दिनांक
3 जनवरी, 1974;
संध्या।
बुडलैण्डस,
बंबई।
योगसूत्र:
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्थ
वशीकारसंज्ञा
वैराग्यम्।।
15।।
वैराग्य, निराकांक्षा
की 'वशीकारसंज्ञा'
नामक पहली अवस्था
है—ऐंद्रिक
सुखों की
तृष्णा में, सचेतन
प्रयास
द्वारा, भोगासक्ति
की समाप्ति।
तत्पर
पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।।
16।।
वैराग्य, निराकांक्षा
की अंतिम
अवस्था है—पुरुष
के, परम
आत्मा के
अंतरतम
स्वभाव को
जानने के कारण
समस्त
इच्छाओं का
विलीन हो जाना।
अभ्यास
और वैराग्य—सतत
आंतरिक
अभ्यास और
इच्छारहितता—ये
दो बुनियादी
शिलाएं हैं
पतंजलि के योग
की। सतत आंतरिक
प्रयास की
आवश्यकता है, इस
कारण नहीं कि
कुछ पाना है, बल्कि इस
कारण कि आदतें
गलत हैं। लड़ाई
प्रकृति के
विरुद्ध नहीं
है, लड़ाई
आदतों के
विरुद्ध है।
प्रकृति
मौजूद है, हर
क्षण उपलब्ध
है तुममें
प्रवाहित
होने के लिए, तुम्हारे
उसके साथ एक
होने के लिए, लेकिन
तुम्हारे पास
आदतों का गलत
ढांचा है। वे
आदतें बाधाएं
निर्मित करती
हैं। लड़ाई इन
आदतों के
विरुद्ध है।
और जब तक वे
नष्ट नहीं
होतीं, स्वभाव,
तुम्हारा आंतरिक
स्वभाव
प्रवाहित
नहीं हो सकता,
आगे नहीं बढ़
सकता; उस
नियति तक नहीं
पहुंच सकता
जिसके लिए यह
बना है।
तो
यह पहली बात
ध्यान में
लेना—संघर्ष
स्वभाव के
विरुद्ध नहीं
है। संघर्ष
गलत स्वभाव के, गलत
आदतों के
विरुद्ध है।
तुम स्वयं से
नहीं लड़ रहे
हो; तुम
कुछ दूसरी चीज
की ओर से लड़
रहे हो, जो
तुम्हारे
भीतर जड़ हो
गयी है। यदि
इसे ठीक से
नहीं समझा
जाता तो
तुम्हारी सारी
कोशिश गलत
दिशा की ओर जा
सकती है। हो
सकता है तुम
स्वयं के साथ
लड़ना शुरू कर
दो, और एक
बार तुम स्वयं
से लड़ना शुरू
करते हो, तो
तुम हारने
वाली लड़ाई लड़
रहे होते हो।
तुम कभी विजयी
नहीं हो सकते।
कौन विजयी
होगा और कौन
पराजित होगा?
तुम दोनों
हो—एक वह जो लड़
रहा है और एक
वह जिससे तुम
लड़ रहे हो, दोनों
एक हैं।
अगर
मेरे दोनों
हाथ लड़ना शुरू
कर दें, तो
कौन जीतने
वाला है? एक
बार तुम स्वयं
से लड़ना शुरू
करते हो, तो
तुम हारने ही वाले
हो। और बहुत
सारे लोग, अपने
प्रयास में, आध्यात्मिक
सत्य की अपनी
खोज में, इस
भूल में गिर
जाते हैं। वे
इस भूल के
शिकार हो जाते
हैं। वे स्वयं
से लड़ने लग
जाते हैं। यदि
तुम स्वयं से
लड़ते हो, तो
तुम ज्यादा और
ज्यादा
विक्षिप्त हो
जाओगे। तुम
ज्यादा से
ज्यादा विभाजित
हो जाओगे।
विखंडित। तुम
स्किड्जोफ्रेनिक,
खंडित
मनस्क हो
जाअप्तौ। और
यही है जो
पश्चिम में घट
रहा है।
क्रिश्चिएनिटी
सिखा गयी है—क्राइस्ट
नहीं, बल्कि क्रिश्चिएनिटी
सिखा गयी है—स्वयं
से लड़ने के
लिए, स्वयं
की निंदा करने
के लिए, स्वयं
को अस्वीकार
करने के लिए।
ईसाइयत ने बड़े
विभाजन
निर्मित कर
दिये हैं नीचे
और ऊंचे के
बीच। कुछ
निचला नहीं है
और कुछ ऊंचा
नहीं है, लेकिन
ईसाइयत
निम्नतर
आत्मा और
उच्चतर आत्मा
के बारे में
कहती है, शरीर
और आत्मा।
किसी भी तरह
ईसाइयत
तुम्हें
विभक्त करती
है और लड़ाई
निर्मित करती
है। यह लड़ाई
अंतहीन होने
वाली है। यह
तुम्हें कहीं
नहीं ले
जायेगी।
अंतिम परिणाम
केवल
आत्मविनाश हो
सकता है, विखंडित
मनस्क
अव्यवस्था।
यही तो हो रहा
है पश्चिम में।
योग
कभी तुम्हें
विभक्त नहीं
करता, लेकिन
तब भी एक
संघर्ष है।
लेकिन यह
संघर्ष
तुम्हारे
स्वभाव के
विरुद्ध नहीं
है। इसके
विपरीत, संघर्ष
तुम्हारे
स्वभाव के लिए
है। तुमने
बहुत सारी
आदतें संचित
कर ली हैं। वे
आदतें
तुम्हारे
बहुत—से
जन्मों की
प्राप्तियां
हैं—तुम्हारे
गलत ढांचे। और
उन्हीं गलत
ढांचों के
कारण
तुम्हारा
स्वभाव सहजता
से आगे नहीं
बढ़ सकता।
सहजता से
प्रवाहित
नहीं हो सकता,
अपनी नियति
तक नहीं पहुंच
सकता। इन
आदतों को नष्ट
करना होता है।
और ये केवल
आदतें ही होती
हैं। वे
तुम्हें
स्वभाव की
भांति जान पड़
सकती हैं क्योंकि
तुम उनसे इतने
ज्यादा
ग्रसित हुए होते
हो। हो सकता
है तुम उनके
साथ तादात्म्य
बना चुके हो, लेकिन तुम
वे ही नहीं हो।
यह
अंतर मन में
स्पष्टतया
बनाये रखना
होता है अन्यथा
तुम पतंजलि का
गलत अर्थ लगा
सकते हो। जो
कुछ भी तुममें
बाहर से आया
है और जो गलत
है,
उसे मिटा
देना होता है
ताकि वह जो
तुम्हारे भीतर.
है, बह सके,
खिल सके।
अभ्यास, सतत
आंतरिक
अभ्यास, आदतों
के विरुद्ध
होता है।
दूसरी
बात,
दूसरी बुनियांदी
शिला, वैराग्य
है—इच्छाशून्यता।
यह भी तुम्हें
गलत दिशा में
ले जा सकता है।
और ध्यान रहे,
ये नियम
नहीं हैं, ये
सीधी—सादी
दिशाएं हैं।
जब मैं कहता
हू कि ये नियम
नहीं हैं, तो
मेरा मतलब
होता है किसी
सम्मोह की तरह
उनके पीछे
नहीं चलना है।
उन्हें समझना
होता है—उनका
अर्थ, उनका
महत्व। और उस
अर्थवत्ता को
अपने जीवन में
उतारना होता
है।
वह
सार्थकता हर
एक के लिए अलग
होने वाली है, अत:
ये जड़ नियम
नहीं हैं।
तुम्हें
मतांध होकर उन
पर नहीं चलना
है। तुम्हें
महत्व को
समझना है और
फिर उसे स्वयं
के भीतर
विकसित होने
देना है। यह
खिलावट हर
व्यक्ति में
अलग—अलग ढंग
से होने वाली
है। इसलिए ये
मुरदा, मतांध
नियम नहीं हैं;
ये सीधी—सादी
दिशाएं हैं।
वे दिशा
निर्देश देती
हैं। वे
तुम्हें
ब्योरा नहीं
देतीं।
मुझे
याद आता है कि
एक बार मुल्ला
नसरुद्दीन म्यूजियम
के द्वारपाल
की हैसियत से
काम कर रहा था।
जिस पहले दिन
वह नियुक्त
हुआ,
उसने
नियमों के
बारे में पूछा
कि कौन—से
नियमों पर
चलना है। उसे
पुस्तक दी गयी
उन नियमों
वाली, जिन्हें
द्वारपाल
द्वारा पालन
किया जाना था।
उसने याद कर
लिया उन्हें।
उसने पूरा
ध्यान रखा एक
भी ब्योरा न
भूलने का।
तब
पहले दिन जब
वह काम पर था, पहला
दर्शक आया।
उसने दर्शक से
कहा, अपना
छाता वहां
दरवाजे के
बाहर छोड़ देने
को। दर्शक
चकरा गया। वह
बोला, 'लेकिन
मेरे पास कोई
छाता नहीं है।’
तो
नसरुद्दीन
बोला, 'उस
अवस्था में
तुम्हें वापस
जाना होगा और
छाता लाना
होगा क्योंकि
यही नियम है।
जब तक कि
दर्शक अपना
छाता यहां
बाहर न छोड़े, उसे अंदर
नहीं आने दिया
जा सकता।’
और
बहुत सारे लोग
हैं जो नियमों
से मस्त हैं।
वे अंधों की
भांति अनुगमन
करते है।
पतंजलि
तुम्हें नियम
देने में रुचि
नहीं रखते। जो
कुछ वे कहने
वाले हैं वे
स्वाभाविक
दिशाएं हैं।
उनका अनुगमन
नहीं करना है, बल्कि
उन्हें समझना
है। अनुगमन तो
उस समझ में
चला आयेगा। और
उल्टा घटित
नहीं हो सकता
है। अगर तुम
नियमों के
पीछे चलते हो,
तो समझ नहीं
आयेगी। लेकिन
यदि तुम
नियमों को
समझते हो, तो
अनुगमन अपने
आप आ पहुंचेगा,
छाया की तरह।
इच्छाशून्यता
एक दिशा है।
यदि तुम नियम
की भांति उसके
पीछे चलते हो, तब
तुम अपनी
इच्छाओं को मारना
शुरू कर दोगे।
और बहुतों ने
यह किया है, लाखों ने
यही किया।
अपनी इच्छाओं
को मारना शुरू
कर देते है।
बेशक, ऐसा
अपने आप से
पीछे चला आता
है। यह
बुद्धिसंगत
है। यदि
वैराग्य को, निराकांक्ष
को पाना है, तब यह सबसे
अच्छा ढंग है—सभी
इच्छाओं को
मार देना। तब
तुम बिना
इच्छाओं के
होओगे!
