दिनांक
1 जनवरी, 1974;
संध्या।
बुडलैण्डस,बम्बई।
प्रश्न
सार:
1—अनासक्ति
यात्रा के आरंभ
में ही होगी या
अंत में?
2—क्या
बुद्ध और
महाकाश्यप के
बीच घटा
संप्रेषण
समूह के लिए
संभव नहीं है?
3—अभ्यास
एक मन: शारीरिक
संस्कारीकरण
है। और इसी के
द्वारा समाज
मनुष्य को
गुलाम बना लेता
है। फिर 'अभ्यास'
से मुक्ति
कैसे फलित
होगी?
4—पश्चिमी—मन
का अधैर्य और
छिछलापन
देखते हुए भी
क्या उसे योग—साधना
में ले जाया
जा सकता है?
प्रश्न
पहला:
पतंजलि
ने स्वयं में
बद्धमूल होने
के लिए
अनासक्ति
अर्थात
इच्छाओं की
समाप्ति के महत्व
पर जोर दिया
है। लेकिन
अनासक्ति
क्या वास्तव
में यात्रा के
आरंभ में होती
है या यह
बिलकुल अंत पर
ही होती है?
आरंभ और
अंत सोचो। यदि
तुम में मौन
बीज हुआ है।
अत: आरंभ तो
बीज है। आरंभ
और अंत दो
चीजें नहीं है।
आरंभ अंत है।
इसलिए दोनों
को बांटो मत
और द्वैत की
भाषा में मत
सोचो। यदि तुम
अंत में मौन
होना चाहते हो, तो
तुम्हें मौन
को आरंभ करना
होगा बिलकुल
आरंभ से ही।
आरंभ में मौन
बीज की भांति
होगा, अंत
में वह वृक्ष
बन जायेगा।
लेकिन वह
वृक्ष बीज में
ही छिपा हुआ
है। अत: आरंभ
तो बीज है।
जो
कुछ भी परम
उद्देश्य है, वह
अभी और यहीं
छिपा हुआ है, तुममें ही, बिलकुल
प्रारंभ में
ही। अगर वह
वहां आरंभ में
ही नहीं है, तो तुम उसे
अंत में नहीं
पा सकते।
स्वभावत: अंतर
तो होगा। आरंभ
में वह केवल
बीज हो सकता
है, अंत
में वह समग्र
रूप से खिल
जायेगा। हो
सकता है तुम
उसे पहचान न
पाओ जबकि वह
बीज होता है, लेकिन वह
वहां है; चाहे
तुम उसे जानो
या नहीं।
इसलिए जब
पतंजलि कहते
हैं कि यात्रा
के एकदम आरंभ
में ही
अनासक्ति की
आवश्यकता
होती है, वे
नहीं कह रहे
हैं कि अंत
में इसकी
आवश्यकता नहीं
रहेगी। आरंभ में
अनासक्ति
चेष्टा—सहित
होगी, अंत
में अनासक्ति
सहज होगी।
आरंभ
में तुम्हें
इसके प्रति
सचेत रहना
होगा, अंत में
इसके प्रति
सचेत होने की
कोई आवश्यकता
न रहेगी। यह
तो बस
तुम्हारा
स्वाभाविक
प्रवाह होगा।
आरंभ
में तुम्हें
इसका अभ्यास
करना होता है।
सतत जागरूकता
की आवश्यकता
होगी। एक
संघर्ष होगा
तुम्हारे
अतीत के साथ, तुम्हारी
आसक्ति के
ढांचों के साथ।
संघर्ष तो वहा
होगा। लेकिन
अंत में कोई
संघर्ष नहीं
रहेगा, कोई
विकल्प नहीं,
कोई चुनाव
नहीं। तुम बस
कामना—रहितता
की दिशा की ओर
प्रवाहित
होओगे। यह
तुम्हारा
स्वभाव बन
जायेगी।
लेकिन
ध्यान रहे, जो
कुछ भी
उद्देश्य है
उसका बिलकुल
शुरू से अभ्यास
करना पड़ता है।
वह पहला कदम
ही अंतिम भी
है। अत: बहुत
सतर्क रहना
पड़ता है पहले
कदम के प्रति।
यदि पहला कदम
सम्यक दिशा
में होता है, केवल तभी
अंतिम की
उपलब्धि होगी।
अगर तुम पहले
कदम को गंवा
देते हो, तो
तुमने सारे को
गंवा दिया
होता है।
इसके
प्रति श्रम
बार—बार
तुम्हारे मन
में उठेगा, इसलिए
इसे समझो गहरे
ढंग से।
क्योंकि
पतंजलि कई
बातें कहेंगे
जो लगती हैं
अंतिम लक्ष्य
की भांति।
उदाहरण के तौर
पर—अहिंसा अंत
है, साध्य
है। व्यक्ति
इतना करुणामय
बन जाता है, इतने गहरे
रूप से प्रेम
से भरा हुआ कि
उसमें कोई
हिंसा नहीं
होती, हिंसा
की कोई
संभावना नहीं।
प्रेम या
अहिंसा अंत है।
लेकिन पतंजलि
आरंभ से ही
इसका अभ्यास
करने को
कहेंगे।
ध्येय
को आरंभ से ही
तुम्हारी
दृष्टि में
होना पड़ता है।
यात्रा का
पहला कदम
ध्येय के
प्रति पूर्णतया
समर्पित होना
चाहिए, ध्येय
की ओर निर्देशित,
ध्येय की ओर
बढ़ता हुआ। यह
शुरू में एक
दृढ़ चीज नहीं
हो सकती, न
ही पतंजलि
इसकी आशा रखते
हैं। प्रारंभ
में तुम समग्र
रूप से
अनासक्त नहीं
हो सकते, लेकिन
तुम कोशिश कर
सकते हो। वह
प्रयास ही
तुम्हारी
सहायता करेगा।
तुम
बहुत बार
गिरोगे बार—बार
तुम मोह में
पड़ जाओगे। और
तुम्हारा मन
इस तरह का है
कि तुम
अनासक्ति से
भी आसक्त हो
जाते हो।
तुम्हारा
ढांचा बहुत
अचेतन है।
लेकिन चेष्टा, सचेत
चेष्टा, धीरे—
धीरे तुम्हें
सचेत और
जागरूक बना
देगी। और एक
बार तुम मोह
की पीड़ा को
अनुभव करने
लगे तो प्रयास
की कम जरूरत
रहेगी।
क्योंकि कोई
भी दुखी नहीं
होना चाहता, कोई
अप्रसन्न
नहीं होना
चाहता।
हम
दुखी हैं
क्योंकि हम
नहीं जानते कि
हम क्या कर
रहे हैं, लेकिन
हर मनुष्य में
प्रसन्नता के
लिए ललक होती
है। कोई दुख
के लिए
लालायित नहीं
होता, लेकिन
हर कोई दुख का
निर्माण कर
लेता है।
क्योंकि हम
नहीं जानते, हम क्या कर
रहे हैं। हम
इच्छाओं में
सरक रहे होते
हैं, प्रसन्नता
को पाने के
उद्देश्य से,
लेकिन मन का
ढांचा ऐसा है
कि हम वस्तुत:
दुख की ओर
बढते हैं।
बिलकुल
प्रारंभ से, जब
बच्चा पैदा
होता है और
फिर पाला—पोसा
जाता है, गलत
बनावट उसके मन
में भर दी
जाती है, गलत—मनोवृत्तियां
भर दी जाती
हैं। कोई उसे
गलत बनाने का प्रयत्न
नहीं कर रहा
है, लेकिन
गलत ढांचों
वाले लोग
चारों ओर हैं।
वे कुछ और हो
नहीं सकते, वे निस्सहाय
हैं।
एक
बच्चा बिना
किसी ढांचे के
उत्पन्न
होता है। केवल
एक गहरी ललक
सुख पाने के
लिए उपस्थित
होती है लेकिन
वह नहीं जानता
उसे कैसे
प्राप्त करे।
यह 'कैसे' अशांत
है। वह जानता
है यही कि
इतना भर निश्चित
है कि सुख
प्राप्त करना
ही है। वह
इसके लिए जीवन
भर संघर्ष
करेगा। लेकिन
वे साधन, वे
विधियां कि
उसे कैसे पाया
जाये, कहां
पाया जाये, उसे कहां
जाना चाहिए
उसे ढूंढने, वह नहीं
जानता है।
समाज उसे
सिखाता है, सुख को किस
तरह प्राप्त
करना है। और
समाज गलत है।
एक
बच्चा सुख
चाहता है, लेकिन
हम नहीं जानते
उसे कैसे
सिखायें सुखी
होना। और जो
कुछ भी हम उसे
सिखाते हैं वह
दुख की ओर जाता
हुआ मार्ग बन
जाता है।
उदाहरण के लिए
हम उसे सिखाते
हैं अच्छा
बनने की बात।
हम उसे सिखाते
हैं, कुछ निश्चित
बातें नहीं
करना और दूसरी
बातें करना—बिना
कभी यह सोचे
हुए कि वे
स्वाभाविक
हैं या अस्वाभाविक।
हम कह देते
हैं, 'यह
करो, वह मत
करो'।
लेकिन हमारा '
अच्छा' अस्वाभाविक
हो सकता है।
और यदि जो कुछ
हम अच्छे की
भांति सिखाते
हैं वह
अस्वाभाविक
हो तो हम दुख
का एक ढांचा
निर्मित कर
रहे होते है।
उदाहरण
के लिए, एक
बच्चा क्रोध
में होता है; हम उसे कह
देते हैं, 'क्रोध
बुरा है।
क्रोध मतकरो।’लेकिन क्रोध
स्वाभाविक है,
और केवल कह
देने से कि, 'क्रोध मत
करो', तुम
क्रोध को नष्ट
नहीं कर रहे।
हम बच्चे को
सिखा रहे हैं
केवल उसे दबा
देना। और दमन
दुख बन जायेगा
क्योंकि जो
कुछ भी दबाया
जाता है, जहर
बन जाता है।
वह शरीर के
रसायनों में
ही घूमता—फिरता
रहता है, वह
विषाक्त होता
है। और उसे
क्रोधित न
होने की बात
लगातार
सिखाने के
द्वारा हम उसे
अपना शरीर
विषमय करना
सिखा रहे होते
है।
एक
चीज जो हम उसे
नहीं सिखा रहे
वह है, क्रोधित
कैसे न हुआ
जाये। हम तो
बस उसे सिखा
रहे है कि
क्रोध को किस
तरह दबाया
जाये। और हम
उसे बाध्य कर
सकते हैं
क्योंकि वह हम
पर आश्रित है।
वह निस्सहाय
है, उसे
हमारे पीछे
चलना पड़ता है।
यदि हम कहते, 'क्रोध मत
करो', तो वह
मुस्करा देगा।
वह मुस्कराहट
झूठी होगी।
भीतर तो वह
कुलबुला रहा
है, भीतर
वह घबराहट में
है, वहां
भीतर आग है और
वह बाहर मुस्करा
रहा है।
एक
छोटा बच्चा!
