दिनांक:
3 अक्टूबर, 1976;
श्री रजनीश
आश्रम पूना।
सूत्र:
जनक
उवाच।
मथ्यनन्तमहाम्मोधौ
विश्वयोत ड़तस्तत:!
भ्रमति
स्वान्तवातेन
न ममास्लसहिध्याता।।
74।।
मय्यनन्तमहाम्मोधौ
जगद्वीचि स्वभावत:।
उदेतु
वास्तमायातु न
मे वृद्धिर्न न
क्षति:।। 75।।
मय्यनन्तमहाम्मोधौ
विश्व नाम विकल्पना।
अतिशान्तो
निराकार एतदेवाहमास्थित:।।
76।।
नात्मा
भावेष नो भावस्तत्रानन्ते
निरंजने।
ड़त्यसक्तोउसह:
शान्त एतदेवाहमास्थिता:।।
77।।
अहो
चिन्यात्रमेवाह
मिन्द्रजालोपमं
जगत्।
सत्य
को कहा नहीं जा
सकता, इसीलिए बार—बार
कहना पड़ता है।
बार—बार कह कर भी
पता चलता है कि
फिर छूट गया। फिर
छूट गया। जो कहना
था, वह नहीं
समा पाया शब्दों
में।
अरब
में एक कहावत है
कि पूर्ण मनुष्य
नहीं बनाया जा
सकता। इसलिए परमात्मा
रोज नये बच्चे
पैदा करता जाता
है। अभी भी कोशिश
कर रहा है पूर्ण
मनुष्य को बनाने
की—हारा नहीं, थका
नहीं, हताश
नहीं हुआ है।
ठीक
वैसी ही स्थिति
सत्य के संबंध
में भी है। सनातन
से बुद्धपुरुष
कहने की चेष्टा
करते रहे हैं।
हजार—हजार ढंग
से उस तरफ इशारा
किया है, लेकिन
फिर भी जो कहना
था वह अनकहा रह
गया है। उसे कहा
ही नहीं जा सकता
है। स्वभाव से
ही शब्द में बंधने
की कोई संभावना
नहीं है। जैसे
कोई मुट्ठी में
आकाश को नहीं भर
ले सकता।
एक
आश्चर्य की बात
देखी! मुट्ठी बांधो
तो आकाश बाहर रह
जाता है; मुट्ठी
खोल दो तो आकाश
मुट्ठी में होता
है। खुली मुट्ठी
में तो होता है,
बंधी मुट्ठी
में खो जाता है।
तो मौन में तो सत्य
होता है, शब्द
में खो जाता है।
शब्द तो बंधी मुट्ठी
है; मौन खुला
हाथ है। लेकिन
फिर भी बुद्धपुरुष
कहने की चेष्टा
करते है—करुणावशांत।
और शुभ है कि चेष्टा
जारी है। सत्य
भला न कहा जा सके,
लेकिन सत्य को
कहने की जो चेष्टा
है वह चलती रहनी
चाहिए; क्योंकि
उसी चेष्टा में
बहुत—से सोये व्यक्ति
जागते हैं। सुन
कर सत्य मिलता
भी नहीं, लेकिन
सुन—सुन कर प्यास
तो जग जाती है;
सत्य की खोज
की आकांक्षा तो
प्रज्वलित हो जाती
है।
मैं
तुमसे कह रहा हूं
जो कुछ, जान कर
कह रहा हूं कि तुम
तक नहीं पहुंचेगा।
लेकिन फिर भी जो
मैं कहूंगा, वह भला न पहुंचे,
तुम्हारे जीवन
के भीतर छिपी हुई
अग्नि में घी का
काम करेगा; अग्नि प्रज्वलित
होगी। सत्य तुम्हें
मिले न मिले, लेकिन तुम्हारे
भीतर सोई हुई अग्नि
को ईंधन मिलेगा।
इसी आशा में सारे
शास्त्रों का जन्म
हुआ है। लेकिन
अगर तुम सत्य को
पकड़ने की चेष्टा
में शब्द में उलझ
जाओ तो चूक गये।
जैसे कि कोई गीत
तो कंठस्थ कर ले
और गीत के भीतर
छिपा हुआ अर्थ
भूल जाए। तोतो
को देखा!
याद कर लेते हैं।
राम—राम रटने लगते
हैं। भजन भी दोहरा
देते हैं।
तुम
शब्द सीख ले सकते
हो। सुंदर शब्द
उपलब्ध हैं। और
तुम्हें ऐसी भ्रांति
भी हो सकती है कि
जब शब्द आ गया तो
सत्य भी आ गया होगा।
शब्द तो केवल खाली
मंजूषा है। सत्य
तो आता नहीं, इसलिए
शब्द को कभी भूल
कर सत्य मत समझ
लेना और शास्त्र
को सिर पर मत ढोना।
अष्टावक्र
की यह महागीता
है। इससे शुद्धतम
वक्तव्य सत्य का
कभी नहीं दिया
गया और कभी दिया
भी नहीं जा सकता।
फिर भी तुम्हें
याद दिला दूं इन
शब्दों में मत
उलझ जाना। ये शब्द
खाली हैं। ये बड़े
प्यारे हैं—इसलिए
नहीं कि इनमें
सत्य है; ये बड़े
प्यारे हैं, क्योंकि जिस
आदमी से निकले
हैं उसके भीतर
सत्य रहा होगा,
ये बड़े प्यारे
हैं, कयोंकि
जिस हृदय से उमगे
हैं, जहां से
उठे हैं, वहां
सत्य का आवास रहा
होगा।
सदगुरु
के पास या सदवचनों
के सान्निध्य में
कुछ ऐसी घटना घटती
है,
जैसे सुबह कुहासा
घिरा हो और तुम
घूमने गये हो,
तो एकदम भीग
नहीं जाते; कोई वर्षा तो
हो नहीं रही है
कि तुम भीग जाओ;
लेकिन अगर घूमते
ही रहे, घूमते
ही रहे, तो वस्त्र
धीरे— धीरे आर्द्र
हो जाते हैं। वर्षा
हो भी नहीं रही
कि तुम भीग जाओ,
कि तर—बतर हो
जाओ; लेकिन
कुहासे में अगर
घूमने गये हो तो
घर लौट कर पाओगे
कि वस्त्र थोड़े
गीले हो गये।
सत्संग
में ऐसा ही गीलापन
आता,
आर्द्रता आती;
वर्षा नहीं हो
जाती। लेकिन अगर
तुम शास्त्र के
शुद्ध वचनों को
शांति से सुनते
रहे और शब्दों
में न उलझे, तो कुहासे की
तरह शब्दों के
आसपास लिपटी हुई
जो गंध आती है वह
तुम्हें सुगंधित
कर जायेगी, और तुम्हें प्रज्वलित
कर जायेगी; तुम्हारे भीतर
की मशाल को ईंधन
बन जायेगी।
कवि
ने गीत लिखे नये—नये
बार—बार
पर उसी
एक विषय को देता
रहा विस्तार—
जिसे
कभी पूरा पकड़ पाया
नहीं;
जो कभी
किसी गीत में समाया
नहीं
किसी
एक गीत में वह अट
गया दिखता
तो कवि
दूसरा गीत ही क्यों
लिखता?
तुम्हें
बहुत बार लगेगा
अष्टावक्र वही
कहे जाते हैं, जनक
वही दोहराए चले
जाते हैं।
कवि
ने गीत लिखे नये—नये
बार—बार
पर उसी
एक विषय को देता
रहा विस्तार—
जिसे
कभी पूरा पकड पाया
नहीं;
जो कभी
किसी गीत में समाया
नहीं
एक
गीत हार जाता, कवि
दूसरा गीत रचता
है। लेकिन जो उसने
पहले गीत में गाना
चाहा था वही वह
दूसरे गीत में
गाना चाहता है।
विन्सेंट
वानगाग को किसी
ने पूछा कि तुमने
अपने जीवन में
कितने चित्र बनाये
हैं?
उसने कहा कि
बनाये तो बहुत,
लेकिन बनाना
एक ही चाहता था।
ठीक
कहा। उस एक को बनाने
की चेष्टा में
बहुत बने और वह
एक हमेशा रह जाता
है,
वह बन नहीं पाता
है।
रवींद्रनाथ
मरण—शैया पर थे।
उनकी आंखों से
आंसू टपकते देख
कर उनके एक मित्र
ने कहा, आप, और रोते हैं?
अरे धन्यवाद
दो! प्रभु ने तुम्हें
सब कुछ दिया। तुमसे
बड़ा महाकवि नहीं
हुआ। तुमने छह
हजार गीत लिखे
जो संगीत में बंध
सकते हैं। पश्चिम
में शैली की बड़ी
ख्याति है; उसने भी दो हजार
ही गीत लिखे हैं
जो संगीत में बंध
जाएं। तुमने छह
हजार लिखे। और
क्या चाहते हो?
अब किसलिए रोते
हो? अब तो शांति
से विदा हो जाओ।
रवींद्रनाथ
हंसने लगे। उन्होंने
कहा,
इसलिए रोता भी
नहीं। इधर प्रभु
से निवेदन कर रहा
था भीतर— भीतर,
आंख में आंसू
आ गये। निवेदन
कर रहा था, यह
भी कैसा मजाक है!
अभी तो मैं साज
बिठा पाया था।
अभी गीत गाया कहां?
अभी तो साज बिठा
पाया था। और यह
विदा की बेला आ
गई। यह कैसा अन्याय
है? ये छह हजार
गीत जो मैंने गाये,
यह तो सिर्फ
साज का बिठाना
था।
जैसे
तुमने देखा, तबलची
तबले को ठोंकता—पीटता,
वीणाकार वीणा
को कसता। उस वीणा
को कसने से जो आवाज
निकलती है, तारों को खींचने
से, जांचने
से जो आवाज निकलती
है, उसे संगीत
मत समझ लेना; वह तो केवल अभी
आयोजन किया जा
रहा है।
रवींद्रनाथ
ने कहा, अभी तो
आयोजन पूरा होने
को आया था। अब मैं
गा सकता था, ऐसा लगता था,
और यह विदा होने
का वक्त आ गया,
यह कैसा अन्याय
है?
जिन्होंने
भी कुछ कहने की
कोशिश की है, सभी
का यही अनुभव है।
जो गाना है, वह अनगाया रह
जाता है। जो कहना
है, अनकहा छूट
जाता है।
फिर
दूसरी तरफ से चेष्टा
होती है कि चलो, इस
आयाम से नहीं हुआ,
दूसरे आयाम से
हो जाएगा; ये
शब्द काम न आये,
कोई और शब्द
काम आ जायेंगे;
इससे न जल सका
दीया, किसी
और बात से जल जाएगा।
लेकिन दीया जल
सकता नहीं, क्योंकि शब्द
और सत्य का मिलन
होता नहीं। फिर
भी, अगर तुमने
शांति से सुना,
तुमने अगर पीया,
तो शब्द तो खो
जाएगा, लेकिन
शब्द के पास कुहासे
की तरह जो आभामंडल
था, वह तुम्हारे
भीतर की अग्नि
को प्रज्वलित कर
देगा, तुम प्यासे
हो जाओगे।
जनक
के आज के सूत्र, पीछे
जो सूत्र थे उन्हीं
के सिलसिले में
हैं, उन्हीं
की क्रमबद्धता
में हैं। पीछे
के चार सूत्र बड़े
क्रांतिकारी थे।
अब उन्हीं का विस्तार
है। और वस्तुत:,
पूरी महागीता
में उन्हीं का
विस्तार होगा।
उन चार सूत्रों
में जो मौलिक बात
थी वह इतनी ही थी
कि अष्टावक्र ने
कहा है जनक को कि
अब तू ज्ञान को
उपलब्ध हो जा।
और जनक कहते हैं,
ज्ञान को उपलब्ध
हो जाऊं? यह
भी आप कैसी बात
कह रहे हैं? ज्ञान को उपलब्ध
हो गया हूं! यह आप
कैसी बात कर रहे
हैं कि ज्ञान को
उपलब्ध हो जाओ,
जैसे कि ज्ञान
मुझसे कुछ भिन्न
हो! मेरा स्वभाव,
मेरा बोध है।
इति ज्ञानं! यही
ज्ञान है। यह जो
साक्षी का अनुभव
हो रहा है, यही
ज्ञान है। 'हो जाओ' में
तो ऐसा लगता है
भविष्य में होगा।
'हो जाओ' में तो ऐसा लगता
है, कुछ साधन
करना पड़ेगा, विधान करना पड़ेगा,
अनुष्ठान करना
पड़ेगा। 'हो
जाओ' में तो
ऐसा लगता है यात्रा
करनी होगी; मंजिल भविष्य
में है, मार्ग
तय करना होगा।
जनक
ने कहा, नहीं—नहीं!
आप मुझे उलझाने
की कोशिश मत करें
और आप मुझे ऐसे
प्रलोभन न दें।
हो गया है, घट
गया है। और जब कह
रहे हैं कि घट गया
है तो इसका यह अर्थ
नहीं है कि पहले
नहीं घटा था, अब घटा है। इसका
इतना अर्थ है कि
घटा तो सदा ही से
था, मुझे ही
बोध न था, मुझे
स्मरण न था। संपत्ति
तो मुझमें पड़ी
थी; मैं उधर
आंख को न ले गया;
मैं कहीं और
खोजता रहा।
मिलने
में कोई अड़चन न
थी,
मेरी गलत खोज
ही अड़चन थी। ऐसा
नहीं था कि मेरा
श्रम पूरा नहीं
था, मेरी साधना
पूरी नहीं थी,
या मेरे साधन
अधूरे थे, या
मैंने पूरी जीवन—ऊर्जा
को दाव पर न लगाया
था—ऐसा नहीं था।
सिर्फ जहां मुझे
देखना था वहां
मैंने नहीं देखा
था। मैंने अपने
भीतर नहीं देखा
था। खोजने वाले
ने खोजने वाले
में नहीं देखा
था, कहीं और
खोज रहा था। देखा
भीतर, हो गया।
'हो गया', कहना पड़ता है
भाषा में; कहना
तो ऐसा चाहिए. वही
हो गया जो सदा से
था।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ तो
बुद्ध से किसी
ने पूछा, क्या मिला?