लेकिन
तुम मरे हुए
भी होओगे। तुम
नियमों पर ठीक—ठीक
चल रहे होओगे।
लेकिन यदि तुम
सारी इच्छाओं
को मार देते
हो तो तुम स्वयं
को मार रहे
होओगे।
क्योंकि
इच्छाएं केवल
इच्छाएं नहीं
है,
वे जीवन—ऊर्जा
का प्रवाह है।
तो वैराग्य
प्राप्त करना
है किसी चीज
को मारे बिना।
वैराग्य
प्राप्त करना
है अधिक जीवन
के साथ, अधिक
ऊर्जा के साथ;
कम ऊर्जा के
साथ नहीं।
उदाहरण
के लिए, तुम
कामवासना को
आसानी से मार
सकते हो अगर
तुम शरीर को
भूखों मारते
हो क्योंकि
कामवासना और भोजन
गहरे रूप से
संबंधित हैं।
भोजन की
आवश्यकता है
तुम्हारे
जीवित रहने के
लिए, व्यक्ति
के जीवित रहने
के लिए, और
कामवासना की
आवश्यकता है,
प्रजाति के,
मानव जाति
के जीवित रहने
के लिए। एक
तरह से वे
दोनों भोजन
हैं। बिना
भोजन के
व्यक्ति
जीवित नहीं रह
सकता और बिना
कामवासना के
मनुष्य जाति
जीवित नहीं रह
सकती। लेकिन
मुख्य बात है
व्यक्ति। यदि
व्यक्ति
जीवित नहीं रह
सकता, तब
मनुष्य जाति
के जीवित रहने
का तो कोई
प्रश्न ही
नहीं।
तो
यदि तुम अपने
शरीर को भूखा
मारते हो, यदि
तुम अपने शरीर
को इतना कम
भोजन देते हो
कि उससे जो
ऊर्जा
निर्मित होती
है वह रोज—रोज
के दैनिक
कार्य में
खर्च हो जाती
है—तुम्हारे
चलने, तुम्हारे
बैठने, तुम्हारे
सोने में, और
कोई अतिरिक्त
ऊर्जा संचित
नहीं होती, तब कामवासना
विलीन हो
जायेगी।
क्योंकि
कामवासना हो
सकती है केवल
तभी, जब
व्यक्ति
अतिरिक्त
ऊर्जा
एकत्रित कर
रहा हो—जितनी
उसे अपने
जीवित रहने के
लिए जरूरत है
उससे ज्यादा।
तब शरीर
प्रजाति के
बने रहने की
सोच सकता है।
लेकिन यदि तुम
खतरे में होते
हो,' तब
शरीर बिलकुल
भूल जाता है
कामवासना के
बारे में।
इसलिए
उपवास के लिए
इतना ज्यादा
आकर्षण है, क्योंकि
अगर तुम उपवास
रखते हो, तो
कामवासना मिट
जाती है।
लेकिन यह
निर्वासना
नहीं है। यह
तो बस अधिक और
अधिक मुरदा
हुए जाना है; कम और कम
जीवित होना।
भारत में जैन
शइन निरंतर
उपवास रखते
रहे हैं केवल
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
करने के लिए
ही, क्योंकि
अगर तुम
निरंतर उपवास
रखते हो, अगर
तुम सदा
भुखमरी वाले
आहार पर रहो, तो कामवासना
मिट जाती है।
किसी दूसरी
चीज की जरूरत
नहीं है—न मन
के रूपांतरण
की, न आंतरिक
ऊर्जा के
रूपांतरण की।
केवल भूखा
रहना मदद करता
है।
फिर
तुम भूखा रहने
की आदत डाल
लेते हो। और
अगर तुम इसे
वर्षों तक सतत
जारी रखो, तो
तुम एकदम भूल
ही जाओगे कि
कामवासना
अस्तित्व भी
रखती है। कोई
ऊर्जा
निर्मित नहीं
हुई, कोई
ऊर्जा
कामकेंद्र की
ओर नहीं बहती।
बहने के लिए
कोई ऊर्जा है
ही नहीं।
व्यक्ति बना
रहता है, बस
मरी हुई चीज
की तरह। कोई
कामवासना
नहीं होती।
लेकिन
यह अर्थ नहीं
है पतंजलि का।
यह
इच्छाविहीन
अवस्था नहीं
है। यह एकदम
दुर्बल
अवस्था है।
ऊर्जा वहां है
नहीं। तुमने
शायद तीस या
चालीस वर्ष के
लिए शरीर को भूखा
रख लिया हो, लेकिन
अगर तुम शरीर
को सही भोजन
दो, तो
कामवासना फिर
तुरंत प्रकट
हो जायेगी।
तुम
परिवर्तित
नहीं हुए हो।
कामवासना तो
बस वहां छिपी
हुई है, ऊर्जा
के प्रवाहित
होने की
प्रतीक्षा
करते हुए। जब
कभी ऊर्जा
प्रवाहित
होती है, कामवासना
फिर जीवंत हो
उठेगी।
तो
वैराग्य की
कसौटी क्या है? कसौटी
को याद रखना
पड़ता है।
ज्यादा जीवंत
रहो, ऊर्जा
से ज्यादा भरे
रहो, सक्रिय
रहो, और
फिर
वैराग्यपूर्ण
बन जाओ। अगर
तुम्हारा
वैराग्य
तुम्हें
ज्यादा जीवंत
बनाता है, केवल
तभी तुमने
सम्यक दिशा को
समझा है। अगर
यह तुम्हें
केवल मुरदा
व्यक्ति बनाता
है, तब
तुमने केवल
नियम का
अनुसरण किया
है। नियम का
अनुसरण करना
सरल है
क्योंकि किसी
बौद्धिकता की
आवश्यकता
नहीं है। नियम
पर चलना सरल
है क्योंकि
सीधी
चालाकियां काम
कर सकती हैं।
उपवास एक सीधी
चालाकी है।
कुछ ज्यादा
उसमें
समाविष्ट
नहीं होता, उससे कोई
बुद्धिमानी
जनमने वाली
नहीं है।
ऑक्सफोर्ड
में एक प्रयोग
हुआ। तीस दिन
तक बीस
विद्यार्थियों
का एक समूह
पूरी तरह भूखा
रह गया था। वे
युवा, स्वस्थ
लड़के थे।
सातवें या
आठवें दिन के
बाद उन्होंने
लड़कियों के
प्रति होने
वाला आकर्षण
खोना शुरू कर
दिया। नग्न
तस्वीरें
उन्हें दी जायें
और वे उदासीन
रहें। और यह
उदासीनता
मात्र
शारीरिक नहीं
थीं, उनके
मन भी उस ओर
आकर्षित नहीं
थे।
यह
शांत हुआ
क्योंकि अब
विधियां
मौजूद हैं मन
को आंकने की।
जब कभी कोई
युवक, कोई
स्वस्थ युवा,
युवती की नग्न
तस्वीर को
देखता है, तो
उसकी आंखों की
पुतलियां बड़ी
हो जाती हैं, वे ज्यादा
खुली होती हैं
नग्न रूप को
भोगने के लिए।
और तुम अपनी आंखों
की पुतलियों
को नियंत्रित
नहीं कर सकते,
वे ऐच्छिक
नहीं होती हैं।
तुम कह सकते
हो कि तुम
कामवासना में
दिलचस्पी
नहीं रखते, लेकिन एक नग्न
तस्वीर दिखा
देगी कि तुम
दिलचस्पी
रखते हो या
नहीं। और तुम
स्वेच्छा से
कुछ नहीं कर
सकते। तुम
अपनी आंखों की
पुतलियों को
नियंत्रित
नहीं कर सकते।
वे फैल जाती
हैं क्योंकि
कुछ बहुत
आकर्षक उनके
सामने आ गया
है, वे
ज्यादा खुल
जाती हैं।
पुतलियां
ज्यादा खुल
जातीं हैं, ज्यादा पाने
को। स्त्रियों
को नग्न
पुरुष में
आकर्षण नहीं
है, उन्हें
छोटे बच्चों
में ज्यादा
आकर्षण है।
इसलिए अगर एक
सुंदर बच्चे
की तस्वीर
उन्हें दी
जाती है, तो
उनकी आंखें
फैल जाती हैं।
हर
प्रयत्न कर
लिया गया यह
जानने के लिए
कि क्या लड़कों
को कामवासना
में आकर्षण था? लेकिन
कोई आकर्षण
नहीं था। धीरे—
धीरे आकर्षण
ढल गया। अपने
सपनों में भी
उन्होंने
लड़कियां
देखना बंद कर
दिया था। कोई
यौनस्वप्न
नहीं आते थे।
दूसरे सप्ताह
तक चौदहवें या
पंद्रहवें
दिन तक, वे
एकदम मरी हुई
लाशें थे। अगर
कोई सुंदर लड़की
पास आयी भी, तो वे न
देखते। अगर
कोई गंदा मजाक
करता तो वे न
हंसते। तीस
दिन तक वे
भूखे रहे। तीस
दिन बाद तो
सारा समूह
कामवासनाहीन
था! उनके मन
में या शरीरों
में कोई
कामवासना न थी।
तब
फिर उन्हें
भोजन दिया गया।
पहले दिन ही
वे फिर उसी
पुराने ढंग के
हो गये थे।
अगले दिन तक
वे कामवासना
में ज्यादा
आकृष्ट थे और
तीसरे दिन तक
तीस दिनों की
सारी भुखमरी पूरी
तरह गायब हो
गयी थी। अब वे
कामवासना में
केवल आकृष्ट
ही न थे, वे
पूएर मस्त
होकर आकृष्ट
थे—जैसे कि
अंतराल ने
आकर्षण के
बढ़ने में मदद
कर दी थी। कुछ
सप्ताह के लिए
वे सनकी ढंग
से यौनपूर्ण थे।
केवल लड़कियों
के बारे में
ही सोचते रहे
और दूसरा कुछ
नहीं। जब भोजन
था शरीर में, लड़कियां फिर
से
महत्वपूर्ण
हो गयी थीं।
किंतु
ऐसा सारे
संसार में
बहुत देशों
में किया जाता
रहा है। बहुत
धर्मों ने
उपवास करने के
अभ्यास का
पालन किया है।
और फिर लोग
समझने लगते है
कि वे कामवासना
के पार चले गये
है। तुम
कामवासना के
पार जा सकते
हो,
लेकिन
उपवास नहीं है
उसका उपाय। यह
तो एक चालाकी
है। और यह
चालाकी हर तरह
से प्रयोग की
जा सकती है।
अगर तुम उपवास
करते हो, तो
तुम कम भूखे
होओगे। और अगर
तुम उपवास
करने की आदत
बना लेते हो, तब बहुत
सारी चीजें
तुम्हारी
जिंदगी से गिर
ही जायेंगी
क्योंकि आधार
हरि गया है।
भोजन होता है
आधार।
जब
तुम्हारे पास