और हम उसे पाखण्डी
बना रहे है।
वह झूठा और
विखण्डित बन
रहा है। वह
जानता है कि
उसकी मुस्कान
नकली है और
उसका क्रोध
वास्तविक है, लेकिन
वास्तविक को
दबाना पड़ता है
और अवास्तविक
को जबरदस्ती
लाना पड़ता है।
वह हिस्सों
में बंट
जायेगा। और
धीरे—धीरे वह
खंडित होना
इतना गहरा हो
जायेगा, वह
भेद इतना गहरा
हो जायेगा, कि जब कभी वह
मुस्कराता है
वह एक झूठी
मुस्कान
मुस्करायेगा।
और
यदि वह
प्रामाणिकता
पूर्वक
क्रोधी नहीं हो
सकता, तब वह
किसी चीज के
बारे मेर
प्रामाणिक
नहीं हो
पायेगा।
क्योंकि तब
प्रामाणिकता
निंदित हो
जाती है। वह
अपना प्रेम
अभिव्यक्त
नहीं कर
पायेगा, वह
अपना आनंदोल्लास
अभिव्यक्त
नहीं कर
पायेगा। वह
भयभीत हो
जायेगा
यथार्थ के
प्रति। यदि
तुम यथार्थ के
एक हिस्से की
निंदा करते हो,
तो सारी
वास्तविकता
निंदित हो
जाती है।
क्योंकि
वास्तविकता
बांटी नहीं जा
सकती और एक
बच्चा बांट
नहीं सकता।
एक
बात तो निश्चित
है—बच्चा समझ
चुका है कि वह
स्वीकृत नहीं
हुआ। जैसा कि
वह है, वह
प्रीतिकर
नहीं है।
वास्तविक कुछ
बुरा ही है, इसलिए उसे
नकली होना ही
है। उसे
चेहरों, मुखौटों
का प्रयोग
करना ही है।
यदि एक बार वह
यह सीख लेता
है, तो
सारा जीवन
नकली दिशा की
ओर बढ़ने लगेगा।
और असत्य केवल
दुख की ओर ही
ले जा सकता है।
असत्य सुख की
ओर नहीं ले जा
सकता। केवल
सत्य, प्रामाणिक
सत्य तुम्हें
आनंद की ओर ले
जा सकता है, जीवन के
शिखर अनुभवों
की ओर—प्रेम, खुशी, ध्यान,
या जो कुछ
नाम तुम दे
सकते हो।
हर
कोई इसी ढांचे
में पला है, इसलिए
तुम सुख के
लिए लालायित
रहते हो।
लेकिन जो कुछ
भी तुम करते
हो वह दुख
निर्मित करता
है। सुख की ओर
बढ़ने का पहला
कदम है, स्वयं
को स्वीकार कर
लेना। लेकिन
स्वयं को
स्वीकार करना
समाज तुम्हें
हरगिज नहीं
सिखाता। यह
तुम्हें
सिखलाता है
स्वयं की
निंदा करना, स्वयं के
प्रति अपराधी
होना, तुम्हारे
स्वयं के बहुत—से
हिस्सों का
त्याग करना।
यह तुम्हें
अपंग कर देता
है। और
विकलांग
व्यक्ति
लक्ष्य तक
नहीं पहुंच सकता।
और हम सभी
अपंग हैं।
मोह
दुख है, लेकिन
बिलकुल शुरू से
ही बच्चे को
मोह की बात
सिखा दी जाती
है। मां अपने
बच्चे से
कहेगी, 'मुझे
प्रेम करो, मैं
तुम्हारी मां
हूं।’ और
पिता कहेंगे,
'मुझे प्रेम
करो, मैं
तुम्हारा
पिता हूं।’ जैसे कि कोई
अपने आप ही
प्रिय बन जाता
हो, बस
पिता या मां
होने द्वारा
ही।
केवल
मां होना बहुत
अर्थ नहीं
रखता है या
केवल पिता
होना बहुत महत्व
नहीं रखता।
पिता होना एक
बड़े अनुशासन
में से गुजरना
है। प्रीतिकर
होना पड़ता है।
और मां होना
बच्चे पैदा
करना मात्र
नहीं है। मां
होने का अर्थ
है एक बड़ा
प्रशिक्षण
बड़ा आंतरिक
अनुशासन।
स्वयं को
प्रीतिकर
होना पड़ता है।
यदि
मां प्रीतिकर
होती है, तो
बच्चा बिना
किसी मोह के
प्रेम करेगा।
जब कभी वह
किसी ऐसे को
पायेगा जो
प्यारा है, वह प्रेम
करेगा। लेकिन
माताएं
प्रीतिकर
नहीं होतीं, पिता
प्रीतिकर
नहीं होते।
उन्होंने कभी
उस शैली में
सोचा नहीं है
कि प्रेम एक आंतरिक
गुण है।
तुम्हें उसे
निर्मित करना पड़ता
है। तुम्हें
वह हो जाना
होता है।
तुम्हें
विकसित होना
होता है, केवल
तभी तुम
दूसरों में
प्रेम उत्पन्न
कर सकते हो।
प्रेम का दावा
नहीं किया जा
सकता। और यदि
तुम इसका दावा
करते हो, तो
वह मोह बन
सकता है, लेकिन
प्रेम नहीं।
तब बच्चा मां
को प्रेम
करेगा तो
सिर्फ इसलिए क्योंकि
वह उसकी मां
है। मां या
पिता ध्येय बन
जाते हैं।
लेकिन ये
संबंध हैं, प्रेम नहीं।
तब बच्चा
परिवार के मोह
में पड़ जाता
है। और परिवार
एक भंजक शक्ति
है क्योंकि यह
तुम्हें पड़ोस
के परिवार से
अलग कर देती
है। तुम्हारा
पड़ोसी परिवार
प्रीतिकर
नहीं लगता
क्योंकि तुम
उससे संबंध
नहीं रखते। तब
तुम अपनी
बिरादरी की, अपने देश की
भाषा में
सोचते हो, और
पड़ोसी देश को
शत्रु की तरह
समझते हो।
तुम
सारी मानवता
को प्रेम नहीं
कर सकते। और
तुम्हारा
परिवार इसका
मूल कारण है।
परिवार ने
नहीं सिखाया
तुम्हें
प्यारा
व्यक्ति होना, एक
प्रेमपूर्ण
व्यक्ति होना।
इसने कुछ निश्चित
संबंध तुम पर
जबरदस्ती लाद
दिये हैं। मोह
एक संबंध है, और प्रेम—प्रेम
मन की एक
अवस्था है।
लेकिन
तुम्हारे
पिता तुम्हें
नहीं कहेंगे,
प्रेममय
बनो क्योंकि
अगर तुम
प्रेममय हो तो
तुम किसी के
प्रति
प्रेममय हो
सकते हो। हो
सकता है कई
बार पड़ोसी
तुम्हारे
पिता से ज्यादा
प्रिय हो, लेकिन
पिता यह
स्वीकार नहीं
कर सकता कि
कोई उससे अधिक
प्रिय हो सकता
है। क्योंकि
वह तुम्हारा
पिता है।
इसलिए संबंध
सिखाने पड़ते
हैं, प्रेम
नहीं।
यह
मेरा देश है।
इसलिए मुझे
इसे प्रेम
करना पड़ता है।
यदि प्रेम
मात्र सिखाया
जाता है, तो
मैं किसी भी
देश को प्रेम
कर सकता हूं।
लेकिन
राजनेता इसके
विरुद्ध
होंगे
क्योंकि मैं
यदि किसी भी
देश को प्रेम
करता हूं यदि
मैं इस सारी
पृथ्वी को
प्रेम करूं, तब मैं
युद्ध में
घसीटा नहीं जा
सकता। राजनेता
सिखायेंगे, 'इस देश को
प्रेम करो। यह
तुम्हारा देश
है क्योंकि
तुम यहां पैदा
हुए हो। तुम
इस देश के हो, तुम्हारा
जीवन, तुम्हारी
मृत्यु इस देश
से संबंध रखती
है।’ तब वे
इसके लिए
तुम्हें
बलिदान कर
सकते हैं।
सारा
समाज तुम्हें
संबंधों, आसक्तियों
की शिक्षा दे
रहा है, प्रेम
की नहीं।
प्रेम खतरनाक
है क्योंकि यह
किन्हीं
सीमाओं को
नहीं जानता।
यह आगे बढ़
सकता है, यह
स्वतंत्रता
है। इसलिए एक
पत्नी अपने
पति को
सिखायेगी, 'मुझे प्रेम
करो क्योंकि
मैं तुम्हारी
पली हूं।’जबकि
पति सिखा रहा
है पत्नी को, 'मुझे प्रेम
करो क्योंकि
मैं तुम्हारा
पति हूं।’कोई
प्रेम नहीं
सिखा रहा।
यदि
केवल प्रेम
सिखाया जाता, तब
पत्नी कह सकती
थी कि दूसरा
व्यक्ति
ज्यादा प्रिय
है। यदि
वास्तव में
संसार प्रेम
करने के लिए
स्वतंत्र
होता, तब
पति होना भर
ही कोई अर्थ
नहीं रख सकता,
पत्नी होना
मात्र कोई
अर्थ न रखता।
तब प्रेम
मुक्त भाव से
बहता है।
लेकिन यह
खतरनाक है।
समाज इसे
स्वीकार नहीं
कर सकता, परिवार
इसे नहीं मान
सकता। धर्म
इसकी अनुमति
नहीं दे सकते।
तो प्रेम के
नाम पर वे मोह
सिखाते हैं, और तब हर कोई
दुख में पड़
जाता है।
जब
पतंजलि कहते
हैं अनासक्ति, तो
वे प्रेम—विरोधी
नहीं हैं।
वस्तुत: वे
प्रेम के लिए
कहते हैं।
अनासक्ति का अर्थ
है स्वाभाविक,
प्रेममय, प्रवाहमान
होना, लेकिन
सम्मोहित और
आसक्त मत हो
जाओ। आसक्ति एक
समस्या है।
तब प्रेम एक
रोग की भांति
है। यदि तुम अपने
बच्चे के
अतिरिक्त
किसी को प्रेम
नहीं कर सकते,
तो यह
आसक्ति है। तब
तुम दुख में
पड़ोगे। तुम्हारा
बच्चा मर सकता
है, तब
तुम्हारे
प्रेम के
प्रवाहित
होने की कोर्ट
संभावना नहीं
है। और यदि
तुम्हारा
बच्चा नहीं भी
मरे, तो वह
बड़ा होगा और
जितना ज्यादा
वह बड़ा होता है
उतना ज्यादा
वह स्वतंत्र
हो जायेगा। तब
पीड़ा होगी। हर
मां यही झेलती
है, हर
पिता यही
भुगतता है।
जब
बच्चा वयस्क
हो जाता है, तब
वह किसी सी के
प्रेम में पड़
जायेगा। तब
मां कष्ट पाती
है। एक
प्रतिद्वंद्वी
प्रविष्ट हो
गया है। लेकिन
वह पीड़ा मोह
के कारण ही
है। अगर मां
ने —वास्तव
में बच्चे को
प्रेम किया
होता, वह
उसे स्वतंत्र
होने में मदद
करती। वह उसे
संसार में
घूमने में मदद
देगी, जितने
संभव हो उतने
प्रेम—संपर्क
बनाने में, क्योंकि वह
जानेगी कि
जितना ज्यादा
तुम प्रेम
करते हो, उतने
ज्यादा तुम
परितृप्त
होते हो। जब
उसका बच्चा
किसी सी के
प्रेम में
पड़ता है, तो
मां प्रसन्न
होगी, वह
आनंद से नाच
उठेगी।
प्रेम
तुम्हें कभी
दुख नहीं देता
क्योंकि अगर
तुम किसी को
प्रेम करते हो, तुम
उसकी
प्रसन्नता को
प्रेम करते
हो। लेकिन यदि
तुम किसी के
प्रति आसक्त
होते हो, तुम
उसकी
प्रसन्नता को
प्रेम नहीं
करते, तुम
केवल अपने
स्वार्थ के
कारण प्रेम
करते हो। तुम
केवल अपनी अहं
केंद्रित
मांगों के साथ
ही संबंध रखते
हो।
फ्रॉयड
ने बहुत सारी
चीजें खोजी
हैं उनमें से एक
है मां या
पिता के प्रति
बंध जाना—फिक्सेशन।
फ्रॉयड कहता
है कि सबसे
ज्यादा खतरनाक
