श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:
तदा
अधो यदा चित्तं
किंचिद्वाच्छति
शोचति।
किंचिन्मुज्चति
गृहणाति किंचिड़ष्यति
कुप्यति।। 71।।
तदा
मक्तिर्यदा चित्तं
न वांछति न शोचति।
मज्चति
न गृहणाति न हष्यति
न कथ्यति।। 72।।
तदा
अधो यदा चित्तं
सक्तं कास्वपि
दृष्टिषु।
तदा
मोक्षो यदा चितंसक्तं
सर्व द्वष्टिषु।।
73।।
यदा
नाहं तदर मोक्षो
यदाहं बंधन तदा।
सजा का
हाल सुनाएं, जजा
की बात करें,
खुदा मिला हो जिन्हें,
वो खुदा की बात करें।
आदमी
अपने दुख की बात
करता, अपनी चिंताओं
की, बेचैनियों
की, अपने संताप
की। आदमी वही बात
करता है, जो
उसे मिला है। जब
आनंद की किरण फूटती
है, तो एक नई
ही बात शुरू होती
है। जब प्रभु से
मिलन होता, तो सब भूल जाते
जन्मों—जन्मों
के जाल; जैसे
कभी हुए ही न हों;
जैसे रात में
जो देखा था वह सच
ही न रहा हो। सुबह
का सूरज सारी रातों
को झूठ कर जाता।
और सूरज के ऊगने
पर फिर कौन अंधेरे
की बात करे!
जनक
के जीवन में ऐसा
ही सूरज ऊगा है।
और जनक के जीवन
में जो घटा है, वह
इतना आकस्मिक है
कि जनक भी सम्हाल
नहीं पा रहे हैं,
वह बहा जा रहा
है; जैसे कोई
झरना अचानक फूट
पड़ा हो, जिसके
लिए अभी मार्ग
भी नहीं है, मार्ग बन रहा
है। उसी मार्ग
बनाने में सहारा
दे रहे हैं अष्टावक्र।
पहले परीक्षा की,
फिर प्रलोभन
दिया। आज के सूत्रों
में प्रोत्साहन
है। परीक्षा ठीक
उतरी, जनक उत्तीर्ण
हुए। प्रलोभन भी
व्यर्थ गया; जनक उसमें भी
न उलझे। जो हुआ
है, सच में ही
हुआ है, कसौटी
पर खरा आया। अब
प्रोत्साहन देते
हैं। अब पीठ थपथपाते
हैं। अब वे उसे
कहते हैं कि ठीक
हुआ। अब जो जनक
ने कहा है, उसको
अष्टावक्र दोहरा
कर साक्षी बनते
हैं।
ये
सूत्र बड़े अनूठे
हैं।
सजा
का हाल सुनाएं, जजा
की बात करें,
खुदा
मिला हो जिन्हें, वो
खुदा की बात करें।
यहां
खुदा के मिलने
की घटना घटी है।
अष्टावक्र और जनक
के बीच खुदा घटा
है। इसलिए कोई
और बात नहीं चल
सकती अब। तुम्हें
तो कभी—कभी ऐसा
भी लगने लगेगा
: 'अब यह इतनी पुनरुक्ति
हुई जा रही है! अब
यह बार—बार वही
बात क्यों कही
जा रही है?' लेकिन
जिन्हें खुदा मिला
हो, वे कुछ और
कर ही नहीं सकते;
वे बार—बार वही
कहेंगे।
तुमने
कभी देखा, जब
छोटा बच्चा पहली
दफे बोलना शुरू
करता है, टूटे
—फूटे शब्द होते
हैं, बड़े सार्थक
भी नहीं होते;
पापा, मामा,
ऐसे कुछ शब्द
बोलना शुरू करता
है—लेकिन जब बच्चा
बोलना शुरू करता
है तो फिर दिन भर
दोहराता है। प्रयोजन
हो न प्रयोजन हो,
संगति हो न संगति
हो,
उसे
इतना रस आता है; एक
बड़ी अदभुत क्षमता
हाथ में आ गई है!
वह पापा या मामा
कहना सीख गया है।
उसका जगत में एक
नया अनुभव घटित
हुआ है। वह समाज
का हिस्सा बन गया
है। अब तक समाज
के बाहर था, अब तक जंगल में
था, पापा कह
कर प्रवेश—द्वार
से भीतर आ गया है।
अब वह भाषा, समाज, समूह
का अंग है। अब बोल
सकता है।
तो
जब पहली दफे बच्चा
बोलता है, तो
वह दिन भर गुनगुनाता
है. पापा, पापा,
मामा.?,। कुछ
प्रयोजन न हो तो
भी कहता है। कहने
में ही रस लेता
है। बार—बार दोहराता
है, दोहराने
में ही मजा पाता
है।
ठीक
वैसी ही घटना घटी
है। एक नया जन्म
हुआ है जनक का।
प्रभु की पहली
झलक मिली है। झलक
प्राणों तक कौंध
गई है, रोएं—रोएं
को कंपा गई है।
अब तो वे जो भी बोलेंगे,
जो भी देखेंगे,
जो भी सुनेंगे—उस
सबमें ही परमात्मा
ही परमात्मा की
बात होगी। यद्यपि
यह बात ऐसी है कि
कही नहीं जा सकती,
फिर भी जब घटती
है तो हजार—हजार
उपाय इसे कहने
के किए जाते हैं।
आज
के सूत्रों में
अष्टावक्र जनक
की पीठ पर हाथ रख
कर थपथपाते हैं।
वे कहते हैं, तू
जीता। वे कहते
हैं, तू घर लौट
आया। तू जो कह रहा
है ठीक कह रहा है।
तेरी परीक्षा पूरी
हुई है। तू उत्तीर्ण
हुआ है।
पहला
सूत्र,
'जब मन कुछ चाहता
है'—अष्टावक्र
ने कहा—'कुछ
सोचता है, कुछ
त्यागता है, कुछ ग्रहण करता
है, जब वह दुखी
और सुखी होता है—तब
बंध है।'
बंध
की ठीक—ठीक परिभाषा
हो जाए तो मोक्ष
की भी परिभाषा
हो जाती है। क्योंकि
जो बंध नहीं है, वही
मोक्ष है। और आसान
है पहले बंधन की
परिभाषा कर लेना,
क्योंकि बंधन
से हम परिचित हैं।
आनंद की परिभाषा
करनी हो तो बुद्ध
कहते हैं : दुख का
निरोध। दुख से
हम परिचित हैं।
जहां दुख न रह जाएगा,
वहां आनंद। अंधेरी
रात से हम परिचित
हैं। सुबह की परिभाषा
करनी हो तो कहना
होगा : जहां अंधेरा
न रह जाए।
लेकिन
इस परिभाषा से
बड़ी भूलें भी हो
गई हैं। कुछ लोग
सोचने लगते हैं
कि शायद अंधेरे
को मिटाना पड़ेगा, तब
सुबह होगी। परिभाषा
तो बिलकुल ठीक
है कि जहां अंधेरा
न रह जाए, वहां
सुबह। लेकिन इस
परिभाषा को तुम
अनुष्ठान मत बना
लेना। तुम यह मत
सोचना कि हम अंधेरे
को मिटाएंगे तो
सुबह हो जाएगी।
तब सब उल्टा हो
जाएगा। सुबह आती
है, तब अंधेरा
मिटता है। अंधेरे
को मिटाने की कोई
संभावना नहीं है।
तुम तो सुबह को
पुकारना। तुम तो
सुबह को खोजना।
तुम तो दीये को
जलाना। यद्यपि
यह परिभाषा बिलकुल
ठीक है कि जब अंधेरा
नहीं रह जाता,
तब सुबह। परिभाषा
की तरह ठीक है,
साधन की तरह
खतरनाक है।
जहां
कोई दुख नहीं रह
जाता, वहां आनंद
है। तो तुम दुख
को मिटाने में
मत लग जाना, नहीं तो तुम आनंद
तक कभी न पहुंचोगे।
परिभाषा की तरह
बिलकुल सुंदर है।
तुम तो आनंद को
पुकारना। तुम तो
आनंद को जगाना।
मेरे
पास लोग आते हैं।
वे कहते हैं कि
हम कैसे दुख से
छूटें? मैं कहता
हूं तुम दुख से
ध्यान हटाओ। तुम
जब तक दुख से छूटना
चाहोगे, तब
तक न छूट सकोगे।
क्योंकि दुख से
छूटने में तुम
दुख
ही पर तो नजर रखे
हो। दुख से छूटने
के लिए तुमने अपनी
आंखें दुख में
ही गड़ा दी हैं।
दुख से छूटने के
लिए तुम दुख का
ही चिंतन करते
हो। जिसका तुम
चिंतन करते हो, वह
बढ़ता है। दुख से
छूटने के लिए तुम
क्षण भर को दुख
को भूलते नहीं
हो। जिसको तुम
भूलते नहीं वह
गहरा उतरता जाता
है। जिसका स्मरण
करोगे, वही
हो जाओगे। जिससे
छूटना चाहोगे,
उसकी याद बार—बार
करनी पड़ेगी।
देखा
तुमने, कभी किसी
को विस्मरण करना
हो तो विस्मरण
करना मुश्किल हो
जाता है! ऐसे हजारों
लोग आते हैं जीवन
में और भूल जाते
हैं। लेकिन किसी
को विस्मरण करना
हो, फिर कठिनाई
हो जाती है। क्योंकि
विस्मरण करने में
तो स्मरण करना
पड़ता है। स्मरण
से तो उल्टी प्रक्रिया
शुरू हो जाती है।
जिसे
भूलना हो, उसे
मूलने की कभी कोशिश
मत करना। अगर कोशिश
की तो कभी भूल न
पाओगे। क्योंकि
कोशिश का तो मतलब
होगा फिर—फिर याद
जगा लोगे। फिर—फिर
कोशिश करोगे,
फिर—फिर याद
आ जाएगी। भूलना
हो तो उपेक्षा.।
भूलना हो तो ध्यान
को कहीं और ले जाना।
भुलाने के लिए
अगर चेष्टा की
तो ध्यान वहीं
अटका रहेगा।
यह
तो ऐसा होगा जैसे
कोई अपने घाव में
अंगुली डाल कर
खेले और सोचे कि
इससे घाव भर जाएगा।
इससे तो घाव कभी
भी न भरेगा, घाव
तो हरा रहेगा।
तुम तो रोज घाव
को बनाते चले जाओगे।
तुम तो जितनी अंगुली
से खेलोगे, घाव के भरने की
कोई संभावना न
छूटेगी। तुम भूलो।
तुमने
देखा, अगर कोई आदमी
बहुत बीमार हो
तो चिकित्सक कहते
हैं, पहली जरूरत
है नींद! अगर नींद
आ जाए तो आधी बीमारी
ठीक हो जाए। क्यों?
नींद का इतना
मूल्य क्या है?
क्योंकि नींद
न आए तो बीमार बीमारी
को भूल नहीं पाता।
वह घाव में अंगुली
डाल कर खेलता है।
वह बार—बार वही
सोचता है कि सिर
में दर्द है, सिर में दर्द
है, सिर में
दर्द है! वह जितनी
बार सोचता है,
दर्द को उतना
बल देता है।
कामी
व्यक्ति काम से
छूटना चाहता है, तो
काम ही काम की चिंता
करता है कि 'कैसे छूटूं?
