दिनांक, 30
दिसम्बर;
1973, संध्या।
बुडलैण्डस,
बंबई।
योगसूत्र:
प्रत्यक्षानुमानागमा:
प्रमाणानि।। 7।।
सम्यक
ज्ञान (प्रमाण
वृत्ति) के
तीन स्रोत हैं
प्रत्यक्ष
बोध, अनुमान
और
बुद्धपुरुषों
के वचन।
विपर्ययो
मिथ्या ज्ञानमतदूपप्रतिष्ठम्।।
8।।
विपर्यय
एक मिथ्या ज्ञान
है,
जो विषय से उस
तरह मेल नहीं खाती
जैसा वह है।
शब्दज्ञानानुपाती
वस्तुशून्यो
विकल्प:।। 9।।
शब्दों
के जोड़ मात्र
से बनी एक
धारणा जिसके
पीछे कोई ठोस
वास्तविकता
नहीं होती, वह
विकल्प है, कल्पना है।
अभावप्रत्ययालम्बनावृत्तिर्निद्रा।।
10।।
निद्रा
मन की वह वृत्ति
है,
जो अपने में
किसी विषय—वस्तु
की
अनुपस्थिति पर
आधारित होती है।
अनुभूतविषयासम्प्रमोष:
स्मृति: ।। 11।।
स्मृति
है पिछले अनुभवों
को स्मरण करना।
सम्यक
ज्ञान (प्रमाण
वृत्ति) के
तीन स्रोत हैं—प्रत्यक्ष
बोध अनुमान और
बुद्धपुरुषों
के वचन।
प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष—बोध
सम्यक ज्ञान
का पहला स्रोत
है।
प्रत्यक्ष—बोध
का मतलब है, आमने—सामने
का
साक्षात्कार—बिना
किसी मध्यस्थ
के, बिना
किसी माध्यम
के, बिना
किसी एजेंट
के। जब तुम
प्रत्यक्ष
रूप से कुछ
जानते हो, जाता
तुरंत सामना
करता है शात
का। बतलाने के
लिए कोई और
नहीं, कोई
भी सेतु नहीं
है। तब तो वह
सम्यक जान है।
लेकिन तब
बहुत—सी
समस्याएं उठ
खड़ी होती हैं।
साधारणतया, प्रत्यक्ष—प्रत्यक्ष—बोध
बड़े गलत ढंग
से अनुवादित,
व्याख्यायित,
और वर्णित
किया जाता है।
इस शब्द
प्रत्यक्ष का
अर्थ होता
है—आंखों के आगे,
आंखों के
सामने। लेकिन
आंखें स्वयं
मध्यस्थ हैं,
जानने वाला
पीछे छिपा है।
आंखें माध्यम
हैं। तुम मुझे
सुन रहे हो, लेकिन यह
प्रत्यक्ष
नहीं है, यह
सीधा नहीं है।
तुम मुझे
इंद्रियों के
द्वारा सुन
रहे हो, कानों
के द्वारा।
तुम मुझे
आंखों के
द्वारा देख
रहे हो।
तुम्हारी
आंखें
तुम्हें गलत
ढंग से खबर दे
सकती हैं, तुम्हारे
कान गलत ढंग
से खबर दे
सकते है। किसी
चीज पर
विश्वास नहीं
किया जाना
चाहिए किसी मध्यस्थ
पर विश्वास
नहीं करना
चाहिए, क्योंकि
तुम मध्यस्थ
पर भरोसा नहीं
कर सकते। यदि
तुम्हारी
आंखें बीमार
हैं, वे
अलग तरह से
खबर देंगी; यदि
तुम्हारी
आंखें
स्मृतियों से
भरी हुई हैं, वे अलग खबर
देंगी।
यदि
तुम प्रेम में
पड़ जाते हो, तब
तुम अलग ढंग
से देखते हो।
यदि तुम प्रेम
में नहीं पड़े
हो, तुम उस
तरह कभी नहीं
देखते। एक
साधारण सी
दुनिया की
सबसे अधिक
सुंदर सी हो
जाती है यदि
तुम प्रेम की
दृष्टि से
देखो। जब
तुम्हारी
नजरें प्रेम
से भरी होती
है, वे
तुम्हें कुछ
अलग ही खबर
देती हैं। और
वही व्यक्ति
कुरूप लग सकता
है यदि
तुम्हारी
नजरें नफरत से
भरी हुई हों।
तुम्हारी
आंखें विश्वसनीय
नहीं हैं।
तुम
कानों द्वारा
सुनते हो, लेकिन
कान उपकरण
मात्र है। वे
गलत ढंग से
कार्य कर सकते
है। वे कुछ ऐसी
बात सुन सकते
हैं जो कही
नहीं गयी है।
वे कुछ नहीं
भी सुन सकते
है जो कहा गया
है।
इंद्रियां
भरोसे के
योग्य हो नहीं
सकतीं
क्योंकि
इंद्रियां
केवल
यांत्रिक
साधन हैं।
फिर
प्रत्यक्ष है
क्या? प्रत्यक्ष—बोध
है क्या? प्रत्यक्ष—बोध
केवल तभी हो
सकता है जब
कोई भी मध्यस्थ
नहीं होता है;
इंद्रियां
भी नहीं।
पतंजलि कहते
हैं कि तब वह है
सम्यक ज्ञान
प्रत्यक्ष।
यह पहला
बुनियादी
स्रोत है
सम्यक ज्ञान
का—जब तुम कुछ
जानते हो और
तुम्हें किसी
दूसरे पर
निर्भर होने
की जरूरत नहीं
होती है।
केवल
गहरे ध्यान
में तुम
इंद्रियों का अतिक्रमण
कर पाते हो।
तब प्रत्यक्ष—बोध
संभव हो जाता
है। जब बुद्ध
अपने अंतरतम
अस्तित्व को
जानते हैं, वही
अंतरतम सत्ता
प्रत्यक्ष है।
वही
प्रत्यक्ष—बोध
है।
इंद्रियां
भागीदार नहीं
हैं। किसी ने
किसी चीज की
खबर नहीं दी; एजेंट जैसी
कोई चीज वहां
नहीं है। ताता
और शात आमने—सामने
हो जाते हैं।
उनके बीच कुछ
नहीं है। यह
है
प्रत्यक्षता।
और केवल
प्रत्यक्षता
सत्य हो सकती
है।
इसलिए
पहला सम्यक
जान केवल आंतरिक
सत्ता का हो
सकता है। तुम
सारे संसार को
जान सकते हो, लेकिन
यदि तुमने
अपने अस्तित्व
के आंतरिक
मर्म को नहीं
जाना है, तब
तुम्हारा
सारा जान
असंगत है।
वास्तव में यह
ज्ञान नहीं है।
यह सत्य नहीं
हो सकता
क्योंकि पहला
आधारभूत सम्यक
ज्ञान तुममें
घटित नहीं हुआ
है। तुम्हारी
सारी उन्नति
मिथ्या है।
तुमने बहुत—सी
चीजें जान ली
होंगी, लेकिन
यदि तुमने स्वयं
को नहीं जाना
है, तुम्हारा
सारा ज्ञान
सूचनाओं पर
टिका होता है;
इंद्रियों
द्वारा मिली
खबर पर। लेकिन
तुम किस
प्रकार निश्चित
कर सकते हो कि
इंद्रियां
ठीक खबर ही दे
रही है?
रात
को तुम्हें
सपने आते हैं।
स्वप्न
देखते हुए तुम
स्वप्न में
विश्वास करने
लगते हो कि यह
सच है।
तुम्हारी
इंद्रियां
सपने का विवरण
पहुंचा रही
हैं।
तुम्हारी आंखें
इसे देख रही
हैं,
तुम्हारे
कान इसे सुन
रहे हैं, हो
सकता है तुम
इसका एकर्श कर
रहे हो।
तुम्हारी
इंद्रियां
तुम्हें खबर
दे रही हैं।
इसीलिए तुम
भ्रम में पड़
जाते हो कि वह
वास्तविक है।
तुम यहां हो; शायद यह
केवल एक सपना
हो। तुम कैसे निश्चय
कर सकते हो कि
मैं वास्तव
में ही तुम से
बात कर रहा
हूं? संभव
है कि शायद यह
सिर्फ एक सपना
हो कि तुम मेरे
बारे में सपना
देख रहे हो।
हर सपना सत्य
होता है जब
तुम्हें वह
सपना दिखता है।
च्चांगत्सु
कहता है कि एक
बार उसने सपना
देखा कि वह
तितली बन गया
है। सुबह वह
उदास था। उसके
शिष्यों ने
पूछा, 'आप
क्यों उदास
हैं? 'च्चांगत्सु
बोला, 'मैं
मुसीबत में
हूं और ऐसी
मुसीबत में तो
पहले मैं कभी
नहीं पड़ा।
उलझन असंभव
जान पड़ती है, यह हल नहीं
हो सकती।
पिछली रात
मुझे सपना आया
कि मैं तितली
बन गया हूं।’
शिष्य
हंस पड़े। वे
बोले, 'इसमें
गलत क्या है? यह पहेली
नहीं है। सपना
केवल सपना
होता है।’ च्चांगत्सु
ने कहा, 'पर
सुनो! मैं
मुश्किल में
हूं। यदि
च्चांगत्सु
सपना देख सकता
है कि वह
तितली बन गया
है, तो
शायद तितली
अभी सपना देख
रही हो कि वह
च्चांगत्सु
बन गयी है। तो
मैं निर्णय
कैसे करूं कि
मैं अब
वास्तविकता
का सामना कर
रहा हूं या कि
यह फिर एक
सपना है? यदि
च्चांगत्सु
तितली बन सकता
है, तो एक
तितली सपना
क्यों नहीं
देख सकती कि
वह च्चांगत्सु
बन गयी है?'
कुछ
भी असंभव नहीं
है,
विपरीत
घटित हो सकता
है। इसलिए तुम
इंद्रियों पर
भरोसा नहीं कर
सकते। सपने
में वे
तुम्हें धोखा
देती हैं। यदि
तुम नशा करते
हो, एल एस
डी का या किसी
चीज का, तो
तुम्हारी
इंद्रियां
तुम्हें धोखा
देने लगती हैं।
तुम वे चीजें
देखने लगते हो,
जो नहीं हैं।
वे तुम्हें इस
हद तक धोखा दे
सकती हैं, और
तुम चीजों में
इतनी पूरी तरह
विश्वास कर सकते
हो, कि हो
सकता है तुम
खतरे में पड़
जाओ।
न्यूयॉर्क
में एक लड़की
ने सोलहवीं
मंजिल से छलांग
लगा दी
क्योंकि एल एस
डी के प्रभाव
में उसने सोचा
कि अब वह उड़
सकती है!