मां वह है जो
अपने बच्चे को
अपने से प्यार
करने के लिए
इतना अधिक
बाध्य कर देती
है कि वह मां
से बंध जाता है।
और तब शायद वह
किसी और को
प्रेम करने के
योग्य न रहे।
और लाखों लोग
हैं जो दुख
भोग रहे हैं ऐसे
बंध जाने के
कारण ही।
मैं
बहुत लोगों का
अध्ययन करता
रहा हूं। लगभग
सारे पति—कम
से कम
निन्यानबे
प्रतिशत, अपनी
पत्नियों में
अपनी माताओं
को ढूंढने की
कोशिश कर रहे
हैं।
निस्संदेह, तुम अपनी
पत्नी में
अपनी मां को
नहीं पा सकते।
तुम्हारी
पत्नी
तुम्हारी मां
नहीं है। लेकिन
मां के साथ
गहरा
फिक्सेशन है।
तब पति असंतुष्ट
हो जाता है
पत्नी के साथ,
क्योंकि वह
उसका ध्यान
मां की भांति
नहीं रख रही।
और हर पत्नी
अपने पति में
अपनी पिता की
खोज कर रही
है। कोई पति
उसका पिता
नहीं हो सकता,
लेकिन यदि
वह उसकी
पितानुमा
देखभाल के साथ
संतुष्ट नहीं
होती, तब
वह अपने पति
के साथ
असंतुष्ट हो
जाती है।
ये
फिक्सेशन
हैं। पतंजलि
की भाषा में, वे
उन्हें मोह
कहते हैं।
फ्रॉयड
उन्हें
फिक्सेशन
कहता है। शब्द
भिन्न होते
हैं, लेकिन
अर्थ वही है।
जड़ मत हो जाओ, प्रवाहमान
रहो।
अनासक्ति का
अर्थ है, तुम
जड़ (फिक्स)
नहीं हुए हो।
बर्फ के
टुकड़ों की भांति
मत हो जाना।
पानी की भांति
हो जाओ—बहते
हुए। जमे हुए
न होना।
हर
मोह जमी हुई
चीज बन जाता
है—मुरदा। वह
जीवन के साथ
आंदोलित नहीँ
हो रहा होता, वह
एक निरंतर
गतिमान
प्रतिसंवेदन
नहीं होता। वह
क्षण—प्रतिक्षण
जीवंत नहीं
होता, वह
जड़ होता है।
तुम किसी
व्यक्ति को
प्रेम करते हो—यदि
वह वास्तव में
प्रेम है, तब
तुम भविष्य की
नहीं बता सकते
कि अगले क्षण क्या
घटित होने
वाला है।
भविष्यवाणी
असंभव होती है,
क्योंकि
मनोदशाएं
मौसम की भांति
बदलती हैं। तुम
नहीं कह सकते
कि अगले क्षण
तुम्हारा
प्रेमी भी
तुम्हारे
प्रति
प्रेमपूर्ण
होगा। हो सकता
है अगले क्षण
वह
प्रेमपूर्ण
अनुभव न कर रहा
हो। तुम यह
आशा नहीं रख
सकते।
यदि
वह अगले क्षण
भी तुमसे
प्रेम करता है, तो
यह अच्छा है, तुम कृतज्ञ
हो। लेकिन यदि
वह अगले क्षण
तुम्हें
प्रेम नहीं कर
रहा तो कुछ
किया नहीं जा
सकता। तुम
असहाय हो।
तुम्हें इस
तथ्य को
स्वीकार करना
पड़ता है कि वह
वैसी मनोदशा
में नहीं है; रोने—धोने
की कोई बात
नहीं है। बस
वह प्रेम के
भाव में नहीं
है। तुम
स्थिति को
स्वीकार कर
लेते हो। तुम
प्रेमी को
ढोंग रचने के
लिए विवश नहीं
करते, क्योंकि
आडंबर खतरनाक
होता है।
यदि
मैं तुम्हारे
प्रति
प्रेमपूर्ण
अनुभव करूं, तो
मैं कहता हूं 'मैं तुमसे
प्रेम करता
हूं लेकिन
अगले ही पल मैं
कह सकता हूं 'नहीं, इस
क्षण मैं कोई
प्रेम अनुभव
नहीं करता।’केवल दो
संभावनाएं
हैं—या तो तुम
मेरी
प्रेमपूर्ण
मनोदशा
स्वीकार कर लो
या तुम मुझे
विवश कर दो यह
दिखाने को कि
मैं तुम्हें
प्रेम करता
हूं; चाहे
मैं प्रेम
अनुभव कर रहा
हूं या नहीं।
यदि तुम विवश
करते हो, तो
मैं झूठ बन
जाता हूं और
संबंध एक
दिखावा बन जाता
है, एक
पाखंड। तब हम
एक—दूसरे के
प्रति सच्चे
नहीं होते। और
वे दो व्यक्ति
जो एक—दूसरे
के प्रति
सच्चे नहीं, प्रेम में
किस तरह पड़
सकते है? उनका
संबंध एक जड़
निर्धारण, फिक्सेशन
बन जायेगा।
पत्नी
और पति जड़
होते हैं, मुरदा।
हर चीज
निश्चित है।
वे एक—दूसरे
के प्रति ऐसा
व्यवहार करते
हैं जैसे कि दूसरा
कोई एक वस्तु
हो। जब तुम घर
लौटते हो, तो
तुम्हारा
फर्नीचर वही
होता है।
क्योंकि फर्नीचर
मुरदा होता
है। तुम्हारा
घर वही है, क्योंकि
घर मुरदा है।
र्लोकेन तुम
अपनी पली से
वही होने की
आशा नहीं
रखते। वह
जीवंत है, एक
व्यक्ति है।
यदि तुम उससे
वही होने की
आशा रखते हो
जैसी कि वह तब
थी जब तूमने
घर छोड़ा था, तब तुम उसे
फर्नीचर की
भांति होने के
लिए बाध्य कर
रहे हो, मात्र
एक वस्तु होने
के लिए। मोह
संबंधित व्यक्तियों
को बाध्य करता
है वस्तुएं हो
जाने के लिए।
और प्रेम
व्यक्तियों
की मदद करता
है ज्यादा
स्वतंत्र
होने 'के
लिए, ज्यादा
सच्चे होने के
लिए। सत्य
केवल सतत प्रवाह
में हो सकता
है, वह कभी
जमा हुआ नहीं
हो सकता।
जब
पतंजलि कहते
हैं 'अ—मोह', तब
वे तुम्हारे
प्रेम को
मारने की बात
नहीं कह रहे
हैं। बल्कि, उल्टे वे उस
सबको जो
तुम्हारे
प्रेम को
जहरीला बनाता
है, मारने
के लिए, सारी
बाधाओं को खअ
करने के लिए
कह रहे हैं।
जो तुम्हारे
प्रेम को मार
डालती हैं, उन सारी
बाधाओं को
नष्ट करने के
लिए कह रहे हैं।
केवल एक योगी
प्रेमपूर्ण
हो सकता है।
सांसारिक
व्यक्ति प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता,
वह केवल
आसक्त हो सकता
है।
इसे
ध्यान में
रखना—मोह का
अर्थ है जड़ हो
जाना। तुम
किसी नयी चीज
को स्वीकार
नहीं कर सकते, केवल
अतीत को करते
हो। तुम
वर्तमान को
नहीं आने दे
सकते। किसी
चीज को बदलने
के लिए तुम
भविष्य को आने
नहीं देते।
लेकिन जीवन एक
परिवर्तन है।
केवल मृत्यु
अपरिवर्तनशील
है।
यदि
तुम अनासक्त
होते हो तो पल—दर—पल
तुम आगे बढ़ते
हो बगैर किसी
जड़ता के। हर
क्षण जिंदगो
तुम्हारे लिए
नयी खुशियां
लायेगी, नये
दुख लायेगी।
अंधेरी रातें
होंगी और उजले
दिवस होंगे, लेकिन तुम
खुले होते हो,
तुम जडू—मना
नहीं होते। और
जब तुम्हारा
जड़ हुआ मन
नहीं होता, तो कोई दुखद
स्थिति भी
तुम्हें दुख
नहीं दे सकती,
क्योंकि
उससे तुलना
करने के लिए
तुम्हारे पास
कोई चीज नहीं
है। तुम किसी
और चीज की
अपेक्षा नहीं
रख रहे थे
इसलिए तुम
निराश नहीं हो
सकते।
तुम
मांगों के
कारण विफल हो जाते
हो। उदाहरण के
लिए तुम सोचते
हो कि जब तुम
घर लौटो तो
तुम्हारी पली
बाहर ही
तुम्हारे स्वागत
के लिए खड़ा
हुई होगी। यदि
वह तुम्हारे स्वागत
के लिए बाहर
खड़ी नहीं होती
तो इसे तुम
स्वीकार नहीं
कर सकते। यह
बात तुम्हें
हताशा और दुख
देती है। तुम
मांग करते हो, और
तुम्हारी
मांगों के
द्वारा हो तुम
दुख निर्मित
कर लेते हो।
लेकिन मांग की
संभावना है
केवल यदि तुम
मोह में पड़ो।
तुम उन
व्यक्तियों
से मांग नहीं
कर सकते जो
तुम्हारे लिए
अजनबी हों।
केवल मोह के
साथ मांग भीतर
चली आती है।
इसलिए सारे
मोह नरक की भांति
बन जाते हैं।
पतंजलि
कहते है, अनासक्त
हो जाओ। इसका
अर्थ है, प्रवाहमान
हो जाओ। जो
कुछ भी जीवन
लाये उसे स्वीकृति
देने वाले बन
जाओ। मांग मत
करो और जबरदस्ती
मत करो
क्योंकि जीवन
तुम्हारे
पीछे चलने
वाला नहीं है।
तुम जीवन को
बाध्य नहीं कर
सकते
तुम्हारे
अनुसार चलने
के लिए। नदी के
साथ बहना
बेहतर है बजाय
उसे धकेलने
के। बस, उसके
साथ बहो। तब
बहुत खुशी की
संभावना होती
है। अभी भी
तुम्हारे
चारों ओर बहुत
खुशी है, लेकिन
तुम फिक्सेशन,
जड़—निर्धारण
के कारण उसे
देख नहीं
सकते।
प्रारंभ
में गैर—मोह
केवल एक बीज
होगा। अंत में
गैर—मोह
इच्छारहितता
बन जाता है।
प्रारंभ में
गैर—मौह का
अर्थ होता है
गैर—जड़ता, लेकिन
अंत में गैर—मोह
का अर्थ होगा
इच्छारहितता—कोई
इच्छा नहीं।
आरंभ में कोई
मांग नहीं, अंत में कोई
इच्छा नहीं।
लेकिन
यदि तुम
निर्वासना के
इस अंत तक
पहुंचना
चाहते हो, तो
मागरहितता से
आरंभ करो।
पतंजलि के
सूत्र को
आजमाओ, चाहे
चौबीस घंटों
के लिए ही।
चौबीस घंटों
के लिए, बस
जिंदगी के साथ
बहो बिना किसी
चीज को मांगे।
जो कुछ भी
जिंदगी देती
है, अनुगृहीत
अनुभव करो, कृतज्ञ।
चौबीस घंटे के
लिए बस मन की
प्रार्थनापूर्ण
अवस्था में
घूमते रहो—बिना
कुछ मांगे, बिना दावा
किये, बिना
अपेक्षा के; और तुम एक
नया खुलापन
पाओगे। वे
चौबीस घंटे नया
झरोखा बन
जायेंगे। तुम
अनुभव करोगे
कि तुम कितने
आनंदित हो
सकते हो।
लेकिन आरंभ
में तुम्हें
जागरूक होना
पड़ेगा। किसी
खोजी से यह
अपेक्षा नहीं
की जा सकती है
कि गैर—मोह
उसके लिए सहज
क्रिया हो सकती
हें।
प्रश्न
दूसरा:
ऐसा
क्यों है कि
बुद्ध—पुरुष
स्वयं को केवल
एक व्यक्ति को
देते हैं जैसा
कि महाकाश्यप
के विषय में
बुद्ध ने किया
था। वस्तुत:
एक शिष्य
द्वारा
ज्योति ग्रहण
करने की बौद्ध
परंपरा आठ
पीढ़ियों तक
जारी रही।
क्या एक समूह
के लिए संभव
नहीं था उसको
पाना?
