दिनांक:
4 अक्टूबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
आपने
कहा कि सब आदर्श
गलत हैं। लेकिन
क्या अपने गंतव्य
को,
अपनी नियति को
पाने का आदर्श
भी उतना ही गलत
है?
आदर्श गलत
है;
किस बात को पाने
का आदर्श है, इससे कोई भेद
नहीं पड़ता। आदर्श
का अर्थ है : भविष्य
में होगा। आदर्श
का अर्थ है : कल होगा।
आदर्श का अर्थ
है. आज उपलब्ध नहीं
है। आदर्श स्थगन
है—भविष्य के लिए।
जो
तुम्हारी नियति
है उसे तो आदर्श
बनाने की कोई भी
जरूरत नहीं; वह
तो होकर ही रहेगा,
वह तो हुआ ही
हुआ है।
नियति
का अर्थ है, जो
तुम्हारा स्वभाव
है। इस क्षण जो
पूरा का पूरा तुम्हें
उपलब्ध है, वही तुम्हारी
नियति है। सब आदर्श
नियति—विरोधी हैं।
आदर्श
का अर्थ ही यह होता
है कि तुम वह होना
चाहते हो जो तुम
पाते हो कि हो न
सकोगे। गुलाब तो
गुलाब हो जाता
है,
कमल कमल हो जाता
है। कमल के हृदय
में कहीं कोई आदर्श
नहीं है कि मैं
कमल बनूं। अगर
कमल कमल बनना चाहे
तो पागल होगा,
कमल नहीं हो
पाएगा।
जो
तुम हो वह तो तुम
हो ही—बीज से ही
हो। उससे तो अन्यथा
होने का उपाय नहीं
है।
इसलिए
नियति के साथ, स्वभाव
के साथ आदर्श को
जोड़ना तो विरोधाभास
है। पर हमारे मन
पर आदर्श की बड़ी
पकड़ है। सदियों
से हमें यही सिखाया
गया है कि कुछ होना
है, कुछ बनना
है, कुछ पाना
है। दौड़ सिखाई
गई, स्पर्धा
सिखाई गई, वासना
सिखाई गई—अनत— अनंत
रूपों में।
अष्टावक्र
का उदघोष यही है
कि जो तुम्हें
होना है वह तुम
हो ही। कुछ होना
नहीं है, जीना है।
इस क्षण तुम्हें
सब उपलब्ध है।
एक क्षण भी टालने
की कोई जरूरत नहीं
है। एक क्षण भी
टाला तो भ्रांति
में पड़े। तुम जीना
शुरू करो—तुम परिपूर्ण
हो।
समस्त
अध्यात्म की मौलिक
उदघोषणा यही है
कि तुम परिपूर्ण
हो,
जैसे तुम हो।
होने को कुछ परमात्मा
ने बाकी नहीं छोड़ा
है। और जो परमात्मा
ने बाकी छोड़ा है,
उसे तुम पूरा
न कर पाओगे। जो
परमात्मा नहीं
कर सका, उसे
तुम कर सकोगे—यह
अहंकार छोड़ो। जो
हो सकता था, हो गया है। जो
परमात्मा के लिए
संभव था, वह
घट गया है। तुम
जीना शुरू करो,
टालो मत।
परम
अध्यात्म की घोषणा
यही है कि उत्सव
की घड़ी मौजूद है, तुम
तैयारी मत करो।
एक तैयारी करने
वाला चित्त है
जो उत्सव में कभी
सम्मिलित नहीं
होता, सदा तैयारी
करता है. यह तैयार
कर लूं वह तैयार
कर लूं वह हमेशा
टाइम—टेबल देखता
रहता है; कभी
ट्रेन पर सवार
नहीं होता। ट्रेन
सामने भी खड़ी हो
तो वह टाइम—टेबल
में उलझा होता
है। वह सदा बिस्तर
बांधता है, लेकिन कभी यात्रा
पर जाता नहीं।
वह सदा मकान बनाता
है, लेकिन कभी
उसमें रहता नहीं।
वह धन कमाता है,
लेकिन धन को
कभी भोगता नहीं।
बस वह तैयारी करता
है।
तुम
ऐसे तैयारी करने
वाले करोड़ों लोगों
को चारों तरफ देखोगे—वही
हैं,
उन्हीं की भीड़
है। वे सब तैयारी
कर रहे हैं। वे
कह रहे हैं, कल भोगेंगे,
परसों भोगेंगे।
इनमें सांसारिक
भी हैं, इनमें
आध्यात्मिक जिनको
तुम कहते हो वे
भी सम्मिलित हैं—तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत
और महात्मा। वे
कहते हैं यहां
क्या रखा है, स्वर्ग में भोगेंगे!
उनका कल और भी आगे
है : मरने के बाद
भोगेंगे यहां क्या
रखा है! यहां तो
सब क्षणभंगुर!
यहां तो सिर्फ
पीड़ित होना है,
परेशान होना
है और कल की तैयारी
करनी है।
लेकिन
तुमने देखा, कल
कभी आता नहीं! कल
कभी आया ही नहीं।
इसलिए मैं तुमसे
कहता हूं : स्वर्ग
कभी आता नहीं,
कभी आया ही नहीं।
स्वर्ग तो कल का
विस्तार है। कल
ही नहीं आता, स्वर्ग कैसे
आएगा?
