तरफ देखो सीधे;
न शरीर को देखो
न मन को।
अष्टावक्र
की पूरी देशना
यही है कि न शास्त्र
से मिलता न साधना
से मिलता। इसलिए
तो मैंने बार—बार
तुम्हें याद दिलाया
कि कृष्णमूर्ति
की जो देशना है
वही अष्टावक्र
की है। कृष्णमूर्ति
की भी देशना यही
है कि न शास्त्र
से मिलता न साधना
से मिलता। तुम
घबड़ा कर पूछते
हो. तो फिर कैसे
मिलेगा? देशना
यही है कि कैसे
की बात ही पूछना
गलत है—मिला ही
हुआ है। जो मिला
ही हुआ है, पूछना
कैसे मिलेगा—असंगत
प्रश्न पूछना है।
सत्य
के लिए कोई शर्त
नहीं है; सत्य बेशर्त
मिला है। पापी
को मिला है, पुण्यात्मा को
मिला है, काले
को मिला है, गोरे को मिला
है; सुंदर को,
असुंदर को;
पुरुष को, स्त्री को। जिन्होंने
चेष्टा की, उन्हें मिला
है, जिन्होंने
चेष्टा नहीं की,
उन्हें भी मिला
है। किन्हीं को
प्रयास से मिल
गया है, किन्हीं
को प्रसाद से मिल
गया है। न तो प्रयास
जरूरी है, न
प्रसाद की मांग
जरूरी है, क्योंकि
सत्य मिला ही हुआ
है।
खिलता
है रात में बेला
प्रभात
में शतदल,
नहीं
है अपेक्षित स्फुटन
के लिए
उजाला, अंधेरा।
जागे
जिस क्षण चेतना
वही
सवेरा।
बेला
खिल जाता रात में, शतदल
खिलता है सुबह
प्रभात में, खिलने के लिए
न तो रात है न दिन
है। जाग जाता है
आदमी हर स्थिति
में। सवेरा ही
जागने के लिए जरूरी
नहीं है, आधी
रात में भी आदमी
जाग जाता है।
खिलता
है रात में बेला
प्रभात
में शतदल,
नहीं
है अपेक्षित स्फुटन
के लिए
उजाला, अंधेरा।
जागे
जिस क्षण चेतना
वही
सवेरा।
और
जागना है तो जागने
के लिए कुछ भी और
करना जरूरी नहीं
है,
सिर्फ जागना
ही जरूरी है; आंख खोलना जरूरी
है। आंख की पलक
में ही सब छिपा
है, आंख की ओट
में ही सब छिपा
है। कभी तुमने
देखा, आंख में
छोटी—सी किरकिरी
चली जाती है, रेत का एक टुकड़ा
चला जाता है, कचरा चला जाता
है— और आंख की देखने
की क्षमता समाप्त
हो जाती है। ऐसे
आंख हिमालय को
भी समा लेती है।
देखो जा कर हिमालय
को, सैकड़ों
मील तक फैले हुए
हिम—शिखर, सब
आंख में दिखाई
पड़ते हैं। छोटी—सी
आंख ऐसे हिमालय
को समा लेती है,
लेकिन छोटी—सी
कंकरी से हार जाती
है। और कंकरी आंख
में पड़ जाए तो हिमालय
दिखाई नहीं पड़ता;
कंकरी की ओट
में हिमालय हो
जाता है। जरा कंकरी
अलग कर देने की
बात है।
अष्टावक्र
की देशना इतनी
ही है कि जरा—सी
समझ,
जरा—सी पलक का
खुलना—और सब जैसा
होना चाहिए वैसा
है ही; कुछ करने
को नहीं है; कहीं जाने को
नहीं है; कुछ
पाने को नहीं है।
खुले
नयन से सपने देखो, बंद
नयन से अपने।
अपने
तो रहते हैं भीतर, बाहर
रहते सपने।
नाम—रूप
की भीड़ जगत में, भीतर
एक निरंजन।
सुरति
चाहिए अंतर्दृग
को,
बाहर दृग को
अंजन।
देखे
को अनदेखा कर रे, अनदेखे
को देखा।
क्षर
लिख—लिख तू रहा
निरक्षर, अक्षर
सदा अलेखा।
समझो—
खुले
नयन से सपने देखो, बंद
नयन से अपने।
अपने
तो रहते हैं भीतर, बाहर
रहते सपने।
जो
भी बाहर देखा है, सपना
है। अपने को देखना
है—तो भीतर! जो भी
बाहर देखा, उसे अगर पाना
चाहा तो बड़ी दौड़
दौड़नी पड़ेगी,
फिर भी मिलता
कहां? दौड़ पूरी
हो जाती है—हाथ
कुछ भी नहीं आता।
संसार
का स्वभाव समझो।
दिखता है सब—मिलता
कुछ भी नहीं। लगता
है यह रहा, जरा
ही चलने की बात
है, थोड़ा प्रयास
और! जैसे क्षितिज
छूता है, लगता
है कुछ मील का फासला
है दौड़ जाएंगे,
पहुंच जाएंगे,
आकाश और जमीन
जहां मिलते हैं
वह जगह खोज लेंगे;
फिर वहां से
आकाश में चढ़ जाएंगे,
लगा लेंगे सीढ़ी,
बना लेंगे अपना
बेबिलोन, स्वर्ग
की सीडी लगा लेंगे—मगर
कभी वह जगह मिलती
नहीं जहां आकाश
पृथ्वी से मिलता
है, बस दिखता
है कि मिलता है।
आभास! जिसको हिंदुओं
ने माया कहा है।
प्रतीत तो बिलकुल
होता है कि यह दिखाई
पड़ रहा है आकाश
मिलता हुआ; होगा दस मील,
पंद्रह मील,
बीस मील, थोड़ी यात्रा
है—लेकिन तुम जितने
क्षितिज की तरफ
जाते हो, उतना
ही क्षितिज तुमसे
दूर चलता चला जाता
है। दिखता सदा
मिला मिला, मिलता कभी भी
नहीं।
खुले
नयन से सपने देखो, बंद
नयन से अपने।
अपने
तो रहते हैं भीतर, बाहर
रहते सपने।
बाहर
लगता है मिल जाएगा, और
मिलता कभी नहीं।
और भीतर लगता है
कैसे मिलेगा?
और मिला ही हुआ
है। ठीक संसार
से विपरीत अवस्था
है भीतर की। संसार
देखना हो तो आंखें
बाहर खोलो; सत्य देखना हो
तो आंखें भीतर
खोलो। बाहर से
आंख बंद करने .का
कुल इतना ही अर्थ
है कि भीतर देखो।
नाम—रूप
की भीड़ जगत में, भीतर
एक निरंजन।
सुरति
चाहिए अंतर्दृग
को,
बाहर दृग को
अंजन।
बाहर
ठीक—ठीक देखना
हो तो आंख में हम
काजल आजते, अंजन
लगाते। बुढ़िया
का काजल लगा लेते
हैं न, बाहर
ठीक—ठीक देखना
हो तो। भीतर देखना
हो तो भी को ने एक
काजल ईजाद किया
है। उसको कहते
हैं; सुरति,
स्मृति, जागृति,
समाधि!
नाम—रूप
की भीड़ जगत में, भीतर
एक निरंजन।
सुरति
चाहिए अंतर्दृग
को,
बाहर दृग को
अंजन।
बाहर
ठीक देखना हो, आज
लो आंख, ठीक—ठीक
दिखाई पड़ेगा। भीतर
ठीक—ठीक देखना
हो तो एक ही अंजन
है—निरंजन ही अंजन
है! वहां तो एक ही
बात स्मरण करने
जैसी है, वहां
तो एक ही प्रश्न
जगाने जैसा है
कि मैं कौन हूं?
वहां तो एक ही
बोध उठने लगे सब
तरफ से कि मैं कौन
हूं? एक ही प्रश्न
गुंजने लगे प्राणों
में कि मैं कौन
हूं? धीरे— धीरे
इसी प्रश्न की
चोट पड़ते —पड़ते
भीतर के द्वार
खुल जाते हैं।
यह चोट तो ऐसी है
जैसे कोई हथौड़ी
मारता हो. मैं कौन
हूं? मैं कौन
हूं?
उत्तर
मत देना, क्योंकि
उत्तर बाहर से
आएगा। तुमने जल्दी
से पूछा कि मैं
कौन हूं? और
कहा, अहं ब्रह्मास्मि—तो
आ गया उपनिषद बीच
में। तुम उत्तर
मत देना, तुम
तो सिर्फ पूछते
ही चले जाना। एक
ऐसी घड़ी आएगी,
प्रश्न भी गिर
जाएगा। और जहां
प्रश्न गिर जाता
है.. जहां प्रश्न
गिर जाता है, वहीं उत्तर है।
फिर तुम ऐसा कहते
नहीं कि अहं ब्रह्मास्मि—ऐसा
तुम जानते हो;
ऐसा तुम अनुभव
करते हो। शब्द
नहीं बनते, निःशब्द में
प्रतीति होती है।
देखे
को अनदेखा कर रे, अनदेखे
को देखा।
अभी
तो तुम जिसे देख
रहे हो, उसी में
उलझे हो। और जो
दिखाई पड़ रहा है,
वही संसार है।
दृश्य संसार है।
और जो देख रहा है,
जो द्रष्टा है,
वह तो अदृश्य
है, वह तो बिलकुल
छिपा है।
देखे
को अनदेखा कर रे, अनदेखे
को देखा।
क्षर
लिख—लिख तू रहा
निरक्षर...!
लिखने—पढ़ने
से कुछ भी न होगा।
हम लिखते तो हैं
और जो लिखते हैं
उसको कहते हैं
: अक्षर। कभी तुमने
सोचा, अक्षर का
मतलब होता है जो
मिटाया न जा सके!
लिखते तो क्षर
हो, कहते हो
अक्षर। कैसा धोखा
देते हो, किसको
धोखा देते हो?
तुमने जो भी
लिखा है, सब
मिट जाएगा। लिखा
हुआ सब मिट जाता
है। शास्त्र लिखो,
खो जाएंगे;
पत्थरों पर नाम
खोदो, रेत हो
जाएंगे। यहां तुम
कुछ
भी लिखो, नदी के
तट पर रेत में लिखे
गए हस्ताक्षर जैसा
है, हवा का झोंका
आया और खो जाएगा।
शायद इतना भी नहीं
है, पानी पर
लिखे जैसा है,
तुम लिख भी नहीं
पाते और मिटना
शुरू हो जाता है।
क्षर
लिख—लिख तू रहा
निरक्षर..!
अपढ़!
अज्ञानी! मूड! क्षर
को लिख रहा है और
भरोसा कर रहा है
अक्षर का? समय
में लिख रहा है
और शाश्वत की आकांक्षा
कर रहा है? क्षुद्र
को पकड़ रहा है और
विराट की अभिलाषा
बांधे है? क्षर
लिख—लिख तू रहा
निरक्षर, अक्षर
सदा अलेखा।
और
तेरी इस लिखावट
में ही, यह क्षर
में उलझे होने
में ही, अक्षर
नहीं दिखाई पड़ता।
अक्षर तेरे भीतर
है। थोड़ी देर लिख
मत, थोड़ी देर
पढ़ मत, थोड़ी
देर कुछ कर मत।
थोड़ी देर दृश्य
को विदा कर। थोड़ी
देर अपने में भीतर
आंख खोल—सुरति
में।
सूफियों
के पास ठीक शब्द
है सुरति के लिए, वे
कहते हैं—जिक्र।
जिक्र का भी वही
अर्थ होता है,
जो सुरति का।
जिक्र का अर्थ
होता है. स्मरण,
याददाश्त, कि चलो बैठें,
प्रभु का जिक्र
करें, उसकी
याद करें! जिसको
हिंदू नाम—स्मरण
कहते हैं। नाम—स्मरण
का मतलब यह नहीं
होता कि बैठ कर
राम—राम, राम—राम
करते रहे। अगर
राम—राम करने से
शुरू भी होता है
राम का स्मरण,
तो भी समाप्त
नहीं होता।
सूफियों
का जिक्र समझने
जैसा है। कुछ तुममें
से प्रयोग करना
चाहें तो करें।
सूफियों के जिक्र
का आधार है : अल्लाह!
