दिनांक
29 दिस्मबर, 1973; संध्या।
बुडलैण्डस,
बंबई।
प्रश्न
सार:
1—अगर
पतंजलि का योग
तर्कबद्ध विज्ञान
है तो क्या
इसका अर्थ यह
न हुआ कि असीम
सत्य की प्राप्ति
सीमित मन द्वारा
की जा सकती है?
2—स्वयं
पर संदेह
दिव्यता का
द्वार बन जाता
है—कैसे?
3—बुद्ध
द्वारा
महाकाश्यप को
दिया गया
ज्ञान किस
कोटि में आता
है—प्रत्यक्ष, अनुमान
या आगम?
4—क्या
पतंजलि के
सूत्रों में
भी मिलावट की
गयी है?
5—वह कौन—सी
शक्ति है जो
दुखों के
बावजूद भी
मनुष्य के मन
को संसार में
ग्रसित रखती है?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि पतंजलि
का योग
सुनिश्चित विज्ञान
है नितांत
तर्कसंगत
जिसमें
परिणाम इस तरह
निश्चित होता
है जिस तरह दो
और दो मिल कर
चार बनते है।
यदि अज्ञात की
असीम की
प्राप्ति
मात्र तर्क के
अनुसार नियंत्रित
की जा सकती है
तो क्या सच
नहीं है और
साथ ही बेतुका
भी कि असीम
सत्य सीमित मन
के दायरे के भीतर
ही है?
यह
बेतुका लगता
है,
यह असंगत
लगता है, लेकिन
अस्तित्व
बेतुका है और
अस्तित्व
असंगत है। आकाश
असीम है, लेकिन
यह एक बहुत
छोटे तालाब
में
प्रतिबिंबित
हो सकता है।
बेशक, उसका
सारा भाग
प्रतिबिंबित
नहीं होगा, वह
प्रतिबिंबित
हो नहीं सकता।
लेकिन अंश भी
पूर्ण होता है
और वह अंश
आकाश का भी
हिस्सा होता
है।
मानव
का मन एक
दर्पण मात्र
है। यदि यह
शुद्ध है तब
असीम इसमें
प्रतिबिंबित
हो सकता है।
वह प्रतिबिंब
असीम न होगा।
वह केवल एक
हिस्सा होगा, एक
झलक। लेकिन वह
झलक द्वार बन
जाती है। फिर
धीरे—धीरे, तुम दर्पण
को पीछे छोड़
सकते हो और
असीम में प्रवेश
कर सकते हो।
तुम
प्रतिबिंब को
पीछे छोड़ देते
हो और यथार्थ
में प्रवेश
करते हो।
तुम्हारी
खिड़की के बाहर, खिड़की
के उस छोटे—से
चौखट के पार
वहां असीम
आकाश है। यदि
तुम खिड़की में
से देखो, बेशक
तुम्हें सारा
आकाश नहीं
दिखेगा। फिर
भी जो कुछ भी
तुम देखते हो
वह आकाश ही
होता है। तो
केवल यही बात
ध्यान में
रखनी है कि जो
कुछ तुमने
देखा, मत
सोचना कि वह
असीम है। वह
असीम का
हिस्सा हो
सकता है, लेकिन
वह असीम नहीं
है। इसलिए जो
कुछ मनुष्य का
मन समझ सकता
है वह शायद
दिव्य होता हो,
लेकिन वह
केवल एक
हिस्सा ही है,
एक झलक। यदि
तुम इसे सतत
याद रखे रहो, तब कहीं कोई
भ्रामकता
नहीं। फिर
धीरे— धीरे
मनोदशा के
ढांचे को मिटा
दो, धीरे—धीरे
मन को बिलकुल
मिटा दो ताकि
दर्पण ही बाकी
न बचे। और तुम
प्रतिबिंब से
मुक्त हो
जाओगे और तुम
वास्तविकता
में प्रवेश कर
सकते हो।
बाहरी
तौर पर यह
बेतुका लगता
है। कैसे इतने
छोटे—से मन से
कोई संपर्क बन
सकता है
शाश्वत के साथ, असीम
के साथ, अनंत
के साथ? एक
दूसरी बात भी
समझ लेनी है।
यह मन वस्तुत:
छोटा नहीं है,
क्योंकि यह
भी असीम का एक
हिस्सा है। यह
छोटा लगता है
तुम्हारे
कारण, यह
सीमित लगता है
तो तुम्हारे
कारण। तुमने
सीमाएं बना ली
हैं। ये
सीमाएं
मिथ्या है।
तुम्हारा
छोटा मन भी
असीम से संबंध
रखता है। यह
उसका हिस्सा
है।
बहुत—सी
बातें समझ
लेनी हैं।
असीमित के
संबंध में जो
बहुत—सी
विरोधाभासी
बातें हैं
उनमें से एक
है—कि अंश
हमेशा
संपूर्ण के
बराबर होता है
क्योंकि तुम
असीम को
विभक्त नहीं
कर सकते। सारे
विभाजन
मिथ्या हैं
हालांकि
वर्गीकरण करना
उपयोगी हो
सकता है। मै
कह सकता हूं
कि मेरे घर के
ऊपर का आकाश, मेरी
छत के ऊपर का आकाश
मेरा आकाश है;
जैसे कि
भारत के लोग
कहते हैं, भारतीय
महाद्वीप के
ऊपर का आकाश
भारतीय आकाश है।
क्या अर्थ
करते हो तुम
इसका? तुम
आकाश को
विभाजित नहीं
कर सकते। वह
चीनी या
भारतीय नहीं
हो सकता। वह
एक अविभक्त
विस्तार है।
वह कहीं आरंभ
नहीं होता, वह कहीं
खत्म नहीं
होता।
यही
बात मन के साथ
घटित हुई है।
तुम इसे कहते
हो,
तुम्हारा
मन, लेकिन
यह 'तुम्हारा'
श्रातिजनक
है। मन असीम
का अंश है।
जैसे कि पदार्थ
असीम का
हिस्सा है, मन असीम का
हिस्सा है।
तुम्हारी आका
भी असीम का ही
अंश है।
जब
यह 'मेरा' खो
जाता है, तुम
ही असीम हो
जाते हो।
इसलिए यदि तुम
सीमित दिखते
हो, तो यह
केवल एक
भ्रांति है।
सीमितता
वास्तविकता
नहीं है, सीमितता
सिर्फ एक
धारणा है, एक
श्रम। और
तुम्हारी
धारणा के कारण
तुम सीमा में
बंद रहते हो।
जो कुछ तुम
विचारते हो, हो जाते हो।
बुद्ध ने कहा
है— और वे
लगातार यही दोहराते
रहे चालीस
वर्ष तक—कि जो
कुछ तुम सोचो,
वह तुम हो
जाते हो।
सोचना—विचारना
ल्हें बनाता
है। जो कुछ भी
तुम हो—यदि
तुम सीमित हो,
यह एक
दृष्टिकोण है
जिसे तुमने
अपना लिया है।
दृष्टिकोण को
गिरा दो और
तुम असीम हो
जाते हो।
योग
की सारी
प्रक्रिया एक
ही है—मन को
कैसे गिराये।
मनोदशा के
ढांचे को कैसे
गिराये; दर्पण
को कैसे नष्ट
करें; प्रतिबिंब
से यथार्थ की
ओर कैसे बड़े; सीमाओं के
पार कैसे
जायें?
सीमाएं
स्व—रचित होती
हैं,
वे वस्तुत:
वहां होती
नहीं। वे
मात्र विचार
हैं। इसलिए जब
कभी मन में
कोई विचार
नहीं होता है,
तुम होते ही
नहीं।
विचारशून्य
मन
अहंकारशून्य
होता है। एक
विचारशून्य
मन सीमारहित
होता है। एक
विचारशून्य
मन असीम है
ही। यदि एक
क्षण के लिए
भी कोई विचार
न रहे, तुम
असीमित हो
जाते हो
क्योंकि
विचार के बिना
सीमाएं रह
नहीं सकतीं।
विचार के बिना
तुम मिट जाते
हो और भगवत्ता
उतरती है। विचार
में बने रहना
मानवीय
हैं—विचार के
नीचे रहना पशु
होना है; विचार
के पार चले
जाना दिव्य हो
जाना है। लेकिन
तर्कपूर्ण मन
तो प्रश्न
उठायेगा।
तर्क भरा मन
कहेगा, 'कोई
अंश संपूर्ण
के बराबर कैसे
हो सकता है? अंश तो
संपूर्ण से कम
होगा। वह
बराबर नहीं हो
सकता।
ऑस्पेंस्की
लिखता है, विश्व
की सबसे अच्छी
पुस्तकों में
से एक— 'तर्सियम
आगेंनम' में,
कि कोई अंश
केवल बराबर ही
नहीं हो सकता
संपूर्ण के, वह तो
संपूर्ण से भी
अधिक विराट हो
सकता है। लेकिन
ऑस्पेंस्की
इसे उच्चतर
गणित कहता है।
उस गणित का
संबंध उपनिषद
से है।
ईशावास्य उपनिषद
में कहा गया
है, 'तुम
पूर्ण में से
पूर्ण निकाल
सकते हो और तब
भी पूर्ण पीछे
बना रहता है।
तुम पूर्ण में
पूर्ण डाल
सकते हो और तब
भी पूर्ण बना
रहता है।’
यह
असंगत है। यदि
तुम इसे
बेतुका कहना
चाहो, तो तुम
कह सकते हो
इसे बेतुका, लेकिन
वस्तुत: यह है उच्चतर
गणित, जहां
सीमाएं खो
जाती हैं और
बूंद समुद्र
बन जाती है।
और समुद्र कुछ
नहीं है सिवा
एक बूंद के।
तर्क प्रश्न
उठाता है। वह
उन्हें उठाये
ही जाता है।
यही
तर्कयुक्त मन
का स्वभाव है।
और यदि तुम उन
प्रश्नों के
पीछे चलते
जाते हो, तो
तुम अनंत तक
बढ़ते जा सकते
हो। मन को एक
ओर रख दो—उसका
तर्क, उसके
विवेचन— और
कुछ क्षणों कै
लिए बगैर
विचार के रहने
का प्रयत्न
करो। यदि तुम
निर्विचार की
वह अवस्था एक
क्षण को भी पा
सको, तो
तुम जान जाओगे
कि अंश
संपूर्ण के
बराबर है, क्योंकि
अचानक तुम
देखोगे कि
सारी सीमाएं
विलीन हो गयी
हैं। वे केवल
स्वप्न—सीमाएं
थीं। सारे भेद
समाप्त हो गये
हैं, और
तुम और वह
पूर्ण एक हो
चुके होओगे।
यह
एक अनुभव हो
सकता है। यह
तर्कपूर्ण
अनुमान नहीं
हो सकता।
लेकिन जब कहता
हूं पतंजलि
अपने
निष्कर्षों में
तर्कयुक्त
हैं,
मेरा मतलब
क्या होता है?