च्चांगत्सु
गलत नहीं था।
लड़की वास्तव
में खिड़की के
बाहर उड़ गयी।
बेशक, वह मर
गयी। वह कभी
नहीं जान
पायेगी कि नशे
के प्रभाव में
वह अपनी
इंद्रियों
द्वारा धोखा
खा गयी।
बिना
नशों के भी
हमें श्रम
होते हैं। तुम
एक अन्धेरी
सड़क से गुजर
रहे हो, और
अचानक तुम डर
जाते हो।। तोकि
एक सांप वहां
है। तुम भागना
शुरू कर देते
हो, और बाद
में पता चलता
है कि वहां
कोई सांप न था,
सिर्फ एक
रस्सी वहां
पड़ी हुई थी।
लेकिन जब
तुम्हें लगा
कि वहां सांप
था, तो
वहां सांप था।
तुम्हारी आंखें
खबर दे रही
थीं .कि एक
सांप वहां था
और तुमने उसी
के अनुसार
व्यवहार किया।
तुम उस जगह से
भल निकले।
इंद्रियों
पर विश्वास
नहीं किया जा
सकता। तो फिर
प्रत्यक्ष—बोध
क्या है? प्रत्यक्ष—बोध
कुछ ऐसा है
जिसे
इंद्रियों के
बिना जाना जाता
है। इसलिए
पहला सम्यक ज्ञान
केवल आन्तरिक
सत्ता का हो
सकता है, क्योंकि
ऐसा केवल वहीं
है जहां कि
इंद्रियों की
आवश्यकता न
होगी। और हर
कहीं उनकी
आवश्यकता
होगी। यदि तुम
मुझे देखना
चाहते हो, तो
तुम्हें अपनी आंखों
के
द्वारा ही
मुझे देखना
होगा, लेकिन
यदि तुम स्वयं
को देखना
चाहते हो, तो
आंखों की
आवश्यकता
नहीं है। एक
अन्धा आदमी भी
स्वयं को देख
सकता है। यदि
तुम मुझे
देखना चाहते
हो तो प्रकाश
की आवश्यकता
पड़ेगी, लेकिन
यदि तुम स्वयं
को देखना
चाहते हो तो
अन्धकार भी
ठीक है, प्रकाश
की आवश्यकता
नहीं है।
गहनतम
अन्धेरी गुफा
में भी तुम
स्वयं को जान
सकते हो। कोई
भी माध्यम
नहीं—न प्रकाश, न आंखें,
न ही कोई और
चीज, कुछ
नहीं चाहिए।
वह आन्तरिक
अनुभव
प्रत्यक्ष
होता है। और
वही
प्रत्यक्ष
अनुभव सारे
सम्यक ज्ञान
का आधार है।
एक
बार तुम उस
आन्तरिक
अनुभव में
मूलबद्ध (स्वटेड)
हो जाते हो, फिर
बहुत—सी चीजें
तुममें घटित
होनी शुरू हो
जायेंगी
लेकिन उन्हें
अभी समझना
संभव न होगा।
यदि कोई अपने
केंद्र में
गहरे
प्रतिष्ठित
हो जाता है—
अपनी आन्तरिक
सत्ता में, यदि कोई इसे
प्रत्यक्ष
अनुभूति जैसा
अनुभव करने
लगता है, तो
इंद्रियां
उसे धोखा नहीं
दे सकतीं। वह
जाग्रत हो गया
है। फिर उसकी आंखें
उसे धोखा नहीं
दे सकतीं, फिर
उसके कान उसे
धोखा नहीं दे
सकते; तब
कोई भी चीज
उसे धोखा नहीं
दे सकती। धोखा
समाप्त हो गया
है।
तुम
धोखा खा सकते
हो क्योंकि
तुम भांति में
जी रहे हो।
लेकिन
तुम्हें धोखा
नहीं मिल सकता, जैसे
ही तुम सम्यक
जाता हो जाते
हो। तब तुम
धोखा नहीं खा
सकते। तब धीरे—
धीरे हर चीज
सम्यक ज्ञान
का स्वप्न
धारण करने
लगती है। एक
बार तुम स्वयं
को जान लो, तब
जो कुछ तुम
जानते हो, अपने
आप ठीक हो
जायेगा
क्योंकि अब
तुम ठीक हो।
यही है फर्क
जिसे याद रखना
होगा। यदि तुम
ठीक हो, तो
हर चीज ठीक हो
जाती है। अगर
तुम गलत होते
हो, तो हर
चीज गलत हो
जाती है।
इसलिए यह बाहर
कुछ करने की
बात नहीं है, यह बात है
भीतर कुछ करने
की।
तुम
बुद्ध को धोखा
नहीं दे सकते।
यह असम्भव है।
तुम बुद्ध को
कैसे धोखा दे
सकते हो? वे
स्वयं में
गहरे
प्रतिष्ठित
हैं। तुम
पारदर्शक हो
उनके लिए। तुम
उन्हें धोखा
नहीं दे सकते।
इससे पहले कि
तुम स्वयं को
जानो, वे
तुम्हें
जानते हैं।
तुम्हारे
विचार की एक
टिमटिमाहट भी उनके
द्वारा स्पष्टतया
देख ली जाती
है। वे
तुम्हारी
अंतरतम सत्ता
तक प्रवेश
करते हैं।
तुम
लट मरो में
उसी सीमा तक
उतर सकते हो
जितना कि तुम
स्वयं में उतर
सको। यदि तुम
स्वयं में उतर
सको उसी सीमा
तक तुम हर चीज
में उतर सकते
हो। जितनी
ज्यादा गहराई
से तुम भीतर
बढ़ते हो, उतनी
ज्यादा गहराई
से तुम बाहर
बढ़ सकते हो।
लेकिन भीतर
तुम इंच भर भी
नहीं बढ़े हो, इसलिए जो
तुम बाहर करते
हो, वह स्वप्न
जैसा है।
पतंजलि
कहते हैं कि
सम्यक ज्ञान
का पहला स्रोत
है तात्कालिक—प्रत्यक्ष
ज्ञान, प्रत्यक्ष।
उनका कोई
संबंध नहीं है
चार्वाकों से,
प्राचीन
भौतिकवादियो
से, जो
कहते थे कि
प्रत्यक्ष—केवल
जो नजरों के
सामने है वही
सत्य
यह
शब्द
प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष
ज्ञान—इसके
कारण बहुत
भ्रम घटित हुआ
है। भौतिक जड़वादियों
की भारतीय
शाखा चार्वाक
कहलाती है।
भारतीय
भौतिकवाद का
स्रोत थे बृहएकति।
बहुत कुशाग्र
विचारक, लेकिन
एक विचारक ही।
एक बहुत गहन
गंभीर
दार्शनिक, लेकिन
एक दार्शनिक
ही; बोध—प्राप्त
चैतन्य नहीं।
उन्होंने कहा
कि केवल
प्रत्यक्ष ही
वास्तविक है।
और प्रत्यक्ष
से उनका मतलब
था कि जो कुछ
भी तुम
इंद्रियों
द्वारा जानते
हो वह यथार्थ
है। और वे
कहते है कि
बिना इंद्रियों
के किसी चीज
को जानने का
कोई तरीका नहीं
है। इसलिए
केवल
इंद्रियात्मक
ज्ञान
वास्तविक है
चार्वाकों के
लिए।
इसलिए
बृहएकति ने
अस्वीकार
किया कि कोई
ईश्वर हो सकता
है क्योंकि
किसी ने ईश्वर
को कभी देखा
नहीं है। केवल
जो देखा जा
सके वही
वास्तविक हो
सकता है, जो
देखा नहीं जा
सकता वह
वास्तविक
नहीं हो सकता
है। ईश्वर
नहीं है, क्योंकि
तुम उन्हें
नहीं देख सकते।
आत्मा नहीं है,
क्योंकि
तुम उसे नहीं
देख सकते। बृहएकति
कहते है, 'यदि
ईश्वर है, तो
उसे मेरे
सामने लाओ
जिससे मैं देख
सकूं। यदि मैं
उसे देख सकूं,
तो वह है, क्योंकि
केवल देखना ही
वास्तविकता
है।’
वे
भी प्रत्यक्ष
ज्ञान शब्द का
उपयोग करते है, लेकिन
उनका
अभिप्राय
बिलकुल अलग है।
जब पतंजलि
प्रत्यक्ष
शब्द का उपयोग
करते है, तब
उनका अर्थ अलग
स्तर का होता
है। वे कहते
है कि वह ज्ञान
जो किसी साधन
द्वारा
प्राप्त किया
हुआ न हो, किसी
माध्यम
द्वारा उत्पन्न
किया हुआ न हो,
प्रत्यक्ष
हो—वास्तविक
है। और एक बार
यह ज्ञान घटित
हो जाता है, तो तुम
वास्तविक बन
जाते हो। अब
कुछ भी मिथ्या
तुममें घटित
नहीं हो सकता
है। जब तुम
सत्य होते हो,
प्रामाणिक स्वप्न
से सत्य में
बद्धमूल होते
हो, तब
भ्रांतियां
असंभव हो जाती
है। इसलिए यह
कहा जाता है
कि बुद्ध कभी
सपने नहीं देखते।
वह जो जागा
हुआ है, सपने
नहीं देखता है।
जिसमें सपने
तक घटित नहीं
होते, वह
धोखे में नहीं
आ सकता। वह
सोता है, लेकिन
तुम्हारी तरह
नहीं। वह
बिलकुल ही अलग
तरीके से सोता
है। गुण में
भेद होता है।
केवल उसका
शरीर सोता है,
विश्राम
करता है। उसकी
सत्ता जागरूक
बनी रहती है।
यह
जागरूकता
किसी सपने को
घटित होने न
देगी। तुम
केवल तभी सपना
देख देख सकते
हो,
जब जागरूकता
खो जाती है।
जब तुम जागरूक
नहीं होते हो,
जब तुम गहरे
सम्मोहन में
होते हो, तब
तुम सपने देखना
शुरू कर देते
हो। सपने केवल
तभी घटित हो
सकते है, जब
तुम पूरी तरह
से अजाग्रत
होते हो।
जितनी ज्यादा
अजाग्रतता
होती है, उतने
ज्यादा सपने
दिखते है।
ज्यादा जागरूकता
हो, कम
सपने दिखते है।
यदि तुम पूरी —तरह
से जागरूक
होते हो तो
सपने आते ही
नहीं। सपने भी
असंभव हो जाते
है उसके लिए, जो स्वयं
में गहरे
स्थित हो गया
है; जिसने आंतरिक
सत्ता को सीधे
जान लिया है।
यह
सम्यक ज्ञान
का पहला स्रोत
है।
दूसरा
स्रोत अनुमान
है। यह गौण है
लेकिन यह भी
ध्यान रखने
लायक है।
क्योंकि जैसे
तुम बिलकुल
अभी हो, तुम
नहीं जानते कि
तुम्हारे भीतर
आत्मा है या
नहीं। अपने आंतरिक
अस्तित्व का
तुम्हें कोई
सीधा ज्ञान
नहीं है, तो
करोगे क्या? दो
संभावनाएं
हैं। पहली—तुम
बिलकुल
अस्वीकार कर
सकते हो कि
तुम्हारी सत्ता
का कोई आंतरिक
मर्म है; कि
कोई आत्मा है।
जैसे
चार्वाकों ने
किया या जैसा पश्चिम
में एपिकूरस,
मार्क्स, एंजेल्स या
कई दूसरों ने
स्थापित किया
है।
या
एक और संभावना
है। पतंजलि
कहते हैं कि
यदि तुम जानते
हो तो अनुमान
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
लेकिन यदि तुम
नहीं जानते, तब
अनुमान करना
सहायक होगा।
उदाहरण के लिए,
देकार्त, पश्चिम का
एक महान
विचारक, उसने
अपनी दार्शनिक
खोज संदेह
सहित आरंभ की।
उसने बिलकुल शुरू
से यह
दृष्टिकोण
अपनाया है कि
वह किसी ऐसी
चीज में
विश्वास नहीं
करेगा जब तक
वह असंदिग्ध न
हो। जिस पर
संदेह किया जा
सकता था, वह
संदेह करता था।
और वह उस बात
को ढूंढ
निकालने की
कोशिश करता, जिस पर
संदेह न किया
जा सकता था।
और केवल उसी
बात के बिंदु
पर वह अपने
चिंतन का सारा
भवन निर्मित
करता था। एक
सुंदर खोज—ईमानदार,
कठिन, खतरनाक।
उसने
ईश्वर को
अस्वीकार
किया क्योंकि
तुम ईश्वर पर
संदेह कर सकते
हो। बहुतों ने
संदेह किया है, और
उनके संदेहों
का उत्तर कोई
भी नहीं दे
पाया है। वह
अस्वीकार
करता गया। जिस
किसी पर भी
संदेह किया जा
सकता था, जो
कुछ संदिग्ध
माना जा सकता
था, उसने
अस्वीकार
किया। अनेकों
वर्ष वह
निरंतर
मानसिक
अशांति में
रहा। अंततः वह
उस बात से जा
टकराया, जो
असंदिग्ध थी।
वह स्वयं को
अस्वीकार
नहीं कर सका; यह असंभव था।
तुम नहीं कह
सकते, 'मैं
नहीं हूं।’ यदि तुम ऐसा
कहते हो, तुम्हारा
कहना ही सिद्ध
करता है कि
तुम हो। यह
उसकी बुनियादी
चट्टान थी—कि 'मैं स्वयं
को अस्वीकार
नहीं कर सकता।
मैं नहीं कह
सकता कि मैं
नहीं हूं। यह
कौन कहेगा? संदेह करने
के लिए भी, मेरा
होना जरूरी है।’
यह
है अनुमान। यह
प्रत्यक्ष—बोध
नहीं है। यह युक्तियुक्त
तर्क द्वारा
होता है।
लेकिन यह एक
परछाईं देता
है;
यह एक झलक
देता है, यह
तुम्हें एक
संभावना देता
है, एक
द्वार। तो
देकार्त के
पास चट्टान थी,
और इस
चट्टान पर
भव्य मंदिर का
निर्माण किया
जा सकता था।
एक असंदिग्ध तथ्य
के साथ तुम
परम सत्य तक
पहुंच सकते हो।
लेकिन यदि तुम
किसी
संदेहपूर्ण
चीज के साथ आरंभ
करो, तो
तुम कहीं नहीं
पहुंचोगे।
नींव में ही
संदेह मौजूद
रहेगा।
पतंजलि
कहते हैं, अनुमान
दूसरा स्रोत
है सम्यक ज्ञान
का। सम्यक
तर्क, सम्यक
संदेह, सम्यक
युक्ति, तुम्हें
कुछ ऐसी चीज
दे सकते हैं
जो वास्तविक ज्ञान
की ओर जाने
में तुम्हारी
मदद कर सकती
है। यही चीज
है जिन्हें वे
कहते हैं
अनुमान।
तुमने
प्रत्यक्ष
तौर पर नहीं
देखा है, लेकिन
हर चीजें
सिद्ध करती
हैं कि यह ऐसा
ही होना चाहिए।
परिस्थितिजनक
प्रमाण मिल
जाते हैं कि
यह उसी तरह ही
होना चाहिए।
उदाहरण
के लिए, तुम
इस विराट
सृष्टि में
चारों ओर
खोजते हो, हो
सकता है तुम
कल्पना न कर
पाओ कि ईश्वर
वहां है, लेकिन
तुम इसका खंडन
नहीं कर सकते
हो। सामान्य
अनुमान
द्वारा भी तुम
खंडन नहीं कर
सकते इसका कि
सारा जगत एक
व्यवस्था है,
एक सुसंगत
जोड़ है, एक
उद्देश्यात्मक
स्वप्न है।
इसका खंडन
नहीं किया जा
सकता। वह स्वप्नरेखा
इतनी स्पष्ट
है कि विज्ञान
भी इसका खंडन
नहीं कर सकता।
बल्कि इसके
विपरीत, विज्ञान
अधिक से अधिक स्वप्नरेखाएं
ज्यादा से
ज्यादा नियम
खोजता चला जाता
है।
यदि
यह जगत मात्र
एक संयोग है, तो
विज्ञान
असंभव है।
लेकिन जगत
संयोग जैसा
नहीं लगता है।
यह आयोजित
किया हुआ जान पड़ता
है। और यह निश्चित
नियमों के
अनुसार चल रहा
है, जो
नियम कभी नहीं
टूटते है।
पतंजलि
कहेंगे कि
सृष्टि की
संरचना को
अस्वीकार
नहीं किया जा
सकता है। और
यदि तुम एक
बार अनुभव कर
लेते हो कि
सृजन वहां है, तब
सृजनकर्ता
प्रवेश कर
चुका होता है।
लेकिन यह
अनुमान है।
तुमने
प्रत्यक्ष स्वप्न
से उसे नहीं
जाना है।
तुमने केवल
सृष्टि की इस स्वप्नरेखा
को जाना है, योजना को, नियमों को, व्यवस्था को
जाना है। और
व्यवस्था
बहुत भव्य है।
यह बहुत सूक्ष्म
है, बहुत
भव्य, बहुत
असीम है। एक
सुव्यवस्था
है वहां, हर
चीज
व्यवस्थाबद्ध
स्वप्न से
मर्मर ध्वनि
कर रही है।
सारे
ब्रह्मांड
में एक
संगीतपूर्ण
लयबद्धता है।
कोई पीछे छिपा
हुआ प्रतीत
होता है।
लेकिन यह
अनुमान है।
पतंजलि
कहते हैं कि
अनुमान भी मदद
कर सकता है
सम्यक ज्ञान
की तरफ जाने
में,
लेकिन वह
सम्यक अनुमान
होना चाहिए।
तर्क खतरनाक
है। वह दुधारा
होता है। तुम
तर्क को गलत
ढंग से प्रयोग
कर सकते हो, और तब भी तुम
किसी
निष्पत्ति पर
पहुंचोगे।
उदाहरण
के तौर पर, मैंने
तुमसे कहा कि
सृष्टि में एक
योजना है; कि
सृष्टि में एक
योजनाबद्ध स्वप्नरेखा
है। विश्व की
एक व्यवस्था
है, एक
सुंदर
व्यवस्था, संपूर्ण।
सम्यक अनुमान
यह होगा कि
इसके पीछे
किसी का हाथ
जान पड़ता है।
शायद हम
प्रत्यक्ष स्वप्न
से इसके प्रति
जागरूक न हों,
हो सकता है
हम उस हाथ का
सीधा एकर्श न
पायें, लेकिन
एक हाथ वहां
जान पड़ता है, छिपा हुआ।
यह है सम्यक
अनुमान।
लेकिन
उसी आधार से
तुम गलत ढंग
से भी अनुमान
कर सकते हो।
ऐसे विचारक
हुए हैं जो कह
चुके हैं।
दिदरो ने कहा
है कि 'सुव्यवस्था
के कारण मैं
विश्वास नहीं
कर सकता कि
ईश्वर है।
विश्व में एक
श्रेष्ठ
व्यवस्था
दिखाई पड़ती है,
इसी
व्यवस्था के
कारण मैं
ईश्वर में
विश्वास नहीं
कर सकता।’ कैसा
है उसका तर्क?