यह पाप है, यह बुरा है, यह अपराध है।
' क्रोधी क्रोध
से छूटना चाहता
है, तो क्रोध
के साथ ही उलझा
रह जाता है।
तुम
जिससे छूटना चाहोगे, उसी
में अटक जाओगे।
ध्यान
को बदलना। ध्यान
रात से हटे, सुबह
पर लगे। ध्यान
अंधेरे से हटे,
दीये पर लगे।
दुख की बात ही मत
उठाओ। दुख है,
उसकी उपेक्षा
करो। सुख को जगाओ।
इधर सुख जगने लगेगा,
उधर दुख तिरोधान
होने लगेगा।
तो परिभाषाओं
को तुम साधना मत
समझना। अनेक लोग
परिभाषाओं को साधना
मान लेते हैं।
परिभाषाएं तो केवल
इंगित हैं, इशारे
हैं, किसी बात
को कहने के ढंग
हैं। और कहना पड़ता
है उल्टी तरफ से,
क्योंकि उल्टे
से तुम परिचित
हो। आनंद को हम
बुद्धों की तरफ
से तो कह नहीं सकते,
क्योंकि उसके
लिए फिर कोई भाषा
नहीं है। बुद्धों
की कोई भाषा नहीं
है; वहां तो
मौन भाषा है। आनंद
को कहना हो तो अबुद्धों
की तरफ से कहना
पड़ेगा। अबुद्धों
को आनंद का कोई
पता नहीं है। अड़चन
समझो। बुद्धों
के पास कोई भाषा
नहीं है, आनंद
का अनुभव है। अबुद्धों
के पास भाषा है,
आनंद का कोई
अनुभव नहीं है।
अब इन दोनों के
बीच कैसे संवाद
हो? तो हम बुद्धों
के अनुभव को अबुद्धों
की भाषा में अनुवादित
करते हैं। जब हम
कहते हैं, आनंद
दुख का निरोध है,
तो अनुवाद है
यह। जब हम कहते
हैं, सूरज का
ऊगना रात का मिट
जाना है, तो
अनुवाद है यह।
तुम्हारी भाषा
में अनुवाद है,
तुम्हें अनुभव
नहीं है। और उनका
अनुवाद है जिन्हें
अनुभव है, लेकिन
जिनके पास भाषा
नहीं है।
'जब मन कुछ चाहता
है...।'
तदा
बंधो यदा चित्तं
किंचिद्वाच्छति
शोचति
किंचिन्दुज्चति
गृहणाति किंचिद्धष्यति
कुप्यति।
'जब मन कुछ सोचता
है, कुछ चाहता
है, कुछ त्यागता
है, कुछ ग्रहण
करता है, जब
वह सुखी और दुखी
होता है—तब बंध
है।'
जब
मन सक्रिय होता
है तब बंध है। मन
की क्रिया बंधन
है। तुमसे लोगों
ने कहा, क्रोध
बंध है। तुमसे
लोगों ने कहा,
काम बंध है,
लोभ बंध है—वह
बात पूरी नहीं
है. क्योंकि अगर
दान तुम करोगे
सोच कर, तो वह
भी बंध है। अगर
तुम करुणा करोगे
सोच कर, तो वह
भी बध है। अष्टावक्र
बड़ी मौलिक परिभाषा
दे रहे हैं। वे
कह रहे हैं, मन की क्रिया—मात्र
बंध है। जहां मन
सक्रिय हुआ, तरंगें उठीं,
वहां तुम बंध
गए। जहां मन पूरा
निक्तिय हुआ,
वहीं तुम मुक्त
हो गए। उन क्षणों
को खोजो जहां मन
की कोई क्रिया
न हो।
तदा
बंध:!
—यहां है बंध।
यदा
चित्तं वांछति!
—जब तुमने कुछ
चाहा। चाहा कि
निकले यात्रा पर।
जरा सोचा तुमने
कि बने शेखचिल्ली।
सुनी तुमने शेखचिल्ली
की कहानी? जाता
था दूध बेचने,
सिर पर रखा था
घड़ा दूध का। सोचने
लगा राह में, कि आज बेच लूंगा
तो चार आने मिलेंगे।
बचाता रहूंगा चार
आने, चार आने,
चार आने, तो जल्दी ही एक
और भैंस खरीद लूंगा!
फिर तो बड़ा प्रफुल्लित
हो गया, जब भैंस
सामने आई, आंख
में उतरी, मन
में गंजी। भैंस
देखी तो सोचा : 'अरे, इतना—इतना
दूध होगा, इतना—इतना
घी निकलेगा, इस—इस तरह बेचूंगा,
जल्दी ही भैंसें
ही भैंसें हो जाएंगी!
खरीदता जाऊंगा,
बेचता जाऊंगा,
खरीदता जाऊंगा!
जल्दी ऐसी घड़ी
आ जाएगी कि इतना
धन मेरे पास होगा
कि गांव की जो सुंदरतम
लड़की है, वह
निश्चित विवाह
का निवेदन करेगी!'
तब
तो वह हवाओं में
उड़ने लगा। जा तो
रहा था उसी सड़क
पर,
दूध बेचने जा
रहा था—अभी बिका
भी नहीं था, अभी चार आने हाथ
में आए भी नहीं
थे—शादी भी कर ली,
बहू को घर भी
ले आया। इतना ही
नहीं, जल्दी
ही बेटा भी हो गया।
अभी बाजार पहुंचा
नहीं था, अभी
जा ही रहा था। बेटा
भी हो गया। बेटे
को बिठाए, सर्दी
के दिन हैं, गोदी में खिला
रहा है। बेटे ने
उसकी दाढ़ी खींचनी
शुरू कर दी। तो
उसने कहा, ' अरे
नासमझ!' यह बात
जरा जोर से निकल
गई। पहले धीरे—
धीरे मन में चल
रहा था सब खेल।
अब तो खेल इतना
पक्का हो गया था
कि यह बात जरा जोर
से निकल गई। और
दोनों हाथ से उसने
बेटे को दाढ़ी से
अगल करने की कोशिश
की—घडा छूट गया।
घड़ा जमीन पर गिरा।
तुम्हें
दिखा कि घड़ा गिरा; उसका
तो सारा संसार
गिर गया। तुम्हें
उसके संसार का
पता नहीं!
बेटा
मरा,
पत्नी मरी,
हजारों भैंसें
खरीदनी थीं, सब खो गईं। संपत्ति
खड़ी हो गई थी, सब मिट गई। कोई
भी न था। वे चार
आने भी जो संभव
थे, वे भी गए।
खड़ा है अकेला।
तुम समझ भी नहीं
सकते कि राह पर
टूट गई उस मटकी
में कितना क्या
टूट गया!
इसको
अष्टावक्र तुम्हारे
मन का संसार कहते
हैं।. .नाम कल्पना!
कुछ है नहीं—खेल
है। लेकिन मन उस
खेल में रसलीन
हो जाता, डूब जाता।
जहां
मन की किया है, वहीं
बंधन है।
यदा
चित्तं वांछति!
—जहां मन ने चाहा,
कुछ भी चाहा।
यहां
विषय का कोई भेद
नहीं है। ऐसा नहीं
कहा जा रहा कि जो
लोग धन चाहते हैं
वे संसारी हैं
और बंधन में हैं।
तुमने अगर परमात्मा
चाहा तो भी तुम
बंधन में हो। तुमने
अगर सत्य चाहा
तो भी तुम बंधन
में हो। देखना
सूत्र को.
यदा
चित्तं वांछति।
जिसके
चित्त में वांछा
उठी।
वांछा
किसकी? इसकी कोई
जरूरत कहने की
नहीं। क्योंकि
किसी की भी वांछा
उठे, वांछा
के पीछे लहरें
उठती हैं, झील
डांवांडोल हो जाती
है। जैसे शांत
झील है, तुम
बैठे किनारे,
उठा कर एक पत्थर
फेंक दिया, छपाक अवाज हुई
और झील लहरों से
भर गई—ऐसे ही वांछा
का पत्थर, चाह
का पत्थर, जैसे
ही मन में पड़ता
है कि सारा डावांडोल
हो जाता है।
तुम
करके देखो। करके
देखने की बात नहीं
है,
रोज तुम कर ही
रहे हो। तुम इस
शेखचिल्ली को कहीं
किसी दूसरे में
मत देखना। कई बार
तुम अगर जरा पकड़ने
की कोशिश करोगे
तो अपने में ही
पकड़ लोगे। कितनी
बार नहीं यह शेखचिल्ली
तुम्हारे भीतर
तुम्हारे कितने
रूप लेता! मन शेखचिल्ली
है। और जब तुम शेखचिल्ली
को पकड़ लो, तो
जरा हंसना अपने
पर और अपनी मूढ़ता
पर। क्योंकि जो
व्यक्ति अपनी मूढ़ता
पर हंसने लगे वह
बुद्धिमान होना
शुरू हो गया। क्योंकि
जो मूढ़ता पर हंसता
है वह साक्षी हो
गया।
यदा
चित्तं वांछति
किंचित शोचति......।
सोचा
कि उलझे। सोच—विचार
में जाल है। जब
भी तुमने कोई विचार
उठाया कि तुम उसमें
डूबे। जैसे ही
विचार उठता है, तुम
गौण हो जाते हो,
विचार प्रमुख
हो जाता है। भीतर
सब मूल्य परिवर्तन
हो जाते हैं। तुम
विचार में इतने
संलग्न हो जाते
हो कि तुम्हें
स्मरण भूल जाता
है कि तुम द्रष्टा
हो; तुम विचारक
हो जाते हो।
तीन
स्थितियां हैं
तुम्हारी। एक तो
साक्षी की—तब मन
बिलकुल नहीं है, क्योंकि
कोई तरंग ही नहीं
है। मन तो तरंगों
का जोड़ है, विचार
के प्रवाह का नाम
है। साक्षी की
दशा—तब झील बिलकुल
मौन है, कोई
हवा कंपाती नहीं।
फिर
दूसरी अवस्था है—विचारक
की। झील कैप गई।
विचार के बीज पड़
गए हैं। विचार
का पत्थर गिरा, वांछा
उठी, सब कंपित
हो गया, दर्पण
खो गया—वह दर्पण
जैसी शांत झील
जो अभी तक चांद
को झलकाती थी,
अब नहीं झलकाती।
अब चांद भी टुकड़े—टुकड़े
हो गया। चांदी
फैल गई पूरी झील
पर, लेकिन चांद
का प्रतिबिंब अब
कहीं भी ठीक से
नहीं बनता, सब विकृत हो गया।
यह दूसरी अवस्था।
फिर
तीसरी अवस्था—कर्ता
की। वह जो विचार
में तुमने पकड़
लिया, जल्दी ही
कर्म बनेगा। साक्षी,
विचार और कर्म।
कर्म में आ गए तो
घने जंगल में आ
गए संसार के। विचार
में थे, तो आ
रहे थे संसार की
तरफ। साक्षी से
चूक गए .थे, कर्म
में आए न थे, मध्य में अटके
थे—त्रिशकु थे।
साक्षी को जो उपलब्ध
हो ले वह व्यक्ति
है धार्मिक। जो
विचार में उलझा
रहे, वह व्यक्ति
है दार्शनिक। और
जो कर्म में उतर
आए, वही है राजनीतिज्ञ।
धर्म, दर्शनशास्त्र
और राजनीति—ये
तुम्हारे चित्त
की तीन अवस्थाएं
हैं। धर्म का कोई
संबंध न तो कृत्य
से है और न विचार
से है। धर्म का
संबंध तो शुद्ध
साक्षीभाव से है।
फिर दर्शनशास्त्र
है, उसका संबंध
सिर्फ विचार से
है। वह तरंगों
का हिसाब लगाता;
तरंगों के हिसाब
में झील को भूल
जाता; तरंगों
की गिनती में भूल
ही जाता किसकी
तरंगें हैं। और
फिर सबसे ज्यादा
भटकी हुई अवस्था
राजनीतिक चित्त
ही है; वह तरंगों
तक से चूक जाता
है। वह तो तरंगों
के जो परिणाम होते
हैं—अगर झील में
तरंगें हैं तो
तरंगों से जो आवाज
उठती, वह पास
की वादियों में
गंजने लगती है—उसका
हिसाब रखता है।
जब तक कर्म न बन
जाए कोई चीज, तब तक राजनीति
नहीं बनती।
जिन
लोगों ने कृष्ण
की गीता पर टीका
लिखी है, उनमें
तीन तरह के लोग
हैं। एक तो राजनीतिज्ञ
हैं; जैसे तिलक,
अरविंद, गांधी—इन्होंने
कृष्ण की गीता
पर टीकाएँ लिखीं।
इन सबकी कोशिश
यह है कि गीता में
कर्मयोग सिद्ध
करें कि कर्म ही
सब कुछ है। फिर
दूसरे विचारकों
ने टीकाएं लिखी
हैं। उनका आग्रह
है कि वे विचार
की किसी परंपरा
को सिद्ध करें—अगर
विचार की कोई परंपरा
भक्ति को मानती
है तो भक्ति को
सिद्ध करें; अगर विचार की
कोई परंपरा ज्ञान
को मानती है तो
ज्ञान को सिद्ध
करें; विचार
की कोई परंपरा
अद्वैत को मानती
है तो अद्वैत सिद्ध
करें, द्वैत
को मानती है तो
द्वैत सिद्ध करें,
या द्वैताद्वैत
सिद्ध करें। हजारों
विचार की परंपराएं
हैं। वे विचारकों
की व्याख्याएं
हैं।
तीसरी
व्याख्या कभी की
नहीं गई। क्योंकि
तीसरी व्याख्या
तो की नहीं जा सकती।
तीसरी व्याख्या
है साक्षी— भाव
की। वह तो अनुभव
की बात है। उस व्याख्या
में तो कोई उतरता
है—कर नहीं सका, करने
का कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि अगर
वह तीसरी भी व्याख्या
की जाए तो वह दूसरी
व्याख्या बन जाएगी।
अगर कोई यह भी सिद्ध
करने की चेष्टा
करे कि साक्षी—
भाव है गीता का
मूल उद्देश्य,
ध्यान है, समाधि है—तो भी
वह विचार का हिस्सा
हो जाएगा।
तीसरी
व्याख्या की नहीं
जा सकती। लेकिन
जिन्होंने तीसरी
व्याख्या समझी
अनुभव से, वे
ही समझ पाए; बाकी सबने अपनी
समझ के कारण कृष्ण
की समझ को अस्तव्यस्त
कर दिया।
'जब मन कुछ चाहता,
कुछ सोचता,
कुछ त्यागता,
कुछ ग्रहण करता,
जब सुखी—दुखी
होता— तब बंध है।'
तदा
बंध:!