अधिक ऊर्जा
होती है, तुम
अधिक आयामों
की ओर सरकते
हो। जब तुम
ऊर्जा के
अतिरेक
प्रवाह से भरे
हुए होते हो, तो तुम्हारी
उमड़ पड़ रही
ऊर्जा
तुम्हें बहुत—सी
इच्छाओं में
ले जाती है।
इच्छाएं कुछ
नहीं है सिवाय
ऊर्जा की
अभिव्यक्ति
के।
तो
दो तरीके संभव
हैं। एक तो यह
कि तुम्हारी
इच्छाएं बदल
जाती हैं लेकिन
ऊर्जा बनी
रहती है। और
दूसरा है कि
ऊर्जा मार
डाली जाती है
लेकिन इच्छाएं
बनी रहती हैं।
ऊर्जा बड़ी
आसानी से
हटायी जा सकती
है। सरलता से
तुम्हारी
शल्य—क्रिया
की जा सकती है
जननेंद्रिय
की,
और तब
कामवासना मिट
जाती है। कुछ
हार्मोन्स
तुम्हारे
शरीर से निकाल
दिये जा सकते
हैं। यही है
जो उपवास कर
रहा है। कुछ
हार्मोन्स
मिट जाते है
और तब तुम
कामविहीन हो
सकते हो।
लेकिन
यह नहीं है
पतंजलि का
ध्येय।
पतंजलि कहते
हैं कि ऊर्जा
बनी रहनी
चाहिए और
इच्छाएं मिट
जानी चाहिए।
केवल जब
इच्छाएं मिट
जाती हैं और
तुम ऊर्जा से
भरे हुए होते
हो,
तब तुम उस
आनंदमयी
अवस्था को
उपलब्ध हो
सकते हो, जिसके
लिए योग
प्रयत्न करता
है। एक मुरदा—सा
व्यक्ति
दिव्यता तक
नहीं पहुंच
सकता है।
दिव्यता केवल
उमड़ती हुई
ऊर्जा द्वारा
पायी जा सकती
है— भरपूर
ऊर्जा, एक
महासागर
ऊर्जा का।
तो
यह दूसरी बात
है सतत याद
रखने की—ऊर्जा
नष्ट मत करो, इच्छाएं
नष्ट करो। यह
कठिन होगा। यह
दुस्साध्य
होने वाली है।
क्योंकि
इसमें
तुम्हारे
अस्तित्व के
समग्र रूपांतरण
की आवश्यकता
होती है।
लेकिन पतंजलि
इसी के लिए
कहते हैं।
इसलिए वे अपने
वैराग्य को, इच्छारहितता
को बांट लेते
हैं, दो
चरणों में। अब
हम सूत्रों
में प्रवेश
करेंगे।
वैराग्य
निराकांक्षा
की वशीकार
संज्ञा नामक
पहली अवस्था
है— ऐंद्रिक
सुखों की
तृष्णा म्एं
सचेतन प्रयास द्वारा
भोगासक्ति की
समाप्ति।
बहुत
सारी चीजें
अंतर्निहित
हैं और समझनी
पड़ेगी। स्व—इंद्रिय—सुख
में लिप्तता।
तुम ऐंइद्रक
सुख की मांग
क्यों करते हो? क्यों
मन सदा
इंद्रिय
भोगों के बारे
में सोचता
रहता है।
क्यों तुम बार—बार
भोगासक्ति के
उसी ढांचे में
सरकते रहते हो?
पतंजलि
के लिए, और उन
सबके लिए
जिन्होंने
जाना है, कारण
यह है कि तुम
भीतर आनंदित
नहीं होते हो,
इसलिए
ऐंद्रिक सुख
के लिए इच्छा
होती है।
सुखोसुख मन का
अर्थ है कि
जैसे तुम हो, अपने भीतर, तुम आनंदित
नहीं हो।
इसीलिए तुम
सुख को कहीं
और ही खोजते
चले जाते हो।
कोई व्यक्ति
जो दुखी है, इच्छाओं में
सरकने को विवश
है। इच्छा
दुखी मन के
लिए सुख खोजने
का एक ढंग है।
बेशक, यह
मन कहीं सुख
नहीं पा सकता।
ज्यादा से ज्यादा
यह थोड़ी झलक पा
सकता है। वे झलकियां
सुख की भाति प्रतीत
होती है। सुख
का अर्थ होता
है, प्रसन्नता
की झलकियां।
और यह
भ्रामकता है
कि सुख खोजने
वाला मन सोचता
है कि ये
झलकियां और सुख
कहीं और से, बाहर से आ रहे
हैं। लेकिन वे
हमेशा भीतर से
आते हैं।
समझने
की कोशिश
करो—तुम किसी
के प्रेम में
पड़े हो, तो
तुम कामवासना
में सरकते हो।
कामवासना -तुम्हें
सुख की झलक
देती है, यह
तुम्हें
प्रसन्नता की
झलक देती है।
क्षण भर के
लिए तुम
विश्राम
अनुभव करते
हो। सारे दुख
मिट गये हैं, सारी मानसिक
यंत्रणा अब
नहीं रही। एक
क्षण के लिए
तुम अभी और
यहीं हो। तुम
हर चीज भूल
गये हो। एक
क्षण के लिए
वहां कोई अतीत
नहीं और कोई
भविष्य नहीं।
चूंकि वहां कोई
अतीत नहीं और
कोई भविष्य
नहीं, और
एक क्षण के
लिए तुम अभी
और यहीं हो, ऊर्जा
तुम्हारे भीतर
से प्रवाहित
होती है। इस
क्षण में
तुम्हारी आंतरिक
आत्मा
प्रवाहित
होती है, और
तुम्हें सुख
की झलक मिलती
है।
लेकिन
तुम सोचते हो
कि वह झलक
साथी से आ रही
है—स्त्री से
या पुरुष से।
वह पुरुष या
सी से नहीं आ
रही है। वह तुम्हारे
भीतर से आ रही
है। दूसरे ने
तो मदद भर की
है तुम्हें
वर्तमान में
उतरने के लिए।
दूसरे ने तो
केवल मदद की
है तुम्हें इस
क्षण की वर्तमानता
में आने के
लिए।
अगर
तुम बिना
कामवासना के
इस वर्तमान
क्षण में
पहुंच सकते हो, धीरे-धीरे
कामवासना
गैर-जरूरी हो
जायेगी, वह
लुप्त हो
जायेगी। वह एक
इच्छा न होगी
तब। अगर तुम
उसमें उतरना
चाहो, तो
तुम खेल की
तरह उसमें उतर
सकते हो, पर
इच्छा की
भांति नहीं।
तब उसके साथ
कोई ग्रस्तता
नहीं रहती
क्योंकि तुम
उस पर आश्रित
नहीं होते हो।
एक
दिन वृक्ष के
नीचे बैठी।
एकदम
प्रातःकाल
में जब सूर्य
अभी उदय नहीं
हुआ है, क्योंकि
सूर्योदय
होने के बाद
तुम्हारा शरीर
तरंगायित
होता है, और
भीतर शांति
बनी रहनी कठिन
होती है।
इसलिए पूरब
हमेशा
सूर्योदय से
पहले ध्यान
करता रहा है।
वे इस समय को
ब्रह्ममुहूर्त
कहते हैं-दिव्यता
के क्षण। और
वे ठीक हैं, क्योंकि
सूर्य के साथ
ऊर्जाएं उठती
हैं और वे पुराने
ढांचे में
प्रवाहित
होने लगती हैं,
जिसे तुम
निर्मित कर
चुके हो।
एकदम
सुबह जब सूर्य
अभी क्षितिज
पर नहीं आया है, हर
चीज मौन है और
प्रकृति गहरी
नींद सोयी
है-वृक्ष सोये
है, पक्षी
सोये हैं, सारा
संसार सोया
हुआ है, तुम्हारा
शरीर भी भीतर
सुप्त है। तुम
वृक्ष के नीचे
बैठने आ
पहुंचे हो, और हर चीज
मौन है। बस, यहीं इसी
क्षण में होने
का प्रयत्न
करो। कुछ मत
करो, ध्यान
भी नहीं। कोई
चेष्टा मत
करो। बस अपनी
आखें बंद कर
लो और प्रकृति
के मौन में, मौन बने
रहो। अचानक
तुम्हें वही
झलक मिलेगी जो
तुम्हारे पास
आ रही थी
कामवासना
द्वारा। या उससे
भी बड़ी कोई
झलक, कहीं
अधिक गहरी।
अचानक तुम
अनुभव करोगे
भीतर से ऊर्जा
का एक तेज
प्रवाह आ रहा
है। और अब तुम धोखा
नहीं खा सकते
क्योंकि वहा
दूसरा और कोई
नहीं है, अत:
यह निश्चित
तौर पर तुमसे
आ रहा है। यह
भीतर से प्रवाहित
हो रहा है।
कोई दूसरा
तुम्हें नहीं दे
रहा है इसे, तुम इसे दे
रहे हो स्वय
को।
लेकिन
एक परिस्थिति
की आवश्यकता
है-एक मौन। ऊर्जा
उत्तेजना में
न रहे। तुम
कुछ नहीं कर
रहे हो, बस
वहां हो वृक्ष
के नीचे, और
तुम वह झलक पा
जाओगे। और यह
वस्तुत:
ऐंद्रिक सुख
नहीं होगा। यह
प्रसन्नता
होगी क्योंकि
अब तुम सम्यक
स्रोत की ओर
देख रहे हो।
सम्यक दिशा की
ओर। एक बार
तुम इसे जान
लेते हो, फिर
तुम तुरंत
पहचान लोगे कि
कामवासना में
दूसरा दर्पण
मात्र था, तुम
उसमे बस
प्रतिबिंबित
हुए थे।
और
तुम दर्पण थे
दूसरे के लिए।
तुम एक—दूसरे
की सहायता कर
रहे थे
वर्तमान में
उतरने के लिए, विचार
से घिरे चित्त
से दूर हट कर
निर्विचार अवस्था
में पहुंचने
के लिए।
मन
जितना ज्यादा
शोरगुल से भरा
हुआ होता है, उतना
ज्यादा
कामवासना का
आकर्षण होता
है। पूरब में
काम कभी भी
ऐसी सनक न था
जैसा यह पश्चिम
में बन गया है।
फिल्में, कहानियां,
उपन्यास, कविता, पत्रिकाएं
हर चीज यौनग्रस्त
बन गयी है।
तुम कोई चीज
नहीं बेच सकते
जब तक कि
यौनाकर्षण को
निर्मित न कर
लो। अगर
तुम्हें कार
बेचनी होती है,
तो तुम उसे
केवल कामोत्तेजेक
वस्तु की
भांति बेच
सकते हो। अगर
तुम टूथपेस्ट
बेचना चाहते
हो, तो तुम
उसे केवल
यौनाकर्षण
द्वारा बेच
सकते हो।
कामवासना के
बिना कुछ नहीं
बेचा जा सकता।
ऐसा जान पड़ता
है कि केवल
कामवासना का
ही बाजार है, महत्व है; दूसरी किसी
चीज का नहीं!
