दिनांक
27 दिसम्बर, 1973;
वुडलैण्डस,
बंबई।
योगसूत्र:
वृत्तय:
पञ्चतय्य:
क्लिष्टाक्लिष्टा:।।
5।।
मन
की वृत्तियां
पाच हैं। वे
क्लेश का
स्रोत भी हो
सकती हैं और
अक्लेश का भी।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:।।
6।।
वे
वृत्तियां
हैं प्रमाण
(सम्यक ज्ञान), विपर्यय
(मिथ्या ज्ञान),
विकल्प
(कल्पना), निद्रा
और स्मृति।
मन
दासता का
स्रोत हो सकता
है और मुक्ति
का भी। मन इस
संसार का
द्वार बन जाता
है,
प्रवेश बन ?
जाता है
लेकिन वह बाहर
निकलने का
द्वार भी बन
सकता है। मन
तुम्हें नरक
की ओर ले जाता
है, लेकिन
मन तुम्हें
स्वर्ग की ओर
भी ले जा सकता है।
यह इस पर
निर्भर करता
है कि मन का
उपयोग कैसे किया
जाता है। मन
का ठीक उपयोग
ध्यान बन जाता
है, मन का
गलत उपयोग
पागलपन बन
जाता है।
हर
व्यक्ति में
मन है। अंधकार
और प्रकाश
दोनों
संभावनाएं
इसमें विहित
हैं। मन स्वयं
न शत्रु है और
न मित्र है।
तुम इसे मित्र
बना सकते हो
और तुम इसे
शत्रु बना
सकते हो। यह
तुम पर निर्भर
करता है—तुम
जो मन के पीछे
छिपे हुए हो।
यदि तुम अपने
मन को अपना
उपकरण बना
सकते हो, अपना
दास, तो मन
वह मार्ग बन
जाता है जिसके
द्वारा तुम चरम
साध्य तक
पहुंच सकते हो।
यदि तुम गुलाम
बन जाते हो और
मन को मालिक
होने देते —हो,
तब यह मन जो
मालिक बन गया
है तुम्हें
चरम मनोव्यथा
और अंधकार तक
ले जायेगा।
सारी
तरकीबें, सारी
विधियां, योग
के सारे मार्ग
वास्तव में गहरे
स्वप्न से
एक ही समस्या
से संबंधित
हैं : मन का
उपयोग कैसे
करें। ठीक
प्रकार से
उपयोग किया
हुआ मन उस
बिंदु तक पहुंच
जाता है जहां
यह अ—मन बन
जाता है। गलत
प्रकार से
उपयोग किया
हुआ मन उस
बिंदु तक पहुंच
जाता है जहां
यह मात्र
अराजकता बना
होता है। बहुत—सी
आवाजें, परस्पर
विरोधी, विरोधाभाषी
भ्रमभरी, विक्षिप्त।
पागलखाने
में बैठे एक
पागल आदमी ने
और बोधि—वृक्ष
के नीचे बैठे
बुद्ध ने, दोनों
ने मन का
प्रयोग किया
है। दोनों मन
में से गुजरे
हैं लेकिन
बुद्ध उस परिस्थिति
तक आ पहुंचे
हैं जहां मन
विलीन हो जाता
है। ठीक
प्रकार से
उपयोग करने पर
यह मिटने लगता
है। और एक घड़ी
आती, जब यह
होता ही नहीं
है। उस पागल
आदमी ने भी मन
का उपयोग किया
है। गलत ढंग
से उपयोग किया
हुआ मन बंटा
हुआ हो जाता
है। गलत
प्रकार से
उपयोग किया मन
अनेक बन जाता
है। गलत
प्रकार से
प्रयुक्त
होने पर यह भीड़
बन जाता है।
और अंत में
केवल पागल मन
ही वहां होता
है और तुम
बिलकुल
अनुपस्थित
होते हो।
बुद्ध
का मन समाप्त
हो गया है, लेकिन
बुद्ध अपनी समग्नता
में उपस्थित
हैं। पागल
आदमी का मन
समय हो गया है,
और वह स्वयं
पूरी तरह
अनुपस्थित हो
गया है। ये दो
छोर हैं। यदि
तुम और
तुम्हारा मन
दोनों साथ बने
रहते हैं, तब
तुम दुख में
रहोगे। या तो
तुम्हें
विलीन होना
होगा या मन को
विलीन होना
होगा। यदि मन
मिट जाता है, तब तुम सत्य
को उपलब्ध
करते हो। यदि
तुम मिट जाते
हो, अनुपस्थित
हो जाते हो, तब तुम
विक्षिप्तता
को पाते हो।
और यही संघर्ष
है. कौन मिटने
वाला है? तुम्हें
मिटना है या
मन को? यही
है द्वंद्व—सारे
संघर्ष की
जड़।
पतंजलि
के ये सूत्र
तुम्हें एक—एक
कदम मन की समझ
तक ले
जायेंगे—क्या
है यह; कितने
प्रकार के रूप
यह ले सकता है;
किस प्रकार
की वृत्तियां
इसमें चली आती
हैं; तुम
कैसे इसका
उपयोग कर सकते
हो और कैसे
तुम इसके पार
जा सकते हो। और
ध्यान रहे, तुम्हारे
पास अभी और
कुछ भी नहीं
है, केवल
मन है।
तुम्हें इसका
ही उपयोग करना
है।
यदि
तुम इसका गलत
उपयोग करते हो
तो तुम अधिक से
अधिक दुख में
गिरते चले
जाओगे। तुम
दुख में हो, क्योंकि
बहुत जन्मों
से तुमने अपने
मन का उपयोग
गलत ढंग से
किया है। मन
मालिक बन गया
है और तुम दास
मात्र हो; एक
परछाईं, जो
मन के पीछे चल
रही है। तुम
मन से कह नहीं
सकते, 'रुको।’
तुम अपने मन
को आशा नहीं
दे सकते।
तुम्हारा मन
आशा दिये चला
जाता है और
तुम्हें उसके
पीछे चलना
पड़ता है।
तुम्हारी
अंतस सत्ता एक
परछाईं बन गयी
है, एक
दास। और मन का
उपकरण मालिक
हो गया है।
मन
कुछ और नहीं, केवल
एक उपकरण है।
यह तुम्हारे
हाथों और पांवों
की तरह ही है।
जब तुम अपने
पांवों और
हाथों को कुछ
करने की आशा
देते हो, तो
वे गति करते
हैं। जब तुम
कहते हो, 'रुको',
वे रुक जाते
हैं। तुम
मालिक हो। यदि
मैं अपना हाथ
हिलाना चाहता
हूं तो मैं
इसे हिलाता
हूं। यदि मै इसे
नहीं हिलाना
चाहता, तो
मैं इसे नहीं
हिलाता। हाथ
मुझसे नहीं कह
सकता, 'चाहे
कुछ करो तुम, अब मैं
हिलूंगा; मैं
नहीं सुनने
वाला
तुम्हारी। और
यदि मेरे बावजूद
मेरा हाथ हिलना
शुरू कर दे, तब शरीर में
अव्यवस्था मच
जायेगी।
लेकिन ऐसा ही
घटित हो गया
है मन के साथ।
तुम
नहीं सोचना
चाहते, पर मन
सोचता चला
जाता है। तुम
सोना चाहते
हो। तुम अपने
बिस्तर पर लेट
कर करवटें
बदलते रहते हो।
तुम सो जाना
चाहते हो, लेकिन
मन चलता रहता
है। मन कहता
है 'नहीं, मुझे कुछ
सोचना ही है।
तुम मन से
कहते चले जाते
हो, 'रुको', लेकिन यह
कभी तुम्हारी
नहीं सुनता।
तुम कुछ नहीं
कर सकते। मन
भी एक उपकरण
है, लेकिन
तुमने इसे
बहुत अधिकार
दे दिया है।
यह अधिनायक बन
गया है। और
यदि इसे तुम
इसके ठीक स्थान
पर रखने का
प्रयत्न करो तो
यह बड़ा संघर्ष
करेगा।
बुद्ध
भी मन का
प्रयोग करते, लेकिन
वे अपने मन का
प्रयोग उस तरह
करते जैसे तुम
अपनी टांगों
का करते हो।
लोग मेरे पास
आते रहते हैं
और पूछते है, 'बुद्धपुरुष
के मन को क्या
हो जाता है? क्या वह
विलीन ही हो
जाता है ' क्या
वे उसका उपयोग
नहीं कर सकते?'
यह
मालिक के रूप
में विलीन हो
जाता है, लेकिन
दास के रूप
में बना रहता
है। वह एक
निश्चेष्ट
उपकरण के रूप
में बना रहता
है। यदि कोई बुद्ध
इसका उपयोग
करना चाहते
हैं, तो वे
इसका उपयोग कर
सकते हैं। जब
बुद्ध तुमसे
बात करते है
तो उन्हें
इसका उपयोग
करना ही होगा,
क्योंकि
वाणी की कोई
संभावना नहीं
है मन के बिना।
मन का उपयोग
करना ही होगा।
तुम बुद्ध के
पास जाते हो
और वे तुम्हें
पहचान जाते
हैं। पहचान
जाते हैं कि
तुम उनके पास
पहले गये हो।
इसके लिए मन
का उपयोग
उन्हें करना
होता है। बिना
मन के कोई
पहचान नहीं
होती। बिना मन
के कोई स्मृति
नहीं होती।
लेकिन वे मन
का उपयोग
मात्र करते
हैं, यह
ध्यान रहे; यही अन्तर
है। तुम मन के
द्वारा
इस्तेमाल किये
जा रहे हो। जब
भी वे इसका
उपयोग करना
चाहते हैं, वे इसका
उपयोग करते
है। जब कभी वे
इसका उपयोग नहीं
करना चाहते, वे इसका
उपयोग नहीं
करते। यह
निश्चेष्ट
उपकरण है; मन
की उनके ऊपर
कोई पकड़ नहीं।
बुद्ध
दर्पण की तरह
बने रहते है।
यदि तुम दर्पण
के सामने आते
हो,
दर्पण में
तुम्हारी
छाया पड़ती है।
फिर तुम आगे
बढ़ जाते हो, वह
प्रतिबिम्ब
चला जाता है, और दर्पण
खाली होता है।
लेकिन तुम
दर्पण जैसे
नहीं हो। तुम
किसी को देखते
हो, वह
आदमी चला जाता
है, पर
उसके बारे में
तुम्हारा
सोचना चलता
रहता है; प्रतिबिंब
बना रहता है।
तुम उसके बारे
में सोचते चले
जाते हो। यदि
तुम रुकना भी
चाहो, तो
भी मन सुनेगा
नहीं।
मन
पर स्वामित्व
बनाना योग है।
और
जब पतंजलि
कहते है 'मन की
समाप्ति', तो
उनका अर्थ है—मालिक
के स्वप्न
में मन की
समाप्ति। मन
का मालिक हो
जाना समाप्त
हो जाता है।
तब वह सचेष्ट
नहीं रहता। तब
वह एक
निश्रेष्ट
उपकरण होता है।
तुम आदेश देते
हो और वह
कार्य करता है।
तुम आदेश नहीं
देते वह स्थिर
बना रहता है।
वह प्रतीक्षा
भर कर रहा है।
वह स्वयं की
बलपूर्वक
घोषणा नहीं कर
सकता। वह दावा
खो गया है; आक्रामकता
खो गयी है। मन
तुम्हें
नियंत्रित
करने का
प्रयत्न नही
करेगा।
अभी
स्थिति उल्टी
है। तुम मालिक
कैसे बन सकते
हो?