फिर
मजा है कि कुछ लोग
पकड़ते, कुछ लोग
छोड़ते। कुछ लोग
संसार को पकड़े
हुए हैं। इन पकड़े
हुए लोगों को कुछ
समझाते हैं कि
छोड़ो, संसार
में दुख है, छोड़ो, भागों!
लेकिन जो भाग रहे
हैं वे सुखी नहीं
दिखाई पड़ते। उनके
जीवन में कोई प्रसाद
नहीं मालूम होता।
जो भाग कर बैठ गए
हैं जंगलों—पहाड़ों
में, मठों में,
उनके जीवन में
कोई किरण नहीं
दिखाई पड़ती, कोई विभा नहीं
दिखाई पड़ती।.. बात
क्या हो गई? न पकड़ने से कुछ
मिलता न छोड़ने
से कुछ मिलता।
क्योंकि पकड़ते
भी तुम वही हो,
छोड़ते भी तुम
वही हो। कभी—कभी
तो ऐसा होता है
कि पकड़ने वाले
शायद तुम्हें थोड़े
—बहुत सुखी भी दिखाई
पड़े, भगोड़े
बिलकुल सुखी नहीं
दिखाई पड़ते। क्योंकि
पकड़ने वाले को
कम से कम जीवन के
साधारण क्षणभंगुर
सुख तो मिलते हैं।
क्षणभंगुर सही!
कभी किसी स्त्री
के प्रेम में कोई
पड़ जाता है, तो क्षणभंगुर
ही सही, एक सपना
तो देखता है सुखी
होने का। टूट जाएगा
यह सपना, यह
भी सच है। लेकिन
था—यह भी सच है।
लेकिन जो भाग गया
है, उसको तो
क्षणभंगुर भी खो
जाता है; शाश्वत
तो मिलता नहीं,
क्षणभंगुर भी
खो जाता है।
मैं
एक कहानी पढ़ता
था। एक कथा—गुरु
ने अपने शिष्यों
को कहा कि एक कहानी
सुनो और इस पर ध्यान
करना और इसका अर्थ
कल सुबह ला कर मुझे
दे देना—इसकी निष्पत्ति।
कहानी सीधी—सादी
थी। कहानी थी कि
एक सम्राट था और
उसके हरम में, उसके
रनिवास में पांच
सौ सुंदर स्त्रियां
थीं। लेकिन रनिवास
उसने अपने महल
से पांच मील दूर
जंगल में बना रखा
था। उसका जो विश्वस्त,
सबसे ज्यादा
विश्वस्त दास था,
सेवक था, उसे सांझ जाना
पड़ता था, एक
रानी को ले आता
था—राजा के रात
के भोग के लिए।
कहते हैं, राजा
तो नब्बे साल तक
जीया, लेकिन
जो आदमी उसकी स्त्रियों
को लाता, ले
जाता था, वह
चालीस साल में
मर गया। फिर उसने
दूसरा आदमी रखा,
वह भी राजा के
मरने के पहले मर
गया।
तो
कथा—गुरु ने अपने
शिष्यों को कहा
कि कल तुम सुबह
इस पर ध्यान करके
इसकी निष्पत्ति
मेरे पास ले आना, इसका
अर्थ क्या है?
शिष्यों
ने बहुत सोचा, कुछ
अर्थ समझ में न
आया कि इसमें अर्थ
क्या है? वे
वापिस आए। कथा—गुरु
हंसा और उसने कहा,
अर्थ सीधा—साफ
है। आदमी स्त्रियों
के भोग से इतनी
जल्दी नहीं मरता,
जितना स्त्रियों
के पीछे भागने
से मरता है। वह
जो भागता था, रोज जाता, रोज आता—वह चालीस
साल में खत्म हो
गया। जो भोगता
था, वह नब्बे
साल तक जीया।
आदमी
धन के पीछे भागने
से उतना नहीं टूटता, धन
को भोगने से उतना
नहीं टूटता, जितना धन से भागने
से टूटता है। आदमी
संसार से उतना
नहीं टूटता, जितना संसार
से भागने लगे तो
टूट जाता है। सांसारिक
व्यक्तियों के
चेहरे पर तो तुम्हें
कभी—कभी रौनक भी
दिखाई पड़ जाए;
लेकिन जिनको
तुम तपस्वी कहते
हो, उनके चेहरे
पर तुम्हें कोई
रौनक नहीं दिखाई
पड़ेगी। वे मुर्दा
हैं। हा, यह
हो सकता है तुम
उनके मरेपन को
ही तपश्चर्या समझते
हो तो तुम्हें
दिखाई पड़े कुछ।
पीला पड़ जाए आदमी
उपवास से तो भक्त
कहते हैं; 'कैसा
कुंदन जैसा रूप
निखर आया! देखो,
कैसा स्वर्ण
जैसा!' जो उनके
भक्त नहीं, उनसे पूछो तो
वे कहेंगे : इनको
हम पीतल भी नहीं
कह सकते, सोना
तो दूसरी बात है।
यह सोना तुमकी
दिखाई पड़ता है;
दिखाई भी पड़ता
है, यह भी पक्का
नहीं—तुम देखना
चाहते हो, इसलिए
दिखाई पड़ता है।
तुमने
कभी तुम्हारे त्यागियों
को आनंदित देखा? कभी
किसी जैन मुनि
को तुमने आनंदित
देखा? और तुमने
कभी यह भी सोचा
कि इतने जैन मुनि
हैं, इनमें
कोई आनंदित नहीं
दिखाई पड़ता, कोई नाचता, गीत गुनगुनाता
नहीं दिखाई पड़ता?
इनमें तो आनंद
होना चाहिए। ये
तो सब संसार छोड़
कर चले गए हैं।
इन्होंने तो दुख
के सब रास्ते तोड़
दिए। इन्होंने
तो सब सेतु गिरा
दिए। इनके हाथ
में तो इकतारा
होना चाहिए। इनके
हृदय में तो वीणा
बजनी चाहिए। इनके
पैरों में तो अर
होना चाहिए। ये
तो गाएँ... पद घुंघरू
बांध मीरा नाची
रे! मगर नहीं, न कोई नाच है,
न पद में घुंघरू
हैं, न प्राणों
में घुंघरू हैं।
सब उदास, सब
खाली, सब रिक्त,
सब मुर्दा,
मरघट की तरह
हैं ये लोग।
तुम्हारे
महात्मा यानी जीते
— जी मरघट। फिर भी
तुम सोचते नहीं
कि हुआ क्या है? कहीं
ऐसा तो नहीं कि
भोग तो गलत है ही,
त्याग और भी
गलत है? भोगी
तो नासमझ है ही,
त्यागी भी नासमझ
है— भोगी से भी ज्यादा
नासमझ है।
अष्टावक्र
का यह सूत्र सुनो
'जो कुछ त्यागता
है, कुछ ग्रहण
करता है.....। '
किंचित्
मुडचति किंचित्
गृहणाति.......।
कुछ
पकड़ा, कुछ छोड़ा—दोनों
बंधन है।
यदा
बंध:।
जो
सुखी होता, दुखी
होता। सुख और दुख
दोनों में कोई
भी आनंद नहीं है।
आनंद बड़ी ही पारलौकिक
बात है। सुखी आदमी
आनंदित आदमी नहीं
है; सुखी आदमी
दुख को दबाए बैठा
है। सुखी आदमी
क्षण भर को दुख
को भुला बैठा है।
तुम
कब अपने को सुखी
कहते हो, तुमने
खयाल किया पू फिल्म
देखने चले गए,
दो घंटे फिल्म
में डूब गए—तुम
कहते हो, बड़ा
सुख मिला! बाहर
निकले, फिर
तुम्हारा दुख मौजूद
है। कभी शराब पी
ली—तुम कहते हो,
बड़ा सुख मिला!
सुबह उठे, फिर
तुम्हारा दुख मौजूद
है, वहीं का
वहीं खड़ा है; शायद बढ़ भी गया
हो रात में। तुम
जब बेहोश पड़े थे,
तब दुख बढ़ रहा
था। क्योंकि इस
जगत में कोई भी
चीज ठहरी हुई नहीं
है, सब चीजें
बढ़ रही हैं। तुम
रात सोए थे, वृक्ष बढ़ रहे
थे। तुम रात सोए
थे, तुम्हारा
बच्चा बड़ा हो रहा
था। तुम रात सोए
थे, तुम्हारा
दुख भी बढ़ रहा था।
तुम शराब पी कर
पड़े थे तो विस्मरण
हो गया था; लेकिन
विस्मरण से तो
कुछ मिटता नहीं।
यह तो शुतुरमुर्ग
की दृष्टि है।
सुनी
है न तुमने बात
कि शतुरमुर्ग अपने
दुश्मन को देख
कर सिर को रेत में
खपा कर खड़ा हो जाता
है?
न दिखाई पड़ता
दुश्मन.. शतुरमुर्ग
मानता है : जो दिखाई
नहीं पड़ता है,
वह हो कैसे सकता
है? उसका तर्क
तो ठीक है। नास्तिक
भी तो यही कहते
हैं कि परमात्मा
दिखाई नहीं पड़ता
तो हो नहीं सकता।
शतुरमुर्ग अरस्तु
के न्याय—शास्त्र
को मानता है। उसने
सिर गड़ा लिया
रेत में—वह कहता
है, मुझे तो
कोई दिखाई नहीं
पड़ रहा दुश्मन,
तो हो कैसे सकता
है? जो मुझे
दिखाई न पड़े, तो हो नहीं सकता,
क्योंकि प्रत्यक्ष
प्रमाण कहां?
लेकिन
शुतुरमुर्ग कितना
ही सिर रेत में
गड़ा ले, दुश्मन
सामने है तो है।
सच तो यह है, अगर आंखें खुली
होतीं और शुतुरमुर्ग
दुश्मन को देखता
तो बचने का कोई
उपाय भी था। अब
बचने का कोई उपाय
भी न रहा। अब तो
यह बिलकुल दुश्मन
के हाथ में है।
इसने अपने हाथ
से अपने को दुश्मन
को दे दिया। यह
तो आत्महत्या है।
अगर दुश्मन इसको
मार डालेगा, तो दुश्मन की
कला कम, शुतुरमुर्ग
की आत्महत्या की
वृत्ति ज्यादा
कारगर है। उसका
ही हाथ होगा—आत्महत्या
की वृत्ति का।
श्मृतुरमुर्ग
मत बनना, आंख
बंद मत करना।
लेकिन
तुम जिसे सुख कहते
हो वह सब शुतुरमुर्गी
बातें हैं। कभी
इसमें कभी उसमें, थोड़ा
अपने को उलझा लेते
हो। कोई ताश के
पत्ते लिए बैठा
है, खेल रहा
है। किसी ने शतरंज
बिछा रखी है, झूठे—नकली घोड़े,
वजीर—बादशाह
बना रखे हैं—खेल
रहा है। कैसे लोग
डूब जाते हैं,
तुम जरा सोचो!
शतरंज के खेलने
वाले ऐसे डूब जाते
हैं कि सारी दुनिया
भूल जाती है। कैसी
एकाग्रता! और किस
पर ये एकाग्रता
कर रहे हैं—जहां
कुछ भी नहीं है!
अपने ही बनाए हाथी—घोड़े
हैं!
और
मैं तुमसे कहना
चाहता हूं कि शतरंज
के हाथी—घोड़े ही
झूठे हों, ऐसा
नहीं है; जो
तुम्हारे राजा—महाराजाओं
के हाथी—घोड़े हैं,
राजनीतिज्ञों
के, राष्ट्रपतियों,
प्रधानमंत्रियों
के हाथी—घोड़े हैं,
वे भी इतने ही
झूठे हैं।
अंतिम
विश्लेषण में, इस
जगत में जो भी चल
रहा है—खेल है।
उस खेल को अति गंभीरता
से ले लेना भ्रांति
है। लेकिन हम लेते
हैं। हम लेते हैं
एक कारण से कि वही
एकमात्र उपाय है
दुख को मूलने का।
तुम
देखते हो, क्रिकेट
का मैच हो कि हाकी
हो कि वालीबॉल
हो, चले लाखों
लोग देखने! इनसे
थोड़ा पूछो भी कि
क्या देखने जाते
हो? तो इनके
पास कोई उत्तर
न होगा। लेकिन
ये मूलने जा रहे
हैं।
तुम
राह से जा रहे हो, हजार
जरूरी काम हों,
अगर दो आदमी
लड़ते हों राह के
किनारे, तुम
रुक जाते हो। टिका
दी साइकिल, खड़े हो गए, देखने लगे। क्या
देखते हो? दो
आदमी लड़ते हैं,
इसको देखना भी
अशोभन है, अभद्र
है। यह तो लड़ने
जैसा ही है। यह
तो तुम्हारे देखने
से भी उनको लड़ने
में गति मिलेगी।
तुम पाप के भागीदार
हो रहे हो। तुम
प्रोत्साहन दे
रहे हो। अगर कोई
खड़ा न हो तो शायद
वे भी अपने — अपने
रास्ते चले जाएं
कि क्या सार है!