प्रत्येक
अर्थवत्ता कामभाव
के द्वारा आती
है। सारा मन
कामवासना से
मस्त है।
क्यों? क्यों
ऐसा कभी घटित
नहीं हुआ पहले?
मनुष्य के
इतिहास में यह
कुछ नया है।
और कारण यह है
कि अब पश्चिम
विचार के साथ
इतनी बुरी तरह
से उलझ गया है
कि कामवासना
के सिवाय यहीं
और अभी होने
की और कोई
संभावना नहीं
है। कामवासना
एकमात्र
संभावना बनी
हुई है, और
वह भी लुप्त
हुई जा रही है।
आधुनिक
व्यक्ति के
लिए यह भी
संभव हो गया
है कि जब वह संभोग
कर रहा हो तो
वह दूसरी
चीजों के बारे
में सोच सकता
है। और चूंकि
तुम इसके
योग्य हो गये
हो कि जब संभोग
कर रहे हो, तब
तुम किसी दूसरी
चीज के बारे
में सोचते
जाते हो—जैसे
कि बैंक के
तुम्हारे
खाते के बारे
में—या तुम
मित्र से
बातें किये
चले जाते हो, या तुम किसी
दूसरी जगह बने
रहते हो जबकि
संभोग यहां कर
रहे होते हो, तो काम—भावना
भी खतम हो
जायेगी। तब वह
केवल एक ऊब और
खीज का कारण
होगी, क्योंकि
स्वयं
कामवासना की
बात न थी। बात
केवल यही थी—कि
काम ऊर्जा
इतनी तेजी से
प्रवाहित हो
रही थी, कि
तुम्हारा मन
एकदम ठहर गया।
काम ने उस पर
अधिकार कर
लिया। काम
ऊर्जा इतनी
तेजी से बहती
है, इतनी
सक्रियता से,
कि
तुम्हारे
सोचने के
साधारण ढांचे
ठहर जाते हैं।
मैंने
सुना है कि एक
बार ऐसा हुआ
कि मुल्ला
नसरुद्दीन एक
जंगल में से
गुजर रहा था।
उसे एक खोपड़ी
मिल गयी। जैसा
कि वह हमेशा
कुतूहल से भरा
रहता था, उसने
खोपड़ी से पूछा,
' आपको यहां
कौन पहुंचा
गया श्रीमान?'
वह चकरा गया,
क्योंकि
खोपड़ी ने
उत्तर दिया, 'बोलना मुझे
यहां ले आगा
श्रीमान।’ मुल्ला
इस पर विश्वास
नहीं कर सकता
था, लेकिन
उसने इसे सुन
लिया था इसलिए
वह राजमहल तक
दौड़ा गया।
उसने वहां कहा
कि 'मैंने
एक चमत्कार
देखा है! एक
खोपड़ी, एक
बोलने वाली
खोपड़ी बिलकुल
हमारे गांव के
नजदीक जंगल
में पड़ी है।’
राजा
भी इस पर
विश्वास नही
कर सकता था, लेकिन
वह जिज्ञासु
हो गया था। जब
वे जंगल में
गये तो सारी
राजसभा उनके
पीछे चल दी।
नसरुद्दीन
खोपड़ी के निकट
गया और उसने
फिर वही
प्रश्न पूछा— 'तुम्हें
यहां कौन लाया
श्रीमान?' लेकिन
खोपड़ी खामोश
रही। उसने
दोबारा और
तीसरी बार और
बार—बार पूछा,
लेकिन
खोपड़ी मृत, निःशब्द बनी
रही।’
राजा
बोला, 'मैं यह
पहले से जानता
था, नसरुद्दीन,
कि तुम झूठे
हो। लेकिन यह
अब बहुत हुआ।
तुमने मजाक कर
खिलवाड़ किया
है और तुम्हें
इसके लिए
प्राण—दंड
भुगतना होगा।’
उसने अपने
सैनिकों को
मुल्ला का सिर
काटने और सिर
को, खोपड़ी
के निकट
फेंकने का
आदेश दिया
जहां चीटियां
उसे खा जायें।
जब हर कोई चला
गया—राजा, उसका
दरबार—तब
खोपडी ने फिर
बोलना शुरू कर
दिया। उसने
पूछा, 'आपको
यहां कौन लाया,
जनाब?' नसरुद्दीन
ने जवाब दिया,
'बोलना मुझे
यहां लाया
जनाब!'
और
बोलना आदमी को
उस हालत तक ले
आया है, जो आज
यहां है। सतत
बकबक करता मन
किसी सुख को
नहीं आने देता,
सुख की किसी
संभावना को
नहीं आने देता,
क्योंकि
केवल एक मौन
चित्त भीतर
देख सकता है।
केवल मौन
चित्त ही सुन
सकता है उस
मौन को, उस
मस्ती को जो
हमेशा वहां
गुनगुना रही
है। वह इतनी
सूक्ष्म है कि
चित्त के
शोरगुल सहित तुम
उसे सुन नहीं
सकते।
केवल
संभोग में यह
शोरगुल कई बार
थम जाता है।
मैं कहता हूं
कई बार, क्योंकि
अगर तुम
कामवासना के
भी अभ्यस्त हो
जाते हो, जैसे
पति और
पत्नियां हो
जाते हैं, तब
शोरगुल कभी
नहीं थमता।
सारी क्रिया
स्वचालित हो
जाती है और मन
अपने से ही
चलता रहता है।
तब कामवासना
भी एक ऊब बन
जाती है।
किसी
चीज का
तुम्हें
आकर्षण होता
है अगर वह तुम्हें
झलक दे सकती
हो। वह झलक
बाहर से आ रही
जान पड सकती
है,
लेकिन वह
हमेशा भीतर से
आती है। बाहरी
हिस्सा तो
केवल एक दर्पण
हो सकता है।
जब भीतर से
प्रवाहित हो
रही
प्रसन्नता
बाहर से प्रतिबिंबित
होती है, वह
सुख कहलाती है।
यह पतंजलि की
परिभाषा है।
भीतर से बहने
वाली
प्रसन्नता
बाहर से
प्रतिबिंबित
होती है, बाहरी
हिस्सा दर्पण
की तरह कार्य
कर रहा है।
यदि तुम सोचते
हो कि यह
प्रसन्नता
बाहर से आ रही
है, तो यह एंद्रिक
सुख कहलाती है।
हम एक गहन प्रसन्नता
की खोज में
हैं, ऐंद्रिक
सुख की खोज
में नहीं।
इसलिए जब तक
तुम्हें इस
प्रसन्नता की
झलकियां न मिल
सकें, तुम
अपनी भोग—विलास
को छूनेवाली
तलाश समाप्त
नहीं कर सकते।
आसक्ति का
अर्थ है.
ऐंद्रिक सुख,
भोग—विलास
की खोज।
बोधपूर्ण
प्रयास की
आवश्यकता है।
तो जब कभी तुम
अनुभव करो कि
एक ऐंद्रिक
सुख का क्षण
है,
तो उसे
ध्यानपूर्ण
अवस्था में
रूपांतरित कर दो।
जब कभी
तुम्हें
प्रतीत हो कि
तुम सुख का
अनुभव कर रहे
हो, तुम
प्रसन्न, आनंदपूर्ण
हो, तब
अपनी आंखें
बंद कर लेना, भीतर झांकना
और जानना कि
यह कहां से आ
रहा है। यह
क्षण मत गवाओ,
यह कीमती है।
अगर तुम सचेतन
नहीं होते तो
तुम शायद
सोचना जारी
रखो कि यह
बाहर से आता
है और यही
संसार का श्रम
है।
यदि
तुम सचेतन और
ध्यानपूर्ण
होते हो, यदि
तुम वास्तविक
स्रोत की खोज
करते हो तो
कभी न कभी तुम
जान जाओगे कि
यह भीतर से
प्रवाहित हो रहा
है। एक बार
तुम जान लो कि
यह सदा भीतर
से प्रवाहित होता
है, कि यह
वह कुछ है जो
तुम्हारे पास
पहले से ही है,
तब भोग—विलास—लोलुपता
गिर जायेगी, और यह पहला
चरण होगा
वैराग्य का।
तब तुम खोज
नहीं रहे होते;
लालायित
नहीं हो रहे
होते। तो तुम
इच्छाओं को
मार नहीं रहे
हो, तुम
इच्छाओं से लड़
नहीं रहे हो।
तुमने एकदम
कुछ ज्यादा
बड़ा पा लिया
है, इसलिए
इच्छाएं अब
उतनी
महत्वपूर्ण
नहीं लगती। वे
निस्तेज हो
जाती हैं।
यह
ध्यान में
लेना—उन्हें
मारना और नष्ट
करना नहीं है।
वे मुर्झा
जाती हैं। तुम
उनमें रुचि
नहीं रखते हो
क्योंकि
तुम्हारे पास
अब अधिक गहरा
स्रोत है। तुम
चुंबकीय ढंग
से उसकी ओर
आकर्षित होते
हो। अब
तुम्हारी
सारी ऊर्जा
भीतर की ओर
सरक रही होती
है। और
इच्छाएं बस
उपेक्षित
होती हैं।
लेकिन
तुम उनसे लड़
नहीं रहे। अगर
तुम उनके साथ
लड़ते हो, तो
तुम कभी नहीं
जीतोगे। यह तो
ठीक ऐसे कि तुम्हारे
साथ पत्थर है,
रंगीन
पत्थर हैं
तुम्हारे हाथ
में। अब अचानक
तुम हीरों के
बारे में जान
जाते हो और वे
पास पड़े हुए
हैं। तो तुम
रंगीन
पत्थरों को
फेंकते हो
केवल अपने हाथ
में हीरों के
लिए रिक्त
स्थान
निर्मित करने
के लिए। तुम
पत्थरों से
नहीं लड़ रहे
हो, लेकिन
हीरे वहां
होते हैं तो
तुम बड़ी आसानी
से पत्थरों को
गिरा देते हो।
वे अपना अर्थ
खो चुके होते
हैं।
इच्छाओं
का महत्व ही
गिर जाना
चाहिए। अगर
तुम उनसे लड़ते
हो,
तो महत्व
नष्ट नहीं
हुआ। उल्टे, संघर्ष
उन्हें अधिक
महत्व दे सकता
है। वे अधिक
महत्वपूर्ण
बन जाती हैं।
और यही हो रहा
है। जो किसी
इच्छा के साथ
लड़ते हैं उनके
साथ यही होता
है कि इच्छा
मन का केंद्र बिंदु
बन जाती है।
उदाहरण के लिए,
यदि तुम
कामवासना से
लड़ते हो, तो
कामभाव
केंद्र बन
जाता है। फिर,
सतत तुम
इसमें व्यस्त
हो जाते हो, इससे घिर
जाते हो। यह
घाव की तरह बन
जाता है। जहां
कहीं तुम
देखते हो, वह
कामवासनापूर्ण
बन जाता है।
मन
का एक
मेकेनिज्य है, एक
रचनातंत्र है,
एक पुराना
बचे रहने का
मेकेनिज्य—संघर्ष
या पलायन। दो
तरीके हैं मन
के—या तो तुम
किसी चीज से
संघर्ष कर
सकते हो या
तुम उससे
पलायन कर सकते
हो। अगर तुम
मजबूत होते हो,
तब तुम लड़ते
हो। अगर तुम
कमजोर होते हो,
तब तुम भाग
निकलते हो; तब तुम
पलायन ही कर
जाते हो।
लेकिन दोनों
तरीकों में
अन्य
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
वह अन्य होता
है केंद्र।
तुम लड़ सकते
हो या तुम
संसार से
पलायन कर सकते
हो—उस संसार
से, जहां
इच्छाएं संभव
होती हैं। तुम
हिमालय पर जा
सकते हो, वह
भी एक संघर्ष
है; कमजोर
का संघर्ष।
मैंने
सुना है कि एक
बार मुल्ला
नसरुद्दीन एक गांव
में
खरीद—फरोख्त
कर रहा था।
उसने अपने गधे
को गली में
छोड़ दिया और
दुकान में चला
गया कुछ
खरीदने के
लिए। जब वह
बाहर आया तो
वह बहुत क्रोधित
हो गया। किसी
ने उसके गधे
को पूरी तरह
लाल रंग से, गहरे
लाल रंग से
रंग दिया था।
वह बहुत क्रोध
में था और
उसने पूछा, 'किसने किया
है ऐसा? मैं
उस आदमी को
मार दूंगा।’
एक
छोटा लड़का
वहां खड़ा हुआ
था। वह बोला, 'एक
आदमी ने ऐसा
किया है, और
वह आदमी
अभी—अभी
शराब—घर के
भीतर गया है।’नसरुद्दीन
भीतर गया। वह
तेजी से अंदर
जा पहुंचा—क्रोधित,
पागल हुआ।
वह बोला, 'किसने
किया है यह? किसने आखिर
मेरे गधे को
रंग दिया है?