शब्द बड़ा प्यारा
है। शब्द में बड़ा
रस है। वह तो हम
हिंदू मुसलमान, जैन
ईसाई में बांट
कर दुनिया को देखते
हैं, इसलिए
बड़ी रसीली बातों
से वंचित रह जाते
हैं। मैंने बहुत—से
शब्दों पर प्रयोग
किया, ' अल्लाह'
जैसा प्यारा
शब्द नहीं है।
'राम' में
वह मजा नहीं है।
तुम जब ग्गुनगुनाओगे,
तब पता चलेगा।
जो गुनगुनाहट अल्लाह
में पैदा होती
है और जो मस्ती
अल्लाह में पैदा
होती है—वह किसी
और शब्द में नहीं
होती। चेष्टा करके
देखना।
कभी
रात के अंधेरे
में द्वार—दरवाजे
बंद करके दीया
बुझा कर बैठ जाना, ताकि
बाहर कुछ दिखाई
ही न पड़े, अंधेरा
कर लेना। नहीं
तो तुम्हारी आदत
तो पुरानी है,
कुछ न कुछ देखते
रहोगे। फिर भीतर
बैठ कर पहला कदम
है जिक्र का : 'अल्लाह— अल्लाह'
कहना शुरू करना।
जोर से कहना। ओंठ
का उपयोग करना।
एक पांच—सात मिनट
तक 'अल्लाह—
अल्लाह' जोर
से कहना। पाच—सात
मिनट में तुम्हारे
भीतर रसधार बहनी
शुरू होगी, तब ओंठ बंद कर
लेना। दूसरा कदम.
अब सिर्फ भीतर
जीभ से कहना, ' अल्लाह— अल्लाह—अल्लाह'!
पांच—सात मिनट
जीभ का उपयोग करना,
तब भीतर ध्वनि
होने लगेगी; तब तुम जीभ को
भी छोड़ देना, अब बिना जीभ के
भीतर ' अल्लाह—
अल्लाह—अल्लाह'
करना। पांच—सात
मिनट.. तब तुम्हारे
भीतर और भी गहराई
में ध्वनि होने
लगेगी, प्रतिध्वनि
होने लगेगी। तब
भीतर भी बोलना
बंद कर देना, 'अल्लाह—अल्लाह'
वहां भी छोड़
देना। अब तो 'अल्लाह' शब्द
नहीं रहेगा, लेकिन 'अल्लाह'
शब्द के निरंतर
स्मरण से जो प्रतिध्वनि
गंजी, वह गज
रह जाएगी, तरंगें
रह जाएंगी। जैसे
वीणा बजते—बजते
अचानक बंद हो गई,
तो थोड़ी देर
वीणा तो बंद हो
जाती है, लेकिन
श्रोता गदगद रहता
है, गज गूंजती
रहती है; ध्वनि
धीरे— धीरे— धीरे
शून्य में खोती
है।
तो
तुमने अगर पंद्रह—बीस
मिनट अल्लाह का
स्मरण किया, पहले
ओंठों से, फिर
जीभ से, फिर
बिना जीभ के, तो तुम उस जगह
आ जाओगे, जहां
दो—चार—पाच मिनट
के लिए ' अल्लाह'
की गज गूंजती
रहेगी। तुम्हारे
भीतर जैसे रोआ
—रोआ 'अल्लाह'
करेगा। तुम उसे
सुनते रहना। धीरे—
धीरे वह गज भी खो
जाएगी।
और
तब जो शेष रह जाता
है,
वही अल्लाह है!
तब जो शेष रह जाता
है, वही राम
है। शब्द भी नहीं
बचता, शब्द
की अनुगूंज भी
नहीं बचती—स्व
महाशून्य रह जाता
है। सुरति!
'राम' शब्द
का उपयोग करो,
उससे भी हो जाएगा।
' ओम' शब्द
का उपयोग करो,
उससे भी हो जाएगा।
लेकिन 'अल्लाह'
निश्चित ही बहुत
रसपूर्ण है। और
तुम सूफियों को
जैसी मस्ती में
देखोगे, इस
जमीन पर तुम किसी
को वैसी मस्ती
में न देखोगे।
जैसी सूफियों की
आंख में तुम शराब
देखोगे, वैसी
किसी की आंख में
न देखोगे। हिंदू
संन्यासी ओंकार
का पाठ करता रहता
है, लेकिन उसकी
आंख में नशा नहीं
होता, मस्ती
नहीं होती।
'अल्लाह' शब्द
तो अंगूर जैसा
है, उसे अगर
ठीक से निचोड़ा
तो तुम बड़े चकित
हो जाओगे। तुम
चलने लगोगे नाचते
हुए। तुम्हारे
जीवन में एक गुनगुनाहट
आ जाएगी।
सुरति, जिक्र,
नाम—स्मरण—नाम
कुछ भी हों।
नाम—रूप
की भीड़ जगत में, भीतर
एक निरंजन।
सुरति
चाहिए अंतर्दृग
को,
बाहर दृग को
अंजन।
देखे
को अनदेखा कर रे, अनदेखे
को देखा।
क्षर
लिख—लिख तू रहा
निरक्षर, अक्षर
सदा अलेखा।
और
वह जो भीतर छिपा
है,
वह हम ले कर ही
आए हैं। उसे कुछ
पैदा नहीं करना—उघाड़ना
है, आविष्कार
करना है। ज्यादा
तो ठीक होगा कहना.
पुनआविष्कार करना
है, रिडिस्कवरी!
भीतर रखे —रखे हम
भूल ही गए हैं,
हमारा क्या है?
अपना क्या है?
सपने में खो
गए हैं, अपना
भूल गए हैं। सपने
को थोड़ा विदा करो,
अपने को थोड़ा
देखो! अनदेखा दिखेगा!
अलेखा दिखेगा!
अक्षर उठेगा!
अष्टावक्र
के आठ अंगों के
टेढ़े हो जाने की
कथा का कुल इतना
ही अर्थ है कि सुरति
में कोई बाधा नहीं
पड़ती। अंग टेढ़े
हैं कि मेढ़े, तुम
बैठे कि खड़े.।
तुमने
देखा, अलग— अलग आसनों
में परम ज्ञान
उपलब्ध हुआ! महावीर
गौदोहासन में बैठे
थे, बड़े मजे
की बात है! जैनी
बहुत चिंता नहीं
करते कि क्या हुआ?
गौदोहासन में
बैठे, कर क्या
रहे थे? गौदोहासन
का मतलब है जैसे
कोई गाय को दोहते
वक्त बैठता है।
न तो गाय थी, न दोहने का कोई
कारण था उनको—गौदोहासन
में बैठे थे। उस
वक्त उन्हें परम
ज्ञान उपलब्ध हुआ।
अब
गौदोहासन कोई बहुत
सुंदर आसन नहीं
है,
तुम बैठ कर देख
लेना। बुद्ध तो
कम से कम भले ढंग
से बैठे थे, सिद्धासन में
बैठे थे। महावीर
गौदोहासन में बैठे
थे। महावीर आदमी
ही थोड़े अनूठे
हैं। नंग— धडंग
गौदोहासन में बैठे
हैं—तब उन्हें
परम ज्ञान उपलब्ध
हुआ।
शरीर
तिरछा हो कि इरछा, छोटा
हो कि बड़ा, ऐसा
बैठे कि वैसा—नहीं,
आसन से कुछ लेना—देना
नहीं है। मन की
दशा पुण्य की हो
कि पाप की, अच्छा
करने की हो कि बुरा
करने की—इससे भी
कुछ लेना—देना
नहीं है। अष्टावक्र
का मौलिक सूत्र
केवल इतना है कि
तुम अगर
साक्षी
हो सको—तिरछा शरीर
है तो तिरछे शरीर
के साक्षी; और
मन अगर पाप में
उलझा है तो पाप
में उलझे मन के
साक्षी—तुम अगर
साक्षी हो सको,
दूर खड़े हो कर
देख सको शरीर और
मन को, तो घटना
घट जाएगी। आठ अंगों
से टेढ़े होने का
अर्थ है, योग
के अष्टागों का
कोई उपाय न था।
तुम
पक्का समझो, अगर
अष्टावक्र किसी
योगी के पास जाते
और कहते कि मुझे
योग में दीक्षित
करो, तो वह हाथ
जोड़ लेता। कहता.
महाराज, आप
हमें क्यों मुसीबत
में डालते हैं?
यह नहीं हो सकता।
आप, और योगासन
कैसे करेंगे?
एक अंग सीधा
करने की कोशिश
करेंगे, सात
अंग तिरछे हो जाएंगे।
इधर सम्हालेंगे,
उधर बिगड़ जाएगा।
कभी
ऊंट को योगासन
करते देखा है? अष्टावक्र
को भी कोई योगी
अपनी योगशाला में
भरती नहीं कर सकता
था। उपाय ही न था।
यह
तो केवल सुचक कथा
है। यह कथा तो यह
कहती है कि ऐसे
आठ अंगों से टेढ़ा
व्यक्ति भी परम
ज्ञान को उपलब्ध
हो गया, चिंता
मत करो। देह इत्यादि
में बहुत उलझे
मत रहो।
दूसरा प्रश्न
:
स्वामी
रामतीर्थ का एक
शेर है :
राजी
हैं उसी हाल में
जिसमें तेरी रजा
है,
यूं
भी वाह—वाह है, वू
भी वाह—वाह है।
लेकिन
अपने राम को तो
ऐसा लगता है :
यूं
भी गड़बड़ी है और
वू भी गड़बड़ी है,
यूं
भी झंझटें हैं, और
व भी झंझटें हैं।
अब
आपका क्या कहना?
मैं न तो रामतीर्थ
से राजी हूं न तुम्हारे
राम से।
एक
है जीवन के प्रति
विधायक (पाजिटिव)
दृष्टिकोण। एक
है जीवन के प्रति
नकारात्मक (निगेटिव)
दृष्टिकोण। जब
रामतीर्थ कहते
हैं—राजी हैं उसी
हाल में जिसमें
तेरी रजा है—तो
उन्होंने जीवन
को एक विधायक दृष्टि
से देखा। काटे
नहीं गिने, फूल
गिने, रातें
नहीं गिनी, दिन गिने। अगर
रामतीर्थ से तुम
पूछो तो वे कहेंगे
: दो दिनों के बीच
में एक छोटी—सी
रात होती है। वे
फूलों की चर्चा
करेंगे, वे
काटो की चर्चा
न करेंगे। वे कहेंगे
: क्या हुआ अगर थोड़े—बहुत
काटे भी होते हैं—फूलों
की रक्षा के लिए
जरूरी हैं! जीवन
में जो सुखद है,
उस पर उनकी नजर
है, जो शुभ है,
सुंदर है—असुंदर
की उपेक्षा है।
अशुभ के प्रति
ध्यान नहीं है।
और अगर प्रभु ने
अशुभ भी चाहा है
तो उसमें भी कोई
छिपा हुआ शुभ होगा,
ऐसी उनकी धारणा
है।
यह
आस्तिक की धारणा
है। यह स्वीकार—
भाव है। जो व्यक्ति
कहता है प्रभु, मैंने
तेरे लिए परिपूर्ण
रूप से ही कह दी,
जिस व्यक्ति
ने अपनी चैकबुक
बिना कुछ आकड़े
लिखे हस्ताक्षर
करके प्रभु को
दे दी कि अब तू जो
लिखे, वही स्वीकार
है।
'राजी
हैं उसी हाल में
जिसमें तेरी रजा
है!
यूं
भी वाह—वाह है, बू
भी वाह—वाह है।
'
रामतीर्थ
कहते हैं, जहां
रख—यूं भी तो भी
ठीक, बू भी तो
भी ठीक, स्वर्ग
दे दे तो भी मस्त
नर्क दे दे तो भी
मस्त। तू हमारी
मस्ती न छीन सकेगा,
क्योंकि हम तो
तेरी रजा में राजी
हो गए।
फिर
तुम कहते हो, लेकिन
अपने राम को ऐसा
लगता है
'यूं
भी गड़बड़ी है, बू भी गड़बड़ी है!'