लेकिन जब भीड़ खड़ी
हो जाए तो उनका
भी जाना मुश्किल
हो जाता, अहंकार
पर चोट पड़ती, दाव लग जाता इतने
लोग देख रहे हैं!
अब अगर हटे तो कायर!
इतने लोगों की
मौजूदगी लड़ा देगी।
तुम अगर खड़े हो
गए, तो तुम उनके
लड़ने का कारण बन
रहे हो।
और
तुमने कभी यह भी
खयाल किया कि अगर
झगड़ा न हो और वे
दोनों आदमी सुलह
पर आ जाएं और नमस्कार
करके विदा हो जाएं, तो
तुम भीतर थोड़ा—सा
अनुभव करते हो,
जैसे कुछ चूका,
कुछ नुकसान हुआ,
मजा न आया! तुम्हारे
भीतर ऐसा लगता
है कि होना जो चाहिए
था, हो जाती
टक्कर, हो जाता
खून—खराबा, तो थोड़ी तुम्हें
उत्तेजना मिलती,
तुम्हारी मुर्दा
—सी पड़ी जिंदगी
में थोड़ा बल आता,
थोड़े प्राण सरकते;
तुम्हारी मरी
आत्मा थोड़ी सांस
लेती। नहीं हुआ
कुछ भी? तुम
ऐसे जाते हो खाली
हाथ, जैसे तुम्हें
धोखा दिया गया।
तुम एक शिकायत
लिए जाते हो। तुम
कह भी नहीं सकते
किसी से। क्या
कहने का! लेकिन
भीतर एक शिकायत,
एक कडुवा स्वाद
तुम्हारे मुंह
में रह जाएगा।
कुछ की तुम प्रतीक्षा
करते थे, वह
नहीं हुआ। और दोनों
बडा शोरगुल मचा
रहे थे और कुछ भी
नहीं हुआ।
सुबह
जब तुम अखबार उठा
कर पढ़ते हो, तो
तुम जल्दी से देखते
हो. 'कहां डाका
पड़ा? कहां हत्या
हुई? कौन प्रधानमंत्री
मारा गया? कौन
गिराया गया? कौन क्या हुआ?'
अगर उनखबार में
कुछ भी न हो तो तुम
ऐसे उदासी से पटक
देते हो कि आज कोई
समाचार ही नहीं।
तुम किन समाचारों
की प्रतीक्षा कर
रहे हो? तुम
चाहते क्या हो?
तुम अपनी चाहत
तो देखो। तुम बस
अपनी उत्तेजना
के लिए कुछ भी,
कुछ भी हो जाए,?.।
स्पेन
में लोग सांडों
से आदमियों को
लड़ाते हैं और देखने
जाते हैं। अब किसी
आदमी से सांड को
लड़ाना सांड के
साथ भी ज्यादती
है और आदमी के साथ
भी ज्यादती है।
लेकिन लाखों लोग
देखते हैं—तत्पर
हो कर! इन सांडों
की लड़ाई में लोग
जितने ध्यान—मग्न
दिखाई पड़ते हैं
और कहीं दिखाई
नहीं देते।
पुराने
दिनों में, रोमन
दिनों में आदमियों
को छोड़ दिया जाता
था जंगली जानवरों,
शेरों, सिंहों
के सामने और उनसे
लड़ाई.। और लाखों
लोग देखने आते
थे।
मुर्गे
लड़ाते हैं लोग, कबूतर
लड़ाते हैं लोग।
अगर तुम्हारे पड़ोस
में पति—पत्नी
लड़ने लगें, तो तुम दीवाल
से कान लगा कर बैठ
जाते हो। रस है
तुम्हारा ऐसी बातों
में, जिनके
द्वारा तुम किसी
भांति अपने पर
से अपना ध्यान
हटा लो।
सारा
धर्म कहता है. अपने
पर ध्यान लगाओ, तो
आनंद फलित होगा।
तुम अपने पर से
ध्यान हटा रहे
हो। और जब तुम्हारा
ध्यान थोड़ी देर
को हट जाता है,
तुम सफल हो जाते—तुम
कहते, जरा सुख
मिला! जरा—सा सुख
मिला। संगीत में
डूब गए, कि संभोग
में डूब गए, कि शराब में डूब
गए—जरा—सा सुख मिला।
क्षण भर को अपने
को भूल गए, किया
विस्मरण—सुखी थे?
विस्मरण सुख
है? तो फिर सब
बुद्ध नासमझ हैं।
क्योंकि वे कहते
हैं, आत्म—स्मरण
आनंद है।
तो
आनंद और सुख की
परिभाषा समझ लो।
आत्म—स्मरण आनंद
है। स्वेच्छा से
आत्म—स्मरण की
तरफ जाना साधना
है। आत्म—विस्मरण
सुख है। जबर्दस्ती
स्वयं की याद दिला
दे कोई चीज तो दुख
है। तुम जिसे दुख
कहते हो, उससे आनंद
करीब है, बजाय
तुम्हारे सुख के।
फिर
से मैं समझा दूं? आत्म—स्मरण
आनंद है; आत्म—विस्मरण
सुख है। और दुख
है दोनों के बीच
में। दुख में मजबूरी
से आदमी को स्वयं
का थोड़ा बहुत स्मरण
करना पड़ता है—मजबूरी
से, जबर्दस्ती;
करना नहीं चाहता!
सिर में दर्द है
और अपनी याद आती
है। हृदय में एक
कांटा चुभा है
और पीड़ा के कारण
याद आती। करना
पड़ता है! भागता
है कि कोई उपाय
खोज ले, कहीं
शराब की बोतल खोल
ले और अपने को भूल
जाए।
जहां
भी तुम अपने को
भुलाने जाते हो—भला
वह मंदिर हो या
मस्जिद, प्रार्थना
हो या नमाज— वह सब
शराब है। जहां
मूलने का तुम उपाय
खोजते हो, वह
सब शराब है। भूलना—मात्र
आदमी को अपने से
दूर ले जाता है।
अगर
तुम्हें मेरी यह
बात समझ में आई
हो,
तो तुम तपश्चर्या
का अर्थ भी समझ
लोगे।
तपश्चर्या
का अर्थ है : जब दुख
हो तो उससे भागना
नहीं। तपश्चर्या
का अर्थ है : जब जीवन
में दुख हो, तो
उससे जरा भी भागने
की कोशिश न करनी,
बल्कि ठीक उस
दुख के बीच ध्यानस्थ
हो कर बैठ जाना;
उस दुख को देखना;
उस दुख के प्रति
जागना और साक्षी—
भाव पैदा करना।
इसलिए
मैंने कहा कि दुख
से आनंद करीब है, बजाय
सुख के। मैं तुमसे
यह नहीं कह रहा
हूं कि तुम दुख
पैदा करो, क्योंकि
वह तो दुखवाद होगा,
वह एक तरह का
मैसोचिज्म होगा।
मैं तुमको यह नहीं
कह रहा कि तुम अपने
को सताओ; जैसा
कि कई मूढ़ सता रहे
हैं। जिंदगी में
दुख अपने— आप काफी
है, अब तुम्हें
कुछ और करने की
जरूरत नहीं है।
जीवन काफी दुखदायी
है, दुख ही दुख
से भरा है। जन्म
दुख है, जरा
दुख है, मृत्यु
दुख है—यहां दुख
ही दुख हैं। बुद्ध
ने कहा, यहां
दुखों की कोई कमी
है? सब तरफ दुख
ही दुख हैं।
तुम्हें
दुख बनाने की जरूरत
नहीं, दुख तो हैं,
तुम सिर्फ दुखों
से भागो मत, दुखों के प्रति
जागो! तुम दुखों
को सुख में भुलाने
की चेष्टा मत करो।
तुम दुखों को ध्यान
बना लो, और उसी
ध्यान से तुम पाओगे,
तुम आत्म—स्मरण
में सरकने लगे।
धीरे— धीरे दुख
को देखते —देखते,
तुम्हें वह भी
दिखाई पड़ने लगेगा
जो दुख को देख रहा
है। सुख में तो
देखने वाला सो
जाता है। इसलिए
तो सुख में कभी
परमात्मा याद नहीं
आता। इसलिए तो
सुखी आदमी एक तरह
के अभिशाप में
है और दुखी आदमी
को एक तरह का वरदान
है। सुखी तो भूल
जाता अपने को,
परमात्मा की
सुध कौन रखे? परमात्मा तो
हमारा आत्यंतिक
केंद्र है। हम
अपने को ही भूल
गए, तो अपने
केंद्र की कहां
सुध रही? परमात्मा
तो हमारे भीतर
छिपा है; हम
अपने को ही भूल
गए तो परमात्मा
को ही भूल गए। इसलिए
कभी—कभी दुख में
परमात्मा की भला
याद आए, सुख
में जरा भी याद
नहीं आती; सुख
में तो आदमी बिलकुल
भूल जाता है।
सुख
आएं तो सौभाग्य
मत समझना। सुख
आएं तो उनके भी
साक्षी बनना। और
दुख आएं तो दुर्भाग्य
मत समझना; दुख
आएं तो उनके भी
साक्षी बनना। और
दोनों के साक्षी
बन कर तुम पाओगे
कि दोनों के पार
हो गए हो।
जो
न सुखी होता न दुखी, जहां
न सुख है न दुख,
वहीं बंधन के
पार हो जाता है
आदमी। जब तक सुखी
होता, दुखी
होता, छोड़ता,
पकड़ता, तभी
तक बंधन है। तदा
बंध:!
'जब मन न चाह करता
है, न सोचता
है, न त्यागता
है, न ग्रहण
करता है, वह
जब न सुखी होता,
न दुखी होता—तब
मुक्ति। '
तदा
मुक्तिर्यदा चित्तं
न वांछति न शोचति।
न मुडचति
न गृहणाति न हष्यति
न कुप्यति।।
कहां
है मुक्ति? मोक्ष
कहां है? लोग
सोचते हैं, शायद मोक्ष कहीं
किसी पारलौकिक
भूगोल का हिस्सा
है, कोई ज्याँग्राफी
है। मोक्ष ज्याँग्राफी
नहीं है, भूगोल
नहीं है। मोक्ष
तो तुम्हारे ही
चित्त की आत्यंतिक
रूप से शांत हो
गई दशा है।
लोग
सोचते हैं, संसार
बाहर है। संसार
भी बाहर नहीं है—तुम्हारी
ही विक्षुब्ध चेतना
है। मोक्ष भी कहीं
दूर ऊपर आकाश में
है? नहीं, जरा भी नहीं।
मोक्ष भी तुम्हारी
फिर से शांत हो
गई आत्मा है। तो
ऐसा समझो कि संसार
है ज्वर—ग्रस्त
चेतना; मोक्ष
है ज्वर—मुक्त
चेतना। संसार है
उद्विग्न लहरें
तुम्हारे चैतन्य
की, मोक्ष है
लहरों का फिर सो
जाना, विश्राम
में खो जाना। झील
जब शांत हो जाए
और चांद का प्रतिबिंब
बनने लगे पूरा—पूरा
तो मोक्ष, और
झील जब उद्विग्न
हो जाए, और लहरें
ही लहरें फैल जाएं
और चांद का प्रतिबिंब
टूट जाए—तब संसार।
तदा
मुक्ति: यदा न वांछति।
—न तो चाह हो,
न शोचति.......।
न
सोच हो, विचार
हो
न मुज्चति......।
——न त्याग हो;
न गृहूणाति.......।
—न पकड़ हो;
तदा
मुक्ति:......।
—वहीं है मोक्ष।
यह
शुद्धतम मोक्ष
की परिभाषा है।
इसका यह अर्थ हुआ
कि ऐसा भी नहीं
है कि तुम्हें
किसी दिन मोक्ष
मिलेगा, तुम चाहो
तो अभी भी, कभी—कभी,
भरे संसार में
भी क्षण भर को तुम
मोक्ष का रस ले
सकते हो। क्योंकि
अगर क्षण भर को
भी विचार बंद हो
जाएं, और क्षण
भर को भी कोई वांछा
न हो क्षण भर को
भी चित्त में क्रिया
रुक जाए, कोई
गति—आवागमन न हो,
न कुछ पकड़ने
का भाव उठे न छोड़ने
का—तो उस क्षण में
तुम मोक्ष में
हो। और वही स्वाद
तुम्हें फिर और—
और मोक्ष में ले
जाएगा। ध्यान का
अर्थ है : थोड़ी— थोड़ी
झलकें। समाधि का
अर्थ है : झलकों
का ठहर जाना, थिर हो जाना।
'जब मन न चाह
करता है.। '
लेकिन
तुम देखो! जिनको
तुम त्यागी कहते
हो,
वे भी चाह कर
रहे हैं—मोक्ष
की चाह कर रहे हैं!
