योगसूत्र:
अभ्यासवैराग्याभ्या
तन्निरोध:।। 12।।
(सतत आंतरिक)
अभ्यास और वैराग्य
से इन वृत्तियों
की समाप्ति की
जाती है।
तत्र
स्थितौ यत्नोऽभ्यास:।।
13।।
इन
दो में, अभ्यास
स्वय में दृढ़ता
से प्रतिष्ठित
होने का प्रयास
है।
स
तु
दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो
दृढ्भूमि:।। 14।।
बिना
किसी व्यवधान
के श्रद्धा—
भरी निष्ठा के
साथ लगातार
लंबे समय तक
इसे जारी रखने
से वह दृढ़
अवस्थावाला
हो जाता है।
आदमी
केवल उसका
चेतन मन ही
नहीं है। उसके
पास चेतन से
नौ गुना
ज्यादा, मन की
अचेतन परत भी
है। केवल यही
नहीं, आदमी
के पास शरीर
है—सोमा, जिसमें
यह मन
विद्यमान
होता है। शरीर
नितांत अचेतन
है। उसका
कार्य लगभग
अनैच्छिक है।
केवल शरीर की
सतह ऐच्छिक है।
आंतरिक स्रोत
अनैच्छिक
होते हैं, तुम
उनके बारे में
कुछ नहीं कर
सकते।
तुम्हारी
संकल्पशक्ति
प्रभावकारी
नहीं है।
मनुष्य
के अस्तित्व
का यह ढंग
समझना होता है, इससे
पहले कि कोई
स्वयं में
प्रवेश करे।
और यह समझ
केवल बौद्धिक
नहीं बनी रहनी
चाहिए। यह और
गहरी उतरनी
चाहिए। इसे
अचेतन परतो को
बेधना चाहिए,
इसे शरीर तक
को प्रभावित
करना चाहिए।
इसलिए
है अभ्यास का
महत्व। सतत आंतरिक
अभ्यास। ये दो
शब्द बहुत
सार्थक है—
अभ्यास और
वैराग्य।
अभ्यास का
मतलब है अविरत
आंतरिक
अभ्यास। और
वैराग्य का
मतलब है
अनासक्ति, इच्छा—विहीनता।
आगे आने वाले
पतंजलि के
सूत्र इन्हीं सर्वाधिक
अर्थपूर्ण
धारणाओं से
संबंध रखते
हैं। लेकिन
इससे पहले कि
हम सूत्रों
में प्रवेश करें,
यह विचार कि
मनुष्य के
व्यक्तित्व
का ढांचा समग्र
स्वप्न से
बौद्धिक नहीं
है, गहराई
से समझ लेना
होगा।
अगर
यह केवल
बुद्धिगत
होता, तो फिर
अभ्यास को सतत
दोहराये जाने
वाले प्रयास
की कोई जरूरत
ही न होती।
यदि कोई चीज
बुद्धि—संगत
होती है, तुम
तुरंत मन
द्वारा उसे
समझ सकते हो।
लेकिन केवल बुद्धिगत
समझ काम नहीं
देगी। उदाहरण
के लिए तुम
आसानी से समझ
सकते हो कि क्रोध
बुरा है, विषाक्त
है। लेकिन यह
समझ काफी नहीं
है इसके लिए
कि क्रोध तुम्हें
छोड़ जाये, विलीन
हो जाये।
तुम्हारी समझ
के बावजूद
क्रोध जारी
रहेगा, क्योंकि
क्रोध
तुम्हारे
अचेतन की बहुत—सी
तहों में बना
रहता है। और
केवल
तुम्हारे मन
में ही नहीं बल्कि
तुम्हारे
शरीर में भी।
शरीर
मात्र
शाब्दिक
प्रयास
द्वारा नहीं
समझ सकता।
केवल
तुम्हारा सिर
समझ सकता है, लेकिन
शरीर
अप्रभावित
बना रहता है।
और जब तक समझ
एकदम शरीर की
जड़ तक न
पहुंचे, तुम
रूपांतरित
नहीं हो सकते।
तुम वैसे ही
रहोगे।
तुम्हारे
विचार बदलते
रह सकते हैं, लेकिन
तुम्हारा
व्यक्तित्व
वैसा ही बना
रहेगा। और तब
एक नया
द्वंद्व उठ
खड़ा होगा। तुम
हमेशा से कहीं
अधिक अशांति
में जा पड़ोगे।
क्योंकि अब
तुम देख सकते
हो कि क्या
गलत है और फिर
भी तुम्हारा
उसे करने का
आग्रह बना
रहता है।
तुम
उसे किये जाते
हो,
और एक आत्म—अपराध
और निंदा
निर्मित होती
है। तुम स्वयं
को घृणा करने
लगते हो, तुम
स्वयं को पापी
समझने लगते हो।
और जितना ज्यादा
तुम समझते हो,
उतनी
ज्यादा निंदा
बढ़ती जाती है।
क्योंकि तुम
देखते हो
कितना कठिन
है! लगभग असंभव
है स्वयं को
परिवर्तित
करना।
योग
बौद्धिक समझ
में विश्वास
नहीं करता। यह
शारीरिक समझ
में विश्वास
रखता है; एक समग्र
समझ में, जिसमें
तुम्हारी
अखंडता
अंतर्निहित
होती है। केवल
तुम्हारा सिर
ही नहीं बदलता
बल्कि
तुम्हारी
अंतस सत्ता के
गहन स्रोत भी
बदल जाते हैं।
वे
कैसे बदल जाते
हैं?
किसी विशेष
अभ्यास का
निरंतर
दोहराव
अनैच्छिक
होता जाता है।
यदि तुम कोई
विशेष अभ्यास
सतत स्वप्न
से करते हो, बस उसे
लगातार दोहरा
रहे होते हो, धीरे— धीरे
वह चेतन मन से
गिर जाता है, अचेतन तक
पहुंच जाता है।
और उसका
हिस्सा बन
जाता है। एक
बार जब वह
अचेतन का
हिस्सा बन
जाता है, तो
वह गहन स्रोत
से कार्य करना
आरंभ कर देता
है।
कोई
चीज अचेतन बन
सकती है अगर
तुम लगातार
उसे दोहराते
जाते हो।
उदाहरण के तौर
पर,
तुम्हारा
नाम बचपन से
निरंतर
दोहराया जा
रहा है, वह
अचेतन का
हिस्सा बन गया
है। तुम सौ
व्यक्तियों
के साथ एक
कमरे में सोये
हुए हो सकते
हो लेकिन यदि
कोई आता है और
पुकारता है, 'राम! क्या
राम यहां हैं?'
वे नब्बे
प्रतिशत
व्यक्ति, जिनका
इस नाम से कोई
संबंध नहीं है,
सोते ही
रहेंगे। वे
अशांत नहीं
होंगे। लेकिन
वह एक व्यक्ति
जिसका नाम 'राम' है, अचानक
पूछेगा, 'कौन
बुला रहा है
मुझे? क्यों
तुम मेरी नींद
खराब कर रहे
हो? '
नींद
में भी, वह
जानता है कि
उसका नाम राम
है। यह नाम
इतने गहरे तक
कैसे पहुंच
गया? केवल
निरंतर
दोहराव द्वारा।
ऐसा है, क्योंकि
हर कोई उसका
नाम दोहरा रहा
है, हर कोई
उसे इसी नाम
से बुला रहा
है। वह स्वयं
इसका प्रयोग
करता है अपना
परिचय देने
में। और यह
नाम लगातार
प्रयोग में
रहता है। अब
यह चेतन नहीं
है। यह अचेतन
तक पहुंच चुका
है।
तुम्हारी
भाषा, तुम्हारी
मातृ— भाषा, अचेतन का
हिस्सा बन
जाती है। और
जो कुछ भी तुम
सीखते हो बाद
में, वह
कभी इतना
अचेतनीय न
होगा जितना कि
यह। वह तो
चेतन ब्रना
रहेगा।
इसीलिए
तुम्हारी
अचेतन भाषा
तुम्हारी
चेतन भाषा को
निरंतर
प्रभावित
करती रहेगी।
यदि
कोई जर्मन
अंग्रेजी
बोलता है, वह
अलग होती है; यदि कोई
फ्रांसीसी
आदमी
अंग्रेजी
बोलता है, वह
अलग होती है; अगर कोई
भारतीय
अंग्रेजी
बोलता है तो
वह अलग होती
है। भेद
अंयेजी में
नहीं होता है,
भेद उनके
अंतरतम
ढांचों में
होता है।
फ्रांसीसी
आदमी की एक
अलग भाषा—प्रक्रिया
होती है। एक
अचेतन
प्रक्रिया जो
प्रभावित करती
है उस ढंग को
जिससे वह
दूसरी भाषा
बोलता है। अत:
जो कुछ तुम
बाद में सीखते
हो, तुम्हारी
मातृभाषा
द्वारा
प्रभावित
होगा ही। और
यदि तुम बेहोश
हो जाते हो, तब केवल
तुम्हारी
मातृभाषा याद
रह जायेगी।
मुझे अपने एक
मित्र की याद
है जो
महाराष्ट्र का
था। वह जर्मनी
में बीस साल
तक था, या
इससे भी
ज्यादा ही।
बीस साल से वह
जर्मन भाषा का
प्रयोग कर रहा
था। वह बिलकुल
भूल चुका था
अपनी
मातृभाषा—मराठी।
वह उसे पढ़
नहीं सकता था।
वह उसे बोल
नहीं सकता था।
चेतन स्वप्न
से वह भाषा
बिलकुल
भुलायी जा
चुकी थी
क्योंकि उसका
प्रयोग न हुआ
था।
फिर
वह बीमार हो
गया था।
बीमारी के
दौरान वह कई
बार बेहोश हो
जाता। जब कभी
बेहोश होता, एक
बिलकुल अलग
तरह का
व्यक्तित्व
प्रकट हो जाता।
वह अलग ढंग से
व्यवहार करने
लगता। जब वह
बेहोश होता था,
तो मराठी के
शब्द बोलने
लगता, जर्मन
के नहीं। जब
वह बेहोश होता
था, तो जो
मराठी भाषा के
शब्द होते है
उन्हें बोलने
लगता। और
बेहोशी के बाद
जब वह पहले
होश की हालत
में वापस आता,
तो एक मिनट
के लिए तो वह
जर्मन भाषा
समझ भी न पाता।
बचपन
के दौरान
लगातार
दोहराव गहरे
उतरता जाता है
क्योंकि
बच्चे के पास
वस्तुत: चेतन
नहीं है। उसके
पास अपना अचेतन
ज्यादा है—बस
ऊपरी हिस्से
के पास ही। हर
चीज अचेतन में
प्रवेश करती
है। जैसे—जैसे
वह ज्यादा
सीखेगा, जैसे
वह शिक्षित
होगा, चेतन
एक ज्यादा
मोटी परत बन
जायेगा। तब कम
और बहुत कम
चीजें प्रवेश
करेंगी अचेतन में।
मनसविद
कहते हैं कि
तुम्हारे
सीखने का लगभग
पचास प्रतिशत
समाप्त हो
जाता है जब तक
कि तुम सातू
वर्ष के होते
हो। तुम्हारे
जीवन के
सातवें वर्ष
तक,
तुम लगभग वे
आधी चीजें सीख
चुके होते हो
जो तुम्हें
कभी जाननी
होती हैं।
तुम्हारी आधी
शिक्षा
समाप्त हो
जाती है और यही
आधा भाग आधार
बनने वाला है।
अब हर दूसरी
चीज इस पर आरोपित
मात्र होगी।
गहरे में वही
ढांचा बना
रहेगा जो बचपन
का है।
इसीलिए
आधुनिक मनोविज्ञान, अधुनिक
मनोविश्लेषण,
मनोचिकित्सा,
ये सभी बचपन
तक उतरने की
कोशिश करते
हैं। यदि तुम
मानसिक स्वप्न
से बीमार हो
तो मूल कारण
को खोजना होता
है कहीं
तुम्हारे
बचपन में; न
कि वर्तमान
में। वह ढांचा
तुम्हारे
बचपन में ही
कहीं स्थापित मिलेगा।
एक बार उस
गहरे ढांचे का
पता लग जाता
है, फिर
कुछ किया जा
सकता है और
तुम रूपांतरित
हो सकते हो।
लेकिन
गहरे कैसे
प्रवेश करें
गुम योग कें
पास एक विधि
है;
वह विधि
अभ्यास
कहलाती है।’ अभ्यास' का
अर्थ है किसी
चीज को अविरत
दोहराये जाने
की प्रक्रिया।
लेकिन ऐसा
क्यों है कि
दोहराव के
द्वारा कोई चीज
अचेतन बन जाती
है? इसके
कुछ कारण हैं।
यदि
तुम कुछ सीखना
चाहते हो, तो
तुम्हें उसे
दोहराना ही
पड़ेगा। क्यों?