वह कहता है
कि यदि इसके
पीछे कोई
व्यक्ति था, तो इतनी
अधिक
व्यवस्था
नहीं हो सकती
थी। यदि इसके
पीछे व्यक्ति
था, तो
उसने कई बार
गलतियां की
होतीं। कई बार
वह मनमौजी हो
जाता, पगला
हो जाता। कई
बार वह चीजें
बदल देता।
नियम संपूर्ण
नहीं हो सकते
यदि कोई उनके
पीछे होता है।
नियम केवल तभी
संपूर्ण हो
सकते हैं जब
उनके पीछे कोई
नहीं होता और
वे केवल
यांत्रिक
होते हैं 1
यह
भी एक आकर्षक
दृष्टि है।
यदि हर चीज
बिलकुल सही
चलती रहती है, तो
वह यांत्रिक लगती
है। क्योंकि
मनुष्य के
बारे में कहा
जाता है कि भूल
करना
मानवोचित है।
यदि कोई
व्यक्ति वहां
है, तो कई
बार उसे भूल
करनी चाहिए।
इतनी अधिक
पूर्णता से ऊब
जाएगा वह। और
कई बार वह
चीजों को बदल
देना चाहेगा।
पानी सौ
डिग्री पर
उबलता है। वह
हजारों
शताब्दियों
से सौ डिग्री
पर उबल रहा है;
सदा—सदा से।
ईश्वर को तो
ऊब जाना चाहिए।
यदि कोई इस
ब्रह्मांड के
नियमों के
पीछे है तो
उसे ऊब जाना
चाहिए, दिदरो
कहता है।
इसलिए केवल
परिवर्तन के
लिए ही एक दिन
वह कहेगा, 'अब
आगे से पानी
नब्बे डिग्री
पर उबलेगा।’ लेकिन ऐसा
कभी नहीं हुआ
है, इसलिए
कोई व्यक्ति
वहां दिखाई
नहीं पड़ता है।
दोनों
तर्क एकदम सही
लगते हैं, लेकिन
पतंजलि कहते
हैं कि सम्यक
अनुमान वह है जो
तुम्हें
विकसित होने
की संभावनाएं
देता है। सवाल
यह नहीं है कि
तर्क बिलकुल
पूर्ण है या नहीं।
सवाल यह है कि
तुम्हारा
निष्कर्ष एक
प्रारम्भ हो जाना
चाहिए। यदि
ईश्वर नहीं है,
यह बात
समाप्ति बन
जाती है, तब
तुम विकसित
नहीं हो सकते।
यदि तुम
निष्पत्ति
लेते हो कि
कोई छिपा हुआ
सहायक हाथ है,
तब दुनिया
एक रहस्य बन
जाती है। तब
तुम यहां
मात्र
संयोगवश नहीं
हो। तब
तुम्हारा
जीवन
अर्थपूर्ण बन
जाता है। तब
तुम एक विशाल
आयोजन का
हिस्सा बन
जाते हो। तब
कोई बात संभव
हो पाती है।
तुम कुछ कर
सकते हो। तुम जागरूकता
में बढ़ सकते
हो। सम्यक
अनुमान का
अर्थ है वह, जो तुम्हें
विकास दे सके।
और असम्यक
अनुमान वह है
जो कि चाहे
कितना भी
श्रेष्ठ लगे,
तुम्हारे
विकास को
समाप्त कर
देता है।
अनुमान
भी सम्यक
ज्ञान का
स्रोत हो सकता
है। तर्क का
उपयोग भी
सम्यक ज्ञान
के स्रोत की
भांति किया जा
सकता है।
लेकिन
तुम्हें इसके
प्रति बहुत जागरूक
होना है कि
तुम क्या कर
रहे हो। यदि
तुम केवल
तर्कपूर्ण हो, तो
तुम इसके
द्वारा
आत्महत्या कर
सकते हो। तर्क
आत्महत्या बन
सकता है। वह
यही बनता है
बहुतों के लिए।
अभी कुछ दिन
पहले एक खोजी
कैलीफोर्निया
से यहां आया
हुआ था। वह
बहुत दूर से
घूमता हुआ आया
था। वह यहां
मुझसे मिलने
आया था। वह
कहने लगा, 'मैंने
सुना है कि जो
कोई आपके पास
आता है आप उसे
ध्यान में
धकेल देते हैं।
तो इससे पहले
कि मैं ध्यान
करूं या इससे
पहले कि आप
मुझे ध्यान
करने के लिए
कहें या इससे
पहले कि आप
मुझे धकेले, मेरे बहुत—से
प्रश्र हैं।’
उसके पास कम
से कम सौ
प्रश्रों की
सूची थी। मुझे
नहीं लगता कि
उसने कोई संभव
प्रश्र छोड़ा
था। उसके पास
ईश्वर के बारे
में प्रश्र थे,
आत्मा के
बारे में, सत्य
के बारे में, स्वर्ग—नरक
के बारे में
और हर चीज के
बारे में। एक
लंबा कागज
प्रश्रों से
भरा हुआ था।
वह बोला, 'जब
तक आप इन
प्रश्रों का
समाधान नहीं
करते, मैं
ध्यान करने
वाला नहीं।’
वह
एक तरह से
तर्कसंगत है
क्योंकि वह
कहता है, 'जब तक
मेरे
प्रश्रों का
उत्तर नहीं
दिया जाता, मैं ध्यान
कैसे कर सकता
हूं? जब तक
कि मैं
आश्वस्त
अनुभव न करूं
कि आप सही हैं;
कि आपने
मेरे संदेहों
का समाधान कर
दिया है, मैं
उस दिशा में
कैसे जा सकता
हूं जिसे आप
दिखाते और
निर्देशित
करते है? आप
गलत हो सकते
हैं। यदि मेरे
शक मिट जाते
हैं तो ही आप
अपना सहीपन
सिद्ध कर सकते
हैं।’
लेकिन
उसके शक ऐसे
हैं कि वे मिट
नहीं सकते। तो
यह है असमंजस.
यदि वह ध्यान
करता है तो वे
मिट सकते हैं।
लेकिन वह कहता
है कि वह केवल
तभी ध्यान
करेगा जब उसके
शक न रहें।
क्या किया
जाये? वह बोला,
'पहले प्रमाण
दीजिए कि
ईश्वर है।’ किसी ने कभी
प्रमाणित
नहीं किया।
कोई कभी कर
नहीं सकता।
इसका मतलब यह
नहीं है कि
ईश्वर नहीं है;
लेकिन उसे
सिद्ध नहीं
किया जा सकता
है। वह कोई
छोटी वस्तु
नहीं है जिसे
सिद्ध या असिद्ध
किया जा सकता
हो। ईश्वर
इतना जीवंत है
कि, तुम्हें
उसे जीना होगा
उसे जानने के
लिए। कोई
प्रमाण मदद
नहीं कर सकता।
लेकिन
तर्कसंगत ढंग
से वह सही है।
वह कहता है, 'जब
तक आप
प्रमाणित न
करें, मैं
कैसे आरंभ
करूं? यदि।
आत्मा नहीं है,
तो कौन
ध्यान कर रहा
है? इसलिए
पहले सिद्ध
करें कि आत्मा
है, तब मैं
ध्यान कर सकता
यह आदमी आत्महत्या
कर रहा है।
उसे कोई भी
कभी उत्तर
नहीं दे
पायेगा। उसने
सारी बाधाओं
की रचना कर
डाली है। और
इन्हीं घेरों
के कारण वह
विकसित नहीं
हो पायेगा।
लेकिन वह
तर्कपूर्ण है।
ऐसे व्यक्ति
के (नाथ मुझे
क्या करना
होगा! यदि मैं
उसके
प्रश्रों का
उत्तर देने
लगता हूं तो ऐसा
आदमी जो सौ
संदेह बना
सकता है वह
लाखों संदेह
बना सकता है।
क्योंकि संदेह
करना मन का एक
ढंग है। तुम
किसी प्रश्र
का उत्तर दे
सकते हो, और
तुम्हारे
उत्तर के कारण
ही वह दस
प्रश्र और खड़े
कर देगा
क्योंकि मन तो
वैसा ही बना
रहता है! '
वह
इस किस्म का
व्यक्ति है जो
कि संदेह को
ढूंढता है। और
यदि मैं
तर्कपूर्ण ढंग
से उत्तर देता
हूं तो मैं
उसके
तर्कपूर्ण मन
के पोषण में, उसके
मजबूत होने
में मदद का
रहा हूं। मैं
उसे पोषित कर
रहा हूं। इससे
मदद न मिलेगी।
उसे तार्किकता
से बाहर लाना
है।
इसलिए
मैने उससे
पूछा 'क्या
तुम कभी प्रेम
में पड़े हो?' वह बोला, 'क्यों?
आप विषय बदल
रहे हैं।
मैंने कहा, 'मैं
तुम्हारे
विषय पर पुन:
आऊंगा, लेकिन
अचानक मेरे
लिए बहुत
अर्थपूर्ण हो
गया है यह
पूछना कि
तुम्हें कभी
प्रेम हुआ है?
वह बोला, 'हां।’ उसका
चेहरा बदल गया
था। मैंने
उससे पूछा, 'क्या तुमने
पहले प्रेम
किया या प्रेम
करने से पहले
तुमने सारी घटना
पर संदेह किया?'
तब
वह घबड़ा गया।
वह बेचैन हो
उठा,
वह बोला, 'नहीं, मैने
इसके बारे में
पहले कभी सोचा
नहीं था। मैं
तो बस प्रेम
में पड़ गया, और केवल तभी
मैंने प्रेम
के बारे में
जाना।’ मैंने
कहा, ' अब
इसके विपरीत
करो। पहले
प्रेम के बारे
में सोचो—क्या
प्रेम संभव है,
कि क्या
प्रेम का
अस्तित्व है,
या कि क्या
प्रेम का
अस्तित्व हो
सकता है! पहले
इसे सिद्ध
करने की कोशिश
करो और इसे एक
शर्त बना लो
कि जब तक यह
सिद्ध न हो
जाये तुम किसी
को प्रेम न
करोगे।’
वह
बोला, ' आप क्या
कह रहे हैं? आप मेरा
जीवन नष्ट कर
देंगे। यदि
में इसे शर्त
बना लेता हूं
तब मैं प्रेम
नहीं कर
पाऊंगा।’ मैंने
उससे कहा, 'पर
यह तो वही है
जो तुम कर रहे
हो। ध्यान
प्रेम जैसा
है। तुम्हें
पहले इसका बोध
पाना होता है।
ईश्वर प्रेम
जैसा है।
इसीलिए जीसस
कहते ही रहे
कि ईश्वर
प्रेम है। यह
प्रेम की
भांति है—पहले
अनुभव करना
पड़ता है।
एक
तर्कशील मन
बंद हो सकता
है। और इतने
तर्कपूर्ण
ढंग से बंद हो
जाता है, कि वह
कभी अनुभव
नहीं करेगा कि
उसने स्वयं
अपना द्वार
बंद कर दिया
है विकास की
हर संभावना के
लिए।
तो
अनुमान का
अर्थ है, इस
ढंग से सोचना
कि विकास में
मदद मिले। तब
यह सम्यक ज्ञान
का स्रोत बन
जाता है।
सम्यक
शान का तीसरा
स्रोत सबसे
अधिक सुंदर है।
किसी और जगह
इसे सम्यक शान
का स्रोत नहीं
बनाया गया है।
बुद्धपुरुषों
के वचन— 'आगम'। इस तीसरे
स्रोत के बारे
में बड़ा
वाद—विवाद रहा
है। पतंजलि
कहते है कि
तुम
प्रत्यक्ष
रूप से जान
सकते हो, और
तब वह ठीक
होता है। तुम
ठीक अनुमान कर
सकते हो और तब
भी तुम ठीक
मार्ग पर ही
हो और तुम
स्रोत तक
पहुंच जाओगे।
लेकिन
कुछ चीजें हैं
जिनका तुम
अनुमान भी नहीं
कर सकते, और
तुमने उन्हें
जाना नहीं है।
लेकिन तुम इस
धरती पर पहले
नहीं हो; तुम्हीं
पहले खोजी
नहीं हो।
लाखों युगों
से लाखों लोग
खोज रहे है।
और केवल इसी
ग्रह पर नहीं,
बल्कि और
पहो पर भी।
खोज शाश्वत
है। और बहुत
लोग पहुंच
चुके हैं। वे
लक्ष्य तक
पहुंच चुके
हैं। वे मंदिर
में प्रवेश कर
चुके हैं।
उनके शब्द भी सम्यक
ज्ञान के स्रोत
है।
'आगम' का
अर्थ है उनके
शब्द, जो
जान चुके है।
बुद्ध कुछ
कहते हैं या
जीसस कुछ कहते
हैं; हम
वास्तव में
नहीं जानते कि
वे क्या कह
रहे हैं। हमने
उसे अनुभव
नहीं किया है,
इसलिए उसके
बारे में
निर्णय करने
का हमारे पास
कोई उपाय नहीं
है। हम नहीं
जानते उनके
शब्दों
द्वारा ठीक से
क्या अनुमान
करें और कैसे
अनुमान करें।
और शब्द परएकर
विरोधी होते
हैं, इसलिए
तुम जो चाहो
उससे अनुमान
लगा सकते हो।
इसीलिए
कुछ ऐसे है जो
सोचते है कि
जीसस न्यूरॉटिक
थे। पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिक
सिद्ध करने की
कोशिश करते
रहे हैं कि वे
न्यूरॉटिक थे, कि
वे सनकी थे।
जीसस ने दावा
किया, 'मैं
ईश्वर का बेटा
हूं—और मै
एकमात्र बेटा
हूं।’ तो
वे एक अहंवादी—पगले,
न्यूरॉटिक
थे। क्योंकि
बहुत—से
न्यूरॉटिक
लोग हैं जो
ऐसी बातों का
दावा करते हैं।
तुम इसे मालूम
कर सकते हो।
पागलखाने में
ऐसे बहुत—से
लोग होते है।
एक
बार बगदाद में
ऐसा हुआ, जब
खलीफा उमर
राजा था तब एक
आदमी ने बगदाद
की गलियों में
ऐलान किया था
कि मैं
पैगम्बर हूं
मैं
संदेशवाहक
हूं मै प्रफिट
हूं। अब
मोहम्मद रह कर
दिये गये हैं,
क्योंकि
मैं यहां हूं।
मैं अंतिम वचन
हूं अंतिम
संदेश हूं
ईश्वर का। अब
मोहम्मद की
कोई जरूरत
नहीं। वे
बिलकुल
पुराने पड़ गये
हैं। अब तक वे
दूत थे, लेकिन
अब मैं आ गया
हूं इसलिए तुम
मोहम्मद को भूल
सकते हो।
यह
कोई हिंदू देश
नहीं था।
हिंदू हर चीज
सहन कर सकते
है म् किसी ने
हिंदुओं की
तरह सहन नहीं
किया है। वे
सब कुछ
बरदाश्त कर
सकते है
क्योंकि वे
कहते हैं, जब
तक हम ठीक—ठीक
न जान लें, हम
हां नहीं कह
सकते और हम ना
नहीं कह सकते।
कौन जाने, वह
पैगम्बर ही
हो!