तुम मन को
उसके स्थान पर
कैसे रख सकते
हो, जहां
तुम इसका
उपयोग कर सकते
हो और जहां, यदि तुम
इसका उपयोग
नहीं करना
चाहते, तुम
इसे एक ओर रख
चुप बने रह
सकते हो? मन
के इस सारे
रचनातंत्र को
समझना होगा।
अब हम सूत्र
में प्रवेश
करेंगे।
'मन की
वृत्तियां
पांच हैं। वे
क्लेश के
स्रोत भी हो
सकती हैं और
अक्लेश के भी।’
पहली
बात समझने की
यह है कि मन
शरीर से अलग
कोई चीज नहीं
है,
इसे ध्यान
में रखना। मन
शरीर का ही
हिस्सा है। यह
शरीर ही है, लेकिन गहरे स्वप्न
से सूक्ष्म।
यह शरीर की एक
अवस्था है, लेकिन बड़ी
नाजुक, बड़ी
परिष्कृत।
तुम इसे पक्क
नहीं सकते
लेकिन शरीर के
द्वारा तुम इस
पर प्रभाव डाल
सकते हो। यदि
तुम नशा करते
हो, यदि
तुम एल एस डी
लेते हो, या
मारिजुआना या
शराब या और
कुछ लेते हो, तो तुरंत मन
पर असर पड़ता
है। नशे की
चीज शरीर में
जाती है, मन
में नहीं; लेकिन
मन पर असर
पड़ता है। शरीर
का सबसे
सूक्ष्म
हिस्सा है मन।
इसके
जो विपरीत है
वह भी सत्य है।
मन को
प्रभावित करो
और शरीर पर
प्रभाव पड़ता है।
सम्मोहन में
यही कुछ होता
है। एक
व्यक्ति जो
नहीं चल सकता, जो
कहता है कि
उसे पक्षाघात
हुआ है, सम्मोहन
के अंतर्गत चल
सकता है।
तुम्हें
पक्षाघात
नहीं हुआ, लेकिन
यदि सम्मोहन
के अंतर्गत यह
कहा जाता है कि
तुम्हारे
शरीर को अब
पक्षाघात हो
गया है, तो
तुम चल नहीं
सकोगे। और
पक्षाघाती
व्यक्ति
सम्मोहन के
अंतर्गत चल
सकता है। क्या
हो रहा है? सम्मोहन
मन में जाता
है, सम्मोहन
संकेत मन में
जाता है। तब
शरीर भी पीछे
चल पड़ता है।
सबसे
पहली बात
समझनी होगी—मन
और शरीर दो
नहीं है। यह
पतंजलि की
सबसे गहरी
खोजों में से
एक खोज है। अब
आधुनिक
विज्ञान तक भी
इसे मान्यता
देता है।
लेकिन पश्चिम
में यह ज्ञान
बिलकुल नया है।
अब वे कहते
हैं कि शरीर
और मन के
विभाजन की बात
करना ठीक नहीं
है। वे कहते
हैं कि यह 'साइकोसोमैटिक'
है; यह
मनःशारीरिक
है। ये दोनों
शब्द एक घटना
के दो कार्य
भर है। एक छोर
मन है दूसरा छोर
शरीर है, अत:
तुम एक को
बदलने के लिए
किसी दूसरे पर
कार्य कर सकते
हो।
शरीर
के पास क्रिया
के पांच अवयव
हैं—पांच
इंद्रियां, क्रिया
के पांच उपकरण।
मन की पांच
वृत्तियां
हैं, क्रिया
के पांच स्वप्न।
मन और शरीर एक
हैं। शरीर
पांच
क्रियाओं में
बंटा हुआ है, मन भी पांच
क्रियाओं में
बंटा हुआ है।
हम हर क्रिया
के विस्तार
में जायेंगे।
इस
सूत्र के
संबंध में
दूसरी बात यह
है कि मन की
क्रियाएं
क्लेश का
स्रोत भी हो
सकती हैं और
अक्लेश का भी।
मन की ये पांच
वृत्तियां, मन
की यह समग्नता
तुम्हें गहरी
वेदना में
पहुंचा सकती
हैं। पहुंचा
सकती हैं दुख
में, पीड़ा
में। और यदि
तुम मन का, इसकी
क्रियात्मकता
का उपयोग ठीक
ढंग से करते
हो, तो ये
तुम्हें गैर—दुख
में भी ले जा
सकती हैं
गैर—दुख
शब्द बड़ा
अर्थपूर्ण है।
पतंजलि नहीं
कहते कि मन
तुम्हें आनंद
में ले जायेगा, परमआनंद
में ले जायेगा—नहीं।
यह तुम्हें
दुख में ले जा
सकता है यदि
तुम इसका गलत
ढंग से उपयोग
करते हो, यदि
तुम इसके
गुलाम बन जाते
हो। लेकिन यदि
तुम मालिक बन
जाओ, तो यह
मन तुम्हें
गैर—दुख में
ले जा सकता है,
आनंद में
नहीं।
क्योंकि आनंद
तुम्हारा
स्वभाव ही है।
मन तुम्हें उस
तक नहीं ले जा
सकता। लेकिन
यदि तुम गैर—दुख
में हो, तो आंतरिक
आनंद बहना शुरू
हो जाता है।
आनंद
वहां भीतर सदा
से ही है। यह
तुम्हारा
निजी स्वभाव
है। यह
प्राप्त करने
वाली या
अर्जित करने
वाली कोई चीज
नहीं है। यह
कहीं और
पहुंचने और
पाने की चीज
नहीं है। तुम
इसके साथ
जन्मे हो; तुम्हारे
पास यह है ही।
यह अवस्था
मिली हुई ही
है। इसीलिए
पतंजलि नहीं
कहते कि मन
तुम्हें दुख
या आनंद में
ले जा सकता है।
नहीं, वे
पूरे वैज्ञानिक
हैं, बहुत
परिशुद्ध हैं।
वे एक भी शब्द
ऐसा नहीं
प्रयोग
करेंगे जो तुम्हें
कोई झूठी
सूचना दे। वे
सीधे ही कहते
हैं कि या तो
दुख में या
गैर—दुख में।
बुद्ध
ने भी कई बार
यही कहा था; जब—जब
खोजी उनके पास
आते—और खोजी
आनंद प्राप्त
करने के पीछे
ही पड़े होते
हैं—वे बुद्ध
से पूछते, 'हम
आनंद तक कैसे
पहुंच सकते
हैं, परमआनंद
तक?' वे
कहते, 'मैं
नहीं जानता।
मैं तुम्हें
केवल वह मार्ग
दिखा सकता हूं
जो गैर—पीड़ा
तक ले जाता है,
केवल दुख की
अनुपस्थिति
तक ले जाता है।
मैं सुनिश्रित
आनंद के बारे
में कुछ नहीं
कहता; नकारात्मक
के बारे में
ही कहता हूं।
मैं तुम्हें
संकेत दे सकता
हूं कि गैर—दुख
के संसार में
कैसे रहा जाये।’
इतना
भर ही है जो
विधियां कर
सकती हैं। एक
बार जब तुम
गैर—पीड़ा की
अवस्था में
होते हो, आंतरिक
आनंद बहने
लगता है। लेकिन
वह मन से नहीं
आता, वह
तुम्हारी आंतरिक
सत्ता से आता
है। इसलिए मन
का आनंद से
कुछ लेना—देना
नहीं है। मन
इसे निर्मित
नहीं कर सकता
है। यदि मन
दुख में होता
है, तब मन
बाधा बन जाता
है। यदि मन
गैर—दुख में
होता है, तब
मन द्वार हो
जाता है।
लेकिन यह
निर्माणकर्ता
नहीं होता, यह कुछ कर
नहीं रहा होता।
तुम
खिड़कियां
खोलते हो और
सूर्य की
किरणें प्रवेश
करती हैं।
खिड़कियां
खोलने के
द्वारा तुम
सूर्य का निर्माण
नहीं कर रहे
होते। सूर्य
वहां था ही।
यदि वह वहां
नहीं होता, तब
खिड़कियों को
केवल खोल देने
से किरणें
प्रविष्ट न
होतीं। पर
तुम्हारी
खिड़की रुकावट
बन सकती है।
हो सकता है
बाहर सूर्य की
किरणें हों, लेकिन खिडकी
बंद है। खिडकी
बाधा डाल सकती
है या वह अंदर
आने दे सकती
है। वह राह बन
सकती है, लेकिन
वह
निर्माणकर्त्री
नहीं हो सकती।
वह उन किरणों
का निर्माण
नहीं कर सकती।
वे किरणें
वहां हैं।
तुम्हारा
मन यदि दुखी
होता है, तो
बंद हो जाता
है। ध्यान रहे,
दुख का एक
लक्षण बंदपन
है। जब कभी
तुम दुख में
होते हो, तुम
बंद हो जाते
हो। जब कभी
तुम कोई व्यथा
अनुभव करते हो,
तुम संसार
के प्रति बंद
होते हो; अपने
सबसे प्रिय
मित्र तक के लिए
भी तुम बंद
होते हो। जब
तुम दुख में
होते हो तुम
पली, अपने
बच्चों, अपने
प्रिय तक के
लिए बंद होते
हो, क्योंकि
दुख तुम्हें
भीतर एक
सिकुडन देता
है। तुम
सिकुड़ते हो।
हर ओर से तुम
अपने द्वार
बंद कर लिये
होते हो।
इसीलिए
दुख में लोग
आत्महत्या की
बात सोचने लगते
हैं।
आत्महत्या का
मतलब है
संपूर्ण
बंदपन। किसी
संवाद की कोई
संभावना ही
नहीं है, किसी
द्वार की कोई
संभावना नहीं।
एक बंद दरवाजा
भी खतरनाक
होता है। कोई
इसे खोल सकता
है, इसलिए
दरवाजे को ही
नष्ट कर दो।
सारी
संभावनाओं को
नष्ट कर दो।
आत्महत्या का
अर्थ है—अब
मैं किसी भी
द्वार—दरवाजे
के खुलने की
सारी
संभावनाओं को
नष्ट करने जा
रहा हूं। अब
मैं स्वयं को
संपूर्णतया
बंद कर रहा
हूं।
जब
कभी तुम दुख
में होते हो, तुम
आत्महत्या
की सोचना शुरू
कर देते हो।
जब तुम खुश
होते हो, तुम
आत्महत्या की
बात सोच तक
नहीं सकते।
तुम इसकी कल्पना
भी नहीं कर
सकते। लोग
आत्महत्या
क्यों करते
हैं, तुम
इस बारे में
सोच तक नहीं
सकते। जीवन
इतना सुख देने
वाला है, जीवन
एक गहरा संगीत
है, तो भी
लोग अपना जीवन
नष्ट क्यों कर
लेते हैं? यह
असंभव लगता है।
ऐसा
क्यों है कि
जब तुम खुश
होते हो तब
आत्महत्या
असंभव लगती है? क्योंकि
तुम खुले होते
हो। जीवन
तुममें
प्रवाहित
होता है। जब
तुम प्रसन्न
हो, तब
तुम्हारे पास
कहीं बड़ी
आत्मा होती है,
तब आत्मा
फैलती है। जब
तुम अप्रसन्न
होते हो, तुम्हारे
पास कहीं छोटी
आला होती है, एक सिकुड़न
होती है।
जब
कोई अप्रसन्न
होता है, तब
उसका स्पर्श
करो, उसका
हाथ अपने हाथ
में लो। तुम
अनुभव करोगे
कि उसका हाथ
मरा हुआ है।
उसके द्वारा
कुछ नहीं बह
रहा है। कोई
प्रेम नहीं, कोई ऊआ नहीं।
वह मात्र
ठण्डा है, जैसे
कि वह किसी
लाश का हाथ हो।
लेकिन जब कोई
प्रसन्न होता
है और तुम
उसका हाथ छुओ,
वहां कुछ
संप्रेषित
होता है।
ऊर्जा बह रही
है। उसका हाथ
मरा हुआ हाथ
भर नहीं है, उसका हाथ एक
पुल बन गया है।
उसके हाथ
द्वारा कोई
ऊर्जा तुम तक
आती है, संचारित
होती है, जुड़ती
है। ऊध्या
बहती है; तुम
तक पहुंचती है।
वह तुममें
बहने का हर प्रयत्न
करता है और
तुम्हें भी
अपने में बहने
देता है।
जब
दो व्यक्ति
प्रसन्न होते
हैं,
वे एक हो
जाते हैं।
इसीलिए प्रेम
में एकल घटित
होता है और
प्रेमी सोचने
लगते हैं कि
वे दो नहीं
हैं। वे दो
होते हैं, और
वे महसूस करने
लगते हैं कि
वे दो नहीं
हैं क्योंकि
प्रेम में वे
इतने खुश होते
है कि पिघलाव
घटित हो जाता
है। वे एक
दूसरे में
पिघलने लगते
हैं, वे एक
दूसरे में
बहने लगते हैं।
सीमाएं टूट
जाती है, परिभाषाएं
धुंधला जाती
हैं और वे
नहीं जानते कि
कौन कौन है।
उस घड़ी में वे
एक हो जाते
हैं।
जब
तुम खुश होते
हो,
तुम दूसरों
में बह सकते
हो और तुम
दूसरों को भी
स्वयं में बहने
देते हो। यही
है उत्सव का
अर्थ। जब तुम
हर एक को
स्वयं में
बहने देते हो
और तुम हर एक
में बहते हो, तुम जीवन का
उत्सव मना रहे
होते हो। और
उत्सव सबसे
बडी
प्रार्थना है,
ध्यान का
सबसे ऊंचा
शिखर।
दुख
में तुम
आत्महत्या
करने की बात
सोचना शुरू कर
देते हो। दुख
में,
तुम विनाश
की सोचना शुरू
कर देते हो।
दुख में तुम
उत्सव के
विपरीत छोर पर
होते हो। तुम
दोष देते हो।
तुम उत्सव
नहीं मना सकते।
हर चीज के लिए
तुममें
दुर्भाव है।
हर चीज गलत है
और तुम
निषेधात्मक
हो। तुम बह
नहीं सकते, तुम जुड़
नहीं सकते, और तुम किसी
को अपने में बहने
नहीं देते।
तुम एक द्वीप
बन गये हों—पूरी
तरह से बंद।
यह एक जीवित
मृत्यु है।
जीवन केवल तभी
है जब तुम
खुले हो और बह
रहे हो—जब तुम
निडर, निर्भय,
खुले, अति
संवेदनशील
होकर उत्सव
मना रहे होतै
हो।
पतंजलि
कहते हैं कि
मन दो बातें
कर सकता है—यह
निर्मित कर
सकता है दुख
या गैर—दुख।
तुम इस तरह
इसका उपयोग कर
सकते हो कि
तुम दुखी हो
जाओ। और तुमने
इसका उपयोग
इसी तरह किया
है। तुम सब इस
बात में निपुण
हो। इस पर
अधिक बात करने
की आवश्यकता
नहीं है, तुम
इसे जानते ही
हो। तुम दुख
निर्मित करने
की कला जानते
हो। हो सकता
है तुम्हें
इसका होश न हो,
लेकिन यही
तुम कर रहे हो
निरंतर। जो
कुछ तुम छूते
हो, दुख का
स्रोत बन जाता
है। जो कुछ भी!