यदि तुम कोई
कविता बस एक
बार पढ़ते हो, तुम शायद
इधर—उधर से कुछ
शब्द याद कर
लो, लेकिन
अगर इसे दो
बार, तीन
बार, बहुत
ज्यादा बार पढ़
लेते हो, तब
तुम याद कर
सकते हो
पंक्तियों को,
पैराग्राफ
को। यदि तुम
इसे सौ बार
दोहराते हो, तब तुम इसे
संपूर्ण
ढांचे की
भांति याद कर
सकते हो। और
अगर तुम और भी
ज्यादा
दोहराते हो, तो यह बनी रह
सकती है, यह
वर्षों तक
तुम्हारी
स्मृति में
बनी रह सकती
है। तुम इसे
भूल न सकोगे।
क्या
घट रहा है? जब
तुम एक
निश्चित चीज
को दोहराते
जाते हो, जितना
ज्यादा तुम
दोहराते हो, उतनी ज्यादा
यह मस्तिष्क
कोशिकाओं पर
अंकित हो जाती
है। सतत
दोहराव एक सतत
चोट है। तब वह
मन पर अंकित
हो जाता है।
वह तुम्हारी
मस्तिष्क—कोशिकाओं
का एक हिस्सा
हो जाता है।
और जितना
ज्यादा यह
तुम्हारी
मस्तिष्क—कोशिकाओं
का हिस्सा
बनता है, चेतना
की आवश्यकता
उतनी ही कम
होती है।
तुम्हारी
चेतना आगे बढ़
सकती है, अब
उसकी जरूरत
नहीं है।
इसलिए
जो कुछ तुम
गहनता से
सीखते हो, तुम्हें
उसके प्रति
सचेत होने की जरूरत
नहीं होती है।
शुरू में जब
तुम
ड्राइविंग
सीखते हो तो
कार चलाना एक
सचेत प्रयास
होता है।
इसीलिए यह
इतना कठिन
होता है, क्योंकि
तुम्हें
लगातार सचेत
रहना होता है।
और बहुत
ज्यादा चीजें
हैं जिनके
प्रति सचेत होना
होता है—सडक, ट्रैफिक,
मैकेनिज्म, व्हील, एक्सेलेटर,
ब्रेक्स, सड़क के नियम
और अधिनियम, और हर चीज।
तुम्हें हर
चीज के प्रति
लगातार जागरूक
होना होता है।
तुम इसमें
इतने
सम्मिलित हो
जाते हो कि यह
कठिन हो जाता
है। यह बात एक
गहरा प्रयत्न
बन जाती है।
लेकिन
धीरे—धीरे तुम
हर चीज पूरी
तरह भुला देने
योग्य हो
जाओगे। तुम
ड्राइविंग
करोगे, लेकिन
ड्राइविंग
अचेतन बन
जायेगी।
इसमें अपने मन
को लाने की जरूरत
न रहेगी। तुम
जिस किसी चीज
के बारे में
चाहो सोचते रह
सकते हो, जहां
चाहो मन को
पहुंचा सकते
हो, और कार
चलती रहेगी
अचेतन की
क्षमता से। अब
तुम्हारा
शरीर इसे सीख
चुका है, अब
सारी संरचना
इसे जानती है।
यह एक अचेतन
शिक्षा बन
चुकी है।
जब
कभी कुछ इतना
गहरा हो जाता
है कि तुम्हें
उसका होश रखने
की जरूरत न
रहे,
तो वह अचेतन
में जा पड़ा
होता है। और
एक बार कोई
चीज अचेतन में
पड़ जाती है, तो वह
तुम्हारे
होने को, जीवन
को, चरित्र
को परिवर्तित
करना शुरू कर
देगी। यह
परिवर्तन
प्रयासहीन
होगा अब, तुम्हें
इससे संबंध
रखने की जरूरत
नहीं है। तुम
उस दिशा में
आगे बढ़ने
लगोगे जहां
अचेतन तुम्हें
ले जा रहा है।
योग
ने बहुत अधिक
कार्य किया है
'अभ्यास' पर।
सतत
पुनरावृत्ति।
यह सतत दोहराव
है मात्र
तुम्हारे
अचेतन को कार्य
पर ले आने के
लिए। और जब
अचेतन कार्य
करना शुरू
करता है, तुम
निश्चित
होते हो। किसी
प्रयास की
आवश्यकता
नहीं है, चीजें
स्वाभाविक बन
जाती हैं।
पुराने
शास्त्रों
में कहा गया
है कि संत वह नहीं
है जिसके पास
अच्छा चरित्र
है, क्योंकि
ऐसी चेतना भी
दिखाती है कि 'विरोधी तत्व'
अब भी बना
हुआ है, विपरीत
अब भी जीवित
है।
संत
वह है जो बुरा
नहीं कर सकता, जो
उसके बारे में
सोच भी नहीं
सकता। अच्छाई
अचेतन बन गयी
है, वह
सांस जैसी बन
गयी है। जो
कुछ भी वह
करने जा रहा
है वह अच्छा
होगा। उसके
अस्तित्व में
यह इतने गहरे
उतर चुकी है कि
किसी प्रयास
की आवश्यकता
नहीं है। वह
उसकी जिंदगी
बन चुकी है।
अत: तुम नहीं
कह सकते कि
संत एक अच्छा
आदमी होता है।
वह नहीं जानता
कि क्या अच्छा
है और क्या
बुरा? अब
दो के बीच कोई
अन्तर्संघर्ष
नहीं है उसमें।
अच्छाई इतनी
गहराई में
प्रवेश कर
चुकी है कि
उसके लिए इस
बारे में जागरूक
होने की कोई जरूरत
नहीं है।
यदि
अपनी अच्छाई
के प्रति तुम
सचेत हो, तो
बुराई अब तक
पास—पास बनी
हुई है और यह
एक निरंतर
संघर्ष है। हर
बार तुम्हें
कार्य करना
पड़ता है, तुम्हें
चुनना पड़ता है—
'मुझे अच्छा
करना चाहिए, मुझे बुरा
नहीं करना
चाहिए।’ और
यह बात एक
गहरी अशांति,
संघर्ष, एक
सतत आंतरिक
हिंसा, एक
भीतर—युद्ध
बनने वाली है।
और यदि
अंतर्संघर्ष
वहां है, तो
तुम
विश्रामपूर्ण
और चैन से
नहीं रह सकते।
अब
हमें सूत्र
में प्रवेश
करना चाहिए।
मन की समाप्ति
योग है, लेकिन
मन और उसकी
वृत्तियां
कैसे समाप्त
हो?
इनकी
समाप्ति सतत आंतरिक
अभ्यास और
वैराग्य
द्वारा लायी
जाती है।
दो
तरीके है
जिससे कि मन
अपनी सारी वृत्तियों
सहित समाप्त
हो सकता है।
एक तो— ' अभ्यास',
सतत आंतरिक
अभ्यास; और
दूसरा—वैराग्य।
वैराग्य
स्थिति का निर्माण
करेगा और सतत
अभ्यास एक
विधि है उस
स्थिति में
प्रयुक्त
होने की।
दोनों को
समझने की
कोशिश करो।
जो
कुछ तुम करते
हो,
तुम करते हो
क्योंकि
तुम्हारी
निश्चित इच्छाएं
हैं। वे
इच्छाएं पूरी
की जा सकती
हैं कुछ
निश्चित बातें
करने से ही।
तो जब तक वे
इच्छाएं नहीं
गिरा दी जातीं,
तुम्हारे
क्रियाकलाप
नहीं गिराये
जा सकते. तुम्हारी
कुछ लागत लगी
है उन
क्रियाओं में,
उन कार्यों
में। मनुष्य
चरित्र और मन
की एक दुविधा
यह है कि तुम
निश्चित
क्रियाओं को
रोकना चाह
सकते हो क्योंकि
वे तुम्हें
दुख की ओर ले
जाती हैं।
लेकिन
तुम उन्हें क्यों
करते हो? तुम
उन्हें करते
हो क्योंकि
तुम्हारी कुछ
निश्चित
इच्छाएं हैं
और उन्हें
किये बिना ये
इच्छाएं पूरी
की नहीं जा
सकतीं। तो ये
दो चीजें हैं।
एक—तुम्हें
कुछ निश्चित
चीजें करनी
पड़ती हैं।
उदाहरण के तौर
पर—क्रोध। तुम
क्यों
क्रोधित हो
जाते हो? तुम
तब क्रोधित
होते हो जब
कहीं, किसी
तरह, कोई
तुम्हारे लिए
बाधा निर्मित
कर देता है।
तुम्हारी
इच्छा बाधित
हो जाती है, तो तुम्हें
क्रोध आ जाता
है।
तुम
चीजों पर भी
क्रोध करते हो।
अगर तुम चल
रहे होते हो, और
तुम फौरन कहीं
पहुंचने की
कोशिश कर रहे
होते हो, और
एक कुर्सी
तुम्हारे
रास्ते में आ
जाती है, तो
तुम्हें
कुर्सी पर
क्रोध आ जाता
है। अगर तुम
दरवाजे का
ताला खोलने की
कोशिश करते हो
और चाबी काम
नहीं दे रही
है, तो
तुम्हें
दरवाजे पर
क्रोध आ जाता
है। यह पागलपन
है, क्योंकि
चीजों के साथ
क्रोध करना
निरर्थक है।
लेकिन कोई भी
चीज जो किसी
प्रकार की
रुकावट बनाती
है, क्रोध
निर्मित करती
है।
तुम्हारी
आकांक्षा है
कहीं पहुंचने
की,
कुछ करने की,
कुछ पाने की।
जो कोई
तुम्हारी
इच्छा और
तुम्हारे बीच
आता है, तुम्हें
अपना दुश्मन
लगता है। तुम
उसे नष्ट करना
चाहते हो। यही
है क्रोध का
मतलब कि तुम
बाधाओं को
नष्ट कर देना
चाहते हो।
लेकिन क्रोध
दुख तक ले
जाता है, क्रोध
एक रोग बन
जाता है।
इसलिए तुम
चाहते हो
क्रोधित न
होना।
तुम
क्रोध कैसे
गिरा सकते हो
अगर तुम्हारे
पास इच्छाएं
और उद्देश्य
हैं?