यह
रामतीर्थ से ठीक
उल्टा दृष्टिकोण
है,
यह नास्तिक की
दृष्टि है—नकारात्मक!
तुम कांटे गिनते
हो। तुम कहते हो
कि हा, दिन होता
तो है, लेकिन
दो रातों के बीच
में एक छोटा—सा
दिन। इधर भी रात,
उधर भी रात;
इधरे गिरे तो
कुआ, उधर गिरे
तो खाई—बचाव कहीं
नहीं दिखता। रामतीर्थ
का स्वर है राजी
का, तुम्हारा
स्वर है नाराजी
का। तुम कहते हो.
गृहस्थ हुए तो
झंझटें हैं, संन्यासी हुए
तो झंझटें हैं।
घर में रहो तो मुसीबत
है, घर के बाहर
रहो तो मुसीबत
है। अकेले रहो
तो मुसीबत है किसी
के साथ रहो तो मुसीबत
है। मुसीबत से
कहीं छुटकारा नहीं।
तुम अगर स्वर्ग
में भी रहोगे तो
झंझट में रहोगे।
स्वर्ग की भी झंझटें
निश्चित होंगी।
स्वर्ग में भी
प्रतिस्पर्धा
होगी. कौन ईश्वर
के बिलकुल पास
बैठा है? कौन
दूर बैठा है? किसकी तरफ ईश्वर
ने देखा और किसकी
तरफ नहीं देखा?
और राजनीति भी
चलेगी ही। आदमी
जहां है, राजनीति
आ जाएगी।
जब
जीसस विदा होने
लगे तो उनके शिष्यों
ने पूछा : अंत में
इतना तो बता दें
कि स्वर्ग में
आप तो प्रभु के
ठीक हाथ के पास
बैठेंगे, हम बारह
शिष्यों की क्या
स्थिति होगी?
कौन कहां बैठेगा
गुम जीसस को सूली
लगने जा रही है
और शिष्यों को
राजनीति पड़ी है।
कौन कहां बैठेगा!
यह भी कोई बात थी?
बेहूदा प्रश्न
था, लेकिन बिलकुल
मानवीय है।
'नंबर दो आपसे
कौन होगा रू नंबर
तीन कौन होगा?
चुने हुए कौन
लोग होंगे? परमात्मा से
हमारी कितनी निकटता
और कितनी दूरी
होगी?'
नहीं, तुम
स्वर्ग में भी
जाओगे तो वहां
भी कुछ गड़बड़ ही
पाओगे। किसी को
सुंदर अप्सरा हाथ
लग जाएगी, किसी
को न लगेगी। तुम
वहां भी रोओगे
कि जमीन पर भी चूके,
यहां भी चूके।
वहां भी लोग कब्जा
जमाए बैठे थे;
यहां भी पहले
से ही साधु —संत
आ गए हैं, वे
कब्जा जमाए बैठे
हैं। तो मतलब,
गरीब सब जगह
मारे गए!
'यूं
भी गड़बड़ी है, जूं भी गड़बड़ी
है!
यूं
भी झंझटें हैं
और बू भी झंझटें
हैं। '
यह
देखने की दृष्टि
है।
तुम
मुझसे पूछते हो, मेरा
दृष्टिकोण क्या
है? मैं न तो
आस्तिक हूं न नास्तिक।
मैं न तो 'ही'
की तरफ झुकता
हूं न 'ना' की तरफ। क्योंकि
मेरे लिए तो 'ही' और 'ना' एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं।
रामतीर्थ ने जो
कहा है, उसी
को तुमने सिर के
बल खड़ा कर दिया
है—कुछ फर्क नहीं।
तुमने जो कहा है
उसी को रामतीर्थ
ने पैर के बल खड़ा
कर दिया—कुछ फर्क
नहीं। तुम समझते
हो तुम्हारी दोनों
बातों में बड़ा
विरोध है—मैं नहीं
समझता। अरब जरा
गौर से देखने की
कोशिश करो।
'राजी
हैं उसी हाल में
जिसमें तेरी रजा
है!'
इसमें
ही नाराजगी तो
शुरू हो गई। जब
तुम किसी से कहते
हो कि मैं राजी
हूं, तो मतलब क्या?
कहीं—न—कहीं
नाराजी होगी। नहीं
तो कहा क्यों?
कहने की बात
कहां थी? 'कि
नहीं, आप जो
करेंगे वही मेरी
प्रसन्नता है।
' लेकिन साफ
है कि वही आपकी
प्रसन्नता है नहीं।
स्वीकार कर लेंगे।
भगवान जो करेगा,
वही ठीक है।
और किया भी क्या
जा सकता है? एक असहाय अवस्था
है।
लेकिन
गौर से देखना, जब
तुम कहते हो कि
नहीं, मैं बिलकुल
राजी हूं —तुम जितने
आग्रहपूर्वक कहते
हो कि मैं बिलकुल
राजी हूं उतनी
ही खबर देते हो
कि भीतर राजी तो
नहीं हो, भीतर
कहीं कांटा तो
है।
मैं
न तो आस्तिक हूं
न नास्तिक। मैं
न तो कहता हूं कि
राजी हूं न मैं
कहता हूं नाराजी
हूं। क्योंकि मेरी
घोषणा यही है कि
हम उससे पृथक ही
नहीं हैं, नाराज
और राजी होने का
उपाय नहीं। नाराज
और राजी तो हम उससे
होते हैं, जिससे
हम भिन्न हों।
यही अष्टावक्र
की महागीता का
संदेश है।
तुम
ही वही हो, अब
नाराज किससे होना
और राजी किससे
होना? दोनों
में द्वंद्व है।
वह जो कहता है,
मैं तेरी रजा
से राजी हूं—वह
भी कहता है तू मुझसे
अलग, मैं तुमसे
अलग। और जब तक तुम
अलग हो, तब तक
तुम राजी हो कैसे
सकते हो भू: भेद
रहेगा। वह जो कहता
है, मैं राजी
नहीं हूं—वह भी
इतना ही कह रहा
है कि मेरी मर्जी
और है, तेरी
मर्जी और है, मेल नहीं खाती।
एक झुक गया है।
एक कहता है ठीक,
मैं तेरी मर्जी
को ओढ़े लेता हूं।
लेकिन
जब तक तुम हो, तब
तक तुम्हारी मर्र्जा
भी रहेगी। तुम
दूसरे की ओढ़ भी
लो, इससे कुछ
फर्क नहीं पड़ने
वाला। जो महासत्य
है, वह कुछ और
है। महासत्य तो
यह है कि उसके अलावा
हम हैं ही नहीं।
हम ही हैं। हमारी
मर्जी ही उसकी
मर्जी है! उसकी
मर्जी ही हमारी
मर्जी है। यह तुम्हारे
चाहने न चाहने
की बात नहीं है।
तुम राजी होओ कि
नाराजी होओ, इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता। तुम्हारी
राजी और नाराजगी
दोनों बात की खबर
देती हैं कि तुमने
अभी भी जीवन के
अद्वैत को नहीं
देखा, तुम जीवन
के द्वैत में अभी
भी उलझे हो। तुम
अपने को अलग, परमात्मा को
अलग मान रहे हो।
यहां उपाय ही नहीं
है—किसको 'ही'
कहो, किसको
'ना' कहो
पर
एक
सूफी फकीर परमात्मा
से प्रार्थना करता
था रोज, चालीस
वर्षों तक, कि 'प्रभु
तेरी मर्जी पूरी
हो! तू जो चाहे,
वही हो!' चालीसवें
वर्ष, कहते
हैं, प्रभु
ने उसे दर्शन दिया
और कहा, बहुत
हो गया! चालीस साल
से तू एक ही बकवास
लगाए है कि जो तेरी
मर्जी हो वही पूरी
हो! एक दफा कह दिया,
बात खत्म हो
गई थी; अब यह
चालीस साल से इसी
बात को दोहराए
जा रहा है! जरूर
तू नाराज है। जरूर
तू शिकायत कर रहा
है—बड़े सज्जनोचित
ढंग से, बड़े
शिष्टाचारपूर्वक।
लेकिन तू रोज मुझे
याद दिला देता
है कि ध्यान रखना,
राजी तो मैं
नहीं हूं। अब ठीक
है, मजबूरी
है। तुम्हारे हाथ
में ताकत है और
मैं तो निर्बल!
अच्छा, तो राजी
हूं, जो मर्जी!
'जो मर्जी' विवशता से उठ
रहा है, जबर्दस्ती
झुकाए जा रहे हैं!
जैसे कोई जबर्दस्ती
तुम्हारी गर्दन
झुका दे और तुम
कुछ भी न कर पाओ
तो तुम कहो, ठीक जो मर्जी!
लेकिन तुमने परमात्मा
को अन्य
तो
मान ही लिया। परमात्मा
अनन्य है। वही
है,
हम नहीं हैं,
या हम ही हैं,
वह नहीं है।
दो नहीं हैं, एक बात पक्की
है। मैं और तू ऐसे
दो नहीं हैं। या
तो मैं ही हूं अगर
ज्ञान की भाषा
बोलनी हो; अगर
भक्त की भाषा बोलनी
हो तो तू ही है।
मगर एक बात पक्की
है कि एक ही है।
तो फिर क्या सार
है? क्या अर्थ
है भू: 'हां'
कहो कि 'ना'
कहो, किससे
कह रहे हो? अपने
से ही कह रहे हो।
एक
झेन फकीर, बोकोजू
रोज सुबह उठता
तो जोर से कहता.
बोकोजू! और फिर
खुद ही बोलता. 'जी ही! कहिए, क्या आज्ञा है?'
फिर कहता है
कि देखो ध्यान
रखना, बुद्ध
के नियमों का कोई
उल्लंघन न हो।
वह कहता. 'जी
हजूर! ध्यान रखेंगे।
' कोई भूल—चूक
न हो, स्मरणपूर्वक
जीना! दिन फिर हो
गया। वह कहता : 'बिलकुल खयाल
रखेंगे। '
उसके
एक शिष्य ने सुना
कि यह क्या पागलपन
है! यह किससे कह
रहा है! बोकोजू
इसी का नाम है।
सुबह उठ कर रोज—रोज
यह कहता है. बोकोजू!
और फिर कहता है
: 'जी ही, कहिए
क्या कहना है? 'उस शिष्य
ने कहा कि महाराज,
इसका राज मुझे
समझा दें।
बोकोजू
हंसने लगा। उसने
कहा,
यही सत्य है।
यहां दो कहां पू
यहां हम ही आज्ञा
देने वाले हैं,
हम ही आज्ञा
मानने वाले हैं।
यहां हमीं स्रष्टा
हैं और हमीं सृष्टि।
हमीं हैं प्रश्न
और हमीं हैं उत्तर।
यहां दूसरा नहीं
है।
इसलिए
तुम इसको मजाक
मत समझना—बोकोजू
ने कहा। यह जीवन
का यथार्थ है।
तुम
मुझसे पूछते हो, मेरा
क्या उत्तर है?
मैं यही कहूंगा.