एक
बहुत
लंबा—चौड़ा, बहुत
मजबूत आदमी
खड़ा हो गया और
बोला, 'मैंने
किया है। क्या
कहना है इस
बारे में?' तो
नसरुद्दीन
बोला, 'शुक्रिया
जनाब! आपने
बड़ा सुंदर काम
किया है। मैं
तो आपको बताने
के लिए अंदर
आया कि पहला
लेप सूख गया
है।’
अगर
तुम मजबूत
होते हो तो
तुम लड़ने के
लिए तैयार
रहते हो। अगर
तुम कमजोर
होते हो, तब
तुम भाग
निकलने को, पलायन करने
को तैयार होते
हो। लेकिन
दोनों अवस्थाओं
में तुम
ज्यादा मजबूत
नहीं बन रहे।
दोनों
अवस्थाओं में
वह दूसरा ही, तुम्हारे मन
का केंद्र बन
गया है। ये दो
वृत्तियां
हैं—संघर्ष या
पलायन। और
दोनों गलत हैं
क्योंकि
दोनों द्वारा
मन बलशाली बन
गया है।
पतंजलि
कहते है कि एक
तीसरी
संभावना
है—लड़ो मत और
पलायन मत करो।
बस,
जागरूक
रहो। सचेतन
रहो। जो कुछ
भी है स्थिति,
एक साक्षी
बनो।
180—181
तुम
रस ले सकोगे
केवल तभी जब
तुम स्वतंत्र
होते हो। केवल
स्वतंत्र
व्यक्ति आनंद
ले सकता है।
एक व्यक्ति जो
भोजन के लिए
पागल है और
उससे ग्रसित
है,
उसका आनंद
नहीं उठा
सकता। शायद वह
अपना पेट भर ले,
लेकिन
उसमें आनंद
नहीं ले सकता।
उसका भोजन करना
हिंसात्मक
होता है। यह
एक तरह का हनन
है। वह भोजन
को मार रहा
होता है, वह
भोजन को नष्ट
कर रहा होता
है। और प्रेमी
जो अनुभव करते
है कि उनकी
प्रसन्नता
दूसरे पर निर्भर
करती है, वे
लड़ रहे होते
है; दूसरे
पर शासन करने
की कोशिश कर
रहे होते है; दूसरे को
मारने की
कोशिश करते है,
दूसरे को
नष्ट करने की
कोशिश में
होते हैं। तुम
हर चीज में
अधिक आनंद पा
सकोगे जब तुम
जान लेते हो
कि वह स्रोत
भीतर है। तब
सारा जीवन एक
खेल बन जाता
है, और
पल—दर—पल तुम
उत्सव मनाये
चले जा सकते
हो असीम रूप
से।
यह
है पहला कदम, यह
चेष्टा। होश
और प्रयास
सहित तुम
इच्छारहितता
प्राप्त कर
लेते हो।
लेकिन पतंजलि
कहते है कि यह
तो पहला ही
कदम है
क्योंकि
प्रयास भी, होश भी
अच्छा नहीं है
क्योंकि इसका
मतलब होता है
कि कोई संघर्ष,
कोई छिपा
हुआ संघर्ष
फिर भी चल रहा
है।
वैराग्य
का दूसरा और
अंतिम चरण, निराकांक्षा
की अंतिम
अवस्था है—
पुरुष के उस
परम आला के
अंतरतम
स्वभाव को
जानने से समस्त
इच्छाओं का
विलीन हो
जाना।
पहले
तुम्हें
जानना पड़ता है
कि सारी
प्रसन्नता जो
तुममें घटित
होती है, तुम्हीं
हो उसके मूल
उद्गम। दूसरी
बात, तुम्हें
अपनी आंतरिक
आत्मा के
समग्र स्वभाव को
जानना पड़ता
है। पहली बात,
तुम्हीं हो
उद्गम। दूसरी
बात, तुम्हें
जानना पड़ता है
कि यह उद्गम
है क्या। पहले
इतना भर काफी
है कि तुम
अपनी
प्रसन्नता के
उद्गम हो। और
दूसरी बात है,
तुम्हें
जानना होता है
कि यह स्रोत
अपनी समग्रता
में क्या है।
यह पुरुष, आंतरिक
आत्मा क्या
है! मैं कौन
हूं समग्र रूप
में।
एक
बार तुम इस
उद्गम को इसकी
समग्रता में
जान लेते हो, तो
तुमने सब जान
लिया होता है।
तब केवल
प्रसन्नता ही
नहीं. सारा
ब्रह्मांड
भीतर ही होता
है। केवल
प्रसन्नता ही
नहीं, तब
वह सब जिसका
अस्तित्व है,
भीतर वास
करता है। तब
ईश्वर कहीं
बादलों में नहीं
बैठा हुआ होता
है, वह
भीतर
विद्यमान
होता है। तब
तुम उद्गम
होते हो, सबके
मूल—स्रोत। तब
तुम्हीं
केंद्र होते
हो।
और
एक बार तुम
अस्तित्व के
केंद्र बन
जाते हो, एक
बार तुम जान
लेते हो कि
तुम अस्तित्व
के केंद्र हो,
तो सारे दुख
मिट जाते है।
अब
इच्छारहितता
सहज स्वाभाविक
बन जाती है।
किसी प्रयास,
किसी मेहनत,
किसी
संपोषण की
आवश्यकता
नहीं है। यह
बस है, यह
स्वाभाविक बन
गयी है। तुम
खींच या धकेल
नहीं रहे हो।
अब वहां कोई 'मै' नहीं
है, जो इसे
खींच और धकेल
सकता हो।
इसे
ध्यान में
लेना—यह
संघर्ष है, जो
अहंकार
निर्मित करता
है। अगर तुम
संसार में
संघर्ष करते
हो तो यह एक
स्थूल अहंकार
को निर्मित
करता है। शायद
तुम अनुभव करो,
मैं कोई हूं
धनी, मान—सम्मान
वाला, सत्तावान।
और अगर तुम
भीतर संघर्ष
करते हो, तो
यह एक सूक्ष्म
अहंकार को
निर्मित करता
है। हो सकता
है तुम अनुभव
करो, मैं
शुद्ध हूं मैं
संत हूं मैं
एक मनीषी हूं
लेकिन इस
संघर्ष के साथ
'मै' बना
रहता है। तो
कुछ लोग
पवित्र
अहंकारी हैं,
जिनका बड़ा
सूक्ष्म
अहंकार है। हो
सकता है वे
सांसारिक
व्यक्ति न हों।
वे नहीं होते।
वे पारलौकिक
होते हैं।
लेकिन संघर्ष
उनमें होता है।
उन्होंने कुछ
प्राप्त कर
लिया है, लेकिन
वह 'प्राप्ति'
अब तक 'मैं'
की अंतिम
छाया ढो रही
है।
पतंजलि
के लिए
वैराग्य की
दूसरी और
अंतिम सीढ़ी है, अहंकार
का पूर्ण
विसर्जन। अब
स्वभाव मात्र
प्रवाहित हो
रहा है। कोई 'मैं' नहीं
है, कोई
सचेतन प्रयास
नहीं है। इसका
यह मतलब नहीं
कि तुम
बोधपूर्ण न
होओगे। तुम
परम चैतन्य
होओगे। लेकिन
बोधपूर्ण
होने में कोई
प्रयास निहित
नहीं है। कोई
अहं—चेतना
नहीं होगी, केवल शुद्ध
चेतना। तुमने
स्वयं को और
अस्तित्व को
जैसा वह है, स्वीकार कर
लिया है।
एक
समग्र
स्वीकृति।
यही है जिसे
लाओत्सु कहता
है ताओ—सागर
की ओर बहती
हुई नदी। वह
कोई प्रयास
नहीं कर रही।
उसे कोई जल्दी
नहीं है सागर
तक पहुंचने की।
अगर वह नहीं
भी पहुंचती, तो
वह निराश नहीं
होगी। अगर वह
लाखों वर्ष
बाद भी पहुंचे,
तो भी सब
ठीक है। नदी
तो बस बह रही
है, क्योंकि
बहना उसका
स्वभाव है।
कोई प्रयास
नहीं। वह बहती
ही जायेगी।
जब
इच्छाओं पर
पहली बार
ध्यान दिया
जाता है और
उन्हें जाना
जाता है तो
चेष्टाएं
उलन्न होती हैं—सूक्ष्म
चेष्टा। पहला
कदम भी एक
सूक्ष्म
चेष्टा है।
तुम जाग्रत
होने की कोशिश
करने लगते हो
कि तुम्हारी
प्रसन्नता
कहा से आ रही
है। तुम्हें
कुछ करना पड़ता
है,
और वह करना
ही अहंकार
निर्मित कर
देगा। इसीलिए
पतंजलि कहते
हैं कि यह
केवल प्रारंभ
है, और
तुम्हें
ध्यान रखना
चाहिए कि यह
अंत नहीं है।
अंत में, न
केवल इच्छाएं
मिट चुकी होती
हैं; तुम
भी मिट जाते