अगर तुममें
इच्छाएं और
उद्देश्य हैं
तो तुममें
क्रोध होगा ही,
क्योंकि जीवन
जटिल है। तुम
यहां इस
पृथ्वी पर
अकेले ही नहीं
हो, लाखों
लोग जूझ रहे
हैं अपनी
इच्छाओं के
लिए, जो
सभी एक—दूसरे
को आड़ी—तिरछी
काट रही हैं।
वे एक—दूसरे
के रास्ते में
आ जाती हैं।
इसलिए अगर
तुममें
इच्छाएं हैं,
तो क्रोध
आयेगा ही; विषाद
बनेगा ही; हिंसा
होगी ही। और
जो कोई
तुम्हारे
रास्ते में
आता है तुम्हारा
मन उसे नष्ट
करने की
सोचेगा।
बाधा
को नष्ट करने
की यह
मनोवृत्ति
क्रोध है।
लेकिन क्रोध
दुख निर्मित
करता है, इसलिए
तुम क्रोधित
होना नहीं
चाहते हो।
लेकिन केवल
क्रोध न करने
की चाहना कोई
ज्यादा सहायक
नहीं होगी, क्योंकि
क्रोध एक
ज्यादा बड़े
ढांचे का
हिस्सा है—उस
मन का, जो
इच्छा करता है;
मन, जो
कही पहुंचना
चाहता है। तुम
क्रोध को गिरा
नहीं सकते।
तो
पहली बात है
इच्छा न करना।
तब क्रोध की
आधी संभावना
गिर जाती है, बुनियाद
ही गिर जाती
है। लेकिन फिर
भी यह जरूरी
नहीं है कि
क्रोध मिटेगा
ही, क्योंकि
तुम लाखों
वर्षों से
क्रोध करते
चले आ रहे हो।
यह गहराई में
उतर गयी एक
गहरी आदत बन
चुका है।
तुम
इच्छाओं को
गिरा सकते हो, लेकिन
क्रोध फिर भी
बना रहेगा। यह
उतना प्रबल
नहीं होगा, लेकिन यह अड़ा
रहेगा
क्योंकि अब यह
एक आदत है। यह
एक अचेतन आदत
बन चुका है।
बहुत—बहुत
जन्मों से तुम
इसे ढो रहे हो।
यह तुम्हारी
आनुवंशिकता
बन चुका है।
यह तुम्हारी
कोशिकाओं में
है, शरीर
ने उसे धारण
कर लिया है।
यह अब
रासायनिक और
दैहिक है। तो
तुम्हारी
इच्छाओं को
तुम्हारे
गिराने भर से
ही तुम्हारा
शरीर अपना
ढांचा नहीं
बदलने वाला।
ढांचा बहुत
पुराना है।
तुम्हें इस
ढांचे को भी
बदलना पड़ेगा।
इस
परिवर्तन के
लिए
आवृत्तिमूलक
अभ्यास की जरूरत
होगी। आंतरिक
देह—संरचना को
बदलने के लिए
दोहराये जाने
वाले अभ्यास
की जरूरत होगी; सारे
शरीर—मन के
ढांचे को नया
करने की जरूरत
होगी। लेकिन
यह संभव है केवल
यदि तुमने
इच्छा करना
गिरा दिया है।
इसे
दूसरे
दृष्टिकोण से
देखो। एक आदमी
मेरे पास आया
और कहने लगा, 'मैं
उदास नहीं
होना चाहता, पर मैं
हमेशा उदास और
थका हुआ रहता
हूं। कई बार
मैं जानता भी
नहीं क्या
कारण है, क्यों
उदास हूं मैं,
लेकिन मैं
उदास होता हूं।
प्रत्यक्ष
कारण कोई नहीं
होता है, ऐसा
कुछ नहीं
जिसका मैं ठीक—ठीक
पता लगा सकूं
और कह सकूं कि
यह कारण है।
ऐसा लगता है
कि उदास रहना
मेरा ढंग ही
बन गया है।
मुझे याद नहीं
कि मैं कभी
खुश भी था। और
मैं उदास नहीं
होना चाहता
हूं। यह एक
मृत बोझ है।
मैं सबसे
ज्यादा दुखी
आदमी हूं।
अपनी उदासी
मैं कैसे छोड़
सकता हूं?'
मैंने
उससे पूछा, 'क्या
तुम्हारी
उदासी में
तुम्हारी कोई
लागत लगी है?' वह बोला, 'क्यों
लगी होनी
चाहिए मेरी
कोई लागत?' लेकिन
थी उसकी लागत।
मैं इस
व्यक्ति को
अच्छी तरह से
जानता था। मैं
इसे बहुत
वर्षों से
जानता था। लेकिन
वह सजग नहीं
था कि कोई
निहित
स्वार्थ
उसमें है। वह
उदासी को उतार
देना चाहता है,
लेकिन उसे
होश नहीं कि
उदासी उसमें
क्यों है। वह
इसे दूसरे
कारणों से
बनाये हुए है
जिन्हें वह
स्मरण नहीं कर
पा रहा है।
उसे
प्रेम की जरूरत
है,
लेकिन अगर
तुम्हें
प्रेम चाहिए
तो तुम्हें
प्रेममय होना
पड़ता है। अगर
तुम प्रेम की
मांग करते हो,
तो तुम्हें
प्रेम देना
होता है, और
जितना मांग
सकते हो उससे
ज्यादा
तुम्हें देना
होता है।
लेकिन वह
कंजूस है; वह
प्रेम नहीं दे
सकता। देना
उसके लिए
असंभव है; वह
कोई चीज नहीं
दे सकता। देने
का नाम भर लो
और वह अपने
भीतर सिकुड़
जायेगा। वह
केवल ले सकता
है, वह दे
नहीं सकता।
जहां तक देने
का संबंध है; वह बंद है।
बिना
प्रेम के तुम
नहीं खिल सकते।
बिना प्रेम के
तुम कोई आनंद
प्राप्त नहीं
कर सकते, तुम
प्रसन्न नहीं
हो सकते।
लेकिन वह
प्रेम नहीं कर
सकता क्योंकि
प्रेम तो ऐसा
लगता है जैसे
तुम कुछ दे
रहे हो। यह
देना है—वह सब,
जो
तुम्हारे पास
है—तुम्हारा
अस्तित्व भी;
उसे पूरे
हृदय से
अर्पित करना।
वह प्रेम दे
नहीं सकता, वह प्रेम ले
नहीं सकता। तो
करोगे क्या? लेकिन वह
इसके लिए
लालायित है, जैसा कि सभी
लालायित हैं
प्रेम के लिए।
भोजन की तरह
यह एक
बुनियादी जरूरत
है। बिना भोजन
के तुम्हारा
शरीर मर
जायेगा और बिना
प्रेम के
तुम्हारी आला
सिकुड़ जायेगी।
यह अनिवार्य
बात है।
अत:
उसने एक
परिपूरक बना
लिया है उसकी
जगह,
और वह
परिपूरक है
सहानुभूति।
वह प्रेम नहीं
पा सकता
क्योंकि वह
प्रेम दे नहीं
सकता, लेकिन
वह सहानुभूति
पा सकता है।
सहानुभूति एक
दरिद्र
परिपूरक है
प्रेम के लिए।
वह उदास है, क्योंकि जब
वह उदास होता
है, तो लोग
उसे
सहानुभूति
देते हैं। जो
कोई भी उसके
पास आता है
सहानुभूतिपूर्ण
होता है
क्योंकि वह तो
हमेशा
चीख—चिल्ला
रहा है और रो
रहा है और उसका
मूड हमेशा
दुखी आदमी का
है। लेकिन वह
इसमें रस लेता
है। जब कभी
तुम उसे
सहानुभूति
देते हो, उसका
मजा लेता है
वह। तब वह और
ज्यादा दुखी
बन जाता है, क्योंकि
जितना ज्यादा
वह दुखी होता
है, उतनी
ज्यादा
सहानुभूति
उसे मिल सकती
है।
मैंने
उससे कहा, 'तुम्हारी
उदासी में तुम्हारी
एक निश्चित
लागत लगी है।
यह सारा ढांचा
गिराना होगा।
उदासी मात्र
नहीं गिरायी जा
सकती। यह कहीं
और ही बद्धमूल
है।
सहानुभूति की
मांग मत करो।
लेकिन तुम
सहानुभूति की
मांग करना बंद
कर सकते हो
केवल तभी, जब
तुम प्रेम
देना शुरू
करते हो।
क्योंकि यह एक
परिपूरक है।
और एक बार तुम
प्रेम देने
लगते हो, तो
प्रेम तुममें
घटित होगा। तब
तुम प्रसन्न होओगे।
तब एक अलग
ढांचा
निर्मित
होगा।’
मैंने
सुना है कि एक
आदमी
कार—पार्किंग
की जगह में
दाखिल हुआ। वह
बहुत
हास्यास्पद
मुद्रा में
था। जैसा वह
दिख रहा था, वह
ढंग, लगभग
असंभव लगता था,
क्योंकि वह
नीचे झुका जा
रहा था, जैसे
कि वह कार चला
रहा हो। उसके
हाथ किसी अदृश्य
व्हील पर घूम
रहे थे, उसके
पांव किसी
अदृश्य
एक्सेलरेटर
पर थे और वह
चला रहा था।
अत्यधिक कठिन
लगता था, बहुत
असंभव। भीड़
वहां इकट्ठी
हो गयी। वह
कुछ असंभव बात
कर रहा था।
उन्होंने
परिचारक से
पूछा, 'क्या
बात है ' यह
आदमी क्या कर
रहा है? '
परिचारक
बोला, 'इतने
जोर से मत
पूछो। अपने
अतीत में इस
आदमी को कारों
से प्यार रहा,
बस यही है
बात। उसकी
गिनती
श्रेष्ठ
ड्राइवरों
में हुआ करती
थी। वह कारों
की दौड़ में
राष्ट्रीय
पुरस्कार भी
जीत चुका है।
लेकिन अब किसी
मानसिक दोष के
कारण, वह
निकाला जा
चुका है। उसे
कार नहीं
चलाने दी जाती,
लेकिन
पुरानी आदत
उसके साथ बनी
हुई है बस।
भीड़
ने कहा, 'यदि
तुम यह जानते
हो, तो उसे
कहते क्यों
नहीं कि
तुम्हारे पास
कार नहीं है; तुम यहां
क्या कर रहे
हो?' वह
आदमी बोला, 'इसीलिए
मैंने कहा था,
बहुत जोर से
मत बोलो। मै
यह उससे नहीं
कह सकता, क्योंकि
वह मुझे हर
रोज एक रुपया
देता है कार धोने
का। इसलिए मै
ऐसा नहीं कर
सकता। मैं
नहीं कह सकता
कि तुम्हारी
कोई कार नहीं
है। वह कार पार्क
करने जा रहा
है और तब मैं
उसे धोऊंगा।’
उस
एक रुपये का लोभ, वह
निहित
स्वार्थ वहा
है। तुम्हारे
बहुत से निहित
स्वार्थ हैं
तुम्हारे दुख
में, तुम्हारी
मनोव्यथा में,
तुम्हारी
बीमारी में
भी। और तब तुम
कहे चले जाते
हो, 'लेकिन
मैं इसे चाहता
नहीं। मैं
क्रोध नहीं चाहता;
मैं यह या
वह नहीं होना
चाहता। लेकिन
जब तक तुम जान न
जाओ कि कैसे
ये सारी बातें
तुममें घटित
हुई हैं, जब
तक तुम समझ न
लो सारा ढंग, तब तक कुछ
नहीं बदला जा
सकता।
मन
का सबसे
ज्यादा गहरा
ढांचा इच्छा
है। जो कुछ
तुम हो, वह
इसलिए हो कि
तुम्हारी
निश्चित
इच्छाएं हैं,
इच्छाओं का
समूह है।
इसलिए पतंजलि
कहते है, 'पहली
चीज गैर—मोह
है।’ सारी
इच्छाएं गिरा
दो। आसक्त मत
बने रहो। और फिर
है, अभ्यास।
उदाहरण
के लिए कोई
मेरे पास आता
है और कहता है, 'मैं
मोटा नहीं
होना चाहता।
मैं अपने शरीर
में और ज्यादा
चरबी इकट्ठी
नहीं करना
चाहता, लेकिन
मैं खाये ही
जाता हूं! मै
इसे रोकना चाहता
हूं लेकिन मैं
खाता ही जाता
हूं।’
यह
चाहना ऊपरी है।
ऐसा है, क्योंकि
भीतर एक ढांचा
है और इसीलिए
वह ज्यादा, और ज्यादा
खाये चला जाता
है। और अगर वह
कुछ दिनों के
लिए रुक भी
जाये, तो
वह फिर शुरू
कर देता है, और खाता है
ज्यादा जोश के
साथ। और कुछ
दिनों के
उपवास करने और
नियंत्रित
भोजन करने
द्वारा उसने
जितना खोया
उससे कहीं
ज्यादा वजन
इकट्ठा कर
लेगा। और ऐसा
लगातार हो रहा
है वर्षों से।
यह कम खाने की
बात नहीं है।
क्यों वह
ज्यादा खा रहा
है? शरीर
को यह नहीं
चाहिए, लेकिन
कहीं मन में
भोजन किसी चीज
के बदले परिपूरक
बन चुका है।
हो
सकता है वह
मृत्यु से
भयभीत हो।
जिन्हें
मृत्यु का भय
होता है वे
लोग ज्यादा खाते
हैं क्योंकि
खाना जीवन का
आधार दिखाई पड़ता
है। तुम
ज्यादा खाते
हो,
तो ज्यादा
जीवंत तुम
होते हो—यह
गणित बैठा है
तुम्हारे मन
में, क्योंकि
अगर तुम नहीं
खाते, तो
तुम मर जाते।
न खाना मृत्यु
के बराबर हो
जाता है और
ज्यादा खा
लेना ज्यादा
जीवन के तुल्य
हो जाता है।
इसलिए अगर
तुम्हें
मृत्यु— भय है
तो तुम ज्यादा
खाओगे। और अगर
तुम्हें कोई
प्रेम नहीं
करता, तो
तुम ज्यादा
खाओगे।
भोजन
प्रेम की जगह
एक परिपूरक बन
सकता है, क्योंकि
बच्चा शुरू
में भोजन और
प्रेम का
संबंध जोड़ना
सीखता है।
पहली चीज, जिसके
प्रति बच्चा
सजग होने वाला
है, वह है
मां—मां के
द्वारा आया
भोजन और मां
के द्वारा आया
प्रेम। प्रेम
और भोजन उसकी
चेतना में साथ—साथ
प्रवेश करते
हैं। और जब भी
मां
प्रेमपूर्ण
होती है, वह
ज्यादा दूध दे
देती है। स्तन
प्रसन्नतापूर्वक
दिया जाता है।
लेकिन जब भी
मां क्रोध में
होती है, अप्रेमपूर्ण
होती है, वह
स्तन को तुरंत
छीन लेती है।
वह दूध नहीं
देती।
भोजन
दूर कर दिया
जाता है जब—जब
मां
अप्रेमपूर्ण
होती है। भोजन
दिया जाता है
जब वह
प्रेमपूर्ण
होती है। तो
प्रेम और भोजन
एक हो जाते
हैं। मन में, बच्चे
के मन में वे
संबंधित हो
जाते हैं।
इसलिए जब कभी
बच्चा ज्यादा
प्रेम पाता है,
वह अपने
आहार को कम कर
देगा क्योंकि
बहुत ज्यादा
प्रेम के साथ
भोजन की जरूरत
नहीं होती है।
जब कभी प्रेम
नहीं होता, वह ज्यादा
खायेगा
क्योंकि
संतुलन बनाये
रखना पड़ता है।
और अगर प्रेम
बिलकुल ही
नहीं होता, तो वह अपना
पेट पूरा भर
लेगा।
तुम्हें
यह जानकर शायद
आश्चर्य हणो
कि जिस समय
व्यक्ति
प्रेम में
पडते हैं, वे
मोटापा खो
देते हैं।
इसीलिए
लड़कियों का जब
विवाह हो जाता
है उसी क्षण
से वे मोटापा
इकट्ठा करना शुरू
कर देती हैं।
जब प्रेम
व्यवस्थित हो
जाता है तो वे
मोटी होना शुरू
हो जाती है, क्योंकि अब
कोई प्रेम
वहां नहीं
होता। अब
प्रेम और
प्रेम का
संसार एक ढंग
से खत्म ही है!