मैं
गरीब आदमियों
को देखता हूं।
स्पष्टत: वे
दुखी है। वे
गरीब है, जीवन
की आधारभूत
आवश्यकताएं
पूरी नहीं हो
रही है। लेकिन
फिर मै धनवान
व्यक्तियों
को देखता हूं
और वे भी दुखी
है। ये धनवान
व्यक्ति
सोचते है कि
धन कहीं नहीं
ले जाता है।
लेकिन यह सही
नहीं है। धन
उत्सव तक ले
जा सकता है, पर उत्सव
मनाने वाला मन
तुम्हारे पास
नहीं है।
इसलिए यदि तुम
गरीब हो, तुम
दुखी हो। और
यदि तुम धनवान
हो जाते हो तो
तुम ज्यादा
दुखी होते हो।
जिस घड़ी तुम
समृद्धि को
छूते हो, तुम
उसे नष्ट कर
देते हो।
तुमने
राजा मीडास की
पीक कहानी
सुनी है? जो
कुछ भी उसने
क्या, सोने
में बदल गया।
तुम सोने को
छूते हो, और
तत्क्षण वह
कीचड़ बन जाता
है। वह धूल हो
जाता है। और
तब तुम सोचते
हो कि इस संसार
में कुछ नहीं
है। धन—दौलत
भी व्यर्थ है,
ऐसा नहीं है।
पर तुम्हारा
मन उत्सव नहीं
मना सकता।
तुम्हारा मन
किसी गैर—दुख
में हिस्सा
नहीं ले सकता।
यदि तुम्हें
स्वर्ग में भी
निमंत्रित
किया जाये, तो तुम वहां
स्वर्ग नहीं
पाओगे। तुम एक
नरक का
निर्माण कर
लोगे। तुम
जैसे हो, जहां
कहीं तुम जाते
हो, तुम
अपना नरक अपने
साथ ले जाते
हो।
एक
अरबी कहावत है
कि नरक और
स्वर्ग
भौगोलिक स्थान
नहीं है, वे
दृष्टिकोण है।
और कोई स्वर्ग
या नरक में
प्रवेश नहीं
करता। हर कोई
स्वर्ग और नरक
सहित प्रवेश
करता है। जहां
कहीं तुम जाते
हो, तुम
अपने नरक का
प्रक्षेपण और
स्वर्ग का
प्रक्षेपण
अपने साथ ले
जाते हो।
तुम्हारे
भीतर एक
प्रक्षेपक है।
फौरन तुम
प्रक्षेपण कर
लेते हो।
लेकिन
पतंजलि सतर्क
है। वे कहते
है दुख या गैर—दुख; विधायक
दुख या
नकारात्मक
दुख; लेकिन
आनंद नहीं। मन
तुम्हें नहीं
दे सकता आनंद;
आनंद कोई भी
नहीं दे सकता।
आनंद तुममें
ही छिपा है।
जब मन गैर—दुख
की अवस्था में
होता है तो
आनंद बहने
लगता है। यह
मन से नहीं
आता, यह
कहीं पार से आ
रहा होता है।
इसलिए मन की
वृत्तियां
क्लेश का
स्रोत भी हो सकती
हैं और अक्लेश
की भी।
मन की वृत्तियां
पाँच हैं। वे हैं—प्रमाण
(सम्यकज्ञान), विपर्यय
(मिथ्याज्ञान),
कल्पना
निद्रा और स्मृति।
पहला है 'प्रमाण'
—सम्यक
ज्ञान।
संस्कृत का
शब्द 'प्रमाण'
बहुत गहरा
है और वास्तव
में अनुवादित
हो भी
नहीं
सकता। ’सम्यक
ज्ञान'. तो
अर्थ की
परछाईं मात्र
है, बिलकुल
सही अर्थ नहीं
है क्योंकि
अंग्रेजी में
भी ऐसे शब्द नहीं
हैं जो 'प्रमाण'
को अनूदित कर
सकें।’प्रमाण'
आता है मूल शब्द
'प्रमा' से। इस विषय
में बहुत—सी
चीजें समझ लेनी
है।
पतंजलि
कहते हैं कि
मन की एक
क्षमता होती
है। यदि वह
क्षमता ठीक
तरह से
निर्देशित की
जाये, तब जो
कुछ भी जाना जाये,
सत्य होता है—वह
स्वयं—सिद्ध होता
है। लेकिन हम इसके
प्रति जागरूक नही,
क्योंकि
हमने कभी इसका
उपयोग नहीं
किया है। मन
का वह आयाम
अप्रयुक्त रह
गया है। यह
ठीक ऐसे है, जैसे कमरा अँधेरा
है, तुम उसमें
आते हो।
तुम्हारे पास टॉर्च
है, लेकिन तुम
उसका प्रयोग
नहीं कर रहे, इसलिए कमरा
अंधेरा ही बना
रहता है। तुम
इस मेज से, उस
कुर्सी से ठोकर
खाते चले जाते
हो। और तुम्हारे
पास टॉर्च है!
लेकिन टॉर्च
जलानी तो
पड़ेगी। ज्यों
ही तुम टाँर्च
जलाओ, उसी
क्षण अंधकार
मिट जाता है। जिस जगह
भी टॉर्च को
एकाग्र करते
हो, उसे
तुम जान लेते
हो। कम से कम
वह एक जगह
स्पष्ट हो
जाती है—स्वयं—सिद्ध
स्वप्न से
स्पष्ट।
मन
के पास क्षमता
है प्रमाण की, सम्यक
ज्ञान की, प्रज्ञा
की। एक बार तुम
जान लो कि इसे कैसे
प्रयुक्त करना
है, तब तुम कहीं
भी इसका प्रकाश
भेजो, सम्यक
ज्ञान ही उद्घाटित
होगा। और इस क्षमता
का उपयोग कैसे
किया जाता है इसे
जाने बिना, जो कुछ भी तुम
जानते हो, वह
गलत ही होगा।
मन
की क्षमता है—असत
ज्ञान की भी।
संस्कृत में
गलत ज्ञान को 'विपर्यय'
कहा गया है।
वह झूठा है, मिथ्या है।
तुम्हारी वह
भी क्षमता है।
तुम नशा करते हो,
और क्या हो जाता
है? सारा संसार
विपर्यय बन जाता
है, सारा संसार
मिथ्या हो जाता
है। तुम उन चीजों
को देखने लगते
हो, जो
वहाँ हैं नही।
क्या
हो जाता है? अल्कोहल
चीजों का निर्माण
नहीं कर सकता है।
अल्कोहल तुम्हारे
शरीर और मस्तिष्क
के साथ कुछ कर रहा
है। नशा उस केंद्र
को उत्तेजित कर
देता है जिसे पतंजलि
विपर्यय कहते है।
मन का एक केंद्र
है जो किसी भी चीज
को विकृत कर सकता
है। जैसे ही यह
केंद्र कार्य करना
प्रारंभ करता है,
हर चीज विकृत
हो जाती है।
मुझे
एक कहानी याद
आती है। एक बार
ऐसा हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन और उसके
मित्र एक मदिरालय
मे शराब पी रहे
थे। जब वे
वहाँ से उठे तो
वे पूरी तरह नशे
मे धुत्त हो चुके
थे। और नसरुद्दीन
एक पुराना, अनुभवी
शराबी था।
दूसरा अभी नया
था इसलिए उस
पर ज्यादा असर
हो गया। वह
कहने लगा, 'अब
मैं देख नहीं
सकता, मैं
सुन नहीं सकता,
मैं ठीक से
चल तक नहीं
सकता। मैं
अपने घर कैसे
पहुंचूंगा? तुम मुझे
बताओ
नसरुद्दीन!
कृपा कर के मुझे
राह दिखाओ।
कैसे मुझे घर
पहुँचना चाहिए
?'
नसरुद्दीन
बोला, 'पहले
तुम जाओ। इतने
कदम चलने पर
तुम एक जगह
पहुंचोगे
जहां दो
रास्ते हैं।
एक दायीं और जाता
है, दूसरा बायी
ओर। तुम बायीं
और जाओ, क्योंकि
वह रास्ता जो दायी
और जाता है वह है
ही नहीं। मैं उस
दायीं और के रास्ते
पर बहुत बार गया,
लेकिन अब
मैं एक अनुभवी
आदमी हूं।
ध्यान रखना, तुम दो
रास्ते
देखोगे।
बायीं ओर वाला
चुन लेना, दायीं
ओर वाला मत
चुनना। वह
दायीं ओर वाला
रास्ता है ही
नहीं। मैं उस पर
बहुत बार जा चुका
हूं लेकिन फिर
कही पहुँचना नहीं
होता। तुम अपने
घर कभी नहीं पहुचते।’
एक बार नसरुद्दीन
अपने बेटे को शराब
पीने का पहला पाठ
पढ़ा रहा था।
बेटा बहुत उत्सुक
था। इसलिए अपने
पिता से बोला,
'कब रुकना
होता है?' नसरुद्दीन
ने कहा, 'उस
मेज को देखो।
चार आदमी वहां
बैठे हुए है।
जब तुम्हें आठ
दिखने लगें, रुक जाना।’ लड़के ने कहा,
'लेकिन
पिताजी, वहां
तो केवल दो
आदमी बैठे ?
यह
भी मन की
क्षमता है। यह
क्षमता कार्य
करती है, जब
कभी तुम किसी
नशे के, किसी
मादक पदार्थ
के प्रभाव में
होते हो। यह
वह मानसिक
क्षमता है, जिसे पतंजलि
विपर्यय कहते
हैं—मिथ्या
ज्ञान; विकृति
का केंद्र।
इसके ठीक
विपरीत सामने
एक केंद्र है
जिसके बारे
में तुम कुछ
नहीं जानते हो।
इससे ठीक
विपरीत एक
केंद्र है।
यदि तुम गहराई
से मौनपूर्वक
ध्यान करो, तो वह दूसरा
केंद्र कार्य
करना शुरू कर
देगा। वही
केंद्र
प्रमाण
कहलाता है—सम्यक
ज्ञान। उस
केंद्र के
कार्य करने पर
जो कुछ जाना
जाये वही ठीक
होता है। तो
प्रश्न यह
नहीं है कि
तुम क्या
जानते हो, प्रश्न
यह है कि तुम
कहां से जानते
हो।
इसलिए
सारे धर्म
शराब के
विरुद्ध रहे
हैं। ऐसा किसी
नैतिकतावादी
आधार पर नहीं
होता रहा है।
नहीं। ऐसा है
क्योंकि शराब
विकृति के
केंद्र को प्रभावित
करता है। और
प्रत्येक
धर्म ध्यान के
लिए कहता है
क्योंकि
ध्यान का अर्थ
है. अधिक से
अधिक शांति का
निर्माण करना, अधिक
से अधिक मौन
हो जाना।
शराब
इसके बिलकुल
विपरीत किये
चली जाती है।
वह तुम्हें
ज्यादा से
ज्यादा
भड़काती, उत्तेजित
करती, अशांत
बनाती है। तुम
में एक
कंपकंपी
प्रविष्ट हो
जाती है।
शराबी ठीक से
चल तक नहीं
सकता। उसका
संतुलन खो
जाता है। केवल
शरीर का ही
नहीं, मन
के भीतर भी
उसका संतुलन
खो जाता है।
ध्यान
का अर्थ है, एक
आंतरिक
संतुलन पाना।
जब तुम आंतरिक
संतुलन
प्राप्त करते
हो, और कोई
कंपन नहीं
रहता; जब
सारा शरीर और
मन स्थिर बन
जाता है, तब
सम्यक ज्ञान
का केंद्र
कार्य करना शुरू
करता है। उस
केंद्र
द्वारा जो कुछ
भी जाना जाये,
वह सत्य
होता है।
लेकिन
तुम कहां हो? तुम
शराबी नहीं हो
और न ध्यानी
हो। तो
तुम्हें
दोनों के बीच
कहीं होना
चाहिए। तुम
किसी केंद्र
में नहीं हो।
तुम सम्यक
ज्ञान और
मिथ्या ज्ञान
के इन दोनों
केंद्रों के
बीच हो। इसलिए
तुम उलझ गये
हो।
कई
बार तुम्हें
झलकें मिलती
है। तुम सम्यक
जान के केंद्र
की तरफ थोड़ा
झुकते हो और
तब कुछ झलकें
तुम्हें
मिलती हैं। या
तुम विकृति के
केंद्र की तरफ
झुकते हो और तब
विकृति
तुममें
प्रविष्ट
होती है। हर
चीज तुममें
मिश्रित हो गई
है;
तुम अंध—व्यवस्था
में पड़े हो।
इसलिए
तुम्हें या तो
ध्यानी बनना