कोई
तर्कयुक्त
नहीं हो सकता
जहां तक कि आंतरिक,
आध्यात्यिक
परम अनुभव का
संबंध होता है।
लेकिन मार्ग
पर तुम वैसे
हो सकते हो।
जहां तक कि
योग के परम
परिणाम का
संबंध है, पतंजलि
भी तर्कयुक्त
नहीं हो सकते,
कोई भी नहीं
हो सकता।
लेकिन उस
लक्ष्य तक
पहुंचने के
लिए तुम्हें तर्कपूर्ण
मार्ग अपनाना
होता है।
इस
दृष्टि से
पतंजलि
तर्कसंगत, बुद्धिपरक,
गणितीय और
वैज्ञानिक
हैं। वे किसी
विश्वास की
मांग नहीं
करते। वे केवल
परीक्षण करने
वाले साहस, आगे बढ़ने के
साहस, अज्ञात
में छलांग
लगाने के साहस
के लिए कहते हैं।
वे नहीं कहते,
'विश्वास
करो, और
फिर तुम अनुभव
करोगे।’ वे
कहते हैं, ' अनुभव
लो, और फिर
तुम विश्वास
करोगे।’
और
उन्होंने एक
ढांचे का
निर्माण किया
है कि एक—एक
कदम कैसे आगे
बढ़ा जाये।
उनका मार्ग
अव्यवस्थित
नहीं है, वह
किसी
भूलभुलैया की
तरह नहीं है।
वह राजपथ की
तरह है। हर
चीज स्पष्ट
है। और वे
सबसे छोटा
संभव रास्ता
देते हैं।
लेकिन
तुम्हें पूरे
व्योरेवार
ढंग से इस पर चलना
पड़ता है, वरना
तुम मार्ग के
बाहर हो कहीं
बीहड़ वन में चलने
लगते हो।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि वे
तर्कसंगत हैं।
और तुम जानोगे
कि वे किस तरह
तर्कसंगत हैं।
वे शरीर से
आरंभ करते हैं
क्योंकि तुम
शरीर में बद्धमूल
हो। वे
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
से प्रारंभ
करते हैं और
उस पर कार्य
करते हैं, क्योंकि
श्वास
तुम्हारा
जीवन है। पहले
वे शरीर पर
कार्य करते
हैं, और
फिर वे प्राण
पर— अस्तित्व
की दूसरी परत,
तुम्हारे
श्वसन पर
कार्य करते
हैं। फिर वे
विचारों पर
कार्य करना
आरंभ करते हैं।
बहुत—सी
विधियां हैं
जो सीधे विचार
से ही आरंभ
होती हैं। वे
बहुत
तर्कयुक्त और
वैज्ञानिक
नहीं हैं क्योंकि
आदमी, जिस पर
कि तुम्हें
कार्य करना है,
शरीर में ही
बद्धमूल होता
है। वह 'सोमा'
है, एक
शरीर। एक
वैज्ञानिक
पहुंच को शरीर
से आरंभ करना
चाहिए। पहले तुम्हारे
शरीर को बदलना
होगा। जब
तुम्हारा
शरीर बदलता है,
तब
तुम्हारा
श्वसन बदला जा
सकता है। जब
तुम्हारा
श्वसन बदलता
है, तब
तुम्हारे
विचार बदल
सकते हैं। और
जब तुम्हारे
विचार बदलते
है, तब तुम
बदल सकते हो।
तुमने
शायद खयाल न
किया हो कि
तुम बहुत—सी
परतो की साथ—साथ
जुडी एक
क्रमबद्धता
हो। यदि तुम
दौड़ रहे होते
हो,
तब
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बदल जाती है
क्योंकि
ज्यादा
ऑक्सीजन की जरूरत
पड़ती है। जब
तुम दौड़ रहे
होते हो, तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बदल जाती है।
और जब
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बदलती है, तुम्हारे
विचार तत्काल
ही बदल जाते
है।
तिब्बत
में कहते है
कि यदि तुम
क्रोधित होते
हो,
तो बस दौड़
लगाओ। अपने घर
के चारों ओर
दो—तीन चक्कर
लगा लो, और
फिर वापस आ
जाओ और देखो
तुम्हारा
क्रोध कहां
चला गया है।
क्योंकि यदि
तुम तेज दौड़ते
हो, तुम्हारा
श्वसन बदलता
है। यदि
तुम्हारा
श्वसन बदलता
है, तुम्हारा
सोचने का
ढांचा वैसा ही
नहीं बना रह
सकता। वह
बदलता ही है।
लेकिन
दौड़ने की कोई
आवश्यकता
नहीं। तुम
केवल पांच
गहरी सांसें
ले सकते हो।
सांस बाहर
छोड़ो और सांस
भीतर लो, और
देखो
तुम्हारा
क्रोध कहां
चला गया। सीधे
तौर पर क्रोध
को परिवर्तित
करना कठिन होता
है। यह ज्यादा
आसान है—शरीर
को परिवर्तित
करना, फिर
श्वसन को और
फिर क्रोध को।
यह एक
वैज्ञानिक
प्रक्रिया है।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
पतंजलि
वैज्ञानिक है।
कोई
दूसरा इतना
वैज्ञानिक
नहीं रहा है।
यदि तुम बुद्ध
के पास जाओ, तो
वे क्रोध को
गिरा देने के
लिए कहेंगे।
पतंजलि ऐसा
कभी नहीं
कहेंगे। वे
कहेंगे कि यदि
तुम क्रोधित
हो, तो
इसका अर्थ है,
जो
तुम्हारा
श्वसन—क्रिया
का ढांचा है
वह क्रोध करने
में मदद करता
है। और जब तक
श्वसन—क्रिया
का यह ढांचा
नहीं बदलता है,
तुम क्रोध
को नहीं मिटा
सकते। तुम
इसके साथ
संघर्ष कर
सकते हो, लेकिन
उससे मदद नहीं
मिलने वाली।
या ऐसा करना
बहुत अधिक समय
ले सकता है।
यह अनावश्यक
है। इसलिए वे
तुम्हारे
श्वसन का
ढांचा, सांस
की लय ध्यान
से देखेंगे।
और यदि
तुम्हारी कोई
निश्चित
श्वसन—लय है, उसका मतलब
हुआ, तुमने
इसके लिए एक
निश्चित
शारीरिक—भंगिमा
अपनायी हुई है।
सबसे
स्कूल शरीर है
और सबसे
सूक्ष्म होता
है मन। लेकिन
सूक्ष्म से
आरंभ मत करो
क्योंकि यह
ज्यादा कठिन
होगा। यह
धुंधला है, तुम्हारी
समझ की पकड़
में वह नहीं आ
सकता। शरीर से
आरंभ करो।
इसीलिए
पतंजलि
शारीरिक
मुद्रा से
आरंभ करते है।
क्योंकि
हम जीवन में
बहुत अजाग्रत
होते है : हो
सकता है तुमने
ध्यान न दिया
हो कि जब कभी
तुम्हारे मन
में एक
निश्चित भाव
होता है तो
उसके साथ
तुम्हारी कोई
निश्चित
शारीरिक भंगिमा
भी जुड़ जाती
है। यदि
तुम्हें
क्रोध आया हुआ
होता है, तो
क्या तुम आराम
से बैठ सकते
हो? यह
असंभव है। यदि
तुम क्रोधित
होते हो, तो
तुम्हारे
शरीर की
स्थिति बदल
जायेगी। यदि
तुम एकाग्र
होते हो, तो
तुम्हारे
शरीर की
स्थिति बदल
जायेगी। यदि
तुम उनींदे
होते हो, तो
तुम्हारे
शरीर की
स्थिति बदल
जायेगी।
यदि
तुम पूर्णतया
मौन होते हो, तो
तुम बुद्ध की
भांति बैठोगे,
तुम बुद्ध
की भांति
चलोगे। और यदि
तुम बुद्ध की
भांति चलते हो,
तो तुम
अनुभव करोगे
कि एक निश्चित
मौन तुम्हारे
हृदय के भीतर
उदित हो रहा
है। एक
निश्चित मौन
का सेतु
निर्मित हो
रहा है तुम्हारे
बुद्ध की तरह
चलने से। जरा
बुद्ध की
भांति पेडू के
नीचे बैठ जाओ।
बैठो; जरा
शरीर को बैठने
दो। अचानक तुम
देखोगे कि
तुम्हारा
श्वसन बदल रहा
है। वह ज्यादा
विश्रामपूर्ण
है, वह
ज्यादा
लयबद्ध है। जब
श्वसन
विश्रांत और
लयबद्ध होता
है, तब तुम
अनुभव करोगे
कि मन कम
तनावपूर्ण
होता है। कम
विचार होते है,
कम बादल, ज्यादा जगह,
ज्यादा
आकाश। तुम
अनुभव करोगे,
मौन बाहर—भीतर
बह रहा है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि पतंजलि
वैज्ञानिक
हैं। यदि तुम
अपने शरीर की
भंगिमाएं
बदलना चाहते हो, तो
पतंजलि
कहेंगे, अपनी
भोजन—विषयक
आदतें बदलो, क्योंकि हर
भोजन—संबंधी
आदत एक
शारीरिक
भंगिमा का
निर्माण करती
है। यदि तुम
मांसाहारी हो,
तो तुम
बुद्ध की
भांति नहीं
बैठ सकते। यदि
तुम
मांसाहारी हो,
तो
तुम्हारी
भंगिमाएं एक
तरह की होंगी।
यदि तुम
शाकाहारी हो,
तो
तुम्हारी
भंगिमाएं अलग
होंगी।
क्योंकि शरीर
तुम्हारे
भोजन द्वारा
बनता है। यह
आकस्मिक नहीं
है। जो कुछ भी
तुम शरीर में
डाल रहे हो, शरीर उसे
प्रतिबिंबित
करेगा।
इसलिए
शाकाहारी
होना पतंजलि
के लिए कोई
नैतिकतावादी
पंथ नहीं है।
यह एक
वैज्ञानिक
विधि है। जब
तुम मांस खाते
हो,
तब तुम केवल
भोजन ही नहीं
कर रहे होते
हो, तुम एक
निश्चित
जानवर को आने
दे रहे हो—जिससे
कि मांस
पहुंचा—तुममें
प्रवेश करने
के लिए। एक
खास प्राणी—शरीर
का हिस्सा था
मांस, वह
मांस एक विशेष
वृत्ति के
ढांचे का
हिस्सा था।
केवल कुछ घंटे
पहले वह मांस
जानवर ही था, और वह मांस
जानवर के सभी
प्रभाव
पहुंचाता है,
जानवर की
सभी आदतें। जब
तुम मांस खा
रहे होते हो, तुम्हारी
बहुत—सी
मुद्राएं इसके
द्वारा
प्रभावित हो
जायेंगी।
यदि
तुम
संवेदनशील हो, तो
तुम सजग हो
सकते हो कि जब
कभी तुम
निश्चित चीजें
खाते हो, निश्चित
बातें फौरन
पीछे चली आती
है। जब कभी
तुम शराब पीते
हो, तब तुम
वही नहीं रहते,
तुरंत एक
नया
व्यक्तित्व आ
पहुंचा। शराब
किसी
व्यक्तित्व
का निर्माण
नहीं कर सकती,
लेकिन यह
तुम्हारे
शरीर का ढांचा
बदल देती है।
शारीरिक
रसायन बदल
जाता है। शरीर
का रसायन
बदलने के साथ,
मन को अपना
ढांचा बदलना
पड़ता है। और
जब मन अपना
ढांचा बदलता
है, तब एक
नया
व्यक्तित्व
चला आता है।
मैंने
प्राचीनतम
चीनी कथाओं
में से एक कथा
सुनी है। एक
बार ऐसा हुआ
कि हिस्की की
एक बोतल मेज
से गिर पड़ी।
ऐसा केवल
संयोगवश हुआ, कोई
बिल्ली कूद
पड़ी होगी। वह
बोतल टूट गयी
और हिस्की
सारे फर्श पर
फैल गयी। रात
में तीन चूहे
हिस्की को चाट
गये। तत्काल
एक चूहा बोला,
'अब मैं महल
की ओर जा रहा
हूं राजा के
पास, उसे
अपनी जगह
ठिकाने लगा
देने के लिए।’
दूसरा कहने
लगा, 'मैं
राजाओं के
बारे में
चिंतित नहीं
हूं। मै खुद
सारी पृथ्वी
का सम्राट
होने जा रहा
हूं।’ और
वह तीसरा बोला,
'जो कुछ
तुम्हें पसंद
है वही करो। ऐ
मित्रों! मैं
ऊपरी मंजिल पर
जा रहा हूं
बिल्ली से
संभोग करने के
लिए।’
सारा
व्यक्तित्व
बदल गया है।
एक चूहा एक
बिल्ली से
संभोग करने की
सोच रहा है!