नहीं, यह
संभव नहीं था
क्योंकि एक
समूह की कोई
आत्मा नहीं
होती। एक समूह
का कोई व्यक्तित्व
नहीं होता।
केवल एक व्यक्ति
ग्रहणशील हो सकता
है, पा सकता
है। क्योंकि केवल
एक व्यक्ति का
हृदय होता है।
समूह व्यक्ति नहीं
होता है।
तुम
सब यहां हो और
मैं बोल रहा
हूं लेकिन मैं
समूह से नहीं
बोल रहा हूं
क्योंकि समूह के
साथ कोई सवांद
नहीं हो सकता।
मैं यहां
प्रत्येक व्यक्ति
से बात कर रहा
हूं। तुम एक
समूह में
एकत्रित हुए हो, लेकिन
तुम मुझे समूह
की तरह नहीं
सुन रहे। तुम
मुझे व्यक्तियों
की तरह सुन
रहे हो।
वास्तव में समूह
अस्तित्व
नहीं रखता।
केवल व्यक्ति
रखते हैं।’समूह'
एक शब्द
मात्र है।
उसकी कोई
वास्तविकता
नहीं, कोई
सत्व नहीं। वह
एक जोड़ का नाम भर है।
तुम
समूह को प्रेम
नहीं कर सकते; तुम
देश को प्रेम
नहीं कर सकते;
तुम मानवता को
प्रेम नहीं कर
सकते।
लेकिन
ऐसे व्यक्ति
हैं जो दावा
करते है कि वे मानवता
से प्रेम करते
है। वे स्वयं
को धोखा दे
रहे हैं
क्योंकि कहीं
मानवता जैसी
कोई चीज नहीं
है। केवल
मानवप्राणी
हैं। जाओ और
खोजो, तुम
कहीं मानवता
नहीं खोज
पाओगे।
वास्तव
में,
जो व्यक्ति
दावा करते है
कि वे मानवता
से प्रेम करते
हैं, वे
व्यक्ति वे
हैं जो
व्यक्तियों
को प्रेम नहीं
कर सकते। वे
व्यक्तियों
से प्रेम करने
में असमर्थ
है। वे कहते
है, वे
मानवता को, देश को, विश्व
को प्रेम करते
हैं। हो सकता
है वे ईश्वर
को भी प्रेम
करते हों, लेकिन
वे व्यक्ति को
प्रेम नहीं कर
सकते क्योंकि
व्यक्ति को
प्रेम करना
दुष्कर होता
है, कठिन
होता है। यह
एक संघर्ष
होता है।
तुम्हें स्वयं
को बदलना पड़ता
है। मानवता से
प्रेम करना
कोई समस्या
नहीं है, क्योंकि
कोई मानवता है
नहीं। तुम
अकेले हो। सत्य,
सौन्दर्य, प्रेम या
कोई चीज जो
महत्वपूर्ण
है, हमेशा
व्यक्ति से
संबंध रखती है,
इसलिए केवल
व्यक्ति ग्रहणशील
हो सकते हैं।
दस
हजार
संन्यासी
उपस्थित थे जब
बुद्ध ने अपना
सारा
अस्तित्व
महाकाश्यप
में उंडेल
दिया। समूह
उसे ग्रहण
करने के
अयोग्य था।
कोई समूह
योग्य नहीं हो
सकता क्योंकि
चेतना
वैयक्तिक है, जागरूकता
वैयक्तिक है।
महाकाश्यप उस
शिखर तक उठ
गये थे, जहां
वे बुद्ध को ग्रहण
कर सकते थे।
दूसरे
व्यक्ति भी उस
शिखर तक पहुंच
सकते हैं, लेकिन
समूह नहीं
पहुंच सकता।
बुनियादी
तौर से धर्म
व्यक्तिमूलक
बना रहता है; अन्यथा
हो नहीं सकता।
साम्यवाद और
धर्म की बुनियादी
लड़ाइयों में
से यह एक लड़ाई
है—साम्यवाद
समूहों, समाजों,
सामूहिकताओं
की भाषा में
सोचता है, और
धर्म व्यक्ति
की भाषा में
सोचता है।
साम्यवाद
सोचता है कि
समाज संपूर्ण
रूप से
परिवर्तित हो
सकता है और
धर्म सोचता है
कि केवल व्यक्ति
परिवर्तित हो
सकते है। समाज
संपूर्ण रूप में
नहीं बदला जा
सकता, क्योंकि
समाज की कोई
आत्मा नहीं
होती। वह रूपांतरित
नहीं हो सकता।
वस्तुत: समाज
नहीं है, केवल
व्यक्ति हैं।
साम्यवाद
का कहना है
व्यक्ति नहीं
है,
केवल समाज
है। साम्यवाद
और धर्म
नितांत विरोधात्मक
हैं एक दूसरे
के लिए। और
यही है विरोध—यदि
साम्यवाद चलन
में आता है, तो वैयक्तिक
स्वतंत्रता
विलीन हो जाती
है। तब केवल
समाज
विद्यमान
रहता है।
व्यक्ति को वास्तव
में वहां होने
नहीं दिया
जाता। वह केवल
एक हिस्से की
भांति बना रह
सकता है, पहिये
में केवल एक
आरे की तरह।
उसे एक निजता
नहीं होने
दिया जा सकता।
मैंने
एक घटना सुनी
है। एक आदमी
मास्को पुलिस
स्टेशन में
गया और शिकायत
दर्ज करवायी
कि उसका तोता
गुम हो गया
है। जो ऐसी
बातों से
संबंध रखता था
उस क्लर्क की
ओर उसे भेज
दिया गया।
क्लर्क ने रपट
लिखी। फिर
उसने उस आदमी
से पूछा, 'क्या
तोता बोलता भी
है? क्या
वह बातें करता
है?' वह
आदमी डर गया।
वह थोड़ी
मुसीबत में पड़
गया; बेचैन
हो गया। वह
आदमी कहने लगा,
'हां, वह
बोलता है।
लेकिन जो कुछ
राजनीतिक
विचार वह जाहिर
करता है, वह
राजनीतिक
विचार सच
पूछिए तो उसके
अपने हैं।’ यह व्यक्ति
भयभीत था
क्योंकि तोते
के राजनीतिक
विचार उसके
मालिक के ही होंगे।
एक तोता तो बस
नकल करता है।
साम्यवाद
के साथ
वैयक्तिकता
नहीं आने दी
जाती। तुम
व्यक्तिगत मत
नहीं रख सकते
क्योंकि विचार
केवल राज्य का
विषय होते हैं, समूह—मन
का। और समूह—मन
निम्रतम संभव
चीज है।
व्यक्ति शिखर
तक पहुंच सकते
हैं, लेकिन
कोई समूह कभी
बुद्ध जैसा या
जीसस जैसा
नहीं हुआ।
केवल व्यक्ति
शिखर बन गये
हैं।
बुद्ध
ने अपने जीवन
भर का अनुभव
महाकाश्यप को दिया
था क्योंकि
दूसरा कोई
रास्ता नहीं
है। वह किसी समूह
को नहीं दिया
जा सकता। ऐसा
नहीं हो सकता, यह
बिलकुल असंभव
है। संवाद, अंतर्मिलन
केवल दो
व्यक्तियों
के बीच हो
सकता है। यह
वैयक्तिक
होता है, गहन
वैयक्तिक
आस्था। समूह
व्यक्तित्वहीन
होता है। और
खयाल रहे, समूह
बहुत सारी
चीजें कर सकता
है। पागलपन
समूह के लिए
संभव है, लेकिन
बुद्धत्व
संभव नहीं।
समूह पागल हो
सकता है, लेकिन
समूह
प्रबुद्ध
नहीं हो सकता।
घटना
जितनी ज्यादा निम्न
हो,
उतना ही
ज्यादा समूह
उसमें भाग ले
सकता है। इसलिए
सारे बड़े पाप
समूहों
द्वारा किये
गये हैं, व्यक्ति
द्वारा नहीं।
एक व्यक्ति
कुछ लोगों का
खून कर सकता
है, लेकिन
एक व्यक्ति 'फासीज्म' नहीं बन
सकता। वह
लाखों का खून
नहीं कर सकता।’फासीज्म' लाखों का
खून कर सकता
है और अच्छे
इरादों के
साथ।
दूसरे
विश्वयुद्ध
के बाद सारे
युद्ध अपराधियों
ने सफाई में
कहा कि वे
जिम्मेदार
नहीं थे।
उन्होंने
दावा किया कि
उन्होंने तो
बस ऊपर से
आज्ञा पायी थी
और उन्होंने
आदेशों का
पालन किया था।
वे समूह का
हिस्सा मात्र
थे। हिटलर और मुसोलिनी
भी बड़े
संवेदनशील
आदमी थे अपने
निजी जीवन में।
हिटलर संगीत
सुना करता था, उसे
संगीत से
प्रेम था। कई
बार वह चित्र
भी बनाया करता
था, उसे
चित्रकला से
प्रेम था।
हिटलर का
चित्रकला और
संगीत से
प्रेम करना
असंभव लगता है
कि वह इतना
संवेदनशील हो
सकता था और तब
भी वह लाखों यहुदियों
को मार सकता
था बिना किसी
असुविधा के, अपने
अंतःकरण को
कोई कष्ट दिये
बिना। एक चुभन
भी नहीं!