अष्टावक्र की परिभाषा
में तुम्हारे त्यागी,
त्यागी नहीं
हैं।
तुम
पूछो अपने त्यागी
से कि तुमने संसार
क्यों छोड़ा? वह
कहता है, मोक्ष
की तलाश में। तुम
पूछो अपने त्यागी
से, तुमने धन—द्वार,
घर—द्वार क्यों
छोड़ा? तो वह
कहता है, मोक्ष
की तलाश में आत्मा
के आनंद को खोजना,
सत्य को खोजना।
मगर यह तो फिर त्याग
न हुआ।
मैंने
सुना है, दो छोटे—छोटे
गांव एक पहाड़ी
पर बसे थे। एक था
क्षत्रियों का
गांव और एक था जुलाहों
का गांव। जुलाहे
सदा से क्षत्रियों
से पीड़ित थे, सदा डरते रहे।
क्षत्रिय, क्षत्रिय;
जुलाहे जुलाहे!
उनके सामने अकड़
कर भी न निकल पाते।
क्षत्रियों ने
नियम बना रखा था
कि उनके गांव में
से कोई जुलाहा
मूंछ पर ताव दे
कर नहीं निकल सकता,
तो मूंछ नीची
कर लेनी पड़ती।
बड़ी पीड़ा थी जुलाहों
को। आखिर उन्होंने
कहा, इसका कुछ
उपाय करना पड़े,
आखिर एक सीमा
होती है सहने की।
उन्होंने कहा,
एक रात जब क्षत्रिय
सोए हों—क्योंकि
जागे में तो उन
पर हमला करने में
झंझट है—जब सब क्षत्रिय
सोए हों—और उनको
कभी कल्पना भी
नहीं हो सकती,
किसी क्षत्रिय
ने सपना भी न देखा
होगा कि जुलाहे
हमला करेंगे—तो
रात में हम चले
जाएं और अच्छी
मार—कुटाई कर दें
और लूटपाट कर लें।
बड़ी
हिम्मत बांध कर
जुलाहों ने क्षत्रियों
के गांव पर हमला
किया, लेकिन जुलाहे
तो जुलाहे थे।
सोए हुए क्षत्रिय
भी जागे हुए जुलाहों
के लिए काफी थे।
वे पहले ही से घबड़ा
रहे थे, एक—दूसरे
के पीछे हो रहे
थे, बामुश्किल
तो पहुंचे क्षत्रियों
के गांव में! उनके
पहुंचने के शोरगुल
में इसके पहले
कि वे हमला करें
या कुछ करें, क्षत्रिय जग
गए। वे सोच—विचार
ही काफी करते रहे
कि कहां से करें
किस पर करें; सोचते रहे कि
सबसे कमजोर क्षत्रिय
कौन है, पहले
उसी को देखें।
अब
ये भी कोई ढंग होते
हैं?
उतनी देर में
क्षत्रिय जाग गए,
वे तलवारें निकाल
लाए। जुलाहों ने
तलवारें देखीं
तो भागे, बेतहाशा
भागे। जब जुलाहे
भाग रहे थे, तो उनमें से उनका
एक साथी कहने
लगा
कि भाइयों! भागे
तो जाते ही हो, भला
मारो—मारो तो कहते
चलो। तो जुलाहे
भागते जाते और
चिल्लाते जाते
: 'मारो—मारो!'
किसको
धोखा देते हो? लेकिन
उनको मजा आया 'मारो—मारो' चिल्लाने में।
मारना—करना उनके
बस के बाहर था,
पिटाई हो रही
थी, भागे जा
रहे थे, लेकिन
जिसने कहा, उसने भी खूब तरकीब
निकाली। उसने कहा
कि कम से कम मारो
—मारो तो चिल्लाओ।
मार नहीं सकते,
कोई हर्जा नहीं,
लेकिन मारो
—मारो की आवाज तो
हम कर ही सकते हैं।
इससे कम से कम भरोसा
तो रहेगा कि हमने
भी कुछ किया।
तुम
अपने त्यागियों
को देखते हो? तुम्हारे
ही जैसे, ठीक
तुम्हारे जैसे
ही वांछा से भरे,
कामना से भरे,
तुम्हारे ही
जैसे वासना से
भरे। माना कि उनके
वासना के विषय
दूसरे, तुम्हारे
विषय दूसरे, पर विषय— भेद से
थोड़े कोई भेद पड़ता
है! वासना का अर्थ
है. कुछ भी चाहा,
तो चूके, तो अपने से चूके।
चाह—मात्र अपने
से वंचित कर जाती
है। लेकिन भागते
जाते हैं अपनी
चाह के पीछे और
चिल्लाते भी जाते
हैं कि भाइयो! त्यागों,
त्यागो! वासना
में कुछ सार नहीं
है!
तुम
जरा सुनो अपने
जुलाहों को—तुम्हारे
महात्मा! वे कहते
हैं. 'भाइयों! त्यागो,
त्यागो! वासना
में कुछ भी रखा
नहीं; दुख ही
दुख है। ' और
तुम उनसे ही पूछो
कि महाराज, आप उपवास करते,
घर छोड़ दिया,
मंदिर में बैठे
हैं, बड़ा ध्यान
लगाते हैं—किसलिए
गुम अगर तुम्हारा
महात्मा उत्तर
दे दे कि इसलिए,
तो चूक गया।
कोई भी उत्तर वह
दे, कहे कि इसलिए,
तो वासना मौजूद
है।
तुम्हारा
महात्मा अगर हंसे
और कहे कि 'किसलिए
भी नहीं, सिर्फ
जीवन की व्यर्थता
दिखाई पड़ गई.! मैंने
जीवन छोड़ा नहीं
है—जीवन छूट गया
है। मैं कुछ चाहने
में नहीं लगा हूं
मैं कुछ खोजने
में भी नहीं लगा
हूं —मैंने तो यह
जान लिया कि जिसको
खोजना है, वह
मेरे भीतर है,
उसको खोजने की
कोई जरूरत नहीं
है। मैं कहीं जा
भी नहीं रहा हूं
अपने घर में बैठा
हूं। मेरी सब यात्रा
समाप्त हो गई है।
मैं मोक्ष भी नहीं
खोज रहा हूं, परमात्मा भी
नहीं खोज रहा हूं।
मेरी प्रार्थना
कुछ मांगने के
लिए नहीं है। उपवास
मेरा आनंद है,
कुछ चाह नहीं।
ध्यान मेरा आनंद
है, कुछ चाह
नहीं। ये मेरे
साधन नहीं हैं,
ये मेरे साध्य
हैं।'
अगर
तुमसे कोई महात्मा
ऐसा कहे, और ऐसा
तुम पाओ कि किसी
महात्मा के जीवन
में ऐसा है भी,
क्योंकि कहने
से कुछ नहीं होता;
हो सकता है 'मारो—मारो' चिल्ला रहा हो,
फिर भी तुम्हें
उसकी आंखों में
ऐसी झलक मिले,
उसके सान्निध्य
में भी ऐसा लगे
कि न उसकी कोई पकड़
है न कोई छोड़ है,
न त्याग है न
भोग है, जो होता
है होता है, वह चुपचाप किनारे
पर बैठा देख रहा
है—अगर तुम ऐसी
विश्राम की चेतना
को पा लो, वहां
झुकाना अपना सिर।
वह झुकने की जगह
है। वह मंदिर की
चौखट आ गई। वैसा
आदमी मंदिर है।
लेकिन
अगर कहीं भी पाने
की,
कोई आकांक्षा
अभी भी सरक रही
हो मन के किसी कोने
में, फिर वह
पाना कुछ भी क्यों
न हो, तो संसारी
संसारी है। सिर
के बल खड़ा हो जाए,
इससे कुछ भेद
नहीं पड़ता। भूखा
मरे, इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता।
नंगा खड़ा हो जाए,
इससे कुछ भेद
नहीं पड़ता। संसार
और मोक्ष अष्टावक्र
की परिभाषा में
तुम्हारे चित्त
की दशाएं हैं—चाह
और अचाह की। 'जब मन न चाह करता
है, न सोचता
है, न त्यागता
है, न ग्रहण
करता है, न सुखी
होता, न दुखी
होता—तब
मुक्ति है। '
तदा
मुक्ति:।
जब
मन एकरस होता, बस
होता, कोई क्रिया
नहीं होती, कोई हलन—चलन नहीं
होता, कोई कंपन
नहीं होता, स्तब्ध ज्योति
ठहरी होती है अकंप,
न कहीं जाना,
न होने की कोई
वांछा, जैसा
है है—ऐसा सर्वस्वीकार,
ऐसी तथाता;
जैसे दर्पण कोरा;
जैसे कोरा कागज,
जिस पर कुछ लिखा
नहीं है, ऐसा
जब मन कोरा होता—उस
कोरे मन का नाम
ही ध्यान है। और
उस कोरे मन में
जब कोई संभावना
नहीं रह जाती...।
क्योंकि कुछ कोरे
कागज होते हैं
जिनमें अदृश्य
लिखावट होती है।
कोरा कागज हो सकता
है, लेकिन ऐसी
रासायनिक प्रक्रियाएं
होती हैं कि तुम
रासायनिक द्रव्यों
से लिख सकते हो,
दिखाई न पड़े,
थोड़ी आंच बताओ
तो दिखाई पड़ने
लगे। जब कोरा कागज
ऐसा होता है कि
उसमें अदृश्य लिखाई
भी नहीं होती,
कितनी ही आंच
दिखाओ कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ेगा, कुछ भी पैदा नहीं
होगा—तब जानना
आ गए अपने घर, मंजिल मिली।
तदा मुक्ति:।
'जब मन किसी दृष्टि
अथवा विषय में
लगा हुआ है तब बंध
है और मन जब सब दृष्टियों
से अनासक्त है
तब मोक्ष है।'
सीधी—सीधी
बातें हैं, बड़े
सीधे सूत्र हैं
और सत्य के अत्यंत
निकट हैं।
तदा
बंधो यदा चित्तं
सक्त कास्वपि दृष्टिषु।
तदा
मोक्षो यदा चितंसक्तं
सर्वदृष्टिषु।।
'जब मन किसी दृष्टि
अथवा विषय में
लगा है......।'
किसी
दृष्टि में लगा
है—आंख से जो दिखाई
पड़ता है उसमें
लगा है, कान से
जो सुनाई पड़ता
है उसमें लगा है,
हाथ से जो स्पर्श
में आता है उसमें
लगा है—तो दृष्टि
में लगा है।
समझो
इस बात को। तुम
राह से गुजरे, देखा
एक सुंदर स्त्री
को जाते हुए—मन
उसके पीछे चलने
लगा। तुम न भी जाओ
उसके पीछे, तुम मुंह मोड़
लो, तुम आंख
बंद कर लो, तुम
उस तरफ देखो ही
नहीं—लेकिन मन
चलने लगा। तुम्हारे
चलने से कुछ मन
के चलने का संबंध
नहीं। तुम्हारा
शरीर चले न चले,
मन चलने लगा।
फिर वहीं से एक
त्यागी निकल रहा
है। तुम उस स्त्री
के सौंदर्य के
भोग के लिए आतुर
होने लगे, मन
में कल्पना उठने
लगी। फिर एक त्यागी
निकलता है वहीं
से, उसने भी
सुंदर स्त्री देखी।
सुंदर स्त्री देख
कर ही वह शास्त्रों
के वचन अपने भीतर
दोहराने लगा कि
'स्त्री में
है क्या? हड्डी,
मांस, मज्जा,
मल—मूत्र—है
क्या स्त्री में?
कुछ भी तो नहीं
है। ' वह समझाने
लगा अपने को। यह
त्यागी है, लेकिन इस त्याग
के पीछे भी कहीं
गहरे में राग छिपा
है.; नहीं तो
यह बात भी क्या
उठानी? और स्त्री
में मल—मूत्र छिपा
है तो तुममें क्या
कोई सोना—चांदी
छिपा है।
तुमने
कभी सोचा? जिन
महात्माओं ने तुम्हारे
शास्त्र लिखे,
उसमें वे लिख
गए 'स्त्री
में मल—मूत्र,
मांस—मज्जा,
बस यही थूक—खखार—यही
सब छिपा पड़ा है।
'खुद इन महात्मा
में क्या छिपा
था? इस संबंध
में भी तो कुछ सूचना
दे जाते। उस संबंध
में बिलकुल चुप
हैं। क्योंकि पुरुषों
ने शास्त्र लिखे
हैं, इसलिए
स्त्रियों में
तो हड्डी, मांस,
मज्जा है और
पुरुषों में सोना—चांदी
है! स्त्रियों
ने शास्त्र लिखे
होते तो शायद बात
कुछ और होती, तो वे पुरुषों
के बाबत लिखतीं।
लेकिन यह लिखने
की जरूरत भी क्या
है? क्या इस
बात में साफ प्रमाण
नहीं है कि कहीं
न कहीं अभी भी स्त्री
में रस रहा होगा।
उसी
रस को झुठलाने
को यह कह रहा है
कि रखा क्या है!