लेकिन यह हो
सकता है, यह हर
रोज होता है।
जो कुछ भी तुम
खाते हो, तुम्हें
बदल देता है।
जो कुछ भी तुम
पीते हो, तुम्हें
बदल देता है।
क्योंकि शरीर
तुम्हारा एक
बड़ा हिस्सा है।
तुम्हारा
नब्बे
प्रतिशत
तुम्हारा
शरीर है।
पतंजलि
वैज्ञानिक है
क्योंकि वे हर
चीज का ध्यान
रख लेते हैं—भोजन
का,
शारीरिक
स्थिति का; तुम्हारे
सोने का तरीका,
तुम्हारा
सुबह उठने .का
तरीका, जब
तुम सुबह उठते
हो, जब तुम
सोने के लिए
जाते हो। वे
हर चीज को
ध्यान में
लेते है, जिससे
कि तुम्हारा
शरीर एक अवसर
बन जाये किसी
उच्चतर घटना
के लिए।
फिर
वे तुम्हारी
श्वास—क्रिया
पर ध्यान देते
है। यदि तुम
उदास होते हो, तो
तुम्हारे
श्वसन की लय
अलग होती है।
इस पर जरा
ध्यान देना; आजमाओ इसे।
तुम बहुत
सुंदर प्रयोग
कर सकते हो।
जब भी तुम
उदास होते हो,
तब अपनी
सांस को देखना—कितना
समय तुम सांस
खींचने में
लेते हो और
फिर कितना समय
तुम सांस बाहर
छोड़ने में
लेते हो। जरा
इसे ध्यान में
लो। जरा भीतर
गिनो—एक, दो,
तीन, चार,
पांच... .तुम
पांच तक या लगभग
इतना ही गिनते
हो और सांस
भीतर खींचना
समाप्त हो
जाता है। फिर,
जब तुमने एक
से लेकर दस तक
गिन लिया है, सांस बाहर
छोड़ना समाप्त
हो जाता है।
इसे सूक्ष्म
तौर पर ही
देखना, जिससे
कि तुम अनुपात
को जान सको।
और फिर, जब
भी तुम
प्रसन्नता
अनुभव करो, तुरंत वही
उदासी वाला
अनुपात आजमाओ—पांच,
दस, या
जो भी।
प्रसन्नता
विलीन हो
जायेगी।
विपरीत
भी सच है। जब
कभी तुम प्रसन्नता
अनुभव करो, ध्यान
रख लेना कि
तुम किस तरह
सांस ले रहे
हो। फिर जब
कभी तुम उदास
होगे, उसी
ढांचे को
आजमाओ। तुरंत
उदासी गायब हो
जायेगी।
क्योंकि मन
शून्य में
नहीं जी सकता।
यह
क्रमबद्धता
में जीवित
रहता है, और
श्वास—क्रिया
मन के लिए
गहनतम
क्रमबद्धता
सांस
विचार है। यदि
तुम सांस लेना
बंद करते हो, तत्काल
ही विचार
समाप्त हो
जाते हैं।
इसका एक पल के
लिए परीक्षण
करो, सांस
लेना बंद करो।
सोचने की
प्रक्रिया
फौरन भंग हो
जाती है। वह
प्रक्रिया
टूट जाती है।
विचार अदृश्य
छोर है, दृश्य
श्वसन
प्रक्रिया का।
यही
है मेरा मतलब, जब
मैं कहता हूं
कि पतंजलि वैज्ञानिक
हैं। वे कवि
नहीं हैं। यदि
वे कहते हैं, 'मांस मत खाओ,
' तो वे
इसलिए नहीं कह
रहे हैं
क्योंकि मांस
खाना हिंसा है;
नहीं। वे यह
कह रहे है
इसलिए कि मांस
खाना स्व—विनाशक
है। कवि हैं
जो कहते हैं
कि
अहिंसात्मक
होना सुंदर है।
लेकिन पतंजलि
कहते हैं कि
अहिंसात्मक
होना स्वस्थ होना
है; अहिंसाअक
होना
स्वार्थी
होना है। यानी
तुम किसी
दूसरे के लिए
करुणा नहीं कर
रहे, तुम
स्वयं अपने
लिए करुणा कर
रहे हो।
पतंजलि
केवल तुमसे
संबंध रखते
हैं और तुम्हारे
रूपांतरण से।
और तुम
परिवर्तन के
बारे में सोचने
भर से चीजों
को परिवर्तित
नहीं कर सकते
हो। तुम्हें
परिस्थिति का
निर्माण करना
होता है। वरना, संसार
में सर्वत्र
प्रेम सिखाया
जाता रहा है, लेकिन प्रेम
का अस्तित्व
कहीं नहीं
होता है क्योंकि
परिस्थिति का
ही अस्तित्व
नहीं होता।
तुम कैसे
प्रेमपूर्ण
हो सकते हो यदि
तुम
मांसाहारी
होते हो? यदि
तुम मांस खाते
हो, तो
हिंसा उसमें
होती है। और
इतनी गहरी
हिंसा के साथ
प्रेमपूर्ण
कैसे हो सकते
हो? तुम्हारा
प्रेम मात्र
झूठा होगा। या
वह घृणा का एक स्वप्न
भर होगा।
एक
प्राचीन
भारतीय कहानी
है। एक ईसाई
मिशनरी किसी
जंगल में से
गुजर रहा था।
वह प्रेम में
विश्वास करता
था,
स्वभावत:
इसलिए उसने
बंदूक पास
नहीं रखी हुई
थी। अचानक
उसने एक सिंह
को पास आते
हुए देखा, वह
डर गया। वह
सोचने लगा, अब तो प्रेम
का सिद्धांत
नहीं चलेगा।
अक्लमंदी
होती यदि पास
में बंदूक
रखता।
लेकिन
कुछ तो करना
ही था, वह संकट
में था। उसे
याद था कि
किसी ने कहीं
कहा था कि यदि
तुम दौड़ो, सिंह
तुम्हारे
पीछे चला
आयेगा, और
कुछ पलों के
भीतर तुम पकड़
लिये जाओगे और
मर जाओगे।
लेकिन अगर तुम
सिंह की आंखों
में एक
टक देखते जाते
हो, तब कुछ
संभावना होती
है कि वह शायद
प्रभाव में आ
जाये, सम्मोहित
हो जाये। हो
सकता है वह
अपना मन बदल
ले। और ऐसी
कहानियां है
कि बहुत बार
सिंहों ने अपने
मन बदल लिये; वे दूर हो
पीछे हट गये। —
इसलिए
यह आजमाने
लायक था। और
भाग निकलने का
प्रयत्न करने
में तो कोई फायदा
न था। वह मिशनरी
टकटकी लगा कर
देखने लगा। वह
सिंह समीप आ
गया। वह भी आंखें
गड़ाये हुए देख
रहा था मिशनरी
की आंखों में
ताकते हुए!
पांच मिनट तक
वे आमने—सामने
खड़े रहे, एक
दूसरे की आंखों
पर आंखें
गड़ाये हुए। तब
अचानक मिशनरी
ने एक चमत्कार
देखा। सिंह ने
अचानक अपने
पंजे एक—दूसरे
से जोड़ कर रख
लिये और फिर
बड़े
प्रार्थनापूर्ण
भाव में उन पर
झुक आया—जैसे
कि वह
प्रार्थना कर
रहा हो।
यह
तो बहुत
ज्यादा हुआ!
मिशनरी भी
इतने की तो अपेक्षा
नहीं कर रहा
था कि एक सिंह
को प्रार्थना
करनी शुरू कर
देनी चाहिए।
वह खुश हो गया।
लेकिन फिर
उसने सोचा, ' अब
क्या करना
होगा? मुझे
क्या करना
चाहिए?' लेकिन
इस वक्त तक
सम्मोहित वह
भी हो चुका था—केवल
सिंह ही नहीं;
इसलिए उसने
सोचा सिंह का
अनुसरण करना
बेहतर है।
वह
भी झुक गया और
प्रार्थना
करनी शुरू कर
दी। पांच मिनट
फिर और गुजर
गये। फिर सिंह
ने आंखें
खोलीं और बोला, 'ओ
आदमी, तुम
क्या कर रहे
हो? मैं
प्रार्थना कर
रहा हूं लेकिन
तुम क्या कर
रहे हो?' वह
सिंह एक
धार्मिक सिंह
था, पवित्र,
लेकिन केवल
विचारों से
ही! कर्म से वह
एक सिंह था, और वह एक
सिंह की भांति
ही बरताव करने
जा रहा था। वह
एक आदमी को
मारने जा रहा
था, इसलिए
वह कृत्य के
पहले अहोभाव
कह रहा था।
सारी
मानव—घटना की
यही स्थिति है, सारी
मानवता की।
तुम केवल
विचारों में
पवित्र हो।
कर्म से आदमी
पशु ही बना
रहता है। और
यही कुछ हमेशा
होता रहेगा जब
तक हम विचारों
से चिपके रहना
समाप्त नहीं
करते और इसकी
बजाय
परिस्थितियों
का निर्माण
नहीं करते, जिनमें
विचार बदलते
हैं।
पतंजलि
नहीं कहेंगे
कि प्रेममय
होना अच्छा है।
वे तुम्हारी
सहायता
करेंगे उस
परिस्थिति का निर्माण
करने में, जिसमें
कि प्रेम खिल
सकता है।
इसीलिए मैं
कहता हूं वे वैज्ञानिक
हैं। यदि तुम
एक—एक कदम
उनको समझते
जाते हो, तो
तुम अपने में
बहुत से फूल
खिलते अनुभव
करोगे जो पहले
कल्पनातीत थे,
अकल्पनीय
थे। तुम उनके
स्वप्न भी न
देख सकते थे।
यदि तुम अपना
भोजन बदलते हो,
यदि तुम
अपने शरीर की
स्थितियां
बदलते हो, यदि
तुम अपने सोने
की शैली बदलते
हो, यदि
तुम साधारण
आदतें बदलते
हो, तुम
देखोगे कि एक
नया व्यक्ति
तुममें उदित
हो रहा है। तब
विभिन्न परिवर्तनों
की संभावना
होती है। एक
परिवर्तन के
बाद दूसरे
परिवर्तन
संभव हो जाते
हैं। धीरे—धीरे
अधिक
संभावनाएं
खुलने लगती
हैं। इसलिए
मैं कहता हूं
पतंजलि
तर्कयुक्त
हैं। वे कोई
तार्किक
दार्शनिक
नहीं है; वे
तर्कयुक्त
हैं, वे
हैं
प्रायोगिक
व्यक्ति।
दूसरा
प्रश्न:
कल आपने
एक पश्चिमी
विचारक का लिए
किया थर जिसने
हर चीज पर
संदेह करना शुरू
कर दिया था
जिस पर कि
संदेह किया जा
सकता शु लेकिन
जो स्वयं पर
संदेह नहीं कर
सका था। आपने
कहा कि यह बड़ी
उपलब्धि है—स्वयं
को दिव्यता के
प्रति खोल
देना। कैसे?