होता है और या
तुम शराबी बन
जाओगे, क्योंकि
उलझन बहुत ही
कठिन होती है।
और ये ही दो
रास्ते हैं।
यदि
तुम स्वयं को
नशे में डुबा
लेते हो, तब
तुम चैन पाते
हो। कम से कम
तुमने एक
केंद्र
प्राप्त कर
लिया होता है।
हो सकता है यह
केंद्र
मिथ्या ज्ञान
का हो; लेकिन
चाहे जो हो, तुम
केंद्रीभूत
होते हो। चाहे
सारा संसार
कहे कि तुम
गलत हो, लेकिन
तुम ऐसा नहीं
सोचते। तुम
सोचते हो कि
सारा संसार
गलत है। लेकिन
बेहोशी के उन
क्षणों में कम
से कम तुम केंद्रीभूत
तो होते हो; लेकिन
मिथ्या के
केंद्र में
केंद्रित
होते हो।
लेकिन तुम
प्रसन्न होते
हो, क्योंकि
मिथ्या के
केंद्र मै
केंद्रित
होना भी एक
निश्चित सुख
देता है। तुम
इसका रस लेते
हो। इसलिए
शराब के लिए
इतना अधिक
आकर्षण है।
सदियों
से सरकारें
इसके विरोध
में लड़ रही
हैं। नियम
बनाये गये हैं, नशेबंदी
के और सब कुछ
किया गया, लेकिन
कुछ नहीं हो
पाया। जब तक
मानवता
ध्यानमय नहीं
हो जाती, तब
तक कोई चीज
मदद नहीं कर
सकती। लोग यही
किये जायेंगे।
वे नये तरीके
और नये साधन
ढूंढ लेंगे
नशा करने के।
उन्हें रोका
नहीं जा सकता।
और जितना अधिक
उन्हें रोकने
का प्रयास
होगा, जितने
अधिक मद्य—निषेध
के नियम होंगे,
नशे के लिए
उतना अधिक
आकर्षण होगा।
अमरीका
ने यह प्रयत्न
किया और उसे
पीछे हटना पड़ा।
उन्होंने
पूरी कोशिश की, लेकिन
जब शराबबंदी
की गयी, तो
और अधिक शराब
इस्तेमाल की
जाने लगी।
उन्होंने प्रयत्न
किया, परंतु
वे असफल रहे।
और
स्वतंत्रता
के बाद भारत
भी शराब से
पीछा छुड़ाने
की कोशिशें
करता रहा है।
ऐसा करने में
वह असफल रहा
और बहुत से
प्रांतो ने
इसे फिर से
प्रारंभ कर
दिया है।
निषेध का
प्रयास ही
व्यर्थ लगने
लगा है।
जब
तक आदमी भीतर
से परिवर्तित
नहीं होता, तुम
किसी निषेध को
जबरदस्ती उस
पर नहीं थोप
सकते। ऐसा
असंभव है, क्योंकि
तब व्यक्ति
पागल हो
जायेगा। यह
उसका तरीका है
स्वस्थ और
समझदार बने
रहने का! कुछ
घंटों के लिए
वह नशे में
रहता है, पत्थर
बना हुआ, तब
वह ठीक रहता
है। तब वहां
कोई दुख नहीं
है, तब
वहां कोई
संताप नहीं है।
दुख आयेगा, संताप आयेगा,
लेकिन कम से
कम यह स्थगित
हो जायेगा।
अगले दिन सुबह
दुख होगा, संताप
होगा और उसे
उसका सामना
करना होगा।
लेकिन वह शाम
की आशा कर
सकता है। एक
बार फिर वह
शराब पी लेगा
और निश्चित हो
जायेगा।
ये
दो विकल्प हैं।
यदि तुम
ध्यानमग्न
नहीं हो, तो
देर—अबेर
तुम्हें कोई
नशा खोज लेना
होगा। और
सूक्ष्म नशे
हैं। शराब
बहुत सूक्ष्म
नहीं है, यह
बहुत स्थूल है।
लेकिन
सूक्ष्म नशे
हैं। काम—वासना
तुम्हारे लिए
एक नशा बन
सकती है। काम—वासना
द्वारा तुम
अपना होश खो
सकते हो। तुम
किसी भी चीज
को नशे की तरह
इस्तेमाल कर
सकते हो, लेकिन
केवल ध्यान
मदद कर सकता
है। क्यों? क्योंकि
ध्यान
तुम्हें उस
केंद्र पर
केंद्रस्थ कर
देता है जिसे
पतंजलि कहते
हैं— 'प्रमाण'।
हर
धर्म में
ध्यान पर इतना
जोर क्यों है? ध्यान
जरूर कोई आंतरिक
चमत्कार करता
रहा होगा। यही
चमत्कार है—कि
ध्यान सम्यक ज्ञान
के प्रकाश को
जलाने में मदद
करता है। तब
जहां कहीं तुम
गति करो, जहां
कहीं
तुम्हारा होश
पडे, तब जो
कुछ जाना जाये
सत्य होता है।
बुद्ध
से हजारों—हजारों
प्रश्न पूछे
गये। एक दिन
किसी ने उनसे
कहा,
'हम आपके
पास नये
प्रश्न लेकर
आते हैं। हमने
आपके सामने
प्रश्न रखा भी
नहीं होता और आप
उनका उत्तर
देने लगते हैं।
आप कभी इसके
बारे में
सोचते नहीं।
ऐसा कैसे हो
जाता है?'
बुद्ध
ने कहा, 'यह
सोचने का
प्रश्न नहीं
है। तुम
प्रश्न पूछते
हो और मैं
केवल उसे
देखता हूं। जो
कुछ सत्य है, उद्घाटित हो
जाता है। इसके
बारे में
सोचने का, विचारमग्न
होने का
प्रश्न नहीं
है। वह उत्तर
संगत
निष्कर्ष की
तरह नहीं आता
है। यह केवल
सही केंद्र पर
ऊर्जा को फोकस
करने का परिणाम
है।’
बुद्ध
किरणपुंज
(टॉर्च) की तरह
हैं। जिस किसी
दिशा में
टॉर्च घूमती
है,
वहां जो है
उसे उद्घाटित
कर देती है।
प्रश्न क्या
है, यह बात
नहीं है।
बुद्ध के पास
प्रकाश है और
जब कभी किसी
प्रश्न पर
प्रकाश आ
पहुंचेगा, उत्तर
प्रकट हो
जायेगा। उस
प्रकाश के
कारण उत्तर
आयेगा। यह एक
स्वाभाविक
घटना है, यह
एक सहज बोध
है।
जब
कोई तुमसे कुछ
पूछता है, तब
तुम्हें उसके
बारे में
सोचना पड़ता है।
लेकिन तुम
कैसे सोच सकते
हो, यदि
तुम जानते
नहीं? और
यदि तुम जानते
हो, तो
सोचने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। यदि
तुम नहीं
जानते हो, तो
तुम करोगे
क्या? तुम
अपनी स्मृति
में खोजोगे, तुम्हें
बहुत—से सुराग
मिल जायेंगे।
तुम कुछ जोड़जाड़
करोगे। लेकिन
वास्तव में
तुम जानते
नहीं हो।
अन्यथा
तुम्हारा
उत्तर तुरंत
आता।
मैने
सुना है एक
शिक्षक के
बारे में, प्राइमरी
स्कूल की एक
महिला शिक्षक
के बारे में, उसने बच्चों
से पूछा, 'क्या
तुम्हारे पास
कोई प्रश्न है?
एक छोटा
लड़का उठ खड़ा
हुआ और कहने
लगा, 'मेरा
एक प्रश्न है—और
मैं इसे पूछने
की प्रतीक्षा
कर रहा था कि कब
आप प्रश्न
पूछने के लिए
कहेंगी—पृथ्वी
का वजन कितना
है?'
शिक्षिका
तो घबड़ा गयी
क्योंकि उसने
कभी इस बारे
में सोचा न था; उसने
कभी इस बारे
में पढ़ा न था।
सारी पृथ्वी
का वजन कितना
है? उसने
एक चालाकी चली,
जिसे
शिक्षक जानते
हैं। उन्हें
चालाकियां
चलनी पड़ती है।
उसने कहां, 'हां प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। कल के लिए
हर एक को इसका
उत्तर खोजना
है।’ उसे
समय चाहिए था।
वह बोली, 'कल
मै यह प्रश्न
पूछूंगी। जो
कोई सही उत्तर
लायेगा उसे
उपहार मिलेगा।’
सारे
बच्चे खोजते
रहे,
खोजते रहे
लेकिन उन्हें
उत्तर नहीं
मिला।
शिक्षिका
लाइब्रेरी
में दौड़ी गयी।
सारी रात वह
खोजती रही और
सुबह हो गयी
तब कहीं वह
पृथ्वी का वजन
पता लगा सकी।
वह बहुत खुश
थी। वह स्कूल
आ पहुंची और
बच्चे थे वहां।
वे थक चुके थे।
उन्होंने कहा,
'हम नहीं
पता लगा सके।
हमने मम्मी से
पूछा और हमने
डैडी से पूछा।
और हमने सबसे
पूछा। कोई
नहीं जानता।
यह प्रश्न
बहुत कठिन
लगता है।’
शिक्षिका
हंस पड़ी और
बोली, 'यह कठिन
नहीं है। मैं
उत्तर जानती थी,
लेकिन मै तो
यह देखना चाह
रही थी कि तुम
पता लगा सकते
हो या नहीं।
पृथ्वी का वजन
है....।’ वह
छोटा बच्चा
जिसने प्रश्न
उठाया था, फिर
खड़ा हो गया और
पूछने लगा, 'लोगों को
मिला कर या
बिना लोगों के
त्र: '
तुम
बुद्ध को ऐसी
स्थिति में
नहीं डाल सकते।
कहीं उत्तर
खोज लेने की
बात नहीं है।
बात वस्तुत:
तुम्हें
उत्तर देने की
भी नहीं है।
तुम्हारा
प्रश्न तो
उनके लिए केवल
एक बहाना है।
तुम जब उनके
सामने प्रश्न
रखते हो, तो वे
सीधे अपना
प्रकाश
प्रश्न की ओर
मोड़ देते है
और जो कुछ
प्रकट होता है,
उन्हें दिख
जाता है। वे
तुम्हें
उत्तर देते है।
वह उनके सही
केंद्र से
दिया जाने
वाला उत्तर है—प्रमाण।
पतंजलि
कहते है कि मन
की पांच
वृत्तियां है।
पहला है
प्रमाण—सम्यक
ज्ञान। यदि
सम्यक ज्ञान
का यह केंद्र
तुममें
क्रियाशील
होने लगता है, तो
तुम मनीषी हो
जाओगे, एक
संत। तुम
धार्मिक हो
जाओगे। और
इससे पहले तुम
धार्मिक नहीं
हो सकते।
इसीलिए
जीसस या
मोहम्मद पागल
दिखते हैं।
क्योंकि वे
बहस नहीं करते, वे
अपनी बात
तर्कपूर्ण
ढंग से सामने
नहीं लाते। वे
तो सीधे
निश्चयपूर्वक
कहते हैं। यदि
तुम जीसस से
पूछते, 'क्या
आप वास्तव में
ईश्वर के
एकमात्र
पुत्र है?' वे
कहते, 'हां।’
और यदि तुम
उनसे इसका
प्रमाण देने
को कहो; तो
वे हंस देंगे।
वे कह देंगे, 'प्रमाणित
करने की
आवश्यकता
नहीं। मैं
जानता हूं।
यही वस्तुस्थति
है। यह स्वयं—सिद्ध
है।’ हमें
यह तर्कयुक्त
नहीं लगता। यह
आदमी
विक्षिप्त
जान पड़ता है।
बिना किसी
प्रमाण के कुछ
दावा कर रहा
है।
यदि
यह प्रमाण, यह
प्रमा का
केंद्र, सम्यक
ज्ञान का यह
केंद्र
क्रियाशील
होने लगता है,
तो तुम वैसे
ही हो जाओगे।
तुम
निश्चयपूर्वक
कहने के योग्य
हो जाओगे, लेकिन
तुम प्रमाण
नहीं दे पाओगे।
तुम प्रमाणित
कैसे कर सकते
हो? यदि
तुम्हें
प्रेम हो जाता
है तो तुम
इसका प्रमाण
कैसे दे सकते
हो कि तुम्हें
प्रेम हो गया
है? तुम
ऐसा
निश्चयपूर्वक
कह ही सकते हो।
यदि तुम्हारी
टांग में दर्द
है, तो तुम
कैसे
प्रमाणित कर
सकते हो कि
मुझे दर्द है?