उन
देशों में
जहां तलाक
ज्यादा
प्रचलित हो चुका
है,
स्त्रियां
कहीं बेहतर स्वपाकृति
में दिखायी पड़
रही है। वह
देश जहां तलाक
ज्यादा
प्रचलित नहीं
है, औरतें
अपनी
देहाकृति के
बारे में जरा
भी फिक्र नहीं
करतीं। अगर
तलाक संभव हो
तो स्त्रियों
को नये प्रेमी
खोजने पड़ेंगे
इसलिए वे
देहाकृति के
प्रति सचेत हो
जाती हैं।
प्रेम की खोज
शारीरिक
आकृति को मदद
देती है।
लेकिन जब प्रेम
व्यवस्थित हो
जाता है, तो
एक ढंग से वह
खत्म हो जाता
है। तब
तुम्हें शरीर
की चिंता करने
की कोई जरूरत
नहीं रहती।
तुम्हें कुछ
ध्यान रखने की
जरूरत नहीं।
तो यह व्यक्ति—मैं
जिसके बारे
में बात कर
रहा था—शायद
मृत्यु से
भयभीत होगा।
या शायद यह हो
कि उसे किसी
के साथ गहरा आंतरिक
प्रेम न हो।
और ये दोनों
बातें फिर
जुड़ी हुई हैं।
अगर तुम प्रेम
में पड़ जाते
हो तो तुम्हें
मृत्यु का भय
नहीं रहता।
प्रेम इतना
तृप्तिदायी
है कि तुम
फिक्र नहीं करते
कि भविष्य में
क्या होने
वाला है।
प्रेम स्वयं
एक परितृप्ति
है। अगर मृत्यु
भी आ जाती है, तो उसका भी
स्वागत किया
जा सकता है।
लेकिन यदि तुम
प्रेम में
नहीं हो, तब
मृत्यु भय उत्पन्न
करती है, क्योंकि
तुमने अभी तक
प्रेम भी नहीं
किया है और
मृत्यु पास
आती जा रही
है। और मृत्यु
हर चीज समाप्त
कर देगी और
कोई समय वहां
न बचेगा, कोई
भविष्य न होगा
उसके बाद।
यदि
जीवन में
प्रेम नहीं है, तो
मृत्यु का भय
अधिक होगा।
यदि प्रेम है,
तो मृत्यु
का भय कम होता
है। और यदि
समग्र प्रेम
होता है, तो
मृत्यु मिट
जाती है। ये
सब चीजें भीतर
से जुडी हुई
हैं। बहुत
सीधी—सरल
चीजें भी बहुत
बड़े ढांचों
में गहरे रूप
से बद्धमूल
होती हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने पशुओं के
चिकित्सक के
सामने अपने
कुत्ते के साथ
खड़ा हुआ था और
आग्रह कर रहा
था,
'मेरे
कुत्ते की
पूंछ काट दो।’
डॉक्टर
बोला, 'क्यों
नसरुद्दीन? अगर मैं
तुम्हारे
कुत्ते की
पूंछ काट दूं
तो यह खूबसूरत
कुत्ता नष्ट
हो जायेगा। वह
बदसूरत लगेगा।
तुम इस पर
क्यों जोर दे
रहे हो ' नसरुद्दीन
कहने लगा, 'तुम्हारे
और मेरे बीच
की बात है, इसे
किसी से कहना
नहीं। मैं
कुत्ते की
पूंछ कटवा
देना चाहता
हूं क्योंकि
मेरी सास
जल्दी ही आनेवाली
है और मैं
अपने घर में
स्वागत का कोई
लक्षण नहीं
चाहता। मैंने
हर चीज हटा दी
है। केवल यह
कुत्ता अब भी
मेरी सास का
स्वागत कर
सकता है।’
एक
कुत्ते की
पूंछ के तले
भी बहुत—से
संबंधों का
बड़ा ढांचा
होता है। और
अगर मुल्ला
नसरुद्दीन एक
कुत्ते के
द्वारा भी
अपनी सास का
स्वागत नहीं
कर सकता, तो
उसे अपनी
पत्नी से
प्रेम नहीं हो
सकता। यह असंभव
है। अगर
तुम्हें अपनी
पत्नी से
प्रेम है, तो
तुम सास का
स्वागत
करोगे। तुम
उसके प्रति प्रेमपूर्ण
होओगे।
वे
चीजें जो
बाहरी तौर पर
सीधी—सरल हैं, गहरे
तौर पर जटिल
चीजों में
बद्धमूल होती
है। और हर चीज
अंतर्संबंधित
होती है। तो
विचार को बदलने
भर से कुछ
नहीं बदलता है,
जब तक कि
तुम जटिल
ढांचे में
नहीं पहुंचो
और उसे सहज न
करो, असंस्कारित
न कर दो, नया
ढांचा न
निर्मित करो।
केवल तभी
इसमें से नया
जीवन उदित हो
सकता है। तो
इसे घटित होना
ही होता है।
अनासक्ति
होनी चाहिए हर
चीज के प्रति
अनासक्ति।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि
तुम आनंद लेना
बंद कर दो। यह
गलतफहमी रही
है। और योग का
बहुत ढंग से
गलत अर्थ
लगाया गया है।
जिनमें से एक
भ्रांत
व्याख्या यह
है कि योग कह
रहा है कि तुम
जीवन के प्रति
मरो, क्योंकि
अनासक्ति का
अर्थ है कि
तुम किसी चीज की
इच्छा नहीं
करते। यदि तुम
किसी चीज की
इच्छा नहीं करते,
यदि
तुम्हें किसी
चीज का मोह
नहीं है, यदि
तुम्हें किसी
चीज से प्रेम
नहीं है, तब
तुम सिर्फ एक
मुरदा लाश
होओगे।
नहीं, यह
अर्थ नहीं
हैं।
अनासक्ति का
अर्थ है ' किसी
चीज पर निर्भर
मत होओ। और
अपने जीवन तथा
खुशी को किसी
चीज पर निर्भर
मत बनने दो।
पसंद ठीक है, लेकिन मोह
ठीक नहीं है।
जब मैं कहता
हूं पसंद ठीक
है, तो
मेरा मतलब
होता है कि
तुम कुछ
ज्यादा पसंद कर
सकते हो, तुम्हें
पसंद करना ही
पड़ता है। अगर
बहुत—से लोग
हैं, तो
तुम्हें किसी
को प्रेम करना
होता है, तुम्हें
किसी को चुनना
पड़ता है, तुम्हें
किसी के साथ
मैत्रीपूर्ण
होना पड़ता है।
किसी को पसंद
करो, लेकिन
मोह मत बनाओ।
तो
अंतर क्या है? अगर
तुम आसक्ति
जोड़ लेते हो, तो वह
मोहग्रस्तता
बन जाता है।
यदि वह व्यक्ति
नहीं होता, तो तुम दुखी
हो जाते हो।
अगर तुम
व्यक्ति का अभाव
अनुभव करते हो,
तो तुम दुख
में पड़ जाते
हो। और आसक्ति
ऐसा रोग है कि
यदि व्यक्ति
वहां नहीं
होता तो तुम
दुख में पड़ते
हो, और यदि
वही व्यक्ति
वहां होता है
तो तुम तटस्थ
रहते हो। तब
तो ठीक ही है, इसे निश्चित
बात ही मान
लिया जाता है।
अगर व्यक्ति
मौजूद है, तो
ठीक है। इससे
ज्यादा कुछ
नहीं। लेकिन
अगर व्यक्ति
वहा नहीं होता
है, तो तुम
दुखी होते हो।
यह है आसक्ति,
मोह।
पसंद
इसके ठीक
विपरीत है।
यदि व्यक्ति
वहां नहीं
होता, तुम ठीक
होते हो। यदि
व्यक्ति पास
होता है, तुम
प्रसन्नता
अनुभव करते हो,
कृतश अनुभव
करते हो। यदि
व्यक्ति समीप
होता है, तो
तुम इसे। निश्चित
बात नहीं
मानते। तुम
प्रसन्न होते,
तुम इसका
आनंद अनुभव
करते, इसका
उत्सव मनाते।
लेकिन अगर
व्यक्ति पास
नहीं होता, तो तुम ठीक
रहते हो। तुम
मांग नहीं
करते, तुम
चिंता—ग्रसित
नहीं हो जाते।
तुम अकेले रह सकते
हो और खुश भी।
तुम ज्यादा
चाहते हो कि
वह व्यक्ति
वहां होता; लेकिन यह
कोई मोह नहीं
है।
पसंद
अच्छी होती है, मोह
एक बीमारी है।
और वह व्यक्ति
जो पसंद के साथ
जीता है, वह
गहरी
प्रसन्नता
में जीवन जीता
है। तुम उसे दुखी
नहीं बना
सकते। तुम उसे
केवल प्रसन्न
बना सकते हो।
लेकिन जो
व्यक्ति
आसक्ति सहित
जीता है, तुम
उसे प्रसन्न
नहीं बना
सकते। तुम उसे
केवल ज्यादा
दुखी बना सकते
हो। और तुम यह
जानते हो। तुम
यह खूब जानते
हो। यदि तुम्हारा
मित्र पास
होता है, तो
तुम इसमें
बहुत आनंद
नहीं मानते।
लेकिन अगर
तुम्हारा
मित्र नहीं
होता, तो
तुम उसकी कमी
बहुत महसूस
करते हो।
अभी
कुछ ही दिन
पहले एक युवती
मेरे पास आयी।
वह दो महीने
पहले अपने
प्रेमी के साथ
मुझसे मिलने
आयी थी। वे
लगातार
एक—दूसरे से
लड़ते रहते थे।
लड़ाई एक रोग
बन चुकी थी।
इसलिए मैंने
उनसे कुछ
सप्ताह के लिए
अलग रहने को
कहा था। वे
बता चुके थे
कि इकट्ठे
रहना असंभव था, इसलिए
मैंने उन्हें
अलग कर दूर
भेज दिया था।
वह
लड़की यहीं थी
क्रिसमस ईव को, और
उसने कहा, 'इन
दो महीनों में,
मैंने अपने
प्रेमी की कमी
बहुत ज्यादा
महसूस की है।
मैं लगातार
उसके बारे में
सोच रही हूं।
मेरे सपनों तक
में भी वह
दिखाई देने
लगा है। पहले
ऐसा कभी न हुआ
था। जब हम
साथ—साथ थे, मैंने उसे
अपने सपनों
में कभी न
देखा था। मैं
अपने सपनों
में दूसरे
पुरुषों के
साथ संभोग
करती थी।
लेकिन अब निरंतर
मेरा प्रेमी
मेरे सपनों
में रहता है।
अब हमें फिर
इकट्ठा रहने
दीजिए।’
तो
मैंने उससे
कहा,
'इसमें कुछ
अड़चन नहीं, तुम फिर से
एक साथ रह
सकते हो।
लेकिन जरा इसे
खयाल में लेना
कि अभी दो
महीने पहले ही
तुम साथ रह
रहे थे और तुम
बिलकुल खुश न
थे।’
मोह
एक बीमारी है।
जब तुम एक साथ
होते हो, तुम
सुखी नहीं
होते। यदि
तुम्हारे पास
धन—दौलत हो, तो तुम सुखी
नहीं होते।
लेकिन तुम
दुखी होओगे, अगर तुम
गरीब हो। अगर
तुम स्वस्थ
होते हो, तो
तुम कभी
कृतज्ञता
अनुभव नहीं
करते। अगर तुम
स्वस्थ होते
हो, तो तुम
कभी अस्तित्व
के प्रति कृतश
अनुभव नहीं
करते। लेकिन
अगर तुम बीमार
होते हो, तो
तुम सारे जीवन
की और
अस्तित्व की
निंदा कर रहे
होते हो। हर
चीज अर्थहीन
होती है और
कहीं कोई
ईश्वर नहीं
होता।
एक
मामूली—सा सिरदर्द
भी काफी है
तुम्हें ऐसा
बना देने को
कि तुम ईश्वर
को व्यर्थ मान
लो। लेकिन जब
तुम प्रसन्न
और स्वस्थ
होते हो, तो
तुम केवल
धन्यवाद देने
के लिए चर्च
या मंदिर जाने
जैसा अनुभव
नहीं करते कि,
'मैं खुश
हूं और मैं
स्वस्थ हूं और
मैंने इन्हें
अर्जित नहीं
किया है। ये
तुम्हारे
द्वारा दिये
गये उपहार हैं।’
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार एक नदी
में गिर गया, और
वह बस डूबने
ही वाला था।
वह कोई
धार्मिक आदमी
नहीं था, लेकिन
अचानक मृत्यु
की कगार पर
खडा वह जोर से चीख
पड़ा, 'अल्लाह,
ईश्वर, कृपा
करके मुझे
बचायें, मदद
करें। और आज
से मैं प्रार्थना
किया करूंगा,
जो कुछ
धर्मशास्रों
में लिखा है, मैं करूंगा।’
जब
वह कह रहा था 'ईश्वर,
मेरी मदद
करो ', तभी
उसने नदी के
ऊपर लटक रही
एक शाखा को
पकड़ लिया। जब
वह उसे पकड़
रहा था, सुरक्षा
की ओर पहुंच
रहा था, उसने
आराम अनुभव
किया और वह
बोला, ' अब
ठीक है। अब तुम्हें
फिक्र करने की
जरूरत नहीं।’
उसने फिर
ईश्वर से कहा,
' अब
तुम्हें
फिक्र करने की
जरूरत नहीं।
अब मैं
सुरक्षित हूं।’
अचानक शाखा
टूट गयी और वह
फिर गिर पड़ा
तो वह बोला, 'क्या तुम
सीधा—सा मजाक
नहीं समझ सकते?'