लेकिन वह
जिम्मेदार न
था, वह तो
बस एक समूह का
नेता था।
जब
तुम भीड़ में
चल रहे होते
हो,
तब तुम कुछ
भी कर सकते हो
क्योंकि तुम
अनुभव करते हो,
जैसे कि भीड़
उसे कर रही है
और तुम बस
उसका हिस्सा
हो। यदि तुम अकेले
होते हो, तो
तुम दो—तीन
बार सोचोगे इस
बारे में कि
उसे करें या न
करें। भीड़ में
जिम्मेदारी
खो जाती है; तुम्हारा
वैयक्तिक
सोचना—विचारना,
तुम्हारा
विवेक खो जाता
है; तुम्हारी
जागरूकता खो
जाती है। तुम
भीड़ का एक हिस्सा
मात्र बन जाते
हो। और भीड़
पागल हो सकती है।
हर देश इसे
जानता है।
इतिहास का हर
काल इसे जानता
है। भीड़ पागल
हो सकती है, और तब वह कुछ
भी कर सकती
है। लेकिन यह
कभी नहीं सुना
गया है कि भीड़
बुद्धत्व को
पा सकती है।
चेतना
की उच्चतर
अवस्थाएं
केवल
व्यक्तियों द्वारा
उपलब्ध की जा
सकती हैं।
ज्यादा
जिम्मेदारी अनुभव
करनी पड़ती है, ज्यादा
वैयक्तिक
जिम्मेदारी, ज्यादा
विवेक। जितना
अधिक तुम
अनुभव करते हो,
उतने तुम
जिम्मेदार
हो। और जितना
अधिक तुम अनुभव
करते हो कि
तुम्हें
जागरूक होना
है, उतना
अधिक तुम एक
व्यक्ति बनते
हो।
बुद्ध
ने महाकाश्यप
को अपना मौन—अनुभव
संप्रेषित
किया था— उनकी
मौन संबोधि, उनका
मौन बुद्धत्व;
क्योंकि
महाकाश्यप भी
शिखर बन चुके
थे। एक ऊंचाई!
और दो
ऊंचाइयां अब
मिल सकती थीं।
और ऐसा हमेशा
रहेगा। इसलिए
यदि तुम अधिक
ऊंचे शिखरों तक
पहुंचना
चाहते हो, तो
समूहों की
भाषा में मत
सोचो।
तुम्हारी
अपनी निजता की
भाषा में
सोचो। समूह
प्रारंभ में
सहायक हो सकता
है, लेकिन
जितने ज्यादा
तुम विकसित
होते हो, उतना
ही कम सहायक
हो सकता है
समूह। अंतत:
एक बिंदु आ
जाता है, जब
समूह कोई
सहायता नहीं
दे सकता। तुम
अकेले छोड़
दिये जाते हो।
और जब तुम
समग्र रूप से
अकेले होते हो
और तुम अपने
अकेलेपन में
विकसित होने
लगते हो, तब
पहली बार तुम
अस्तित्ववान
बनते हो। तुम
एक आत्मा बनते
हो, एक
व्यक्तित्व।
प्रश्न
तीसरा:
अभ्यास
एक तरह का
संस्कारीकरण
है शारीरिक और
मानसिक स्तर
पर और इसी के
द्वारा समाज
व्यक्ति को अपना
गुलाम बना
लेता है। उस
अवस्था में
पतंजलि का
अभ्यास
मुक्ति का
साधन कैसे हो
सकता है?'
समाज
तुम्हें
संस्कारित
करता है, तुम्हें
एक गुलाम, एक
आज्ञाकारी
सदस्य बना
देने के लिए।
इसलिए प्रश्र
तर्कसंगत
लगता है—मन को
सतत
संस्कारित
करना किस तरह
तुम्हें मुक्त
बना सकता है? लेकिन
प्रश्र
तर्कसंगत
लगता ही है
क्योंकि तुम
दो प्रकार के
संस्कारों को
उलझा रहे हो।
उदाहरण
के तौर पर तुम
मेरे पास आये
हो,
तुमने दूर
की यात्रा की
है। जब तुम
वापस जाते हो,
तुम फिर उसी
राह की यात्रा
करोगे। मन पूछ
सकता है, जो
राह मुझे यहां
लायी है वही
राह मुझे वापस
कैसे ले जा
सकती है? राह
वही होगी, लेकिन
तुम्हारी
दिशा भिन्न
होगी—बिलकुल
विपरीत। जब
तुम मेरी ओर आ
रहे थे, तुम
मेरी ओर मुख
धिये हुए थे; लेकिन जब
तुम वापस जाते
हो, तब तुम
विपरीत दिशा
की ओर मुख
किये हुए
होओगे। लेकिन
रास्ता वही
होगा।
समाज
तुम्हें
संस्कारों से
भरता है, तुम्हें
एक आज्ञाकारी
सदस्य, एक
गुलाम बनाने
के लिए। यह तो
बस एक रास्ता
है। उसी
रास्ते पर
यात्रा करनी
होगी तुम्हें
मुक्त बनने के
लिए केवल दिशा
विपरीत होगी।
वही विधि
प्रयोग करनी
होती है
तुम्हें अ—संस्कारित
करने के लिए।
मुझे
एक कथा याद है—एक
बार बुद्ध
अपने
भिक्षुओं के
पास आये, वे
प्रवचन देने
जा रहे थे। वे
वृक्ष के नीचे
बैठे थे अपने
हाथ में एक
रूमाल पक्के
हुए। उन्होंने
रूमाल की ओर
देखा। सारी
सभा ने भी
देखा जानने के
लिए कि वे
क्या कर रहे
थे। फिर
उन्होंने
पांच गांठें
रूमाल में
बाधी और
उन्होंने
पूछा, ' अब
मुझे क्या
करना चाहिए इस
रूमाल की
गांठें खोलने
के लिए? क्या
करना चाहिए अब
मुझे?' फिर
उन्होंने
दूसरा प्रश्र
पूछा— 'क्या
रूमाल वैसा ही
है जब इसमें
कोई गांठें न थीं,
या यह भिन्न
है?'
एक
भिक्षु बोला, 'एक
अर्थ में यह
वही है
क्योंकि
रूमाल का
स्वरूप नहीं
बदला है।
गांठों के साथ
भी यह वैसा ही
है—वही रूमाल।
अंतर्निहित
स्वरूप वही
है। लेकिन एक
अर्थ में यह
बदल गया है
क्योंकि कुछ
नया घटित हुआ
है। गांठें
पहले नहीं थीं
और अब गांठें
वहां हैं।
इसलिए ऊपरी
तौर पर यह बदल
गया है, लेकिन
गहराई में यह
वही है।’
बुद्ध
ने कहा, 'यही
है मुनष्य के
मन की स्थिति।
गहरे तल पर वह खुली
हुई रहती है।
स्वरूप वही
रहता है।’जब
तुम प्रबुद्ध
हो जाते हो, बुद्ध—पुरुष,
तब
तुम्हारा कोई
भिन्न चैतन्य
नहीं होगा। स्वरूप
वही बना
रहेगा। अंतर
केवल यही होता
है कि अभी तुम
गांठों वाले
रूमाल हो, तुम्हारे
चैतन्य की कुछ
गांठें हैं।
दूसरा
प्रश्र बुद्ध
ने पूछा, वह था,
'मुझे क्या
करना चाहिए
रूमाल की गांठ
खोलने के लिए?
rएं एक
दूसरे भिक्षु
ने उत्तर दिया,
'जब तक कि हम
जान न लें कि
आपने उसमें
गांठ बांधने
के लिए क्या
किया है, हम
कुछ नहीं कह
सकते, क्योंकि
विपरीत प्रक्रिया
प्रयोग में
लानी होगी।
जिस ढंग से
आपने इसमें
गांठ बांधी है
पहले उसे
जानना है, क्योंकि
विपरीत क्रम
फिर से उसकी
गांठ खोल देने
वाला ढंग होगा।’बुद्ध ने
कहा, 'यह
दूसरी चीज है।
तुम इस बंधन
में कैसे आ
गये इसे समझ
लेना है। तुम
अपने बंधन में
संस्कारित
कैसे हो गये
हो, इसे
समझना है
क्योंकि वही
होगी
प्रक्रिया, विपरीत क्रम
में, तुम्हें
संस्कारशून्य
करने के लिए।'
यदि
आसक्ति
संस्कारग्रस्त
करने वाला
कारण है, तब
अनासक्ति सहज
करने वाला
कारण बन
जायेगा। यदि
अपेक्षाएं
तुम्हें दुख
की ओर ले जाती
हैं, तब
अनपेक्षा
तुम्हें गैर—दुख
में ले जायेगी।
अगर क्रोध
तुम्हारे
भीतर नरक
निर्मित करता
है, तो
करुणा स्वर्ग
निर्मित
करेगी। दुख की
जो भी
प्रक्रिया है
उससे सुख की
प्रक्रिया
विपरीत होगी।
असंस्कारित
होने का अर्थ
है कि मनुष्य
चेतना की सारी
गांठों—भरी
स्थिति—जैसी
वह है, तुम्हें
समझनी है। योग
की यह सारी
प्रक्रिया
जटिल गांठों
को समझने के
और फिर उन
गांठों को
खोलने के, उन्हें
सहज करने के
सिवा और कुछ
नहीं हो सकती।
ध्यान रहे, यह पुन:
संस्कारीकरण
नहीं है। यह
केवल
संस्कारीकरण
का अभाव है, यह
नकारात्मक है।
अगर यह
पुनःसंस्कारीकरण
है, तब तुम
फिर गुलाम बन
जाओगे। एक नयी
जेल में एक
नये तरह के
गुलाम। अत: यह
अंतर याद रखना
है। यह
संस्कारों का
अभाव है, पुन:
संस्कारित
करना नहीं।
इसके
कारण बहुत
समस्याएं उठ
खडी हुई हैं।
कृष्णमूर्ति
कहे जाते है
कि 'यदि तुम कुछ
करते हो, तो
वह पुन:
संस्कार बन
जायेगा, इसलिए
कुछ करो नहीं।
यदि तुम कुछ
करते हो, तो
वह नया
संस्कार बन
जायेगा। हो
सकता है तुम
बेहतर गुलाम
हो जाओ, लेकिन
तुम गुलाम बने
रहोगे।’ उन्हें
सुनते हुए
बहुत लोगों ने
सारे प्रयत्न
छोड़ दिये हैं।
लेकिन यह बात
उन्हें मुक्त
नहीं बना देती।
वे मुक्त नहीं
हुए हैं अभी
तक। संस्कार
वहां हैं। वे
संस्कार
विहीन नहीं हो
रहे।
कृष्णमूर्ति
को सुनते हुए
वे बंद ही हो
गये हैं। वे
नव—संस्कारित
नहीं हो रहे।
लेकिन
संस्कारों से
मुक्त भी नहीं
हो रहे। वे
गुलाम रहते
हैं।
तो
मैं नव—संस्कार
के लिए नहीं
कहता, न ही
पतंजलि नव—संस्कार
की कहते हैं।
मैं संस्कार
के अभाव की
बात कहता हूं
और पतंजलि भी
संस्कार के
अभाव की बात
कहते हैं। जरा
मन को समझना।
जो भी है
बीमारी, बीमारी
को समझना, उसका
निदान करना और
विपरीत क्रम
में गति करना।
क्या
है अंतर? एक
वास्तविक
उदाहरण लो—तुम
क्रोध अनुभव
करते हो।
क्रोध एक
संस्कार है, तुमने उसे
सीख लिया है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
यह एक शिक्षण
है, यह एक
आयोजित दशा है।
तुम्हारा
समाज इसे
तुम्हें
सिखाता है। वे
समाज अब भी
हैं जो कभी
क्रोधित नहीं
होते। उसके
सदस्य कभी
क्रोधित नहीं
होते। समाज
हैं—छोटे
जनजातीय
कबीले अब भी
विद्यमान हैं,
जिन्होंने
कभी किसी लड़ाई
या किसी युद्ध
को नहीं जाना
फिलिपाइंस
में एक छोटा
आदिवासी
समुदाय विद्यमान
है। तीन हजार
वर्षों से
इसने कोई लड़ाई
नहीं जानी है।
एक कत्ल नहीं
हुआ,
एक भी
आत्महत्या
नहीं। वे सबसे
अधिक
शांतिप्रिय
लोग हैं, सबसे
अधिक सुखी लोग
हैं। यह कैसे
हुआ है? बिलकुल
शुरू से उनका
समाज उन्हें
क्रोध के लिए
कभी
संस्कारित
नहीं करता। उस
आदिम जाति में,
अगर तुम
अपने सपने में
भी किसी को
मार दो, तो
तुम्हें जाना
पड़ता है और
उससे माफी
मांगनी पड़ती
है—चाहे तुमने
उसे केवल सपने
में ही मारा
था। अगर तुम
किसी के साथ
नाराज हो और
तुम उसके साथ
लड़ते रहे हो
सपने में, तब
अगले दिन
तुम्हें गांव
में घोषित
करना होता है
कि तुमने कुछ
गलत किया है।
तब ग्रामवासी
एक साथ
एकत्रित
होंगे, और
गांव का
प्रज्ञावान
मुखिया
तुम्हारे
सपने का निदान
करेगा और राय
देगा कि अब
क्या करना
चाहिए। छोटे
बच्चों के साथ
भी यही होता
है!