यह अपने मन को समझा
रहा है। मन तो कहता
है कि चलो...। यह मन
को कह रहा है : अरे
पागल, कुछ भी नहीं
रखा है! वासना तो
उठी है, यह वासना
की लगाम खींचने
की कोशिश कर रहा
है।
लाख
तुम ऐसी कोशिशें
करो,
तुम जीतोगे नहीं।
यह सब सोच—विचार
ही है।
मुझे
अपनी पस्ती की
शरम है
तेरी
रिफअतों का खयाल
है
मगर
अपने दिल को मैं
क्या करूं?
इसे
फिर भी शौक—ए—विसाल
है।
तुम
लाख समझो, शर्मिंदा
होओ, अपराधी
अनुभव करो गलती
हो रही है, पाप
हो रहा है—फिर भी
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
मगर
अपने दिल को मैं
क्या करूं?
इसे
फिर भी शौक—ए—विसाल
है।
वह
दिल तो भोग मांगता
ही जाता है। उस
दिल को तुम रोको, बंधन
डालो, जंजीरें
पहनाओ— इससे भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुम निकल
रहे राह से—तुम
भोगी हो तो भोग
की आकांक्षा उठती
है; त्यागी
निकलता, उसको
भी भोग की आकांक्षा
निकलती है, वह त्याग की बातों
से उस आकांक्षा
को दबाता। मगर
दोनों दृष्टि में
उलझ गए; जो दिखाई
पड़ा उसमें उलझ
गए।
तुम
उस आदमी की कल्पना
करो जो वहीं रास्ते
से निकलता है और
जो दिखाई पड़ता
है,
वह न तो इस तरफ
न उस तरफ, किसी
तरह की उलझन पैदा
नहीं करता। स्त्री
निकली, निकली—स्त्री
स्त्री है! न तो
शोरगुल मचाने की
जरूरत है कि स्वर्ग
निकल गया पास से,
न शोरगुल मचाने
की जरूरत है कि
यह कापोरशन की
मैला—गाड़ी निकल
गई पास से। स्त्री,
स्त्री है—निकल
गई, निकल गई!
तुम ऐसे ही चले
गए, जैसे कुछ
भी न निकला। इस
अवस्था का नाम
है : दृष्टि के पार
हो जाना।
तुमने
कान से कुछ सुना
और उसमें रस पड़
गया। एक गीत सुन
लिया, फिर—फिर गीत
को सुनने की आकांक्षा
होने लगी—तो दृष्टि
में उलझ गए। तुमने
कुछ छुआ, प्रीतिकर
लगा, फिर—फिर
छूना चाहा—तो फिर
दृष्टि में उलझ
गए।
खयाल
रखना, तुमने जा
कर किसी साधु की
वाणी सुनी, किसी संत के वचन
सुने, सुनने
के कारण अच्छे
लगे और उलझ गए—तो
वह भी दृष्टि है।
समझ के कारण ठीक
लगना एक बात है,
सुनने के कारण
ठीक लगना बिलकुल
दूसरी बात है।
तुम, सिर्फ
कानों को प्रीतिकर
लगे, इसलिए
उलझ गए; कर्णमधुर
लगे, इसलिए
उलझ गए—तो फिर तुम
दृष्टि में उलझ
गए। तुम्हारी समझ
को ठीक लगे.।
'जब मन किसी दृष्टि
अथवा विषय में
लगा हुआ है, तब बंध है।'
यदा
चित्तम् कासु दृष्टिमु
सक्तम् तदा बंध:।
'और मन सब दृष्टियों
से जब अनासक्त
है, तब मोक्ष
है।'
यदा
चित्तम् सर्वदृष्टिमु
असक्तम् तदा मोक्ष:।।
जब
तुम देखते हुए—और
नहीं देखते; चलते
हुए—और नहीं चलते,
छूते हुए—और
नहीं छूते,
सुनते
हुए—नहीं सुनते; सब
होता रहता है,
लेकिन तुम अपने
द्रष्टा— भाव में
थिर होते हो, वहां से तुम विचलित
नहीं होते, वहां अविचलित
तुम्हारी अंतरज्योति
कंपती नहीं, कोई हवा का झोंका
तुम्हें हिलाता
नहीं; सब आता
है जाता है, तुम वही के वही
बने रहते हो, एकरस, ज्यों
के त्यों—यही मोक्ष
है। मोक्ष कहीं
सात स्वर्गों के
पार नहीं। और संसार
बाजार में, दुकान में, व्यवसाय में
नहीं। संसार तुम्हारे
चित्त की एक दशा;
मोक्ष भी तुम्हारे
चित्त की एक दशा।
मोक्ष वैसी दशा
जैसा स्वाभाविक
होना चाहिए; और संसार वैसी
दशा जैसा रोग—ग्रस्त
अवस्था में हो
जाता है। संसार
यानी बीमार आत्मा
की अवस्था। मोक्ष
यानी स्वस्थ आत्मा
की अवस्था।
'स्वस्थ' शब्द
बडा अच्छा है।
इसका अर्थ ही होता
है. स्वयं में स्थित।
स्वास्थ्य का अर्थ
ही होता है, जो स्वयं में
स्थित हो गया।
आत्मस्थ जो हुआ,
वही स्वस्थ,
बाकी सब बीमार।
शरीर
की बीमारी थोड़े
ही कोई बीमारी
है,
असली बीमारी
तो आत्मा का अस्वस्थ
होना है। अपने
से स्मृत हो जाना,
अपने से हट जाना,
अपने केंद्र
से डावांडोल हो
जाना. अस्वास्थ्य।
अपने केंद्र पर
बैठ जाना, अडिग.
स्वास्थ्य। इसी
स्वास्थ्य को अष्टावक्र
मोक्ष कह रहे हैं।
'जब मैं हूं तब
बंध है। जब मैं
नहीं हूं तब मोक्ष
है।'
कैसे
प्यारे वचन हैं!
इनसे श्रेष्ठ वचन
तुम कहां खोज सकोगे!
'जब मैं हूं तब
बंध है। जब मैं
नहीं हूं तब मोक्ष
है। इस प्रकार
विचार कर न इच्छा
कर, न ग्रहण
कर और न त्याग कर।'
सरल, अनूठे,
पर अति कठिन!
जितने सरल उतने
कठिन। सरल ही तो
हमें करना कठिन
हो गया है। कठिन
तो हम कर लेते हैं,
सरल अटका देता
है।
इसे
थोड़ा समझना।
कठिन
को तो करने में
अहंकार को रस आता
है,
इसलिए कर लेते
हैं। कठिन में
तो अहंकार को चुनौती
है, कुछ करके
दिखला देने का
मजा है। कठिन में
तो कर्ता होने
की सुविधा है।
तो आदमी कठिन को
करने में बड़ा उत्सुक
होता है।
तुम
ध्यान रखना, तुम
जीवन में जो भी
कर रहे हो, कहीं
वह इसलिए तो नहीं
कर रहे हो कि वह
कठिन है? बड़ा
मकान बनाना कठिन
है। बड़ी कार खरीद
लाना कठिन है।
बड़ा धन— अंबार लगा
लेना कठिन है।
कहीं तुम इसलिए
तो पीछे नहीं लगे
हो? खाओगे,
पीयोगे, ओढोगे—क्या
करोगे उस धन के
अंबार का? लेकिन
आदमी धन का ढेर
लगाता जाता है।
क्यों? पूछो
उससे। शायद बहुत
कठिन था, इसलिए
चुनौती थी। कुछ
दिखला कर—मैं भी
कुछ हूं—दुनिया
को बतला देने का
मजा था। जो बिलकुल
सरल है, उसमें
तो किसी को रस नहीं
आता।
सिकंदर
सारी दुनिया जीतना
चाहता था। डायोजनीज
ने उससे कहा, क्या
करोगे सारी दुनिया
को जीतने के बाद?
सिकंदर ने कहा,
क्या करेंगे?
फिर विश्राम
करेंगे!
डायोजनीज
खूब हंसने लगा।
उसने कहा, अगर
विश्राम ही करना
है तो हम अभी विश्राम
कर रहे हैं, तो तुम भी करो।
सारी दुनिया जीत
कर विश्राम करोगे,
यह बात कुछ समझ
में नहीं आई। इसमें
तर्क क्या है?
क्योंकि सारी
दुनिया के जीतने
का विश्राम से
कोई भी तो संबंध
नहीं है। विश्राम
मैं बिना कुछ जीते
कर रहा हूं। जरा
मेरी तरफ देखो!
और
वह कर ही रहा था
विश्राम। वह नदी—तट
पर नग्न लेटा था।
सुबह की सूरज की
किरणें उसे नहला
रही थीं। मस्त
बैठा था। मस्त
लेटा था। कहीं
कुछ करने को न था, विश्राम
में था। तो वह खूब
हंसने लगा। उसने
कहा, सिकंदर
तुम पागल हो! तुम
जरा मुझे कहो तो,
कि अगर विश्राम
दुनिया को जीतने
के बाद हो सकता
है, तो डायोजनीज
कैसे विश्राम कर
रहा है? मैं
कैसे विश्राम कर
रहा हूं? मैंने
तो कुछ जीता नहीं।
मेरे पास तो कुछ
भी नहीं है। मेरे
हाथ में एक भिक्षा—पात्र
हुआ करता था, वह भी मैंने छोड़
दिया। वह इस कुत्ते
की दोस्ती के कारण
छोड़ दिया।
कुत्ता
उसके पास बैठा
था। डायोजनीज का
नाम ही हो गया था
यूनान में : 'डायोजनीज
कुत्ते वाला'। वह कुत्ता सदा
उसके साथ रहता
था। उसने आदमियों
से दोस्ती छोड़
दी। उसने कहा,
आदमी कुत्तों
से गए—बीते हैं।
उसने एक कुत्ते
से दोस्ती कर ली।
और उसने कहा, इस कुत्ते से
मुझे एक शिक्षा
मिली, इसलिए
मैंने पात्र भी
छोड़ दिया, पहले
एक भिक्षा—पात्र
रखता था। एक दिन
मैंने इस कुत्ते
को नदी में पानी
पीते देखा। मैंने
कहा, ' अरे, यह बिना पात्र
के पानी पी रहा
है! मुझे पात्र
की जरूरत पड़ती
है!' वहीं मैंने
छोड़ दिया। इस कुत्ते
ने मुझे हरा दिया।
मैंने कहा, यह हमसे आगे पहुंचा
हुआ है? मुझे
पात्र की जरूरत
पड़ती है? क्या
जरूरत? जब कुत्ता
पी लेता है पानी
और कुत्ता भोजन
कर लेता.। तो मेरे
पास कुछ भी नहीं
है, फिर भी मैं
विश्राम कर रहा
हूं।. और क्या तुम
संदेह कर सकते
हो मेरे विश्राम
पर?
नहीं, सिकंदर
भी संदेह न कर सका।
वह आदमी सच कह रहा
था। वह निश्चित
ही विश्राम में
था। उसकी 'आंखें,
उसका सारा भाव,
उसके चेहरे की
विभा वह ऐसा था
जैसे दुनिया में
कुछ पाने को बचा
नहीं, सब पा
लिया है। कुछ खोने
को नहीं, कोई
भय नहीं, कोई
प्रलोभन नहीं।
सिकंदर
ने कहा, तुमसे
मुझे ईर्ष्या होती
है। चाहता मैं
भी हूं ऐसा ही विश्राम,
लेकिन अभी न
कर सकूंगा। दुनिया
तो जीतनी ही पड़ेगी।
मैं यह तो बात मान
ही नहीं सकता कि
सिकंदर बिना दुनिया
को जीते मर गया।
डायोजनीज
ने कहा, जाते हो,
एक बात कहे देता
हूं, कहनी तो
नहीं चाहिए, शिष्टाचार में
आती भी नहीं, लेकिन मैं कहे
देता हूं : तुम मरोगे
बिना विश्राम किए।
और
सिकंदर बिना विश्राम
किए ही मरा! भारत
से लौटता था, रास्ते
में ही मर गया,
घर तक भी नहीं
पहुंच पाया। और
जब बीच में मरने
लगा और चिकित्सकों
ने कहा कि अब बचने
की कोई उम्मीद
नहीं, तो उसने
कहा, सिर्फ
मुझे चौबीस घंटे
बचा दो, क्योंकि
मैं अपनी मां को
मिलना चाहता हूं।
मैं अपना सारा
राज्य देने को
तैयार हूं। मैंने
यह राज्य अपने
पूरे जीवन को गंवा
कर कमाया है, मैं वह सब लुटा
देने को तैयार
हूं. चौबीस घंटे!