तुम भीतर
कहीं इसे
जानते हो। वह
जानना काफी है।
रामकृष्ण
से पूछा गया, 'क्या
ईश्वर है? 'उन्होंने
कहा, 'हां।’
उस व्यक्ति
ने कहा, 'तो
इसे प्रमाणित
करें।’ रामकृष्ण
ने उत्तर दिया,
'इसकी कोई
आवश्यकता
नहीं है। मैं
जानता हूं।
मेरे लिए कोई
आवश्यकता
नहीं।
तुम्हारे लिए
इसकी
आवश्यकता है
तो तुम खोजो।
इसे मेरे लिए
कोई प्रमाणित
नहीं कर सका
और मैं इसे
तुम्हारे लिए
प्रमाणित
नहीं कर सकता।
मुझे खोजना
पड़ा; और
मैंने पा लिया
है। ईश्वर है।’
यह
सही केंद्र की
क्रियाशीलता
है। लेकिन
रामकृष्ण या
जीसस बेतुके
लगते हैं। वे
कुछ चीजों का
दावा कर रहे
हैं बगैर कोई
प्रमाण दिये
हुए। लेकिन वे
दावा नहीं कर
रहे हैं। वे
किसी चीज के
लिए दावा नहीं
कर रहे हैं।
कुछ चीजें
उनके सामने
उद्घाटित हो
गयी हैं क्योंकि
उनके पास एक
नये केंद्र की
क्रियाशीलता
है जो कि
तुम्हारे पास
नहीं है।
क्योंकि
तुम्हारे पास
यह है ही नहीं
इसीलिए तुम्हें
प्रमाणित
करना पड़ता है।
ध्यान
रहे,
प्रमाण
देना
प्रमाणित
करता है कि
किसी चीज के लिए
तुम्हारे पास
कोई आंतरिक
अनुभूति नहीं
है, हर चीज
को सिद्ध करना
पड़ता है। और
लोग यही किये
चले जा रहे
हैं। मैं बहुत—से
दंपतियों को
जानता हूं जो
यही करते हैं।
पति प्रमाणित
करने में लगा
रहता है कि वह
प्रेम करता है
लेकिन इसे वह
पत्नी को
स्वीकार नहीं
करा पाता। और
पत्नी
प्रमाणित
किये जा रही
है कि वह प्रेम
करती है लेकिन
वह पति को
स्वीकार नहीं
करा पाती। वे
अनिश्चयी बने
रहते हैं और
यह द्वंद्व
बना रहता है।
हर एक अनुभव
करता रहता है
कि दूसरे ने
अभी तक अपने
प्रेम का
प्रमाण नहीं
दिया है।
प्रेमी
अपने प्रेम के
प्रमाण
जुटाने में
लगे रहते हैं।
वे स्थितियां
बनाते हैं
जिसमें दूसरे
को अपने—अपने
प्रेम का
प्रमाण देना
ही पड़े। और
धीरे—धीरे
दोनों प्रमाण
देने की इस
बेकार कोशिश
से ऊब जाते
हैं। और
प्रमाणित कुछ
नहीं किया जा
सकता। तुम
प्रेम का
प्रमाण कैसे
दे सकते हो? तुम
उपहार दे सकते
हो, लेकिन
प्रमाणित कुछ
नहीं होता।
तुम चुंबन और
आलिंगन कर
सकते हो, और
तुम गा सकते
हो और तुम नाच
सकते हो, लेकिन
प्रमाणित कुछ
नहीं होता। हो
सकता है तुम
अभिनय भर कर
रहे हो।
तो
यह सम्यक
ज्ञान मन की
पहली वृत्ति
है। ध्यान इस
वृत्ति तक ले
जाता है। और
जब तुम ठीक से
जान सकते हो
तब प्रमाण
देने की
आवश्यकता
नहीं रहती।
केवल तभी मन
छोड़ा जा सकता
है;
उससे पहले
नहीं। जब
प्रमाण देने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है, तब
मन की
आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि
मन एक तार्किक
उपकरण
तुम्हें
हर क्षण मन की जरूरत
है। तुम्हें
सोचना पड़ता है
यह जानने के
लिए कि क्या
सही और क्या
गलत है। हर
क्षण चुनाव
हैं,
विकल्प हैं।
तुम्हें
चुनना ही पड़ता
है। केवल जब
प्रमाण का
केंद्र
कार्यशील
होता है, जब
सम्यक ज्ञान
कार्य करता है,
तब तुम मन
को छोड़ सकते
हो, क्योंकि
चुनने का अब
कोई अर्थ नहीं
है। तुम
चुनावरहित हो
जाते हो। जो
कुछ सही है, तुम्हारे
सामने
उद्घाटित हो
जाता है।
संत
वह है जो कभी
चुनता नहीं।
वह कभी बुरे
के विरुद्ध
अच्छे को नहीं
चुनता। वह तो
केवल उस दिशा
की ओर बढ़ता है
जो कि शुभ का है।
वह तो
सूर्यमुखी के
फूल जैसा होता
है। जब सूर्य
पूर्व में
होता है, तब यह
फूल भी पूर्व
की ओर मुड़
जाता है। यह
चुनता कभी
नहीं। जब
सूर्य पश्चिम
की ओर छूता है,
यह फूल
पश्चिम की ओर
मुड़ जाता है।
यह सूर्य के
साथ ही चलता
रहता है। इसने
बढ़ना चुना
नहीं है, इसने
निर्णय नहीं
किया है। इसने
निश्चय नहीं
किया— 'अब
मुझे बढ़ना
चाहिए।
क्योंकि
सूर्य पश्चिम
की ओर बढ़ गया
है! '
संत
इस फूल की
भांति है।
जहां कहीं शुभ
है वह बस उस ओर
बढ़ जाता है।
तो जो कुछ वह
करता है, शुभ
है। उपनिषद
कहते हैं— 'संतो
का मूल्यांकन
मत करो।’ तुम्हारे
साधारण
मापदंड काम न
देंगे।
तुम्हें बुरे
के विरुद्ध
अच्छे को
चुनना पड़ता है,
लेकिन संत
चुनता नहीं है।
जो अच्छा है
वह उस ओर बस बढ़
जाता है। और
तुम उसे बदल
नहीं सकते
क्योंकि यह
विकल्पों का
प्रश्न नहीं
है। यदि तुम
कहो, 'यह
बुरा है।’ वह
कहेगा, 'ठीक
है, हो
सकता है यह
बुरा हो।
लेकिन मैं इसी
भांति चलता
हूं। इस तरह
ही बहता है
मेरा अंतस
अस्तित्व।’
जो
जानते हैं—और
उपनिषदों के
समय लोग जानते
थे—वे निर्णय
कर चुके है कि 'हम
किसी संत की
आलोचना नहीं
करेंगे।’ एक
बार व्यक्ति
स्वयं में
केंद्रित हो
जाता है, एक
बार व्यक्ति
ध्यान को
प्राप्त कर
लेता है एक
बार व्यक्ति
मौन हो जाता
है और मन छूट
जाता है, तो
वह हमारे
नैतिक मापदंड
से परे है, हमारी
परंपरा से परे
है। वह हमारी
सीमाओं से
बाहर है। यदि
हममें पीछे
चलने की
क्षमता है, तो हम उसके
पीछे चल सकते
हैं। यदि—हम
पीछे नहीं चल
सकते, तो
हम असहाय हैं।
लेकिन कुछ
किया नहीं जा
सकता। और हमें
निर्णय नहीं
देना चाहिए।
यदि
सम्यक ज्ञान
क्रियाशील
होता है, यदि
तुम्हारे मन
ने सम्यक
ज्ञान की
वृत्ति को ग्रहण
कर लिया है, तो तुम
धार्मिक हो
जाओगे। इसे
समझो। पतंजलि
पूरी तरह से
भिन्न हैं।
पतंजलि नहीं
कहते कि यदि
तुम मसजिद में
गुरुद्वारे
में, मंदिर
में जाओ, यदि
तुम कोई
धार्मिक विधि—विधान,
कोई
प्रार्थना
संपन्न करो तो
वही धर्म है।
नहीं, वह
धर्म नहीं है।
तुम्हें
सम्यक ज्ञान
के अपने
केंद्र को
क्रियाशील
करना है। तो
चाहे तुम
मंदिर जाते हो
या नहीं, इसका
महत्व नहीं है।
यदि सम्यक
ज्ञान का
तुम्हारा
केंद्र
क्रियाशील हो
जाता है तो जो
कुछ भी तुम
करो वह प्रार्थना
है, और
जहां तुम जाओ,
वहां मंदिर
है।
कबीर
ने कहा है, 'जहां
कहीं मैं जाता
हूं मैं आपको
पाता हूं मेरे
भगवान! जहां
कहीं बढ़ता हूं
मैं आपमें
बढ़ता हूं मैं
तुमसे जा
मिलता हूं। और
जो कुछ मैं
करता हूं—चाहे
चलना या खाना—वह
प्रार्थना है।’
कबीर कहते
हैं, 'यह
सहजता मेरी
समाधि है। सहज
हो जाना ही
मेरा ध्यान है।’
मन
की दूसरी
वृत्ति है, असत्य
ज्ञान। यदि
तुम्हारा
असत्य ज्ञान
का केंद्र
कार्य कर रहा
है तो जो कुछ
भी तुम करो, तुम गलत ढंग
से करोगे। और
जो कुछ भी तुम
चुनो, गलत
ढंग से चुनोगे।
जो कुछ भी
निर्णय तुम
करोगे गलत
होगा।
क्योंकि
वास्तव में
तुम निर्णय कर
ही नहीं रहे।
वह गलत केंद्र
कार्य कर रहा
है।
ऐसे
लोग हैं जो
स्वयं को बहुत
अभागा अनुभव
करते है, क्योंकि
जो कुछ वे करते
हैं, वह
गलत हो जाता
है। वे कोशिश
करते है कि
गलत नहीं
करेंगे, लेकिन
इससे मदद
मिलने वाली
नहीं है
क्योंकि केंद्र
को बदलना होगा।
उनके मन गलत
ढंग से कार्य
करते हैं। वे
सोच सकते है
कि वे अच्छा
कर रहे हैं
लेकिन वे बुरा
करेंगे। अपनी
तमाम शुभ
इच्छाओं के
बावजूद वे
इससे अन्यथा
नहीं कर सकते।
ये निस्सहाय
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
संत के पास
जाया करता था।
वह कई—कई दिन
तक उसके पास
जाता रहा। वह
संत मौनी संत
था और वह कुछ
बोलता नहीं था।
तब मुल्ला
नसरुद्दीन को
कहना पड़ा, 'मैं
आपके पास बार—बार
आता रहा, आपके
कुछ कहने की
प्रतीक्षा
करता रहा, लेकिन
आपने कुछ नहीं
कहा है। और जब
तक आप बोलते
नहीं, मैं
समझ सकता नहीं।
इसलिए मेरी
जिंदगी भर के
लिए मुझे कोई
संदेश दे दें,
कोई दिशा, जिससे कि
मैं उसी दिशा
की ओर बढ़ सकूं।’
उस
सूफी फकीर ने
कहा,
'नेकी कर और
कुएं में डाल।’
सबसे
पुरानी सूफी
कहावतो में यह
एक कहावत है, 'नेकी कर और
कुएं में डाल।’
इसका मतलब
है, अच्छा
करो और फिर
उसे फौरन भूल
जाओ। इस बात
को साथ ढोते
हुए मत चलो कि
तुमने अच्छाई
की है।
यदि
तुम्हारा गलत
केंद्र कार्य
कर रहा हो तो जो
कुछ तुम करोगे, वह
गलत होगा। तुम
कुरान पढ़ सकते
हो, तुम
गीता पढ़ सकते
हो। और तुम
ऐसे अर्थ ढूंढ
निकालोगे कि
कृष्ण चौकेंगे,
मोहम्मद
चौकेंगे यह
जान कर कि तुम
ऐसे अर्थ भी
खोज सकते हो।
महात्मा
गांधी ने अपनी
आत्मकथा इस
इरादे से लिखी
कि उससे लोगों
को मदद मिलेगी।
तब बहुत से
पत्र आ गये
उनके पास
क्योंकि उस किताब
में उन्होंने अपने
यौन—जीवन का
वर्णन किया था।
वे बहुत
ईमानदार
व्यक्ति थे, सर्वाधिक
ईमानदार
व्यक्तियों
में से एक।
इसलिए
उन्होंने सब
कुछ लिख दिया
था। जो कुछ भी
अतीत में घटित
हुआ था उस
सबके बारे में
उन्होंने लिख
दिया कि वह
किस तरह
ज्यादा काम—आसक्त
थे, जिस
दिन उनके पिता
की मृत्यु हो
रही थी; वे
उनके पास बैठ
तक न सके। उस
दिन भी उन्हें
अपनी पली के
बिस्तर में
जाना पड़ा।
डॉक्टर
उनसे कह चुके
थे कि 'यह
अंतिम रात है।
सुबह आपके
पिताजी बच
नहीं सकते।
सुबह होने तक
वे खत्म हो
जायेंगे।’ लेकिन
रात कै कोई
बारह या एक
बजे उन्हें
इच्छा महसूस होने
लगी, यौन
इच्छा। उनके
पिताजी सो रहे
थे, तो वे
वहां से खिसक
आये, अपनी
पत्नी के पास
चले आये और
काम—वासना में
लिप्त हो गये।
और पली
गर्भवती थी।
वह नौवां
महीना था।
पिता मर रहे
थे, और
बच्चा भी पैदा
होते ही उसी
क्षण मर गया।
पिता तो उसी
रात्रि चल बसे
और सारी जिंदगी
भर गांधी गहन
पश्चाताप
करते रहे कि
वह अपने पिता
के मरते समय
उनके पास न थे।
काम—वासना
इतनी हावी हो
गयी थी!
गांधी
ने सब कुछ
लिखा था—और
केवल दूसरों
की मदद करने
के लिए। वे
ईमानदार थे।
लेकिन उनके
पास बहुत पत्र
आने लगे और वे
पत्र ऐसे थे
कि वे हैरान
रह गये। बहुत
से लोगों ने
उन्हें लिखा
कि—आपकी
आत्मकथा ऐसी
है कि इसे
पढ़ने भर से ही
हम पहले से
अधिक
कामवासना से
भर गये हैं।
आपकी आत्मकथा
पढ कर हम
ज्यादा कामुक
हो गये और
भोगी हो गये
हैं। वह
कामोत्तेजक
है।
यदि
गलत केंद्र
कार्य कर रहा
होता है, तब
कुछ नहीं किया
जा सकता। जो
कुछ भी तुम
करो या पढ़ो, कैसे भी तुम
व्यवहार करो,
वह गलत ही
होगा। तुम गलत
की ओर ही
बढ़ोगे।
तुम्हारे पास
एक केंद्र है
जो तुम्हें
गलत की ओर
बढ़ने के लिए
धक्का दे रहा
है। तुम बुद्ध
के पास भी चले
जाओ, लेकिन
तुम उनमें भी
कुछ गलत देख
लोगे! तत्काल ही!