बुद्ध ने कहा,
मिला कुछ भी
नहीं। जो मिला
ही हुआ था, उसका
पता चला। जो मिला
ही हुआ था, जिसे
खोने का कोई उपाय
ही नहीं है! अष्टावक्र
बड़े प्रसन्न हो
रहे होंगे सुन
कर जनक के उत्तर।
शायद ही कभी किसी
शिष्य ने गुरु
की आकांक्षा को
इस परिपूर्णता
से पूरा किया है।
क्योंकि शिष्य
की उत्सुकता तो
होने में होती
है, बनने में
होती है, विकसित
होने में, समृद्ध
होने में, ज्ञानवान
होने में, शक्तिसंपन्न
होने में, सिद्धि
पाने में। अष्टावक्र
बड़े प्रफुल्लित
हुए होंगे। उनका
मन बहुत मग्न हुआ
होगा। क्योंकि
जो जनक कह रहे थे
वही अष्टावक्र
सुनना चाहते थे।
तेरे
हुस्ने—जवाब से
आई
मेरे
ली सवाल की खुशबू।
जरूर
जनक के जवाब में
अपने सवाल की आत्यंतिक
सुगंध को अष्टावक्र
ने अनुभव किया
होगा। इधर भीतर
तो वह प्रफुल्लित
हो रहे होंगे, लेकिन
बाहर उन्होंने
रुख बड़े कठोर बना
रखा है। बाहर तो
परीक्षक हैं। बाहर
तो आंखें जांच
रही हैं। पैनी
धार आंखों की जनक
के हृदय को काट
रही है।
गुरु
को कठोर होना ही
चाहिए—यही उसकी
करुणा है। वह तो
आत्यंतिक स्थिति
में ही कहेगा कि
ठीक,
उसके पहले नहीं।
जब तक जरा—सी भी
संभावना है भूल—
भटक की, तब तक
वह कुरेदे जाएगा,
तब तक वह काटे
जाएगा, तब तक
वह और उपाय करेगा
कि तुम फंस जाओ,,
और उपाय करेगा
कि कहीं तुमसे
भूल—चूक हो जाए।
जनक
ने कहा 'मुझ अंतहीन
महासमुद्र में,
विश्व—रूपी नाव
अपनी ही प्रकृत
वायु से इधर—उधर
डोलती है। मुझे
असहिष्णुता नहीं
है। '
यह
सूत्र इतना सरल
मालूम होता है, लेकिन
बड़ा गहन है! इसमें
उतरने की कोशिश
करो। खूब ध्यान
से सुनोगे तो ही
उतर सकोगे। इस
सूत्र का यह अर्थ
हुआ कि दुख आए चाहे
सुख, दोनों
ही प्रकृति से
उत्पन्न हो रहे
हैं। मेरे चुनाव
की सुविधा कहां
है! मुझसे पूछता
कौन है! जैसे समुद्र
में लहरें उठ रही
हैं—छोटी लहरें,
बड़ी लहरें,
अच्छी लहरें,
बुरी लहरें;
सुंदर, कुरूप
लहरें—यह समुद्र
का स्वभाव है कि
ये लहरें उठती
हैं। ऐसे ही मुझ
में लहरें उठती
हैं—सुख की, दुख की; प्रेम
की, घृणा की;
क्रोध की, करुणा की। ये
स्वभाव से ही उठती
हैं और इधर—उधर
डोलती हैं। इसमें
मैंने चुनाव नहीं
किया है, चुनाव
छोड़ दिया है। और
जब से चुनाव छोड़ा
तभी से असहिष्णुता
भी चली गई। करने
को ही कुछ नहीं
है तो असहिष्णुता
कैसे हो?
मेरे
पास लोग आते हैं, वे
कहते हैं कि किसी
तरह अशांति के
बाहर निकाल लें।
मैं उनसे कहता
हूं कि तुम अशांति
को स्वीकार कर
लो। एकदम उन्हें
समझ में नहीं आता,
क्योंकि वे आए
हैं अशांति को
छोड़ने। मैं उनसे
कहता हूं, अशांति
को स्वीकार कर
लो। उनके आने का
कारण बिलकुल भिन्न
है। वे चाहते हैं
कि कोई अशांति
से छुड़ा दे। कोई
विधि होगी, कोई उपाय होगा,
कोई औषधि होगी,
कोई मंत्र—तंत्र,
कुछ यज्ञ—हवन—कुछ
होगा, जिससे
अशांति छूट जाएगी।
और दुनिया में
सौ गुरुओं में
निन्यानबे ऐसे
हैं कि तुम जाओगे
तो वे जरूर तुम्हें
कुछ कह देंगे कि
यह करो तो अशांति
छूट जाएगी।
मेरी
अड़चन यह है कि मैं
जानता हूं अशांति
को छोड़ने का कोई
उपाय ही नहीं है—स्वीकार
करने का उपाय है।
और स्वीकार करने
में अशांति विसर्जित
हो जाती है। मैं
जब कहता हूं अशांति
विसर्जित हो जाती
है तो तुम यह मत
समझना कि अशांति
छूट जाती है। अशांति
होती रहे या न होती
रहे,
तुम अशांति से
छूट जाते हो। तुमसे
अशांति छूटे या
न छूटे, तुम
अशांति से छूट
जाते हो।
इस
मन की व्यवस्था
को समझें। मन अशांत
है,
तुम कहते हो
शांत होना चाहिए।
मन तो अशांत था,
एक और नई अशांति
तुमने जोड़ी कि
अब शांत होना चाहिए।
मन की अशांति को
समझो। तुम्हारे
पास दस हजार रुपये
हैं, तुम दस
लाख चाहते थे,
इसलिए मन अशांत
है। जितना है उससे
तुम तृप्त न थे।
जो नहीं है वह तुम
मांग रहे थे। 'नहीं' की मांग
से अशांति आई।
अशांति आती है
अभाव से। जो है,
उससे अशांति
कभी नहीं आती है;
जो नहीं है,
उसकी मांग से
आती है। जो पत्नी
तुम्हारी है,
उससे सुंदर चाहिए।
जो पति तुम्हारा
है, उससे ज्यादा
यशस्वी चाहिए।
जो बेटा तुम्हारा
है, उससे ज्यादा
बुद्धिमान चाहिए।
जैसा मकान है,
उससे बड़ा चाहिए।
जितनी तुम्हारी
प्रतिष्ठा है,
उससे गहरी चाहिए।
जो पद तुम्हारे
पास है, उससे
आगे का पद चाहिए।
अशांति आती है
उसकी मांग से जो
तुम्हारे पास नहीं
है। फिर, जब
तुम अशांत हो गए
तो अब तुम एक और
नई बात मांगना
शुरू करते हो—पुराना
जाल तो कायम है
और उसी जाल का गणित
और फैलता है—अब
तुम कहते हो, मुझे शांति चाहिए।
अब शांति नहीं
है तुम्हारे पास,
अब तुम्हें शांति
चाहिए। तुम समझे?
इसका मतलब हुआ
कि अब जाल और भी
जटिल हो जाएगा।
जो
आदमी साधारणत:
अशांत है और शांति
की झंझट में नहीं
पड़ा है, वह उस आदमी
से ज्यादा शांत
होता है जो शांत
होना चाहने की
झंझट में पड़ गया
है। यह एक और उपद्रव
हुआ। अशांत तो
तुम थे ही, तर्क
था कि जो नहीं है
वह होना चाहिए;
अब शांति नहीं
है, शांति होना
चाहिए। एक और नई
झंझट शुरू हुई।
जो
तथाकथित धार्मिक
लोग हैं, उनसे ज्यादा
अशांत व्यक्ति
तुम दूसरे न पाओगे।
सांसारिक व्यक्ति
उतने अशांत नहीं
हैं। मंदिरों में,
मस्जिदों में
झुके लोग, पूजागृहों
में बैठे लोग,
तपश्चर्या उपवास
करते लोग तुम्हें
जितने अशांत दिखाई
पड़ेंगे उतने तुम्हें
साधारण लोग, होटलों में बैठे,
चाय पीते, अखबार पढ़ते,
उतने अशांत न
दिखाई पड़ेंगे।
कम से कम उनके पास
एक ही अशांति है—वे
संसार में कुछ
पाना चाहते हैं।
धार्मिक व्यक्ति
के पास दोहरी अशांति
है—वह परलोक में
भी कुछ पाग चाहता
है। न केवल परलोक
में कुछ पाना चाहता
है, यहां भी
शांति पाना चाहता
है, आनंद पाना
चाहता है, ध्यान
पाना चाहता है।
और सारा जाल इतना
ही है कि तुम अगर
कुछ पाना चाहते
हो तो तुम और अशांत
होते जाओगे।
मैं
कहता हूं—जब कोई
शांति की खोज में
आता—कि तुम अशांति
को स्वीकार कर
लो। उसे समझाता
हूं। कभी—कभी उसकी
समझ में भी आ जाता
है। यह बात कठिन
है : 'अशांति को स्वीकार
कर लो! तो फिर शांत
कैसे होंगे?' तुम्हारी बात
भी मेरी समझ में
आती है। लेकिन
मैं तुमसे कहता
हूं.
जब भी कोई शांत
हुआ है, अशांति
को स्वीकार करके
हुआ है। सुन कर
मुझे, समझ कर
मुझे कोई राजी
हो जाता है कि '
अच्छा, तो
स्वीकार कर लेते
हैं; फिर शांत
हो जाएंगे? स्वीकार कर लेते
हैं, फिर शांत
हो जाएंगे? कब तक शांत होंगे?
चलो स्वीकार
कर लेते हैं। 'तो मैं उनसे कहता
हूं यह तुमने स्वीकार
किया ही नहीं।
अभी भी तुम्हारी
मांग तो कायम है
कि शांत होना है।
स्वीकार करने का
अर्थ है. जैसा है,
वैसा है; अन्यथा हो नहीं
सकता। जैसा है,
वैसा ही होगा।
जैसा हुआ है, वैसा ही होता
रहा है।
जब
तुम इस भांति स्वीकार
कर लेते हो तो पीछे
यह प्रश्न खड़ा
नहीं होता कि स्वीकार
करने से हम शांत
हो जाएंगे? और
शांति उसी घटना
की स्थिति है,
जब जो है स्वीकार
है। फिर कैसे अशांत
होओगे बताओ मुझे?
फिर क्या उपाय
है अशांत होने
का? जो है, जैसा है—स्वीकार
है। फिर तुम्हें
कौन अशांत कर सकेगा,
कैसे अशांत कर
सकेगा? फिर
तो अगर अशांति
भी होगी तो स्वीकार
है। फिर तो दुख
भी आएगा तो स्वीकार
है। फिर तो मौत
भी आएगी तो स्वीकार
है। तुमने चुनाव
छोड़ दिया, तुमने
संकल्प छोड़ दिया,
तुम समर्पित
हो गये। तुमने
कहा, अब जो है
वही है। और उसी
दिन वह महाक्रांति
घटती है जिसका
इस सूत्र में इंगित
है।
मयि
अनंत महाम्भोधौ
विश्वपोत इतस्तत:।
'मुझ
अंतहीन महासमुद्र
में विश्व—रूपी
नाव अपनी ही प्रकृत
वायु से इधर—उधर
डोलती है।
'भ्रमति
स्वान्तवातेन
न मम अस्ति असहिष्णुता
अब
मैं जान गया कि
यह स्वभाव ही है।
कोई मेरे विपरीत
मेरे पीछे नहीं
पड़ा है। कोई मेरा
शत्रु नहीं है
जो मुझे अशांत
कर रहा है। ये मेरे
ही स्वभाव की तरंगें
हैं। यह मैं ही
हूं। यह मेरे होने
का ढंग है कि कभी
इसमें लहरें उठती
हैं,
कभी लहरें नहीं
उठतीं; कभी
सब शांत हो जाता
है, कभी सब अशांत
हो जाता है। यह
मैं ही हूं और यह
मेरा स्वभाव है।
एक
मित्र ने पूछा
कि आप कहते हैं, आत्मा
जब मुक्त हो जाएगी
तब परिपूर्ण आनंद
में होगी, स्वतंत्र
होगी, लेकिन
क्या फिर आत्मा
में वासना नहीं
उठ सकती? और
अगर वासना फिर
नहीं उठ सकती तो
पहले ही वासना
क्यों उठी? क्योंकि आत्मा
तो स्वभाव से ही
स्वतंत्र है,
शुद्ध—बुद्ध
है। पहले से ही
वासना क्यों उठी?