लेकिन
मुसलमान अलग
होते हैं, बहुत
मतवादी। वे
बरदाश्त नहीं
कर सकते। तो
खलीफा उमर ने
इस नये
पैगम्बर को
पकड़ जेल में
डाल दिया और
उससे कहा, 'तुम्हें
चौबीस घंटे
दिये जा रहे
है, फिर से
सोच लो। यदि
तुम कहते हो
कि तुम
पैगम्बर नहीं
हो, मोहम्मद
पैगम्बर है तो
तुम छोड़ दिये
जाओगे। लेकिन
यदि तुम अपने
पागलपन में
अपनी बात पर ही
जोर देते रहे,
तो चौबीस
घंटे बाद मै
जेल में आऊंगा
और तुम्हें
मार दिया
जायेगा।’ वह
आदमी हंस पड़ा।
वह बोला, 'देखो,
ऐसा
शास्त्रों
में लिखा है
कि पैगम्बरों
के साथ हमेशा
यही बर्ताव
किया जायेगा,
जैसा कि तुम
मुझसे बर्ताव
कर रहे हो।’ वह
तर्कपूर्ण था।
खुद मोहम्मद
तक से इसी तरह
व्यवहार किया
गया, इसलिए
यह कुछ नया
नहीं था। वह
आदमी उमर से
कहने लगा, 'यह
कोई नयी बात
नहीं है। बेशक
चीजें इसी तरह
होने वाली हैं
और मैं ऐसी हालत
में नहीं कि
फिर से सोचूं।
सिर्फ ईश्वर
इसे बदल सकता
है। चौबीस
घंटे बाद तुम
आ सकते हो।
तुम मुझे वैसा
ही पाओगे।
जिसने मुझे
नियुक्त किया
है केवल वही
इसे बदल सकता
है? '
जब
यह बातचीत चल
रही थी, तब
दूसरा पागल जो
एक खंभे के
साथ जंजीर से
बंधा हुआ था, हंसने लगा।
उमर ने पूछा, 'तुम हंस
क्यों रहे हो?'
वह बोला, 'यह आदमी
बिलकुल गलत है।
मैंने इसे कभी
नियुक्त नहीं
किया था। मैं
ऐसा नहीं होने
दे सकता।
मोहम्मद के
बाद मैंने
किसी पैगम्बर
को नहीं भेजा।’
बुद्धपुरुषों
के वचन बहुत
विरोधात्मक
और अतर्क्य है।
हर आदमी जिसे
बोध हो गया है, परएकर—विरोधी
ढंग से, विरोधाभासी
ढंग से बोलने
के लिए विवश
हो जाता है।
क्योंकि सत्य
ऐसा है कि इसे
केवल
विरोधाभासों
द्वारा
अभिव्यक्त
किया जा सकता
है। उनके कथन स्पष्ट
नहीं हैं, वे
रहस्यपूर्ण
है। तुम उससे
कुछ भी
निष्कर्ष
निकाल सकते हो।
तुम अनुमान
करते हो, लेकिन
तुम्हीं
अनुमान करते
हो। तुम्हारा
मन उसमें है।
इसलिए अनुमान
तुम्हारा ही
अनुमान होगा।
पतंजलि
कहते है, एक
तीसरा स्रोत
है। तुम नहीं
जानते। यदि
तुम सीधे जान
सकते होते, तो कोई
समस्या न थी।
तब किसी दूसरे
स्रोत की कोई जरूरत
न होती। यदि
तुम्हें
प्रत्यक्ष—बोध
है, तब
अनुमान करने
या
बुद्धपुरुषों
के वचनों की कोई
जरूरत नहीं है।
तब तुम स्वयं
संबोधि पा गये
हो। तब तुम
दूसरे दोनों
स्रोत छोड़
सकते हो। यदि
ऐसा नहीं हुआ
है तब अनुमान
है; वह
अनुमान होगा
तुम्हारा। यदि
तुम पागल हो, तब तुम्हारा
अनुमान पागल
होगा। तब
तीसरा स्रोत
आजमाने लायक
है—बुद्धपुरुषों
के वचन।
तुम
उन्हें सिद्ध
नहीं कर सकते, तुम
उन्हें
असिद्ध नहीं
कर सकते। तुम
उनमें केवल
आस्था कर सकते
हो और वह
आस्था परिकल्पित
होती है। यह
र्बईहुत वैज्ञानिक
है। विज्ञान में
भी तुम बिना
हाइपोथीसिस
के, परिकल्पना
के आगे नहीं
बढ़ सकते।
लेकिन
परिकल्पना
आस्था नहीं है।
यह केवल एक
कार्यात्मक
संयोजन है।
परिकल्पना तो
एक दिशा—संकेत
है, तुम्हें
प्रयोग करना
होगा। यदि
प्रयोग ठीक
प्रमाणित हो
जाता है, तब
हाइपोथीसिस
सिद्धांत बन
जाता है। यदि
प्रयोग गलत
सिद्ध हो जाता
है, तब
हाइपोथीसिस
को अलग फेंक
दिया जाता है।
बुद्धपुरुषों
के वचन
श्रद्धा पर
ग्रहण किये जाते
हैं—किसी
परिकल्पना की
तरह। फिर
उन्हें अपने
जीवन में
कार्यान्वत
करते हो। यदि
वे वास्तविक
सिद्ध होते
हैं, तब
परिकल्पना
श्रद्धा का
जाती है। यदि
वे मिथ्या
प्रमाणित
होते हैं, तब
परिकल्पना का
परित्याग कर
देना पड़ता है।
तुम
बुद्ध के पास
जाते हो। वे
कहेंगे, 'प्रतीक्षा
करो, धैर्य
रखो, ध्यान
करो और दो
वर्ष तक कोई
प्रश्र न पूछो।’
यह तुम्हें
श्रद्धा से ही
स्वीकार करना
होता है।
दूसरा कोई
रास्ता नहीं
है।
तुम
सोच सकते हो, 'यह
आदमी शायद
मुझे धोखा ही
दे रहा हो।
फिर तो मेरी
जिंदगी के दो
साल बेकार हो
जायेंगे। यदि
दो साल के बाद
यह प्रमाणित
हो जाता है कि
यह आदमी तो बस
बहका देने
वाला था, केवल
एक छलिया या
स्वयं को छलने
वाला— भांति
में है कि इसे
संबोधि
प्राप्त हो
गयी है—तो
मेरे दो साल
बेकार हो
जायेंगे।’ लेकिन
दूसरा कोई
रास्ता नहीं
है। तुम्हें
खतरा उठाना ही
पड़ता है। और
यदि तुम वहीं
पर रहे बुद्ध
पर श्रद्धा
रखे बिना, तो
भी ये दो साल
बेकार हो ही
जायेंगे।
क्योंकि जब
तुम श्रद्धा
नहीं करते, तुम प्रयोग
नहीं कर सकते।
रूपांतरण का
कार्य इतना
सघन है कि यदि
तुममें
श्रद्धा हो
तभी तुम
बिलकुल पूरी
तरह, पूर्णतया
इसमें उतर
सकते हो। यदि —तुममें
श्रद्धा नहीं
है, यदि
तुम कुछ रोक
कर रखते चले
जाते हो, तब
वह रोकना
तुम्हें उसे
अनुभव न करने
देगा जो बुद्ध
ने निर्देशित
किया है।
खतरा
तो है, लेकिन जीवन
स्वयं ही एक
खतरा है।
ज्यादा ऊंचे
जीवन के लिए, ज्यादा ऊंचे
खतरे होंगे।
तुम खतरनाक
रास्ते पर
चलते हो।
लेकिन ध्यान
रहे, जीवन
में केवल एक
भूल होती है
और वह है, बिलकुल
ही न चलना; केवल
डर के मारे एक
ही जगह बैठे
रहना। डरना, कि यदि तुम
बढ़ो तो कुछ
गलत हो सकता है,
तो बेहतर है
प्रतीक्षा
करना और बैठे
रहना! केवल
यही है भूल।
तुम खतरे में
नहीं पडोगे, लेकिन कोई
विकास भी संभव
न होगा।
पतंजलि
कहते हैं कि
ऐसी चीजें हैं
जिन्हें तुम
जानते नहीं और
ऐसी चीजें हैं
जिनका अनुमान
तुम्हारा
तर्क नहीं कर
सकता।
तुम्हें
उन्हें
श्रद्धा पर ही
धारण करना
पड़ता है। इस
तीसरे स्रोत
के कारण, वह
गुरु, जो
जानता है, एक
अनिवार्यता
बन जाता है।
इसलिए
तुम्हें खतरा
उठना ही पड़ता
है, और मैं
इसे कहता हूं
खतरा, क्योंकि
कोई गारंटी
नहीं, आश्वासन
नहीं है। यह
सारी बात केवल
एक क्षति
सिद्ध हो सकती
है, लेकिन
खतरा उठाना
ज्यादा अच्छा
है—क्योंकि
अगर यह बात
क्षति भी
सिद्ध हो जाती
है, तो भी
तुम बहुत कुछ
सीख को होओगे।
अब कोई दूसरा
व्यक्ति
तुम्हें उतनी
आसानी से धोखा
न दे पायेगा।
कम से कम
तुमने इतना तो
सीख लिया है।
और
यदि तुम
श्रद्धा से
चलते हो, समग्रता
से चलते हो, छाया की तरह
बुद्ध के पीछे
हो लेते हो, चीजें
तुममें घटित
होने लग सकती
हैं, क्योंकि
वे इस व्यक्ति
में घटित हो
चुकी हैं।
इन्हीं गौतम
बुद्ध में, जीसस में, महावीर में
वे घटित हो
चुकी हैं। और
अब वे मार्ग
जानते हैं, वे उस पर
यात्रा कर
चुके हैं। यदि
तुम उनसे तर्क
करो, तो तुम्हीं
गंवाने वाले
बनोंगे। वे
गंवाने वाले
नहीं हो सकते।
वे तुम्हें
बिलकुल एक ओर
छोड़ देंगे।
इस
सदी में ऐसा
गुरजिएफ के
साथ हुआ है।
बहुत—से लोग
उसके प्रति
आकर्षित होते, लेकिन
वह ऐसी
परिस्थितियां
बना देता नये
शिष्यों के
लिए कि जब वे समग्रता
से श्रद्धा
नहीं करते, उन्हें
तुरंत चले
जाना पड़ता—जब
तक कि वे
बेतुकेपन में
भी श्रद्धा
नहीं रखते और
वे बेतुकी
बातें आयोजित
की हुई होती
थीं। गुरजिएफ
झूठ बोलता
जाता। सुबह वह
एक बात कहता, दोपहर को
कुछ और। और
फिर तुम कुछ
पूछ तो सकते
नहीं थे। वह
तुम्हारे
तर्कपूर्ण मन
को पूरी तरह तहस—नहस
कर डालता।
सुबह
वह कहता, 'इस
गड्डे को खोदो।
ऐसा करना
अनिवार्य ही
है। शाम तक यह
पूरा हो जाना
चाहिए।’ सारा
दिन तुम इसे
खोदते रहते।
तुम बहुत
ज्यादा
परिश्रम करते,
तुम थक जाते,
तुम पसीना—पसीना
हो जाते, तुमने
कुछ भी खाया न
होता और शाम
होने पर वह आता
और कह देता, 'मिट्टी को
वापस गड्डे
में फेंक दो।
और तुम्हारे
सोने से पहले
वह काम पूरा
हो जाना चाहिए।’
इस समय तक
तो एक साधारण
बुद्धि वाला
भी कह देगा, ' आपका मतलब
क्या है? मैंने
सारा दिन
बरबाद कर दिया।
मैंने सोचा था
कि यह कुछ
बहुत जरूरी है
जिसे शाम तक
पूरा करना ही पड़ता
था, और अब
आप कहते हैं, मिट्टी को
वापस फेंको।’
यदि तुम ऐसी
बात उससे कहते,
गुरजिएफ
कहता, 'सीधे
भाग जाओ। जाओ।
मैं तुम्हारे
लिए नहीं, तुम
मेरे लिए नहीं।’
यह
गड्डे की या
उसे खोदने की
बात नहीं है।
असल में वह
देखना चाह रहा
है तुम तब भी
उसमें श्रद्धा
रख सकते हो या
नहीं, जब वह
बेतुका हो। एक
बार वह जान
लेता कि तुम
उसमें
श्रद्धा रख सके
हो और वह जहां
भी ले गया
उसके साथ चल
सके हो, केवल
तभी वास्तविक
चीजें चली आती।
तब परीक्षा
समाप्त हो गयी।
तुम परख लिये
गये और
प्रामाणिक
पाये गये हो—एक
सच्चा खोजी जो
प्रयोग कर
सकता है और
श्रद्धा रख
सकता खै। तभी
वास्तविक
चीजें
तुम्हें घट
सकती हैं।
इससे पहले
हरगिज नहीं।
पतंजलि
स्वयं गुरु
हैं,
और यह तीसरा
स्रोत जिसे वे
हजारों—हजारों
शिष्यों के
साथ हुए अपने
अनुभव द्वारा
बहुत अच्छी
तरह से जानते
हैं। वे कितने—कितने
शिष्यों और
खोजियों के
साथ कार्य कर
चुके हलै, क्योंकि
केवल तभी यह
संभव हो सकता
था कि योगसूत्र
जैसा शोध—ग्रंथ
लिखा जाये। यह
किसी विचारक
की रचना नहीं
है। यह .कार्य
उसके द्वारा
हुआ है जिसने
बहुत तरह की
मनोवृत्तियों
के साथ प्रयोग
किये हैं। और
उसने जिनके
साथ कार्य
किया उन हर
तरह के व्यक्तियों
के मन की
कितनी तहों को
वह बेध चुका
है। तो इसे वे
तीसरा स्रोत
बनाते हैं—बुद्धपुरुषों
के वचन।
विपर्यय
एक मिथ्या
ज्ञान है जो
विषय से उस
तरह मेल नहीं
खाती जैसा वह
है।
अब कुछ
परिभाषाएं जो
आगे चलकर
सहायक होगी।’विपर्यय'
की परिभाषा—
असत ज्ञान :
किसी विषय के
बारे में
मिथ्या धारणा
है जो विषय से
उस तरह मेल
नहीं खाती, जैसा वह है।
हम सबके पास
असत ज्ञान का
बडा बोझ है
क्योंकि इससे
पहले कि हम
तथ्य का
साक्षात्कार
करें, हमारे
पास पहले से
ही
पूर्वधारणाएं
होती ??