लेकिन
हमारे मन इसी
तरह चल—फिर
रहे हैं। मोह
तुम्हें
ज्यादा और
ज्यादा दुखी
बनाता जायेगा।
पसंद तुम्हें
ज्यादा से
ज्यादा सुखी
बनायेगी।
पतंजलि
विरुद्ध हैं
मोह के, पर
पसंद के नहीं।
हर किसी को
चुनना पड़ता है।
हो सकता है
तुम एक भोजन
पसंद करो, शायद
दूसरा तुम
पसंद न करो।
लेकिन यह तो
बस पसंद है।
यदि तुम्हारी
पसंद का भोजन
उपलब्ध नहीं
होता है, तब
तुम दूसरा
भोजन चुन लोगे।
और तुम
प्रसन्न
होओगे
क्योंकि तुम
जानते हो, पहला
वाला उपलब्ध
नहीं है और जो
कुछ भी उपलब्ध
है उसका आनंद
लेना पड़ता है।
तुम
चिल्लाओगे और
रोओगे नहीं।
तुम जीवन को
स्वीकार लोगे
जिस भांति वह
घटित हो।
लेकिन
जो आदमी
लगातार हर चीज
से मोह जोड़े
रखता है, वह
कभी किसी चीज
का आनंद नहीं
मना सकता और
हमेशा अभाव
अनुभव करता है।
सारा जीवन एक
सतत दुख बन
जाता है। अगर
तुम मोह नहीं
रखते हो, तो
तुम मुक्त
होते हो।
तुम्हारे पास
बहुत ऊर्जा
होती है। तुम
किसी चीज पर
निर्भर नहीं
होते। तुम
स्वतंत्र
होते हो और यह
ऊर्जा आंतरिक
प्रयास में
प्रवाहित की
जा सकती है।
यह ऊर्जा
अभ्यास बन
सकती है।
अभ्यास क्या
है? अभ्यास
है पुराने
अभ्यस्त
ढांचों से
लड़ना। हर धर्म
ने बहुत सारे
अभ्यास
विकसित किये
हैं, लेकिन
उनका आधार
पतंजलि का यह
सूत्र है।
उदाहरण
के लिए, जब
कभी तुम्हें
यह पता चले कि
तुम्हें
क्रोध आ रहा
है तो इसे सतत
अभ्यास बना लो
कि क्रोध में प्रवेश
करने के पहले
तुम पांच गहरी
सांसें लो। यह
एक सीधा—सरल
अभ्यास है। स्पष्टतया
क्रोध से
बिलकुल
संबंधित नहीं
है और कोई इस
पर हंस भी
सकता है कि
इससे मदद कैसे
मिलने वाली है?
लेकिन इससे
मदद मिलने
वाली है।
इसलिए जब कभी
तुम्हें
अनुभव हो कि
क्रोध आ रहा
है तो इसे
व्यक्त करने
के पहले पांच
गहरी सांस
अंदर खींचो और
बाहर छोड़ो।
क्या
होगा इससे? इससे
बहुत सारी
चीजें हो
पायेंगी।
क्रोध केवल
तभी हो सकता
है अगर तुम
होश नहीं रखते।
और यह श्वसन
एक सचेत
प्रयास है। बस,
क्रोध
व्यक्त करने
से पहले जरा
होशपूर्ण ढंग से
पांच बार अंदर—बाहर
सांस लेना। यह
तुम्हारे मन
को जागरूक बना
देगा। और जागरूकता
के साथ क्रोध
प्रवेश नहीं
कर सकता। और
यह केवल
तुम्हारे मन
को ही जागरूक
नहीं बनायेगा,
यह
तुम्हारे
शरीर को भी जागरूक
बना देगा, क्योंकि
शरीर में
ज्यादा
ऑक्सीजन हो तो
शरीर ज्यादा जागरूक
होता है। जागरूकता
की इस घड़ी में,
अचानक तुम
पाओगे कि
क्रोध विलीन
हो गया है।
दूसरी
बात,
तुम्हारा
मन केवल एक—विषयी
हो सकता है।
मन दो बातें
साथ—साथ नहीं
सोच सकता; यह
मन के लिए
असंभव है। यह
एक से दूसरी
चीज में बहुत
तेजी से
परिवर्तित हो
सकता है। दो
विषय एक साथ
एक ही समय मन
में नहीं हो
सकते। एक चीज
होती है, एक
वक्त में। मन
का गलियारा
बहुत संकरा
होता है। एक
वक्त में केवल
एक चीज वहां
हो सकती है।
इसलिए यदि
क्रोध वहां
होता, तो
क्रोध वहां
होता है, लेकिन
यदि तुम पांच
बार सांस अंदर—बाहर
लो, तो
अचानक मन सांस
लेने के साथ
संबंधित हो
जाता है। वह
दूसरी दशा में
मोड़ दिया गया
है। अब वह अलग
दिशा में बढ़
रहा होता है।
और यदि तुम
फिर क्रोध की
ओर सरकते भी
हो, तो तुम
फिर से वही
नहीं हो सकते
क्योंकि वह घड़ी
जा चुकी है।
गुरजिएफ
ने कहा था, जब
मेरे पिता मर
रहे थे, उन्होंने
मुझसे केवल एक
बात याद रखने
को कहा, 'जब
कभी तुम्हें
क्रोध आये तो
चौबीस घंटे
प्रतीक्षा
करो, और
फिर वह करो जो
कुछ भी तुम
चाहते हो। अगर
तुम जाकर कत्ल
भी करना चाहते
हो, जाओ और
कर दो कत्ल, लेकिन चौबीस
घंटे
प्रतीक्षा
करना।’
चौबीस
घंटे तो बहुत
ज्यादा है; चौबीस
सेकंड चल
जायेंगे।
प्रतीक्षा
करना मात्र
तुम्हें बदल
देता है। वह
ऊर्जा जो
क्रोध की ओर
बह रही है, नया
रास्ता अपना
लेती है। यह
वही ऊर्जा है।
यह क्रोध बन
सकती है, यह
करुणा बन सकती
है। इसे जरा
मौका दे दो।
तो
पुराने
शास्त्र कहते
है,
'यदि कोई
अच्छा विचार
तुम्हारे मन
में आता है, तो उसे
स्थगित मत करो;
उस काम को
तुरंत करो। और
यदि कोई बुरा
विचार मन में
आता है, तो
उसे स्थगित कर
दो; उसे
तत्काल कभी मत
करो।’ लेकिन
हम बहुत चालाक
हैं, बहुत
होशियार। हम
सोचते हैं, और जब भी कोई
अच्छा विचार
आता है, हम
उसे स्थगित कर
देते है।
मार्क
ट्वेन ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है कि
वह दस मिनट तक
एक पादरी को
सुन रहा था, किसी
चर्च में।
व्याख्यान तो
असाधारण था और
उसने अपने मन
में सोचा, आज
मुझे दस डॉलर
दान करने ही
हैं। यह पादरी
अद्भुत है। इस
चर्च की मदद
की ही जानी
चाहिए! उसने
निर्णय ले
लिया कि
व्याख्यान के
बाद उसे दस
डॉलर दान करने
ही हैं। दस
मिनट और हुए
और वह सोचने
लगा कि दस
डालर तो बहुत
ज्यादा होंगे।
पांच से काम
चलेगा। दस
मिनट और हुए
और उसने सोचा,
'यह आदमी तो
पांच के लायक
भी नहीं है।’
अब
वह कुछ सुन भी
नहीं रहा था।
अब वह उन दस
डॉलर के लिए
चिंतित था।
उसने इस विषय
में किसी से
कुछ नहीं कहा
था,
लेकिन अब वह
अपने को यकीन
दिला रहा था
कि यह तो बहुत
ज्यादा था।
जिस समय तक
व्याख्यान
समाप्त हुआ, उसने कहा, 'मैने कुछ न
देने का फैसला
किया। और जब
वह आदमी मेरे
सामने चंदा
लेने आया, वह
आदमी जो इधर
से उधर जा रहा
था चंदा
इकट्ठा करने
के लिए, मैंने
कुछ डॉलर उठा
लेने और चर्च
से भागने तक की
बात सोच ली।’
मन
निरंतर
परिवर्तित हो
रहा है। यह
गतिहीन कभी
नहीं है; यह एक
प्रवाह है। तो
अगर कुछ बुरा
वहां है, तो
थोड़ी
प्रतीक्षा करना।
तुम मन को
स्थिर नहीं कर
सकते। मन एक
प्रवाह है। बस,
थोड़ी
प्रतीक्षा
करना और तुम
बुरा नहीं कर
पाओगे। लेकिन
अगर कुछ अच्छा
होता है और
तुम उसे करना चाहते
हो, तो
फौरन उसे कर
डालो क्योंकि
मन परिवर्तित
हो रहा है।
कुछ मिनटों के
बाद तुम उसे
कर न पाओगे।
तो अगर वह
प्रेमपूर्ण
और भला कार्य
है, तो उसे
स्थगित मत करो।
और अगर यह कुछ
हिंसात्मक या
विध्वंसक है,
तो उसे थोड़ा—सा
स्थगित कर दो।
यदि
क्रोध आये, तो
उसे पांच
सांसों तक
स्थगित करना,
और तुम
क्रोध कर न
पाओगे। यह एक
अभ्यास बन
जायेगा। हर
बार जब क्रोध
आये, पहले
अंदर सांस लो
और बाहर
निकालो पांच
बार। फिर तुम
मुक्त हो वह
करने के लिए, जो तुम करना
चाहते हो।
निरंतर इसे
किये जाओ। यह
आदत बन जाती
है, तुम्हें
इसके बारे में
सोचने की भी जरूरत
नहीं। जिस
क्षण क्रोध
प्रवेश करता
है, तुम्हारे
अंदर का
रचनातंत्र
तेज, गहरी
सांस लेने
लगता है। तुम
सांस शांत और
शिथिल लेने
लगो, तो
कुछ वर्षों के
भीतर
तुम्हारे लिए
नितांत असंभव
हो जायेगा
क्रोध करना।
तुम क्रोधित
हो नहीं पाओगे।
कोई
अभ्यास, कोई
सचेतन प्रयास
तुम्हारे
पुराने ढांचे
को बदल सकता
है। लेकिन यह
कोई ऐसा कार्य
नहीं है जो
तुरंत किया जा
सकता हो। इसमें
समय लगेगा
क्योंकि
तुमने अपनी आदतो
का ढांचा बहुत
से जन्मों से
बनाया है। यदि
तुम एक जीवन
में भी इसे
बदल सको, तो
यह बहुत जल्दी
है।
मेरे
संन्यासी
मेरे पास आते
और वे कहते
हैं,
'कब घटित
होगा यह?' मैं
कहता हूं 'जल्दी।’
तब वे कहते
हैं, आपके
इस जल्दी का
क्या अर्थ है?