उन
मित्र को... उनका
प्रश्न बिलकुल
स्वाभाविक है, तर्कयुक्त
है। उनको यह खयाल
में नहीं आ रहा
कि वासना का उठना
भी आत्मा की स्वतंत्रता
का हिस्सा है।
यह किसी ने उठा
नहीं दी तुममें।
यह तुम्हारा स्वभाव
है। वासना भी उठती
है तुम्हारे स्वभाव
में और मोक्ष भी
उठता है तुम्हारे
स्वभाव में। जब
वासना उठती है
तो तुम संसारी
हो जाते हो। जब
वासना उठती है
तो तुम देह में
प्रवेश कर जाते
हो। जब वासना से
थक जाते हो तो मुक्त
हो जाते हो। मगर
दोनों तुम्हारे
ही स्वभाव हैं।
ऐसा नहीं है कि
वासना कोई शैतान
तुम में डाल रहा
है और मोक्ष तुम
लाओगे। वासना भी
तुम्हारी, मोक्ष
भी तुम्हारा। और
जिसने ऐसा समझ
लिया, उसे एक
बात खयाल में आ
जाएगी कि अगर आत्मा
में वासना न उठ
सके तो वह आत्मा
मुक्त ही नहीं।
क्योंकि मुक्ति
ऐसी क्या मुक्ति
हुई? अगर तुम्हें
स्वर्ग जाने की
ही मुक्ति हो और
नरक जाने के लिए
दरवाजे ही बंद
हों और जा ही न सको,
तो यह मुक्ति
कोई पूरी मुक्ति
न हुई। यह स्वर्ग
भी बेमजा हो जाएगा।
इसका भी स्वाद
खो जाएगा। मुंह
कड़वाहट से भर जाएगा
स्वर्ग में जा
कर।
स्वर्ग
का मजा ही यह है
कि नरक जाने की
भी सुविधा है।
सुख का मजा यही
है कि दुखी होने
की सुविधा है।
विपरीत के कारण
ही जीवन में सारा
रंग है, सारा संगीत
है। अगर विपरीत
न हो तो सब संगीत
खो जाए। वीणावादक
अंगुलियों से तार
को छेडता है तो
संगीत है। अंगुलियों
और तार में जो संघर्ष
होता है वही संगीत
है। संघर्ष बंद
हो जाए, संगीत
शून्य हो जाए,
संगीत खो जाए।
स्त्री
और पुरुष के बीच
जो विपरीतता है, वही
प्रेम है। अगर
विपरीतता समाप्त
हो जाए, प्रेम
विदा हो जाए। संसार
और मोक्ष के बीच
जो विकल्प है,
वही स्वतंत्रता
है। स्वतंत्रता
का मतलब यह है कि
अगर मैं चाहूं
तो मैं नरक की आखिरी
परत तक जा सकता
हूं, कोई मुझे
रोकने वाला नहीं।
और अगर मैं चाहूं
तो स्वर्ग की सब
ऊंचाइयां मेरी
हैं, मुझे कोई
रोकने वाला नहीं।
यह मेरा निर्णय
है। और ये दोनों
मेरे स्वभाव हैं।
नरक मेरी ही निम्नतम
दशा है, स्वर्ग
मेरी ही उच्चतम
दशा है। समझो कि
नरक मेरे पैर हैं
और स्वर्ग मेरा
सिर है। मगर दोनों
मेरे हैं और भीतर
मेरा खून दोनों
को जोड़े हुए है।
भ्रमति
स्वान्तवातेन.........।
अपनी
ही हवा है, उसी
से भ्रम पैदा हो
रहा है। डावांडोल
होती नौका।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में विश्व—रूपी
नाव अपनी ही प्रकृत
वायु से इधर—उधर
डोलती है। मुझे
असहिष्णुता नहीं
है।'
जनक
कहते हैं, अब
मैं चुनाव नहीं
करना चाहता। मैं
यह नहीं चाहता
कि नाव न डोले,
क्योंकि वह मेरा
आकर्षण कि नाव
न डोले, मेरे
मन का तनाव बनेगा।
जब
भी तुमने कुछ चाहा, जब
भी तुमने कुछ चाह
की, तनाव पैदा
हुआ। जब भी तुमने
स्वीकार किया,
जो है, तभी
तनाव खो गया। अगर
तुमने चाहा कि
अज्ञान हटे और
ज्ञान आए—उपद्रव
शुरू हुआ। अगर
तुमने चाहा कि
वासना मिटे, निर्वासना आए—पडे
तुम झंझट में! अगर
तुमने चाहा संसार
से मुक्ति हो,
मोक्ष बने मेरा
साम्राज्य—अब तुमने
एक तरह की परेशानी
मोल ली, जो तुम्हें
चैन न देगी।
जनक
बड़ी अदभुत बात
कह रहे हैं। जनक
कह रहे हैं : संसार
और मोक्ष दोनों
ही मुझमें उठती
तरंगें हैं। अब
मैं चुनाव नहीं
करता; जो तरंग उठती
है, देखता रहता
हूं। यह भी मेरी
है। यह भी स्वाभाविक
है।
देखा
इस स्वीकार— भाव
को! फिर कैसी असहिष्णुता? फिर
तो सहिष्णुता बिलकुल
ही नैसर्गिक होगी।
जो हो रहा है, हो रहा है। बड़ी
कठिन है यह बात
स्वीकार करनी,
क्योंकि अहंकार
के बड़े विपरीत
है।
कोई
मेरे पास आया और
कहने लगा, मैं
महाक्रोधी हूं, मुझे क्रोध से
मुक्त होना है।
मैंने उससे पूछा
कि तू महाक्रोधी
क्यों है? इसको
थोड़ा समझ। अहंकार
के कारण होगा।
उसने
कहा,
आप ठीक कहते
हैं। और मैंने
कहा, उसी अहंकार
के कारण तू कहता
है कि मुझे क्रोध
से बाहर होना है,
क्योंकि क्रोध
के कारण अहंकार
को चोट लगती है।
तो क्रोध के पीछे
भी अहंकार है और
अक्रोधी बनने के
पीछे भी अहंकार
है। जब भी तू क्रोध
करता है तो तेरी
प्रतिमा नीचे गिरती
है, तेरे अहंकार
को भाता नहीं है।
तू चाहता है कि
लोग तुझे संत की
तरह पूर्जे, चरण छुए तेरे।
तेरे
क्रोध के कारण
वह सब गड़बड़ हो जाता
है। तेरे कोई चरण
नहीं छूता। चरण
कौन तेरे छुए? नमस्कार
कौन करे तुझे?
तो अब तू चाहता
है कि क्रोध से
कैसे छूटें। लेकिन
मूल जड़ तो वही की
वही है। जिसके
कारण तू क्रोध
करता था—जिस अहंकार
के कारण—वही अहंकार
अब संत— महात्मा
बन जाना चाहता
है। इसे समझ और
अब तू चुनाव छोड़
दे। मैं तुझसे
कहता हूं? तू
क्रोधी है, तू राजी हो जा.
ठीक है, मैं
क्रोधी हूं। और
क्रोध के जो परिणाम
हैं, वे होंगे।
कोई तुझे सम्मान
नहीं देगा, ठीक है, बिलकुल
ठीक है। सम्मान
देना ही क्यों
चाहिए। कोई तेरा
अपमान करेगा,
ठीक है। क्रोधी
हूं इसलिए अपमान
होता है।
समझने
की कोशिश करना।
अगर यह व्यक्ति
क्रोध को समझ ले, स्वीकार
कर ले तो क्या क्रोध
बचेगा?
उस
व्यक्ति ने दो
दिन पहले मुझे
पत्र लिखा था कि
मुझे अब बचाएं, मुझे
बाहर निकालें;
क्योंकि मैं
वेश्या के घर जाने
लगा हूं और ये और
लोग मुझे संत मानते
हैं, साधु मानते
हैं। और अगर मैं
पकड़ा गया या किसी
को पता चल गया तो
फिर क्या होगा?
देखते
हैं,
वही अहंकार नए—नए
रूप लेगा! वही अहंकार
वेश्या के घर ले
जाएगा। वही अहंकार
संत बनने की आकांक्षा
पैदा करवा देगा।
उस
व्यक्ति को मैंने
कहा,
तू एक काम कर।
या तो तू स्वीकार
कर ले कि तू वेश्यागामी
है और घोषणा कर
दे कि मैं वेश्यागामी
हूं। बात खत्म
हो गई। फिर न तुझे
डर रहेगा, न
भय रहा, फिर
तुझे जाना है जा,
नहीं जाना है
न जा। तेरी मर्जी
है। तेरे लिए शायद
अभी यही उचित होगा.
जो हो रहा है ठीक
हो रहा है। मैं
तुझे नहीं कहता
कि मत जा। अगर इस
स्वीकार— भाव से
यह गिर जाए वृत्ति
तो ठीक, तो तू
जाग जाएगा। तब
जागरण को स्वीकार
कर लेना, अभी
सोने को स्वीकार
कर। और स्वीकार
के माध्यम से ही
सोने और जागरण
के बीच सेतु बनता
है।
क्या
किया उस व्यक्ति
ने?
वह चीखा, मेरे सामने ही
चिल्लाया कि मुझे
बुद्ध बनने से
कोई भी नहीं रोक
सकता! इतने जोर
से चीखा कि शीला
मेरे पास बैठी
थी, वह एकदम
कैप गई।
वही
क्रोध, वही अहंकार
नए—नए रूप ले लेता
है। अब बुद्ध बनने
से कोई नहीं रोक
सकता! जैसे कि मैं
उसको बुद्ध बनने
से रोक रहा हूं!
क्योंकि मैंने
उससे कहा, स्वीकार
कर ले। जो हो रहा
है, स्वीकार
कर ले! जैसा है स्वीकार
कर ले।
यह
बात चोट कर गई।
यह कैसे स्वीकार
कर लें! बुरा से
बुरा आदमी भी यह
स्वीकार नहीं करता
कि मैं बुरा हूं।
इतना ही मानता
है कि कुछ बुराई
मुझमें है; हूं
तो मैं आदमी अच्छा।
देखो, अच्छा
होने की कोशिश
में लगा हूं। पूजा
करता, प्रार्थना
करता, ध्यान
करता, साधु
—सत्संग में जाता—आदमी
तो मैं अच्छा हूं;
जरा कमजोरी है,
थोड़ी— थोड़ी बुराई
कभी हो जाती है,
मिट जाएगी धीरे—
धीरे! कभी नहीं
मिटेगी। क्योंकि
यह अच्छाई तुम्हारी
बुराई को छिपाने
का उपाय भर है।
यह साधु—सत्संग,
तुम्हारे भीतर
जो क्रोध पड़ा है,
उसके लिए आडू
है। ये अच्छी— अच्छी
बातें और ये अच्छी—
अच्छी कल्पनाएं
कि कभी तो संत हो
जाऊंगा, बुद्ध
बनने से कोई भी
मुझे रोक नहीं
सकता—यह अहंकार
अब बड़ी अच्छी आडू
ले रहा है; बड़े
सुंदर पर्दे में
छिप रहा है—बुद्ध
होने का पर्दा!
अगर
मन को तुम ठीक से
देखोगे तो जनक
की बात का महत्व
समझ में आएगा।
स्वीकार है!
यह
भी स्वाभाविक है, वह
भी स्वाभाविक है।
जो इस घड़ी हो रहा
है, उससे अन्यथा
मैं नहीं होना
चाहता। इस बात
की क्रांति को
समझे? जो इस
क्षण हो रहा है,
वही मैं हूं.
क्रोध तो क्रोध,
लोभ तो लोभ,
काम तो काम।
इस क्षण मैं जो
हूं वही मैं हूं;
और इससे अन्यथा
की मैं कोई मांग
नहीं करता और न
अन्यथा का कोई
आवरण खड़ा करता
हूं।
अक्सर
अच्छे— अच्छे आदर्शों
के पीछे तुम अपने
जीवन के घाव छिपा
लेते हो। हिंसक, अहिंसक
बनने की कोशिश
में लगे रहते हैं।
कभी बनते नहीं,
बन सकते नहीं।
क्योंकि अहिंसक
बनने का एक ही उपाय
है—और वह है : .हिंसा
को परिपूर्ण रूप
से स्वीकार कर
लेना। क्रोधी करुणा
की चेष्टा करते
रहते हैं—कभी नहीं
बन सकते। हो सकता
है ऊपर—ऊपर आवरण
ओढ़ लें, पाखंड
रच लें, लेकिन
बन नहीं सकते।
कामी ब्रह्मचर्य
की चेष्टा में
लगे रहते हैं।
जितना कामी पुरुष
होगा उतना ही ब्रह्मचर्य
में आकर्षित होता
है। क्योंकि ब्रह्मचर्य
के आदर्श में ही
छिपा सकता है अपनी
कामवासना की कुरूपता
को, और तो कोई
उपाय नहीं। आज
तो गलत है, कल
अच्छा हो जाऊंगा—इस
आशा में ही तो आज
को जी सकता है;
नहीं तो आज ही
जीना मुश्किल हो
जाएगा।
मैं
तुमसे कहता हूं
: कल है ही नहीं; तुम
जो आज हो, वही
तुम हो। इसको समग्र—
भावेन, इसको
परिपूर्णता से
अंगीकार कर लेते
ही तुम्हारे जीवन
से द्वंद्व विसर्जित
हो जाता है। तुम
जो हो हो, अन्यथा
हो नहीं सकते;
द्वंद्व कहां?
चुनाव कहां?
जैसे तुम हो,
वैसे हो। यही
तुम्हारा होना
है। प्रभु ने तुम्हें
ऐसा ही चाहा है।
इस घड़ी प्रभु को
तुम्हारे भीतर
ऐसी ही घटना घटाने
की आकांक्षा है।
इस घड़ी समस्त जीवन
तुम्हें ऐसा ही
देखना चाहता है;
ऐसे ही आदमी
की जरूरत है। तुम्हारे
भीतर यही विधि
है, यही भाग्य
है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में विश्व—रूपी
नाव अपनी प्रकृत
वायु से इधर—उधर
डोलती है। '
कभी
क्रोध बन जाती, कभी
करुणा बन जाती;
कभी काम, कभी ब्रह्मचर्य;
कभी लोभ, कभी दान—इधर—उधर,
इतस्तत:! मुझे
लेकिन असहिष्णुता
नहीं है। मैं इससे
अन्यथा चाहता नहीं।
इसलिए मुझे कुछ
करने को नहीं बचा
है। गया कृत्य।
अब तो मैं बैठ कर
देखता हूं कि लहर
कैसी उठती है।
भ्रमति स्वांतवातेन.।
भटक
रही अपनी ही हवा
से। न कहीं जाना, नहीं
मुझे कुछ होना।
कोई आदर्श नहीं
है, कोई लक्ष्य
नहीं है। अब तो
मैं बैठ गया। अब
तो मैं मौज से देखता
हूं। सब असहिष्णुता
खो गई।
जब
तुम कहते हो मैं
क्रोधी हूं और
मुझे अक्रोधी होना
है—तो इसका अर्थ
समझे? तुम क्रोध
के कारण बहुत असहिष्णु
हो रहे हो। तुम
क्रोध को धैर्य
के साथ स्वीकार
नहीं कर रहे। तुम
बड़े अधैर्य में
हो। तुम कहते हो,
'क्रोध और मैं!
मुझ जैसा पवित्र
पुरुष और क्रोध
करे —नहीं, यह
बात जंचती नहीं।
मुझे क्रोध से
छुटकारा चाहिए!
मुझे मुक्त होना
है! मैं उपाय करूंगा,
यम—नियम साधूंगा,
आसन—व्यायाम
करूंगा, धारणा
— ध्यान करूंगा,
मुझे लेकिन क्रोध
से मुक्त होना
है!' तुमने अधैर्य
बता दिया। तुमने
कह दिया कि जो है,
तुम उसके साथ
राजी नहीं; तुम कुछ और चाहते
हो। बस वहीं से
तुम अशांत होने
शुरू हुए।
असहिष्णुता
अशांति का बीज
है।
जनक
कह रहे हैं. ये लहरें
हैं। कभी—कभी क्रोध
आता,
कभी—कभी काम
आता, कभी—कभी
लोभ
आता। इतस्तत:! यहां—वहां!
स्वांतवातेन! भटकता
सब कुछ! पर मैं तो
देखता हूं। अब
मुझे कुछ लेना—देना
नहीं। अब मेरा
कोई भी आग्रह नहीं
है कि ऐसा हो जाऊं।
मैं जैसा हूं, बस
प्रसन्न हूं। आदर्श
—मुक्ति में सहिष्णुता
है। और मैं किसे
संन्यासी कहता
हूं? उसी व्यक्ति
को संन्यासी कहता
हूं जिसने आदर्शों
का त्याग कर दिया।
अब तुम जरा चौकोगे।
तुमने सदा यही
सुना है कि जिसने
संसार का त्याग
कर दिया वही संन्यासी।
मैं तुमसे कहता
हूं. जिसने आदर्शों
का त्याग कर दिया,
वह संन्यासी।
क्योंकि आदर्श
के त्याग के बाद
असहिष्णु होने
का कोई उपाय नहीं
रह जाता।
तुम
जरा करके तो देखो।
एक महीना सही।
एक महीना, तुम
जो है, उसे स्वीकार
कर लो। किसी ने
कुछ कहा, और
तुम क्रोधित हो
गए—स्वीकार कर
लो। स्वीकार करने
का मतलब यह नहीं
कि तुम सिद्ध करो
कि मेरा क्रोध
ठीक है। तुम इतना
ही स्वीकार कर
लो कि मैं आदमी
क्रोधी हूं। और
दूसरे से कहना
कि भई क्रोधी से
दोस्ती बनाई,
तो कांटे तो
चुभेंगे। मैं आदमी
क्रोधी हूं। गलती
तुम्हारी है कि
मुझसे दोस्ती बनाई,
कि मुझसे पहचान
की। अब अगर मेरे
साथ रहोगे तो क्रोध
कभी—कभी होने वाला
है। मैं तुम्हें
यह भी वचन नहीं
देता कि कल मैं
अक्रोधी हो जाऊंगा।
कल का किसको पता
है! जहां तक मैं
जानता हूं अतीत
में कभी भी अक्रोधी
नहीं रहा, इसलिए
बहुत संभावना तो
यही है कि कल भी
क्रोधी रहूंगा।
तुम सोच लो। मैं
पश्चात्ताप भी
नहीं कर सकता,
क्योंकि पश्चात्ताप
बहुत बार कर चुका,
उससे कुछ हल
नहीं होता, वह धोखा सिद्ध
होता है। क्रोध
कर लेता हूं? पछता लेता हूं
फिर क्रोध करता
हूं। पश्चात्ताप
का क्या सार है?