उच्चतर
चेतना की ओर
खुलने का मतलब
है,
तुम्हारे
भीतर कुछ होना
चाहिए जो
असंदिग्ध है।
यही है
श्रद्धा का
अर्थ।
तुम्हारे पास
कम से कम एक
विषय है जिस
पर तुम श्रद्धा
रखते हो, जिस
पर तुम अगर
चाहो भी तो
संदेह नहीं कर
सकते। इसीलिए
मैंने कहा कि
देकार्त उस एक
बिंदु तक आ
पहुंचा था
अपनी
तर्कपूर्ण
खोज द्वारा, जहां उसने
जाना कि हम
स्वयं पर
संदेह नहीं कर
सकते। मैं इस
पर संदेह नहीं
कर सकता कि
मैं हूं क्योंकि
यह कहने के
लिए भी कि 'मुझे
संदेह है', मुझे
होना होता है।
यह दावा ही कि 'मैं संदेह
करता हूं, सिद्ध
करता है कि
मैं हूं।
तुमने
सुना होगा
देकार्त का
प्रसिद्ध कथन—
'काजिटो
एर्गो सम'।’मैं सोचता
हूं इसलिए मैं
हूं। संदेह
करना सोचना है;
मैं संदेह
करता हूं
इसलिए मैं हूं।
लेकिन यह केवल
प्रारंभ है।
और देकार्त
कभी भी इस
द्वार के पार
नहीं गया। वह
फिर वापस मुड़
आया। तुम
द्वार से ही
वापस आ सकते
हो। वह खुश था
कि उसने
केंद्र को
ढूंढ लिया था,
एक
असंदिग्ध
केंद्र को। और
वहां से उसने
अपने दर्शन पर
कार्य करना शुरू
किया। वह सब
जिसका वह पहले
खंडन कर चुका
था, उसे
भीतर खींचने
लगा पिछले
दरवाजे से।
उसने तर्क
किये— 'क्योंकि
मै हूं तो कोई
रचनाकार भी
होगा, जिसने
मेरी रचना की
है।’ और
फिर वह स्वर्ग
और नरक तक चला
गया। फिर
भगवान और पाप,
और फिर सारा
ईसाई
धर्मशास्त्र
पिछले द्वार से
आ पहुंचा।
उसने
इस विधि का
प्रयोग किया—तात्विक
अन्वेषण के
लिए। वह योगी
नहीं था, वह
वास्तव में
अपने
अस्तित्व की
खोज में नहीं था,
वह
सिद्धांत की
खोज में था।
लेकिन तुम इस
विधि का उपयोग
एक प्रारंभिक
द्वार की तरह
कर सकते हो।
प्रारंभिक
द्वार का मतलब
हुआ : तुम्हें
इसका अतिक्रमण
करना होता है,
तुम्हें
इसके पार जाना
होता है, तुम्हें
इससे गुजर
जाना होता है।
तुम्हें इससे
चिपके नहीं
रहना होता।
यदि तुम
चिपकते हो, तब कोई भी द्वार
बंद हो जायेगा।
यह
जान लेना
अच्छा है कि
कम से कम मैं
स्वयं पर संदेह
नहीं कर सकता।
फिर अगला सही
कदम यह होगा— 'यदि
मैं स्वयं पर
संदेह नहीं कर
सकता, यदि
मैं अनुभव
करता हूं कि
मैं हूं तब
मुझे जानना
होगा कि मैं
हूं कौन।’ तब
यह सही
अन्वेषण बन
जाता है। तब
तुम धर्म में
आगे बढ़ते हो, क्योंकि जब
तुम पूछते हो
कि मैं कौन
हूं? तब
तुम एक दुनियादी
प्रश्न पूछते
हो—दार्शनिक
नहीं लिए
अस्तित्वगत।
कोई दूसरा
व्यक्ति
उत्तर नहीं दे
सकता कि कौन
हो तुम। कोई
दूसरा
तुम्हें बना—बनाया
उत्तर नहीं दे
सकता।
तुम्हें इसके
लिए स्वयं ही
खोज करनी होगी,
तुम्हें
इसके लिए
खोजना होगा
स्वयं के भीतर।
केवल
यह तर्कसंगत
निश्चितता— 'मैं
हूं —ज्यादा
काम की नहीं
है, यदि
तुम आगे नहीं
बढ़ते और पूछते
नहीं कि 'मैं
कौन हूं?' और
प्रश्न नहीं
है यह। यह तो
एक प्यास हो
जाने वाली है।
प्रश्न तो हो
सकता है
तुम्हें दर्शनशास्त्र
तक ले जाये, लेकिन प्यास
तुम्हें धर्म
में ले जाती
है। इसलिए अगर
तुम महसूस
करते हो कि
तुम स्वयं को नहीं
जानते, तो
किसी के पास
जाओ नहीं
पूछने के लिए
कि 'कौन
हूं मैं? ' कोई
तुम्हें
उत्तर नहीं दे
सकता। तुम
वहां भीतर हो
छिपे हुए।
तुम्हें उस
अंतस आयाम तक
उतर जाना होता
है जहां तुम
हो, और
स्वयं का
साक्षात्कार
करना होता है।
यह
एक अलग प्रकार
की यात्रा है, एक
आंतरिक
यात्रा।
हमारी सारी
यात्राएं
बाहरी होती है।
हम पुल बना
रहे है कहीं
और पहुंचने के
लिए। इस प्यास
का मतलब होता
है : दूसरों की
ओर जाते तुम्हारे
सारे पुल
तुम्हें तोड़
देने होते हैं।
वह सब, जो
तुमने बाहरी
तौर पर किया
है गिरा देना
होता है, और
कुछ नया
प्रारंभ करना
पड़ता है भीतर।
लेकिन यह कठिन
होगा क्योंकि
तुम बाहर में
बहुत जकड़ गये
हो। तुम हमेशा
दूसरों की
सोचते हो! तुम
कभी अपने बारे
में नहीं
सोचते।
यह
अजीब बात है
कि कोई अपने
बारे में नहीं
सोचता है। हर
कोई दूसरे के
बारे में
सोचता है। और
अगर कभी तुम
अपने बारे में
सोचते हो, वह
भी दूसरों से
संबंध रखता है।
वह शुद्ध
हरगिज नहीं
होता। वह सीधे
तुम्हारे
बारे में नहीं
होता। फिर जब
तुम केवल अपने
बारे में
सोचते हो, तब
फिर सोचने को
भी गिरा देना
होगा। किसके
बारे में सोच
सकते हो तुम? तुम दूसरों
के बारे सोच
सकते हो।
सोचने का मतलब
हुआ, किसी
के विषय में।
लेकिन तुम
अपने बारे में
क्या सोच सकते
हो? तुम्हें
सोचने को
गिराना पड़ेगा
और तुम्हें भीतर
देखना होगा।
सोचना नहीं, केवल देखना।
देखना, अवलोकन
करना, साक्षी
बने रहना।
सारी
प्रक्रिया
बदल जायेगी।
हर किसी को
खोजना पड़ता है
स्वयं।
संदेह
अच्छा होता है।
यदि तुम संदेह
करते हो, यदि
तुम निरंतर
संदेह करते
रहते हो तो
केवल एक
चट्टान जैसी
घटना होती है
जिस पर संदेह
नहीं किया जा
सकता; वह
है तुम्हारा अस्तित्व।
तब एक नयी
प्यास जागेगी।
तुम्हें
पूछना पड़ेगा,
'मैं कौन
हूं 2: '
अपनी
सारी जिंदगी रमण
महर्षि अपने
शिष्यों को
सिर्फ एक विधि
देते रहे थे।
वे कहते, 'बस, बैठ जाओ।
अपनी आंखें
बंद कर लो, और
पूछते चले जाओ,
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?'
मंत्र की
तरह इसका उपयोग
करो। लेकिन यह
मंत्र नहीं है।
तुम्हें इसका
उपयोग मुर्दा
शब्दों की तरह
नहीं करना
चाहिए। इसे आंतरिक
ध्यान बन जाना
चाहिए।
'मैं कौन हूं?'