एक है, दो नहीं
हैं। अद्वय है।
इसलिए तुम नकारात्मक
के भी पार उठो और
विधायक के भी पार
उठो—तभी अध्यात्म
शुरू होता है।
फर्क
को समझ लेना—नकारात्मक
यानी नास्तिक, अकारात्मक
यानी आस्तिक। और
नकार और अकार दोनों
के जो पार है, वह आध्यात्मिक।
अध्यात्म
आस्तिकता से बड़ी
ऊंची बात है। आस्तिकता
तो वहीं चलती है
जहां नास्तिकता
चलती है; उन दोनों
की भूमि भिन्न
नहीं है। एक 'ना' कहता है,
एक 'हा' कहता है; लेकिन
दोनों मानते हैं
कि परमात्मा को
'ही' और 'ना' कहा जा
सकता है; हमसे
भिन्न है। अध्यात्म
कहता है, परमात्मा
तुमसे भिन्न नहीं—तुम
ही हो! अब क्या 'ही' और 'ना'? जो है,
है।
राजी
हूं नाराजी हूं
—यह बात ही मत उठाओ।
इसमें तो अज्ञान
आ गया। तुम मुझसे
पूछते हो, मैं
क्या कहूं? मैं कहूंगा. जो
है, है। कांटा
है तो कांटा है,
फूल है तो फूल
है। न तो मैं नाराज
हूं न मैं राजी
हूं। जो है, है। उससे अन्यथा
नहीं हो सकता।
अन्यथा करने की
कोई चाह भी नहीं
है। जैसा है, उसमें ही जी लेना।
अष्टावक्र ने कहा
: यथाप्राप्त! जो
है, उसमें ही
जी लेना; उसको
सहज भाव से जी लेना।
ना—नुच न करना,
शोरगुल न मचाना,
आस्तिकता—नास्तिकता
को बीच में न लाना—यही
परम अध्यात्म है।
तीसरा
प्रश्न :
अष्टावक्र
ने जानने की इच्छा
को भी अन्य इच्छाओं
जैसी बताया हैं
: जबकि अन्य ज्ञानी
मुमुक्षा की बहुत
महिमा बताते हैं।
कृपापूर्वक इस
पर प्रकाश डालें।
मुमुक्षा
का पहले तो अर्थ
समझ लें। मुमुक्षा
तुम्हारी सारी
आकांक्षाओं का
संगृहीत होकर परमात्मा
की ओर उन्मुख
हो जाना है; जैसे
छोटी—छोटी आकांक्षाओं
की नदियां हैं,
छोटे —छोटे झरने
हैं, छोटी—छोटी
सरिताए हैं, नाले है—ये सब
गिर कर गंगा बन
जाती है और गंगा
सागर की तरफ दौड़
पड़ती है। तुम धन
पाना चाहते हो,
तुम पद पाना
चाहते हो, तुम
सुंदर होना चाहते,
स्वस्थ होना
चाहते, प्रतिष्ठित
होना चाहते—ऐसी
हजार—हजार आकांक्षाएं
हैं। जब सारी आकांक्षाएं
एक ही आकांक्षा
में निमज्जित हो
जाती हैं और तुम
कहते, मैं प्रभु
को जानना चाहता—तो
गंगा बनी। सब झरने,
सब छोटे —मोटे
नाले इस महानद
में गिरे—गंगा
चली सागर की तरफ!
लेकिन
अंततः तो गंगा
को भी मिट जाना
पड़ेगा, नहीं तो
सागर से मिल न पाएगी।
एक घड़ी तो आएगी
सागर से मिलने
के क्षण में, जब गंगा को अपने
को भी मिटा देना
होगा। नहीं तो
गंगा का होना ही
बाधा हो जाएगा।
अगर गंगा सागर
के तट पर खड़े हो
कर कहे कि मैं इतने
दूर से आई, इतनी
मुमुक्षा, इतनी
ईश्वर—मिलन की
आस को ले कर; मैं मिटने को
नहीं आई हूं मैं
तो ईश्वर को पाने
आई हूं—तो चूक हो
गई। तो गंगा खड़ी
रह जाएगी किनारे
पर और चूक जाएगी
सागर से। अंततः
तो गंगा को भी सागर
में गिर जाना है
और खो जाना है।
पहले
छोटी—मोटी इच्छाएं
मुमुक्षा की महा
अभीप्सा में गिर
जाती हैं; फिर
मुमुक्षा की आकांक्षा
भी अंततः लीन हो
जानी चाहिए। इसलिए
परमज्ञानी तो यही
कहेंगे कि मुमुक्षा
भी बाधा है। यह
जानने की इच्छा
भी बाधा है। यह
मोक्ष की इच्छा
भी बाधा है।
मुमुक्षा
यानी मोक्ष की
इच्छा; मैं मुक्त
होना चाहता हूं!
कोई धनी होना चाहता
है, कोई शक्तिशाली
होना चाहता है,
कोई अमर होना
चाहता है, कोई
मुक्त होना चाहता
है —लेकिन चाह मौजूद
है। निश्चित ही
मोक्ष की चाह सभी
चाहो से ऊपर है,
लेकिन है तो
चाह ही। खूब सुंदर
चाह है, लेकिन
है तो चाह ही। खूब
सजी—संवरी चाह
है, दुल्हन
जैसी नई—नई—लेकिन
है तो चाह ही। और
चाह बंधन है।
जब
तक मैं कुछ चाहता
हूं, तब तक संघर्ष
जारी रहेगा : क्योंकि
मेरी चाह सर्व
के विपरीत चलेगी।
चाह का मतलब ही
यह है : जो होना चाहिए
वह नहीं है; और जो है, वह
नहीं होना चाहिए।
चाह का अर्थ ही
इतना है। चाह में
असंतोष है। चाह
असंतोष की अग्नि
में ही पैदा होती
है। और मोक्ष तो
तभी घटता है, जब हम कहते हैं.
जो है, है; और यही हो सकता
है। तत्क्षण विश्राम
आ गया। जो नहीं
है, उसकी मांग
नहीं; जो है,
उसका आनंद। संतोष
आ गया, परितोष
आ गया, तुष्ट
हुए!
अष्टावक्र
कहते हैं : बार—बार
आत्मा मिलती, बार
—बार तुष्टि मिलती।
मुहुर्मुहु:! फिर—फिर!
जैसे—जैसे संतोष
घना होता है, फिर और बड़ी शांति
बरसती है। और संतोष
घना होता है, और बड़ा आनंद बरसता
है। और शांति गहन
होती है, और
परमात्मा उतरता
है! मुहुर्मुहु:!
फिर—फिर, बार—बार,
पुन:
—पुन:! और कोई अंत
नहीं इस यात्रा
का!
तो
मुमुक्षा परमात्मा
के द्वार तक तो
ले जाती है, लेकिन
फिर द्वार पर अटका
लेती है। अंतत:
मुमुक्षा को भी
छोड़ देना होगा।
अंततः सब चाह छोड़
देनी होगी, उसमें मुमुक्षा
की चाह भी सम्मिलित
है। अगर मुक्त
होना है, तो
मुक्ति की आकांक्षा
भी छोड़ देनी होगी।
लेकिन
जल्दी मत करना।
पहले तो गंगा बनाओ, पहले
तो और सब आकांक्षाओं
को मुक्ति की आकांक्षा
में समाविष्ट कर
दो। एक ही आकांक्षा
प्रज्वलित रह जाए।
मन हजार तरफ दौड़
रहा है, वह एक
ही तरफ दौड़ने लगे।
मन में अभी खंड—खंड
हैं, न मालूम
कितनी मांगें हैं—एक
ही मांग रह जाए।
एक ही मांग रह जाएगी
तो तुम एकजुट हो
जाओगे। तुम्हारे
भीतर एक योग फलित
होगा। तुम्हारे
खंड समाप्त हो
जाएंगे, तुम
अखंड बनोगे। फिर
जब तुम पूरे अखंड
हो जाओ—तो अब तुम
नैवेद्य बन गए।
अब तुम जा कर परमात्मा
के चरणों में अपनी
अखंडता को समर्पित
कर देना। अब तुम
कहना. अब कुछ भी
नहीं चाहिए! अब
यह सब चाह—यह जानने
की, मोक्ष की,
तुझे खोजने की—यह
भी तेरे चरणों
में रख देते हैं!
गंगा उसी क्षण
सागर में सरक जाती
है, उसी क्षण
सागर हो जाती है।
झलक
होश की है अभी बेखुदी
में
बड़ी
खामियां हैं मेरी
बंदगी में!
झलक
होश की है अभी बेखुदी
में
बड़ी
खामियां हैं मेरी
बंदगी में!
अगर
तुम्हें इतना भी
होश रह गया कि मैं
बेहोश हूं तो अभी
बंदगी पूरी नहीं
हुई,
अभी प्रार्थना
पूरी नहीं हुई।
तुम अगर राह पर
मदमाते, मस्त
हो कर चलने लगे,
लेकिन इतना खयाल
रहा कि देखो कितना
मस्त हूं तो मस्ती
अभी पूरी नहीं!
मस्ती तो तभी पूरी
होती है जब मस्ती
का भी खयाल नहीं
रह जाता। मोक्ष
तो तभी पूरा होता
है जब मोक्ष की
भी आकांक्षा नहीं
रह जाती।
झलक
होश की है अभी बेखुदी
में
बड़ी
खामियां हैं मेरी
बंदगी में।
कैसे
कहूं कि खत्म हुई
मंजिले—फनी
इतनी
खबर तो है कि मुझे
कुछ खबर नहीं।
अगर
इतनी भी खबर रह
गई भीतर कि मुझे
कुछ खबर नहीं, तो
काफी है बंधन,
काफी अड़चन,
काफी अवरोध।
और
ध्यान रखना : बड़े—बड़े
अवरोध तो आदमी
आसानी से पार कर
जाता है; छोटे अवरोध
असली अड़चन देते
हैं। धन पाना है,
यह आकांक्षा
तो बड़ी क्षुद्र
है; इसको हम
मोक्ष पाने की
आकांक्षा में समाविष्ट
कर दे सकते हैं।
बड़ी आकांक्षा इसकी
जगह रख देते हैं—मोक्ष
पाने की आकांक्षा।
सब विकृत, सब
कुरूप, धीरे—
धीरे सुंदर हो
जाता है। मोक्ष
की धारणा ही सौंदर्य
की धारणा है—सब
प्रसादपूर्ण हो
जाता है। तब तो
पता भी नहीं चलता
कि कोई दुख है,
कोई पीड़ा है।
फिर तो इतनी छोटी
बाधा रह जाती है—पारदर्शी,
दिखाई भी नहीं
पड़ती! अगर ईंट—पत्थर
की दीवाल चारों
तरफ हो तो दिखाई
पड़ती है। कांच
की दीवाल, शुद्ध
काच की दीवाल,
स्फटिक मणियों
से बनी है—कुछ बाधा
नहीं
मालूम पड़ती, आर—पार
दिखाई पड़ता है!
दीवाल का पता ही
नहीं चलता। लेकिन
दीवाल अभी है।
अगर निकलने की
कोशिश की तो सिर
टकराएगा।
मुमुक्षा
कांच की दीवाल
है—दिखाई भी नहीं
पड़ती। संसारी की
तो वासनाएं बड़ी
क्षुद्र हैं, स्थूल
हैं, पत्थरों
जैसी हैं। संन्यासी
की आकांक्षा बड़ी
सूक्ष्म है, बड़ी पारदर्शी
है और बड़ी सुंदर
है—अटका ले सकती
है।
अगर
तुम्हें इतनी भी
याद रह गई कि मुक्त
होना है तो तुम
अभी मुक्त नहीं
हुए। और मुक्त
होना है, यह वासना
अगर मन में बनी
है तो तुम मुक्त
हो भी न सकोगे।
क्योंकि मुक्त
होने का कुल इतना
ही अर्थ होता है
कि अब कोई चाह न
रही। मगर यह तो
एक चाह बची—और इस
चाह में तो सभी
बच गया।
इसलिए
अष्टावक्र ने बड़ी
क्रांतिकारी बात
कही. काम, अर्थ से
तो मुक्त होना
ही, धर्म से
भी मुक्त होना।
ऐसा कोई सूत्र
किसी ग्रंथ में
नहीं है। अर्थ
और काम से मुक्त
होने को सबने कहा
है, धर्म से
भी मुक्त होने
को किसी ने नहीं
कहा है। अष्टावक्र
उस संबंध में बिलकुल
मौलिक और अनूठे
हैं। वे कहते हैं
: धर्म से भी मुक्त
होना है, नहीं
तो धर्म ही बाधा
बन जाएगा। अंततः
तो सभी चाह गिर
जानी चाहिए।
कैसे
कहूं कि खत्म हुई
मंजिले —फनी
मंजिले—फनी
का अर्थ होता है
शून्य हो जाना।
कैसे
कहूं कि खत्म हुई
मंजिले—फनी
कैसे
कहूं कि मैं शून्य
हो गया?