क्योंकि
वर्षों से आप
हमें कहते आ
रहे हैं 'जल्दी'।
अगर
यह एक जीवन
में भी घटित
हो जाता है, यह
जल्दी ही है।
जब भी यह घटित
होता है, उसे
समय से पहले
घटित हुआ समझो।
क्योंकि
तुमने अपना
ढांचा बहुत
जन्मों से निर्मित
किया है। उसे
नष्ट करना
पड़ता है। अत:
अगर यह बात
कभी कई जीवन
भी ले ले तो
बहुत ज्यादा
देर नहीं हुई
होती है।
मन की
समाप्ति सतत आंतरिक
अभ्यास और
वैराग्य
द्वारा लायी
जा सकती है।
इन दो में से
अभ्यास आंतरिक
अभ्यास स्वयं
में दृढता से
प्रतिष्ठित
होने का
प्रयास है।
अभ्यास
का सार है
स्वयं में
केंद्रित होना।
जो कुछ भी
घटित हो, तुम्हें
तुरंत नहीं
प्रभावित
होना चाहिए।
पहले तुम्हें
स्वयं में
केंद्रित हो
जाना चाहिए और
फिर उस
केंद्रस्थ
दशा से आस—पास
देखना चाहिए
और फिर निर्णय
लेना चाहिए।
कोई
तुम्हारा
अपमान कर देता
है और तुम उस
अपमान द्वारा
धकेल दिये
जाते हो। अपने
केंद्र का
संपर्क किये
बगैर तुम आगे
बढ़ गये हो। एक
क्षण के लिए
भी केंद्र तक
वापस गये बगैर
फिर आगे बढ़
रहे हो, तुम
आगे सरक चुके
हो।
अभ्यास
का अर्थ है आंतरिक
प्रयास।
सचेतन प्रयास
का अर्थ है, 'इससे
पहले कि मैं
बाहर बढूं
मुझे भीतर
बढना चाहिए।
पहले मुझे
अपने केंद्र
से संपर्क
स्थापित करना
चाहिए। वहां
केंद्रित
होकर मैं
स्थिति पर
दृष्टि डालूंगा
और फिर निर्णय
लूंगा।’ और
यह इतनी बड़ी, इतनी रूपांतरकारी
घटना है कि एक
बार तुम भीतर
केंद्रित हो
जाते हो तो
सारी बात ही
अलग दिखाई
पड़ने लगती है,
परिप्रेक्ष्य
बदल चुका होता
है। तब अपमान
शायद अपमान
जैसा न लगे।
हो सकता है वह
आदमी तो बस
मूर्ख लगे। या
अगर तुम
वास्तव में
केंद्रित हो
गये हो, तो
तुम शायद जान
जाओ कि वह ठीक
है; कि यह
कोई अपमान
नहीं है। वह
तुम्हारे
बारे में कुछ
गलत नहीं बोला
है।
मैंने
सुना है कि एक
बार ऐसा
हुआ—मैं नहीं
जानता कि यह
सच है या नहीं, लेकिन
मैंने यह
किस्सा सुना
है—कि एक
अखबार लगातार
रिचर्ड
निक्सन के
विरुद्ध लिख
रहा था। लगातार!
वह उसे बदनाम
कर रहा था
उसकी निंदा कर
रहा था, इसलिए
रिचर्ड
निक्सन
संपादक के पास
गया और बोला, 'तुम क्या कर
रहे हो? तुम
मेरे बारे में
झूठी बातें कह
रहे हो और तुम
इसे खूब अच्छी
तरह से जानते
हो। वह संपादक
बोला, 'हां,
हम जानते
हैं कि हम
आपके बारे में
झूठ कह रहे हैं।
लेकिन यदि हम
आपके बारे में
सच कहना शुरू कर
दें, तो आप
ज्यादा
मुसीबत में पड़
जायेंगे।’
इसलिए
अगर कोई
तुम्हारे
बारे में कुछ
कह रहा है तो
हो सकता है वह
झूठ कह रहा हो, लेकिन
फिर से इस पर
विचार करना।
यदि वह वास्तव
में सच कह रहा
होता, वह
इससे बुरा हो
सकता था। या
जो कुछ भी वह
कह रहा है, शायद
तुम पर लागू
भी होता हो।
जब तुम
केंद्रित हो
जाते हो, तब
तुम भी स्वयं
को तटस्थ ढंग
से देख सकते
हो।
पतंजलि
कहते हैं कि
इन दोनों में
से अभ्यास, आंतरिक
अभ्यास स्वयं
में दृढ़ता से
प्रतिष्ठित
होने का
प्रयास है।
कार्य में
बढ़ने से पहले—किसी
किस्म का
कार्य, तुम
स्वयं के भीतर
उतरो; पहले
भीतर
प्रतिष्ठित
हो जाओ, एक
क्षण के लिए
भी, और
तुम्हारा
व्यवहार
समग्र रूप से
अलग होगा। वह
वही पुराना
बेहोश ढांचा
नहीं हो सकता।
वह कुछ नया ही
होगा, वह
एक जीवंत
प्रति—संवेदन
होगा। इसलिए
इसे जरा
प्रयोग करना।
जब कभी तुम
अनुभव करो कि
तुम कोई कार्य
या व्यवहार
करने वाले हो,
पहले भीतर
उतर जाना।
अब
तक तुम जो कुछ
भी करते रहे
हो रोबोट जैसा, यत्रमानव
जैसा बन गया
है। यंत्रवत।
तुम इसे
दोहराव भरे
चक्र में
लगातार किये
चले जा रहे
हो। अगर तुम
बीस दिन तक एक
डायरी में हर
चीज बस पूरी
तरह से लिख लो
जो सुबह से
शाम तक घटित
होती है, तो
तुम ढांचे को
देख पाओगे।
तुम मशीन की
भांति चल—फिर
रहे हो। तुम
आदमी नहीं हो।
तुम्हारे प्रति—संवेदन
मुरदा हैं। जो
कुछ भी तुम
करते हो, पहले
से अनुमानित
होता है। और
अगर तुम गहरे
उतर कर अपनी
डायरी को
ध्यान से
जांचो, तो
हो सकता है, तुम ढांचे
का अर्थ निकाल
पाओ। उदाहरण
के लिए ढांचा
ऐसा हो सकता
है कि सोमवार
को, हर
सोमवार को तुम
क्रोध में होओ;
हर इतवार को
तुम काम—वासना
महसूस करो; हर शनिवार
तुम लड़ रहे
होओ। या सुबह
शायद तुम अच्छा
अनुभव करते हो;
दोपहर में
हो सकता है
तुम दुखद
अनुभव करो, और शाम तक
तुम सारे
संसार के
विरुद्ध हो
जाते हो। तुम
ढांचे को समझ
सकते हो। और
एक बार तुम ढांचे
को समझ लेते
हो, तो बस
तुम देख सकते
हो कि तुम
रोबोट की तरह
यंत्रवत कार्य
कर रहे हो।
यंत्रवत हो
जाना ही दुख
है। तुम्हें
बोधपूर्ण
होना है, कोई
यांत्रिक चीज
नहीं।
गुरजिएफ
कहा करता था, 'जैसा
कि आदमी है, वह एक मशीन
है।’ तभी
तुम मनुष्य
बनते हो, जब
तुम होशपूर्ण
बनते हो। और
स्वयं में
दृढ़ता से
स्थिर होने का
यह सतत प्रयास
तुम्हें बोधपूर्ण
बना देगा, तुम्हें
गैर—यांत्रिक
बना देगा, तुम्हें
अननुमेय
(अनप्रेडिक्टेबल)
बना देगा, तुम्हें
मुक। बना
देगा। तब कोई
तुम्हारा अपमान
कर सकता है और
तुम फिर भी
हंस सकते हो।
उससे पहले तुम
कभी नहीं हंसे
हो, जब यह
घटित हुआ है।
कोई तुम्हारा
अपमान कर सकता
है और तुम
उसके प्रति
कृतज्ञ हो
सकते हो। कुछ
नया उत्पन्न
हो रहा है।
तुम अपने भीतर
एक सचेतन अस्तित्व
निर्मित कर
रहे हो।
क्रियाशील
होने का अर्थ
है : बाहर की ओर
बढ़ना, दूसरों
की ओर चलना, स्वयं से
दूर जाना। हर
क्रिया स्वयं
से दूर जाना
है। क्रिया
में चले जाने
से पहले, इससे
पहले कि तुम
दूर जाओ, पहली
बात यह करनी
है कि एक बार
गौर से देखो; संपर्क बनाओ;
डुबकी लो
अपने आंतरिक
अस्तित्व में।
पहले स्थिर हो
जाओ।
हर
कर्म के पहले
वहां एक क्षण
ध्यान का होने
दो। यह अभ्यास
है। जो कुछ भी
तुम करो, उसे
करने से पहले
अपनी आंखें
बंद कर लो, मौन
बने रहो, भीतर
उतरो। बस
तटस्थ बन जाओ,
अनासक्त, ताकि तुम
प्रेक्षक की
तरह देख सको—पक्षपातशून्य—जैसे
कि तुम
सम्मिलित ही
नहीं हो; तुम
केवल एक
साक्षी हो। और
फिर आगे बढ़ो।
एक
दिन सबेरे—सबेरे, मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मुल्ला
से बोली, 'रात
को जब तुम
सोये थे, तो
तुम मेरा
अपमान कर रहे
थे। तुम मेरे
विरुद्ध
बातें कह रहे
थे, मेरे
विरुद्ध गाली
दे रहे थे।
तुम्हारा
मतलब क्या है,
तुम्हें
साफ बताना
होगा।’ मुल्ला
नसरुद्दीन
कहने लगा, 'पर
किसने कहा कि
मैं सोया था? मैं सोया
हुआ नहीं था।
यही है कि जो
बातें मैं
कहना चाहता
हूं मैं दिन
में नहीं कह
सकता। मैं
इतना अधिक
साहस इकट्ठा
नहीं कर सकता।’
अपने
सपनों में, अपने
जागने में, तुम लगातार
कुछ बातें कर
रहे हो, लेकिन
वे बातें चेतन—स्वप्न
से नहीं की
जाती हैं। यह
तो ऐसे जैसे
कि उन्हें
करने को तुम
मजबूर किये जा
रहे हो।
तुम्हारे
सपनों में भी
तुम मुक्त
नहीं हो। और
यह सतत
यांत्रिक
व्यवहार बंधन
है।
तो
स्वयं में
स्थिर कैसे
हों?