तुम बुद्ध को
अनुभव भी नहीं
कर सकते। तुम
तुरंत कुछ गलत
देख ही लोगे।
तुम्हारे पास
केंद्रीकरण
है गलत के लिए।
एक गहरी लालसा
है। कहीं भी, हर कहीं गलत
की खोज करने
की।
मन
की इस वृत्ति
को पतंजलि
विपर्यय कहते
हैं। विपर्यय
का मतलब है
विकृति। तुम
हर चीज विकृत
कर देते हो।
तुम हर चीज के
अर्थ इस तरह
लगाते हो कि
वह विकृति बन
जाती है।
उमर
खय्याम लिखता
है,
मैंने सुना
है, कि
ईश्वर दयालु
है। यह सुंदर
भाव है।
मुसलमान
दोहराये चले
जा
रहे
हैं,
'खुदा रहमान
(करुणावान) है—रहम
रहीम, रहम
कर।’ वे
इसे लगातार
दोहराये जाते
है। इसलिए उमर
खय्याम कहता
है, 'यदि वह
वास्तव में
दयालु है, यदि
उसमें दया है,
तो डरने की
कोई जरूरत
नहीं। मैं पाप
किये जा सकता
हूं। यदि वह
दयालु है तब
डर क्या? जो
कुछ मैं चाहूं
मैं कर सकता
हूं और वह तो
भी दयालु
रहेगा। इसलिए
जब भी मैं
उसके सामने
खड़ा होऊंगा, मैं कहूंगा,
रहीम, रहमान—
ओ करुणामय
ईश्वर! मैंने
पाप किये हैं,
लेकिन तुम
करुणापूर्ण
हो। यदि तुम
वास्तव में
करुणापूर्ण
हो, तब मुझ
कर करुणा करो।’
सो उमर खय्याम
शराब पीता रहा।
जिसे वह पाप
समझता था उसे
भी करता रहा।
लेकिन उसने
इसको बड़े
विकृत ढंग से
प्रतिपादित
किया है।
सारी
दुनियां भर
में लोगों ने
यही किया है।
भारत में हम
कहते हैं, 'यदि
तुम गंगा हो
आओ, यदि
तुम गंगा में
सान करो, तो
तुम्हारे पाप
धुल जायेंगे।’
यह अपने
आपमें एक
सुंदर धारणा
थी। यह बहुत बातों
को दर्शाती है।
यह बतलाती है
कि पाप कोई
गहरी चीज नहीं
है। यह तुम पर
पड़ी धूल की
तरह है। यह
धारणा कहती है,
'इससे बहुत
ग्रसित न हो
जाओ, अपराधी
मत अनुभव करो।
यह धूल मात्र
है, और
भीतर तुम
निर्दोष बने
रहते हो। गंगा
में सान करना
तक मदद कर' सकता
है! '
ऐसा
तुम्हारी मदद
के लिए कहा
गया है, ताकि
तुम पाप में
इतने आविष्ट न
हो जाओ, जैसा
कि ईसाई धर्म
हो गया है।
अपराध इतना
बोझिल हो गया
है कि गंगा
में सान करना
तक मदद करेगा।
तुम्हें इतना
डरने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन हमने
इसके कैसे
अर्थ लगाये
हैं! हम कहते
हैं, 'तो
पाप करते जाना
ठीक ही है।’ और कुछ समय
बाद जब तुम
अनुभव करते हो
कि अब तुमने
बहुत पाप कर
लिये, तो
तुम गंगा को
एक अवसर देते
हो कि वह
तुम्हें शुद्ध
करे। तो तुम
वापस आ जाते
हो और फिर पाप
करते हो।
विकृति का
केंद्र यह
कार्य कर रहा
है।
मन
की तीसरी
वृत्ति है—कल्पना।
मन के पास
कल्पना करने
की क्षमता है।
यह अच्छा है, यह
सुंदर है। और
वह जो सुंदर
है, कल्पनाशक्ति
के द्वारा
उतरा है।
चित्रकारी, कला, नृत्य,
संगीत, जो
भी सुंदर है, वह कल्पना
द्वारा जख्मी
है। लेकिन जो
असुंदर है, वह भी
कल्पना
द्वारा आयी है।
हिटलर, माओ,
मुसोलिनी, वे सब
कल्पनाशक्ति
द्वारा बने
हैं।
हिटलर
ने सुपरमैन की, अतिमानवों
वाली दुनिया
की कल्पना की।
उसने
फ्रेडरिक
नीत्से को
माना, जिसने
कहा था, 'उन
सबको समाप्त
कर दौ, जौ
कमजोर है। उन
सबको नष्ट कर
दो जो श्रेष्ठ
नहीं हैं।
पृथ्वी पर
केवल
महामानवों को
बचा रहने दो।’
तो हिटलर ने
विनाश किया।
लेकिन यह
मात्र कल्पना
है, केवल
आदर्शवादी
कल्पना—यह
मानना कि केवल
कमजोर का
विनाश करके, असुंदर को
नष्ट करने भर
से, शारीरिक
स्वप्न से
अपंग का विनाश
करने भर से ही
तुम एक सुंदर
संसार पा
जाओगे। लेकिन
सब से कुस्वप्न
चीज जो इस
संसार में
संभव है वह
विनाश ही तो
है—यही विनाश!
तो
हिटलर
कल्पनाशक्ति
द्वारा कार्य
कर रहा था।
उसके पास
कल्पना थी—एक
यूयोपियन
कल्पना, अव्यावहारिक।
वह अत्यधिक
कल्पनाशील
व्यक्ति था।
कल्पनाशक्ति—संपन्न
व्यक्तियों
मे से एक था
हिटलर। उसकी
कल्पना इतनी
मतांध और इतनी
उन्मत्त हो गयी
कि अपने
कल्पनापूर्ण
संसार के कारण
उसने इस संसार
को पूरी तरह
नष्ट करने की
कोशिश की।
उसकी कल्पना
विक्षिप्त हो
गयी थी।
कल्पनाशक्ति
तुम्हें
काव्य और
चित्रांकन और
कला दे सकती
है,
और
कल्पनाशक्ति
तुम्हें
पागलपन भी दे
सकती है। यह
निर्भर करता
है कि तुम
कैसे इसका
प्रयोग करते
हो। सारे महान
वैज्ञानिक
अन्वेषण
कल्पनाशक्ति द्वारा
गेंदा हुए हैं।
उन
व्यक्तियों
द्वारा जन्मे
हैं जो कल्पना
कर सकते थे, जो असंभव की
कल्पना कर
सकते थे।
अभी
हम हवा में उड़
सकते हैं, अब
हम चांद पर जा
सकते हैं। ये
बहुत गहरी
कल्पनाएं रही
हैं। सदियों
से, हजारों
सदियों से
आदमी कल्पना
कर रहा है कि
कैसे उड़े, कैसे
चांद पर जायें।
हर बच्चे की
अभिलाषा होती
है ?इक
चांद पर जाये,
चांद को पकड़
ले। तो हम उस
तक पहुंच गये।
कल्पना
द्वारा सृजन
होता है, लेकिन
कल्पना सुरा
विनाश भी आता
है।
पतंजलि
कहते हैं कि
कल्पनाशक्ति
मन की तीसरी वृत्ति
है। तुम इसका
उपयोग गलत ढंग
से कर सकते हो, और
तब यह तुम्हें
नष्ट कर देगा।
या तुम इसका
उपयोग सही ढंग
से कर सकते हो।
इसलिए कल्पना
आधारित ध्यान
की विधियां
हैं। वे
कल्पना से
आरंभ होती हैं,
लेकिन धीरे—
धीरे कल्पना
सूक्ष्म और
सूक्ष्म और
सूक्ष्मतर
होती जाती है।
इसके बाद अंत
में कल्पना
मिट जाती है
और तुम सत्य
के ऐन सामने
होते हो।
ईसाइयों
और मुसलमानों
के सारे ध्यान
मूल स्वप्न
से
कल्पनाशक्ति
के हें। पहले
तुम्हें किसी
चीज की कल्पना
करनी होती है।
तुम इसकी
कल्पना किये
चले जाते हो, और
फिर
कल्पनाशक्ति
के द्वारा तुम
आस—पास एक
वातावरण रच
लेते हो। तुम
इसका प्रयोग
कर सकते हो।
तुम देख सकते
हो कि
कल्पनाशक्ति
के द्वारा क्या
संभव होता है।
असंभव भी संभव
हो जाता है।
यदि
तुम सोचते हो
कि तुम सुंदर
हो,
यदि तुम
कल्पना करते
हो कि तुम
सुंदर हो, तो
एक अनिवार्य
सुंदरता तुम्हरे
शरीर में घटित
होने लगेगी।
जब कभी कोई
पुरुष किसी स्त्री
से कहता है, 'तुम सुंदर
हो' वह स्त्री
उसी क्षण बदल
जाती है। चाहे
पहले वह सुंदर
न रही हो। हो
सकता है इस
क्षण से पहले
वह सुंदर न
रही हो, घरेलू—सी,
'साधारण हो,
लेकिन इस
आदमी ने उसे
कल्पना दे दी
है।
इसलिए
वह औरत जो
प्रेम पाती है, सुंदर
हो जाती है।
वह पुरुष जिसे
प्रेम मिलता
है, ज्यादा
सुंदर हो जाता
है। ऐसा
व्यक्ति जिसे
प्रेम न मिला
हो, चाहे स्वप्नवान
हो, कुस्वप्न
हो जाता है।
क्योंकि वह
कल्पना नहीं
कर सकता, जड़
कल्पना नहीं
कर सकती। और
यदि
कल्पनाशक्ति
नहीं होती है,
तो तुम
सिकुड़ जाते हो।
कुए—पश्चिम
के बड़े
मनोवैज्ञानिकों
में एक, उसने
केवल
कल्पनाशक्ति
द्वारा कई—कई
रोगों से
छुटकारा पाने
में लाखों
लोगों की मदद
की। उसका
फार्मूला बड़ा
सीधा था। वह
कहता कि महसूस
करना शुरू करो
कि तुम ठीक हो।
मन के भीतर
दोहराते ही
रहो, 'मैं
बेहतर से
बेहतर होता जा
रहा हूं। हर रोज
मैं बेहतर हो
रहा हूं।’ रात
को जब तुम सो
जाते हो, तो
सोचते जाना, 'मैं स्वस्थ
हूं मैं हर पल
अधिक स्वस्थ
होता जा रहा
हूं ' और
तुम सुबह होने
तक दुनिया के
सबसे अधिक
स्वस्थ
व्यक्ति —हो
जाओगे। तो बस
ऐसी कल्पना
किये चले जाओ।
और
उसने लाखों
लोगों की मदद
की। असाध्य रोग
भी ठीक हो गये
थे। यह
चमत्कार जान
पड़ता था, लेकिन
ऐसा कुछ था
नहीं। यह
सिर्फ एक
बुनियादी
नियम है—तुम्हारा
मन तुम्हारी
कल्पनाशक्ति
के पीछे चलता
है।
मनोवैज्ञनिक
अब कहते हैं कि
यदि तुम
बच्चों को कहो
कि वे मूढ़
हैं,
मंद हैं, तो वे वैसे
ही हो जाते हैं।
तुम उन्हें
मंद होने के
लिए धक्का
देते हो—उनकी
कल्पनाशक्ति
को इनके सुझाव
दे—दे कर।
और
इसे सिद्ध
करने के लिए
कई प्रयोग
किये गये हैं।
यदि तुम एक
बच्चे से कहते
हो,
तू मंदबुद्धि
है, तू कुछ नहीं
कर सकता। तू
इस गणित को, इस प्रश्र
को हल नहीं कर
सकता।’ और
फिर तुम उसे
प्रश्र दो और
इसे करने के
लिए उससे कहो,
तो वह इसे
हल नहीं कर
पायेगा।
तुमने द्वार
बंद कर दिया
है। लेकिन यदि
तुम बच्चे से
कहो, 'तुम
बहुत
बुद्धिमान हो
और मैंने तुम
जैसा बुद्धिमान
कोई दूसरा
लड़का नहीं
देखा है। अपनी
उम्र के लिहाज
से तुम बहुत
ज्यादा बुद्धिमान
हो। तुममें
बहुत
संभावनाएं
दिखती हैं, तुम कोई भी
प्रश्र हल कर
सकते हो। और
फिर तुम उससे
प्रश्र हल
करने के लिए
कहो, वह
उसे हल कर
पायेगा।
तुमने उसे
कल्पना दे दी है।
अब
तो वैज्ञानिक
अन्वेषण हुए
हैं और उनके
प्रमाण है कि
जो भी बात
कल्पना में
उतर जाती है, वह
बीज बन जाती
है। कई
पीढ़ियों को, कई सदियों
को, कई
राष्ट्रों को
बदल डाला गया
है
कल्पनाशक्ति
का प्रयोग
करके।
तुम
भारत में, पंजाब
में जाकर देख
सकते हो। एक
बार मैं दिल्ली
से मनाली तक
की यात्रा कर
रहा था। मेरा
ड्राइवर एक
सिख, एक
सरदार था। वह
सड़क खतरनाक थी
और हमारी कार
बहुत बड़ी थी।
कई बार
ड्राइवर भयभीत
हुआ। कई बार
कह उठा, ' अब
मैं और आगे
नहीं जा सकता।
हमें पीछे
जाना पड़ेगा।
हमने हर तरह
से उसे राजी
करने की कोशिश
की। एक जगह तो
वह इतना डर
गया कि उसने
कार रोक दी और
वह बाहर निकल
आया और कहने
लगा, 'नहीं!