इतनी
खबर तो है कि मुझे
कुछ खबर नहीं।
इतनी
बाधा तो अभी बनी
है।
इतनी
खबर तो है कि मुझे
कुछ खबर नहीं।
मगर
इतना काफी है।
इतनी दीवाल पर्याप्त
है। इतनी दीवाल
चुका देगी।
हिमगिरि
लांघ चला आया मैं,
लघु
कंकर अवरोध बन
गया
क्षण
का साहस केवल संशय,
अगर
मूल में जीवित
है भय,
जलनिधि
तैर चला आया मैं,
उथला
तट प्रतिरोध बन
गया।
साध्य
विमुक्त स्वयं
से होना,
द्वंद्व
विगत क्या पाना
खोना,
हुआ
समन्वय सबसे लेकिन,
निज
से वही विरोध बन
गया,
सूक्ष्म
ग्रंथि में यह
रेशम मन,
सुलझाने
में उलझा चेतन,
क्रिया
अहं से इतनी दूषित,
शोधन
ही प्रतिशोध बन
गया।
हिमगिरि
लांघ चला आया मैं
लघु
कंकर अवरोध बन
गया।
बड़े
पहाड़ आदमी पार
कर लेता है, छोटा—सा
कंकर अटका लेता
है। हाथी आसानी
से निकल जाता है,
पूंछ ही मुश्किल
से निकलती है;
पूंछ ही अटक
जाती है।
जलनिधि
तैर चला आया मैं
उथला
तट प्रतिरोध बन
गया।
बहुत
लोग हैं, जो सागर
तो तैर जाते हैं,
फिर किनारे से
उलझ जाते हैं।
महावीर
के जीवन में बड़ा
मीठा उल्लेख है।
महावीर का प्रधान
शिष्य था : गौतम
गणधर। वह वर्षों
महावीर के साथ
रहा,
लेकिन मुक्त
न हो सका। वह सबसे
ज्यादा प्रखर—बुद्धि
व्यक्ति था महावीर
के शिष्यों में।
उसकी बेचैनी बहुत
थी। वह बहुत मुक्त
होना चाहता था,
उसकी आकांक्षा
में कोई कमी न थी
और वह सोचता था
: ' अब और क्या
करूं? सब दाव
पर लगा दिया। सब
जीवन आहुति बना
दिया। अब मोक्ष
क्यों नहीं हो
रहा है?' लेकिन
यह बात उसकी समझ
में नहीं आती थी
कि यही बात बाधा
बन रही है। यह जो
आग्रह है, यह
जो आकांक्षा है
कि मोक्ष क्यों
नहीं हो रहा—यही
बेचैनी यही तनाव
खड़ा कर रही है।
यह मोक्ष की आकांक्षा
भी अहंकार—जन्य
है। यह अहंकार
का आखिरी खेल है।
अब वह मोक्ष के
नाम पर खेल रहा
है।
महावीर
की मृत्यु हुई
तो उस दिन गौतम
बाहर गया था। कहीं
पास के गांव में
उपदेश करने गया
था। लौटता था तो
राहगीरों ने कहा
कि तुम्हें पता
नहीं, महावीर तो
छोड़ भी चुके देह?
तो वह वहीं रोने
लगा। रोते —रोते
उसने इतना पूछा
राहगीरों से कि
मेरे लिए कोई अंतिम
संदेश छोड़ा है?
क्योंकि वह निकटतम
शिष्य था और महावीर
की उसने अथक सेवा
की थी, और सब
दाव पर लगाया था;
फिर भी कुछ अड़चन
थी कि समझ में नहीं
आता था, क्यों
अटका है?
तो
उन्होंने कहा.
हम तो समझ नहीं
पाए कि उपदेश का
क्या अर्थ है, क्या
संदेश का अर्थ
है? उन्होंने
छोड़ा जरूर है,
वचन हमें याद
है, हम वह कह
देते हैं। हमें
अर्थ मालूम नहीं,
अर्थ तुम हमसे
पूछना भी मत, तुम जानो और वे
जानें। इतना ही
उन्होंने कहा कि
हे गौतम, तू
पूरी नदी तो तैर
गया, अब किनारे
पर क्यों रुक गया
है?
और
कहते हैं, यह
सुनते ही गौतम
ज्ञान को उपलब्ध
हो गया! यह सुनते
ही मोक्ष घट गया!
हिमगिरि
लांघ चला आया मैं
लघु
कंकर अवरोध बन
गया।
जलनिधि
तैर चला आया मैं
उथला
तट प्रतिरोध बन
गया।
आदमी
पूरा सागर तैर
जाता है, फिर सोचता
है, अब तो किनारा
आ गया—अब किनारे
को पकड़ कर रुक जाता
है। किनारे को
भी छोड़ना पड़े।
सब छोड़ना पड़े।
छोड़ना भी छोड़ना
पड़े। तभी तुम बचोगे
अपने शुद्धतम रूप
में—निरंजन! तभी
तुम्हारा मोक्ष
प्रगट होता है।
चौथा प्रश्न
:
आपने
जैसे मुझे मेरे
पिछले स्वप्न से
जगाया, मैं उसका
बिलकुल गलत अर्थ
किए बैठा था—वैसे
ही इस स्वप्न के
बारे में भी कुछ
कहने की कृपा करें।
पहले मैं अक्सर
स्वप्न देखता था
कि भीड़ में, सभा में, समाज
में अचानक नग्न
हो गया हूं। और
उससे मैं बहुत
चौंक उठता था।
लेकिन संन्यास
लेने के पश्चात
वैसा स्वप्न आना
बंद हो गया है।
वर्ष भर से मैं
अनेक बार स्वप्न
में अपने को गैर—गैरिक
वस्त्रों में देखता
हूं और अपने को
वैसा देख कर भी
मैं बहुत चौंक
उठता हूं। उल्लेखनीय
है कि अब तो मैं
गैरिक वस्त्र स्वेच्छा,
आनंद और कृतज्ञता
के भाव से पहनता
हूं। मैंने जो
कुछ पाया है, उसे बांटने में
यह रंग बहुत सहयोगी
साबित हुआ है।
फिर यह स्वप्न
क्या सूचित करता
है?
पूछा है
'अजित सरस्वती'
ने।
इस
स्वप्न को समझने
के लिए आधुनिक
मनोविज्ञान को
कार्ल गुस्ताव
का के द्वारा दी
गई एक धारणा समझनी
होगी। कार्ल गुस्ताव
का ने उस धारणा
को 'दि शैडो', छाया—व्यक्तित्व
कहा है। वह बड़ी
महत्वपूर्ण धारणा
है। जैसे तुम धूप
में चलते हो तो
तुम्हारी छाया
बनती है—ठीक ऐसे
ही तुम जो भी करते
हो, उसकी भी
तुम्हारे भीतर
छाया बनती है।
वह छाया विपरीत
होती है। वह छाया
सदा तुमसे विपरीत
होती है।
और
जीवन का नियम है
कि यहां सभी चीजें
विपरीत से चलती
हैं। यहां स्त्री
चलती है तो पुरुष
के बिना नहीं चल
सकती। यहां पुरुष
चलता है तो स्त्री
के बिना नहीं चल
सकता। यहां रात
है तो दिन है और
यहां जन्म है तो
मौत है। यहां अंधेरा
है तो प्रकाश है।
यहां हर चीज अपने
विपरीत से बंधी
है। जगत द्वंद्व
है,
द्वैत; द्वि।
ठीक ऐसी ही स्थिति
मन के भीतर है।
अब
इस स्वप्न को समझने
की कोशिश करो।
कहा
है कि पहले स्वप्न
देखता था : भीड़ में, सभा
में, समाज में
अचानक नग्न हो
गया हूं। वह छाया
है। तुम वस्त्र
पहन कर समाज में,
भीड़ में, व्यक्तियों में
मिलते—जुलते हों—तुम्हारी
छाया उससे विपरीत
भाव पैदा करती
रहती है, नग्न
हो जाने का। इसलिए
अक्सर जब कभी कोई
आदमी पागल हो जाता
है तो वस्त्र फेंक
कर नग्न हो जाता
है। जो छाया सदा
से कह रही थी और
उसने कभी नहीं
सुना था, पागल
हो कर वह छाया के
साथ राजी हो जाता
है; जो उसने
किया था, उसे
छोड़ देता है और
छाया की सुनने
लगता है। उसका
छाया—रूप सदा से
कह रहा था. हो जाओ
नग्न, हो जाओ
नग्न! इसलिए तो
समाज इतने जोर
से आग्रह करता
है कि नग्न मत होना,
नग्न मत निकलना
बाहर। क्योंकि
सभी को पता है जिस
दिन से आदमी ने
वस्त्र पहने हैं,
उसी दिन से नग्न
होने की कामना
छाया—रूप व्यक्तित्व
में पैदा हो गई
है। जिस दिन से
वस्त्र पहने हैं—उसी
दिन से!
जो
लोग नग्न रहते
हैं जंगलों में, उनको
कभी ऐसा सपना नहीं
आएगा। सपने में
वे कभी नहीं देखेंगे
कि वे नग्न हो गए
हैं, क्योंकि
वस्त्र उन्होंने
पहने नहीं। ही,
सपने में वस्त्र
पहनने का सपना
आ सकता है। अगर
उन्होंने वस्त्र
पहने हुए लोग देखे
हैं, तो सपने
में वस्त्र पहनने
की आकांक्षा पैदा
हो सकती है।
सपने
में हम वही देखते
हैं जो हमने इंकार
किया है, जो हमने
अस्वीकार किया
है, जो हमने
त्याग दिया है।
सपने में वही हमारे
मन में उठने लगता
है जो हमने घर के
तलघरे में फेंक
दिया है। और जब
भी हम कोई काम करेंगे,
तो कुछ तो तलघरे
में फेंकना ही
पड़ेगा।
अगर
तुमने किसी स्त्री
को प्रेम किया
तो प्रेम के साथ
जुड़ी हुई घृणा
को क्या करोगे? घृणा
को तलघरे में फेंक
दोगे। तुम्हारे
सपने में घृणा
आने लगेगी। तुम्हारे
सपने में तुम किसी
दिन अपनी पत्नी
की हत्या कर दोगे।
किसी दिन तुम सपने
में पत्नी की गर्दन
दबा रहे होओगे।
और तुम सोच भी न
सकोगे कि कभी ऐसा
सोचा नहीं, जागते में कभी
विचार नहीं आया—और
पत्नी इतनी सुंदर
है और इतनी प्रीतिकर
है और सब ठीक चल
रहा है, यह सपना
कैसे पैदा होता
है!
तुम
कभी सपने में मित्र
के साथ लड़ते हुए
पाए जाओगे, क्योंकि
जिससे भी तुमने
मैत्री बनाई,
उसके साथ जो
शत्रुता का भाव
उठा, उसे तुमने
तलघरे में फेंक
दिया।
हम
चौबीस घंटे कुछ
करते हैं तो तलघरे
में फेंकते हैं।
इसलिए तो अष्टावक्र
तो कहते हैं कि
तुम न तो चुनना
पुण्य को न पाप
को। तुमने पुण्य
चुना तो पाप को
तलघरे में फेंक
दोगे। वह तुम्हारे
सपनों में छाया
डालेगा और वह तुम्हारे
आने वाले जीवन
का आधार बन जाएगा।
अगर तुमने चुना
पाप को तो तुम पुण्य
को तलघरे में फेंकोगे।
फर्क ही क्या है? जिसको
हम पुण्यात्मा
कहते हैं, उस
आदमी ने पाप को
भीतर दबा लिया
है, पुण्य को
बाहर प्रगट कर
दिया है। जिसको
हम पापी कहते हैं,
उसने उल्टा किया
है. पुण्य को भीतर
दबा लिया, पाप
को बाहर प्रगट
कर दिया। लेकिन
सभी चीजें दोहरी
हैं; जैसी सिक्के
के दो पहलू हैं।
'तो जब पहले स्वप्न
देखता था भीड़ में,
सभा में, समाज में—तो देखता
था, अचानक नग्न
हो गया हूं!'