हो। केवल आंतरिक
अस्तित्व
अपने प्रवाह
में बना रह
जाता है।
यह
सहज प्रवाह
परम आनंद है
क्योंकि इससे
कोई दुख संभव
नहीं होता है।
दुख
अपेक्षाओं
द्वारा आता है, मांग
द्वारा। अब
कोई नहीं होता
अपेक्षा करने
को या मांग करने
को, अत: जो
कुछ घटित होता
है, प्रिय है।
जो कुछ भी
घटता है, एक
आशीष होता है।
तुम इसकी किसी
दूसरी चीज से
तुलना नहीं कर
सकते। बस, यह
है और चूंकि
अतीत के साथ
या भविष्य के
साथ तुलना
नहीं करते हो,
क्योंकि
तुलना करने को
कोई है नहीं, तुम्हें कोई
चीज दुख की
भांति, पीड़ा
की भांति नहीं
लग सकती। अगर
इस दशा में
पीड़ा घटित
होती भी है, तो वह
कष्टकर नहीं
होगी। इसे
समझने की
कोशिश करना।
यह कठिन है।
जीसस
को सूली पर
चढ़ा दिया गया
था,
अत: ईसाइयों
ने जीसस को
बहुत उदास
चित्रित किया
है। उन्होंने
यह भी कहा है
कि वे कभी
हंसे नहीं। और
उनके चर्चों
में हर कहीं
जीसस की उदास
प्रतिमाएं ही
हैं। यह
मानवोचित है।
हम इसे समझ
सकते हैं। एक
व्यक्ति, जिसे
सूली पर चढ़ा
दिया जाता है
उसे उदास ही
होना चाहिए।
वह आंतरिक
पीड़ा में होगा,
वह दुख पा
ही रहा होगा।
इसलिए
ईसाई कहे चले
जाते हैं कि
जीसस ने हमारे
पापों के कारण
दुख सहा; कि
उन्होंने
प्राणदंड
पाया उनके लिए।
यह बिलकुल गलत
है! अगर तुम
पतंजलि से या
मुझसे पूछो तो
यह बिलकुल गलत
है। जीसस दुख
नहीं भोग सकते।
जीसस के लिए
असंभव है दुख
भोगना। और अगर
उन्होंने दुख
उठाया, फिर
तो तुम्हारे
और उनके बीच
कोई भेद ही
नहीं है।
पीड़ा
वहां है, लेकिन
वे दुख नहीं
पा सकते। यह
रहस्यपूर्ण
लग सकता है, पर ऐसा है
नहीं। यह सीधा—सरल
है। जितना भर
हम बाहर से
देख सकते हैं,
पीड़ा तो
वहां है।
उन्हें सूली
पर चढ़ाया जा
रहा है, अपमानित
किया जा रहा
है, उनका
शरीर नष्ट
किया जा रहा
है। दर्द है
वहां, लेकिन
जीसस को पीड़ा
नहीं हो सकती।
उस क्षण जब
जीसस को सूली
पर चढ़ाया जा
रहा है, वे
कोई इच्छा
नहीं कर सकते।
उनकी कोई मांग
नहीं है। वे
नहीं कह सकते,
'यह गलत है।
यह ऐसा नहीं
होना चाहिए।
मुझे तो ताज
पहनाया जाना
चाहिए और मुझे
सूली पर चढ़ाया
जा रहा है।’
अगर
उनके मन में
यह हो कि 'मुझे
तो ताज पहनाया
जाना चाहिए, और मुझे
सूली पर चढ़ाया
जा रहा है', तब
दुख होगा। अगर
उनके मन में
कोई भविष्य
नहीं है, कोई
विचार नहीं है
कि उन्हें ताज
पहनाया जाना चाहिए,
भविष्य के
लिए आशा नहीं
है, पहुंचने
को निधर्ग़रत
लक्ष्य नहीं
है, तब
जहां कहीं वह
स्वयं को पाते
हैं, लक्ष्य
होता है। और
वे तुलना नहीं
कर सकते। वह
जो स्थिति है,
उससे
अन्यथा कुछ हो
नहीं सकता। यह
है मौजूदा
क्षण जो उनके
लिए आ बना है; यह सलीब पर
चढ़ना ही ताज
है।
वे
दुखी नहीं हो
सकते, क्योंकि
दुखी होने का
मतलब है विरोध।
यदि तुम कुछ
प्रतिरोध करते
हो तो दुख भोग
सकते हो। इसे
आजमाओ।
तुम्हारे लिए
यह सूली पर
चढ़ना कठिन
होगा, किंतु
हर रोज की
सलीबें हैं, छोटी—छोटी।
उनसे ही काम
चलाना।
तुम्हारी
टांग में या
माथे में दर्द
होता है या
तुम्हें सिर—दर्द
है। तुमने
शायद इसकी
प्रक्रिया पर
ध्यान न दिया
हो। तुम्हारे
सिर में दर्द
होता है और
तुम निरंतर
संघर्ष करते
हो और
प्रतिरोध
करते हो। तुम
उसे नहीं
चाहते। तुम
उसके विरुद्ध
हो,
इसलिए तुम
स्वयं को
विभाजित कर
देते हो। तुम
कहीं सिर के
भीतर ही खड़े
हुए हो और
वहां सिर—दर्द
है। तुम एक
नहीं हो, सिर—दर्द
कुछ अलग चीज
है, और तुम
जोर देते हो
कि सिर—दर्द
वहां नहीं
होना चाहिए।
यही है
वास्तविक
समस्या।
एक
बार प्रयत्न
करो न लड़ने का।
सिर—दर्द के
साथ बहो, सिर—दर्द
ही बन जाओ।
मान लो, 'यही
है वस्तु
स्थिति। मेरा
सिर इस प्रकार
ही है इस क्षण
में। और इस
क्षण में कुछ
और संभव नहीं
है। भविष्य
में शायद यह
चला जाये, लेकिन
इस क्षण सिर—दर्द
वहां है।’ विरोध
मत करो। इसे
होने दो, इसके
साथ एक हो जाओ।
अपने को अलग
मत करो, इसके
साथ बहो। तब
अचानक लहर
उमड़ेगी एक नये
प्रकार के
प्रसन्नता की,
जिसे कभी
तुमने नहीं
जाना है। जब
विरोध करने को
कोई नहीं होता
है, सिर—दर्द
भी पीड़ादायी
नहीं होता।
लड़ाई निर्मित
करती है पीड़ा
को। पीड़ा का
अर्थ है सदा
लड़ना पीड़ा के
विरुद्ध। यही
है वास्तविक
पीड़ा।
जीसस
स्वीकार कर
लेते हैं। इस
तरह का है
उनका जीवन; यह
उन्हें सृली
तक ले गया है।
यह है उनकी
नियति। यही है
जिसे पूरब में
उन्होंने सदा
भाग्य कहा है—
भाग्य, किस्मत।
कोई अर्थ नहीं
है तुम्हारा
भाग्य के साथ
विवाद करने
में, कोई
सार नहीं है
इससे लड़ने में।
तुम कुछ नहीं
कर सकते; यह
घट रहा है।
तुम्हारे लिए
केवल एक बात
संभव है—तुम
इसके साथ बह
सकते हो या
तुम इसके साथ
लड़ सकते हो।
यदि तुम लड़ते
हो, तो यह
अधिक
यंत्रणादायक
हो जाती है।
यदि तुम इसके
साथ बहते हो
तो कम यंत्रणा
होती है। और
अगर तुम
समग्रता से
बहते हो, तो
व्यथा
तिरोहित हो
जाती है।
तुम्हीं
प्रवाह बन
जाते हो।
इसे
आजमाना जब
तुम्हें सिर—दर्द
हो,
आजमाना इसे
जब तुम्हारा
शरीर बीमार हो
इसे आजमा लेना
जब तुम्हें
कोई दर्द हो।
बस इसके साथ
बहना और एक
बार भी तुम
ऐसा होने देते
हो, तो तुम
जीवन के गढूतम
रहस्यों में
से एक तक पहुंच
चुके होंगे।
वह दर्द
तिरोहित हो
जाता है अगर
तुम उसके साथ बहते
हो। और यदि
तुम समग्रता
से बह सकते हो,
तो व्यथा
प्रसन्नता बन
जाती है।
लेकिन
यह कोई
तर्कसंगत चीज
नहीं है समझने
की। तुम बौद्धिक
तल पर इसे समझ
सकते हो, पर
इससे कुछ होगा
नहीं। इसे
अस्तित्वगत
रूप से आजमाऔ।
हर रोज की
स्थितियां
हैं—हर क्षण
कुछ गलत होता
है। जो हो रहा
है उसके साथ
बहो और देखो
कि तुम कैसे
सारी स्थिति
को रूपांतरित
कर देते हो।
उस रूपांतरण
के द्वारा तुम
उसके परे हो
जाते हो।
बुद्ध
कभी पीड़ित
नहीं हो सकते, यह
असंभव है।
केवल अहंकार
पीड़ित हो सकता
है। पीड़ित