यदि
तुम हिंदू हो
और किसी का
तुमसे परिचय
कराया जाता है, और
यह कहा जाता
है कि वह
मुसलमान है, फौरन तुमने
गलत विचार ले
लिया कि वह
आदमी गलत ही
होगा। यदि तुम
ईसाई हो और
कोई तुमसे
परिचित हुआ
यहूदी के स्वप्न
में तो तुम इस
व्यक्ति को
स्वीकार नहीं
करने वाले, तुम इस आदमी
के सामने
खुलने वाले
नहीं हो।’एक
यहूदी' ऐसा
कहने से ही
तुम्हारी
पूर्वधारणा
प्रवेश कर गयी।
तुम्हें लगता
है जैसे कि
तुम इस आदमी
को जानते ही
हो। अब इसे
जानने की कोई
आवश्यकता न
रही। तुम
जानते हो यह
किस तरह का
आदमी है. एक
यहूदी!
तुम्हारा
पहले से ही
धारणा बना
लेने वाला, पूर्वाग्रही
मन है। और यह
पूर्वापही मन
तुम्हें असत ज्ञान
देता है। सभी
यहूदी बुरे
नहीं होते हैं,
न ही सब
ईसाई अच्छे
होते हैं। न
सारे मुसलमान
बुरे होते हैं
और न सभी
हिंदू अच्छे
होते हैं।
वस्तुत:
अच्छाई और
बुराई का
संबंध किसी
जाति से नहीं
होता है। इसका
संबंध
व्यक्तियों
से है। बुरे
मुसलमान हो
सकते हैं या
बुरे हिंदू हो
सकते हैं, अच्छे
मुसलमान होते
हैं या अच्छे
हिंदू होते हैं।
अच्छाई और
बुराई का किसी
देश से, किसी
जाति से, किसी
सभ्यता से कोई
संबंध नहीं है।
इसका संबंध
व्यक्तियों
से है, व्यक्तित्व
से है। लेकिन
कठिन है बिना
किसी
पूर्वाग्रह
वाले व्यक्ति
का सामना करना।
यदि तुम कर
सको, तो
तुम एक नया
बोध पाओगे।
एक
बार मेरे साथ
कुछ घटित हुआ, जब
मैं यात्रा कर
रहा था। मैं
अपने डिब्बे
में दाखिल हुआ,बहुत—से लोग
मुझे छोड़ने
आये हुए थे, तो वह
व्यक्ति, वह
दूसरा यात्री
जो डिब्बे में
था, फौरन
मेरे पैर छूने
लगा और बोला, ' आप तो कोई
बड़े संत ही
होंगे। इतने
सारे लोग आपको
छोड़ने आये।’
मैंने
उस आदमी से
कहा,
'मैं
मुसलमान हूं।
शायद मैं बड़ा
संत हूं लेकिन
मैं मुसलमान
हूं।’ उसे
झटका लगा।
उसने मुसलमान
के पांव छू
लिये थे, और
वह एक
ब्राह्मण था।
उसे पसीना आने
लगा। वह घबड़ा
गया था। उसने
फिर मेरी ओर
देखा और बोला,
'नहीं, आप
मजाक कर रहे
हैं।’ केवल
अपने को
तसल्ली देने
के लिए ही
उसने कहा था, 'आप मजाक कर
रहे हैं।’ 'मैं
मजाक नहीं कर
रहा हूं। मैं
क्यों करूंगा
मजाक?' मैंने
कहा, 'मेरे
पांव छूने से
पहले तुम्हें
पूछताछ कर लेनी
चाहिए थी उसके
बारे में।’
फिर
हम दोनों साथ
थे डिब्बे में।
बार—बार वह
मेरी ओर देख
लेता। और वह
लंबी., गहरी
सांस भरता। वह
जरूर सोच रहा
होगा जाकर खान
कर लेने की
बात। वह मुझसे
साक्षात्कार
नहीं कर रहा
था। मैं वहां
मौजूद था, लेकिन
उसके लिए
महत्व रखती थी
अपनी मुसलमान
संबंधी धारणा;
और यह कि वह
ब्राह्मण था;
कि मुझे छू
लेने से
अशुद्ध हो गया
है।
चीजें
जैसी हैं, वैसा
उनके साथ कोई
साक्षात्कार
नहीं करता है।
तुममें
पूर्वधारणाए
हैं। ये
पूर्वाग्रह
विपर्यय का
निर्माण करते
हैं। ये
पूर्वधारणाएं
असत ज्ञान का
निर्माण करता हैं।
जो कुछ भी तुम
सोचते हो, यदि
तुमने तथ्य को
ताजे स्वप्न
में नहीं पाया
है तो वह गलत
ही होने वाला
है। अपने अतीत
को बीच में मत
लाओ; अपने
पूर्वाग्रहों
को बीच में मत
लाओ। अपने मन
को एक तरफ रख
दो और तथ्य का
साक्षात्कार
करो। जो कुछ
भी देखने को है,
केवल देखो
उसे।
प्रक्षेपण मत
करो।
हम
प्रक्षेपण
किये चले जाते
है। हमारे मन
तो बस बचपन से
ही पूरी तरह
मरे हुए, जड़
हुए होते हैं।
हर चीज हमें
बनी—बनायी दे
दी गयी है, और
उस बने—बनाये
तैयार ज्ञान
द्वारा सारा
जीवन एक भ्रांति
बन गया है।
तुम वास्तविक
व्यक्ति से
कभी नहीं
मिलते। तुम
वास्तविक फूल
कभी नहीं
देखते। केवल
सुन कर कि, 'यह
गुलाब है' तुम
यंत्रवत कह
देते हो, 'सुंदर'। तुम्हें
सुंदरता की
प्रतीति नहीं
हुई; तुमने
सुंदरता को
महसूस नहीं
किया; तुमने
इस फूल को छुआ
नहीं। केवल
इतना है कि 'गुलाब सुंदर
होते हैं' यह
तुम्हारे मन
में है, इसलिए
जिस क्षण तुम
सुनते हो 'गुलाब',
मन
प्रक्षेपण
करता है और कह
देता है, 'यह
सुंदर है'।
हो
सकता है कि
तुम विश्वास
कर लो कि
तुम्हें अनुभव
हो गया है कि
गुलाब सुंदर
है,
लेकिन ऐसा
होता नहीं है।
यह भ्रम है।
जरा इस पर
ध्यान दो।
इसलिए बड़ों की
अपेक्षा
बच्चे चीजों
में कहीं ज्यादा
गहरे पहुंचते
हैं, क्योंकि
वे नामों को
नहीं जानते है।
वे अभी
पूर्वाग्रही
नहीं है। यदि
कोई गुलाब
सुंदर है, केवल
तभी वे
सोचेंगे कि वह
सुंदर है।
उनके लिए सभी
गुलाब सुंदर
नहीं हैं। बचे
चीजों के
ज्यादा करीब
चले आते हैं।
उनकी नजरें
ताजी होती है।
चीजें जैसी है
वे उसी तरह
उन्हें देखते
हैं क्योंकि
वे नहीं जानते
कि किसी चीज
को कैसे
प्रक्षेपित
करें।
लेकिन
हम हमेशा
उन्हें बड़ा
करने की, उन्हें
वयस्क बनाने
की जल्दी में
होते हैं। हम
उनके मन को ज्ञान
से, जानकारियों
से भर रहे हैं।
इधर
मनोवैज्ञानिकों
की सबसे नयी
खोज है कि जब
बच्चे स्कूल
में दाखिल
होते हैं, तो
वे ज्यादा
बुद्धिमान
होते हैं उससे
जबकि वे
यूनिवर्सिटी
छोड़ते हैं।
नवीनतम खोजें
यही सिद्ध
करती हैं।
पहली श्रेणी
में जब बच्चे
प्रवेश करते
है, तब
उनके पास
ज्यादा बुद्धि
होती है। उनकी
बुद्धि कम और
कम और कम होती
जायेगी, जैसे—जैसे
वे ज्ञान में
विकसित होते
जाते है।
जब
तक वे स्नातक
और पंडित और
डॉक्टर होते
हैं,
वे समाप्त
हो जाते हैं।
जब वे लौटते
हैं डॉक्टर की
डिग्री लेकर,
पी—एच डी
लेकर, वे
अपनी बुद्धि
कहीं
यूनिवर्सिटी
में ही छोड़
चुके होते है।
वे मुर्दा
होते है। वे
ज्ञान से भरे
हुए होते हैं,
ज्ञान से ठसाठस
भरे होते है, लेकिन यह
ज्ञान मिथ्या
ही है—हर चीज
के लिए
पूर्वाग्रह।
अब वे चीजों
को सीधे—सीधे
अनुभव नहीं कर
सकते। वे
जीवित
व्यक्तियों
का प्रत्यक्ष
अनुभव नहीं कर
सकते। वे सीधे
तौर पर
संबंधित नहीं
हो सकते। हर
चीज शब्दों का
आडंबर हो गयी
है, शाब्दिक।
अब वह
वास्तविक
नहीं है, वह
मनोगत हो गयी
है।
विपर्यय
एक मिथ्या ज्ञान
है जो विषय से उस
तरह मेल नहीं खाती
जैसा वह है।
अपने
पूर्वाग्रह, ज्ञान,
धारणाएं
पहले से
सूत्रबद्ध की
हुई जानकारी एक
ओर रख दो, और
ताजी निगाहों
से देखो। फिर से
बालक बन जाओ।
ऐसा क्षण—प्रतिक्षण
करना पड़ता है
क्योंकि हर
क्षण तुम धूल इकट्ठी
कर रहे हो।
सबसे
पुराने योग सूत्रों
में से एक सूत्र
है;
हर क्षण
अतीत के प्रति
मरो ताकि तुम हर
क्षण पुन जीवत
हो सको। अतीत के
हर क्षण को जाने
दो उस सारी
धूल को फेंको जो
तुमने इकट्ठी कर
ली है, और फिर
नये सिरे से देखो।
लेकिन ऐसा
निरंतर करना
पड़ता है, क्योंकि
अगले ही क्षण
धूल फिर
इकट्ठी हो
चुकी होगी।
नान—इन
जब एक खोजी था
तो किसी झेन
गुरु की खोज में
था। फिर वह
बहुत वर्षों
तक अपने गुरु
के साथ रहा, और
एक दिन गुरु
ने कहा, 'हर
चीज ठीक है।
तुमने लगभग
प्राप्त कर
लिया है।’ लेकिन
गुरु ने कहा
था 'लगभग'! इसलिए
नान—इन ने
पूछा, 'आपका
मतलब क्या है?,
गुरु ने कहा,
'मुझे, तुम्हें
कुछ दिनों के
लिए दूसरे
गुरु के पास भेजना
होगा। यह बात
अंतिम
परिष्कृति का
संएकर्श दे
देगी।
नान—इन
बहुत जोश में
था। वह बोला, 'मुझे
फौरन भेजिए।’
एक चिट्ठी
उसे दे दी गयी,
और वह बहुत
उत्तेजित था
क्योंकि उसने
सोचा, उसको
ऐसे व्यक्ति
के पास भेजा
जा रहा था जो
उसके अपने
गुरु से अधिक
महान था। जब
वह पहुंचा, उसने पाया
कि वह आदमी
कुछ खास नहीं
था—बस, सराय
का रक्षक, द्वारपाल।
नान—इन
ने बहुत
निराशा महसूस
की और उसने
सोचा, 'यह किसी किस्म
का मजाक होगा।
यह आदमी मेरा
अंतिम गुरु होने
जा रहा है? यह
मुझे समापन—संएकर्श
देने वाला है?'