जिस
दिन पहली दफा ' अजित'
को मां—बाप ने
वस्त्र पहनाए होंगे,
उसी दिन छाया
पैदा हो गई। बच्चे
पसंद नहीं करते
वस्त्र पहनना।
उनको जबर्दस्ती
सिखाना पड़ता है,
धमकाना पड़ता
है, रिश्वत
देनी पड़ती है कि
मिठाई देंगे,
कि यह टाफी ले
लो, कि यह चाकलेट
ले लो, कि इतने
पैसे देंगे—मगर
कपड़े पहन कर बाहर
निकलो। तो बच्चे
के मन में तो नग्न
होने का मजा होता
है; क्योंकि
बच्चा तो जंगली
है, वह तो आदिम
है। वह कोई कारण
नहीं देखता कि
क्यों कपड़े पहनो?
कोई वजह नहीं
है। और कपड़े के
बिना इतनी स्वतंत्रता
और मुक्ति मालूम
होती है, नाहक
कपड़े में बंधों।
और फिर झंझटें
कपड़े के साथ आती
हैं कि तुम कपड़ा
फाड़ कर आ गए कि मिट्टी
लगा लाए!
अब
यह बड़े मजे की बात
है कि यही लोग कपड़ा
पहनाते हैं और
यही लोग फिर कहते
हैं कि अब कपड़े
को साफ—सुथरा रखो, अब
इसको गंदा मत करो।
उसने कभी पहनना
नहीं चाहा था।
एक मुसीबत दूसरी
मुसीबत लाती है।
फिर सिलसिला बढ़ता
चला जाता है। फिर
अच्छे कपड़े पहनो,
फिर सुंदर कपड़े
पहनो, फिर सुसंस्कृत
कपड़े पहनो—प्रतिष्ठा
योग्य! फिर यह जाल
बढ़ता जाता है।
धीरे — धीरे वह जो
मन में बचपन में
नग्न होने की स्वतंत्रता
थी, वह तलघर
में पड़ जाती है।
वह कभी—कभी सपनों
में छाया डालेगी।
वह कभी—कभी कहेगी
कि क्या उलझन में
पड़े हो पू कैसा
मजा था तब! कूदते
थे, नाचते थे!
पानी में उतर गए
तो फिक्र नहीं।
वर्षा हो गई तो
खड़े हैं, फिक्र
नहीं। रेत में
लोटे तो फिक्र
नहीं। इन कपड़ों
ने तो जान ले ली।
इन कपड़ों से मिला
तो कुछ भी नहीं
है, खोया बहुत
कुछ।
तो
वह भीतर दबी हुई
आकांक्षा उठ आती
होगी। वह कहती
है. 'छोड़ दो, अब
तो छोड़ो, बहुत
हो गया, क्या
पाया? वस्त्र
ही वस्त्र रह गए
आत्मा तो गंवा
दी, स्वतंत्रता
गंवा दी!' इसलिए
सपने में नग्न
हो जाते रहे होओगे।
फिर
पूछा है कि 'जब
से संन्यास लिया,
वैसा स्वप्न
आना बंद हो गया।'
साफ
है प्रतीक। संन्यास
तुमने लिया—मां—बाप
ने नहीं दिलवाया।
कपड़े मां—बाप ने
पहनाए थे, तुम
पर किसी न किसी
तरह की जबर्दस्ती
हुई होगी। यह संन्यास
तुमने स्वेच्छा
से लिया, यह
तुमने अपने आनंद
से लिया। ये वस्त्र
तुमने अपने प्रेम
से चुने, तुमने
अहोभाव से चुने।
निश्चित ही इन
वस्त्रों से तुम्हारा
जैसा मोह है वैसा
दूसरे वस्त्रों
से नहीं था। इन
वस्त्रों से जैसा
तुम्हारा लगांव
है वैसा दूसरे
वस्त्रों से नहीं
था।
इसलिए
नग्नता का स्वप्न
तो विलीन हो गया, वह
पर्दा गिरा, वह बात खत्म हो
गई। वे वस्त्र
ही तुमने गिरा
दिए, जिनके
कारण नग्नता का
स्वप्न आता था।
उन्हीं वस्त्रों
से जुड़ा था नग्नता
का स्वप्न, जो तुम्हें जबर्दस्ती
पहनाए गए थे। अब
उस स्वप्न की कोई
सार्थकता न रही।
जब वे वस्त्र ही
चले गए, तो उन
वस्त्रों के कारण
जो छाया पैदा हुई
थी, वह छाया
भी विदा हो गई।
सिक्के का एक पहलू
चला गया, दूसरा
पहलू भी चला गया।
अब
तुमने खुद अपनी
इच्छा से वस्त्र
चुने हैं। इसलिए
नग्न होने का भाव
तो पैदा नहीं होता।
'लेकिन कभी—कभी
गैर—गैरिक वस्त्रों
में अपने को सपने
में देखता हूं।'
अब
यह थोड़ा समझने
जैसा है। यद्यपि
इन वस्त्रों के
साथ वैसा विरोध
नहीं है, जैसा कि
मां —बाप के द्वारा
पहनाए गए वस्त्रों
के साथ था, यह
तुमने अपनी मर्जी
से चुना है; लेकिन फिर भी,
जो भी चुना है,
उसकी भी छाया
बनेगी। धूमिल होगी
छाया, उतनी
प्रगाढ़ न होगी।
जो तुम्हें जबर्दस्ती
चुनवाया गया था,
तो उसकी छाया
बड़ी मजबूत होगी।
जो तुमने अपनी
स्वेच्छा से चुना
है उसकी छाया बहुत
मद्धिम होगी—मगर
होगी तो! क्योंकि
जो भी हमने चुना
है उसकी छाया बनेगी।
वह स्वेच्छा से
चुना है या जबर्दस्ती
चुनवाया गया है,
यह बात गौण है।
चुनाव की छाया
बनेगी। सिर्फ अचुनाव
की छाया नहीं बनती।
सिर्फ साक्षी—
भाव की छाया नहीं
बनती। कर्तृत्व
की तो छाया बनेगी।
यह
संन्यास भी कर्तृत्व
है। यह तुमने सोचा, विचारा,
चुना। इसमें
आनंद भी पाया।
लेकिन स्वप्न बड़ी
सूचना दे रहा है।
स्वप्न यह कह रहा
है कि अब कर्ता
के भी ऊपर उठो,
अब साक्षी बनी।
साक्षी
बनते ही स्वप्न
खो जाते हैं—तुम
यह चकित होओगे
जान कर। वस्तुत:
कोई व्यक्ति साक्षी
बना या नहीं, इसकी
एक ही कसौटी है
कि उसके स्वप्न
खो गए या नहीं?
जब तक हम कर्ता
हैं तब तक स्वप्न
चलते रहेंगे। क्योंकि
करने का मतलब है
: कुछ हम चुनेंगे!
अब
समझो, अजित ने जब
संन्यास लिया तो
एकदम से कपड़े नहीं
पहने। अजित ने
जब संन्यास लिया
शुरू में, तो
ऊपर का शर्ट बदल
लिया, नीचे
का पैंट वे सफेद
ही पहनते रहे।
द्वंद्व रहा होगा।
मन कहता होगा. 'क्या कर रहे घर
है, परिवार
है, व्यवसाय
है!' अजित डाक्टर
हैं, प्रतिष्ठित
डाक्टर हैं। '
धंधे को नुकसान
पहुंचेगा। लोग
समझेंगे. पागल
हैं! यह डाक्टर
को क्या हो गया?'
माला भी पहनते
थे तो भीतर छिपाए
रखते थे—अब मुझसे
छुपाया नहीं जा
सकता। जो —जो भीतर
छुपा रहे हैं,
वे खयाल रखना—उसको
भीतर छुपाए रखते
थे। फिर धीरे — धीरे
हिम्मत जुटाई,
माला बाहर आई।
जब भी मुझे मिलते,
तो मैं उनसे
कहता रहता कि अब
कब तक ऐसा करोगे?
अब यह पैंट भी
गेरुआ कर डालो।
वे कहते. करूंगा,
करूंगा..। धीरे—
धीरे ऐसा कोई दो—तीन
साल लगे होंगे।
तो दो —तीन साल जो
मन डावांडोल रहा,
उसकी छाया है
भीतर। चुना इतने
दिनों में, सोच—सोच कर चुना—
धीरे — धीरे पिघले,
समझ में आया।
फिर पूरे गैरिक
वस्त्रों में चले
गए। लेकिन वह जो
तीन साल डावांडोल
चित्त—दशा रही—चुनें
कि न चुनें, आधा चुनें आधा
न चुनें—उस सबकी
भीतर रेखाएं छूट
गईं। वही रेखाएं
स्वप्नों में प्रतिबिंब
बनाएंगी।
जो
भी हम चुनेंगे.
चुनाव का मतलब
यह होता है : किसी
के विपरीत चुनेंगे।
जो कपड़े वे पहने
थे,
उनके विपरीत
उन्होंने गेरुए
वस्त्र चुने। तो
जिसके विपरीत चुने,
वह बदला लेगा।
जिसके विपरीत चुने,
वह प्रतिशोध
लेगा, वह भीतर
बैठा—बैठा राह
देखेगा कि कभी
कोई मौका मिल जाए
तो मैं बदला ले
लूं। अगर सामान्य
जिंदगी में मौका
न मिलेगा. कुछ को
मिल जाता है; जैसे 'स्वभाव'
कल या परसों
अपना साधारण कपड़े
पहने हुए यहां
बैठे थे। तो स्वभाव
को सपना नहीं आएगा,
यह बात पक्की
है। सपने की कोई
जरूरत नहीं है।
वे बेईमानी जागने
में ही कर जाते
हैं, अब सपने
की क्या जरूरत
है गुम जब धोखा
जागने में ही दे
देते हो तो फिर
सपने का कोई सवाल
नहीं रह जाता।
स्वभाव को सपना
नहीं आने वाला,
मगर यह उनका
दुर्भाग्य है।
यह अजित का सौभाग्य
है कि सपना आ रहा
है। इससे एक बात
पक्की है कि जागने
में धोखा नहीं
चल रहा हैं। तो
सपने में छाया
बन रही है।
अब
इस सपने की छाया
के भी पार जाना
है। इसके पार जाने
का एक ही उपाय है.
इसे स्वीकार कर
लो। इसे सदभाव
से स्वीकार कर
लो कि संन्यास
मैंने चुना था।
इसे बोधपूर्वक
अंगीकार कर लो
कि संन्यास मैंने
चुना था, पुराने
कपड़ों से लड़—लड़
कर चुना था। तो
पुराने कपड़ों के
प्रति कहीं कोई
दबी आसक्ति भीतर
रह गई है; उसे
स्वीकार कर लो
कि वह आसक्ति थी
और मैंने उसके
विपरीत चुना था।
उसको स्वीकार करते
ही स्वप्नों से
वह तिरोहित हो
जाएगी। लेकिन उसके
स्वीकार करते ही
तुम एक नए आयाम
में प्रविष्ट भी
होगे। ये गैरिक
वस्त्र गैरिक रहेंगे,
लेकिन अब यह
चुनाव जैसा न रहा,
यह प्रसाद—रूप
हो जाएगा।
इस
फर्क को समझ लेना।
अगर
तुमने संन्यास
मुझसे लिया है
प्रसाद —रूप, तुमने
मुझसे कहा कि आप
दे दें अगर मुझे
पात्र मानते हों,
और तुमने कोई
चुनाव नहीं किया—तो
सपने में छाया
नहीं बनेगी। अगर
तुमने चुना, तुमने सोचा,
सोचा, बार—बार
चिंतन किया, पक्ष—विपक्ष
देखा, तर्क
—वितर्क जुड़ाया,
फिर तुमने संन्यास
लिया—तो छाया बनेगी।
अजित
ने खूब सोच—सोच
कर संन्यास लिया।
इसलिए छाया रह
गई है। अब तुम संन्यास
को प्रसाद—रूप
कर लो। अब तुम यह
भाव ही छोड़ दो कि
मैंने लिया। अब
तो तुम यही समझो
कि तुम्हें दिया
गया—प्रभु —प्रसाद, प्रभु—अनुकंपा!