तुमसे इतना ही
कहता हूं कि अब
पश्चात्ताप की
लीपापोती भी न
करूंगा।
पश्चात्ताप
का मतलब होता है.
लीपापोती। तुम
किसी से क्रोधित
हो गए, फिर घर लौट
कर आए, तुमने
सोचा. 'यह भी
क्या हुआ, बीच
बाजार में भद्द
करवा ली, लोग
क्या सोचेंगे!
अब तक सज्जन समझे
जाते थे। लोग कहते
थे कि बड़े गुरु—गंभीर!
आज सब उथलापन सिद्ध
हो गया। लोग सोचते
थे स्वर्ण—पात्र,
अल्युमीनियम
के सिद्ध हुए,
जरा में एकदम
गरमा गए। अब कुछ
करो, प्रतिमा
खंडित हो गई, औंधे मुंह पड़ी
है! उठाओ, सिंहासन
पर फिर बिठाओ।
' फिर तुम गए
सोच—विचार कर कहा,
क्षमा करना भाई!
मैं करना नहीं
चाहता था, हो
गया!
सोचते
हो,
क्या लोग कहते
हैं? लोग कहते
हैं—मैं करना नहीं
चाहता था, हो
गया! मेरे बावजूद
हो गया। न—मालूम
कैसे हो गया! कौन
शैतान मेरे सिर
चढ़ गया।
सुनते
हो लोगों की बातें? अब
खुद शैतान हैं,
यह स्वीकार न
करने का उपाय कर
रहे हैं। 'कौन
शैतान मेरे सिर
चढ़ गया। कैसी दुर्बुद्धि?
लेकिन होश आया,
पछताने आया हूं, क्षमा करना।
'
तुम
कर क्या रहे हो? तुम
यह कर रहे हो कि
वह जो प्रतिमा
तुम्हारी बीच बाजार
में खंडित हो गई,
वह जो गिर पड़ी
जमीन पर, उसे
तुम उठा रहे हो।
तुम कह रहे हो कि
मैं बुरा आदमी
नहीं हूं। भूल—चूक
हो गई। भूल—चूक
किससे नहीं हो
जाती! आदमी भूल—चूक
करता ही है।
तुम्हें
अपने आदमी होने
की याद ही तब आती
है जब तुम भूल—चूक
करते हो। तब तुम
कहते हो. टू इर्र
इज झूमन। भूल—चूक
करना तो आदमी है।
और तुम्हें आदमी
होने की याद नहीं
आती?
क्षमा मांग कर
या उसके चरण छू
कर. वह भी सोचता
है कि नहीं, आदमी तो अच्छा
है। वह भी क्यों
सोचता है कि आदमी
अच्छा है? क्रोध
करके तुमने उसके
अहंकार को चोट
पहुंचा दी थी,
तो वह नाराज
था। अब तुमने उसके
पैर छू लिए, फूल चढ़ा आए, गुलदस्ता भेंट
कर आए। वह भी सोचता
है कि आदमी तो अच्छा
है। वह क्यों सोचता
है? तुमसे उसे
भी कुछ लेना—देना
नहीं। न तुम्हें
उससे कुछ लेना—देना
है। वह सोचता है
आदमी अच्छा है,
क्योंकि अब तुमने
उसके अहंकार पर
फूल रख दिए। घड़ी
भर पहले चांटा
मार आए थे तो वह
तमतमा गया था,
बदला लेने की
सोच रहा था, अदालत में जाने
की सोच रहा था।
तुम फूल रख आए,
झंझट बची। अदालत
भी बची। प्रतिष्ठा
तुम्हें मिली।
उसका अहंकार भी
प्रतिष्ठित हो
गया, तुम्हारा
भी प्रतिष्ठित
हो गया। संसार
फिर वैसा ही चल
पड़ा जैसा तुम्हारे
चांटा मारने के
पहले चल रहा था।
फिर जगह पर आ गईं
चीजें। फिर वहीं
के वहीं खड़े हो
गए जहां थे।
नहीं, जिस
व्यक्ति को वस्तुत:
समझना हो, वह
जाएगा—पश्चात्ताप
करने नहीं, स्वीकार करने।
वह जाएगा कहने
कि भाई देख लिया,
आदमी मैं कैसा
हूं? तुम्हारी
धारणा मेरे प्रति
गलत थी। तुम जो
सोचते थे कि मैं
आदमी अच्छा हूं
वह गलत धारणा थी।
मेरा असली आदमी
प्रगट हो गया।
और अच्छा हुआ कि
प्रगट हो गया।
अब तुम सोच लो,
.आगे मुझसे संबंध
रखना कि नहीं रखना।
मैं कोई भरोसा
नहीं देता कि कल
ऐसा फिर न होगा।
मैं भरोसे—योग्य
नहीं हूं। मैं
भरोसा दूं भी तो
भरोसा रखना मत,
क्योंकि मैंने
पहले लोगों को
भरोसे दिए और धोखा
दिया। मैं आदमी
बुरा हूं। शैतानियत
मेरा स्वभाव है।
सोचते
हो तुम इसका क्या
परिणाम होगा? दूसरे
पर क्या होगा,
वह दूसरा जाने,
लेकिन तुम्हारे
भीतर एक सरलता
आ जाएगी। तुम एकदम
सरल हो जाओगे।
तुम एकदम विनम्र
हो जाओगे। यह पश्चात्ताप
नहीं है, यह
स्वीकार— भाव है।
तुमने सब चीजें
साफ कर दीं अपने
बाबत, कि तुम
आदमी कैसे हो।
और तुमने अपने
बाबत कोई भ्रम
नहीं संजोया है।
और तब एक क्रांति
घटित होती है।
वह क्रांति घटती
है स्वीकार के
इस महासत्य से,
इस महासूत्र
से। तुम अचानक
पाते हो कि धीरे—
धीरे क्रोध मुश्किल
हो गया, अब क्रोध
करने का कारण क्या
रहा? क्रोध
तो इसलिए हो जाता
था कि कोई तुम्हारे
अहंकार को गिराने
की कोशिश कर रहा
था, तो क्रोध
हो जाता था। अब
तो तुमने खुद ही
वह प्रतिमा गिरा
दी। तुम तो उसे
खुद ही कचरे —घर
में फेंक आए। अब
तो कोई तुम्हें
क्रोधित कर नहीं
सकता। ध्यान रखना,
हमारा मन सदा
होता है जिम्मेवारी
दूसरे पर छोड़ दें।
हम सब यही करते
हैं। हजार—हजार
उपाय से हम यही
काम करते हैं कि
हम दूसरे पर जिम्मेवारी
छोड़ देते हैं।
एक
आदमी को मैं जानता
हूं—महाक्रोधी।
उससे मैंने पूछा, इतना
क्रोध कैसे हो
गया है? उसने
कहा, क्या करूं,
मेरा बाप बड़ा
क्रोधी था। उसकी
वजह से, बचपन
से ही कुसंस्कार
पड़ गए।
मगर
यह आदमी जो कह रहा
है,
हंसना मत। फ्रायड
भी यही कह रहा है।
बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक
भी यही कह रहे हैं।
सारा उपाय यह चलता
है कि किसी पर हटा
दो जिम्मेवारी।
पुराने धर्म भी
यही कहते थे। अगर
तुम पूरी मनुष्य—जाति
का इतिहास देखो
तो अष्टावक्र या
जनक जैसी बात को
कहने वाले इने—गिने,
उंगलियों पर
गिने जा सकें,
इतने लोग मिलेंगे,
बाकी सब लोग
तो कुछ और कह रहे
हैं।
ईसाइयत
कहती है कि परमात्मा
ने अदम को और हब्बा
को स्वर्ग के बगीचे
से बाहर खदेड़ दिया, क्योंकि
उन्होंने आज्ञा
का उल्लंघन किया
था। जब परमात्मा
आया और उसने अदम
से पूछा कि 'तूने क्यों खाया
इस वृक्ष का फल?
तुझे मना किया
गया था। ' उसने
कहा, 'मैं क्या
करूं? यह हब्बा,
इसने मुझे फुसलाया।
' देखते हैं,
शुरू हो गई कहानी!
उसने अपनी जिम्मेवारी
हब्बा पर फेंक
दी। यह इस पत्नी
को देखिए, अब
मैं पति ही हूं, और पति की तो आप
जानते ही हैं हालतें!
अब पत्नी कहे और
पति न माने तो झंझट।
अब अगर पति को पत्नी
और परमात्मा में
चुनना हो तो इसको
ही चुनना पड़ेगा।
माना, आपकी
आशा मुझे मालूम
है, मगर इसकी
आशा भी तो देखिए!
यह फल ले आई और कहने
लगी चखो, तो
मुझे खाना पड़ा।
तो
परमात्मा ने हब्बा
से पूछा कि तुझे
भी पता था, फिर
तू क्यों फल लाई?
उसने कहा, मैं क्या करूं?
वह शैतान सांप
बन कर मुझसे कहने
लगा। सांप कहने
लगा मुझसे कि खाओ
इसका फल। उसने
मुझे काफी उत्तेजित
किया। उसने कहा,
इस फल को खाने
से तुम मनुष्य
नहीं, परमात्म—रूप
हो जाओगे। परमात्मा
स्वयं इसका फल
खाता है और तुम्हें
कहता है, मत
खाओ। जरा धोखा
तो देखो! यह ज्ञान
का फल, इसी को
खाकर परमात्मा
ज्ञानी है और तुमको
अज्ञानी रखना चाहता
है। तो साधारण
स्त्री हूं फुसला
लिया उसने।
स्त्री
का सदा से यही कहना
रहा है कि दूसरों
ने फुसला लिया।
हर पति जानता है
कि पत्नी कहती
है कि हम तुम्हारे
पीछे न पड़े थे।
तुम्हीं हमारे
पीछे पड़े थे, तुम्हीं
ने फुसला लिया
और यह झंझट खड़ी
कर दी।
…….मैं क्या करूं,
सांप ने फुसला
लिया!
अगर
सांप भी बोल सकता
होता, तो किसी और
पर टाल देता। हो
सकता था, वृक्ष
पर ही टाल देता
कि यह वृक्ष ही
विज्ञापन करता
है कि जो मेरे फल
को खाएगा वह ज्ञान
को उपलब्ध हो जाएगा।
लेकिन सांप बोल
नहीं सकता था,
उसने शायद सुना
भी न होगा कि मामला
क्या चल रहा है।
आदमी— आदमी के बीच
की बात थी; वह
चुपचाप रहा, इसलिए कहानी
वहा पूरी हो गई;
नहीं तो कहानी
पूरी हो नहीं सकती
थी।
मार्क्स
कहता है, समाज जिम्मेवार
है। अगर तुम बुरे
हो तो इसलिए बुरे
हो, क्योंकि
समाज बुरा है।
यह कुछ फर्क न हुआ।
यह वही पुरानी
चाल है, नाम
बदल गया।
हिंदू
कहते हैं, विधि,
भाग्य, विधाता
ने ऐसा लिख दिया,
तुम क्या करोगे?
छोड़ो किसी पर!
विधाता लिख गया
है! जब पैदा हुए
थे तो माथे पर लिख
गया कि ऐसा—ऐसा
होगा, तुम क्रोधी
बनोगे, कामी
बनोगे, कि साधु,
कि संत, कि
क्या तुम्हारी
जिंदगी में होगा—स्ब
लिखा हुआ है। सब
तो पहले से तय किया
हुआ है, हमारे
हाथ में क्या है?
तो वही करवा
रहा है, सो हो
रहा है।
फ्रायड
कहता है कि बचपन
में मां —बाप ने
जो संस्कार डाले, तुम्हारे
मन पर जो संस्कारित
हो गया, उसका
ही परिणाम है।
लेकिन
ये सब तरकीबें
हैं एक बात से बचने
की कि यह मेरा स्वभाव
है,
यह जो भी हो रहा
है मेरा स्वभाव
है। इस महंत सत्य
से बचने की सब तरकीबें
हैं, ईजादें
हैं, आविष्कार
हैं कि कैसे हम
टाल दें। और मैं
उसी को हिम्मतवर
कहता हूं वही है
साहसी, जो जनक
की भांति कह दे
कि अपनी ही प्रकृत
वायु से इधर—उधर
डोलती लहरें हैं।
भ्रमति
स्वांतवातेन!
मन असहिष्णुता
न अस्ति
मुझे
कोई असहिष्णुता
नहीं है। मैं इसमें
कुछ फर्क नहीं
करना चाहता, गुरुदेव!
अष्टावक्र से उन्होंने
कहा, जो है,
है, मैं राजी
हूं। मेरे राजीपन
में जरा भी ना—नुच
नहीं है।
इससे
महाक्रांति का
उदय होता है। इस
सत्य को जिस दिन
तुम देख पाओगे, तुम
पाओगे बिना कुछ
किए सब हो जाता
है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में जगतरूपी लहर
स्वभाव से उदय
हो, चाहे मिटे..।
'
सुनो!
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में जगतरूपी लहर,
स्वभाव से उदय
हो चाहे मिटे,
मेरी न वृद्धि
है और न हानि है।'
न
यहां कुछ खोता, न यहां
कुछ कमाया जाता।
फिर क्या फिक्र?