लेकिन
नान—इन आ ही
गया था, इसलिए
उसने सोचा, कुछ दिनों
के लिए यहीं
रहना बेहतर है,
कम से कम
विश्राम के
लिए ही। फिर
मैं वापस जाऊंगा।
यह बहुत लंबी
यात्रा थी।
इसलिए उसने
सराय के
रखवाले से कहा,
'मेरे गुरु
ने यह चिट्ठी
भेजी है।
सराय
का रखवाला
बोला, 'लेकिन
मैं पढ़ नहीं
सकता, इसलिए
तुम अपनी
चिट्ठी रखो।
इसकी जरूरत
नहीं। और चाहे
जो भी है तुम
यहां ठहर तो
सकते ही हो। ऐ?
नान—इन ने
कहा, 'लेकिन
मुझे भेजा गया
है तुमसे कुछ
सीखने को।’
भठियारे
ने उत्तर दिया, 'मैं
केवल सराय का
रक्षक हूं मैं
गुरु नहीं है मैं
कोई शिक्षक
नहीं हूं? जरूर
कोई गलतफहमी
हुई है। तुम
शायद गलत आदमी
के पास चले
आये हो। मैं
केवल एक
भठियारा हूं।
मैं सिखा नहीं
सकता; मैं
कुछ जानता
नहीं हूं।
लेकिन चूंइक
तुम आ ही गये
हो, तुम
मुझे ध्यान सै
देख तो सकते
हो। शायद यह
सहायक हो। बस,
विश्राम
करो और देखो। ??
लेकिन
ध्यान से
देखने को कुछ
था नहीं वहां।
सुबह वह सराय
का दरवाजा
खोलता। फिर
अतिथि आते और
वह उनकी चीजें
साफ कर
देता—पात्र, और
हर चीज, और
वह काम करता।
और रात को जब
सब लोग जा
चुके होते थे
और अतिथि अपने
बिस्तरों पर
सोने के लिए
चले गये होते,
तब वह फिर
चीजों को साफ
करता—पात्र, बरतन, हर
चीज। फिर सुबह
को फिर सब
वही।
तीसरे
दिन तक नान—इन
ऊब गया था। वह
बोला, ' ध्यान
से देखने के
लिए कुछ है
नहीं—तुम बरतन
साफ किये जाते
हो। साधारण
काम करते रहते
हो। तो मुझे
प्रस्थान
करना चाहिए। सराय—रक्षक
हंस पड़ा, लेकिन
कुछ बोला
नहीं।
नान—इन
वापस आ गया।
वह अपने गुरु
के साथ बहुत नाराज
हुआ और कहने
लगा,
'क्यों? क्यों
मुझे इतनी
लंबी यात्रा
पर भेज दिया? और यह बात
थकाने वाली थी,
जबकि वह
आदमी तो केवल
एक सराय—रक्षक
था? और
उसने मुझे कुछ
नहीं सिखाया।
वह तो बस बोला,
'ध्यान से
देखो', और
वहां ध्यान से
देखने को कुछ
था ही नहीं।
गुरु
ने कहा, 'लेकिन
तो भी तुम
वहां तीन—चार
दिनों तक तो
रहे। यदि वहां
देखने को कुछ
नहीं भी था, तुमने देखा
तो होगा। तुम
क्या कर रहे
थे? वह
बोला, 'मैं
देखता था। रात
को वह
बरतन—हंडिया
साफ करता। वह हर
चीज अलग लगा
कर रखता और
सुबह वह फिर
साफ कर रहा
होता।’
गुरु
ने कहा, 'यही, यही है वह
शिक्षण। यही
है जिसके लिए
तुम्हें भेजा
गया था। वह
रात को उन
बरतनों को साफ
कर चुका होता।
इसका क्या
अर्थ है? रात
में, जबकि
कुछ हुआ भी
नहीं, वे
फिर गंदे हो
चुके होते थे,
कोई धूल फिर
जम चुकी होती।
तो हो सकता है
तुम शुद्ध
होओ। अभी हो
तुम। शायद तुम
निर्दोष हो, लेकिन हर
क्षण तुम्हें
सफाई जारी
रखनी पड़ती है।
हो सकता है
तुम कुछ नहीं
कर रहे हो, लेकिन
तब भी केवल
समय के
व्यतिक्रम
द्वारा तुम
अशुद्ध हो
जाते हो, क्षण—प्रतिक्षण
मात्र समय के
बीतने
द्वारा। यदि
तुम कुछ कर भी
नहीं रहे होते;
केवल एक
पेडू के नीचे
बैठे हुए होते
हो; तुम
मैले हो जाते
हो। और वह
मैलापन इसलिए
नहीं होता कि
कि तुम कुछ
बुरा कर रहे
थे या कुछ गलत
कर रहे थे। यह
घटित होता है
केवल समय के बीत
जाने द्वारा।
धूल इकट्ठी हो
जाती है। इसलिए
तुम्हें सफाई
करते रहना
होगा, और
यही अंतिम संएकर्श
है। इसकी
आवश्यकता है
क्योंकि मैं
अनुभव करता
हूं कि तुम
गर्वीले हो
गये हो कि तुम
शुद्ध हो। और
अब तुम्हें
सफाई करने की
सतत आवश्यकता
के लिए
प्रयत्न करने
की चिंता नहीं
रही है।’
क्षण—प्रतिक्षण
व्यक्ति को
मरना होता है
और फिर
पुनजावित
होना होता है।
केवल तभी तुम
असत जान से
मुक्त होते
हो।
शब्दों
के जोड़ मात्र
से बनी एक
धारणा जिसके
पीछे कोई ठोस
वास्तविकता
नहीं होती वह
विकल्प—कलपना
है।
कल्पना
तो बस शब्दों, शाब्दिक
ढांचों
द्वारा बनती
है। तुम एक
चीज का
निर्माण करते हो,
लेकिन वह
वहां होती
नहीं, वह
वास्तविकता
नहीं है। तुम
अपनी मानसिक
धारणाओं
द्वारा उसका
निर्माण करते
हो। और तुम इस हद
तक इसका
निर्माण कर
सकते हो कि
तुम स्वयं इसके
द्वारा धोखा
खा जाते हो, और तुम
सोचते हो यह
वास्तविक है।
ऐसा
हिप्रोसिस
में घटित होता
है। यदि तुम
किसी व्यक्ति
को
हिप्रोटाइज
करो और उससे कुछ
कहो तो वह
कल्पना को जोड़
लेता है, और
वही कल्पना
वास्तविक हो
जाती है। तुम
ऐसा कर सकते
हो। यह तुम
बहुत तरह से
कर रहे हो।
एक
बहुत
प्रसिद्ध
अमरीकी
अभिनेत्री, ग्रेटा
गारबो, उसने
अपने संस्मरण
लिखे हैं। वह
एक साधारण लड़की
थी, घरेलू—सी
सामान्य लड़की,
बहुत गरीब।
केवल बहुत
थोड़े पैसों के
लिए ही वह एक
नाई की दुकान
में काम कर
रही थी, और
वह ग्राहक के
चेहरे पर
साबुन लगाती।
तीन साल से वह
यही कर रही
थी।
एक
दिन एक अमरीकी
फिल्म—निर्देशक
नाई की दुकान
में आया हुआ
था। वह उसके
चेहरे पर साबुन
लगा रही थी—और
जिस ढंग के
अमेरिकन होते
हैं,
उसका शायद
यह मतलब हो भी
नहीं—उसने
दर्पण में लड़की
के प्रतिबिंब
की तरफ देखा
और बोला, 'कितनी
सुंदर! 'और
उसी क्षण ही
ग्रेटा गारबो
का जन्म हुआ
था।
वह
लिखती है—
अचानक वह दूसरी
हो गयी थी!
उसने कभी
स्वयं को
सुंदर न जाना
था,
वह ऐसा मान
ही न सकती थी।
और उसने पहले
कभी किसी को
कहते नहीं
सुना था कि वह
सुंदर है।
पहली बार उसने
भी दर्पण में
देखा, उसका
चेहरा
असाधारण था।
इस आदमी ने
उसे सुंदर बना
दिया था। फिर
उसकी सारी
जिंदगी बदल गयी।
उसने उस आदमी
की बात को
ग्रहण कर लिया
और एक बहुत
प्रसिद्ध
अभिनेत्री बन
गयी।
क्या
घटित हुआ था? केवल
एक हिप्रोसिस,
एक सम्मोहन।’सुंदर' शब्द
द्वारा हुए
सम्मोहन ने
काम कर दिया।
यह काम करता
है; यह
रसायन बन जाता
है। हर कोई
अपने बारे में
कुछ विश्वास
रखता है। वह
विश्वास
वास्तविकता
बनता है
क्योंकि वह
विश्वास तुम
पर कार्य करना
शुरू करता है।
कल्पना
एक शक्ति है, लेकिन
जोड़ा गया आवेग
है, एक
काल्पनिक
शक्ति है। तुम
इसका
इस्तेमाल कर
सकते हो या
तुम इसके द्वारा
इस्तेमाल
किये जा सकते
हो। यदि तुम
इसका
इस्तेमाल कर
सको, तो यह
सहायक होगी।
लेकिन यदि तुम
इसके द्वारा
इस्तेमाल
किये जाते हो,
तो यह घातक
होती है, खरतनाक
होती है।
कल्पना किसी
भी क्षण में
पागलपन बन
सकती है।
लेकिन कल्पना
सहायक हो सकती
है यदि इसके
द्वारा तुम
अपने आंतरिक
विकास के लिए,
अपने
क्रिस्टलाइजेशन
के लिए किसी
परिस्थिति का निर्माण
कर सको।
यह
शब्दों
द्वारा होता
है कि तुम
चीजों को कल्पनाबिंबों
में जोड़ लेते
हो। मनुष्य के
लिए शब्द, भाषा,
शाब्दिक
ढांचे इतने
महत्वपूर्ण
हो गये है कि अब
इससे ज्यादा
कोई चीज
महत्वपूर्ण
नहीं रही। यदि
कोई अचानक चीख
पड़ता है, ' आग!'
तो यह शब्द
तुम्हें फौरन
बदल देगा। हो
सकता है कहीं
कोई आग न हो, लेकिन तब भी
तुम मुझे
सुनना बंद कर
दोगे। बंद
करने के लिए
कोई प्रयास न
करना होगा।
अचानक तुम
सुनना बंद कर
दोगे, और
तुम यहां—वहां
दौड़ना शुरू कर
दोगे। यह शब्द
' आग' कल्पना
को पकड़ चुका
होगा।
और
तुम शब्दों
द्वारा इस तरह
प्रभावित
होते हो!
विज्ञापन—व्यापार
वाले लोग
जानते है कौन—से
शब्दों का
उपयोग करना है
कल्पनाबिंबों
की छबि बना
देने के लिए।
उन शब्दों
द्वारा वे
तुम्हें
अधिकार में कर
लेते है, वे
तमाम जनसमूह
को जीत लेते
है। और बहुत
से ऐसे शब्द
होते है। वे
फैशन के साथ
बदलते रहते
हैं।
पिछले
कुछ वर्षों से
खास शब्द चल
रहा है 'नया'। तो
विज्ञापनों
के अनुसार हर
चीज है नयी, 'न्यू लक्स
सोप'। नया
लक्स साबुन।’लक्स साबुन'
नहीं चलेगा।
यह 'नया' तुरंत
आकर्षिक करता
है। हर
व्यक्ति नये
के पीछे है, हर व्यक्ति
नये को खोज
रहा है—कुछ
नया! क्योंकि
हर व्यक्ति
पुराने से ऊब
चुका है।
इसलिए हर नयी
चीज में
आकर्षण है। हो
सकता है वह
पुरानी से
बेहतर न हो।
वह बदतर हो
सकती है, लेकिन
मात्र यह शब्द
'नया' मन
में कई
प्रत्याशाएं
खोल देता है।
ऐसे
शब्द और उनके
प्रभाव गहराई
से समझ लेने
होंगे। वह
व्यक्ति जो
सत्य की खोज
में है, उसे
शब्दों के
प्रभाव के
प्रति जाग्रत
रहना होगा।
राजनीतिज्ञ, विज्ञापन
देने वाले लोग,
वे शब्दों
का इस्तेमाल
कर रहे है और
वे शब्दों
द्वारा ऐसी
धारणाएं
निर्मित कर
सकते है कि तुम
अपने जीवन की
बाजी लगा सकते
हो। तुम अपनी
जिंदगी गंवा
सकते हो—केवल
शब्दों के कारण।
'राष्ट्र', 'राष्ट्रीय
झंडा', 'हिंदुत्व'
—ये क्या है?
मात्र शब्द।
तुम कह सकते
हो, 'हिंदुत्व
खतरे में है', और अचानक
कितने ही लोग
तैयार हो जाते
है कुछ कर
गुजरने के लिए
या मरने के
लिए भी। मात्र
थोड़े—से शब्द
और हमारे देश
का अपमान हो
जाता है। क्या
है हमारा देश?