अब मैं यहां
से आगे नहीं
बढ़ सकता।’ वह
कहने लगा, 'यह
खतरनाक है। हो
सकता है यह
आपके लिए
खतरनाक न हो; आप मरने के
लिए तैयार हो
सकते हो।
लेकिन मैं नहीं
हूं। मैंने
वापस जाने की
ठान ली है।
संयोगवश
मेरा एक मित्र
जो सरदार ही
था और जो एक
बड़े पुलिस
अफसर थे, वह भी
उसी सड़क पर
साथ ही आ रहे
थे। मनाली में
ध्यान शिविर
में भाग लेने
के लिए वह
मेरे पीछे ही
आ रहा था।
उसकी कार उसी
जगह आ पहुंची,
जहां हम रुक
गये थे। सो
मैंने उससे
कहा, 'कुछ
करो। यह आदमी
तो कार से उतर
पड़ा है। पुलिस
अफसर उस आदमी
के पास गया और
बोला, 'तुम
एक सरदार, एक
सिख हो और ऐसे
डरपोक? चलो
कार में जाओ।’
वह आदमी
फौरन कार में
आ बैठा। कार
चला दी। तो मैंने
उससे पूछा, 'क्या हुआ? वह बोला, 'अब
उसने मेरे
अहंकार को छू
दिया है। उसने
कहा था, तुम
कैसे सरदार हो?
सरदार का
अर्थ है, लोगों
का अगुआ। एक
सिख और ऐसा
डरपोक? उसने
मेरी कल्पना
को जगा दिया
है। उसने मेरे
स्वाभिमान को
छू दिया है।’ उस आदमी ने
कहा, अब हम
जा सकते हैं।
मुर्दा या
जिन्दा हम
मनाली
पहुंचेंगे।’
और
ऐसा केवल एक
व्यक्ति के
साथ घटित नही
हुआ है। यदि
तुम पंजाब जाओ, तो
तुम देखोगे कि
ऐसा लाखों के
साथ घटित हुआ
है। पंजाब के
हिंदुओं और
पंजाब के
सिखों को जरा
देखना। उनका
खून एक ही है, वे एक ही
प्रजाति के
हैं। केवल
पांच सौ वर्ष
पहले सब हिंदू
ही थे। लेकिन
एक अलग तरह की
प्रजाति, एक
अलग तरह की
सैनिक जाति
पैदा हो गयी।
केवल दाढ़ी बढा
लेने से, केवल
अपना चेहरा भर
बदल लेने से, तुम बहादुर
नहीं बन सकते।
लेकिन तुम बन
सकते हो। यह
केवल
कल्पनाशक्ति
की बात है।
नानक
ने सिखों को
एक कल्पना दे
दी कि उनकी एक
भिन्न
प्रजाति है।
उन्होंने
उनसे कहा, 'तुम
अजेय हो।’ और
एक बार
उन्होंने इस
पर विश्वास कर
लिया, एक
बार पंजाब में
कल्पनाशक्ति
कार्य करने लगी
तो पांच सौ
वर्षों के
भीतर, पंजाबी
हिंदुओं से
बिलकुल भिन्न
एक नयी प्रजाति
अस्तित्व में
आ गयी। भारत
में उनसे
ज्यादो
बहादुर कोई
नहीं हैं। इन
दो
विश्वयुद्धों
से प्रमाणित
हो गया है कि
सारी पृथ्वी
पर सिखों की
कोई तुलना
नहीं। वे
निडरता से लड
सकते है।
क्या
घटित हो गया
है?
इतना ही हुआ
है कि उनकी
कल्पनाशक्ति
ने उनके
आस—पास एक
वातावरण
निर्मित कर
दिया है। वे
अनुभव करते
हैं कि केवल
सिख हो जाने
से ही वे
भिन्न हो जाते
हैं। कल्पना
काम करती है।
यह तुम्हें
बहादुर आदमी बना
सकती है, यह
तुम्हें
डरपोक बना
सकती है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
शराबखाने में
बैठा शराब पी
रहा था। वह
बहादुर आदमी
नहीं था, वह
सबसे बड़े
डरपोकों में
से एक था।
लेकिन शराब ने
उसे हिम्मत दे
दी। तभी एक
उगदमी, एक
भीमकाय आदमी
शराबखाने में
दाखिल हुआ। वह
कूर आकृति का
था, खतरनाक
दिखता था, वह
खूनी जैसा
लगता था। किसी
और वक्त
मुल्ला होश
में होता, तब
डर गया होता।
लेकिन अब वह
नशे में था, इसलिए वह
बिलकुल भयभीत
नहीं था।
वह
कूर आकृति
वाला आदमी
मुल्ला के पास
आ गया और यह
देखकर कि वह
बिलकुल डरा
हुआ नहीं है, वह
मुल्ला के
पैरों को जा
दबाया।
मुल्ला गुस्से
में आ गया, उग्र
हो गया और
बोला, 'क्या
कर रहे हो तुम?
क्या तुम
ऐसा इरादतन कर
रहे हो या यह
सिर्फ एक तरह
का मजाक है?'
वह
आदमी बोला, 'ऐसा
प्रयोजन से
किया है।’ मुल्ला
नसरुद्दीन
बोला, 'तो
धन्यवाद। यदि
यह प्रयोजन से
किया है तो
ठीक है, क्योंकि
मुझे इस तरह
का मजाक पसंद
नहीं है।’
पतंजलि
कहते हैं कि
कल्पना तीसरी
मानसिक शक्ति
है। तुम
कल्पना किये
चले जाते हो
तो तुम अपने
आस—पास विभ्रम
बना लेते हो—
भ्रम, सपने; और तुम
उनमें गुम हो
सकते हो। एल
एस डी और दूसरे
नशे इस केंद्र
पर कार्य करने
में मदद करते
हैं। इस
प्रकार जितनी
आंतरिक
क्षमताएं
तुम्हारे
भीतर होती हैं,
तुम्हारा
स्वप्न एस डी
ट्रिप उन्हें
बढ़ाने में मदद
करेगा। एल एस
डी के विषय
में कुछ भी
निश्चित नहीं
है। यदि
तुम्हारी
सुखद
कल्पनाएं हैं
तो नशे की
यात्रा एक
प्रसन्नता
वाली यात्रा
होगी, ऊंची
उड़ान! यदि
तुम्हारी
कल्पनाएं
दुखद होती हैं,
भयानक स्वप्न
जैसी
कल्पनाएं तो वह
यात्रा बुरी
होने वाली है।
इसलिए
बहुत—से लोग
एल एस डी के
बारे में
परस्पर
विरोधी विवरण
देते हैं।
हक्सले का
कहना है कि यह
स्वर्ग के
द्वार की चाबी
बन सकती है और
रैनर कहता है
कि यह चरम नरक
है। यह तुम पर
निर्भर करता
है,
एल एस डी
कुछ नहीं कर
सकती। यह एकदम
तुम्हारी
कल्पनाशक्ति
के केंद्र में
कूद जाती है और
वहां
रासायनिक तौर
पर कार्य करना
शुरू कर देती
है। यदि
तुम्हारी
कल्पना भयावह स्वप्न
की तरह की है, तुम उसी को
विकसित कर
लोगे। तुम नरक
में से गुजरोगे।
और यदि तुम
सुंदर सपनों
के प्रति आसक्त
हो, तुम
स्वर्ग तक
पहुंच सकते
हो।
यह
कल्पना या तो
नरक या स्वर्ग
जैसा कार्य कर
सकती है। तुम
पूरी तरह पागल
हो जाने में
इसका प्रयोग
कर सकते हो।
पागलखानों
में जो पागल
आदमी हैं उनके
साथ क्या हुआ
है?
उन्होंने
अपनी
कल्पनाशक्ति
का प्रयोग
किया है लेकिन
उन्होंने
इसका प्रयोग
इस ढंग से किया
है कि वे इससे
असित हो गये
हैं। एक पागल
आदमी अकेला
बैठा हो सकता
है, और हो
सकता है किसी
से जोर—जोर से
बातें भी कर रहा
हो। वह केवल
बातें ही नहीं
करता; वह
जवाब भी देता
है। वही
प्रश्न करता
है और वही
उत्तर देता
है। वह दूसरे
की ओर से भी
बोलता है जो
मौजूद नहीं है।
तुम सोचोगे कि
वह पागल है, पर वह
वास्तविक
व्यक्ति से
बातें कर रहा
है। उसकी
कल्पना मे वह
व्यक्ति
वास्तविक है
और वह फैसला
नहीं कर सकता
कि क्या
काल्पनिक है
और क्या
वास्तविक है।
बच्चे
भी फैसला नहीं
कर सकते। कई
बार होता है कि
एक बच्चा सपने
में खिलौना खो
दे और फिर वह
सुबह रोयेगा
कि 'मेरा खिलौना
कहां है?' बच्चे
नहीं जांच
सकते कि सपने,
सपने हैं और
वास्तविकता, वास्तविकता
है। उन्होंने
कुछ खोया नहीं
है; वे
केवल सपने देख
रहे थे। लेकिन
सीमाएं
धुंधली हो
गयीं। वे नहीं
जानते कि कहां
सपना समाप्त
होता है और
कहां
वास्तविकता आरंभ
होती है।
एक
पागल आदमी के
लिए भी सीमाएं
धुंधली हो गयी
हैं। वह नहीं
जानता कि क्या
वास्तविक है
और क्या अवास्तविक।
यदि
कल्पनाशक्ति
का ठीक प्रकार
से प्रयोग किया
जाये, तो तुम
जान लोगे कि
यह कल्पना है।
और सचेत रहोगे
कि यह कल्पना
ही है। तुम
उसमें मजा ले
सकते हो, लेकिन
तुम जानते हो
कि यह
वास्तविक
नहीं है।
जब
लोग ध्यान
करते हैं तो
बहुत—सी बातें
घटित होती हैं
उनकी कल्पना
द्वारा।
उन्हें
रोशनियां, रंग,
दृश्य
दिखने लग जाते
हैं। वे स्वयं
भगवान से
बातें करने
लगते हैं या
जीसस के साथ
चलने लगते हैं
या कृष्ण के
साथ नाचने लगते
हैं। ये
काल्पनिक
चीजें हैं और
ध्यानी को याद
रखना पड़ता है
कि ये
कल्पनाशक्ति
की क्रियाएं
हैं। तुम उनका
मजा ले सकते
हो; इसमें
कुछ गलत नहीं
है। वे हैं, लेकिन मत
सोचना कि वे
वास्तविक हैं।
ध्यान
रहे,
केवल
साक्षी
चैतन्य ही
वास्तविक है,
और कुछ भी
वास्तविक नहीं
है। जो कुछ
घटित होता है,
सुंदर हो
सकता है, मजा
लेने जैसा हो
तो मजा लो।
कृष्ण के साथ
नाचना बहुत
सुंदर है, इसमें
कुछ गलत नहीं
है। नाचो!
उत्सव मनाओ!