होने के लिए
अहंकार जरूरी
है। अगर अहंकार
है तो तुम
अपने सुखों को
भी दुख में
बदल देते हो, और अगर
अहंकार वहां
नहीं होता है,
तुम अपने
दुखों को
सुखों में बदल
सकते हो।
रहस्य अहंकार
में ही छिपा
पड़ा है।
वैराग्य
निराकांक्ष
की अंतिम
अवस्था है—पुरुष
के परम आत्मा
के अंतरतम
स्वभाव को
जानने के कारण
समस्त
इच्छाओं का
विलीन हो
जाना।
यह कैसे
होता है? अपने
अंतरतम मर्म
को, उस 'पुरुष'
को, भीतर
के निवासी को
जानने के
द्वारा ही।
केवल उसके बोध
द्वारा।
पतंजलि कहते
हैं, बुद्ध
कहते हैं, लाओत्सु
कहते हैं कि
केवल इसके बोध
से सारी इच्छाएं
तिरोहित हो
जाती हैं।
यह
रहस्यमय है, और
तर्कयुक्त मन
यह पूछेगा ही
कि यह कैसे हो
सकता है कि
केवल स्वयं की
आत्मा का बोध
हो और इच्छाएं
तिरोहित हो
जाती हैं? ऐसा
होता है
क्योंकि सारी
इच्छाएं
स्वयं की आत्मा
को न जानने से
उदित हुई होती
हैं। इच्छाए
मात्र अज्ञान
हैं आत्मा का।
क्यों? क्योंकि
वह सब जो तुम
इच्छाओं
द्वारा खोज
रहे हो, वहां
है, आत्मा
में छिपा हुआ।
तो यदि तुम
आत्मा को
जानते हो, तो
इच्छाएं
तिरोहित हो
जायेंगी।
उदाहरण
के लिए—तुम
शक्ति की मांग
कर रहे हो। हर
कोई सत्ता की, शक्ति
को मांग कर
रहा है। शक्ति
किसी में
पागलपन
निर्मित करती
है। ऐसा लगता
है कि मानव—समाज
इस ढंग से बना
है कि हर कोई
सत्ता—लोलुप
जब
बच्चा पैदा
होता है, तब वह असहाय
होता है। यह
पहली अनुभूति
है, और फिर
तुम इसे हमेशा
अपने साथ ढोते
चलते हो।
बच्चा पैदा
होता है और वह
दुर्बल होता
है। और दुर्बल
बच्चा बल
चाहता है। यह
स्वाभाविक है
क्योंकि हर
व्यक्ति उससे
अधिक बलशाली
है। मां
शक्तिशाली है,
पिता
शक्तिशाली है,
भाई
शक्तिशाली है,
हर एक
शक्तिशाली है।
और बच्चा
बिलकुल
दुर्बल है। तब
स्वभावत: पहली
इच्छा जो उठती
है वह है शक्ति
पाने की—कैसे
बलशाली बन
जाये, कैसे
अधिकार रखने
वाला बने।
बच्चा उसी
क्षण से ही
राजनैतिक
होने लगता है।
शासन कैसे
जमाया जाये, इसकी
चालाकियां वह
सीखने लगता है।
अगर
वह ज्यादा
रोता है, तो वह
जान लेता है
कि वह रोने के
द्वारा अधिकार
जमा सकता है।
वह रोने के
द्वारा घर भर
पर शासन कर
सकता है, इसलिए
वह रोना—चीखना
सीख लेता है। स्त्रियां
इसे जारी रखती
हैं, जब वे बच्चियां
न भी रही हों।
उन्होंने
रहस्य सीख
लिया है, और
वे उसे जारी
रखती हैं।
उन्हें इसे
बनाये रखना
पड़ता है
क्योंकि वे कमजोर
बनी रहती हैं।
यह शक्ति की
राजनीति है।
बच्चा
युक्ति जानता
है,
और वह
अशांति
निर्मित कर
सकता है। और
वह ऐसा उयात
मचा सकता है
कि तुम्हें
उसे स्वीकार
करना पड़ता है
और उसके साथ
समझौता करना पड़ता
है। हर क्षण
वह गहराई से
अनुभव करता है
कि जिस एक चीज
की आवश्यकता
है, वह है
शक्ति, अधिक
शक्ति। वह
शिक्षा
प्राप्त
करेगा, वह
स्कूल जायेगा,
वह बड़ा होगा,
वह प्रेम
करेगा, लेकिन
उसकी शिक्षा,
प्रेम, खेल,
हर चीज के
पीछे वह ढूंढ
रहा होगा कि
अधिक सत्ता
कैसे प्राप्त
करे। शिक्षा
द्वारा वह
अधिकार जमाना
चाहेगा। वह
सीख लेगा कि
क्लास में
प्रथम कैसे
आया जाये
जिससे कि वह
अधिकार रख सके।
ज्यादा पैसा
कैसे पाया
जाये ताकि वह
शासनकर्ता बन
सके।
प्रभुत्व के
क्षेत्र में
किस तरह
प्रभाव बढ़ता
रहे। अपनी
सारी जिंदगी
वह शक्ति के, सत्ता के
पीछे पड़ा रहेगा।
अनेक
जन्म व्यर्थ
ही खो जाते
हैं। और अगर
तुम शक्ति पा
भी लेते हो, तो
क्या कर लोगे
तुम रूम एक
बचकानी
आकांक्षा मात्र
पूरी हो जाती
है। जब तुम
नेपोलियन या
हिटलर बन जाते
हो, तब
अचानक तुम सजग
हो जाओगे कि
सारी चेष्टा
ही व्यर्थ रही
है, असार!
बस, एक
बचकानी आकांक्षा
पूरी हो गयी
है, इतना
ही। तब क्या
करोगे? करोगे
क्या इस शक्ति
का? अगर
आकांक्षा
पूरी हो जाती
है, तो तुम
उत्साहरहित
बन जाते हो और
अगर आकांक्षा
पूरी नहीं
होती है तो
तुम निराश
होते हो। और
यह पूर्णतया
तो पूरी हो
नहीं सकती।
कोई इतना
ज्यादा
शक्तिशाली
नहीं हो सकता
कि वह अनुभव
कर सके कि ' अब
यह पर्याप्त
है।’ कोई
नहीं! जीवन
इतना जटिल है
कि हिटलर भी
खास क्षणों
में शक्तिहीन
अनुभव करता है,
नेपोलियन
भी शक्तिहीन
अनुभव करेगा
किन्हीं क्षणों
में। कोई भी
व्यक्ति परम
शक्ति का
अनुभव नहीं कर
सकता, इसलिए
तुम्हें कोई
चीज संतुष्ट
नहीं कर सकती है।
लेकिन
जब कोई
व्यक्ति अपनी
आत्मा के बोध
को उपलब्ध
होता है, तो वह
परम शक्ति के
स्रोत को ही
जान लेता है।
तब शक्ति की
इच्छा
तिरोहित हो
जाती है।
क्योंकि तुम
जान जाते हो
कि तुम पहले
से ही सम्राट
हो और तुम सिर्फ
सोच रहे थे कि
तुम भिखारी हो।
तुम ज्यादा
बड़े भिखारी
बनने को
संघर्ष कर रहे
थे, ज्यादा
ऊंचे भिखारी।
और तुम पहले
से ही सम्राट
थे! अचानक तुम
स्पष्ट अनुभव
करते हो कि
तुम्हारे पास
किसी चीज का अभाव
नहीं है। तुम
असहाय नहीं हो।
तुम समस्त
ऊर्जाओं के
स्रोत हो। तुम
हो जीवन के
असली स्रोत।
बचपन की
शक्तिहीनता
वाली अनुभूति
दूसरों द्वारा
निर्मित हुई
थी। और वह
केवल एक
दुथ्वक्र था
जिसे
उन्होंने तुममें
निर्मित किया
था। क्योंकि
यह उनमें
निर्मित हुआ
उनके माता—पिता
द्वारा, और
इसी तरह और
पीछे भी यही।
तुम्हारे
माता—पिता
तुममें यह भाव
निर्मित करते
हैं कि तुम
शक्तिहीन हो।
क्यों त्र:
क्योंकि केवल
इसके द्वारा
वे अनुभव करते
कि वे
शक्तिशाली
हैं। तुम शायद
सोच रहे होते
हो कि तुम
अपने बच्चों को
बहुत ज्यादा
प्यार करते हो, लेकिन
वस्तु—स्थिति
यह नहीं जान
पड़ती है। तुम
सत्ता से
प्यार करते हो,
और जब
तुम्हारे
बच्चे होते
हैं, जब
तुम माता—पिता
बनते हो, तब
तुम
शक्तिशाली, सत्तापूर्ण
होते हो।
तुम्हारी कोई
न सुनता होगा,
तुम संसार
में कोई स्थान
न रखते होओगे।
लेकिन कम से
कम तुम्हारे
घर की सीमाओं
के भीतर तुम
शक्तिशाली
होते हो। कम
से कम तुम
छोटे बच्चों को
सता सकते हो!