मैंने अपनी मां
को वचन दिया है
कि मरने के पहले
जरूर उसके चरणों
में आ जाऊंगा।
चिकित्सकों
ने कहा कि तुम सारा
राज्य दो या कुछ
भी करो, एक श्वास
भी बढ़ नहीं सकती।
सिकंदर ने कहा,
किसी ने अगर
मुझे पहले यह कहा
होता, तो मैं
अपना जीवन न गंवाता।
जिस राज्य को पाने
में मैंने सारा
जीवन गंवा दिया,
उस राज्य को
देने से एक श्वास
भी नहीं मिलती!
डायोजनीज ठीक कहता
था कि मैं कभी विश्राम
न कर सकूंगा।
खयाल
रखना, कठिन में
एक आकर्षण है अहंकार
को। सरल में अहंकार
को कोई आकर्षण
नहीं है। इसलिए
सरल से हम चूक जाते
हैं। सरल.. परमात्मा
बिलकुल सरल है।
सत्य बिलकुल सरल
है, सीधा—साफ,
जरा भी जटिलता
नहीं।
यदा
नाहं तदा मोक्षो
यदाहं बंधन तदा।
मत्वेति
हेलया किंचित्
मा गृहाण विमुडच
मा।।
'जब मैं हूं, तब बंध है। '
यदा
अहम तदा बंधनम्।
मैं
ही बंध हूं। मेरा
भाव मुझे दूर किए
है परमात्मा से।
यह सोचना कि मैं
हूं मेरे और उसके
बीच फासला है।
यही सीमा अटका
रही। जिस क्षण
मैं जानता हूं—वही
है,
मैं नहीं।
यदा
अहम् न तदा मोक्ष:।
यदा
अहम् न तदा मोक्ष:
—जहां मैं नहीं, बस
वहां मुक्ति,
वहां मोक्ष।
एक
ही चीज गिरा देनी
है. मैं — भाव, अस्मिता,
अहंकार। और जब
तक चित्त में लहरें
हैं, तब तक अहंकार
नहीं गिरता, क्योंकि अहंकार
सभी लहरों के जोड़
का नाम है। अहंकार
तुम्हारी सारी
अशांति का संघट
है। अहंकार कोई
वस्तु नहीं है
कि तुम उठा कर फेंक
दो। अहंकार तुम्हारे
पूरे पागलपन का
संगृहीत नाम है।
जैसे—जैसे तुम
शांत होते जाओगे,
वैसे —वैसे अहंकार
विसर्जित होता
जाएगा।
जैसे
तुम गए और देखा
दरिया में तूफान
है,
फिर तूफान शांत
हो गया—फिर तुम
क्या पूछते हो
तूफान कहां गया?
जब दरिया शांत
है तो तूफान कहा
है? क्या तुम
कहोगे कि तूफान
अब शांत अवस्था
में है? तूफान
है ही नहीं। और
जब तूफान था तब
क्या था? तब
भी दरिया ही था,
सिर्फ अस्तव्यस्त
दरिया था। बड़ी
लहरें उठती थीं,
आकाश को छू लेने
का पागलपन था,
बड़ा महत्वाकाक्षी
दरिया था, बड़ी
आकांक्षा, बड़ी
चाहत, बड़ा विचार,
कुछ कर दिखाने
का भाव दरिया में
था। थक गया, हार गया, समझ
लिया कि कुछ सार
नहीं, सो गया,
विश्राम में
लौट गया—तूफान
गया।
तूफान
कोई वस्तु नहीं
है,
तूफान एक उद्विग्न
अवस्था है। अहंकार
भी तूफान जैसा
है। तुम्हारे चित्त
की उद्विग्न अवस्था
का नाम अहंकार
है। जैसे—जैसे
तुम शांत होने
लगे, अहंकार
विदा होने लगा।
परम शांति में
तुम्हारी सीमा
खो जाती है, तुम अचानक असीम
के साथ एक हो जाते
हो।
'जब मैं हूं तब
बंध है। '
यदा
नाहं तदा मोक्षो
यदाहं बंधन तदा।
'
और जब मैं नहीं,
तब मोक्ष। '
'इस प्रकार विचार
कर न इच्छा कर,
न ग्रहण कर,
न त्याग कर।
'
बड़ा
सीधा सूत्र है, लेकिन
तुम कहोगे, बड़ा जटिल है! यह
तो उलझा दिया।
सीधी बात कहो,
या तो कहो कि
ग्रहण करो, भोगो—समझ में
आता है। यह भी समझ
में आता है कि मत
भोगो, छोड़ो,
त्यागो। यह भी
समझ में आता है।
यह क्या बात है?
यह तो बड़ी उलझन
है।
अष्टावक्र
कहते हैं : 'ऐसा
विचार कर न इच्छा
कर, न ग्रहण
कर और न त्याग कर।
'
हमें
तो बड़ी जटिलता
मालूम होती है
ऊपर से देखने पर
कि यह तो बड़ी उलझन
की बात हो गई। मेरे
पास लोग आते हैं, वे
कहते हैं, हम
कामवासना के साथ
क्या करें? भोगें? दबाएं?
क्या करें?
आप हमें उलझन
में डाले हुए हैं।
जो
कहते हैं, भोगो..
.चार्वाक कहते
हैं, भोगो।
बृहस्पति ने कहा,
'कोई फिक्र न
करो। ऋण कृत्वा
घृतं पिवेत! अगर
ऋण ले कर घी पीना
पड़े तो पीयो मजे
से, लौट कर आता
कौन? किसका
ऋण चुकाना है?
किसको चुकाना
है? मरे कि मरे।
भोग लो, लूट
कर भी भोगना हो
तो भोग लो। अपनी
है कि पराई है स्त्री,
इसकी फिक्र मत
करो। कौन किसका
है? मर गए कि
सब राख है। कोई
मर कर आता नहीं।
कोई आत्मा इत्यादि
नहीं, इसलिए
अपराध इत्यादि
की व्यर्थ बातों
में मत पड़ो। न कोई
पाप है, न कोई
पुण्य।'
यह
भी बात समझ में
आती है। सौ में
निन्यानबे लोग
यही मानते हैं, चाहे
कहते कुछ भी हों।
उनके कहने पर मत
जाना—देखना, क्या करते हैं?
उनकी किताबों
में मत खोजना,
उनके चेहरों
में खोजना।
हरेक
चेहरा खुद एक खुली
किताब है यहां,
दिलों
का हाल किताबों
में ढूंढता क्यों
है?
मुसलमान
को देखना हो तो
कुरान में मत देखना, अन्यथा
गलती में पड़ोगे।
क्योंकि मुसलमान
का कुरान से क्या
लेना—देना है,
जितना हिंदू
का लेना—देना है
कुरान से उतना
ही मुसलमान का
लेना—देना है,
उससे ज्यादा
नहीं। हिंदू को
देखना हो तो वेद
और उपनिषदों में
मत देखना। उससे
हिंदू को क्या
लेना—देना है?
हिंदू को देखना
हो तो उसकी आंखों
में देखना, उसके चेहरे में
देखना। सिद्धांतों
में मत झांकना,
सिद्धांत बड़े
धोखे से भरे हैं।
हमने सिद्धांत
पकड़ लिए हैं अपनी
असलियत छिपाने
को। कुरान में
ढंके बैठे हैं।
कोई वेद को ओढ़े
बैठा है, कोई
राम—नाम चदरिया
डाले है—उनके भीतर
छिपे बैठे हैं।
तुम राम—नाम चदरियों
के धोखे में मत
आना, तुम तो
आदमी की सीधी आंख
में देखना।
हरेक
चेहरा खुद एक खुली
किताब है यहां,
दिलों
का हाल किताबों
में ढूंढता क्यों
है?
सौ
में निन्यानबे
आदमी चार्वाकवादी
हैं। चार्वाक का
पुराना नाम है
लोकायत। वह नाम
बड़ा प्यारा है।
लोकायत का अर्थ
होता है : लोग को
जो प्रिय है। सबको
जो प्रिय है। कहें
लोग कुछ भी, ऊपर
से कुछ भी गुनगुनाए,
राम—राम जपें;
ऊपर से मोक्ष,
परमात्मा, धर्म की बातें
करें—लेकिन भीतर
से अगर पूछो तो
हर आदमी का दिल
चार्वाक है।
'चार्वाक' शब्द भी बहुत
अच्छा है। वह आया
है चारु वाक से—जिसके
वचन मधुर लगें।
सभी को मधुर लगते
हैं—कहे कोई नहीं;
हिम्मतवर कहेंगे
सिर्फ। बृहस्पति
हिम्मतवर रहे होंगे,
इसलिए भारत में
उनको आचार्य का
पद दिया गया, 'आचार्य बृहस्पति'
कहा है। चार्वाक—दर्शन
के जन्मदाता को
भी आचार्य कहा
है—उसी तरह जिस
तरह शंकर को आचार्य
कहा है, रामानुज
को आचार्य कहा
है।
इस
देश में हिम्मत
तो है। यह तो कहता
है कि बात तो कही
ही है बृहस्पति
ने,
बड़े मूल्य की
कही है। और अधिक
लोग तो बृहस्पति
के ही अनुयायी
हैं। हालाकि बृहस्पति
के लिए कोई समर्पित
मंदिर नहीं है
कहीं। और न तुम
किसी के घर में
चार्वाक की किताब
पाओगे, किताब
बची नहीं है; किसी ने बचाई
भी नहीं। कौन बचाएगा?
किताबें तुम
पाओगे : गीता, कुरान, बाइबिल,
वेद, धम्मपद।
मगर इनसे किसी
को कुछ लेना—देना
नहीं है। किताबों
के कवर धम्मपद
के हैं, भीतर
तो बृहस्पति के
वचन लिखे हैं।
हृदय
खोजो आदमी का, तो
सौ में निन्यानबे
आदमी नास्तिक हैं
और सौ में निन्यानबे
आदमी
भोगवादी
हैं। वह भी समझ
में आता है, स्वाभाविक
लगता है।
फिर
थोड़े —से लोग हैं
जो त्यागी हैं।
वे भी समझ में आते
हैं। भोग के तर्क
से उनके तर्क में
कुछ विरोध नहीं।
वे कहते हैं, जीवन
में कुछ नहीं है,
इसलिए हम छोड़ते
हैं। वह भी बात
समझ में आती है
: 'जहां कुछ नहीं
है, उससे भागो!
किसी और की तलाश
करो, जहां कुछ
हो!'
लेकिन
अष्टावक्र को कैसे
समझोगे? मुझे कैसे
समझोगे?
'न इच्छा कर, न ग्रहण कर और
न त्याग कर।'
तो
जब मुझसे कोई पूछता
है,
'हम अपनी कामवासना
का क्या करें?
आप कहते हैं
दबाओ मत। आप कहते
हैं भोगो मत। करें
क्या फिर?' ये
दो बातें साफ समझ
में आती हैं। द्वैत
सदा समझ में आता,
अद्वैत समझ में
नहीं आता।
मैं
उनसे कहता हूं
जागो! न भोगो न भागो—जागो।
न दबाओ न दमन करो, न भोग
में अपने को नष्ट
करो—साक्षी बनो।
देखो। जो होता
हो उसे देखो। वासना
पकड़े तो पकड़ने
दो, तुम क्या
करोगे? तुम
दूर भीतर बैठे
देखते रहो कि वासना
पकड़ती है। तुमने
उठाई भी नहीं।
जिसने उठाई वह
जाने। तुम अपने
को क्यों बेचैन
किए लेते हो? क्रोध उठता है,
क्रोध को भी
देखो। लोभ उठता
है, लोभ को भी
देखो। तुम सिर्फ
देखने पर ध्यान
रखो कि देखूंगा।
जो भी उठेगा, देखूंगा।
सुबह
होती है तो क्या
करते हों—सुबह
को देखते। रात
हो जाती तो क्या
करते, रात को देखते।
जवान होते तो जवानी
देखते, बूढ़े
हो जाते तो बुढ़ापे
को देखते। मौसम
बदलते, ऋतुएं
बदलतीं—ऐसा ही
तुम्हारा चित्त
भी डांवांडोल होता
रहता है, तुम
देखते रहो। अगर
तुमने देखने के
सूत्र को पकड़ लिया,
तो तुम धीरे—
धीरे पाओगे सब
ऋतुएं दूर हो गईं;
न काम बचा, न ब्रह्मचर्य
बचा; न भोग बचा
न त्याग बचा। दोनों
गए। एक दिन अंतत:
आदमी पाता है. अकेला
बैठा हूं घर में,
कोई भी नहीं
बचा। एकांत, बिलकुल अकेला,
शुद्ध चैतन्य,
चिन्मात्र! अहो
चिन्मात्र! आश्चर्य
कि मैं सिर्फ चैतन्य—मात्र
हूं और सब व्यर्थ
की बकवास थी—पकड़ो,
छोड़ो, यह
करो, वह करो।
कर्ता भी भूल थी,
भोक्ता भी भूल
थी। संस्कृत में
जो शब्द है वह बड़ा
बहुमूल्य है।
मत्वेति
हेलया किंचित्
मा गृहाण विमुडच
मा।
हिंदी
में अनुवाद सदा
किया जाता रहा
है. 'इस प्रकार विचार
कर, न इच्छा
कर, न ग्रहण
कर, और न त्याग
कर। ' लेकिन
यह 'विचार करना'
नहीं है। क्योंकि
विचार करने को
तो मना किया है
अष्टावक्र ने शुरू
में ही।
तो
जिन्होंने भी अनुवाद
किए हैं अष्टावक्र
के,
वे ठीक नहीं
मालूम पड़ते हैं।
क्योंकि तीन सूत्रों
के पहले ही वे कहते
हैं. 'जब मन कुछ
चाहता है, कुछ
सोचता है, कुछ
त्यागता, कुछ
ग्रहण करता, जब वह सुखी—दुखी
होता, तब बंध
है।'
किंचित
शोचति तदा बंध:!