लेकिन ध्यान
रहे निरंतर कि
यह केवल एक
कल्पना है—एक
सुंदर सपना।
इसमें खो मत
जाना। यदि तुम
खो जाते हो, तो कल्पना
खतरनाक हो
जाती है। कई
धार्मिक
व्यक्ति अपनी
कल्पनाओं में
खो जाते हैं।
वे कल्पनाओं
में रहते हैं
और अपना जीवन
गंवा देते हैं।
मन
की चौथी
वृत्ति है
निद्रा। जहां
तक कि
तुम्हारी
बाहर गतिमान
चेतना का संबंध
है,
निद्रा का
अर्थ है
मूर्छा।
तुम्हारा
चैतन्य स्वय
में ही बहुत
गहरे चला गया
है। क्रिया
रुक गयी है; सचेतन
क्रिया रुक
गयी है। मन
कार्य नहीं कर
रहा है।
निद्रा अ_क्रिया
है मन की। यदि
तुम्हें सपना
आ रहा है, तो
वह निद्रा
नहीं है। तुम
केवल जागने और
सोने के बीच
हो। तुमने
जागना छोड़
दिया है, लेकिन
अभी तुमने
निद्रा में
प्रवेश नहीं
किया है। तुम
तो बस बीच में
हो।
निद्रा
का अर्थ है एक
समग्न
निर्विषय
अवस्था। कोई
क्रिया, कोई
चेष्टा मन में
नहीं है। मन
पूरी तरह से
लीन हो गया है।
वह विश्राम
में है। यह
निद्रा सुंदर
है, यह
जीवनदायिनी
है। तुम इसका
उपयोग कर सकते
हो। और यदि
तुम जानते हो
कि इस निद्रा
का उपयोग कैसे
करना है, तो
यह समाधि बन
सकती है।
समाधि और
निद्रा बहुत
भिन्न नहीं
हैँ। अंतर
केवल यही है
कि समाधि में
तुम जागरूक
रहोगे। दूसरी
हर चीज समान
होगी।
निद्रा
में हर चीज
वैसी ही होती
है। फर्क केवल
यही है कि तुम जागरूक
नहीं होते।
तुम उसी आनंद
में होते हो
जिसमें बुद्ध
ने प्रवेश
किया है, जिसमें
रामकृष्ण
जीते रहे हैं,
जिसमें
जीसस ने अपना
घर बनाया।
गहरी निद्रा
में तुम उसी
सुखद अवस्था
में होतै हो, लेकिन तुम जागरूक
नहीं होते हो।
सुबह तुम
अनुभव करते हो
कि रात अच्छी
रही। सुबह तुम
ताजा, सजीव
और परिपुष्ट
अनुभव करते हो।
सुबह तुम
अनुभव करते हो
कि यह रात
सुंदर थी, लेकिन
यह मात्र
परिणाम—बोध है।
तुम नहीं
जानते कि नींद
में क्या घटित
हुआ, वास्तव
में क्या घटित
हुआ है। तब
तुम होश में
नहीं थे।
निद्रा
का दो ढंग से
उपयोग किया जा
सकता है। पहला, ध्यान
के स्वप्न
में और दूसरा,
सहज
विश्राम की तरह।
लेकिन तुमने
वह भी खो दिया
है। वास्तव
में लते अब
निद्रा में जा
ही नहीं पाते।
वे लगातार
सपने ही देखे
चले जाते हैं।
कई बार, बहुत
कम क्षणों के
लिए, वे
निद्रा को
छूते हैं। और
तब फिर उन्हें
सपने आने लगते
हैं। निद्रा
की चुप्पी, निद्रा का
वह आनंदमय
संगीत अज्ञात
हो गया है।
तुमने उसे
नष्ट कर दिया
है।
स्वाभाविक
निद्रा तक
विनष्ट हो गयी
है। तुम इतने
शिक्षित और उत्तेजित
हो कि मन पूरी
तरह से विवरण
विलीनता में
नहीं उतरता।
लेकिन
पतंजलि कहते
हैं कि
नैसर्गिक
निद्रा शारीरिक
स्वास्थ्य के
लिए अच्छी
होती है। और
यदि तुम नींद
में सचेत हो
सकते हो तो यह
समाधि बन सकती
है,
यह
आध्यात्मिक
घटना बन सकती
है। तो
विधियां हैं।
और हम आगे बाद
में उन पर
विचार करेंगे
कि निद्रा, ध्यान और
जागरण कैसे बन
सकती है। गीता
में कहा है कि
योगी नींद में
भी सोता नहीं
है; वह
नींद में भी
सचेत बना रहता
है। उसके भीतर
कुछ जागरूक
बना रहता है।
सारा शरीर
निद्रा में
डूब जाता है, मन उतर जाता
है निद्रा में,
लेकिन
साक्षीबोध
बना रहता है।
कोई जागता
रहता है।
मीनार जैसी
ऊंचाई पर कोई
द्रष्टा बना
ही रहता है।
तब निद्रा
समाधि बन जाती
है। वह परम
आनन्दोल्लास
बन जाती है।
और
अंतिम, मन की
पांचवीं
वृत्ति है—स्मृति।
इसका भी उपयोग
या दुरुपयोग
हो सकता है।
यदि स्मृति का
दुरुपयोग
किया जाता है,
तो भ्रांति
बनती है।
वास्तव में, तुम्हें कुछ
याद भी रह
जाये, तो
भी तुम
निश्चित नहीं
हो सकते कि यह
उस तरह घटित
हुआ था या
नहीं।
तुम्हारी
स्मृति
विश्वसनीय
नहीं है। तुम
इसमें बहुत
सारी चीजें
जोड़ सकते हो।
इसमें कल्पना
प्रवेश कर
सकती है। हो
सकता है तुम
इससे बहुत
सारी चीजें
निकाल दो, तुम
इसके साथ बहुत
कुछ कर लो। जब
तुम कहते हो, यह 'मेरी
स्मृति है, ' यह बहुत
संस्कारित
हुई होती है, बहुत बदली
हुई। यह
वास्तविक
नहीं होती है।
सब
कहते हैं कि
उनका बचपन
बिलकुल
स्वर्ग जैसा था।
और बच्चों की
ओर देखो! ये भी
फिर बाद में
यही कहेंगे कि
इनका बचपन
स्वर्ग था, लेकिन
अभी वे दुख
उठा रहे हैं।
और हर बच्चा
जल्दी बड़ा हो
जाने के लिए, वयस्क हो
जाने के लिए
ललकता है, हर
बच्चा सोचता
है कि वयस्क
लोग मजे कर
रहे हैं। हर
चीज जो रस
लेने योग्य है,
वे उसका रस
ले रहे हैं।
वे शक्तिशाली
हैं। वे सब
कुछ कर सकते
हैं। और वह
स्वयं
निस्सहाय है।
बच्चे सोचते
हैं, वे
कष्ट पा रहे
हैं। लेकिन ये
बच्चे भी बड़े
हो जायेंगे
जैसे कि तुम
बड़े हो, और
तब बाद में वे
कहेंगे, बचपन
सुंदर था, बिलकुल
एक स्वर्ग!
तुम्हारी
स्मृति
विश्वसनीय
नहीं है। तुम
कल्पना किये
जा रहे हो, तुम
केवल अपने
अतीत को आगे
प्रक्षेपित
कर रहे हो।
तुम अनुभव के
प्रति सच्चे
नहीं हो, और
तुम इसमें से
बहुत सारी
चीजें छोड़
देते हो। वह
सब जो कुस्वप्न
था, वह सब
जो उदास था, वह सब जो
दुखद था, तुम
छोड़ देते हो।
लेकिन वह सब
जो सुंदर था, तुम बचाये
रहते हो। वह
सब जो
तुम्हारे
अहंकार को बल
देता था, तुम
याद रखते हो, और वह सब जो
बल नहीं देता,
तुम छोड़
देते हो।
इसलिए
हर आदमी के
पास छोड़ दी
गयी
स्मृतियों का
एक विशाल
गोदाम होता है।
और जो कुछ भी
तुम कहते हो, सच
नहीं है।
क्योंकि तुम
ठीक—ठीक याद
नहीं रख सकते
हो। तुम्हारे
केंद्र
बिलकुल ही
घपले में हैं।
वे एक—दूसरे
में प्रवेश कर
जाते हैं और
एक—दूसरे को
अस्त—व्यस्त
कर देते हैं।
सम्यक
स्मृति—बुद्ध
ने ध्यान के
लिए 'सम्यक
स्मृति' शब्द
का प्रयोग
किया है।
पतंजलि कहते
हैं कि स्मृति
के सम्यक होने
के लिए अपने
प्रति समग्न
रूप से सच्चा
होना पड़ता है।
केवल तभी
स्मृति सही हो
सकती है। जो
कुछ भी घटित
हुआ है, अच्छा
या बुरा, उसे
परिवर्तित मत
करो। जो जैसा
है उसे वैसा
ही जानो। ऐसा
बहुत कठिन
होता है। यह
दुष्कर है। साधारणतया
तुम चुन लेते
हो और बदल
देते हो। अपना
अतीत जैसा था
उसे वैसा ही
जान लेना, तुम्हारी
सारी जिंदगी
को बदल देगा।
जैसा तुम्हारा
अतीत था यदि
तुम उसे ठीक
से जान लेते
हो, तो तुम
भविष्य में
उसे दोहराना
नहीं चाहोगे। अभी
हर आदमी रुचि
ले रहा है कि
अतीत को
परिवर्तित
रूप में कैसे
दोहराया
जाये। लेकिन
जैसा अतीत था
उसे यदि तुम
ठीक से जान
लेते हो तो
तुम उसे
दोहराना नहीं
चाहोगे।
सारे
अतीत से मुक्ति
कैसे हुआ जाये
इसके लिए
सम्यक स्मृति
तुम्हें
प्रेरणा—शक्ति
देगी। और यदि
स्मृति सही है, तो
तुम पूर्व
जन्मों की
स्मृतियों
में भी जा सकते
हो। यदि तुम
सच्चे हो, तब
तुम अतीत की
स्मृतियों
में जा सकते
हो। तब तुम्हारी
केवल एक इच्छा
होगी—इस सारी
निरर्थकता का
अतिक्रमण
करना। लेकिन
तुम सोचते हो
कि वह अतीत
सुंदर था, और
तुम सोचते हो
कि भविष्य
सुंदर बनने
वाला है और
केवल वर्तमान
ही गलत है।
लेकिन कुछ दिन
पहले अतीत
वर्तमान ही था
और वह भविष्य
कुछ दिनों
पश्चात
वर्तमान बन
जायेगा। और हर
वर्तमान गलत
है और अतीत
हमेशा सुंदर
लगता है और
भविष्य हमेशा
सुंदर लगता
है। यह भ्रांतिपूर्ण
स्मृति है।
अतीत को
प्रत्यक्ष
ढंग से देखो।
उसे बदलों मत।
अतीत जैसा था,
उसे देखो।
लेकिन हम
बेईमान है।
हर
आदमी अपने
पिता से नफरत
करता है, लेकिन
यदि तुम किसी
से पूछो तो वह
कहेगा, 'मैं
अपने पिता से
प्यार करता
हूं। सबसे
अधिक मैं अपने
पिता का आदर
करता हूं।’ हर औरत अपनी
मां से नफरत
करती है, लेकिन
पूछो और हर
औरत कहेगी, 'मेरी मां! वह
तो बिलकुल
दिव्य है।’ यह है
भ्रांतिपूर्ण
स्मृति।
जिब्रान
की एक कहानी
है। एक रात
मां और बेटी अचानक
उठ गयीं।
दोनों
निद्राचारी
थीं,
स्लीपवाकर।
फिर वे दोनों
बाग में टहलने
लगीं, नींद
में ही। वे
स्लीपवाकर
थीं। वह बूढ़ी
सी, वह मां
बेटी से कह
रही थी, 'तेरे
कारण—तू
कुतिया! तेरे
कारण, मेरा
यौवन नष्ट हो
गया है। तूने
मुझे नष्ट किया।
अब हर आदमी जो
घर में आता है,
तुझे देखता
है। मुझे कोई
नहीं देखता।’
मां एक गहरी
ईर्ष्या
व्यक्त कर रही
थी जो हर मां
को होती है, जब उसकी
बेटी युवा और
सुंदर हो जाती
है। ऐसा हर
मां के साथ
होता है, लेकिन
इसे भीतर छिपा
कर रख लिया
जाता है।
और
बेटी कह रही
थी,
'तू सड़ियल
बुढ़िया! तेरी
वजह से मैं
जीवन का आनंद
नहीं ले सकती।
तू ही अड़चन
है। हर कहीं
तू ही अड़चन है,
बाधा है।
मैं प्रेम नहीं
कर सकती। मजे
नहीं कर सकती!'
और
तभी अचानक शोर
के कारण, वे
दोनों जाग
गयीं। की सी
बोली, 'मेरी
बच्ची, तुम
यहां क्या कर
रही हो? तुम्हें
सर्दी लग सकती
है। अंदर आ
जाओ।’ और
बेटी बोली, 'लेकिन तुम
यहां क्या कर
रही हो? तुम्हारी
तबीयत ठीक
नहीं थी और यह
सर्दी की रात
है। आओ मां, बिस्तर में
लेटो।’
वह.
पहली बात जो
हो रही थी, अचेतन
मन से चली आ
रही थी। अब वे
फिर अभिनय कर
रही थीं। वे
जाग गयी थी़।
अचेतन मन चला
गया था और
चेतन मन आया
था। अब
पाखंड़ी हो
गयी थी।
तुम्हारा
चेतन मन
पाखंडी है।
अपनी
स्मृतियों के
प्रति सच्चे
तौर पर
ईमानदार होने
के लिए कठिन
प्रयास में से
सचमुच गुजरना
पड़ता है। और
तुम्हें
सच्चा होना
पड़ता है, चाहे
कुछ हो।
तुम्हें नग्न
स्वप्न से
वास्तविक
होना पड़ता है।
इसे तुम्हें
जानना ही होगा
कि तुम सचमुच
क्या सोचते हो
अपने पिता के
बारे में, अपनी
मां के बारे
में, अपने
भाई के बारे
में, अपनी
बहन के बारे
में—जो तुम
वास्तव में
सोचते हो। और
अतीत में जो
तुम्हारे साथ
घटित हुआ है, उसे तोड़ो—मरोड़ो
मत, बदलो
मत, सवारो
मत। वह जैसा
है उसे वैसा
ही रहने दो।
यदि ऐसा हो
जाता है तो
पतंजलि कहते
हैं, यही
बात मुक्ति
बन जायेगी।
तुम इसे छोड़
दोगे। सारी
बात निरर्थक
है, और तुम
इसे फिर
भविष्य में
प्रक्षेपित
करना नहीं
चाहोगे।
और
तब तुम एक
पाखण्ड़ी
नहीं रहोगे।
तुम वास्तविक, सच्चे,
निष्कपट
रहोगे। तुम
प्रामाणिक हो
जाओगे। और जब
तुम
प्रामाणिक हो
जाते हो, तुम
चट्टान की
भांति हो जाते
हो। कोई चीज
तुम्हें नहीं
बदल सकती है, कोई चीज
भ्रम पैदा
नहीं कर सकती।
तुम
तलवार जैसे हो
गये हो। जो
कुछ गलत है
उसे तुम काट
सकते हो। जो
कुछ सही है
उसे तुम गलत
से अलग कर
सकते हो। और
तब मन की
स्पष्टता
उपलब्ध हो
जाती है। वह
स्पष्टता, स्वच्छता
तुम्हें
ध्यान की ओर ले
जाती है। वह
स्पष्टता
विकास के लिए
बुनियादी
जमीन बन सकती
है—विकसित
होकर अतिक्रमण
में उतरने के
लिए।
आज इतना
हीं।
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