पूछते जाओ
यह। तुम्हारा
मन बहुत बार
जवाब देगा कि
तुम एक आत्मा
हो, तुम
दिव्य हो। इन बातों
को मत सुनो।
ये सब उधार है।
तुमने इन बातों
को सुना है।
इन्हें एक तरफ
रख दो जब तक कि
तुम जान न लो
कि तुम कौन हो।
और अगर तुम
निरंतर मन को
अलग एक तरफ
रखकर पूछते ही
चले जाते हो, तो किसी दिन
विस्फोट होगा।
मन विस्फोटित
होता है, और
सारा उधार ज्ञान
विलीन हो जाता
है। पहली बार
तुम स्वयं के
साथ आमने—सामने
होते हो, स्वयं
के भीतर देखते
हुए। यही
द्वार है। और
यही मार्ग और
यही प्यास है।
पूछो
कि तुम: कौन हो।
और सस्ते
उत्तरों से
चिपक मत जाना।
दूसरों के
द्वारा जो
उत्तर
तुम्हें दिये
जाते हैं, वे
सब सस्ते होते
हैं।
वास्तविक
उत्तर तो केवल
तुममें से आ
सकता है। वह
असली फूल की
तरह होता है
जो स्वयं
वृक्ष में से
ही फूट सकता
है। तुम बाहर
से उसे वहां
नहीं रख सकते।
तुम ऐसा कर
सकते हो, लेकिन
तब वह एक
मुर्दा फूल
होगा। हो सकता
है वह दूसरों
को धोखा दे
पाये, लेकिन
वह स्वयं
वृक्ष को तो
धोखा नहीं दे
सकता। वृक्ष
जानता है कि
यह तो केवल एक
मुर्दा फूल
मेरी डाल पर
लटक रहा है।
यह केवल एक
भार है। यह
कोई
प्रसन्नता
नहीं है। यह
केवल एक बोझ
है। वृक्ष
उसका उत्सव
नहीं मना सकता।
वृक्ष उसका
स्वागत नहीं
कर सकता।
वृक्ष
तो केवल ऐसी
चीज का स्वागत
कर सकता है जो
उसकी अपनी
जडों से आता
है,
अपने आंतरिक
अस्तित्व से,
अपने
अंतरतम हृदय
से। और जब वह
उसके अपने
अंतरतम हृदय
से आता है, तो
फूल उसकी
आत्मा बन जाता
है। और फूल के
द्वारा वृक्ष
अपना नृत्य, अपना गान
अभिव्यक्त
करता है। उसका
सारा जीवन
अर्थपूर्ण बन
जाता है। बस, ऐसे ही वह
उत्तर
तुम्हारे
भीतर से आयेगा,
तुम्हारी
जड़ों में से।
तब तुम उसके
संग नाच उठोगे।
तब तुम्हारी
सारी जिंदगी
अर्थपूर्ण बन
जायेगी।
यदि
उत्तर बाहर से
दिया जाता है, वह
प्रतीक मात्र
होगा—स्व
मुर्दा
प्रतीक।
लेकिन अगर वह
भीतर से आता है,
तब वह
प्रतीक नहीं
होगा; तब
वह परम
सार्थकता
होगी। इन
दोनों शब्दों को
खयाल में रखना—प्रतीक
और सार्थकता।
प्रतीक बाहर
से लिया जा
सकता है, लेकिन
सार्थकता
केवल भीतर से
ही खिल सकती
है।
दार्शनिकता
प्रतीकों के
साथ, धारणाओं
के साथ, शब्दों
के साथ कार्य
करती है। धर्म
सार्थकता के
लिए कार्य
करता है। उसका
शब्दों और
लक्षणों और
प्रतीकों के
साथ संबंध
नहीं होता है।
लेकिन
यह तुम्हारे
लिए एक कठिन
यात्रा होने वाली
है। क्योंकि
वस्तुत: कोई
मदद नहीं कर
सकता। और सारे
मददगार एक तरह
से बाधाएं है।
अगर कोई कृपा
भी कर रहा हो
और तुम्हें
उत्तर देता हो, तो
वह तुम्हारा
दुश्मन है।
कोई कुछ कर
सकता है तो
इतना ही कि
मार्ग दिखा दे।
वह मार्ग, जहां
से तुम्हारा
अपना उत्तर
उदित होगा, जहां से तुम
उत्तर का
साक्षात्कार
करोगे।
महान
गुरुओं ने
केवल विधियां
दी हैं; उन्होंने
उत्तर नहीं
दिये हैं।
दार्शनिकों
ने उत्तर दिये
हैं, लेकिन
पतंजलि, जीसस
या बुद्ध, उन्होंने
उत्तर नहीं
दिये है। तुम
उत्तरों की
मांग करते हो
और वे तुम्हें
विधियां दे
देते हैं, उपाय
देते है।
तुम्हें अपने
उत्तर को
स्वयं ही
प्राप्त करना
होता है, अपने
प्रयास
द्वारा, अपनी
अंतर्दृष्टि
द्वारा, अपनी
तपशचर्या
द्वारा। केवल
तभी उत्तर आ
सकता है। और
तब यह
सार्थकता बन
सकता है।
तुम्हारी
परिपूर्णता
इसी के द्वारा
आती है।
तीसरा
प्रश्न:
अंतत:
बुद्ध ने महाकाश्यप
को वह दिया जिसे
वे शब्दों
द्वारा किसी
दूसरे को न दे सके।
यह बोध कौन—सी
कोटि में आता
था—प्रत्यक्ष,
आनुमानिक या बुद्ध
पुरुषों के वचन?
वह संदेश क्या
था?
पहले
तुम पूछते हो, वह
संदेश क्या
था! यदि बुद्ध
उसे शब्दों
द्वारा नहीं
बतला सकते थे,
तो मैं भी
उसे शब्दों
द्वारा नहीं
बतला सकता। यह
संभव नहीं है।
मैं
तुम्हें एक
किस्सा बताता
हूं। एक शिष्य
मुल्ला
नसरुद्दीन के
पास पहुंचा।
वह मुल्ला से
बोला, 'मैंने
सुना है कि
आपके पास छिपा
हुआ रहस्य है,
परम रहस्य।
वह चाबी जिसके
द्वारा सारे
रहस्य—द्वार
खुल जाते है।’
नसरुद्दीन
बोला, 'हां,
मेरे पास वह
है। उसमें
क्या! तुम
उसके बारे में
क्यों पूछ रहे
हो?' वह
आदमी मुल्ला
के पैरों पर
गिर पड़ा और
बोला, 'मैं
आपकी ही तलाश
में रहा हूं
गुरुदेव! अगर
आपके पास चाबी
और रहस्य है, तो मुझे बता
दें।’
नसरुद्दीन
बोला, ' अगर यह
ऐसा है रहस्य
है, तो
तुम्हें समझ
लेना चाहिए कि
इसे इतनी
आसानी से नहीं
बताया जा सकता।
तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी होगी।’ उस शिष्य ने
पूछा, 'कितनी
देर! ' नसरुद्दीन
बोला, 'वह
भी निश्चित
नहीं है। यह
तुम्हारे
धैर्य कर
निर्भर करता
है—तीन साल या
तीस साल।’ शिष्य
ने प्रतीक्षा
की, तीन
साल बाद उसने
फिर पूछा।
नसरुद्दीन
बोला, ' अगर
तुम फिर पूछते
ही हो, तो
इसमें तीस साल
लगेंगे। बस, प्रतीक्षा
करो। यह कोई
साधारण बात
नहीं है। यह
परम रहस्य है।’
तीस
साल गुजर गये
और वह शिष्य
कहने लगा, 'गुरुदेव
अब तो मेरी
सारी जिंदगी
बेकार हो गयी है।
मेरे पास कुछ
नहीं है। अब, मुझे वह
रहस्य दें।’ नसरुद्दीन
बोला, 'एक
शर्त है.
तुम्हें
मुझसे वायदा
करना होगा कि
तुम्हें भी
इसे रहस्य की
तरह रखना होगा,
तुम इसे
किसी से कहोगे
नहीं।’ वह
आदमी बोला, 'मैं आपको
वचन देता हूं
कि मेरे मरने
तक यह रहस्य
ही बना रहेगा।
मैं इसकी
चर्चा किसी से
न करूंगा।
नसरुद्दीन
बोला, धन्यवाद।
यही तो मेरे
गुरु ने मुझसे
कहा था। ऐसा
ही वचन मैंने
दिया था गुरु
को। और अगर
तुम मरते दम
तक इस रहस्य
को गोपनीय रख
सकते हो तो क्या
समझते हो, मैं
इसे रहस्य
नहीं रख सकता
क्या?
यदि
बुद्ध मौन रहे
थे,
तो मैं भी
इसके बारे में
मौन रह सकता
हूं। यह कुछ
ऐसा है कि
जिसे कहा नहीं
जा सकता। यह
संदेश नहीं है
क्योंकि
संदेश हमेशा
बताये जा सकते
हैं। यदि
उन्हें नहीं
बताया जा सकता,
तो वे संदेश
नहीं होते। संदेश
कुछ वह है
जिसे कहा जाता
है; वह कुछ
जिसे कहा जाना
है; जो कहा
जा सकता है।
संदेश हमेशा
शाब्दिक होता है।
लेकिन
बुद्ध के पास
कोई संदेश न
था,
इसलिए वे
उसे कह न सकते
थे। उनके दस
हजार शिष्य थे,
लेकिन केवल
महाकाश्यप को
वह मिला
क्योंकि वह बुद्ध
के मौन को समझ
सकता था। यही
रहस्यों का
रहस्य था ' वह
मौन को समझ
सकता था।
एक
सुबह बुद्ध
वृक्ष के नीचे
बैठे मौन ही
बने रहे।
उन्हें
प्रवचन देना
था और सब
भिक्षुप्रतीक्षा
कर रहे थे।
लेकिन वे मौन
बने रहे। शिष्य
बेचैन होने
लगे। पहले ऐसा
कभी न हुआ था।
साधारणतया वे
आते और वे
बोलते और चले
जाते। लेकिन
कोई आधा घंटा
बीत गया था। सूर्योदय
हो गया था और
प्रत्येक
व्यक्ति को गर्मी
लग रही थी।
ऊपरी तौर पर
वहां मौन था, लेकिन
भीतर हर कोई
बेचैन था। वे
बातें कर रहे थे,
भीतर पूछ
रहे थे, क्यों
बुद्ध चुप है
आज?
वे
वहा बैठे हुए
थे वृक्ष के
नीचे हाथ में फूल
लिये हुए और
फूल को ही
देखे चले जा
रहे थे; जैसे
कि वे सजग न
हों उन दस
हजार शिष्यों
के प्रति, जो
उन्हें सुनने
के लिए इकट्ठे
हुए थे। वे
बहुत—बहुत दूर
से आये थे।
देश भर के
गांवों से वे
आये थे और
इकट्ठे हुए
थे।
अंततः
किसी ने पूछा, किसी
ने साहस
एकत्रित किया और
पूछा, आप
बोल क्यों
नहीं रहे हैं?
हम
प्रतीक्षा कर
रहे है।’ कहा
जाता है कि
बुद्ध ने कहा,
'मैं बोल
रहा हूं। इस
आधे घंटे में
बोलता रहा हूं
मै।’
यह
अत्यंत
विरोधाभासी
था। यह स्पष्टतया
असंगत था। वे
मौन ही रहे थे, वे
कुछ नहीं बोले
थे। लेकिन
बुद्ध से कहना
कि आप बेतुकी
बातें कर रहे
है, संभव न
था, अत:
शिष्य फिर चुप
रह गये।
ज्यादा तकलीफ
में थे अब।
अचानक
एक शिष्य, महाकाश्यप
हंस पड़ा।
बुद्ध ने उसे
समीप बुलाया,
उसे वह फूल
दे दिया और
बोले, 'जो
कुछ भी कहा जा
सकता है, मैने
दूसरों से कह
दिया है; और
जो कुछ नहीं
कहा जा सकता
है वह मैंने
तुम्हें दे
दिया है।’ उन्होंने
केवल फूल ही
दिया था, लेकिन
यह फूल तो
प्रतीक मात्र
था। फूल के
साथ उन्होंने
कुछ अर्थ—भरा
भी दे दिया
था। वह फूल एक
प्रतीक मात्र
था, लेकिन
कुछ और दे
दिया गया था, जिसे शब्दों
द्वारा नहीं
कहा जा सकता
था।
तुम
भी कुछ ऐसी अनुभूतियों
को जानते हो
जो बतलायी
नहीं जा सकतीं।
जब तुम अत्यंत
गहरे प्रेम
में पड़ते हो, तो
क्या करते हो?