मैं
उनके स्वप्न—विश्लेषण
पढ रहा था। वे
बात के मर्म
तक अत्यधिक
पैठने वाले
लोगों में से
एक जान पड़ते
हैं। एक छोटा
बच्चा स्वप्न
देखता है।
अपने स्वप्न
में वह पड़ोसी
के लड़के को
बहुत उदास हुआ
देखता है।
सुबह वह अपने
पिता को यह
सपना सुना
देता है। वह
कहता है, 'मैंने
हमारे पड़ोसी
के बेटे को
बहुत उदास हुआ
देखा है।’
पिता
सपने के बारे
में सोचता है, अपनी
आंखें बंद कर
लेता है, ध्यान
करता है और
फिर कहता है, ' अगर तुमने
उसे उदास देखा
है, तो
इसका मतलब हुआ
कि किसी तरह
उसकी उदासी
तुमसे
संबंधित है।
किसी दूसरे ने
उसके उदास
होने के बारे
में सपना नहीं
देखा है।
इसलिए जाने या
अनजाने तुमने
कुछ किया है
उसकी उदासी
निर्मित करने
में। या, अगर
तुमने कुछ
नहीं किया है,
तो भविष्य
में तुम ऐसा
करने वाले वो।
सपना तो बस एक
भविष्य—कथन है।
बहुत
मिठाइयां, बहुत
उपहार साथ ले
जाओ। लड़के को
मिठाइयां और
उपहार दो और
उससे क्षमा मांगो—या
तो जो कुछ
अतीत में किया
उसके लिए, या
किसी उस चीज
के लिए जिसे
तुम भविष्य
में करने वाले
हो।’
तो
वह लड़का जाता
है,
फल देता है,
मिठाइयां
और उपहार देता
है, और उस
दूसरे बच्चे
से क्षमा
मांगता है
क्योंकि किसी
तरह, सपने
के अनुसार, वह उसकी
उदासी के लिए
जिम्मेदार है।
और बिलकुल
शुरू से ही
बच्चे इसी ढंग
से पाले जाते
हैं। अगर यह
आदिम जाति
बिना संघर्ष,
लड़ाई, कत्ल
या आत्महत्या
के बनी रही है,
तो कोई
आश्चर्य नहीं
है। वे इन
चीजों की
कल्पना नहीं
कर सकते। एक
अलग प्रकार का
मन वहां काम
कर रहा
अब
मनसविद कहते
हैं कि घृणा
और क्रोध
स्वाभाविक
नहीं होता है।
प्रेम
स्वाभाविक है।
घृणा और क्रोध
तो निर्मित
किये जाते हैं।
वे प्रेम के
लिए बाधाएं
हैं,
लेकिन समाज
उनके लिए
तुम्हें
संस्कारित कर
देता है।
संस्कार के
अभाव का अर्थ
है कि जो कुछ
भी समाज ने
किया है, उसने
किया है। उसकी
निंदा ही करते
चले जाने का
कोई उपयोग नहीं
है। यह अवस्था
है। केवल कह
देने भर से कि
समाज
जिम्मेदार है,
तुम्हें
सहायता नहीं
मिलती है।
संस्कारित तो
कर दिया गया
है। बिलकुल
अभी जो तुम कर
सकते हो वह यह
है कि स्वयं
को अ—संस्कारित
करो। तो जो
कुछ भी
तुम्हारी
समस्या है, उसे गहरे
में देखो।
उसमें उतरो, उसे
विश्लेषित
करो और समझो
कि तुम कैसे
उसमें संस्कारित
किये गये हो।
उदाहरण
के लिए—ऐसे
समाज हैं जो
कभी
प्रतिस्पर्धा
नहीं करते।
भारत में भी
आदिवासी
जातियां हैं
जिनके लिए प्रतिस्पर्धा
कोई अस्तित्व
नहीं रखती।
बेशक वे हमारे
मानदंडों के
अनुसार बहुत
प्रगतिशील
नहीं हो सकते।
क्योंकि
हमारी तरह की
उन्नति केवल
प्रतियोगिता
का परिणाम हो
सकती है, और वे
प्रतियोगी
नहीं होते हैं।
लेकिन
क्योंकि वे
प्रतियोगी
नहीं हैं, वे
क्रोधी नहीं
हैं, वे
ईर्ष्यालु
नहीं हैं, वे
बहुत ज्यादा
घृणा से भरे
हुए नहीं हैं,
वे इतने
हिंसात्मक
नहीं हैं। वे
बहुत अपेक्षा
नहीं रखते और
वे प्रसन्न
तथा कृतज्ञ
अनुभव करते
हैं उसके लिए,
जो जीवन
उन्हें देता
है।
तुम्हें
चाहे जीवन कुछ
भी दे दे, तुम
कभी कृतज्ञ
अनुभव नहीं
करते। तुम
हमेशा निराश
रहते हो
क्योंकि तुम
हमेशा अधिक की
मांग कर सकते
हो। तुम्हारी
आशाओं और
इच्छाओं का
कोई अंत नहीं
है। इसलिए अगर
तुम दुखी
अनुभव करते हो,
तो दुख को
जांचना और
उसका
विश्लेषण
करना। वे
संस्कारक
तत्व क्या हैं
जो दुःख निर्मित
कर रहे हैं? और यह बहुत
कठिन नहीं है
समझना। यदि
तुम दुख निर्मित
कर सकते हो, यदि तुम
इतने समर्थ हो
दुख निर्मित
करने में, तो
इसे समझने में
कोई कठिनाई
नहीं है। यदि
तुम इसे
निर्मित कर
सकते हो, तो
तुम इसे समझ
सकते हो।
पतंजलि
का सारा
दृष्टिकोण यह
है : आदमी के
दुख पर दृष्टि
डालते हुए, यह
पाया गया है
कि आदमी स्वयं
जिम्मेदार
है। वह कुछ कर
रहा है दुख
निर्मित करने
के लिए। वह करना
एक आदत हो गया
है, इसलिए
वह किये चला
जाता है। वह
आवृत्तिमूलक
बन गया है, यांत्रिक,
यंत्र—मानव
जैसा। लेकिन
यदि तुम
जागरूक बन
जाते हो, तो
तुम इसे
समाप्त कर
सकते हो। तुम
आसानी से कह
सकते हो कि
मैं सहयोग
नहीं दूंगा।
तब रचनातंत्र
कार्य करना
बंद कर देगा।
कोई
तुम्हारा
अपमान कर देता
है। तुम बस
स्थिर बने
रहते हो और
चुप हो जाते
हो।
प्रक्रिया
आरंभ होगी; पिछला
ढांचा सक्रिय
हो जायेगा।
क्रोध आयेगा,
धुंआ उठेगा
और तुम बस
पागल होने की
सीमा पर होओगे।
लेकिन तुम
निश्चेष्ट
बने रहो।
सहयोग मत दो
और बस देखो कि
कल—पुरजे क्या
कर रहे हैं।
तुम अनुभव
करोगे चक्र के
भीतर चक्र घूम
रहे हैं
तुम्हारे
भीतर, लेकिन
वे असमर्थ हैं
क्योंकि तुम
सहयोग नहीं दे
रहे।
या
अगर तुम असंभव
पाते हो ऐसी
स्थिर अवस्था
में बने रहना, तो
अपने कमरे में
चले जाओ, दरवाजा
बंद कर लो, अपने
सामने एक
तकिया रख लो, और तकिये को
मारो—पीटो।
तकिये पर
क्रोध करो। जब
तुम तकिये को
पीट रहे होते
हो, तकिये
पर क्रोध कर
रहे होते हो
और पागल हुए
जाते हो, तब
जरा ध्यान से
देखना कि तुम
क्या कर रहे
हो—क्या हो
रहा है, ढांचा
अपने को कैसे
दोहरा रहा है।
यदि
तुम
निश्चेष्ट हो
सकते हो, वह
सबसे अच्छा
है। यदि तुम
अनुभव करते हो
यह कठिन है, कि तुम
खिंचे जा रहे
हो, तब
कमरे में चले
जाओ और तकिये
पर क्रोध कर
लो। तकिये के
साथ तुम्हारा
पागलपन
तुम्हारे
सामने पूरी तरह
प्रकट हो
जायेगा। वह
साफ दिख
जायेगा। और तकिया
प्रतिक्रिया
नहीं करने
वाला, इसलिए
तुम ज्यादा
आसानी से देख
सकते हो। कोई
खतरा नहीं है,
सुरक्षा की
कोई समस्या
नहीं है। तुम
ध्यान से देख
सकते हो। धीरे—धीरे,
क्रोध का
चढ़ना होता है
और फिर क्रोध
का ढलना होता
है।
दोनों
की लय पर
ध्यान दो। और
जब तुम्हारा
क्रोध निढाल
हो जाता है और
तुम तकिये को
अब और पीटने
जैसा अनुभव
नहीं करते, या
तुमने हंसना
शुरू कर दिया
है या तुम
हास्यास्पद
अनुभव करते हो,
तब अपनी
आंखें बंद कर
लो, जमीन
पर बैठ जाओ, और उस पर
ध्यान करो जो
घटित हुआ है।
क्या तुम अब
भी उस व्यक्ति
के लिए क्रोध
अनुभव करते हो
जिसने
तुम्हारा
अपमान किया है,
या क्या
क्रोध उस
तकिये के ऊपर
फेंक दिया गया
है? तुम
अनुभव करोगे,
एक स्पष्ट
शांति तुम पर
बरस रही है।
जो व्यक्ति
संबंधित है, तुम अब उस पर और
क्रोध अनुभव न
करोगे। बल्कि
हो सकता है
तुम उसके लिए
करुणा भी
अनुभव करो।
एक
युवा अमरीकी
लड़का दो वर्ष
पहले यहां था।
वह अमरीका से
भाग आया था एक
समस्या, एक
आवेश के कारण।
वह लगातार
सोचता रहा था
अपने पिता की
हत्या करने की
बात। पिता
खतरनाक आदमी
रहा होगा, उसने
लड़के को बहुत
ज्यादा दबाया
होगा। अपने
सपनो में बेटा
अपने पिता की
हत्या करने की
सोचता रहा था,
और अपने
दिवास्वप्नों
में भी वह
उनकी हत्या
करने की सोचता
रहा था। वह घर
से भागा था तो
केवल इसलिए कि
वह अपने पिता
के पास नहीं
रहेगा। वरना
किसी दिन कुछ
घटित हो सकता
था। पागलपन
मौजूद था, वह
किसी क्षण फूट
सकता था।
वह
लड़का यहां
मेरे पास था।
मैंने उससे
कहा,
'अपनी
भावनाओं का
दमन मत करो।’ मैने उसे
तकिया दिया और
कहा, 'यह
तुम्हारे
पिता हैं। अब
जो कुछ तुम
चाहते हो, करो।’
पहले तो
उसने हंसना
शुरू कर दिया,
पागल ढंग का
हंसना। वह बोला,
'यह बेतुका
लगता है।’ मैंने
उससे कहा, 'होने
दो बेतुका।
अगर यही है मन
में, तो
इसे बाहर आने
दो। पंद्रह
दिन तक लगातार
वह तकिये को
पीटता रहा था
और चीरता—फाड़ता
रहा था, और
जो कुछ वह
चाहता था करता
रहा। सोलहवें
दिन, वह
चाकू लेकर
आया। मैंने यह
लाने को नहीं
कहा था उससे।
इसलिए मैंने
उससे पूछा, 'यह चाकू
क्यों?'