न तो क्रोध में
कुछ खोता है और
न करुणा में कुछ
कमाया जाता है।
बड़ी अदभुत बात
है! यह सब सपना है।
मयि
अनंत महाम्भोधौ
जगद्वीचि स्वभावत:।
स्वभाविक
रूप से उठ रही हैं
जगत की लहरें।
छोटी—बड़ी, अनेक—
अनेक रूप, अच्छी—बुरी,
शोरगुल उपद्रव
करती, शांत—स्ब
तरह की लहरें उठ
रही हैं।
उदेतु
वास्तमायातु न
मे वृद्धिर्न न
क्षति:।
न
तो वृद्धि होती, न क्षति
होती। कुछ भी मेरा
तो कुछ आता—जाता
नहीं।
रात
तुमने सपना देखा, चोर
हो गए कि साधु हो
गए—सुबह उठ कर तो
दोनों सपने बराबर
हो जाते हैं। सुबह
तुम यह तो नहीं
कहते कि रात हम
साधु हो गए थे सपने
में। तो तुम कुछ
गौरव तो अनुभव
नहीं करते। और
न सुबह तुम कोई
अगौरव और ग्लानि
अनुभव करते हो
कि चोर हो गए थे
कि हत्यारे हो
गए थे—सपना तो सपना
है। सपना तो टूटा
कि गया।
तो
जनक कहते हैं कि
ये चाहे बनें चाहे
मिटें! आप मुझसे
कहते हैं कि जगत
से मुक्त हो जाऊं? आप
बात क्या कर रहे
हैं? यह जो हो
रहा है, होता
रहेगा, होता
रहा है, होता
रहे, मुझे लेना—देना
क्या है? न तो
ऐसा करने से मुझे
कुछ लाभ होता,
न वैसा करने
से मुझे कुछ हानि
होती है। यहां
चुनाव करने को
ही कुछ नहीं है।
यहां लाभ—हानि
बराबर है।
हानि
न लाभ कछु! यहां
कुछ है ही नहीं
हानि—लाभ, तुम
नाहक ही खाते—बही
फैलाए और लिख रहे
हो बड़ी हानि—लाभ
के—इसमें लाभ है,
इसमें हानि है,
यह करें तो लाभ,
यह करें तो हानि।
जनक
कहते हैं, जो
हो रहा है, हो
रहा है। मैं तो
सिर्फ देख रहा
हूं।
जगद्वीचि
स्वभावत: उदेतु
वा अस्तम्।
मेरे
किए परिवर्तन होने
वाला भी नहीं है।
क्योंकि स्वभाव
में कैसे परिवर्तन
होगा? पतझर आती
है, पत्ते गिर
जाते हैं। वसंत
आता है, फिर
नई कोंपलें उग
आती हैं। जवानी
होती है, वासना
उठती है। बुढ़ापा
आता है, वासना
क्षीण हो जाती
है। मेरे किए हो
भी नहीं रहा है।
मैं कर्ता नहीं
हूं। तो छोड़ना
कैसा, भागना
कैसा, त्याग
करना कैसा?
अष्टावक्र
ने एक जाल फैलाया
है परीक्षा के
लिए और उससे कहा
कि तू त्याग कर, यह
सब छोड़ दे! जब तुझे
ज्ञान हो गया,
तू कहता है कि
तुझे ज्ञान हो
गया तो अब तू सब
त्याग कर दे। अब
यह शरीर मेरा,
यह धन मेरा,
यह राज्य मेरा,
यह सब तू छोड़
दे।
जनक
कहते हैं, मेरे
छोड़ने से, पकड़ने
से संबंध ही कहां
है? यह मेरा
है ही नहीं जो मैं
छोड़ दूं। मैंने
इसे कभी पकड़ा भी
नहीं है जो मैं
इसे छोड़ दूं। यह
अपने से हुआ है,
अपने से खो जाएगा।
स्वभावत:
उदेतु वा अस्तम्
मे न
वृद्धि: च न क्षति।
मैं
तो इतना ही देख
पा रहा हूं कि न
तो इसके होने से
मुझे कुछ लाभ है, न इसके
न—होने से मुझे
कुछ लाभ है।
यह
बड़ी अदभुत बात
है। यही परम संन्यास
है। बैठे दुकान
पर तो बैठे। हो
रही दुकान, तो
चल रही है, तो
चले! बंद हो जाए
तो बंद हो जाए! जब
दीवाला निकल गया
तो प्रसन्नता से
बाहर आ गए! जब तक
चलती रही, चलती
रही! करोगे क्या?
चलती थी तो साथ
थे, नहीं चलती
तो रुक गए। इस भांति
जो ले ले, वैसा
व्यक्ति कभी अशांत
हो सकता है? वैसा व्यक्ति
कभी उद्विग्न हो
सकता है? वैसे
व्यक्ति के जीवन
में कभी तनाव हो
सकता है? उसकी
विश्रांति आ गई।
बचपन था तो बचपन
के खेल थे, जवानी
आई तो जवानी के
खेल हैं, बुढ़ापा
आया तो बुढ़ापे
के खेल हैं। बच्चे
खेल— खिलौनों से
खेलते हैं, जवान, व्यक्तियों
से खेलने लगते,
के, सिद्धातो
से खेलने
लगते हैं।
बचपन
में कामवासना का
कोई पता नहीं है।
तुम समझाना भी
चाहो बच्चे को, तो
समझा नहीं सकते
कि कामवासना क्या
है। कोई अभी उठी
नहीं तरंग। अभी
स्वभाव वासनामय
नहीं हुआ। अभी
स्वभाव ने वासना
की तरंग नहीं उठाई।
फिर जवान हो गया
आदमी, उठीं
वासना की तरंगें।
फिर तुम लाख समझाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन मरता
था। अपने बेटे
को उसने पास बुलाया
और कहने लगा कि
कहने को तो बहुत
कुछ है, लेकिन
कहूंगा नहीं। बेटे
ने पूछा, क्यों?
उसने कहा कि
मेरे बाप ने भी
मुझसे कहा था लेकिन
मैंने सुना कहां!
कहने को तो बहुत
कुछ है, कहूंगा
नहीं। पर बेटा
कहने लगा, आप
कह तो दें, मैं
सुनूं या न सुनूं।
उसने कहा कि फिर
देख, मेरे बाप
ने भी मुझसे कहा
था कि स्त्रियों
के चक्कर में मत
पड़ना, मगर मैं
पड़ा। और एक के चक्कर
में नहीं पड़ा;
इस्लाम जितनी
आज्ञा देता है,
नौ स्त्रियां
पूरे नौ विवाह
किए, और भोगा!
खूब नरक सहा। तुझसे
भी मैं कहना चाहता
हूं, लेकिन
कहना नहीं चाहता।
क्योंकि मैं जानता
हूं तू भी पड़ेगा।
मेरे कहने से कुछ
होगा नहीं। बाप
मेरा मरा था तो
कह गया था शराब
मत पीना, पर
मैंने पी, खूब
पी, और सड़ा।
और तू भी सडेगा;
क्योंकि जो मैं
नहीं कर पाया,
मेरा बेटा कर
पाएगा—यह भी मुझे
भरोसा नहीं है।
इतनी ही याद रखना
कि इतना मैंने
तुझसे कहा था कि
कहने से कोई सुनता
नहीं, अनुभव
से ही कोई सुनता
है। तो एक बार भूल
करे, कर लेना;
खूब अनुभव कर
लेना उसका; लेकिन दुबारा
वही भूल मत करना।
और अगर तू मुझे
मौका दे—वह कहने
लगा—तो इतना कहना
चाहता हूं स्त्रियों
की झंझट में तू
पड़ेगा, लेकिन
एक समय में एक ही
स्त्री की झंझट
में पड़ना। अगर
इतना भी संयम साध
सके तो काफी है।
आदमी
के भीतर कुछ होता
है जो स्वाभाविक
है। जवान होता
आदमी तो वासना
उठेगी। के सोचते
हैं कि उन्हें
कोई बड़ी भारी संपदा
मिल गई, क्योंकि
अब उनमें वासना
के प्रति वैसा
राग नहीं रहा,
या उनमें अब
वैराग्य उठ रहा
है। यह बुढ़ापे
का खेल है वैराग्य।
राग जवानी का खेल
है, वैराग्य
बुढ़ापे का खेल
है। जैसे राग स्वाभाविक
है एक खास उम्र
में, एक खास
उम्र में वैराग्य
स्वाभाविक है।
इसलिए
हिंदुओं ने तो
ठीक कोटि ही बांट
दी थी कि पच्चीस
साल तक विद्याअर्जन, ब्रह्मचर्य;
फिर पचास साल
तक भोग, गृहस्थ—जीवन;
फिर पचहत्तर
तक वानप्रस्थ जीवन—सोचना,
सोचना की अब
संन्यास लेना,
अब संन्यास लेना।
वानप्रस्थ यानी
सोचना, कि जाना
जंगल, जाना
जंगल, जाना—करना
नहीं। थोड़े गए
गांव के बाहर तक,
फिर लौट आए—ऐसे
बीच में उलझे रहना।
फिर पचहत्तर के
बाद संन्यास—अगर
मौत इसके पहले
न आ जाए तो! अक्सर
तो मौत इसके पहले
आ जाएगी और तुम्हें
संन्यासी होने
की झंझट नहीं पड़ेगी।
अगर मौत न आ जाए
इसके पहले, तो संन्यास।
पचहत्तर के बाद
हिंदुओं ने संन्यास
रखा। हिंदुओं की
सोचने की पद्धति
बड़ी वैज्ञानिक
है। क्योंकि पचहत्तर
के बाद संन्यास
वैसा ही स्वाभाविक
है, जैसे जवान
आदमी में वासना
उठती, तरंगें
उठती, महत्वाकांक्षा
उठती—धन कमा लूं
पद—प्रतिष्ठा कर
लूं। ठीक एक ऐसी
घड़ी आती है, जब जीवन— ऊर्जा
रिक्त हो जाती
है, झुक जाती
है; तुम थक चुके
होते—तब वैराग्य
उठने लगता। थकान
वैराग्य ले आती
है।
यह
पद्धति हिंदुओं
की साफ वैज्ञानिक
है और इसीलिए बुद्ध
और महावीर दोनों
ने इस पद्धति के
खिलाफ बगावत की।
उन्होंने कहा कि
जो वैराग्य पचहत्तर
के बाद उठता, वह
कोई वैराग्य है?
वह तो यंत्रवत
है। वह तो उठता
ही है। वह तो मौत
करीब आने लगी,
उसकी छाया है।
वह कोई वैराग्य
है? वैराग्य
तो वह है जो भरी
जवानी उठता है।
बुद्ध
और महावीर ने जो
क्रांति की, उस
क्रांति का भी
तर्क यही है। वे
कहते हैं, मान
लिया, तुम्हारा
हिसाब तो ठीक है,
लेकिन जो पचहत्तर
साल के बाद संन्यास
उठेगा, वह कोई
उठा? इस फर्क
को समझना।
जैन
या बौद्ध, उनकी
संस्कृति श्रमण
संस्कृति कहलाती
है—श्रम वहां मूल्यवान
है; पुरुषार्थ!
वहां विधि, भाग्य, स्वभाव—इन
सबकी कोई व्यवस्था
नहीं है। वहां
तो तुम्हारा संकल्प
और श्रम! इसलिए
स्वभावत: उन्होंने
जवानी में संन्यास
को डालने की चेष्टा
की, क्योंकि
जवान आदमी श्रम
करेगा —तो संन्यासी
हो सकेगा, संकल्प
से जूझेगा, संघर्ष करेगा,
तो संन्यासी
हो सकेगा। इसलिए
तुम जैन संन्यासी
को जितना अहंकारी
पाओगे उतना हिंदू
संन्यासी को न
पाओगे। और मुसलमान
संन्यासी को तो
तुम बिलकुल ही
अहंकारी न पाओगे।
क्योंकि उसने कुछ
छोड़ा ही नहीं है,
सिर्फ समझा है;
कर्ता का कोई
भाव ही नहीं है।
जैन
संन्यासी बहुत
अहंकारी होगा, क्योंकि
उसने बहुत कुछ
किया है। भरी जवानी
में या बचपन में
सब छोड़ दिया है—धन,
द्वार, घर,
वासना, महत्वाकांक्षा!
उठ तो रही हैं भीतर
तरंगें, वह
उन्हें दबाए बैठा
है। तो वह जितना
उनको दबाता है
उतना ही वह चाहता
है सम्मान मिले,
क्योंकि वह काम
तो बड़ा मेहनत का
कर रहा है, कठिन
काम कर रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने एक
दफ्तर में नौकरी
की दरखास्त दी
थी। और जब वह इंटरव्यू
देने गया तो उस
दफ्तर के मालिक
ने पूछा कि तुम्हें
टाइपिंग आती है, तुमने
टाइपिस्ट के लिए
दरखास्त दी?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा, नहीं,
आती तो नहीं।
तो उसने कहा, हद हो गई। जब टाइपिंग
नहीं आती है तो
दरखास्त क्यों
दी? और फिर न
केवल इतना, हद हो गई, तुमने
इसमें तनख्वाह
दुगनी
मांगी
है!
मुल्ला
ने कहा, इसलिए
तो मांगी दुगनी,
कि उतर टाइपिंग
आती तो आधे से ही
कर देते काम। आती
तो है नहीं, मेहनत बहुत पड़ेगी।
मेहनत का तो सोचो!
तो
जवानी में जो संन्यासी
हो जाए, तो वह आदमी
बहुत अहंकार की
प्रतिष्ठा मांगेगा।
वह कहता है, जरा देखो भी तो,
जवान हूं अभी
और संन्यास लिया
हूं! जीवन की धार
के विपरीत बहा
हूं। गंगोत्री
की तरफ तैर रहा
हूं, जरा देखो
तो!
हिंदू
का संन्यास तो
है गंगा के साथ, गंगासागर
की तरफ तैरना।
और जैन का संन्यास
है गंगोत्री की
तरफ तैरना, धार के उल्टे।
तो वह आग्रह मांगता
है कि कुछ मुझे
प्रतिष्ठा मिलनी
चाहिए, नहीं
तो किसलिए मेहनत
करूं? तो बजाओ
तालियां, शोभा—यात्रा
निकालो, चारों
तरफ बैड—बाजे करो!
जैन मुनि आएं गांव
में, तो बड़ा
शोरगुल मचाते हैं।
हिंदू संन्यासी
आता है, चला
जाता है, ऐसा
कुछ खास पता नहीं
चलता। मुसलमान
फकीर का तो बिलकुल
पता नहीं चलता।
क्योंकि उसने तो
कुछ छोड़ा नहीं
है बाहर से। हो
सकता है उसकी पत्नी
हो, दूकान हो।
सूफी तो कुछ भी
नहीं छोड़ते। सूफियों
को तो पहचानना
तक मुश्किल है।
जब
एक गुरु किसी दूसरे
सूफी के पास अपने
शिष्य को सीखने
भेजता है, तो
ही पता चलता है
कि वह दूसरा गुरु
है, नहीं तो
पता ही नहीं चल
सकता था। क्योंकि
हो सकता है, दरी बुनने का
काम कर रहा हो,
जिंदगी भर से
दरी बना कर बेच
रहा हो। या जूता
बना रहा हो और जिंदगी
भर से जूते बना
रहा हो।
गुरजिएफ
जब सूफी फकीरों
की खोज में पूरब
आया तो बड़ी मुश्किल
में पड़ा। कैसे
उनका पता लगे कि
कौन आदमी है? क्योंकि
वे कोई अलग— थलग
दिखाई नहीं पड़ते,
जीवन में रमे
हैं। तो उसने लिखा
है कि बामुश्किल
से सूत्र मिलने
शुरू हुए। बामुश्किल
से!