तुम इसे
अर्थहीन
पाओगे केवल
यही कहते चले
जाने को कि, 'मैं तुम्हें
प्यार करता
हूं मैं
तुम्हें प्यार
करता हूं।’ और अगर तुम
कहते ही चले
जाते हो, तो
दूसरा ऊब जायेगा।
अगर तुम कहे
जाओ, तो
दूसरा सोचेगा,
तुम तो बस
एक तोते हो।
और अगर तुम
इसे जारी रखते
हो, तो
दूसरा सोचेगा
कि तुम्हें
मालूम नहीं, प्रेम क्या
है।
जब
तुम प्रेम का
अनुभव करते हो, तब
यह कहना
निरर्थक हो
जाता है कि
तुम प्रेम करते
हो। तुम्हें
कुछ करना पड़ता
है—कुछ
अर्थपूर्ण।
वह एक चुम्बन
हो सकता है, वह एक
आलिंगन हो
सकता है। यह
हो सकता है कि
कुछ न करना और
केवल दूसरे का
हाथ अपने हाथ
में लिये रहना।
लेकिन यह कुछ
सार्थकता
रखता है। तुम
कुछ व्यक्त कर
रहे हो जो
शब्दों
द्वारा व्यक्त
नहीं किया जा
सकता है।
बुद्ध
ने वह कुछ दे
दिया जो
शब्दों
द्वारा नहीं
दिया जा सकता
है। उन्होंने
फूल दिया। वह
उपहार था। वह
उपहार सामने
दिख रहा था, लेकिन
वह कुछ जो
नहीं दिखायी
पड़ता था, दिया
जा रहा था
उपहार के साथ।
जब
तुम अपने
मित्र का हाथ
अपने हाथ में
लेते हो, यह
प्रत्यक्ष
होता है।
मित्र का हाथ
अपने हाथ में
ले लेना भर
कोई ज्यादा
भाव नहीं बनाता,
लेकिन कुछ
और प्रवाहित
हो रहा है। यह
एक विनिमय है।
कोई ऊर्जा, कोई अनुभूति,
कुछ इतना कि
जिसे शब्द
अभिव्यक्त
नहीं कर सकते,
प्रवाहित
हो रहा होता
है। यह एक
संकेत होता है।
हाथ एक संकेत
मात्र है। वह
सार्थकता जो
हस्तांतरित
हो रही है वह
अदृश्य है। वह
कोई संदेश
नहीं—स्थ
उपहार है, एक
प्रसाद है।
बुद्ध
ने स्वयं अपने
को दे दिया।
उन्होंने कोई
संदेश नहीं
दिया था।
उन्होंने
स्वयं को
प्रवाहित कर
दिया महाकाश्यप
में। दो
कारणों से
महाकाश्यप
इसे पाने के
योग्य हुआ था।
एक तो यह कि वह समग्र
स्वप्न से
मौन रहा जब
बुद्ध मौन थे।
दूसरे भी ऊपरी
तौर पर तो मौन
थे,
लेकिन नहीं
थे वे वास्तव
में। वे
लगातार सोच
रहे थे, 'बुद्ध
मौन क्यों है?
' वे एक—दूसरे
की ओर देख रहे
थे, संकेत
कर रहे थे और
हैरान हो रहे
थे।’बुद्ध
को क्या हुआ
है गु: क्या वे
पागल हो गये
हैं? वे
इतने चुप तो
कभी नहीं हुए
थे।’
वास्तव
में मौन कोई न
था। दस हजार
भिक्षुओं की
उस विशाल सभा
में,
केवल
महाकाश्यप
मौन था। वह
बेचैन न था, वह सोच—विचार
नहीं कर रहा
था। बुद्ध फूल
की ओर देख रहे
थे, और
महाकाश्यप
बुद्ध की ओर
देख रहा था।
और तुम बुद्ध
से बड़ा फूल
नहीं पा सकते।
वे मनुष्य की
चेतना की
उच्चतम
खिलावट, उच्चतम
विकास थे।
बुद्ध फूल की
ओर देखते रहे
और महाकाश्यप
बुद्ध की ओर
देखता रहा।
केवल दो
व्यक्ति नहीं
सोच रहे थे।
बुद्ध सोच
नहीं रहे थे; वे मात्र
देख रहे थे।
महाकाश्यप
सोच नहीं रहा
था; वह भी
देख रहा था।
एक यह बात थी
जिसने उसे
ग्रहण करने योग्य
बना दिया।
दूसरी
बात,
जिस कारण से
महाकाश्यप
इसे पाने
योग्य हुआ, यह थी कि वह
हंस पड़ा था।
यदि मौन उत्सव
नहीं बन सकता,
यदि मौन
हंसी नहीं बन
सकता, यदि
मौन नृत्य
नहीं बन सकता,
यदि मौन आनंन्दोल्लास
नहीं बन सकता,
तो वह रुग्ण
है। तब वह
उदासी बन
जायेगा। तब वह
रुग्णता में
बदल जायेगा।
तब मौन जीवंत
नहीं होगा। वह
मुर्दा होगा।
तुम
मौन हो सकते
हो मुर्दा
बनने मात्र से, लेकिन
तब तुम बुद्ध
की अनुकंपा न
पाओगे। तब
दिव्यता
तुममें नहीं
उतर सकती।
दिव्यता को दो
चीजों की
आवश्यकता है.
मौन—नृत्य
करता हुआ मौन,
एक जीवित
मौन। लेकिन
महाकाश्यप उस
घड़ी में दोनों
ही था। वह मौन
था। और जब
दूसरे सब
गंभीर थे, तो
वह हंस पड़ा।
बुद्ध ने
स्वयं को
महाकाश्यप
में उंडेल
दिया, लेकिन
यह संदेश न था।
इन
दो चीजों को
प्राप्त करो, तब
मैं स्वयं को
तुममें उंडेल
सकता हूं। मौन
होओ, और इस
मौन को एक
उदास चीज मत
बनाओ। इसे
नाचता हुआ और
हंसता हुआ
बनने दो। इस
मौन को
बाल—सुलभ होना
होगा—ऊर्जा से
भरा हुआ, पुलकित,
मस्ती में
डूबा हुआ। इसे
मुर्दा नहीं
होना चाहिए।
तभी, केवल
तभी जो बुद्ध
ने महाकाश्यप
को दिया, तुम्हें
दिया जा सकता
है।
मेरी
सारी चेष्टा
है कि किसी
दिन,
कोई
महाकाश्यप हो
जाये। लेकिन
यह कोई संदेश
नहीं है जो
दिया जाना है।
चौथा
प्रश्न:
आपने कई
बार कहा कि
ज्यादा
शास्त्रों का
कत हिस्सा वही
कुछ है जो
पीछे से जोड़े
हुए अंश
कहलाता है।
क्या पतंजलि
का भी इसी दोष
से ग्रस्त है
और किस तरह आप
इस पर विचार
करेंगे?
नहीं, पतंजलि
के योगसूत्र
नितांत शुद्ध
है। किसी ने
कभी उनमें कोई
चीज बाद में
जोड़ी नहीं है।
और कारण हैं
कि क्यों ऐसा
नहीं किया जा
सका। पहली बात,
पतंजलि का
योगसूत्र कोई
लोक—प्रचलित
ग्रंथ नहीं
है। यह गीता
नहीं है, यह
कोई रामायण
नहीं है, यह
बाइबिल नहीं
है। सामान्य
जन कभी इसमें
दिलचस्पी
लेने वाले
नहीं रहे। जब
सामान्य भीड़
किसी चीज में
दिलचस्पी
लेती है, वह
उसे दूषित कर
देती है। ऐसा
होना ही होता
है। क्योंकि
तब शास्त्रों
को उनके स्तर
तक नीचे खींच
लाना पड़ता है।
पतंजलि के
योगसूत्र
केवल विशेषतों
के लिए बने
रहे है। केवल
कुछ चुने हुए
व्यक्ति ही
उनमें
दिलचस्पी
लेंगे। हर कोई
उनमें दिलचस्पी
नहीं लेने
वाला। अगर
संयोगवश
अनजाने में
पतंजलि का
योगसूत्र तुम
पा लेते हो, तो तुम केवल
थोड़े से पृष्ठ
ही पढ़ोगे और
फिर तुम उसे
दूर फेंक
दोगे। यह
तुम्हारे लिए
नहीं है। यह
एक कथा नहीं
है। यह कोई
नाटक नहीं है।
यह एक प्रतीक—कथा
नहीं है। यह
एक सीधा
वैज्ञानिक शोध—प्रबंध
है—केवल कुछ
लोगों के लिए।
जिस ढंग से
इसे लिखा गया
है वह ऐसा है
कि जो इसके
लिए तैयार
नहीं हैं वे
स्वचालित ढंग
से इसकी ओर
अपनी पीठ फेर
लेंगे।
ऐसी
ही घटना घटित
हुई है इस सदी
में गुरजिएफ
के साथ।
लगातार तीस वर्षों
से गुरजिएफ एक
पुस्तक तैयार
कर रहा था।
गुरजिएफ जैसी
योग्यता वाला
आदमी उस काम
को तीन दिन में
कर सकता है।
तीन दिन भी
शायद जरूरत से
ज्यादा हों।
लाओत्सु ने
ऐसा किया
था—तीन दिन
में सारी 'ताओ
तेह किंग' लिखी
गयी थी।
गुरजिएफ अपनी
पहली पुस्तक
तीन दिन में
लिख सकता था, इसमें कोई
कठिनाई न थी।
लेकिन उसने
तीस साल लगा
दिये अपनी
पहली पुस्तक
लिखने में। और
वह कर क्या
रहा था? वह
एक अध्याय
लिखता और फिर
वह अपने
शिष्यों के
सम्मुख
उन्हें पढ़े
जाने की
अनुमति देता।
शिष्य उस
अध्याय को सुन
रहे होते, और
वह शिष्यों की
ओर देख रहा
होता। अगर वे
समझ सकते तो
वह उसे बदल
देता। यह उसकी
कसौटी थी कि अगर
वह देखता कि
वे उसे समझ
रहे हैं तो वह
अध्याय गलत
होता। लगातार
तीस वर्षों तक,
हर अध्याय
हजारों बार
पढ़कर सुनाया
गया था, और
हर बार वह
ध्यान से
अवलोकन कर रहा
था। जब पुस्तक
इतनी पूरी तरह
से असंभव हो
गयी कि कोई
उसे पढ़ और समझ
नहीं सकता था,
तो वह
संपूर्ण हो
गयी थी।
एक
अत्यंत
बुद्धिमान
व्यक्ति को भी
उसे कम से कम
सात बार तो
पढ़ना ही पड़ेगा, तब
उसके
अभिप्राय की
झलकियां आनी
शुरू होंगी।
लेकिन वे भी
झलकियां
मात्र ही होंगी।
यदि कोई इसमें
ज्यादा उतरना
चाहता हो, तो
उसे उसका
अभ्यास करना
होगा, जो
कुछ भी
गुरजिएफ ने
कहा था। और
अभ्यास