—अभ्यास
द्वारा।
सूफी
निरंतर इसका
प्रयोग करते
हैं। इससे
पहले कि कोई
चीज सूफी कहे
या करे, इससे
पहले कि वह
बैठता है या
खड़ा होता है, जो कुछ भी
करता है इससे
पहले—उदाहरण
के लिए—इससे
पहले, कि
कोई सूफी
शिष्य खड़ा हो,
वह अल्लाह
का नाम लेगा।
पहले वह
अल्लाह का नाम
लेगा। जब वह
बैठेगा उससे
पहले वह
अल्लाह का नाम
लेगा। किसी
कार्य को करने
से पहले—और
बैठना भी एक
क्रिया है—वह
कहेगा, ' अल्लाह।’
तो बैठते
हुए वह कहेगा,
' अल्लाह।’ खड़े होते
हुए वह कहेगा,
' अल्लाह।’ और अगर इसे
जोर से कहना
संभव न हो, तो
वह इसे भीतर
कह देगा। हर
कार्य अल्लाह
के स्मरण के
साथ किया जाता
है। और धीरे—धीरे
यह स्मरण एक
सतत अवरोध बन
जाता है उसके
और क्रिया के
बीच। एक
विभाजन, एक
खाली जगह।
जितनी
ज्यादा यह
खाली जगह बढ़ती
है,
उतने
ज्यादा वह
अपने कार्य पर
दृष्टि डाल
सकता है, जैसे
कि वह कर्ता
हो ही नहीं।
धीरे—धीरे
अल्लाह की
निरंतर
पुनरुक्ति
द्वारा वह समझने
लगता है कि
केवल अल्लाह
ही कर्ता है।
वह अनुभव करता
है, मैं
कर्ता नहीं
हूं। मैं केवल
एक साधन हूं
या एक उपकरण।
और जिस क्षण
यह अंतर बढ़ता
है, सब जो
बुरा है, गिर
जाता है। तुम
बुरा नहीं कर
सकते। तुम
बुरा कर सकते
हो, केवल
जब कर्ता और
कर्म के बीच
कोई अंतर न हो।
अंतर के साथ
शुभ स्वचालित
ढंग से आता है।
जितना
बड़ा अंतर
कर्ता और कर्म
के बीच हो, उतनी
ज्यादा
अच्छाई वहां
होती है। जीवन
एक पवित्र
घटना बन जाती
है। तुम्हारा
शरीर एक मंदिर
बन जाता है।
और कोई भी चीज
जो तुम्हें जागरूक
बनाती है, तुम्हें
भीतर ठहरा हुआ
बनाती है, अभ्यास
है।
इन
दो में से
अभ्यास— आंतरिक
अध्यास
प्रयास है
स्वयं में
दृढ़ता से
स्थिर होने का।
बिना किसी
व्यवधान के
श्रद्धा से
भरी निष्ठा के
साथ लगातार
लंबे समय तक
इसे जारी रखने
से यह दृढ़
अवस्था वाला
हो जाता है।
दो
बातें है।
पहली बात—बहुत
लंबे समय तक
निरंतर
अभ्यास।
लेकिन कितने
समय तक रे यह
निर्भर करेगा।
यह तुम पर
निर्भर करेगा, एक—एक
व्यक्ति पर। समय
की लंबाई
निर्भर करेगी
प्रगाढ़ता पर।
अगर प्रगाढ़ता समग्र
है, तब यह
बहुत जल्दी घट
सकता है—तत्काल
भी! अगर
प्रगाढ़ता
बहुत गहन नहीं
है, तब यह
बात ज्यादा
लंबा समय लेगी।
मैंने
सुना है कि एक
सूफी
रहस्यवादी, जुन्नैद
टहल रहा था।
सुबह को अपने
गांव के बाहर
ही सैर कर रहा
था। एक आदमी
दौड़ता हुआ
उसके पास आया
और जुन्नैद से
पूछने लगा, 'इस राज्य की
राजधानी... मैं
राजधानी तक
पहुंचना
चाहता हूं तो
मुझे अब और
कितनी देर तक
यात्रा करनी
पड़ेगी? कितनी
देर लगेगी
इसमें मे '
जुन्नैद
ने उस आदमी की
तरफ देखा और
उसे उत्तर दिये
बिना फिर टहलना
शुरू कर दिया।
वह आदमी भी
उसी दिशा में
जा रहा था, इसलिए
वह पीछे—पीछे
हो लिया। उस
आदमी ने सोचा,
यह बूढ़ा
व्यक्ति बहरा
लगता है।
इसलिए दूसरी
बार उसने जोर
से पूछा, 'मैं
जानना चाहता
हूं कि
राजधानी तक
पहुंचने में
कितना समय
लगेगा?'
जुन्नैद
अब भी चलता जा
रहा था। उस
आदमी के साथ
दो मील चलने
के बाद
जुन्नैद ने कहा, 'तुम्हें
कम से कम दस
घंटे चलना
पड़ेगा।’ वह
आदमी बोला, 'लेकिन यह
तुम पहले कह
सकते थे।’ जुन्नैद
बोला, 'यह
मैं कैसे कह
सकता था? पहले
मुझे
तुम्हारी
रफ्तार देखनी
थी। यह
तुम्हारी
रफ्तार पर
निर्भर करता
है। तो दो मील
तक मैं ध्यान
से देखता रहा,
यह जानने के
लिए कि
तुम्हारी
रफ्तार क्या
है। केवल तभी
मै जवाब दे
सकता था।’ तो
यह तुम्हारी
प्रगाढ़ता पर
निर्भर करता
है, तुम्हारी
रफ्तार पर।
पहली
बात है, लंबे
समय तक का सतत
अभ्यास बिना
किसी रुकाव के।
इसे याद रखना
है। अगर तुम
अपने अभ्यास
का क्रम भंग
करते हो, अगर
तुम कुछ दिनों
के लिए इसे
करते हो और
फिर कुछ दिनों
के लिए इसे
छोड़ देते हो, तो सारा
प्रयत्न खो
जाता है। फिर
जब तुम शुरू
करते हो
दोबारा, तो
फिर यह एक
शुरुआत होती
है।
अगर
तुम ध्यान कर
रहे हो और फिर
तुम कहते हो
कि कुछ दिनों
के लिंए इसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता, यदि तुम
सुस्त अनुभव
करते हो, यदि
तुम सोया हुआ
अनुभव करते हो
और तुम कहते हो,
मैं इसे
स्थगित कर
सकता हूं मैं
इसे कल कर सकता
हूं तो याद
रखो कि एक दिन
भी गंवाना
बहुत दिनों के
कार्य को
विनष्ट कर
देता है! तुम
उस दिन ध्यान
नहीं कर रहे हो,
पर तुम
दूसरी बहुत—सी
चीजें कर रहे
होओगे। वे
दूसरी बहुत
सारी चीजें
तुम्हारे
पुराने ढांचे
से संबंध रखती
है, अत: एक
तह निर्मित हो
जाती है।
तुम्हारा
बीता कल
तुम्हारे आने
वाले कल से अलग
हो जाता है।
आज एक तह बन
चुकी है, एक
विभिन्न तह।
निरंतरता खो
गयी है। और जब
तुम कल फिर से शुरू
करते हो तो वह
फिर एक शुरुआत
होती है।
मैंने बहुत से
लोगों को देखा
है प्रारंभ
करते, समाप्त
करते, फिर
प्रारंभ करते।
वह काम जो
महीनों के
भीतर किया जा
सकता है, वे
उसे करने में
कई वर्ष लगा
देते है।
तो
इसे ध्यान में
रखना है—बिना
व्यवधान के। जो
कुछ भी तुम
चुनो, उसे
अपनी सारी
जिंदगी के लिए
चुनी। बस उस
पर ही चोट
करते जाओ। मन
की मत सुनो।
मन तुम्हें
राजी करने की
कोशिश करेगा।
और मन बड़ा
बहकाने वाला
है। मन
तुम्हें सब
प्रकार के
कारण दे सकता
है—जैसे कि आज
तुम्हें
अभ्यास नहीं
करना चाहिए क्योंकि
तुम बीमार
अनुभव कर रहे
हो; या सिर
दर्द है और
तुम रात को सो
नहीं सके; या
तुम इतने
ज्यादा थक
चुके हो कि यह
अच्छा होगा, अगर तुम
आराम ही कर
सको। लेकिन ये
मन की
चालाकियां
हैं।
मन
अपने पुराने
ढांचे पर चलना
चाहता है।
लेकिन मन अपने
पुराने ढांचे
पर क्यों चलना
चाहता है? क्योंकि
इसमें
न्यूनतम
प्रतिरोध
होता है। यह
ज्यादा आसान
है। और हर कोई
ज्यादा आसान
मार्ग पर चलना
चाहता है, ज्यादा
आसान दिशा में।
मन के लिए यह
आसान है—पुराने
के पीछे चलना।
नया कठिन होता
है।
मन
हर उस चीज का
विरोध करता है
जो नयी है। तो
अगर तुम
प्रयोग में हो, अभ्यास
में, तो मन
की मत सुनो, बस किये चले
जाओ। धीरे—धीरे
यह नया अभ्यास
मन में गहरे
उतर जायेगा।
और मन इसका
विरोध करना
समाप्त कर
देगा क्योंकि
तब यह कहीं
आसान हो
जायेगा। तब यह
एक सहज प्रभाव
होगा मन के
लिए। जब तक यह
सहज प्रवाह न
बन जाये, इसे
रोकना मत। तुम
बड़े प्रयास को
व्यर्थ कर
सकते हो थोड़ी—सी
सुस्ती
द्वारा। अत:
अभ्यास
अविच्छिन्न स्वप्न
से किया जाना
चाहिए।
और
दूसरी बात, तुम्हें
श्रद्धाभरी
निष्ठा के साथ
अभ्यास करना
चाहिए। तुम
अभ्यास कर
सकते हो
यांत्रिक ढंग
से, बिना
किसी प्रेम के,
बिना
निष्ठा के, उसके प्रति
पावनता की
अनुभूति के
बिना। तब
इसमें बहुत
लंबा समय
लगेगा, क्योंकि
केवल प्रेम
द्वारा चीजें
आसानी से तुम्हारे
भीतर उतरती
हैं। निष्ठा
के द्वारा तुम
खुले होते हो,
ज्यादा
खुले। बीज
अधिक गहरे
गिरता है।
बिना
निष्ठा के तुम
अभ्यास कर
सकते हो उसी
चीज का। एक
मंदिर को
देखते हो, जहां
किराये का
पुजारी होता
है! वर्षों से
वह लगातार
प्रार्थनाएं
किये चला
जायेगा, बिना
किसी परिणाम
के, इसमें
किसी परितोष
के बिना। वह इसे
कर रहा है
जैसा कि इसे
निर्धारित
किया गया है।
लेकिन यह काम
बगैर निष्ठा
का है। वह
निष्ठा दिखा
सकता है, लेकिन
वह नौकर मात्र
है। उसे अपने
वेतन में रुचि
है; प्रार्थना
में नहीं, पूजा
में नहीं, धार्मिक
अनुष्ठान में
नहीं। इसे
करना ही पड़ेगा।
यह एक कर्तव्य
है, यह कोई
प्रेम नहीं है।
इसलिए वह ऐसा
वर्षों तक
करेगा। अपनी
पूरी जिंदगी
वह किराये का
पुजारी ही बना
रहेगा, एक
वेतनभोगी
आदमी। और अंत
में वह ऐसे मर
जायेगा, जैसे
कि उसने कभी
प्रार्थना की
ही न थी। हो
सकता है वह
मंदिर में
प्रार्थना
करते हुए मरे,
लेकिन ऐसे
वह मरेगा, जैसे
कि उसने कभी
प्रार्थना
नहीं की थी, क्योंकि
उसमें कोई
निष्ठा न थी।
अत:
अभ्यास मत करो—बिना
निष्ठा के, क्योंकि
तब तुम अनावश्यक
स्वप्न से
ऊर्जा गंवा
रहे हो। बहुत
घटित हो सकता
है इसमें से, अगर निष्ठा
वहां हो। क्या
है अंतर न:
अंतर है प्रेम
और कर्तव्य के
बीच का।
कर्तव्य वह
कुछ है, जिसे
तुम्हें करना
पड़ता है। तुम
आनंदित नहीं
होते उसे करते
हुए। तुम्हें
किसी तरह उसे
ढोना पड़ता है।
तुम्हें उसे
जल्दी समाप्त
करना होता है।
वह तो बस
बाहरी काम है।
और अगर यही है
मनोवृत्ति, तब यह कैसे
तुम्हारे
भीतर उतर सकता
है?