उसने
किसी मुसलमान को
पूछा कि मैं सूफी
फकीरों का पता
लगाना चाहता हूं।
दमिश्क की गलियों
में भटकता था कि
कहीं खोज ले। मगर
कैसे पता चले? तो
उसने कहा, तुम
एक काम करो। तुम
पता न लगा सकोगे।
तुम तो जा कर मस्जिद
में जितनी देर
बैठ सको, नमाज
पढ़ सको, पढ़ो।
किसी सूफी की तुम
पर नजर पड़ जाएगी
तो वह तुम्हें
पकड़ेगा। तुम तो
नहीं पकड़ पाओगे।
क्योंकि शिष्य
कैसे गुरु को खोजेगा?
गुरु ही शिष्य
को खोज सकता है।
यह
बात जंची गुरजिएफ
को। वह बैठ गया
मस्जिद में, दिन
भर बैठा रहता,
आधी— आधी रात
तक वहां बैठ कर
नमाज पढ़ता रहता;
किसी की तो नजर
पड़ेगी—और नजर पड़ी।
एक बुजुर्ग उसे
गौर से देखने लगा,
कुछ दिन के बाद।
एक दिन वह बुजुर्ग
उसके पास आया,
उसने कहा कि
तुम मुसलमान तो
नहीं मालूम होते,
फिर इतनी नमाज
क्यों कर रहे हो?
उसने
कहा कि मैं किसी
सदगुरु की तलाश
में हूं और मुझे
कहा गया है कि मैं
तो न खोज पाऊंगा।
अगर मैं यहां नमाज
पढ़ता रहूं तो शायद
किसी की नजर मुझ
पर पड़ जाए, कोई
बुजुर्गवार। आपकी
अगर नजर मुझ पर
पड़ गई और अगर आप
पाते हों कि मैं
इस योग्य हूं कि
किसी सूफी के पास
मुझे भेज दें,
तो मुझे बता
दें।
उसने
कहा कि तुम आज रात
बारह बजे फलां—फलां
जगह आ जाओ। वह जब
वहां पहुंचा तो
चकित
हुआ। जिससे उसे
मिलाया गया, वह
होटल चलाता था,
चाय इत्यादि
बेचता था, चायघर
चलाता था। और उस
चायघर में तो गुरजिएफ
कई दफे चाय पी आया
था। न केवल यही,
उस चाय वाले
से पूछ चुका था
कई बार कि अगर कोई
सूफी का पता हो
तो मुझे पता दे
दो। तो वह चाय वाला
हंसता था कि भई
धर्म में मुझे
कोई रुचि नहीं,
तो मुझे तो कुछ
पता नहीं।
वही
आदमी गुरजिएफ के
लिए गुरु सिद्ध
हुआ। उसने गुरजिएफ
से कहा कि बस अब
तेरा वर्ष दो वर्ष
तक तो यही काम है
कि कप—प्याले साफ
कर। कप—प्याले
साफ करवाते—करवाते
ध्यान की पहली
सुध उस गुरु ने
देनी शुरू की।
एक
अमरीकन यात्री
ढाका पहुंचा। किसी
ने खबर दी कि वहा
एक सूफी फकीर है—जो
पहुंच गया है आखिरी
अवस्था में; फना
की अवस्था में
पहुंच गया है,
जहां मिट जाता
है आदमी। तुम उसे
पा लो तो कुछ मिल
जाए।
तो
वह ढाका पहुंचा।
उसने जा कर एक टैक्सी
की और उसने कहा
कि मैं इस—इस हुलिया
के आदमी की तलाश
में आया हूं, तुम
मुझे कुछ सहायता
करो। उसने कहा
कि जरूर सहायता
करेंगे, बैठो।
वह इसे ले कर गया,
एक छोटे —से झोपड़े
के सामने गाड़ी
रोकी और उसने कहा
कि पांच मिनट के
बाद तुम भीतर आ
जाना। वह जब पाच
मिनट बाद भीतर
गया तो वह जो टैक्सी—ड्राइवर
था, वहां बैठा
था और दस—पंद्रह
शिष्य बैठे थे।
उसने कहा कि आप
ही गुरु हैं क्या?
उसने कहा कि
मैं ही हूं और इसलिए
टैक्सी—ड्राइविंग
का काम करता हूं
कि कभी —कभी खोजी
आ जाते हैं तो उनको
सीधा वहीं से पकड़
लेता हूं।
कहां
खोजोगे तुम, तुम
खोजोगे कैसे?
सूफियों का तो
पता भी न चलेगा,
क्योंकि जीवन
को बड़ी सहजता से।
ये
जो वक्तव्य हैं, सूफियों
के वक्तव्य हैं।
ये जो जनक ने कहे,
यह सूफी मत का
सार है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में निश्चित ही
संसार कल्पना—मात्र
है। मैं अत्यंत
शांत हूं निराकार
हूं और इसी के आश्रय
हूं। '
मम्पनंतमहाम्भोधौ
विश्व नाम विकल्पना!
यह
विश्व तो नाममात्र
को है, कल्पना—मात्र
है। यह वस्तुत:
है नहीं— भासता
है। यह तो हमारी
धारणा है। यह तो
हमारी नींद में
चल रहा सपना है।
हम जागे हुए नहीं
हैं, इसलिए
जगत है। हम जाग
गए तो फिर जगत नहीं।
तुम
थोड़ा सोचो! जगत
कैसा होगा अगर
तुम्हारे भीतर
कोई वासना न बचे, तुम्हारे
भीतर कुछ पाने
की आकांक्षा न
बचे। कुछ होने
का पागलपन न बचे?
तो क्या तुम
इसी जगत में रहोगे
फिर? तुम अचानक
पाओगे कि तुम्हारा
जगत तो पूरा रूपांतरित
हो गया। क्योंकि
जो आदमी जो खोजता
है उसी के आधार
पर जगत बन जाता
है। ऐसा हो सकता
है कि तुम जिस रास्ते
से रोज गुजरते
हो, रास्ते
के किनारे ही बंबा
लगा है पोस्ट ऑफिस
का, लेटर—बॉक्स
लगा है, लाल
रंग के हनुमान
जी खड़े हैं, मगर तुम्हारी
नजर शायद कभी न
पड़े; लेकिन
जिस दिन तुम्हें
पत्र डालना है,
उस दिन अचानक
तुम्हारी नजर पड़
जाएगी। उसी रास्ते
से तुम रोज गुजरते
थे, लेकिन पत्र
डालना नहीं था,
तो पोस्ट ऑफिस
के लेटर—बॉक्स
को कौन देखता है?
तुम्हारी आंखें
उस पर न टिकती रही
होंगी। वह आंख
से ओझल होता रहा
होगा। था वहीं,
लेकिन तुम्हें
तब तक नहीं दिखा
था, जब तक तुम्हारे
भीतर कोई आकांक्षा
न थी, जो संबंध
बना दे। आज तुम्हें
चिट्ठी डालनी थी,
अचानक..।
उपवास
करके देखो और फिर
जाओ एम जी रोड पर।
फिर तुम्हें कुछ
और न दिखाई पड़ेगा।
फिर रैस्तरा, होटल,
कॉफी—हाउस,
बस इसी तरह की
चीजें दिखाई पड़ेगी।
और अचानक तुम्हारी
नाक ऐसी प्रगाढ़
हो जाएगी कि हर
तरह की सुगंधें
आने लगेंगी, हर तरह के आकर्षण
बुलावे देने लगेंगे।
तुम्हारे उपवास
से तुम किसी और
ही रास्ते से गुजरते
हो जिससे तुम कभी
नहीं गुजरे थे।
कहने मात्र को
एम जी. रोड है। जब
तुम भरे पेट से
गुजरते हो, तब बात और है।
जब तुम कपड़े खरीदने
गुजरते हो, तब बात और है।
जो
पुरुष अपनी पत्नी
से तृप्त है वह
भी गुजरता है, तो
बात और। जो अपनी
पत्नी से तृप्त
नहीं है, वह
भी उसी रास्ते
से गुजरता है,
लेकिन तब रास्ता
और। क्योंकि दोनों
के देखने का ढंग
और, दोनों की
आकांक्षा और।
तुम
जो चाहते हो, उससे
तुम्हारा जगत निर्मित
होता है। हम सब
एक ही जगत में नहीं
रहते। हम सब अपने
—अपने जगत में रहते
हैं। यहां जितने
मनुष्य हैं, जितने मन हैं,
उतने जगत हैं।
उसी जगत की बात
हो रही है, तुम
खयाल रखना। नहीं
तो अक्सर भ्रांति
होती है। पूरब
के इन मनीषियों
के वचन से बड़ी भांति
होती है, लोग
सोचते हैं : 'जगत—कल्पना ? तो अगर हम शांत
हो गए तो यह मकान
समाप्त हो जाएगा
1' ये वृक्ष खो
जाएंगे?' तो
तुम समझे नहीं।
जगत का अर्थ होता
है: तुम्हारे मन
से जो कल्पित है,
उतना खो जाएगा।
जो है, वह तो
रहेगा। सच तो यह
है कि जो है वह पहली
दफे दिखाई पड़ेगा।
तुम्हारे मन के
कारण वह तो दिखाई
ही नहीं पड़ता था।
तुम तो कुछ का कुछ
देख लेते थे। तुम
जो देखने के लिए
आतुर थे वही तुम्हें
दिखाई पड़ जाता
था। तुम्हारी आतुरता
बड़ी सृजनात्मक
है। उसी सृजनात्मकता
से सपना पैदा होता,
कल्पना पैदा
होती।
मम्पनन्तमहाम्भोधौ
विश्व नाम विकल्पना!
तुम्हारा
विश्व तुम्हारी
कल्पना है। तुम्हारे
पड़ोसी का विश्व
जरूरी नहीं कि
तुम्हारा ही विश्व
हो। दो व्यक्ति
एक ही जगह बैठ सकते
हैं—और दो अलग दुनियाओं
में।
एक
सिनेमाघर में मुल्ला
नसरुद्दीन और उसकी
पत्नी लगभग आधा
समय तक आपस में
ही बातें करते
रहे। उनके पास
बैठे दर्शकों को
यह बड़ा बुरा लग
रहा था। एक दर्शक
नें—मुल्ला नसरुद्दीन
के पीछे जो बैठा
था—कहा, 'क्या तोते
की तरह टायं—टायं
लगा रखी है? कभी चुप ही नहीं
होते। ' इस पर
मुल्ला बिगड़ गया।
उसने कहा, क्या
आप हमारे बारे
में कह रहे हैं?
उस दर्शक ने
कहा, जी नहीं
आपको कहां २ फिल्म
वालों को कह रहा
हूं। शुरू से ही
बकवास किए जा रहे
हैं, आपकी दिलकश
बातों का
एक शब्द भी नहीं
सुनने दिया।
अब
यह हो सकता है दो
आदमी पीछे बैठे
हों फिल्म—गृह
में,
और पति—पत्नी
आपस में बातें
कर रहे हों तो एक
हो सकता है परेशान
हो कि फिल्म चल
रही है वह सुनाई
नहीं पड़ रही इनकी
बकवास से; और
दूसरा हो सकता
है परेशान हो कि
बड़ी गजब की बातें
हो रही हैं इन दोनों
की, यह फिल्म
बंद हो जाए तो जरा
सुन लें क्या हो
रहा है? दोनों
पास बैठे हो सकते
हैं और दोनों के
देखने के ढंग अलग
हो सकते हैं।
हमारा
देखने का ढंग हमारी
दृष्टि है, हमारी
सृष्टि है। दृष्टि
से सृष्टि बनती
है। जब तुम्हारी
कोई दृष्टि नहीं
रह जाती, जब
तुम्हारे भीतर
जैसा है वैसे को
ही देखने की सरलता
रह जाती, अन्यथा
कुछ आरोपण करने
की कोई गुंजाइश
नहीं रह जाती,
तुम्हारे भीतर
का प्रोजेक्टर,
प्रक्षेपन—यंत्र
जब बंद हो जाता
है, तब तुम अचानक
पाते हो. पर्दा
खाली है। वह पर्दा
सच है। पर्दे पर
चलने वाली जो धूप—छाव
से बने जो चित्र
हैं, वे सब तुम्हारे
प्रोजेक्टर, तुम्हारे प्रक्षेपन
से निकलते हैं।
तो
जब भी शास्त्रों
में तुम कहीं यह
वचन पाओ कि यह सब
संसार कल्पना—मात्र
है,
तो तुम इस भ्रांति
में मत पड़ना कि
शास्त्र यह कह
रहे हैं कि अगर
तुम्हारा जागरण
होगा, समाधि
लगेगी तो सारा
संसार तत्क्षण
स्वप्नवत खो
जाएगा। इतना ही
कह रहे हैं तुम्हारा
संसार तत्क्षण
खो जाएगा।
यह
संसार तुम्हारा
नहीं। यह तो तुम
आए उसके पहले भी
था,
तुम चले जाओगे
उसके बाद भी रहेगा।
ये वृक्ष, ये
पक्षी, यह आकाश.।
तुम्हारा नहीं
है इनसे कुछ लेना—देना।
तुम सोओ तो है,
तुम जागो तो
है। तुम ध्यानस्थ
हो जाओ, तो है;
तुम वासनाग्रस्त
रहो, तो है।
यह तो नहीं मिटेगा।
लेकिन इस संसार
को पर्दा मान कर
तुमने एक कल्पनाओं
का जाल बुन रखा
है। तुम जरा इस
जाल को पहचानने
की कोशिश करना,
तुम किस भांति
रोज इस जाल को बुने
जाते हो! और यह जाल
तुम्हें परिचित
नहीं होने देता
उससे, जो है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र
में निश्चित ही
संसार कल्पना—मात्र
है। मैं अत्यंत
शांत हूं निराकार
हूं और इसी के आश्रय
हूं। '
अतिशातो
निराकार एतदेवाहमास्थित:।
यह
समझ कर कि ये सारी
कल्पनाएं हैं—मुझमें
ही उठती हैं और
लीन हो जाती हैं, ये
सब मेरी ही तरंगें
हैं—मैं बिलकुल
शांत हो गया हूं, मैं निराकार
हो गया हूं। और
अब तो यही मेरा
एकमात्र आश्रय
है। अब छोड़ने को
कुछ बचा नहीं है,
सिर्फ मैं ही
बचा हूं।
'आत्मा विषयों
में नहीं है और
विषय उस अनंत निरंजन
आत्मा में नहीं
हैं। इस प्रकार
मैं अनासक्त हूं
स्पृहा—मुक्त हूं
और इसी के आश्रय
हूं। '
नात्मा
भावेगु नो भावस्तत्रानन्ते
निरंजने।
न
तो विषय मुझमें
हैं और न मैं विषयों
में हूं। सब सतह
पर उठी तरंगों
का खेल है। सागर
की गहराई उन तरंगों
को छूती ही नहीं।
तुम
सागर के ऊपर कितनी
तरंगें देखते हो!