द्वारा अर्थ स्पष्ट
हो जायेगा। और
जो गुरजिएफ ने
लिख दिया है
उसकी एक समग्र
समझ पाने में
कम से कम एक
पूरी जिंदगी
लग जायेगी।
इस
प्रकार की
पुस्तक में
पीछे से कुछ
नहीं जोड़ा जा
सकता। वस्तुत:
गुरजिएफ की
पहली पुस्तक
के बारे में कहा
गया है कि
बहुत थोड़े—से
लोगों ने उसे
पूरी तरह पढ़ा
है। वह कठिन
है। एक हजार
पृष्ठ! जब
पहला संस्करण
प्रकाशित हुआ
था,
गुरजिएफ ने
उसे एक शर्त
सहित
प्रकाशित
करवाया। केवल
सौ पृष्ठ, प्रारंभिक
भाग, काटे
जाने थे। और
सारे पृष्ठ
नहीं काटे गये
थे, वे
अनकटे थे।
केवल सौ पृष्ठ
कटे हुए थे।
और एक टिप्पणी
पुस्तक पर छपी
हुई थी जो
बताती थी : 'अगर
आप पहले सौ
पृष्ठ पढ़ सकें
और फिर भी आगे
पढ़ने की सोचते
हों, तभी
दूसरे जुड़े
हुए पृष्ठ
खोलिए, वरना
प्रकाशक को
पुस्तक लौटा
दें और अपना
पैसा वापस ले
लें।’
ऐसा
कहा जाता है
कि बहुत थोड़े
लोग वर्तमान
हैं
जिन्होंने
कभी सारी
किताब पूरी
तरह से पढ़ी।
यह इस तरह से
लिखी गयी है
कि तुम हताश
हो जाओगे। बीस
या पच्चीस
पृष्ठ पढ़ लेना
काफी है। और
गुरजिएफ पगला
लगता है।
ये
सूत्र हैं, पतंजलि
के सूत्र। हर
चीज बीज स्वप्न
में घनीभूत
करदी गयी है।
अभी कल ही कोई
मेरे पास आया
और मुझसे
पूछने लगा, 'क्यों? जब
पतंजलि ने
सूत्रों को
संक्षिप्त कर
दिया, तो
फिर आप इतने
ज्यादा
विस्तार से
क्यों बोलते
हैं?' मुझे
बोलना पड़ता है,
क्योंकि
उन्होंने
वृक्ष को बीज
बनाया है, और
फ्टे बीज को
फिर वृक्ष
बनाना पड़ता है।
हर
सूत्र घनीभूत
किया हुआ है, समग्र
स्वप्न से
घनीभूत। तुम
इसमें कुछ कर
नहीं सकते। और
किसी को ऐसा
करने में
दिलचस्पी
नहीं है।
संक्षिप्त स्वप्न
में लिखना
उन्हीं
विधियों में
से एक विधि थी जिसका
प्रयोग पुस्तक
को सदैव शुद्ध
रखने के लिए
ही किया जाता
था। और कितने
हजारों
वर्षों तक यह
पुस्तक लिखी न
गयी। इसे
शिष्यों
द्वारा
कंठस्थ भर
किया गया था।
यह एक से
दूसरे को
स्मृति
द्वारा दी गयी
थी। यह लिखी न
गयी थी, अत:
इसमें कोई कुछ
कर नहीं सकता
था। यह एक
पावन स्मृति
थी, सुरक्षित
रखी हुई। और
जब पुस्तक
लिखी भी जा
चुकी थी, यह
इस तरह से
लिखी गयी थी
कि अगर तुम
इसमें कोई चीज
जोड़ देते, उसे
तत्क्षण
ढूंढ लिया
जाता।
जब
तक कि पतंजलि
की योग्यता का
व्यक्ति इसका
प्रयास नहीं
करता, ऐसा
किया नहीं जा
सकता। जरा
सोचो, अगर
तुम्हारे पास
आइंस्टीन का
फार्मूला
होता, तो
तुम उसके साथ
क्या कर सकते
हो? यदि
तुम उसके साथ
कुछ कर सकते
हो, तो उसे
फौरन पकड़ लिया
जायेगा। जब तक
कि आइंस्टीन
जैसे दिमाग का
आदमी उसके साथ
खेल करने की
कोशिश न करे, उसमें कुछ
किया नहीं जा
सकता।
फार्मूला
संपूर्ण है।
उसमें कुछ भी
जोड़ा नहीं जा
सकता, न ही
कुछ घटाया जा
सकता है।
स्वयं में यह
एक इकाई है।
जो कुछ भी तुम
इसमें करते हो,
वह खोज लिया
जायेगा।
ये
सब बीज—सूत्र
है। अगर तुम
उनमें एक भी
शब्द जोड़ते हो
तो कोई भी जो
योग के मार्ग
पर कार्य कर
रहा है, फौरन
जान जायेगा कि
यह गलत है।
मैं
तुम्हें एक
घटना सुनाता
हूं;
यह इसी सदी
में घटित हुआ
है। भारत के
एक महान कवि
रवींद्रनाथ
टैगोर ने अपनी
पुस्तक 'गीतांजलि'
का अनुवाद
किया, बंगला
से अंग्रेजी
में।
उन्होंने
स्वयं उसका
अनुवाद किया
था, लेकिन
वे थोड़ी
हिचकिचाहट
में थे। इस
विषय में 'कि
वह अनुवाद ठीक
था या नहीं।
इसलिए
उन्होंने
महात्मा गांधी
के एक मित्र—शिष्य,
सी. एफ.
एंड्रयूज से
कहा, उसकी
जांच करने के
लिए कि यह
देखा जा सके
कि अनुवाद
कैसा हो पाया
था। सी. एफ.
एंड्रयूज कवि
न था किंतु वह
एक अंग्रेज था।
अच्छा पढा—लिखा,
भाषा का, व्याकरण का
और हर चीज का
ताता। लेकिन
वह कोई कवि न
था।
चार
जगह,
चार
स्थानों पर, कुछ निश्चित
शब्दों को बदल
देने के लिए
उसने
रवीन्द्रनाथ से
कहा। वे
व्याकरण
विरुद्ध थे और
उसने कहा कि
अंग्रेज लोग
उन्हें समझ न
पायेंगे। अत:
रवीन्द्रनाथ
ने उन्हें बदल
दिया जो एंड्रयूज
ने सुझाव दिये
थे। उन्होंने
अपने सारे
अनुवाद में से
चार शब्द बदल
दिये। फिर वे
लंदन चले गये
और पहली बार
कवि—सभा में
अनुवाद पढ़ा
गया। उनके समय
के एक अंग्रेज
कवि यीट्स ने
वह सभा आयोजित
की थी। उस
अनुवाद को
पहली बार पढ़
कर सुनाया गया
था।
सारा
अनुवाद सुना
दिया गया था, और
सब उसे सुन
चुके थे। उसके
बाद
रवीन्द्रनाथ
ने पूछा, 'क्या
आपका कोई
सुझाव है? क्योंकि
यह तो अनुवाद
भर है और
अंग्रेजी
मेरी मातृभाषा
नहीं है।’
और
कविता का
अनुवाद करना
बहुत कठिन
होता है।
यीट्स ने, जो
रवीन्द्रनाथ
जितनी
योग्यता का ही
कवि था, जवाब
दिया, 'केवल
चार स्थलों पर
कुछ गड़बड़ है।’
और वे ठीक
वही चार शब्द
थे जिनका
सुझाव
एंड्रयूज ने
दिया था।
रवीन्द्रनाथ
इस पर विश्वास
न कर सके! वे
बोले, 'कैसे—कैसे
तुम उन्हें
ढूंढ सके? —क्योंकि
ये ही चार
शब्द थे जिनका
अनुवाद मैंने
नहीं किया है।
एंड्रयूज ने
इनका सुझाव
दिया और मैंने
उन्हें रख
दिया इसमें।’
यीट्स ने
कहा, 'सारी
कविता एक
प्रवाह है, केवल ये ही
चार शब्द
पत्थरों जैसे
हैं। वे
प्रवाह को तोड़
देते हैं। ऐसा
जान पड़ता है
कि किसी और ने
उन्हें वहां
रख दिया है।
हो सकता है
तुम्हारी
भाषा व्याकरण
पर पूरी न उतरती
हो। तुम्हारी
भाषा शत—प्रतिशत
ठीक नहीं है।
यह हो नहीं
सकती, इतना
हम समझते हैं।
लेकिन यह शत—प्रतिशत
कविता है। ये
चार शब्द किसी
स्कूल मास्टर
के पास से आये हैं।
व्याकरण सही
हो गया है, लेकिन
कविता गलत हो
गयी है।’
पतंजलि
के साथ तुम
कुछ नहीं कर
सकते। कोई भी
जो योग के
मार्ग पर
कार्य कर रहा
है तुरंत जान
जायेगा कि
किसी और ने, जो
कुछ नहीं
जानता, कोई
चीज बाद में
जोड़ दी है।
ऐसी बहुत थोड़ी
पुस्तकें हैं
जो अब तक
शुद्ध है; जिनमें
शुद्धता अब तक
बनी रही है।
यह उन्हीं में
से एक है। कुछ
बदला नहीं गया
है— एक शब्द भी
नहीं। कुछ
जोड़ा नहीं गया।
यह वैसी है
जैसे पतंजलि
इसका अर्थ रखना
चाहते थे।
यह
वस्तुनिष्ठ
कला की रचना
है। जब मैं
कहता हूं 'वस्तुनिष्ठ
कला की रचना', तो मेरा
मतलब होता है
एक निश्चित
बात। इसके साथ
हर सतर्कता
बरती गयी है।
जब ये सूत्र
संक्षिप्त
किये जा रहे
थे, तब हर
सतर्कता ली
गयी थी जिससे
कि वे नष्ट
नहीं किये जा
सकें। वे इस
ढंग से
निर्मित किये
गये हैं कि
कोई बाहरी चीज,
उनमें आ
पहुंचा कोई
बाहरी तत्व, एक कर्कश—स्वर
बन जायेगा।
लेकिन मैं
कहता हूं कि
अगर पतंजलि
जैसा आदमी कुछ
जोड्ने की
कोशिश करता है
तो वह यह कर
सकता है।
लेकिन
पतंजलि जैसा
आदमी ऐसी बात
के लिए हरगिज कोशिश
न करेगा। केवल
निकृष्ट दिमाग
हमेशा जोड़ने—बढ़ाने
की कोशिश करते
हैं। निकृष्ट दिमाग
यह कोशिश कर
सकते हैं, लेकिन
कोई चीज अपने
बढ़े हुए स्वप्न
में केवल तभी
निरंतर बनी
रहती है जब वह
भीड़ की चीज बन
जाती है। भीड़ जागरूक
नहीं है। वह जागरूक
हो नहीं सकती।
केवल यीट्स जागरूक
हुआ कि अनुवाद
में कुछ गलत
था। सभा में
बहुत—से और
लोग मौजूद थे,
लेकिन कोई
और जागरूक न
था।
पतंजलि
का योग एक
गोपनीय पंथ है, एक