यह मेरा चुनाव
नहीं।
और
जो तुम्हारे भीतर
दबा हुआ भाव रह
गया है, उसको भी
अंगीकार कर लो
कि वह है; वह
तुम्हारे अतीत
में था, उसकी
छाया रह गई है।
स्वीकार करते ही
धीरे से यह सपना
विदा हो जाएगा।
और संन्यास को
प्रसाद—रूप जानो।
हालांकि चाहे तुमने
सोच कर ही लिया
हो, अगर तुम
किसी दिन सत्य
को समझोगे तो तुम
पाओगे; तुमने
लिया नहीं, मैंने दिया ही
है।
कुरान
में एक बड़ा अदभुत
वचन है। वचन है
कि फकीर कभी सम्राट
या धनपतियों के
द्वार पर न जाए।
जब भी आना हो, सम्राट
ही फकीर के द्वार
पर आए।
जलालुद्दीन
रूमी बड़ा पहुंचा
हुआ सिद्ध फकीर
हुआ। उसे उसके
शिष्यों ने देखा
एक दिन कि वह सम्राट
के राजमहल गया।
शिष्य बड़े बेचैन
हुए। यह तो कुरान
का उल्लंघन हो
गया। जब जलालुद्दीन
वापिस लौटा तो
उन्होंने कहा कि
गुरुदेव, यह तो
बात उल्लंघन हो
गई। और आप जैसा
सत्युरुष चूक करे!
कुरान में साफ
लिखा है कि कभी
फकीर धनपति या
राजाओं या राजनीतिज्ञों
के द्वार पर न जाए।
अगर राजा को आना
हो तो फकीर के द्वार
पर आए।
पता
है,
जलालुद्दीन
ने क्या कहा त्र:
जो कहा, वह बड़ा
अदभुत है! कुरान
के वचन की ऐसी व्याख्या
ठीक कोई पहुंचा
हुआ सिद्ध ही कर
सकता है। जलालुद्दीन
ने कहा : 'तुम
इसकी फिक्र न करो।
चाहे मैं जाऊं
राजा के घर, चाहे राजा मेरे
पास आए—हर हालत
में राजा मेरे
पास आता है। ' अजीब व्याख्या!
हर हालत में! तुम
आंखों की चिंता
में मत पड़ना कि
तुमने क्या देखा!
चाहे मैं राजा
के महल जाता दिखाई
पडूं और चाहे राजा
मेरे झोपड़े पर
आता दिखाई पड़े,
मैं तुमसे कहता
हूं : हर हालत में
राजा ही मेरे पास
आता है।
अब
जलालुद्दीन कहते
हैं तो शिष्य सकते
में आ गए, लेकिन
बात तो समझ में
नहीं आई कि यह क्या
मामला है भू: हर
हालत में!
जलालुद्दीन
ने कहा : घबड़ाओ मत, परेशान
मत होओ। कभी मैं
राजा के द्वार
पर जाता हूं क्योंकि
वह हिम्मत नहीं
जुटा पा रहा आने
की। वह तो नासमझ
है, मैं तो नासमझ
नहीं। मैं तो उसकी
संभावना देखता
हूं। मैं तो इसलिए
गया कि उसके आने
के लिए रास्ता
बना आऊं। अब वह
चला आएगा। मेरा
जाना उससे अगर
कुछ मांगने को
होता तो मैं गया।
मैं तो देने गया
था, तो जाना
कैसा? कुरान
यही कहता है कि
मत जाना—उसका कुल
मतलब इतना है कि
मांगने मत जाना।
देने जाने के लिए
तो कोई मनाही नहीं
है। और जो देने
गया है, वह गया
ही नहीं है।
मैं
जलालुद्दीन से
राजी हूं। मैं
अजित सरस्वती को
कहता हूं कि तुमने
सोच—सोच कर संन्यास
लिया, वह
तुम्हारी समझ होगी;
जहां तक मुझसे
पूछते हो, मैंने
दिया। तुम सोचते
न तो थोड़ी जल्दी
मिल जाता, तुम
सोचे तो थोड़ी देर
से मिला—बाकी हर
हाल में दिया मैंने।
जिन्होंने
भी संन्यास लिया
है,
वे खयाल में
ले लें कि तुम चाहे
संन्यास लो चाहे
मैं दूं? हर
हाल में मैं देता
हूं। तुम्हारे
लेने का कोई सवाल
नहीं है। तुम ले
कैसे सकते हो?
तुम उस विराट
की तरफ हाथ कैसे
फैला सकते हो?
संन्यास
प्रसाद है। और
यह भाव जिस दिन
समझ में आ जाएगा
उसी दिन यह स्वप्न
खो जाएगा। इसमें
थोड़ा कर्तृत्व—
भाव बचा है, उतनी
ही अड़चन है।
छठवां
प्रश्न :
मुझे
अपने समर्पण पर
शक होता है। क्या
पूरा समर्पण शिष्य
को ही करना होगा, या
कि गुरु के सहयोग
से वह शिष्य में
घटित होता है?
कृपया इस दिशा
में हमें उपदेश
करें।
समर्पण
पर शक सभी को होता
है,
क्योंकि
समर्पण तुम सोच—सोच
कर करते हो। जो
तुम सोच—सोच कर
करते हो, उसमें
शक तो रहेगा। शक
न होता तो सोचते
ही क्यों? तब
समर्पण एक छलांग
होता है—क्याटम
छलांग। तब तुम
सोच कर नहीं करते।
तब समर्पण एक पागलपन
जैसा होता है,
एक उन्माद की
अवस्था होती है।
तुम ऐसे भावाविष्ट
हो जाते हो. एक श्रद्धा
की क्रांति घटती
है! लेकिन ऐसी क्रांति
तो कभी सौ में एक
को घटती है; निन्यानबे तो
सोच कर ही करते
हैं।
इसलिए
जब तुम सोच कर करोगे, तो
वह जो तुमने सोचा
है बार—बार, वह जो तुमने निर्णय
लिया है, वह
चाहे बहुमत का
निर्णय हो, लेकिन है पार्लियामेंट्री।
तुमने बहुत सोचा,
तुमने पाया.
साठ प्रतिशत मन
गवाही है समर्पण
के लिए, चालीस
प्रतिशत गवाही
नहीं। तुमने कहा,
अब ठीक है, अब निर्णय लिया
जा सकता है। लेकिन
यह पार्लियामेंट्री
है। वह जो चालीस
प्रतिशत राजी नहीं
था, वह कभी भी
कुछ सदस्यों को
फोड़ ले सकता है।
रिश्वत खिला दे,
भविष्य का आश्वासन
दिला दे—मिनिस्टर
बना देंगे, यह कर देंगे,
वह कर देंगे—वह
मन के कुछ खंडों
को तोड़ ले सकता
है। वह किसी भी
दिन बल में आ सकता
है। और उसके आने
की संभावना है।
क्योंकि जिस साठ
प्रतिशत मन से
तुमने समर्पण किया
है, समर्पण
करने के बाद कसौटी
आएगी कि समर्पण
से कुछ घट रहा है
या नहीं पुन अब
साठ प्रतिशत समर्पण
से कुछ भी नहीं
घटता, तो वह
जो चालीस प्रतिशत
मन है वह कहेगा
: 'सुनो, अब
आयी अक्ल? पहले
ही कहा था कि करो
मत, इससे कुछ
होने वाला नहीं
है।
यह
भीतर की स्थिति
है। घटती तो है
घटना सौ प्रतिशत
से। उसके पहले
तो घटती नहीं, सौ
डिग्री पर ही पानी
भाप बनता है। साठ
डिग्री पर बहुत—से
—बहुत गर्म हो सकता
है, भाप नहीं
बन सकता। तो गरमा
गए हो। पहले की
शांति भी चली गई,
और ज्वर आ गया,
और उपद्रव ले
लिया ये गेरुए
वस्त्रों का! वैसे
ही परेशान थे,
वैसे ही झंझटें
काफी थी—और एक नई
झंझट जोड़ ली। वह
जो चालीस प्रतिशत
बैठा हुआ है, उसकी तो तुम आलोचना
नहीं कर सकते,
वह तो विरोधी
पार्टी हो गया!
विरोधी
पार्टी को एक फायदा
है। उसकी तुम आलोचना
नहीं कर सकते।
उसने कुछ किया
ही नहीं, आलोचना
कैसे करोगे? इसलिए विरोधी
पार्टी के नेता
बड़े क्रिटिकल और
आलोचक हो जाते
हैं। वे हर चीज
की आलोचना करने
लगते हैं—यह गलत,
यह गलत! जो कर
रहा है, निश्चित
उस पर ही गलती का
आरोपण लगाया जा
सकता है। जो कुछ
भी नहीं कर रहा...।
इसलिए
बड़े मजे की घटना
सारी दुनिया में
घटती रहती है—भीतर
भी और बाहर भी! जो
पार्टी हुकूमत
में होगी, वह
ज्यादा देर हुकूमत
में नहीं रह सकती।
वह लाख उपाय करे,
सदा हुकूमत में
नहीं रह सकती।
क्योंकि जो भी
वह करेगी, उसमें
कुछ तो भूलें होने
वाली हैं, कुछ
तो चूके होने वाली
हैं। जीवन की समस्याएं
ही इतनी बड़ी हैं
कि सब तो हल नहीं
हो जाएंगी। जो
नहीं हल होंगी,
विरोधी पार्टी
उन्हीं की तरफ
इशारा करती रहेगी
कि 'इसका क्या
गुर इस संबंध में
क्या? कुछ भी
नहीं हुआ, बरबाद
हो गया मुल्क!'
तो लोग धीरे
— धीरे विरोधी की
बात सुनने लगेंगे
कि बात तो ठीक ही
कह रहा है। विरोधी
का बल बढ़ जाता है।
जैसे ही विरोधी
सत्ता में आया,
बस उसका बल टूटना
शुरू हो जाता है।
सत्ताधिकारी सत्ता
में आते से ही कमजोर
होने लगता है।
गैर—सत्ताधिकारी
सत्ता के बाहर
रह कर शक्तिशाली
होने लगता है।
इसलिए
दुनिया में राजनितिज्ञों
का एक खेल चलता
रहता है। सारे
लोकतंत्रीय मुल्कों
में दो पार्टियां
होती हैं। हिंदुस्तान
अभी भी उतनी अक्ल
नहीं जुटा पाया—इसलिए
यहां व्यर्थ परेशानी
होती है। दो पार्टियां
होती हैं, एक
खेल है। जनता मूर्ख
बनती है। उन दो
पार्टियों में
एक सत्ता में होती
है, उसे जो करना
है वह करती है;
जो गैर—सत्ता
में होती है, इस बीच वह अपनी
ताकत जुटाती है।
अगले चुनाव में
दूसरी पार्टी सत्ता
में आ जाती है,
पहली पार्टी
जनता में उतर कर
फिर अपनी ताकत
जुटाने में लगती
है। उन दोनों के
बीच एक षड्यंत्र
है। एक सत्ता में
होता है, दूसरा
आलोचक हो जाता
है।
और
जनता की स्मृति
तो बड़ी कमजोर है।
वह पूछती ही नहीं
कि तुम जब सत्ता
में थे तब तुमने
यह आलोचना नहीं
की,
अब तुम आलोचना
करने लगे 1: यही काम
तुम कर रहे थे,
लेकिन तब सब
ठीक था; अब सब
गलत हो गया त्र:
और ये जो कह रहे
हैं, सब गलत
हो गया है, जब
सत्ता में पहुंच
जाएंगे, तब
फिर सब ठीक हो जाएगा!