जरा गोताखोरों
से पूछो कि भीतर
तुम जाते हो, वहां
तरंगें मिलतीं
कि नहीं? सागर
की अतल गहराई में
कहं। तरंगें?
सिर्फ सतह पर
तरंगें हैं। उस
अतल गहराई में
तो सब अनासक्त,
शांत, निराकार
है, स्पृहा—मुक्त!
और वही मेरा आश्रय
है। वही मेरा निजस्वरूप
है। कैसा छोड़ना,
कैसा त्यागना,
किसको जानना?
इति ज्ञानं!
ऐसा जो मुझे बोध
हुआ है, यही
ज्ञान है।
'अहो, मैं चैतन्य—मात्र
हूं। संसार इंद्रजाल
की भांति है। इसलिए
हेय और उपादेय
की कल्पना किसमें
हो?'
किसे
छोडूं? किसे पकडूं?
हेय और उपादेय,
लाभ और हानि,
अच्छा और बुरा,
शुभ और अशुभ—अब
ये सब कल्पनाएं
व्यर्थ हैं। जो
हो रहा है, स्वभाव
से हो रहा है। जो
हो रहा है, सभी
ठीक
है। इसमें न कुछ
चुनने को है, न कुछ
छोड़ने को है।
कृष्णमूर्ति
जिसे बार—बार च्चायसलेस
अवेयरनेस कहते
हैं,
जनक उसी सत्य
की घोषणा कर रहे
हैं चुनावरहित
बोध!
अहो
अहम् चिन्मात्रम्!
—बस केवल चैतन्य
हूं मैं! बस केवल
साक्षी हूं!
जगत
इंद्रजालोपमम्!
—और जगत तो ऐसा
है जैसा जादू का
खेल है, इंद्रजाल।
सब ऊपर—ऊपर भासता,
और है नहीं;
प्रतीत होता,
और है नहीं।
अत: मन
हेयोपादेय कल्पना
कथम् च कुत्र
—तो मैं कैसे कल्पना
करूं कि कौन ठीक,
कौन गलत?
अब
यह सब कल्पना ही
छोड़ दी। इति ज्ञानं!
यही ज्ञान है।
यही जागरण है।
यही बोध है।
भोग
एक तरह की कल्पना
है,
त्याग दूसरे
तरह की कल्पना
है। भोग से बचे
तो त्याग में गिरे—तो
ऐसे ही जैसे कोई
चलता खाई और कुएं
के बीच, कुएं
से बचे तो खाई में
गिरे। बीच में
है मार्ग। न तो
त्यागी बनना है,
न भोगी बनना
है। अगर तुम त्याग
और भोग से बच सको,
अगर तुम दोनों
के पार हो सको,
अगर तुम दोनों
के साक्षी बन सको,
तो संन्यस्त,
तो संन्यास का
जन्म हुआ।
संसारी
संन्यासी नहीं
है,
त्यागी भी सन्यासी
नहीं है। दोनों
ने चुनाव किया
है। भोगी ने चुनाव
किया है कि भोगेंगे,
और— और भोगेंगे,
और भोग चाहिए,
तो ही सुख होगा।
त्यागी ने चुनाव
किया है कि त्यागेंगे,
खूब त्यागेंगे,
तो सुख होगा।
संन्यासी वही है,
जो कहता है. सुख
है। इति सुखम्!
होगा नहीं। न कुछ
पकड़ना है न कुछ
छोड़ना है—अपने
में हो जाना है।
वहीं अपने में
होने में सुख और
ज्ञान है।
अन्यथा, तुम
पीड़ाएं बदल ले
सकते हो। तुम एक
कंधे का बोझ दूसरे
कंधे पर रख ले सकते
हो। तुम एक नरक
से दूसरे नरक में
प्रवेश कर सकते
हो, लेकिन अंतर
न पड़ेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी
मुल्ला से कह रही
थी. हमने फरीदा
के लिए जो लड़का
पसंद किया है, वह
वैसे तो बहुत ठीक
है, दो ही बातों
की भूल—चूक
है। एक तो यह उसकी
दूसरी शादी है,
पहली पत्नी तो
मर गई है। विधुर
है। मगर यह कोई
बड़ी बात नहीं,
पत्नी ने कहा।
अभी जवान है। मगर
जो बात अखरती है,
वह यह है कि सब
ठीक है—खिलता हुआ
रंग, ऊंचा कद,
तंदरुस्त, नाक—नक्शा भी
अच्छा—पर एक ऐब
खटकता है।
मुल्ला
ने पूछा, वह क्या?
पत्नी
ने कहा, लगता है
तुमने ध्यान नहीं
दिया। जब वह हंसता
है तो उसके लंबे—लंबे
दांत बाहर आ जाते
हैं और वह कुरूप
लगने लगता है।
मुल्ला
ने कहा, अजी छोड़ो
भी! फरीदा से विवाह
तो होने दो, फिर उसे हंसने
का मौका ही कहां
मिलेगा?
अभी
एक पत्नी मरी है
उनकी, अब वे फरीदा
के चक्कर में पड़
रहे हैं।
हम
ज्यादा देर बिना
उलझनों के नहीं
रह सकते। एक उलझन
छूट जाती है तो
लगता है खाली—खाली
हो गए। जल्दी हम
दूसरी उलझन निर्मित
करते हैं। आदमी
उलझनों में व्यस्त
रहता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, गैर—शादीशुदा
लोग ज्यादा पागल
होते हैं, बजाए
शादीशुदा लोगों
के। यह बड़ी हैरानी
की बात है। जब मैंने
पहली दफा पढ़ा तो
मैं भी सोचने लगा
कि मामला क्या
है! होना तो उल्टा
चाहिए कि शादीशुदा
लोग पागल हों,
यह समझ में आ
सकता है; ज्यादा
पागल हों, यह
भी समझ में आ सकता
है। सारी दुनिया
से आंकड़े इकट्ठे
किए गए हैं, उनसे पता चलता
है कि गैर— शादीशुदा
लोग ज्यादा आत्महत्या
करते हैं, बजाए
शादीशुदा लोगों
के। यह तो जरा कुछ
भरोसे योग्य नहीं
मालूम होता। लेकिन
फिर खोजबीन करने
से मनोवैज्ञानिकों
को पता चला कि कारण
यह है कि गैर—शादीशुदा
आदमी को उलझनें
नहीं होतीं। पागल
न हो तो करे क्या,
फुर्सत ही फुर्सत!
शादीशुदा आदमी
को फुर्सत कहां
पागल होने की! इतनी
व्यस्तता है!
एक
मनोवैज्ञानिक
खोजबीन कर रहा
था कि किस तरह के
लोग सर्वाधिक सुखी
होते हैं। और वह
बड़े अजीब निष्कर्ष
पर पहुंचा। वे
ही लोग सर्वाधिक
सुखी मालूम होते
हैं जिनको इतनी
भी फुर्सत नहीं
कि सोच सकें कि
हम सुखी हैं कि
दुखी। इतनी फुर्सत
मिली कि दुख शुरू
हुआ।
तुम
राजनीतिज्ञों
को बड़ा सुखी पाओगे, बड़े
प्रफुल्लता से
भरे हुए, गजरे
इत्यादि पहने हुए,
भागे चले जा
रहे हैं। और कारण
कुल इतना ही है
कि उनको इतना भी
समय नहीं है कि
वे बैठ कर एक दफा
सोच लें, पुनर्विचार
करें कि हम सुखी
हैं कि दुखी? इतना समय कहां!
बंधे कोल्ह के
बैलों की तरह,
भागे चले जाते
हैं दिल्ली चलो!
फुर्सत कहां है
कि इधर—उधर देखें!
और धक्कम— धुक्कीं
इतनी है कि कोई
टल खींच रहा, कोई आगे खींच
रहा, कोई पीछे
खींच रहा, कोई
एक हाथ पकड़े, कोई दूसरा, कुछ समझ में नहीं
आता है कि हो क्या
रहा है! लेकिन भागे
चले जाते हैं।
आपाधापी में फुरसत
नहीं मिलती।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि जो
लोग व्यस्त रहते
हैं सदा, वे कम पागल
होते हैं, कम
आत्महत्या करते
हैं। उन्हें याद
ही नहीं रह जाती
कि वे हैं भी। उन्हें
पता ही भूल जाता
है अपना—सारा जीवन,
सारी ऊर्जा व्यर्थ
कामों में इतनी
संलग्न हो जाती
है।
इसीलिए
कभी—कभी थोड़े —बहुत
दिनों के लिए चुप
हो कर स्वात में
बैठ जाना शुभ है।
वहां तुम्हें पता
चलेगा कि अव्यस्त
होने में तुम कितने
बेचैन होने लगते
हो! खालीपन कैसा
काटता है!
लोग
मुझसे पूछते हैं
कि लोग दुख को क्यों
पसंद करते हैं, क्यों
चुनते हैं? लोग दुख को पसंद
कर लेते हैं खालीपन
के चुनाव में।
खालीपन से तो लोग
सोचते हैं दुख
ही बेहंतर है।
कम से कम सिरदर्द
तो है, सिर में
कुछ तो है। उलझनें
हैं तो कुछ तो उपाय
है, कुछ करने
की सुविधा तो है।
लेकिन कुछ भी नहीं
है तो।
और
जो आदमी खाली होने
को राजी नहीं, वह
कभी स्वयं तक पहुंच
नहीं पाता। क्योंकि
स्वयं तक पहुंचने
का रास्ता खाली
होने से जाता है,
रिक्त, शून्यता
से जाता है। वही
तो ध्यान है। या
कोई और नाम दो।
वही समाधि है।
जब
तुम थोड़ी देर के
लिए सब व्यस्तता
छोड़ कर बैठ जाते
हो,
किनारे पर,
नदी की धार से
हट कर, नदी बहती,
तुम देखते,
तुम कुछ भी करते
नहीं—उन्हीं क्षणों
में धीरे — धीरे
साक्षी जागेगा।
लेकिन साक्षी के
जागने से पहले
शून्य के रेगिस्तान
से गुजरना पड़ेगा।
वह मूल्य है, जिसने चुकाने
की हिम्मत न की,
वह कभी साक्षी
न हो पाएगा।
थोड़ा
दूर होना जरूरी
है। हम चीजों में
इतने ज्यादा खड़े
हैं कि हमें दिखाई
ही नहीं पड़ता कि
हम चीजों से अलग
हैं। थोड़ा—सा फासला, थोड़ा
स्थान, थोड़ा
अवकाश कि हम देख
सकें कि हम कौन
हैं? जगत क्या
है? क्या हो
रहा है हमारे जीवन
का? थोड़े— थोड़े
खाली अंतराल तुम्हें
आत्मबोध के लिए
कारण बन सकते हैं।
उन्हीं—उन्हीं
अंतरालों में तुम्हें
थोड़ी— थोड़ी झलक
मिलेगी : 'अहो,
मैं चैतन्य—मात्र
हूं!' व्यस्तता
में तो तुम्हें
कभी पता न चलेगा।
व्यस्तता का तो
मतलब है. वस्तुओं
से उलझे, और
से उलझे, अन्य
से उलझे। जब तुम
अव्यस्त होते हो,
अनआकुपाइड,
जब तुम किसी
से भी नहीं उलझे—तब
तुम्हें अपनी याद
आनी शुरू होती
है, स्वयं का
स्मरण होता है।
'अहो, मैं चैतन्य—मात्र
हूं। संसार इंद्रजाल
की भांति है। '
और
तब तुम्हें पता
चलता है कि तुम्हारी
सारी व्यस्तता
बचपना, खेल है।
धन कमा रहे हो,
धन के ढेर लगा
रहे हों—क्या मिलेगा?
बड़े से बड़े पद
पर पहुंच जाओगे—क्या
पाओगे? सफल
आदमियों से असफल
आदमी तुम कहीं
और खोज सकते हो?
जो सफल हुआ वह
मुश्किल में पड़ा।
सफल हो कर पता चलता
है. अरे, यह तो
जीवन हाथ से गया,
और हाथ तो कुछ
भी न लगा।
कहते
हैं सिकंदर जब
भारत आया और पोरस
पर उसने विजय पा
ली,
तो एक कमरे में
चला गया, एक
तंबू में चला गया,
और रोने लगा।
उसके सिपहसालार,
उसके सैनानी
बड़े चिंतित हो
गए। उन्होंने कभी
सिकंदर को रोते
नहीं देखा था।
उसे कैसे व्यवधान
दें, कैसे बाधा
डालें—यह भी समझ
में नहीं आता था।
फिर किसी एक को
हिम्मत करके भेजा।
उसने भीतर जा कर
सिकंदर को पूछा
' आप रो क्यों
रहे हैं? और
विजय के क्षण में!
अगर हार गए होते
तो समझ में आता
था कि आप रो रहे
हैं। विजय के क्षण
में रो रहे हैं,
मामला क्या है?
पोरस रोए, समझ में आता है।
सिकंदर रोए? यह तो घड़ी उत्सव
की है। '
सिकंदर
ने कहा, इसीलिए
तो रो रहा हूं।
अब दुनिया में
मुझे जीतने को
कुछ भी न बचा। अब
दुनिया में मुझे
जीतने को कुछ भी
न बचा, अब मैं
क्या करूंगा?
शायद
पोरस न भी रोया
हो,
कोई कहानी नहीं
पोरस के रोने की।
क्योंकि पोरस को
तो अभी बहुत कुछ
बचा है; कम से
कम सिकंदर को हराना
तो बचा है; अभी
इसके तो उसको दात
खट्टे करने हैं।
मगर सिकंदर के
लिए कुछ भी नहीं
बचा है। वह थर्रा
गया। सारी व्यस्तता
एकदम समाप्त हो
गई। आ गया शिखर
पर! अब कहां? अब इस शिखर से
ऊपर जाने की कोई
भी सीढ़ी नहीं है।
अब क्या होगा?