केवल शब्द।
एक झंडा कुछ
नहीं है सिवाय
कपड़े के एक
टुक्के के, लेकिन सारा
देश एक झंडे
के लिए मर
सकता है, क्योंकि
किसी ने इसका
अपमान कर दिया,
इसे दूषित
कर दिया।
शब्दों के
कारण इस दुनियां
में कितनी
मूर्खताएं
चलती रहती है।
शब्द खतरनाक
होते है।
तुम्हारे
भीतर प्रभाव
करने का उनमें
गहरा स्रोत
होता है। वे
तुम्हारे
भीतर कुछ उत्पन्न
कर देते है, और तुम पर
कब्जा किया जा
सकता है।
कल्पना
शक्ति को
समझना है, पतंजलि
कहते है, क्योंकि
ध्यान के
मार्ग पर
शब्दों को छोड़
देना पड़ेगा, ताकि दूसरों
के प्रभाव को
छोड़ा जा सके।
ध्यान रखना, शब्द दूसरों
द्वारा
सिखलाये जाते
हैं, तुम
शब्दों के साथ
नहीं जन्मते।
वे तुम्हें
सिखलाये जाते
है और शब्दों
द्वारा बहुत—सी
पूर्वधारणाएं
सिखला दी जाती
हैं। शब्दों
द्वारा धर्म,
शब्दों
द्वारा
पौराणिक कथा—हर
चीज पोषित कर
दी जाती है।
शब्द माध्यम
हैं सभ्यता के।
समाज के वाहक
है, जानकारियों
के वाहक है।
तुम
चींटियों को
नहीं भड़का
सकते देश की
खातिर लड़ने के
लिए। तुम
उन्हें नहीं भड़का
सकते क्योंकि
वे नहीं
जानतीं कि
राष्ट्र क्या
है। इसलिए जीव—जंतुओं
के राज्य में
कोई युद्ध
नहीं होता।
वहां कोई
युद्ध नहीं, झंडे
नहीं, मंदिर
नहीं, मसजिद
नहीं। और यदि
पशु हमारा
अवलोकन कर
सकते, तो
उन्हें सोचना
ही पड़ता कि
मनुष्य
शब्दों के साथ
मस्त क्यों
है! क्योंकि
लड़ाइयां
निरंतर होती
रहती हैं और
लाखों लोग मार
दिये जाते हैं
केवल शब्दों
के कारण!
कोई
यहूदी है
इसलिए उसे मार
दो। केवल 'यहूदी
' शब्द के
कारण ही।
लेकिन लेबल
बदल दो, नाम
बदल दो, उसे
ईसाई कहो, तब
उसे मारने की
कोई आवश्यकता
नहीं। लेकिन
वह स्वयं लेबल
बदलने को राजी
नहीं होता। वह
कहेगा, 'मैं
मर जाना
ज्यादा पसंद
करूंगा बजाय
इसके कि अपना
नाम बदलू। मैं
एक यहूदी हूं।’
वह वैसा ही
अटल है जैसे
कि दूसरे।
लेकिन ईसाई या
यहूदी दोनों
मात्र शब्द
हैं।
ज्या
पाल सार्त्र
ने जो शीर्षक
अपनी आत्मकथा
को दिया है वह
है 'वर्ड्स ' —शब्द।
और यह सुंदर
है क्योंकि
जहां तक मन का
संबंध है मन
की सारी
आत्मकथा
शब्दों से बनी
होती है और
किसी दूसरी
चीज से नहीं।
और
पतंजलि कहते
है कि इसके
प्रति जाग्रत
रहना पड़ता है
क्योंकि
ध्यान के
मार्ग पर, शब्दों
को पीछे छोड़
देना होता है।
राष्ट्र, धर्म,
शाख, भाषाएं
पीछे छोड़ देनी
पड़ती हैं और
व्यक्ति को निर्दोष
होना होता है,
शब्दों से
मुक्त। जब तुम
शब्दों से
मुक्त हो जाते
हो तो कोई कल्पना
नहीं रहेगी।
और जब कोई
कल्पना नहीं
होती, तुम
सत्य का सामना
कर सकते हो।
वरना तुम
कल्पना किये
चले जाओगे।
यदि
तुम परमात्मा
से मिलने आते
हो,
तुम्हें
बिना किन्हीं
शब्दों के
उससे मिलना चाहिए।
यदि तुम्हारे
पास शब्द हैं,
तो हो सकता
है वह उस पर
पूरा न उतरे
या उससे मेल न
खाये जो
तुम्हारा
उसके बारे में
विचार है।
हिंदू सोचते
हैं कि भगवान
के एक हजार
हाथ हैं, और
यदि भगवान
केवल दो हाथों
के साथ आ जाते
हैं, तो
हिंदू उन्हें
अस्वीकार कर
देगा, यह
कह कर कि 'तुम
किसी तरह
भगवान नहीं हो।
तुम्हारे
केवल दो हाथ
हैं! भगवान के
तो हजारों हाथ
है। मुझे अपने
दूसरे हाथ
दिखाओ। केवल
तभी मैं
तुममें
विश्वास कर
सकता हूं।’
इसी
पिछली सदी के
एक अत्यंत
सुंदर
व्यक्ति थे शिरडी
के साईंबाबा।
साईंबाबा
मुसलमान थे।
या कोई निश्चित
तौर पर नहीं
जानता कि वे
मुसलमान थे या
हिंदू। लेकिन
क्योंकि वे एक
मसजिद में
रहते थे, तो ऐसा
माना जाता है
कि वे मुसलमान
थे। उनका एक
मित्र और
अनुयायी था, हिंदू
अनुयायी, जो
उन्हें प्रेम
करता था, उनका
आदर करता; जिसकी
साईंबाबा में
बहुत आस्था थी।
हर रोज वह
साईंबाबा के
पास आ जाता, उनके दर्शन
पाने को, और
उनका दर्शन
किये बिना वह
जाता नहीं था।
कई बार ऐसा
होता कि उसे
सारे दिन
प्रतीक्षा
करनी पड़ती, लेकिन वह
उनका दर्शन
किये बिना
नहीं जाता। वह
खाना नहीं
खाता, जब
तक साईंबाबा
के दर्शन न कर
लेता।
एक
दिन ऐसा हुआ
कि सारा दिन
बीत गया, और
वहां बहुत—से
लोग इकट्ठे
हुए थे, एक
बड़ी भीड़, इतनी
बडी कि वह
प्रवेश नहीं
कर सका। जब हर
कोई चला गया, तो रात को
उसने
साईंबाबा के
चरण—एकर्श
किये।
साईंबाबा
ने उससे कहा, 'क्यों
तुम नाहक
प्रतीक्षा
करते हो? यहां
आकर मेरे
दर्शन करने की
कोई आवश्यकता
नहीं है, मैं
तुम्हारे पास
आ सकता हूं।
इसे कल से छोड़
दो। अब मैं आ
जाऊंगा
तुम्हारे पास।
इससे पहले कि
तुम अपना भोजन
लो, तुम
मेरा दर्शन
पाओगे।’
वह
शिष्य बहुत
प्रसन्न था।
अगले दिन वह
प्रतीक्षा ही
प्रतीक्षा
करता रहा, लेकिन
कुछ घटित नहीं
हुआ। वस्तुत:
बहुत कुछ घटित
हुआ, लेकिन
उसकी
परिकल्पना के
अनुसार कुछ
घटित नहीं हुआ।
शाम तक वह
बहुत नाराज हो
गया। उसने अभी
तक भोजन नहीं
लिया था, और
क्योंकि
साईंबाबा अब
भी प्रकट नहीं
हुए थे, वह
फिर उनके
दर्शन के लिए
चला गया। वह
बोला, ' आप
वचन देते हैं
और उसे पूरा
नहीं करते?'
साईंबाबा
बोले, 'सिर्फ
एक बार ही
नहीं, तीन
बार प्रकट हुआ।
जब पहली बार
मैं आया, मैं
एक भिखारी था।
तुमने मुझसे
कहा, 'दूर
हटो। यहां मत
आओ।’ दूसरी
बार जब मैं
तुम्हारे पास
आया, एक
बूढ़ी सी के स्वप्न
में., और
तुमने मेरी ओर
देखा तक नहीं।
तुमने अपनी आंखें
बंद कर लीं।’ स्रियों की
ओर न देखना उस
शिष्य की आदत
थी। वह
स्रियों को न
देखने का
अभ्यास कर रहा
था, इसलिए
उसने अपनी आंखें
बंद कर ली थीं।
साईंबाबा
बोले, 'मैं
आया था। लेकिन
तुम क्या आशा
रखते हो? मैं
तुम्हारी आंखों
में
प्रवेश कर
जाऊं—बंद आंखों
में? मैं बिलकुल
वहीं खड़ा हुआ
था, लेकिन
तुमने अपनी आंखें
बंद कर लीं।
फिर तीसरी बार
तुम्हारे पास
कुत्ते के स्वप्न
में आया, लेकिन
तुमने मुझे
अंदर नहीं आने
दिया। तुम एक
डंडा लेकर
दरवाजे पर खड़े
हो गये।’
और
ये तीनों
बातें वस्तुत:
घटित हुई थीं।
ऐसी बातें
सारी मानवता
के साथ घटित
होती रही हैं।
भगवत्ता बहुत स्वप्न
में आती है, लेकिन
तुममें
पूर्वधारणाए
होती हैं; तुममें
पूर्वगठित
परिकल्पना होती
है, तुम
देख नहीं सकते।
परमात्मा को
तुम्हारे
अनुसार प्रकट
होना चाहिए।
और वह कभी
तुम्हारे
अनुसार प्रकट
नहीं होता है।
वह कभी
तुम्हारे
अनुसार प्रकट
होगा भी नहीं।
तुम उसके
लिएनियम नहीं
हो सकते और
तुम कोई शर्तें
नहीं बना सकते।
जब सारी
कल्पनाएं गिर
जाती हैं, केवल
तभी सत्य
प्रकट होता है।
वरना
कल्पनाशक्ति
शर्तें बनाती
जाती है और सत्य
प्रकट नहीं हो
सकता। केवल नग्न
मन में, शून्य
में, खाली
मन में ही
सत्य प्रकट
होता है
क्योंकि तब
तुम उसे विकृत
नहीं कर सकते।
मन की वह
वृत्ति जो
अपने में किसी
विषय—वस्तु की
अनुपस्थिति
पर आधारित
होती है
निद्रा है।
यही
निद्रा की
परिभाषा है।
मन की चौथी
वृत्ति। जब
कोई विषय—वस्तु
नहीं होता है..
निद्रा के
अतिरिक्त मन हमेशा
विषय—वस्तु से
भरा रहता है।
कुछ—न—कुछ
वहां होता है।
कोई विचार चल
रहा होता है, कोई
आवेश होता है,
कोई
आकांक्षा बढ़
रही होती, कोई
स्मृति, कोई
भावी कल्पना,
कोई शब्द, कोई चीज
चलती ही रहती
है। निरंतर
कुछ चलता रहता
है। केवल जब
तुम सोये होते
हो गहरी
निद्रा में, तभी
अंतर्विषय थम
जाते हैं। मन
मिट जाता है, और तुम
स्वयं में
होते हो बिना
किसी विषय—वस्तु
के।
इसे
ध्यान में रख
लेना है क्योंकि
यही अवस्था
समाधि में भी
होने वाली है, केवल
एक अंतर के
साथ—तुम जागरूक
रहोगे। नींद
में तुम जागरूक
नहीं होते, मन पूरी तरह
गैर—अस्तित्व
में चला जाता
है। तुम अकेले
हो जाते हो, अकेले छोड़
दिये जाते हो।
कोई विचार
नहीं होते; केवल
तुम्हारा
अस्तित्व
होता है। लेकिन
तुम जागरूक
नहीं हो।
तुम्हें
विचलित करने
के लिए मन
वहां नहीं है,
लेकिन तुम जागरूक
नहीं हो।
वरना
निद्रा
संबोधि बन
सकती है। विषय—वस्तु
रहित चेतना
वहां है, लेकिन
वह चेतना जागरूक
नहीं है। वह
छिपी हुई है
बीज मात्र में।
समाधि में, वह बीज
प्रस्कुटित
हो जाता है, चेतना जागरूक
हो जाती है।
और यदि चेतना जागरूक
हो और कोई
अंतर्विषय न
रहे—यही तो
लक्ष्य है।
निद्रा हो और जागरूकता
हो, यही है
लक्ष्य।
यह
है मन की चौथी
वृत्ति—निद्रा।
लेकिन वह
लक्ष्य—जागरूकता
के साथ वाली
घटित हुई
निद्रा, मन की
वृत्ति नहीं
है। वह मन के
बाहर है; जागरूकता
मन के परे है।
यदि तुम एक
साथ निद्रा और
जागरूकता को
जोड़ सको, तो
तुम संबोधि पा
जाओगे। लेकिन
यह कठिन है
क्योंकि दिन
में जब हम
जागे हुए होते
हैं तब भी हम
जाग्रत नहीं
होते। यह शब्द
ही भ्रांति—जनक
है। जब हम
सोये हों, तो
हम जागे हुए
कैसे हो सकते
हैं? जब हम
जागे भी होते
हैं, हम
जागे हुए नहीं
होते।
तुम्हें
होशपूर्ण
होना है, जब
तुम जाग्रत
होते हो— अधिक
से अधिक, पूरी
सघनता से
जाग्रत। और
फिर तुम्हें प्रयत्न
करना होता है
सपनों में
जागते रहने का।
सपने देखते
समय तुम्हें जागरूक
रहना पड़ता है।
जब तुम जाग्रत
अवस्था के साथ
सफलता पा जाते
हो और फिर
स्वप्रावस्था
के साथ, तब
तुम तीसरी
अवस्था के साथ
भी सफलता
पाओगे, जो
है निद्रा की।
पहले
तो जागरूक
होने की कोशिश
करो। जिस समय
सड़क पर चलते
हो,
स्वचालित
ढंग से, यंत्रवत
ही मत चलते
चले जाना। हर
क्षण के प्रति,
हर सांस जो
तुम लेते हो
उसके प्रति
सजग हो जाना।
श्वास छोड़ते
हुए, श्वास
लेते हुए, जागरूक
रहो। आख की हर
गति जो तुम
बनाते हो, उसके
प्रति जिसे
तुम देखते हो,
जागरूक रहो।
जो कुछ भी तुम
कर रहे हो, जागरूक
बने रहो, और
उसे जागरूकता
के साथ करो।
तो
रात को, जब
तुम सो रहे
होते हो, जागरूक
बने रहने का
प्रयत्न करो।
रात की अंतिम
अवस्था बीत
रही होगी, स्मृतियां
बह रही होंगी।
जागरूक बने
रहो और जागरूकता
सहित ही सोने
का प्रयत्न
करो। यह कठिन
होगा। लेकिन
यदि तुम
प्रयत्न करो,
तो कुछ
सप्ताह के
भीतर, तुम
झलक पाने
लगोगे। तुम
सोये हुए
होओगे और जागरूक
होओगे।
यदि
तुम ऐसा क्षण
भर के लिए भी
कर लो, तो यह
इतना सुंदर है,
यह इतने
आनंद से भरा
हुआ है, कि
तुम कभी फिर
वैसे ही न रह
पाओगे। और फिर
तुम नहीं
कहोगे कि सोना
तो सिर्फ समय
गंवाना है। यह
सर्वाधिक
मूल्यवान
साधना बन सकती
है। क्योंकि
जब जागने की
अवस्था चल रही
होती और
निद्रा आरंभ
होती है तो
परिवर्तन
होता है। एक
नये आयाम का
परिवर्तन
भीतर होता है।
जब तुम एक
आयाम से दूसरे,
इस तरह आयाम
बदलते हो तो
एक क्षण के
लिए, जब
तुम इन दोनों
के बीच होते
हो तो एक
निक्रिय गियर
(आयाम) आता है।
वह कोई
वास्तविक
गियर नहीं
होता है।
निक्रियता की
वह घड़ी बहुत
सार्थक होती
है।
यही
मन के साथ
घटित होता है।
जब तुम जाग्रत
अवस्था से
निद्रा की ओर
बढ़ते हो, तब एक
घड़ी होती है
जब तुम न तो
जागे हुए होते
हो और न सोये
हुए। उस घड़ी
में कोई गियर
नहीं होता, यंत्र—प्रक्रिया
कार्य नहीं कर
रही होती है।
तुम्हारा स्वचलित
व्यक्तित्व
उस घड़ी में
निष्प्रभ हो
जाता है। उस
घड़ी में
तुम्हारी
पुरानी आदतें
तुम्हें निश्चित
ढांचे में
जाने के लिए
बाध्य नहीं कर
सकतीं। उस घड़ी
में तुम
छुटकारा पा
सकते हो और जागरूक
हो सकते हो।
भारत
में उस क्षण
को 'संध्या' कहा
जाता है—दो
अवस्थाओं के
बीच का घड़ी।
दो संध्याएं
होती हैं। दो
बीच की घड़ियां
होती हैं—एक
तो रात में जब
तुम जाग्रत
अवस्था से
निद्रा की ओर
जाते हो, और
दूसरी जब तुम
सुबह को फिर
निद्रा से
जागने की तरफ
चलते हो। इन
दो घड़ियों को
हिंदुओं ने
प्रार्थना की
घड़ियां कहा है—'संध्याकाल';
बीच के काल।
क्योंकि तब
तुम्हारा
व्यक्तित्व
एक क्षण के लिए
वहां नहीं
होता है। उस
एक क्षण में
तुम शुद्ध
होते हो, निर्दोष।
और यदि उस
क्षण में तुम जागरूक
हो सको, तो
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
बदल चुकी होगी।
तुमने रूपांतरण
के लिए नींव
रख दी होगी।
इसलिए
प्रयत्न करो, सपनों
की अवस्था में
जागरूक बनने
का। इसके लिए
विधियां हैं
कि सपनों की
अवस्था में जागरूक
कैसे बना जाये?