गढ़ परंपरा।
हालांकि
पुस्तक लिखी
भी गयी, पुस्तक
स्वप्न में
उसे
विश्वसनीय
नहीं माना गया।
और अब भी कुछ
लोग जीवित हैं
जिन्हें
पतंजलि के सूत्र
सीधे अपने
गुरु से मिले
हैं पुस्तक से
नहीं। यह
मौखिक परंपरा
अब तक जीवित
बनी रही है।
और यह बनी
रहेगी, क्योंकि
पुस्तकें
विश्वसनीय
नहीं होतीं।
कई बार
पुस्तकें गुम
हो सकती हैं, बहुत—सी
चीजें
पुस्तकों के
साथ गलत हो
सकती हैं। अत:
एक गढ परंपरा
अब भी
अस्तित्ववान
है.। उस
परंपरा को
कायम रखा गया
है। और जो
सूत्रों को
जानते हैं
अपने गुरु के
वचनों द्वारा,
वे निरंतर स्वप्न
से जांचते
रहते हैं कि
क्या पुस्तक
के स्वप्न
में कुछ गलत
हुआ है या कि
कुछ बदल दिया
गया है।
ऐसा
दूसरे
शास्त्रों के
साथ नहीं बना
रहा है।
बाइबिल में
बहुत—सी बातें
बाद में जोडी
हुई है। यदि
जीसस वापस आ
जाते, तो वे
नहीं समझ पाते,
क्या हुआ।
किस तरह कुछ
खास चीजें
बाइबिल में
चली आयी हैं? जीसस की
मृत्यु के दो
सौ वर्ष
उपरान्त पहली
बार बाइबिल
लिखी गयी; इससे
पहले नहीं। और
उन दो सौ
वर्षों में
बहुत सारी
चीजें गायब हो
गयी थीं। जो
शिष्य जीसस के
पास रहे उनके
पास भी अलग—अलग
कहानियां थीं
बताने को।
बुद्ध
नहीं रहे।
उनकी मृत्यु
के पांच सौ
वर्ष पच्श्रात
उनके वचन
लिपिबद्ध
किये गये थे।
कई बौद्ध
धाराएं हैं
बहुत—से
शास्त्र हैं, और
कोई नहीं कह
सकता कि कौन—सा
सत्य है और
कौन—सा असत्य
है। लेकिन
बुद्ध समूह से
बातचीत कर रहे
थे, साधारण
सामान्य
लोगों से।
इसलिए वे
पतंजलि की तरह
सघन सूत्रवत
नहीं हैं। वे
चीजों को
विस्तार दे
रहे थे
व्योरेवार स्वप्न
में। उन
ब्योरों में,
बहुत सारी
चीजें जोड़ी जा
सकती थी, बहुत
हटायी जा सकती
थीं और कोई
जानेगा नहीं
कि कुछ बदल
दिया गया है।
लेकिन
पतंजलि भीड़ से
नहीं कह रहे।
वे कुछ चुनिंदा
लोगों से कह
रहे थे, एक
समूह से, बहुत
थोड़े—से लोगों
के एक समूह से—जैसा
कि गुरजिएफ के
साथ हुआ।
गुरजिएफ भीड़
के सम्मुख कभी
कुछ नहीं बोले।
केवल उनके
शिष्यों का एक
बहुत चुना हुआ
वर्ग उसे सुन
पाता था, और
वे भी सुनते
बहुत शर्तों
के साथ। कोई
सभा पहले से
घोषित नहीं की
जाती थी। अगर
किसी रात
गुरजिएफ साढ़े
आठ बजे बोलने
जा रहा होता
तो आठ बजे के
लगभग तुम्हें
सूचना मिलती
कि गुरजिएफं
बोलने जा रहा
है कहीं। और
तुम्हें फौरन
वहां पहुंचना
होता क्योंकि
साढ़े आठ बजे
द्वार बंद हो
जाता। लेकिन
वे तीस मिनट
कभी बहुत काफी
न होते। और जब
तुम पहुंचते,
तुम पा सकते
थे कि वह
बोलना स्थगित
कर चुका था।
अगले दिन यही
बात फिर घटित
होती।
एक
बार उसने
लगातार सात
दिन तक इसे रह
होने दिया।
पहले दिन चार
सौ व्यक्ति
आये थे, अंतिम
दिन केवल चौदह
ही। धीरे—
धीरे वे
हतोत्साहित
हो गये थे।
अंततः यह
असंभव लगने
लगा था कि वह
बोलने वाला है।
फिर अंतिम दिन,
जब वहां
केवल चौदह
आदमी थे, उसने
उनकी ओर देखा
और बोला, 'अब
लोगों की सही
मात्रा बच रही
है। तुम सात
दिन तक इंतजार
कर सकते थे
निराश हुए बिना,
सो अब तुमने
इसे अर्जित
किया है। अब
मैं बोलूंगा
और केवल तुम
चौदह इस
प्रवचन—माला
को सुन पाओगे।
अब किसी दूसरे
को सूचित नहीं
किया —जायेगा
कि मैंने
बोलना शुरू कर
दिया है।’
इस ढंग
का कार्य
भिन्न होता है।
और पतंजलि ने
भी बड़े गोपनीय
समूह के साथ
कार्य किया था।
इसलिए इसमें
से कोई धर्म
नहीं निकला है, कोई
संस्था नहीं
निकली।
पतंजलि के कोई
संप्रदाय
नहीं है। वे
इतनी बड़ी
शक्ति थे, लेकिन
वे एक छोटे
समूह के भीतर
ही निकटता
बनाये रहे। और
उन्होंने इसे
ऐसे ढंग से
कार्यान्वित
किया कि
सूत्रों की
शुद्धता
सुरक्षित रखी
रहे। वह शुद्धता
अब तक
सुरक्षित रखी
हुई है।
पांचवां
प्रश्न:
कृपया
आप उस अज्ञात
शक्ति का
कार्य
समझायेंगे जो
मानवीय मन को
संसारी चीजों
और आदतों से जोड़े
रखती हैः यह
जानते हुए कि
अंतिम परिणाम
दुख के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं है?
हमारी
यह जागरूकता
समग्र नहीं
है। यह
जागरूकता तो
बस बौद्धिक
है।
तर्कपूर्ण
ढंग से तुम
समझ लेते हो
कि 'जो कुछ मैं
कर रहा हूं वह
मुझे दुख की
ओर ले जा रहा
है', लेकिन
यह तुम्हारा
अस्तित्वगत
अनुभव नहीं होता
है। तुम इसे
केवल बौद्धिक
तौर पर समझ
लेते हो। यदि
तुम बस
तुम्हारी
बुद्धि मात्र
होते तो कहीं
कोई समस्या न
होती, लेकिन
तुम अबुद्धि
भी हो। यदि
तुम्हारे पास
केवल चेतन मन
ही होता तो भी
ठीक रहता, लेकिन
तुम्हारे पास
अचेतन मन भी
है। चेतन मन जानता
है कि तुम
प्रतिदिन दुख
में जा रहे हो
अपनी ही
चेष्टाओं के
कारण, कि
तुम अपना नरक
स्वयं
निर्मित कर
रहे हो। लेकिन
अचेतन इसके
प्रति जागरूक
नहीं है। और
अचेतन
तुम्हारे चेतन
मन से नौ गुना
बड़ा होता है।
यह अपनी आदतों
के साथ डटा रह
जाता है।
तुम
फिर क्रोधित न
होने का
निर्णय ले
लेते हो।
क्योंकि
क्रोध, तुम्हारा
अपना शरीर
विषमय बना
देने के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
है, यह
तुम्हें दुख
देता है।
लेकिन अगली
बार, जब
कोई तुम्हारा
अपमान करता है,
तो अचेतन मन
तुम्हारे
चेतन तर्क को
एक ओर रख देगा।
वह फूट पड़ेगा,
और तुम
क्रोधित हो
जाओगे। अचेतन
ने तुम्हारे निर्णय
के विषय में
कुछ भी नहीं
जाना है और यही
अचेतन है जो
सक्रिय शक्ति
बना रहता है।
चेतन
मन सक्रिय नहीं
होता है। वह
केवल सोचता
है। वह एक
विचारक है, वह
कर्त्ता नहीं
है। तो क्या
करना होता है '
केवल चेतन
रूप से सोच
लेने से कि
कुछ गलत है, तुम उसे
रोकने वाले
नहीं।
तुम्हें
अनुशासन पर
कार्य करना
होगा। और
अनुशासन
द्वारा चेतन शान
तीर की भांति
अचेतन में
बिंध जायेगा।
अनुशासन
के द्वारा, योग
के द्वारा, अभ्यास के
द्वारा चेतन
निर्णय अचेतन
में पहुंच
जायेगा। और जब
यह अचेतन में
पहुंचता है, केवल तभी
इसका कोई
उपयोग होगा।
अन्यथा तुम एक
ही बात सोचते
चले जाओगे, और तुम कुछ
बिलकुल ही
उल्टा करते
जाओगे।
सेंट
ऑगस्टीन कहते
हैं,
'जो कुछ भी
अच्छा मुझे
मालूम है मैं
हमेशा उसे
करने की सोचता
हूं। लेकिन जब
कभी उसे करने
का मौका आता
है, मैं
हमेशा वही कुछ
करूंगा जो गलत
है!' यही
मानवी दुविधा
है।
योग
.मार्ग है
चेतन का सेतु
अचेतन से
बाधने का। जब
हम अनुशासन
में और गहरे
उतरेंगे तब
तुम जागरूक हो
जाओगे कि ऐसा
किस तरह किया
जा सकता है।
ऐसा किया जा सकता
है। अत: चेतन
पर भरोसा न
करो। वह
निष्कि्रय
है। अचेतन
सक्रिय
हिस्सा है। और
केवल यदि तुम
अचेतन को
बदलते हो, तो
ही तुम्हारे
जीवन का अलग
अर्थ हो
जायेगा। वरना
तुम और ज्यादा
दुख में पड़
जाओगे।
सोचना
एक चीज और
करना दूसरी
चीज,
यह बात
निरंतर
अव्यवस्था, केऑस का
निर्माण
करेगी। और धीरे—धीरे
तुम आत्म—विश्वास
खो दोगे। धौर—धीरे
तुम अनुभव करोगे
कि तुम बिलकुल
अक्षम हो, नपुंसक
हो कि तुम कुछ
नहीं कर सकते।
एक आत्म—भर्त्सना
उठ खड़ी होगी।
तुम अपराधी
अनुभव करोगे।
और अपराध—भाव
ही एकमात्र
पाप है।
आज
इतना ही।
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