वह
बोला, 'अब मुझे
रोकिए मत।
मुझे मारने
दें। अब तकिया
मेरे लिए कोई
तकिया नहीं
रहा। तकिया
वास्तव में
मेरा पिता बन
गया है।’ तो
उस दिन उसने
अपने पिता को
मार डाला। फिर
उसने रोना
शुरू कर दिया;
उसकी आंखों
में आंसू आ
गये। वह शांत
पड़ गया, हल्का
हो आया और फिर
उसने मुझसे
कहा, 'अब मै
अपने पिता के
लिए ज्यादा
प्रेम अनुभव
कर रहा हूं
ज्यादा
करुणा। अब
मुझे वापस घर
जाने दीजिए।’
अब
वह वापस
अमरीका पहुंच
गया है। अपने
पिता के साथ
उसका संबंध
पूरी तरह बदल
चुका है। क्या
घटित हुआ है? बस
यही कि एक
यांत्रिक—आवेग
टूट गया था।
जब
कुछ पुराने
ढांचे
तुम्हारे मन
को पकड़े हुए हों
तब अगर तुम
स्थिर बने रह
सकते हो तो यह
अच्छा है। यदि
तुम नहीं रह
सकते, तब इसे
नाटकीय ढंग से
घटित होने दो,
लेकिन
अकेले; किसी
के साथ नहीं।
क्योंकि जब
कभी तुम अपने
ढांचे का
अभिनय करते हो,
जब कभी तुम
अपने ढांचे को
किसी के साथ
स्वयं व्यक्त
होने देते हो,
तो यह नयी
प्रतिक्रियाएं
निर्मित करता
है और यह एक
दुष्चक्र बन
जाता है।
सबसे
अधिक
महत्वपूर्ण
बात है ढांचे
के प्रति चौकन्ने
होना। चाहे
तुम मौन बने
खड़े हुए हो या
अपने क्रोध और
घृणा को
अभिनीत कर रहे
हो। यह कैसा
खुलता जाता है
इसे देखते हुए
सजग रहो। और
यदि तुम रचना—तंत्र
को देख सकते
हो,
तो तुम उसे
मिटा सकते हो।
योग
के सारे चरण
बस उसे अनकिया
करने के लिए
हैं जिसे तुम
करते रहे हो।
वे नकारात्मक
है;
कुछ नया
निर्मित नहीं
करना है। गलत
को नष्ट मात्र
करना है, और
तब ठीक वहां
पहले से ही
है। तो विधायक
कुछ नहीं किया
जाना है, केवल
कुछ
नकारात्मक ही
करना है।
विधायक उसके तले
ही छिपा है।
वह किसी
लहराती धारा
की भांति है
जो चट्टान के
नीचे छिपी है।
तुम धारा का
.निर्माण नहीं
कर रहे। वह
वहां निनाद कर
रही है पहले
से ही। वह
मुक्त हो
प्रवाहमान हो
जाना चाहती
है। एक चट्टान
वहां है। इस
चट्टान को हटा
देना है। एक
बार चट्टान
हटा दी जाती
है, धारा
बहना शुरू कर
देती है।
आनंद, सुख,
हर्ष या जो
कुछ भी तुम
नाम रखो उसका,
वह
तुम्हारे
भीतर बह ही
रहा है। केवल
कुछ चट्टानें
वहां है। वे
चट्टानें
समाज के
आरोपित
संस्कार है। उन्हें
असंस्कारित
कर दो। अगर
तुम अनुभव करते
हो कि आसक्ति
चट्टान है, तो अनासक्ति
के लिए
प्रयत्न करो।
अगर तुम अनुभव
करते हो कि
क्रोध है
चट्टान, तो
अ—क्रोध के
लिए प्रयास
करो। अगर
तुम्हें लगता
है लोभ चट्टान
है, तब अ—लोभ
के लिए प्रयास
करो। बस
विपरीत करो।
लोभ का दमन मत
करो, केवल
विपरीत करो।
कोई चीज करो
जो गैर—लोभ की
हो। क्रोध का
दमन मात्र मत
करो, कुछ
करो जो अ—क्रोध
की बात हो।
जापान
में जब किसी
को क्रोध आता
है,
तो उनका एक
परंपरागत
शिक्षण होता
है; अगर
कोई क्रोधित
होता है, तो
तुरंत उसे कुछ
ऐसी बात करनी
होती है जो अ—क्रोध
की हो। वही
ऊर्जा जो
क्रोध में
सरकने जा रही
थी अब अ—क्रोध
में सरकने
लगती है।
ऊर्जा तटस्थ
है। यदि तुम
किसी पर क्रोध
अनुभव करते हो
और तुम उसके
चेहरे पर
चांटा जड़ देना
चाहते हो, उसे
फूल दो और
देखो क्या
घटित होता है!
तुम
उसके चेहरे पर
चांटा मारना
चाहते थे, तुम
क्रोध में कुछ
करना चाहते
थे। उसे फूल
दो और जरा
ध्यान दो, क्या
घटित हो रहा
है। तुम कुछ
बात कर रहे हो
जो अ—क्रोध की
है। वही ऊर्जा
जो तुम्हारे
हाथ को क्रोध
में बढ़ाने
वाली थी, अब
भी तुम्हारे
हाथ को
चलायेगी। वही
ऊर्जा जो उसे
मारने जा रही
थी, अब उसे
फूल देने जा
रही है।
स्वभाव बदल
गया है। तुमने
कुछ किया है।
और ऊर्जा
तटस्थ है। अगर
तुम कुछ नहीं
करते, तब
तुम दमन करते
हो। और दमन
विष है। तो
कुछ करो, लेकिन
विपरीत ही
करो। यह कोई
नया संस्कार
नहीं है। यह
तो बस पुराने
को अ—संस्कारित
करना है। जब
पुराना मिट
गया है, जब
गाठें विलीन
हो गयी हैं, तुम्हें कुछ
करने की चिंता
न रहेगी। तब
तुम सहज रूप
से बह सकते
हो।
प्रश्न
चौथा:
आपने
कहा था कि
आध्यात्मिक
प्रयास बीस—तीस
वर्ष या
जिंदगियां भी
ले सकता है और
तब भी शायद वह
बहुत जल्दी
हो। लेकिन
पश्चिमी—मन
बहुत
परिणामोन्मुख
अधैर्यवान और
बहुत व्यावहारिक
लगता है। वह
तात्कालिक
परिणाम चाहता
है। पश्चिम
में धार्मिक
तरकीबें आती
और जाती हैं दूसरी
सनकों की तरह।
तब आप पश्चिमी—मन
में योग उतार
देने का इरादा
कैसे करते हैं?
मैं पश्चिम—मन
में या पूरबी—मन
में रुचि नहीं
रखता। यह तो बस
एक मन के दो पहलूं।
मेरी दिलचस्पी
मन में ही है।
और यह पूरबी, पश्चिमी
विभाजन बहुत
अर्थ पूर्ण नहीं
है। अब तो महत्वपूर्ण
भी नहीं है।
पश्चिम में पूरबी—मन
है और पश्चिमी—मन
मौजूद है पूरब
मे। और अब सारी
बात ही एक गड़बडी
बन गयी है।
पूरब भी अब शीघ्रता
में है।
पुराना पूरब मिट
गया है पूरी तरह
से।
इस
बात ने मुझे एक
ताओ कथा की
याद दिला दी है।
तीन ताओ वादी एक
गुफा में
ध्यान कर रहे
थे। एक वर्ष व्यतीत
हो गया था। वे मौन
थे,
बस बैठे हुए
थे और ध्यान कर
रहे थे। एक दिन
एक घुड़ सवार पास
से गुजर गया।
उन्होंने ऊपर
देखा। उन तीन एकांत
वासियों में
से एक बोला, 'वह घोड़ा सफेद
था, जिसकी वह
सवारी कर रहा
था। दूसरे दोनों
चुप रहे। एक वर्ष
बाद वह दूसरा साधक
बोला, 'वह घोड़ा
काला था, सफेद
नहीं।’ फिर
एक और वर्ष
व्यतीत हो
गया। तीसरा एकांत
वासी साधक
बोला, अगर
कोई झगड़े होनेवाले
हैं तो मैं जा
रहा हूं। मैं जा
रहा हूं! तुम मेरे
मौन में विघ्न
डाल रहे हो।’
यह
बात क्या
महत्व रखती थी
कि वह घोड़ा
सफेद था या
काला? तीन
वर्ष! लेकिन
इस ढंग से
जीवन
प्रवाहित
होता था पूरब में।
समय—बोध नहीं
था। पूरब समय के
प्रति बिलकुल सचेतन
था। पूरब शाश्वतता
में जीया जैसे
कि समय व्यतीत
नहीं हो रहा
था। हर चीज स्थिर
थी।
लेकिन
उस पूरब का अब
कोई अस्तित्व नहीं
है। पश्चिम ने
हर चीज को विकृत
कर दिया है, और
वह पूरब मिट चुका
है। पश्चिमी शिक्षा
के कारण हर कोई
पश्चिमी है
अब। केवल कुछ
थोड़े से अकेले
लोग अबतक हैं
जो पूरबी हैं।
और वे पश्चिम
में हो सकते
हैं, वे
पूरब में हो
सकते हैं। अब
वे किसी तरह
पूरब तक
परिसीमित
नहीं। बल्कि
देखा जाये तो
कुल मिलाकर
पूरी दुनियां,
यह सारी
पृथ्वी ही
पश्चिमी बन
गयी है।
योग
कहता है—और
इसे तुम अपने
में उतरने दो
बहुत गहरे
क्योंकि यह बहुत
अर्थपूर्ण
होगा—योग.