तो
विचार तो नहीं
हो सकता 'मत्वेति'
का अर्थ। मत्वेति
बनता है मति से।
मति एक बड़ी पारिभाषिक
धारणा है। तुमने
सुनी कहावत कि
जब परमात्मा किसी
को मिटाना चाहता
तो उसकी मति भ्रष्ट
कर देता। मति क्या
है? तुम्हारे
सोचने पर निर्भर
नहीं है मति। तुम
तो सोच—सोच कर जो
भी करोगे वह मन
का ही खेल होगा।
मति है मन के पार
जो समझ है, उसका
नाम मति है। मन
के पार जो समझ है,
सोच—विचार से
ऊपर जो समझ है,
शुद्ध समझ,
जिसको अंग्रेजी
में अंडरस्टेंडिंग
कहें, थिंकिंग
नहीं, विचारणा
नहीं, अंडरस्टेंडिंग,
प्रज्ञा जिसको
बुद्ध ने कहा है—मति।
मत्वेति
हेलया किंचित्
मा गृहाण विमुडच
मा।
जो
ऐसी मति में थिर
हो गया है—मैं अगर
अनुवाद करूं तो
ऐसा करूंगा—जो
ऐसी मति को उपलब्ध
हो गया है, मत्वेति,
कि अब न तो इच्छा
उठती, न ग्रहण
उठता, न त्याग
का भाव उठता। जो
ऐसी मति को उपलब्ध
हो गया है, जहां
मन नहीं उठता।
जिसको झेन फकीर
नो —माइंड कहते
हैं, वही मति।
यह तुम्हारे सोच—विचार
का सवाल नहीं है।
जब तुम्हारा सब
सोच—विचार खो जाएगा,
तब तुम उस घड़ी
में आओगे, जिसको
मति कहें।
मति
तुम्हारी और मेरी
नहीं होती। मति
तो एक ही है। मेरे
विचार मेरे, तुम्हारे
विचार तुम्हारे
हैं। जब तुम्हारे
विचार खो गए, मेरे विचार खो
गए, मैं निर्विचार
हुआ, तुम निर्विचार
हुए—तो मुझमें
तुममें कोई भेद
न रहा। और जो उस
घड़ी में घटेगा—वह
मति। वह मति न तो
तुम्हारी न मेरी।
विचार तो सदा मेरे—तेरे
होते हैं। और अष्टावक्र
तो कहते हैं, जब मैऐ हूं तब
बंध है। और विचार
के साथ तो मैं जुड़ा
ही रहता है। इसलिए
तो लोग बड़े लड़ते
हैं। कहते हैं,
मेरा विचार।
इसकी भी फिक्र
नहीं करते कि सत्य
क्या है? मेरा
विचार सत्य होना
ही चाहिए, क्योंकि
मेरा है। दुनिया
में जो विवाद चलते
हैं, वह कोई
सत्य के अनुसंधान
के लिए थोड़े ही
हैं। सत्य के अनुसंधान
के लिए विवाद की
जरूरत ही नहीं
है। विवाद चलते
हैं कि जो मैं कहता
हूं वही सत्य;
जो तुम कहते
हो वही गलत। तुम
कहते हो, इसलिए
वह गलत। और मैं
कहता हूं इसलिए
यह सही। और कोई
आधार नहीं है।
मैंने कहा है,
तो गलत हो कैसे
सकता है!
तो
विचार में तो मैं
—तू है। मति में
मैं —तू नहीं है।
या ऐसा होगा कहना
ज्यादा ठीक कि
विचार हमारे—तुम्हारे
होते, विचार मनुष्यों
के होते, मति
परमात्मा की। मति
वहां है जहां हम
खो गए होते हैं।
इति
मति मत्वा हेलया
मा गृहाण मा विमुज्च।
—ऐसी मति में हों
हम, कि न तो इच्छा
करके ग्रहण करें,
न इच्छा करके
त्याग करें।
इसको
भी समझ लेना। जरा
भी इच्छा न हो।
जो हो, उसे होने
दें। अगर किसी
क्षण दुख हो, तो उसे होने दें,
इच्छा करके हम
दुख को न हटाए।
और किसी क्षण सुख
हो, तो उसे होने
दें; इच्छा
करके हम सुख को
न हटाए। हम इच्छा
करके हटाने का
काम ही बंद कर दें।
हम तो यही कह दें
जो हो तेरी मर्जी।
जैसी तेरी मर्जी
वैसे रहेंगे। जो
अनंत की मर्जी,
वही मेरी मर्जी।
मैं अपने को अलग—
थलग न रखूंगा।
मेरा अपना कोई
निजी लक्ष्य नहीं
अब। जो सर्व का
लक्ष्य है, वही मेरा लक्ष्य
है।
ऐसी
घड़ी में, ऐसी मति
में, ऐसी प्रज्ञा
में, ऐसे बोधोदय
में, कहां दुख?
कहां सुख? कहां बंधन? कहां मुक्ति?
सब द्वंद्व खो
जाते हैं। सब द्वैत
सो जाते हैं। एक
ही बचता है अहर्निश।
एक ही गूंजता है,
एक ही गाता,
एक ही जीता,
एक ही नाचता
है। ऐसी घड़ी में
तुम सर्व के अंग
हो जाते, सर्व
के साथ प्रफुल्लित,
सर्व के साथ
खिले हुए। तुम्हारा
सब संघर्ष समाप्त
हो जाता है। तुम
सर्व के साथ लयबद्ध
हो जाते; छंदोबद्ध
हो जाते।
सर्व
के साथ जो छंदबद्ध
हो गया है, उसी
को मैं संन्यासी
कहता हूं। जो हो—अच्छा
हो, बुरा हो—अब
कोई चिंता न रही।
जैसा हो, हो;
अब मेरी कोई
अपेक्षा न रही।
अब जो होगा वह मुझे
स्वीकार
है। नर्क तो नर्क
और स्वर्ग तो स्वर्ग।
ऐसी परम स्वीकृति
का नाम संन्यास
है।
ये
संन्यास के महत
सूत्र हैं। इन्हें
तुम समझना, सोच—विचार
कर नहीं, ध्यान
कर—कर के, ताकि
इनसे मति का जन्म
हो जाए।
यदा
नाहं तदा मोक्षो
यदाहं बंधन तदा।
मत्वेति
हेलया किंचित्
मा गृहाण विमुज्च
मा।।
और
इस जीवन के लिए, इस
जीवन की परम क्रांति
के लिए तुम्हीं
प्रयोग—स्थल हो,
तुम ही परीक्षा
हो। तुम्हीं को
अपनी परीक्षा लेनी
है। तुम्हीं को
जनक बनना है और
तुम्हीं को अष्टावक्र
भी। यह संवाद तुम्हारे
भीतर ही घटित होना
है।
मैंने
सुना है कि मुल्ला
नसरुद्दीन अपनी
लान में आरामकुर्सी
पर अधलेटा अखबार
पढ़ रहा था। और एक
अल्सेशियन कुत्ता
उसके पांव के पास
बैठा पूंछ हिला
रहा था। एक पड़ोसी
मित्र मिलने आए
थे,
कुत्ते के डर
से दरवाजे पर ही
खड़े हो गए। मुल्ला
का ध्यान आकृष्ट
करने के लिए उन्होंने
जोर से चिल्ला
कर कहा कि भाई,
यह कुत्ता काटता—
आटता तो नहीं?
मुल्ला
ने कहा, अरे आ जाइए,
बिलकुल आ जाइए,
कोई फिक्र मत
कीजिए! फिर भी मित्र
डरे थे, क्योंकि
कुत्ता कुछ खड़ा
हो गया था और गुर्रा
कर देख रहा था।
तो मित्र ने कहा
कि ठीक, आप ठीक
कहते हैं कि काटता
इत्यादि तो नहीं?
क्योंकि मुझे
पहले कुत्तों के
बड़े बुरे अनुभव
हो चुके।
मुल्ला
ने कहा, भाई, यही तो देखना
चाहता हूं कि काटता
है कि नहीं, अभी ही खरीद कर
लाया हूं।
जीवन
में परीक्षाएं
दूसरों की मत लेना।
और दूसरों की परीक्षाओं
से जो तुम्हें
मिल भी जाएगा, वह
कभी तुम्हारा नहीं
होगा। दूसरे के
अनुभव कभी तुम्हारे
अनुभव नहीं हो
सकते। जीवन की
आत्यंतिक रहस्यमयता
तो उसी के सामने
प्रगट होती है,
जो अपने को ही
अपना परीक्षा—स्थल
बना लेता, जो
अपने को ही अपनी
प्रयोग— भूमि बना
लेता।
इसलिए
कहता हूं. सोच—विचार
से नहीं, प्रयोग
से, ध्यान से
मति उपलब्ध होगी।
और तुमने सदा सुन
रखा है. स्वर्ग
कहीं ऊपर, नर्क
कहीं नीचे। उस
भ्रांत धारणा को
छोड़ दो। स्वर्ग
तुम्हारे भीतर,
नर्क तुम्हारे
भीतर। स्वर्ग तुम्हारे
होने का एक ढंग
और नर्क तुम्हारे
होने का एक ढंग।
मैं से भरे हुए
तो नर्क, मैं
से मुक्त तो स्वर्ग।
संसार
बंधन, और मोक्ष
कहीं दूर सिद्ध—शिलाएं
हैं जहां मुक्त
पुरुष बैठे हैं—ऐसी
भ्रांतियां छोड़
दो। अगर मन में
चाह है, चाहत
है, तो संसार।
अगर मन में कोई
चाहत नहीं, छोड़ने तक की चाह
नहीं, त्याग
तक की चाह नहीं,
कोई चाह नहीं—ऐसी
अचाह की अवस्था
मोक्ष।
बाहर
मत खोजना स्वर्ग—नरक, संसार—मोक्ष
को। ये तुम्हारे
होने के ढंग हैं।
स्वस्थ होना मोक्ष
है, अस्वस्थ
होना संसार है।
इसलिए? बाहर
छोड़ने को भी कुछ
नहीं है, भागने
को भी कुछ नहीं
है। हिमालय पर
भी बैठो तो तुम
तुम ही रहोगे और
बाजार में भी बैठो
तो तुम तुम ही रहोगे।
इसलिए मैंने तुमसे
नहीं कहा है, मेरे संन्यासियों
को मैंने नहीं
कहा है, तुम
कुछ भी छोड़ कर कहीं
जाओ। मैंने उनको
सिर्फ इतना ही
कहा, तुम जाग
कर देखते रहो,
जो घटता है घटने
दो। गृहस्थी है
तो गृहस्थी सही।
और
किसी दिन अगर तुम
अचानक अपने को
हिमालय पर बैठा
हुआ पाओ तो वह भी
ठीक,
जाते हुए पाओ
तो वह भी ठीक है।
जो
घटे, उसे घटने देना;
इच्छापूर्वक
अन्यथा मत चाहना।
अन्यथा की चाह
से मैं संगठित
होता है। तुम अपनी
कोई चाह न रखो,
सर्व की चाह
के साथ बहे चले
जाओ। यह गंगा जहां
जाती है, वहीं
चल पड़ो। तुम पतवारें
मत उठाना। तुम
तो पाल खोल दो,
चलने दो हवाओं
को, ले चलने
दो इस नदी की धार
को।
इस
समर्पण को मैंने
संन्यास कहा है।
इस समर्पण में
तुम बचते ही नहीं, सिर्फ
परमात्मा बचता
है। किसी न किसी
दिन वह घड़ी आएगी,
वह मति आएगी
कि हटेंगे बादल,
खुला आकाश प्रगट
होगा। तब तुम हंसोगे,
तब तुम जानोगे
कि अष्टावक्र क्या
कह रहे है—न कुछ
छोड़ने को, न
कुछ पकड़ने को।
जो भी दिखाई पड़
रहा है, स्वप्नवत
है; जो देख रहा
है, वही सत्य
है।
हरि ओंम तत्सत्!
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