जरा
पिताओं और
माताओं की तरफ
देखो। वे
सताते हैं। और
वे इतने
प्रेमपूर्ण
ढंग से सताते
हैं कि तुम
उनसे कह भी
नहीं सकते कि
वे उत्पीड़ित
कर रहे हैं।’उनके
अपने भले' के
लिए वे उत्पीडित
कर रहे हैं—बच्चों
के भले के लिए
ही। वे 'विकसित'
होने में
उनकी सहायता
कर रहे हैं! वे
शक्तिशाली
अनुभव करते हैं
इससे।
समाजशास्त्री
कहते हैं कि
बहुत लोग
अध्यापन करते
हैं केवल
शक्तिशाली
अनुभव करने को
ही। तुम्हारे
अधिकार में
तीस बच्चे हों
तो तुम किसी
सम्राट की
भांति ही होते
हो।
ऐसा
सुना जाता है
कि औरंगजेब को
उसके बेटे ने जेल
में डाल दिया
था। जब वह जेल
में था तो
उसने अपने
बेटे को एक
चिट्ठी लिखी।
उसने कहा, 'मेरी
सिर्फ एक चाह
है। अगर तुम
इसे पूरा कर
सको तो यह
अच्छा होगा और
मैं बहुत खुश
होऊंगा। बस, मेरे पास
तीस बच्चे भेज
दो ताकि मैं
उन्हें यहां
पढ़ा सकूं अपनी
कैद के दौरान।’
सुनते हैं
उसके बेटे ने
यह कहा कि 'मेरे
पिता हमेशा
बादशाह रहे
हैं, और वे
अपना राज्य
नहीं खो सकते।
जेल में भी
उन्हें तीस
बच्चों की
जरूरत है जिससे
कि वे उन्हें
पढ़ा सकें।’
जरा
देखना। किसी
स्कूल में
जाना। कुर्सी
पर बैठे हुए
शिक्षक के पास
पूरी सत्ता
होती है। वह
हर चीज का
मालिक होता है
जो वहां घटित
हो रही हो।
लोग बच्चे
इसलिए नहीं
चाहते कि वे
उन्हें प्यार
करते है। अगर
वे सचमुच ही
प्यार करते
होते, तो
संसार
पूर्णतया अलग
तरह का होता।
अगर तुमने
अपने बच्चों
से प्रेम किया
होता तो संसार
पूर्णतया
भिन्न होता।
तुम उसकी
सहायता न करते
उसके
निस्सहाय
होने में, असहाय
अनुभव करने
में। तुम उसे
इतना प्रेम
देते कि वह
अनुभव करता कि
वह शक्तिशाली
है। अगर तुम
प्रेम देते हो,
तो वह शक्ति
की मांग कभी
नहीं कर रहा
होगा। वह
राजनेता नहीं
बनेगा। वह
चुनावों के
पीछे नहीं जायेगा।
वह धन—संग्रह
करने की कोशिश
नहीं करेगा और
उसके पीछे
पागल नहीं हो
जायेगा, क्योंकि
वह जानता होगा
कि यह बात
व्यर्थ है। वह
शक्तिशाली है
ही। प्रेम ही
पर्याप्त है।
पर
अगर कोई भी
उसे प्रेम
नहीं दे रहा
है,
तब वह इसके
लिए परिपूरक
निर्मित
करेगा।
तुम्हारी
सारी इच्छाएं
चाहे सत्ता की
या धन की या
प्रतिष्ठा की,
वे सब
दर्शाती हैं
कि तुम्हारे
बचपन में कुछ
चीज तुम्हें
सिखा दी गयी
थी, कोई
चीज तुम्हारे
जैविक—कम्प्यूटर
में भर दी गयी
है और तुम उस
अंकन के पीछे
चल रहे हो—
भीतर झांके
बिना, देखे
बिना कि जो
कुछ तुम मांग
रहे हो, वह
पहले से ही
वहां है।
पतंजलि
की सारी
चेष्टा है
तुम्हारे
जैविक—कम्प्यूटर
को मौन बना
देने की, जिससे
कि वह दखल न
देता रहे। यही
है ध्यान। यह
तुम्हारे
जैविक—कम्प्यूटर
को, निश्चित
क्षणों के लिए,
मौन में रख
रहा है, शब्दशुन्य
अवस्था में, जिससे तुम
भीतर देख सको
और तुम्हारे गहनतम
स्वभाव को सुन
सको। एक झलक
मात्र
तुम्हें बदल
देगी क्योंकि
तब वह जैविक—कम्प्यूटर
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता
है। तुम्हारा
जैविक—कम्प्यूटर
कहता ही जाता
है, 'यह करो;
वह करो।’ वह लगातार
तुम्हें
चालाकी से
प्रभावित
किये जाता है,
तुम्हें
कहता रहता है
कि तुम्हारे
पास अधिक
शक्ति होनी
चाहिए, अन्यथा
तुम कुछ नहीं
हो।
अगर
तुम भीतर देख
लो,
तो कोई
दूसरा बनने की
कोई जरूरत ही
नहीं है, कुछ
होने की कोई
जरूरत नहीं है।
जैसे तुम हो, स्वीकार कर
ही लिये गये
हो। सारा
अस्तित्व
तुम्हें
स्वीकार करता
है, तुमको
लेकर प्रसन्न
है। तुम एक
खिलावट हो। एक
व्यक्तिगत
खिलावट—किसी
दूसरे से
भिन्न, बेजोड़।
और ईश्वर
तुम्हारा
स्वागत करता
है, अन्यथा
तुम यहां हो न
सकते थे। तुम
यहां हो तो
केवल इसलिए कि
तुम स्वीकृत
हो। तुम यहां
हो सिर्फ
इसीलिए कि
ईश्वर
तुम्हें प्रेम
करता है; ब्रह्मांड
तुम्हें
प्रेम करता है;
अस्तित्व
को तुम्हारी
जरूरत रहती है।
तुम जरूरी हो।
एक
बार तुम अपने
अन्तरतम
स्वभाव को जान
लेते हो—जिसे
पतंजलि 'पुरुष'
कहते हैं... 'पुरुष' का
अर्थ होता है
अंतर्वासी—तब
किसी दूसरी
चीज की जरूरत
नहीं है। शरीर
तो बस घर है।
अंतवासित
चेतना पुरुष
है। एक बार
तुम अंतरवासी
चेतना को जान
लेते हो, फिर
किसी चीज की
जरूरत नहीं
रहती। तुम
पर्याप्त हो।
पर्याप्त से
कहीं अधिक।
जैसे तुम हो, पूर्ण हौ।
तुम पूर्णतया
स्वीकृत हो, सत्कार पाये
हुए हो।
अस्तित्व एक
आशीष बन जाता
है। इच्छाएं
तिरोहित हो
जाती हैं
क्योंकि वे
आत्म—अज्ञान
का हिस्सा थीं।
आत्म—बोध होने
से वे तिरोहित
हो जाती हैं, वे विलीन हो
जाती हैं।
'अभ्यास', सतत
आंतरिक
अभ्यास, जागरूक
होने का अधिक
से अधिक सचेतन
प्रयास; अधिक
और अधिक मालिक
होना स्वयं का;
आदतों
द्वारा, यांत्रिक,
यंत्र—मानव
की तरह के
रचनातंत्रों
द्वारा कम और
कम शासित होते
जाना; और
वैराग्य—निराकांक्षा—इन
दोनों को
उपलब्ध हुआ
व्यक्ति योगी
बन जाता है।
इन दोनों को
उपलब्ध किये
हुए व्यक्ति
ने लक्ष्य
प्राप्त कर
लिया होता है।
पर
मैं
दोहराऊंगा—संघर्ष
निर्मित मत
करना। अधिक से
अधिक सहज होने
के लिए जो घट
रहा है उस सबको
होने देना।
नकारात्मक से
लड़ना मत।
उल्टे विधायक
को निर्मित
करना।
कामवासना के
साथ,
भोजन के साथ,
किसी चीज के
साथ लड़ना मत।
बल्कि, पता
लगाना कि क्या
है जो तुम्हें
प्रसन्नता देता
है, वह
कहां से आता
है। और उसी
दिशा की ओर
बढ़ना।
इच्छाएं धीरे—
धीरे तिरोहित
होती जाती हैं।
और
दूसरी बात—
अधिक और अधिक
सचेतन होना।
जो कुछ घटित
हो रहा हो, अधिक
से अधिक सजग
रहना। और उसी
क्षण में बने
रहना, उस
क्षण को
स्वीकार कर
लेना। किसी
दूसरी चीज की
मांग मत करना।
फिर तुम दुख
को निर्मित
नहीं कर रहे
होओगे। अगर
पीड़ा है, रहने
दो उसे वहीं।
उसमें बने रहो
और उसमें बहो।
एकमात्र शर्त
यही है कि
जागरूक बने
रहना।
बोधपूर्ण ढंग
से, जाग्रत
ढंग से, उसमें
बढ़ना, उसमें
बहना।
प्रतिरोध मत
करना।
जब
पीड़ा तिरोहित
हो जाती है, सुख
की इच्छा भी
विलीन हो जाती
है। जब तुम
संताप में
नहीं होते हो,
तब तुम
भोगासक्ति की
मांग नहीं
करते हो। जब
अधिक व्यथा
नहीं होती है,
तब
भोगासक्ति
अर्थहीन हो
जाती है। तुम
ज्यादा और
ज्यादा आंतरिक
खाई में उतरते
चले जाते हो।
और यह इतना
ज्यादा आनंदपूर्ण
होता है, यह
इतना गहरा
उल्लास होता
है, कि
इसकी एक झलक
से भी सारा
संसार
अर्थहीन हो जाता
है। तब वह सब, जो यह संसार तुम्हें
दे सकता है, किसी काम का
नहीं रहता है।
लेकिन
इसे
संघर्षकारी
अभिवृत्ति
नहीं बनना चाहिए।
तुम्हें एक
योद्धा नहीं
बनना चाहिए तुम्हें
ध्यानी बनना
चाहिए। यदि
तुम ध्यान
करते रहते हो, चीजें
सहज रूप से
तुमको घटेंगी,
जो तुम्हें
रूपांतरित
करती जायेंगी
और बदलती
जायेंगी।
लड़ना शुरू
करते हो, तो
तुमने दमन का
आरंभ कर दिया
है। और दमन
तुम्हें
ज्यादा और
ज्यादा दुख
में ले जायेगा।
और तुम धोखा
नहीं दे सकते।
बहुत
लोग हैं जो
केवल दूसरों
को ही धोखा
नहीं दे रहे
हैं;
वे अपने को
धोखा दिये चले
जाते हैं। वे
सोचते हैं कि
वे दुख में
नहीं है। वे
कहे जाते हैं
कि वे दुख में
नहीं है।
लेकिन उनका
सारा
अस्तित्व
दुखी है। जब
वे कह रहे है
कि वे दुख में
नहीं हैं, तो
उनके चेहरे, उनकी आंखें,
उनके हृदय,
हर चीज दुख
में होती है।
मैं
तुमसे एक कथा
कहूंगा, और
फिर मैं
समाप्त
करूंगा।
मैंने सुना है
कि एक बार ऐसा
हुआ कि बारह
स्त्रियां
परलोक के पाप
मोचन स्थान पर
पहुंची। वहां
के पदधारी
फरिश्ते ने
उनसे पूछा, 'जब तुम
पृथ्वी पर थीं
तो क्या तुममें
से कोई अपने
पति के प्रति
विश्वासघाती
थीं? अगर
किसी ने अपने
पति के साथ
विश्वासघात
किया था, तो
उसे अपना हाथ
उठा देना
चाहिए।’ लजाते
हुए, हिचकिचाते
हुए धीरे—धीरे
ग्यारह
स्त्रियों ने
अपने हाथ ऊंचे
कर दिये।
पदधारी
फरिश्ते ने अपना
फोन उठाया और
कॉल की। वह
बोला, 'हलो!
क्या यह नर्क
है? क्या
तुम्हारे पास
वहां बारह
विश्वासघाती
पत्नियों के
लिए कमरा है? और उनमें से
एक तो पत्थर
की तरह बहरी
है!'
इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता, चाहे
तुम कुछ
स्वीकारो या
नहीं'।
तुम्हारा
चेहरा, तुम्हारा
अस्तित्व ही
हर चीज दर्शा
देता है। हो
सकता है तुम
कहो कि तुम
दुखी नहीं हो,
लेकिन जिस
तरह से तुम यह
कहते हो, जिस
ढंग से तुम
व्यवहार करते
हो, वह बता
देता है कि
तुम दुखी हो।
तुम धोखा नहीं
दे सकते। और
इसमें कोई सार
नहीं है
क्योंकि कोई
किसी दूसरे को
धोखा नहीं दे
सकता। तुम
केवल स्वयं को
ही धोखा दे
सकते हो।
ध्यान
रखना, यदि तुम
दुखी होते हो,
तो तुम्हीं
ने यह सब
निर्मित किया
है। इसे तुम्हारे
हृदय में गहरे
उतरने दो कि
तुम्हीं ने
अपनी व्यथा
निर्मित की है
क्योंकि यह
बात सूत्र
बनने वाली है,
चाबी। अगर
तुमने ही
निर्मित की है
तुम्हारी व्यथा,
तो केवल
तुम्हीं उसे
मिटा सकते हो।
अगर किसी दूसरे
ने उसे
निर्मित किया
है, तब तो
तुम असहाय हो।
तुमने
निर्मित किये
हुए होते हैं
तुम्हारे दुख
तो तुम उन्हें
मिटा सकते हो।
तुमने उन्हें
गलत आदतों, गलत
अभिवृत्तियों,
आसक्तियों,
इच्छाओं
द्वारा
निर्मित किया
है।
इस
ढांचे को गिरा
दो! नये सिरे
से देखो! तब यह
जीवन ही वह
सच्चिदानंद
है,
जो मानवीय
चेतना के लिए
संभव है।
आज
इतना ही।
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