कहता है कि
जितने अधिक
तुम व्यग्र
होते हो, उतना
अधिक समय
तुम्हारे
रूपांतरण के
लिए लगेगा।
जितने ज्यादा
तुम जल्दी में
होते हो, उतनी
ज्यादा
तुम्हें देर
लगेगी।
शीघ्रता
स्वयं ही इतनी
उलझन निर्मित
करती है कि
परिणाम में
देर लगेगी ही।
जितना
कम तुम जल्दी
में होते हो, उतने
जल्दी परिणाम
होंगे। अगर
तुम असीम रूप
से
धैर्यपूर्ण
होते हो, तो
बिलकुल इसी
क्षण
रूपांतरण
घटित हो सकता
है। यदि तुम
हमेशा के लिए
प्रतीक्षा
करने को तैयार
हो तो हो सकता
है तुम्हें
अगले क्षण तक
भी प्रतीक्षा
न करनी पड़े।
इसी क्षण वह
बात घट सकती
है। क्योंकि
यह समय का
प्रश्न नहीं,
यह
तुम्हारे मन
की गुणवत्ता
का प्रश्न है।
असीम
धैर्य की
आवश्यकता
होती है।
परिणामों के
लिए न ललचना
तुम्हें बहुत
गहराई दे देता
है। लेकिन
शीघ्रता
तुम्हें
छिछला बनाती
है। तुम इतनी
जल्दी में हो
कि गहरे नहीं
हो सकते।
तुम्हें इस
क्षण में रुचि
भी नहीं है जो
यहां है, बल्कि
तुम उसकी ओर
आकृष्ट हो जो
आगे घटित होने
वाला है। तुम
परिणाम में
दिलचस्पी
लेने वाले हो।
तुम स्वयं से
आगे बढ़ रहे हो,
तुम्हारी
प्रवृत्ति
पागल है। तुम
शायद बहुत दूर
दौड़ जाओ, तुम
बहुत दूर
यात्रा कर आओ,
लेकिन तुम
कहीं नहीं
पहुंचोगे
क्योंकि जिस लक्ष्य
तक पहुंचना है
वह बस यहीं है।
तुम्हें
उसमें डूबना
होता है। कहीं
पहुंचना नहीं
है। और डूब
जाना तभी संभव
है जब तुम
पूरी तरह धैर्यवान
होते हो।
मैं
तुमसे एक झेन
कथा कहूंगा।
एक झेन भिक्षु
जंगल में से
गुजर रहा है।
अचानक वह सजग
हो जाता है कि
एक शेर उसका
पीछा कर रहा है, इसलिए
वह भागना शुरू
कर देता है।
लेकिन उसका
भागना भी झेन
ढंग का है। वह
जल्दी में
नहीं है, वह
पागल नहीं है।
उसका भागना भी
शांत है, लयबद्ध।
वह इसमें रस
ले रहा है। यह
कहा जाता है
कि भिक्षु ने
अपने मन में
सोचा, ' अगर
शेर इसका मजा
ले रहा है तो
मुझे क्यों
नहीं लेना
चाहिए? '
और
शेर उसका पीछा
कर रहा है।
फिर वह ऊंची
चट्टान के
नजदीक
पहुंचता है।
शेर से बचने
के लिए ही वह
पेडू की डाली
से लटक जाता
है। फिर वह
नीचे की ओर
देखता है—एक
सिंह घाटी में
खड़ा हुआ है, उसकी
प्रतीक्षा
करता हुआ। फिर
शेर वहां
पहुंच जाता है,
पहाड़ी की
चोटी पर, और
वह पेड़ के पास
ही खड़ा हुआ है।
भिक्षुबीच
में लटक रहा
है बस डाल को
पकड़े हुए।
नीचे घाटी में
गहरे उतार पर
सिंह उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा है।
भिक्षु हंस
पड़ता है। फिर
वह ऊपर देखता
है। दो चूहे
एक सफेद, एक
काला, डाली
ही कुतर रहे
हैं। तब वह
बहुत जोर से
हंस देता है।
वह कहता है, 'यह है
जिंदगी। दिन
और रात, सफेद
और काले चूहे
काट रहै हैं।
और जहां मैं
जाता हूं मौत
प्रतीक्षा कर
रही है। यह है
जिंदगी।’ और
यह कहा जाता
है कि भिक्षु
को 'सतोरी'
उपलब्ध हो
गयी—संबोधि की
पहली झलक। यह
है जिंदगी!
चिंता करने को
कुछ है नहीं, चीजें इसी
तरह है। जहां
तुम जाते हो
मृत्यु
प्रतीक्षा कर
रही है। और
अगर तुम कहीं
नहीं भी जाते
तो दिन और रात
तुम्हारा
जीवन काट रहे
हैं। इसलिए
भिक्षु जोर से
हंस पड़ता है।
फिर
वह चारों ओर
देखता है, क्योंकि
अब हर चीज निधर्ग़रत
है। अब कोई
चिंता नहीं।
जब मृत्यु
निश्चित है तब
चिंता क्या है?
केवल
अनिश्चितता
में चिंता
होती है। जब
हर चीज
निश्चित है, कोई चिंता
नहीं होती है,
अब मृत्यु
नियति बन गयी
है। इसलिए वह
चारों ओर
देखता है यह
जानने के लिए
कि इन थोड़ी—सी
आखिरी घडियों
का आनंद कैसे
उठाया जाये।
उसे होश आता
है कि डाल के
बिलकुल निकट
ही कुछ स्ट्राबेरीज
हैं, तो वह
कुछ
स्ट्राबेरी
तोड़ लेता है
और उन्हें खा
लेता है। वे
उसके जीवन की
सबसे बढ़िया
स्ट्राबेरी
हैं। वह उनका
मजा लेता है।
और ऐसा कहा
जाता है कि वह
उस घडी में
संबोधि को उपलब्ध
हो गया था।
वह
बुद्ध हो गया
क्योंकि
मृत्यु के
इतना निकट होने
पर भी वह कोई
जल्दी में
नहीं था। वह
स्ट्राबेरी
में रस ले
सकता था। वह
मीठी थी। उसका
स्वाद मीठा था।
उसने भगवान को
धन्यवाद दिया।
ऐसा कहा जाता
है कि उस घड़ी
में हर चीज खो
गयी थी—वह शेर, वह
सिंह, वह
डाल, वह स्वयं
भी। वह
ब्रह्मांड बन
गया।
यह
है धैर्य। यह
है संपूर्ण
धैर्य। जहां
तुम हो, उस
क्षण का आनंद
मनाओ भविष्य
की पूछे बिना।
कोई भविष्य मन
में नहीं होना
चाहिए। केवल
वर्तमान क्षण
हो,श्ण की
वर्तमानता, और तुम
संतुष्ट होते
हो। तब कहीं
जाने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। जहां
तुम हो उसी
बिन्दु से, उसी क्षण ही,
तुम सागर
में गिर जाओगे।
तुम
ब्रह्मांड के
साथ एक हो
जाओगे।
लेकिन
मन के लिए अभी
और यहीं का
महत्व नहीं है।
मन को कहीं
भविष्य में
किन्हीं
परिणामों में दिलचस्पी
है। तो प्रश्न, एक
ढंग से, ऐसे
मन के लिए
प्रासंगिक है—
आधुनिक मन के
लिए। उसे 'आधुनिक
मन' कहना
बेहतर होगा
बजाय पश्चिमी
मन कहने के। आधुनिक
मन निरंतर
भविष्य से, परिणाम से
मस्त होता
रहता है, और
अभी और यहीं
नहीं होता है।
इस
मन को योग
कैसे सिखाया
जा सकता है? इस
मन को योग
सिखाया जा
सकता है
क्योंकि यह भविष्योसुखता
कहीं नहीं ले
जा रही है। यह
भविष्य की ओर
अभिमुख होते
जाना आधुनिक
मन के लिए सतत
दुख का
निर्माण कर
रहा है। हमने
नरक का
निर्माण कर
लिया है। और
हमने इसे बहुत
निर्मित कर
लिया है। अब
मनुष्य को या
तो इस पृथ्वी
से मिट जाना
होगा, या
उसे स्वयं को
रूपांतरित
करना होगा। या
तो मनुष्यता
को पूर्णतया
मरना होगा—क्योंकि
यह नरक अब और
जारी नहीं रखा
जा सकता—या
हमें अंतस
क्रांति से
गुजरना होगा।
इसलिए, योग
बहुत
अर्थपूर्ण और
महत्वपूर्ण
बन सकता है आधुनिक
मन के लिए, क्योंकि
योग बचा सकता
है। यह
तुम्हें सिखा
सकता है फिर
से यहीं और
अभी कैसे होओ,
अतीत को किस
तरह भूलो, भविष्य
को कैसे भूलो।
और किस तरह
वर्तमान क्षण
में बने रहो
इतनी प्रगाढ़ता
के साथ कि यह
क्षण कालातीत
बन जाता है; यही क्षण
शाश्वतता बन
जाता है।
पतंजलि
अधिक से अधिक
अर्थपूर्ण बन
सकते हैं।
जैसे ही यह
शताब्दी अपनी
समाप्ति तक
पहुंची, मानवीय
रूपांतरणविषयक
विधियां
ज्यादा और
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जायेंगी।
वे अभी ही ऐसी
हो गयी हैं
सारे संसार
में। चाहे तुम
उन्हें योग या
झेन कहते हो, या चाहे तुम
उन्हें सूफी
विधियां कहते
हो, या तुम
उन्हें तंत्र
विधियां कहते
हो। बहुत—बहुत
तरीकों से
सारी पुरानी
परंपरागत
शिक्षाएं
प्रकट हो रही
हैं। कोई गहरी
आवश्यकता है।
और हर जगह
संसार के हर
भाग में, लोग
यह ढूंढने में
संलग्न हो गये
हैं कि ऐसे
स्वर्गिक सुख
के साथ, ऐसे
आनंद के साथ
मानवता अतीत
में किस तरह
विद्यमान थी।
ऐसी गरीब
स्थितियों के
साथ, उतने
समृद्ध
व्यक्ति अतीत
काल में कैसे
अस्तित्व
रखते थे? और
हम क्यों इतनी
समृद्ध
अवस्था होते
हुए इतने दीन—हीन
हैं?
यह
विरोधाभास है, आधुनिक
विरोधाभास।
पहली बार हमने
समृद्ध वैज्ञानिक
समाज निर्मित
किये हैं, और
वे सर्वाधिक
कुरूप हैं, सबसे अधिक
अप्रसन्न।
अतीत में कोई वैज्ञानिक
टैक्नालाजी नहीं
थी, चीजों
की कोई
बहुतायत नहीं,
दौलतमंदी
नहीं, विशेष
कुछ सुविधा
नहीं, लेकिन
मानवता इतने
गहरे, शांतिपूर्ण
वातावरण में
बनी रही थी—प्रसन्न,
अनुगृहीत।
क्या घट गया
है? हम
अधिक सुखी हो
सकते हैं, लेकिन
हमने
अस्तित्व के
साथ संपर्क खो
दिया है।
और
वह अस्तित्व
अभी और यहीं
है। और बेचैन
मन उसके
संपर्क में
नहीं हो सकता।
बेचैनी मन की
ज्वरग्रस्त, पागल
अवस्था है।
तुम भागते चले
जाते हो। अगर
लक्ष्य आ भी
जाता है, तो
भी तुम स्थिर
नहीं खड़े हो
सकते क्योंकि
भागना एक तरह
की आदत बन गया
है। अगर तुम
लक्ष्य तक
पहुंच भी जाते
हो, तो तुम
उसे खो दोगे।
तुम उसके बाहर—बाहर
ही निकल जाओगे।
क्योंकि तुम
ठहर नहीं सकते।
यदि तुम ठहर
सकते हो, तो
लक्ष्य को
कहीं खोजना
नहीं है।
एक
झेन गुरु
हुईहाइ ने कहा
है,
'खोजो, और
तुम खो दोगे।
खोजो मत, और
तुम उसे तुरंत
पा सकते हो।
ठहरो, और
वह यहीं है।
भागो, और
वह कहीं नहीं
है।’
आज
इतना ही।
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