इनके सत्ता में
होने से सब ठीक
हो जाता है, इनके सत्ता में
न होने से सब गलत
हो जाता है। इनकी
मौजूदगी जैसे शुभ
और इनकी गैर—मौजूदगी
अशुभ है।
यही
घटना मन के भीतर
घटती है। जो मन
का हिस्सा कहता
था,
'मत करो समर्पण,
मत लो संन्यास',
वह बैठ कर देखता
है. अच्छा! ले लिया,
ठीक। अब क्या
हुआ? अब वह बार—बार
पूछता है : बताओ
क्या हुआ? तो
तुम्हारे जो साठ
प्रतिशत हिस्से
थे मन के, वे
धीरे— धीरे खिसकने
लगते हैं। कुछ
हिस्से उसके पास
चले जाते हैं।
कई बार ऐसी नौबत
आ जाती हैं—फिफ्टी—फिफ्टी,
पचास— पचास की,
तब संदेह उठता
है, तब तुम बडे
डावाडोल हो उठते
हो।
कभी—कभी
ऐसा भी हो सकता
है कि हालत उलटी
हो जाए, समर्पण
के पक्ष में चालीस
हिस्से हो जाएं
और विपरीत में
साठ हिस्से हो
जाएं—तो तुम संन्यास
छोड़ कर भागने की
आकांक्षा करने
लगते हो।
'मुझे अपने समर्पण
पर शक होता है।'
समर्पण
किया है तो शक होगा
ही। क्योंकि समर्पण
किया नहीं जा सकता।
समर्पण होता है।
यह तो प्रेम जैसी
घटना है। किसी
से प्रेम हो गया, तुम
यह थोड़े ही कहते
हो कि प्रेम किया—हो
गया! तो मेरे पास
भी दो तरह के संन्यासी
हैं—एक, जिन्होंने
समर्पण किया है,
उनको तो शक सदा
रहेगा; एक,
जिनका समर्पण
हो गया है। शक की
बात ही न रही। यह
कोई पार्लियामेंट्री
निर्णय न था। यह
कोई बहुमत से किया
न था। यह तो सर्व
मत से हुआ था। यह
तो पूरी की पूरी
दीवानगी में हुआ
था—उसको मैं क्याटम
छलांग कहता हूं।
वह प्रक्रिया नहीं
है सीढी—सीढ़ी जाने
की—वह छलांग है।
तो जिन मित्र ने
पूछा है, उन्होंने
सोच कर किया होगा।
सोच कर करो तो पूरा
हो नहीं पाता।
पूरा हो न, तो
कुछ हाथ में नहीं
आता। हाथ में न
आए तो संदेह उठते
हैं।
फिर
पूछा है कि 'क्या
पूरा_ समर्पण
शिष्य को ही करना
होता है?'
समर्पण
करना ही नहीं होता।
समर्पण तो समझ
की अभिव्यक्ति
है—होता है। तुम
सुनते रहो मुझे, पीते
रहो मुझे, बने
रहो मेरे पास,
बने रहो मेरी
छाया में—धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे, एक दिन
तुम अचानक पाओगे.
समर्पण हो गया!
तुम सोचो मत इसके
लिए कि करना है,
कि कैसे करें,
कब करें। तुम
हिसाब ही मत रखो
यह। तुम तो सिर्फ
बने रहो। सत्संग
का स्वाभाविक परिणाम
समर्पण है। न तो
शिष्य को करना
होता है, न गुरु
को करना होता है।
गुरु तो कुछ करता
ही नहीं, उसकी
मौजूदगी काफी है;
शिष्य भी कुछ
न करे, बस सिर्फ
मौजूद रहे गुरु
की मौजूदगी में!
इन दो मौजूदगियो
का मेल हो जाए,
ये दोनों उपस्थितिया
एक —दूसरे में समाविष्ट
होने लगें, ये सीमाएं थोड़ी
छूट जाएं, एक—दूसरे
में प्रवेश कर
जाएं, अतिक्रमण
हो जाए! मेरे और
तुम्हारे बीच फासला
कम होता जाए! सुनते
—सुनते, बैठते—बैठते,
निकट आते —आते
कोई धुन तुम्हारे
भीतर बजने लगे।
न
तो मैं बजाता हूं, न तुम
बजाते हो—निकटता
में बजती है। मेरा
सितार तो बज ही
रहा है, तुम
अगर सुनने को राजी
हो तो तुम्हारा
सितार भी उसके
साथ—साथ डोलने
लगेगा; तुम्हारे
सितार में भी स्वर
उठने लगेंगे।
तो, न तो
शिष्य करता समर्पण,
न गुरु करवाता।
जो गुरू समर्पण
करवाए, वह असदगुरु
है। और जो शिष्य
समर्पण करे, उसे शिष्यत्व
का कोई पता नहीं।
समर्पण दोनों के
बीच घटता है, जब दोनों परम
एकात्ममय हो जाते
हैं। गुरु तो मिटा
ही है, जब शिष्य
भी उसके पास बैठते—बैठते,
बैठते —बैठते
मिटने लगता है,
पिघलने लगता
है—समर्पण घटता
है।
'या कि गुरु के
सहयोग से वह शिष्य
में घटित होता
है।'
न
कोई सहयोग है।
गुरु कुछ भी नहीं
करता। अगर गुरु
कुछ भी करता हो
तो वह तुम्हारा
दुश्मन है। क्योंकि
उसका हर करना तुम्हें
गुलाम बना लेगा।
उसके करने पर तुम
निर्भर हो जाओगे।
किसी के करने से
मोक्ष नहीं आने
वाला है। गुरु
कुछ करता ही नहीं।
गुरु तो एक खाली
स्थान तुम्हें
देता है। गुरु
तो अपनी मौजूदगी
तुम्हारे सामने
खोल देता है। अपने
को खोल देता है।
गुरु तो एक द्वार
है। द्वार में
कुछ भी तो नहीं
होता, दीवाल भी
नहीं होती। द्वार
का मतलब ही है : खाली।
तुम उसमें से भीतर
जा सकते हो। तुम
अगर डरो न, तुम
अगर सोचो —विचारो
न, तो धीरे से
द्वार तुम्हें
बुला रहा है।
तुमने
देखा, खुला द्वार
एक निमंत्रण है!
खुले द्वार को
देख कर तुम अगर
उसके पास से निकलो
तो भीतर जाने का
मन होता है। अगर
तुम हिम्मत जुटा
लो और खुले द्वार
का निमंत्रण मान
लो तो गुरु गुरुद्वारा
हो गया; उसी
से तुम प्रविष्ट
हो जाते हो।
गुरु
कुछ करता नहीं।
गुरु केटेलिटिक
एजेंट है। उसकी
मौजूदगी कुछ करती
है,
गुरु कुछ भी
नहीं करता। और
मौजूदगी तभी कर
सकती है जब तुम
करने दों—तुम मौका
दो, तुम अवसर
दो, तुम अपनी
अकड़ छोड़ो, तुम
थोड़े अपने को शिथिल
करो, विश्राम
में छोड़ो।
जो
है,
वह तो तुम्हारे
भीतर है —गुरु की
मौजूदगी में तुम्हें
पता चलने लगता
है।
फिरा
अपनी ही गंध से
अंध कस्तूरा
वन—वन
उत्स का अज्ञान
बन गया
व्याध का संधान।
फिरा
अपनी ही गंध से
अंध कस्तूरा!
कस्तूरी
कुंडल बसै! वह कस्तूरा
फिरता है पागल, अंधा
बना—अपनी ही गंध
से!
फिरा
अपनी ही गंध से
अंध कस्तूरा!
दौड़ता
फिरता, भागता
कि कहां से गंध
आती, गंध पुकारती...!
यह
गंध जो तुम मुझमें
देख रहे हो, यह
तुम्हारी गंध है।
यह स्वर जो तुमने
मुझमें सुना है,
यह तुम्हारे
ही सोए प्राणों
का स्वर है।
फिरा
अपनी ही गंध से
अंध कस्तूरा
वन —वन
उत्स का अज्ञान
बन गया
व्याध का संधान।
जो
मारने वाला छिपा
है व्याध कहीं, उसके
हाथ में अचानक
कस्तूरा आ जाता
है। कस्तुरा अपनी
ही गंध खोजने निकला
था। तुम भी न मालूम
कितने व्याधों
के संधान बन गए
हो—कभी धन के, कभी पद के, कभी प्रतिष्ठा
के। न मालूम कितने
तीर तुम में चुभ
गए हैं और तुम भटक
रहे हो— खोजते अपने
को!
फिरा
कस्तूरा अपनी ही
गंध से अंध!
अपनी
ही गंध का पता नहीं, भागते
फिरते हो! अकारण
संसार के हजार—हजार
तीर छिदते हैं
और तुम्हारे हृदय
को छलनी कर जाते
हैं।
सदगुरु
का इतना ही अर्थ
है,
जिसकी मौजूदगी
में तुम्हें पता
चले कि 'कस्तूरी
कुंडल बसै'।
वह तुम्हारे भीतर
बसी है।
अब
समर्पण कर दिया।
पहले भी सोचते
रहे,
अब भी सोच रहे
हो—सोच—सोच कर कब
तक गंवाते रहोगे?
एक तो समर्पण
ही सोच कर नहीं
करना था। अब एक
तो भूल कर दी, अब कर ही
चुके, अब
तो सोचना छोड़ो।
अब तो पूंछ कट ही
गई। अब तो उसे जोड़
लेने के सपने छोड़ो।
वह जो थोड़ी—सी जीवन—रेखा
बची है, वह जो
थोड़ी —सी जीवन—ऊर्जा
बची है, उसका
कुछ सदुपयोग हो
जाने दों—उसे सोचने
—सोचने में गंवाओ
मत!
एक बची
चिनगारी, चाहे
चिता जला या दीप।
जीर्ण
थकित लुब्धक सूरज
की लगने को है आंख
फिर
प्रतीची से उड़ा
तिमिर—खग खोल सांझ
की पांख
हुई
आरती की तैयारी
शंख खोज या सीप।
मिल
सकता मनवंतर क्षण
का चुका सको यदि
मोल
रह जाएंगे
काल—कंठ में माटी
के कुछ बोल
आगत
से आबद्ध गतागत
फिर क्या दूर समीप?
एक
बची चिनगारी, चाहे
चिता जला या दीप।
थोड़ी—सी
जो जीवन—ऊर्जा
बची है, इसे तुम
चिता के जलाने
के ही काम में लाओगे
या दीया भी जलाना
है? हो गया सोच—विचार
बहुत, अब इस
सारी ऊर्जा को
बहने दो समर्पण
में! आओ निकट, आओ समीप—ताकि
जो मेरे भीतर हुआ
है, वह तुम्हारे
भीतर भी संक्रामक
हो उठे।
एक बची
चिनगारी, चाहे
चिता जला या दीप।
हुई
आरती की तैयारी, शंख
खोज या सीप।
समर्पण
किया, संन्यास
मैंने तुम्हारे
हाथ में दे दिया—अब
इसे हाथ में रखे
बैठे रहोगे? इस बांसुरी को
बजाओ!
भले
ही फूंकते रहो
बांसुरी
बिना
धरे छिद्रों पर
अंगुलियां
नहीं
निकलेगी प्रणय
की रागिनी!
दे
दी बांसुरी तुम्हें, अब
तुम ऐसे ही खाली
फूंक—फूंक करते
रहोगे? सोच—विचार
फूंकना ही है।
कुछ जीवन—ऊर्जा
की अंगुलियां रखो
बांसुरी के छिद्रों
पर!
भले
ही फूंकते रहो
बांसुरी
बिना
धरे छिद्रों पर
अंगुलियां
नहीं
निकलेगी प्रणय
की रागिनी!
यह
जो संन्यास तुम्हें
दिया है, यह परमात्मा
के प्रणय के राग
को पैदा करने का
एक अवसर बने! सोच—विचार
बहुत हो चुका।
सुना नहीं अष्टावक्र
को? कहा जनक
को : कितने—कितने
जन्मों में तुमने
अच्छे किए कर्म,
बुरे किए कर्म,
क्या काफी नहीं
हो चुका? पर्याप्त
नहीं हो चुका?
बहुत हो चुका,
अब जाग! अब उपशांति
को, विराम को,
उपराम को उपलब्ध
हो। अब तो लौट आ
घर! अब तो वापिस
आ जा मूलस्रोत
पर!
उस
मूलस्रोत का नाम
साक्षी है। संन्यास
तो बांसुरी है, अगर
अंगुलियां रख कर
बजाई तो जो स्वर
निकलेंगे, उनसे
साक्षी— भाव जन्मेगा।
संन्यास तो केवल
यात्रा है—साक्षी
की तरफ। और जब
तक
साक्षी पैदा न
हो जाए, समझना
: संन्यास पूरा
नहीं हुआ है।
समाप्त
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