एक काम करो,
यदि तुम
प्रयास करना
चाहते हो, पहले
तो जाग्रत
अवस्था में
प्रयास करो।
जब तुम जाग्रत
अवस्था में
सफल हो जाओ, तब तुम
स्वप्रावस्था
में सफलता पा
सकोगे। ?' क्योंकि
सपने देखना
अधिक गहरा है,
अधिक
प्रयास की
आवश्यकता
होगी। यह भी
कठिन है, क्योंकि
सपने में क्या
किया जा सकता
है! और तुम इसे
कैसे कर सकते
हो!
स्वप्नवस्था
के लिए
गुरजिएफ ने एक
सुंदर विधि
विकसित की थी।
यह
तिब्बतियों
की पुरानी
विधियों में
से एक है, और
तिब्बती खोजियों
ने स्वप्न—संसार
का रहस्य
बहुत गहरे ढंग
से समझा था।
वह विधि है : जब
तुम सोने ही
वाले होते हो,
तो एक बात
ध्यान में
रखने की कोशिश
करो—कोई एक
बात : उदाहरण
के तौर पर
गुलाब ही। एक
गुलाब की
कल्पना भर करो।
केवल सोचते
जाओ कि तुम
उसे स्वप्न
में देखोगे। उसे
मन में स्पष्ट
स्वप्न से
देखो, और
सोचते जाओ कि
तुम्हारे स्वप्न
में, जो
कोई भी स्वप्न
हो, वह
गुलाब होगा ही।
उसका रंग, उसकी
खुशबू हर चीज
की कल्पना करो।
उसे महसूस करो
जिससे कि वह
तुम्हारे
भीतर जीवंत हो
जाये। और उसी
गुलाब सहित सो
जाओ।
कुछ
दिनों के भीतर
तुम उस गुलाब
को अपने स्वप्न
में ला पाओगे।
यह एक बड़ी
सफलता है
क्योंकि अब
तुमने कम—से—कम
अपने स्वप्न
के एक हिस्से
का तो निर्माण
कर लिया है।
अब तुम मालिक
हो। कम—से—कम स्वप्न
का एक हिस्सा, वह
फूल बन आया है।
क्योंकि
तुम्हीं ने
इसे बनाया है
आने के लिए। और
जिस क्षण तुम
फूल को देखते
हो, तुम्हें
तत्क्षण
ध्यान आयेगा
कि यह तो सपना
है।
किसी
और चीज की
आवश्यकता
नहीं। वह फूल
और यह जागरूकता
कि यह स्वप्न
है,
दोनों परएकर
संबद्ध हो
जाते है
क्योंकि
तुमने ही सपने
में फूल का
निर्माण किया
है। तुम
निरंतर सोचते
रहे थे कि यह
फूल सपने में
दिखना चाहिए,
और वह फूल
दिखा। फौरन
तुम पहचान
जाओगे कि यह
तो सपना है।
और सपने का, फूल का, सपने
और उसके आस—पास
की हर चीज का
सारा स्वरूप
बदल जायेगा।
तुम जागरूक हो
चुके हो।
तब
तुम सपने का
आनंद ऐसे नये
ढंग से ले
सकते हो जैसे
कि वह कोई
फिल्म हो। और
फिर यदि तुम
सपने को रोकना
चाहो, तुम उसे
आसानी से रोक
सकते हो और
उसे दूसरी दिशा
में ले जा
सकते हो।
लेकिन इसमें
थोड़ा अधिक समय
और अभ्यास
चाहिए होगा।
फिर तुम अपने
सपनों का
निर्माण
स्वयं कर सकते
हो। सपनों का शिकार
होने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। तुम
अपने स्वप्न
स्वयं
निर्मित कर
सकते हो, तुम
अपने सपनों को
जी सकते हो।
इससे पहले कि
तुम सो जाओ, तुम कोई
विषय ले सकते
हो, और तुम
अपने सपनों को
निदेर्शित कर
सकते हो किसी
फिल्म—निर्देशक
की तरह ही।
तुम इससे किसी
प्रसंग का
निर्माण कर
सकते हो।
स्वप्न—सृजन
का प्रयोग
तिब्बतियों
ने किया है, क्योंकि
स्वप्न—सृजन
द्वारा तुम
बदल सकते हो
अपना पूरा मन;
उसका सारा
ढांचा। और जब
तुम सपनों के
साथ सफल हो
जाते हो, तब
तुम निद्रा के
साथ सफल हो
सकते हो।
लेकिन स्वप्नरहित
निद्रा के लिए
कोई तरकीब
नहीं है, क्योंकि
उसमें कोई
विषय—वस्तु
नहीं है।
तरकीब तो केवल
विषय के साथ
काम कर सकती
है। चूंकि कोई
विषय ही नहीं
है, इसलिए
कोई तरकीब काम
नहीं दे सकती।
लेकिन सपनों
द्वारा तुम जागरूक
होना सीख
जाओगे, और
वही जागरूकता
निद्रा में
जारी रखी जा
सकती है।
स्मृति
है पिछले
अनुभव को
स्मरण करना।
ये
परिभाषाएं है।
पतंजलि चीजों
को स्पष्ट
कर रहे है
जिससे कि बाद
में तुम उलझन
में न पड़ जाओ।
स्मृति क्या
है?
पिछले
अनुभवों को
स्मरण करना।
निरंतर स्मृति
घटित हो रही
है। जब कभी
तुम कुछ देखते
हो, फौरन
स्मृति बीच
में चली आती
है और उसे
विकृत कर देती
है। तुम पहले
मुझे देख चुके
हो। जब तुम
मुझे फिर
देखते हो, स्मृति
तत्काल चली
आती है। यदि
तुमने मुझे पांच
वर्ष पहले
देखा था, तब
पांच वर्ष
पहले की
तस्वीर, वह
पिछली तस्वीर,
तुम्हारी
दृष्टि में आ
जाती है और
तुम्हारी आंखों
को भर देती
है। तुम मुझे
उस तस्वीर
द्वारा
देखोगे।
इसीलिए, यदि
तुमने अपने
मित्र को बहुत
दिनों से नहीं
देखा होता है,
तो जिस क्षण
उसे देखते हो
तुरंत कह देते
हो, 'तुम
बहुत दुबले
दिख रहे हो', या 'तुम
बहुत अस्वस्थ
दिख रहे हो', या 'तुम्हारा
मोटापा बढ़ गया
है।’ तुरंत
तुम यह कह
देते हो।
क्यों? क्योंकि
तुम तुलना कर
रहे हो।
स्मृति बीच
में आ गयी है।
वह आदमी शायद
स्वयं न जानता
हो कि वह मोटा
हो गया है या
कि पतला हो
गया है, लेकिन
तुम जान जाते
हो क्योंकि
फौरन तुम तुलना
कर सकते हो।
वह पिछला, वह
उसका अंतिम
चित्र, जो
तुम्हारे मन
में था, चला
आता है और
फौरन तुम
तुलना कर सकते
हो।
यह
स्मृति निरंतर
रहती है। यह
प्रक्षेपित
हो रही है हर
चीज पर, जिसे
तुम देखते हो।
लेकिन यह
पिछली स्मृति
छोड़नी होती
है। इसे
तुम्हारे बोध
में सतत हस्तक्षेप
नहीं बने रहना
चाहिए क्योंकि
यह तुम्हें
नये को जानने
नहीं देती। तुम
हमेशा पुराने
ढांचे जानते
हो। वह
तुम्हें नये
को अनुभव करने
नहीं देती, वह हर चीज को
पुराना और रही
बना देती है।
और स्मृति के
कारण, हर
व्यक्ति ऊबा
हुआ है, सारी
मानवता ऊबी
हुई है। किसी
के चेहरे की
ओर देखो, हर
कोई ऊबा हुआ
दिखता है।
मरने की हालत
तक ऊबे हुए।
कुछ नया नहीं
है, कोई
उल्लास नहीं
बच्चे
इतने आनंदित
क्यों होते है? और
वे इतनी
साधारण बातों
को लेकर
आनंदित हो जाते
है कि तुम सोच
नहीं सकते कि
आनंद घटित
कैसे हो रहा
है। समुद्र—तट
के कुछ रंगीन
पत्थरों की
वजह से ही वे
नाचना शुरू कर
देते है।
उन्हें क्या
हो रहा है? तुम
इस तरह क्यों
नहीं नाच सकते?
क्योंकि
तुम जानते हो कि
वे तो केवल
पत्थर ही है।
तुम्हारी
स्मृति इनमें
है। लेकिन
बच्चों के लिए
इनमें कोई
स्मृति नहीं
है। वे पत्थर
एक नयी घटना हैं—वैसी
नयी जैसे कि
चांद पर
पहुंचना।
मैं
पढ रहा था कि
जब पहला आदमी
चांद पर
पहुंचा, तो
संसार में
सर्वत्र
उत्तेजना थी।
हर व्यक्ति
अपना टी वी.
देख रहा था
लेकिन पंद्रह
मिनट के भीतर
हर कोई ऊब गया,
समाप्त हो
गयी वह बात।
आगे करने को
क्या है? आदमी
चांद पर चल ही
रहा है। केवल
पंद्रह मिनट
बाद वे ऊब गये,
और इस स्वप्न
के सफल होने
में लाखों
वर्ष लगे। अब
किसी को
दिलचस्पी न थी
उसमें जो घटित
हुआ था।
हर
चीज पुरानी पड़
जाती है।
तत्काल वह
स्मृति बन
जाती है, वह
पुरानी हो
जाती है। यदि
केवल तुम अपनी
स्मृतियों को
गिरा सकते! लेकिन
गिराने का
मतलब यह नहीं
है कि तुम
स्मरण रखना
बंद कर दो।
गिराने का तो
इतना ही मतलब
है कि तुम इस
सतत हस्तक्षेप
को गिरा देते
हो। जब तुम्हें
आवश्यकता हो,
तुम स्मृति
को वापस
सक्रियता में
ला सकते हो।
लेकिन जब
तुम्हें इसकी
आवश्यकता न हो,
इसे चुपचाप
पड़ा रहने दो।
तुम्हारे मन
में यह निरंतर
न आती रहे।
अतीत
यदि निरंतर
वर्तमान रहे
तो वह वर्तमान
को घटित न
होने देगा। और
यदि तुम
वर्तमान को खो
देते हो तो तुम
सब खो देते हो।
आज
इतना ही।
Your writing style is very good and you write in simple language, after seeing your blog we started this पतंजलि मेधा वटी के फायदे, नुकसान, उपयोग और कीमत and पतंजलि कंठामृत वटी के फायदे, नुकसान, उपयोग और कीमत Have written the article, I think you should give us some suggestions so that we can also improve our blogging career. As you increase..!
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