प्रेम
कोई कर्तव्य
नहीं है, तुम
उसमें रस लेते
हो। उसके आनंद
की कोई सीमा
नहीं है, उसे
समाप्त करने
की कोई जल्दी
नहीं है।
जितनी ज्यादा
देर वह होता
है, उतना
ही अच्छा है।
वह कभी काफी
नहीं होता।
हमेशा तुम अनुभव
करते हो कि
तुम कुछ
ज्यादा करना
चाहते हो, कुछ
और ज्यादा। यह
हमेशा अपूर्ण
है। अगर यह
अभिवृत्ति है,
तब चीजें
तुममें गहरे
चली जाती हैं।
बीज अधिक गहरी
भूमि में
पहुंच जाते
हैं। और
निष्ठा का मतलब
है, तुम उस
खास अभ्यास के
प्रेम में पड़े
हुए हो—एक
विशिष्ट
अभ्यास।
मैं
बहुत से लोगों
को ध्यान से
देखता हूं
बहुत से लोगों
के साथ कार्य
करता हूं। यह
विभाजन बहुत स्पष्ट
होता है। जो
ध्यान का
अभ्यास ऐसे
करते हैं जैसे
कि कोई तरकीब
भर संपन्न कर
रहे हों, वे वर्षों
तक यही किये
चले जाते हैं,
लेकिन कोई
परिवर्तन
नहीं घटता है।
यह उनकी थोड़ी—बहुत
मदद कर देता
है शारीरिक स्वप्न
से। वे ज्यादा
स्वस्थ हो
जायेंगे।
उनका शरीर—गठन
इसके द्वारा
कुछ लाभ पा
लेगा। लेकिन
यह व्यायाम ही
है। फिर वे
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं, 'कुछ
नहीं हो रहा
है।’
कुछ
नहीं होगा, क्योंकि
इस तरह से वे
इसे कर रहे
हैं, मानो
यह कुछ बाहरी
चीज है। केवल
एक कार्य। वे
इसे कुछ ऐसे
कर रहे हैं
जैसे वे
ग्यारह बजे आफिस
जाते हैं और
पांच बजे आफिस
से लौट आते हैं।
बिना किसी लगन
के ध्यान—भवन
में जाते हैं।
वे एक घंटा ध्यान
कर सकते हैं
और बिना किसी
अंतर लगन के।
यह उनके हृदय
में नहीं होता।
दूसरा
वर्ग उन लोगों
का है जो इसे
प्रेमपूर्वक
करते हैं। तो
यह कुछ करने
का प्रश्न
नहीं है। यह
मात्रात्मक
नहीं है, यह
गुणात्मक है।
यह है कि
कितने तुम
सम्मिलित हो,
कितनी
गहनता से तुम
इसे प्रेम
करते हो, कितने
तुम आनंदित
होते हो इसमें—उद्देश्य
को, ध्येय
को, परिणाम
को नहीं—मात्र
अभ्यास को।
सूफी
कहते हैं कि
ईश्वर के नाम
की पुनरुक्ति, अल्लाह
के नाम को
दोहराना
स्वयं में एक
आनंद है। वे
दोहराये चले
जाते है और वे
आनंदित होते
हैं यह करके।
यह उनकी सारी
जिंदगी बन
जाता है—नाम
को दोहराना
मात्र ही।
नानक
कहते है, नामस्मरण—नाम
को स्मरण करना
काफी है। तुम
भोजन कर रहे
हूाए, तुम
सोने जा रहे
हो, तुम
स्नान कर रहे
हो और निरंतर
तुम्हारा
हृदय स्मरण से
भरा हुआ है।
राम या अल्लाह
या जो भी है, तुम तो बस
दोहराये जा
रहे हों—शब्द
की भांति नहीं,
बल्कि
श्रद्धा की
तरह, प्रेम
की तरह।
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व भरा
हुआ अनुभव
करता है। वह
इसके साथ
कम्पित रहता
है। वह
तुम्हारी
गहरी सांस बन
जाता है। तुम
उसके बिना
जिंदा नहीं रह
सकते। और धीरे—
धीरे यह बात
एक आंतरिक
समस्वरता को
जन्म देती है, एक
संगीत को।
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व एक
लयबद्धता में
डूबने लगता है।
एक
आनंदोल्लास
का जन्म होता
है; एक
गुनगुनाती
अनुभूति, एक
मिठास
तुम्हें घेर
लेती है। तब
जो कुछ तुम
कहते हो वह
अल्लाह का नाम
बन जाता है।
जो कुछ तुम
कहते हो, ईश्वर
का स्मरण बन
जाता है।
किसी
अभ्यास को
बिना व्यवधान
के और श्रृद्धाभरी
निष्ठा के साथ
धारण कर लो।
लेकिन
पश्चिमी
मस्तिष्क के
लिए यह बहुत
कठिन होता है।
वे अभ्यास को
समझ सकते हैं, लेकिन
वे
श्रद्धापूर्ण
निष्ठा को
नहीं समझ सकते।
वे उस भाषा को
पूर्णतया भूल
चुके हैं और
बिना उस भाषा
के, अभ्यास
एकदम मुरदा
होता है।
पश्चिम
के खोजी मेरे
पास आते है।
वे कहते हैं, जो
कुछ भी आप
कहते हैं हम
करेंगे। और वे
उस पर चलते है।
ठीक उस तरह, जैसा कहा
जाता है।
लेकिन वे उस
पर कार्य करते
हैं जैसे कि
वे बस किसी भी
दूसरी
जानकारी पर
कार्य कर रहे
हों—किसी
तरकीब पर। वे
उसके प्रेम
में नहीं पड़े
हैं। वे उसे
लेकर पागल
नहीं हुए।
वे
उसमें खोये
नहीं। वे
योजनापूर्ण
चालाक बने
रहते हैं।
वे
नियंत्रण में
बने रहते हैं।
और वे तरकीब
को चालाकी से
काम में लाये
चले जाते हैं, जैसे
कि वे किसी
मशीनी—यंत्र
को चलाते
होंगे। यह ऐसा
है जैसे कि
तुम बटन दबा
सकते हो और
पंखा चलने
लगता है। बटन
के लिए या
पंखे के लिए
किसी
श्रद्धापूर्ण
निष्ठा की
आवश्यकता
नहीं है। और
तुम जीवन में
हर चीज इसी
तरह करते हो, लेकिन
अभ्यास इस तरह
से नहीं किया
जा सकता है।
तुम्हें अपने
अभ्यास से
बहुत गहरे स्वप्न
में संबंधित
होना पड़ता है।
तुम्हारा
अभ्यास, जिसमें
कि तुम
द्वितीय बन
जाते हो, और
वह अभ्यास
प्रथम बन जाता
है; जैसे
कि तुम
प्रतिछाया बन
जाते हो, और
अभ्यास आत्मा
बन जाता है; जैसे कि जो
अभ्यास कर रहा
है वह तुम
नहीं हो।
अभ्यास हो रहा
है अपने से ही,
और तुम तो
उसके हिस्से
मात्र हो, उसके
साथ प्रदोलित
हो रहे हो, तब
ऐसा हो सकता
है कि ज्यादा
समय की
आवश्यकता न
रहेगी।
गहरी
श्रद्धा के
साथ परिणाम
तुरंत पीछे—पीछे
चले आ सकते
हैं। श्रद्धा
की एक घड़ी में
तुम अतीत की
कई जिंदगियों
को मिटा सकते
हो। श्रद्धा के
गहरे क्षण में
तुम अतीत से
पूर्णतया
मुक्त हो सकते
हो।
श्रद्धा
से भरी निष्ठा
का क्या अर्थ
होता है इसे स्पष्ट
करना कठिन है।
मित्रता होती
है,
प्रेम होता
है। और एक
भिन्न कोटि है
मित्रता में
पगे मिले प्रेम
की जो
श्रद्धाभरी
निष्ठा
कहलाती है।
मित्रता और
प्रेम समान—समान
के बीच घटता
है। प्रेम
विपरीत लिंगी
के साथ होता
है, और
मित्रता समान
लिंग के साथ, लेकिन दोनों
समस्वप्न
तल पर होते
हैं। तुम समान
होते हो।
करुणा
तो निष्ठामयी
श्रद्धा से
बिलकुल भिन्न
है। करुणा
उच्चतर स्रोत
से निम्नतर
स्रोत की ओर बनी
रहती है। वह
हिमालय से
समुद्र की तरफ
बहती नदी की
भांति है।
बुद्ध
करुणामय हैं।
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता कि
कौन उनके पास
आता है, उनकी
करुणा तो नीचे
की ओर बह रही
है। श्रद्धा
बिलकुल
विपरीत होती
है। यह ऐसे है
जैसे गंगा
समुद्र से
हिमालय की ओर
बह रही हों—निम्नतर
से उच्चतर की
ओर।
प्रेम
समान के बीच
होता है, करुणा
उच्चतर से
निम्नतर की ओर
होती है, और
श्रद्धा
निम्नतर से
उच्चतर की ओर
होती है।
करुणा
और श्रद्धा
दोनों खो गयी
हैं और केवल
मित्रता बनी
रह गयी है।
लेकिन बिना
करुणा और
श्रद्धा के
मित्रता तो बस
बीच में लटक
रही है मुरदा—सी, क्योंकि
दो छोर लापता
हैं। यह केवल
उन दो छोरों
के बीच जीवित
रह सकती है।
अगर
तुममें
श्रद्धा होती
है,
तब देर—
अबेर करुणा
तुम्हारी ओर
बहना शुरू कर
देगी। अगर
तुममें
श्रद्धा होती
है, तब
ऊर्जा का कोई
उन्नत शिखर
तुम्हारी ओर
बहने लगेगा।
लेकिन यदि तुम
श्रद्धा में
नहीं हो, तो
करुणा
तुम्हारी ओर
नहीं बह सकती।
तुम उसकी ओर
खुले हुए नहीं
होते हो।
सारे
अभ्यास, सारे
प्रयोग, सबसे
नीचे होने के
हैं; जिससे
कि उच्चतम
तुममें बह सके।
सबसे नीचे
होने के! जैसा
कि जीसस कहते
हैं, कि
मेरे प्रभु के
राज्य में वही
पहले होंगे जो
आखीर में खड़े
है।
बन
जाओ नत, अंतिम।
अचानक जब तुम
सबसे नीचे
होते हो, तुममें
सबसे ऊंचे को ग्रहण
करने की
क्षमता होती
है। और केवल
सबसे निचली
गहराई की ओर
ही उच्चतम आकर्षित
होता और
खिंचता है। वह
चुम्बक बन
जाती है।’ श्रद्धा
के साथ' का
अर्थ हुआ, तुम
सबसे नीचे हो।
इसीलिए
बौद्धों ने
भिक्षुहोना
चुना है, सूफियों
ने चुना है
फकीर होना—निम्नतम
मात्र ही—फकीर।
और हमने देखा
है कि इन
भिखारियों
में श्रेष्ठतम
घटित हुआ
लेकिन
यही उनका
चुनाव है।
उन्होंने
स्वयं को आखीर
में रख दिया
है। वे अन्तिम
व्यक्ति होते
हैं। किसी के
साथ प्रतिस्पर्द्धा
में नहीं, बस
घाटी की भांति,
नीचे। सबसे
नीचे।
इसलिए
पुराने सूफी
कथनों में यह
कहा गया है ' ईश्वर
के गुलाम बन
जाओ—गुलाम
मात्र। उसका
नाम जपते हुए।
निरंतर उसकी
अनुकंपा
मानते हुए।
निरंतर
कृतज्ञता
अनुभव करते
हुए। निरंतर
बहुत से
आशीषों से भरे
हुए, जिसे
उसने तुम पर
बरसाया है।’
और
इस भाव के साथ, इस
श्रद्धा के
साथ अविरत
अभ्यास को भी
चलने दो।
पतंजलि कहते
हैं कि ये
दोनों, वैराग्य
और अभ्यास, मन के
समाप्त होने
में मदद करते
हैं। और जब मन
समाप्त होता
है, तुम
पहली बार
वास्तव में
वही होते हो, जो तुम्हारी
आत्यंतिक
क्षमता है; वही, जो
तुम्हारी
आत्यंतिक
नियति है।
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