यह घबड़ाहट सभी
सफल आदमियों को
होती है। धन कमा
लिया, पद पा
लिया, प्रतिष्ठा
मिल गई, लेकिन
इतना करते —करते
सारा जीवन हाथ
से बह गया। एक दिन
अचानक सफल तो हो
गए, और एक साथ
ही उसी क्षण में,
पूरी तरह विफल
भी हो गए। अब क्या
हो? राख लगती
है हाथ। व्यस्त
आदमी आखिर में
राख का ढेर रह जाता,
अंगार तो बिलकुल
ढक जाती या बुझ
जाती है।
थोड़े—
थोड़े अव्यस्त क्षण
खोजते रहना। कभी—कभी
थोड़ा समय निकाल
लेना अपने में
डूबने का। भूल
जाना संसार को।
भूल जाना संसार
की तरंगों को।
थोडे गहरे में
अपनी प्रशांति
में,
अपनी गहराई में
थोड़ी डुबकी लेना।
तो तुम्हें भी
समझ में आएगा—तभी
समझ में आएगा—किस
बात को जनक कहते
हैं : इति ज्ञान!
यही ज्ञान है।
'अहो, मैं चैतन्य—मात्र
हूं! संसार इंद्रजाल
की भांति है। इसलिए
हेय और उपादेय
की कल्पना किसमें
हो?'
अब
मुझे न तो कुछ हेय
है,
न कुछ उपादेय
है। न तो कुछ हानि,
न कुछ लाभ। न
तो कुछ पाने —योग्य,
न कुछ डर कि कुछ
छूट जाएगा। मैं
तो सिर्फ चैतन्यमात्र
हूं। अहो!
यही
तो मुक्ति है।
जब
तक तुम कर्मों
में उलझे हो तब
तक तुममें भेद
है। जैसे ही तुम
साक्षी बने, सब
भेद मिटे। अपने—
अपने कर्मों का
फल
भोग
रहा है हर कोई
सूरज
तो इक—सा ही चमके
नाथों
और अनाथों पर।
अपने—
अपने कर्मों का
फल
भोग
रहा है हर कोई।
तुम
अपने कर्मों से
बंधे हो और फल भोग
रहे हो।
सूरज
तो इक—सा ही चमके
नाथों
और अनाथों पर।
सूरज
तो सब पर एक—सा चमक
रहा है। परमात्मा
तो सब पर एक—सा बरस
रहा है। लेकिन
तुमने अपने— अपने
कर्मों के पात्र
बना रखे हैं। कोई
का छोटा पात्र, किसी
का बड़ा पात्र।
किसी का गंदा पात्र,
किसी का सुंदर
पात्र। परमात्मा
एक—सा बरस रहा है।
किसी का पाप से
भरा पात्र, किसी का पुण्य
से भरा पात्र;
लेकिन सभी पात्र
सीमित होते हैं—पापी
का भी, पुण्यात्मा
का भी। तुम जरा
पात्र को हटाओ,
कर्म को भूलो,
कर्ता को विस्मरण
करो—साक्षी को
देखो! साक्षी को
देखते ही तुम पाओगे.
तुम अनंत सागर
हो, परमात्मा
अनंत रूप से तुममें
बरस रहा है।
अहो
अहम् चिन्मात्रम्!
तुम
तब पाओगे, जैसा
कि जनक ने बार—बार
पीछे कहा कि ऐसा
मन होता है कि अपने
ही चरण छू लूं।
ऐसा धन्यभाग,
ऐसा प्रसाद कि
अपने को ही नमस्कार
करने का मन होता
है!
दामने—दिल
पे नहीं बारिशे—इल्हाम
अभी
इश्क
नापुख्ता अभी जच्चे
दरूखाम अभी।
दिलरूपी
दामन पर अगर दैवी
वर्षा नहीं हो
रही है तो इतना
ही समझना कि प्रेम
अभी कच्चा और भीतर
की भावना अपरिपक्य।
दामने
—दिल पे नहीं बारिशे—इल्हाम
अभी!
अगर
प्रभु का प्रसाद
नहीं बरस रहा है
तो यह मत समझना
कि प्रभु का प्रसाद
नहीं बरस रहा है; इतना
ही समझना. इश्क
नापुख्ता अभी!
अभी तुम्हारा प्रेम
कच्चा। जज्वे—दरूखाम
अभी। और अभी तुम्हारी
भीतर की चैतन्य
की दशा परिपक्व
नहीं। अन्यथा परमात्मा
तो बरस ही रहा है—पात्र
पर, अपात्र
पर; पुण्यात्मा
पर, पापी पर।
सूरज
तो इक—सा ही चमके
नाथों
और अनाथों पर।
अब
दो विधियां हैं
इस परम अवस्था
को खोजने की। एक
तो है कि कर्मों
को बदलो, बुरे कर्मों
को अच्छा करो,
अशुभ को शुभ
से बदलो, पाप
को हटाओ, पुण्य
को लाओ—वह बड़ी लंबी
विधि है, और
शायद कभी सफल नहीं
हो सकती। क्योंकि
वे तो इतने अनंत
जन्मों के कर्म
हैं, उनको तुम
बदल भी न पाओगे।
वह तो धोखा है।
वह तो पोस्टपोन
करने की तरकीब
है। वह तो मिथ्या
है। फिर दूसरी
विधि है—या कहना
चाहिए वस्तुत:
तो एक ही विधि है—यह
दूसरी विधि कि
तुम सारे कर्मों
के पीछे खड़े हो
कर साक्षी हो जाओ।
तो तुम अभी हो सकते
हो। इसी क्षण हो
सकते हो।
अष्टावक्र
की महागीता का
मौलिक सार इतना
ही है कि तुम यदि
चाहो तो अभी किनारे
पर निकल जाओ और
बैठ जाओ। अभी साक्षी
हो जाओ! और जब तक
तुमने कर्मों को
बदलने की कोशिश
की,
तब तक तो तुम
नई—नई उलझनें खड़ी
करते रहोगे। क्योंकि
हर पाप के साथ थोड़ा
पुण्य है, हर
पुण्य के साथ थोड़ा
पाप है। तुम ऐसा
कोई पुण्य कर ही
नहीं सकते जिसमें
पाप न जुड़ा हो।
सोचो, कौन—सा
पुण्य करोगे जिसमें
पाप न जुड़ा हो?
अगर धन दान दोगे
तो धन कमाओगे तो!
दान दोगे कहां
से? पहले कमाने
में पाप कर लोगे,
तो दान दोगे।
यह तो बात बेमानी
हो गई। मंदिर बनाओगे
तो किन्हीं झोपड़ों
को मिटाओगे तभी
मंदिर बना पाओगे।
किसी को चूसोगे,
तभी मंदिर खड़ा
हो सकेगा। यह तो
बात व्यर्थ हो
गई। यह तो पुण्य
के साथ पाप चल जाएगा।
तुम अच्छा कुछ
भी करोगे तो थोड़ा
न बहुत बुरा साथ
में होता ही रहेगा।
बुरा भी जब तुम
करते हो, कुछ
न कुछ अच्छा होता,
है। तभी तो बुरा
आदमी करता है,
नहीं तो वह भी
क्यों करेगा?
एक
चोर है, वह चोरी
कर लाता है; क्योंकि वह कहता
है कि उसका बच्चा
बीमार है और दवा
चाहिए। बच्चे को
दवा तो मिलनी चाहिए।
चोरी से मिलती
है तो चोरी से,
लेकिन बच्चे
को दवा तो देनी
ही पड़ेगी। जीवन
मूल्यवान है। तुम्हारे
धन—संपत्ति के
नियम इतने मूल्यवान
नहीं हैं।
परम
रासायनिक नागार्जुन
के जीवन में उल्लेख
है। वह दार्शनिक
भी था, विचारक भी
था। अपूर्व दार्शनिक
था! शायद भारत में
वैसा कोई दूसरा
दार्शनिक नहीं
हुआ। शंकराचार्य
भी नंबर दो मालूम
पड़ते हैं नागार्जुन
से। और ऐसा लगता
है शंकर ने जो भी
कहा, उसमें
नागार्जुन की छाप
है। नागार्जुन
ने बड़ी अनूठी बातें
कहीं हैं। और वह
रसायनविद था। उसे
दो सहयोगियों की
जरूरत थी, जो
रसायन की प्रक्रिया
में उसका साथ दे
सकें। तो उसने
बड़ी खोज की। दो
रसायनविद आए। वह
उनकी परीक्षा लेना
चाहता था। तो उसने
कुछ रासायनिक द्रव्य
दिए दोनों को और
कहा कि कल तुम इसका
मिश्रण बना कर
ले आना। अगर तुम
सफल हो गए मिश्रण
बनाने में, तो जो भी सफल हो
जाएगा वह चुन लिया
जाएगा।
वे
दोनों चले गए।
दूसरे दिन एक तो
मिश्रण बना कर
आ गया और दूसरा
रासायनिक द्रव्य
वैसे के वैसे ले
कर आ गया। नागार्जुन
ने उस दूसरे से
पूछा कि तुमने
बनाया नहीं? उसने
कहा कि मैं गया,
रास्ते पर एक
भिखारी मर रहा
था, मैं उसकी
सेवा में लग गया।
चौबीस घंटे उसको
बचाने में लग गए,
मुझे समय ही
नहीं मिला। और
यह जो प्रक्रिया
है इसमें कम से
कम चौबीस घंटे
चाहिए। इसलिए मुझे
क्षमा करें। मैं
जानता हूं कि मैं
अस्वीकृत हो गया,
लेकिन कुछ और
उपाय न था। भिखारी
मर रहा था, मुझे
चौबीस घंटे उसकी
सेवा करनी पड़ी।
वह बच गया, मैं
खुश हूं। मुझे
जो आपकी सेवा का
मौका मिलता था,
वह नहीं मिलेगा,
लेकिन मैं प्रसन्न
हूं। मेरी कोई
शिकायत नहीं।
और
नागार्जुन ने इसी
आदमी को चुन लिया।
और नागार्जुन के
और दूसरे सहयोगी
थे,
वे कहने लगे
कि यह आप क्या कर
रहे हैं? जो
आदमी रसायन बना
कर ले आया है, उसको नहीं चुन
रहे? नागार्जुन
ने कहा, जीवन
का मूल्य रसायन
से ज्यादा है।
यह रसायन—वसायन
तो ठीक है मगर जीवन
का मूल्य...। इस आदमी
के पास पकड़ है।
यह जानता है कि
कौन—सी चीज ज्यादा
मूल्यवान है—बस,
यही तो रहस्य
है। सार और असार
में इसे भेद है।
अब
एक आदमी का बच्चा
मर रहा है, वह
तुम्हारी फिक्र
करे कि चोरी नहीं
करनी चाहिए? वह चिंता करे
इस बात की? व्यक्तिगत
संपत्ति को समादर
दे? वह फिक्र
नहीं करता। वह
कहता है, चोरी
हो जाए, चाहे
मैं जेल चला जाऊं,
बच्चे को बचाना
है।
तो
पाप में भी कहीं
तो थोड़ा पुण्य
है। दो आदमी अगर
साथ—साथ चोरी भी
करते हैं तो कम
से कम एक—दूसरे
को तो दगा नहीं
देते। उतनी तो
ईमानदारी है। वे
भी मानते हैं, आनेस्टी
इज द बेस्ट पालिसी।
आपस में तो कम से
कम। किसी और के
साथ न मानते हों,
लेकिन ईमानदारी
एक—दूसरे के साथ
बरतते हैं। उतना
तो पुण्य है।
तुम
ऐसा कोई पाप का
कृत्य नहीं खोज
सकते जिसमें पुण्य
न हो।
एक
चोर पकड़ा गया, तो
मैजिस्ट्रेट बड़ा
हैरान था। उसने
कहा कि हमने सुना
कि तुम नौ दफे रात
में इस दुकान में
घुसे!
उसने
कहा,
और क्या करूं
हुजूर? अकेला
आदमी, पूरी
दुकान ढोनी थी!
तो
मैजिस्ट्रेट ने
कहा कि तो कोई संगी—साथी
नहीं? उसने कहा
कि जमाना बड़ा खराब
है। संगी—साथी
किसको बनाओ? जिसको बनाओ वही
धोखा दे जाता है।
चोर
भी कहता है कि जमाना
खराब है और आप तो
जानते ही हैं।
संगी—साथी किसको
बनाओ? चोरी भी करनी
हो तो भी जमाना
अच्छा होना चाहिए।
किसी को धोखा देना
हो तो भी। उस आदमी
में इतनी, जिसको
तुम्हें धोखा देना
है, इतनी भलमनसाहंत
तो होनी चाहिए
कि भरोसा करे।
पाप और पुण्य गुंथे
पड़े हैं। साथ—साथ
जुड़े हैं। न तो
तुम पुण्य कर सकते
हो बिना पाप किए,
न तुम पाप कर
सकते हो बिना पुण्य
किए।
सुख
न सहचरी, लुटेरा
भी हुआ करता है,
खुशी
में गम का बसेरा
भी हुआ करता है।
अपनी
किस्मत की स्याही
को कोसने वालो,
चांद
के साथ अंधेरा
भी हुआ करता है।
वे
सब जुड़े हैं। इसलिए
अगर तुम एक से बचना
चाहोगे तो तुम
ज्यादा से ज्यादा
दूसरे को छिपा
सकते हो, लेकिन
दूसरे से भाग नहीं
सकते।
पाप—पुण्य
एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं। सिक्का
जाएगा तो पूरा
जाएगा, आधा नहीं
बचाया जा सकता।
एक पहलू नहीं बचाया
जा सकता।
इसलिए
अष्टावक्र और जनक
के संवाद के बीच
जो क्रांतिकारी
सूत्र घटित हो
रहा है, वह साक्षी
का है। तुम्हें
न तो पाप छोड़ना
है, न पुण्य
छोड़ना है। न तुम्हें
पाप पकड़ना है,
न पुण्य पकड़ना
है।
तुम्हें
पकड़ना—छोड़ना छोड़ना
है। न पकड़ो न छोड़ो।
तुम दोनों से दूर
हट कर खड़े हो जाओ, देखने
वाले बनो, द्रष्टा
बनो, साक्षी
बनो!
अहो
अहम् चिन्मात्रम्
जगत इंद्रजालोपमम्।
अत: मन
हेयोपादेय कल्पना
कथम् च कुत्र
इसलिए
जनक ने कहा, मुझे
तो कल्पना भी नहीं
उठती कि कौन ठीक,
कौन गलत। अब
तो सब ठीक या सब
गलत। मैं जाल के
बाहर खड़ा, चिन्मात्र!
चिन्मयरूप! केवल
चैतन्य! केवल साक्षी!
आप किससे कह रहे
हैं त्याग की बात?
वे कहने लगे।
आप किससे कह रहे
हैं कि मैं ज्ञान
को उपलब्ध होऊं?
इति ज्ञानं!
हरि
ओंम तत्सत्!
ओशो पर टिपण्णी ओशो सा प्रेम का विशाल सागर होने पर शायद संभव हो तो हो।।🙏
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