जिस
आदमी ने कल में
अपने स्वर्ग को
देखा है, उसका आज
नर्क होगा—बस इतना
पक्का है। कल तो
आएगा नहीं। और
जब भी कल आएगा आज
होकर आएगा। और
अगर तुमने यह गलत
आदत सीख ली कि तुम
कल में ही नजर लगाए
रहे तो तुम आज को
सदा चूकते जाओगे।
और जब भी आएगा आज
आएगा; जो भी
आएगा आज की तरह
आएगा। और तुम्हारी
आंखें कल पर लगी
रहेंगी। कल कभी
आता नहीं। ऐसे
तुम वंचित हो जाओगे।
ऐसे तुम, जो
मिला था उसे न भोग
पाओगे। जो हाथ
में रखा था उसे
न देख पाओगे। जो
मौजूद था, जो
नृत्य—गीत चल ही
रहा था, उसमें
तुम सम्मिलित न
हो पाओगे।
अध्यात्म
की आत्यंतिक घोषणा
यही है कि समय के
जाल में मत पड़ो।
समय है मन का जाल।
अस्तित्व मौजूद
है—उतरो, छलांग
लो! तैयारी सदा
से पूरी है, सिर्फ तुम्हारी
प्रतीक्षा है।
तुम नाचो! तुम यह
मत कहो कि कल नाचेंगे,
और तुम यह मत
कहो कि आयन टेढ़ा
है, नाचे कैसे?
जिसे नाचना आता
है, वह टेढ़े
आंगन में भी नाच
लेता है। और जिसे
नाचना नहीं आता,
अपान कितना ही
सीधा, चौकोर
हो जाए तो भी नाच
न पाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन की आंखें
खराब हो गई थीं, तो
वह इलाज कराने
गया। डॉक्टर से
पूछने लगा कि क्या
मेरी आंखों के
आपरेशन के बाद
मैं पढ़ने में समर्थ
हो जाऊंगा? डॉक्टर ने कहा,
निश्चित। यह
जाली है, इसे
हम काट देंगे आंख
से, तुम पढ़ने
में समर्थ हो जाओगे।
मुल्ला
ने कहा, धन्यवाद
भगवान का, क्योंकि
मैं कभी पढ़ना—लिखना
सीखा नहीं।
अगर
पढ़ना—लिखना आता
ही नहीं तो आंख
की जाली कटने से
पढ़ना नहीं आ जाएगा।
अगर नाचना आता
ही नहीं तो तुम
स्वर्ग में भी
रोओगे। तुम्हें
रोना ही आता है।
तुम स्वर्ग में
भी बैठ कर पोथा—पुराण
खोल कर सोचोगे
कि अब आगे क्या
है?
तुम स्वर्ग में
भी कहोगे, क्या
रखा है यहां? क्योंकि तुमने
एक ही गणित और एक
ही तर्क सीखा है
कि यहां तो कुछ
भी नहीं रखा है;
सदा वहां,
कहीं
और,
कहीं और है जीवन
बरस रहा, यहां
तो बस मौत है!
तुम
जैसा तर्क पकड़े
हो,
अगर किसी भूल—चूक
से तुम स्वर्ग
पहुंच जाओ तो तुम
उसे नर्क में रूपांतरित
कर लोगे। तुम्हें
हर चीज को नर्क
बनाने की कला आती
है। और उस कला का
सबसे महत्वपूर्ण
सूत्र यही है कि
आज को मत देखना;
कल की आशा रखना,
कल होगा सब! आज
तो सह लो, आज
तो रो लो; कल
हंसेंगे! आज तो
रुदन है, आंसू
हैं; कल होंगी
मुस्कुराहटें।
लेकिन
कल जब तक आएगा तब
तक रोने का अभ्यास
भी सघन हो रहा है, इसे
याद रखना। प्रतिपल
तुम रो रहे हो,
आज तुम रो रहे
हो। रोज रोते —रोते
रोने की कला आती
जा रही है, आंखें
सूजती जा रही हैं,
आंसूओ के सिवाए
तुम्हारी और कोई
कुशलता नहीं है।
कल आएगा तुम्हारे
द्वार पर, लेकिन
इस अभ्यास को तुम
अचानक छोड़ थोड़े
ही पाओगे! कल फिर
आज की तरह आएगा।
फिर तुम्हारा पुरातन
तर्क काम करेगा.
कल; और रो लो!
ऐसे ही तुम रोते
रहे हो जन्मों
—जन्मों, ऐसे
ही तुम रो रहे हो।
अगर ऐसे ही तुम्हें
रोना है, रोते
रहना है, तो
बनाओ आदर्श!
मैं
तुमसे कहता हूं
: आदर्श—मुक्त हो
जाओ। तुम्हें घबड़ाहट
होती है, क्योंकि
तुम्हारा चित्त
कहता है, आदर्श—मुक्त? तुम्हारा अहंकार
कहता है, आदर्श—मुक्त
पड तो उसका तो मतलब
हुआ कि फिर तुम
कभी परिपूर्ण न
हो पाओगे। मैं
तुमसे कहता हूं.
तुम परिपूर्ण हो।
पूर्णता तुम्हें
मिली है—वरदान
है, भेंट है
परमात्मा की! अगर
परमात्मा पूर्ण
है तो उससे अपूर्ण
पैदा हो ही नहीं
सकता। और अगर परमात्मा
से अपूर्ण पैदा
हो रहा है तो तुम
एक बात पक्की मानो
कि तुम अपूर्ण
से पूर्ण की कोई
संभावना नहीं।
थोड़ा सोचो तो हिसाब
क्या हुआ? पूर्ण
से अपूर्ण पैदा
हो रहा है, पहले
तो यह बात गलत।
पूर्ण से पूर्ण
ही पैदा होता है।
उपनिषद कहते हैं
: पूर्ण से पूर्ण
निकाल लो, तो
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता है।
पूर्ण से तुम अपूर्ण
तो निकाल ही न सकोगे,
पाओगे कहां अपूर्ण?
और फिर अब एक
तो तुमने यह भ्रांति
पाल रखी है कि पूर्ण
से अपूर्ण हो सकता
है। अब दूसरी भ्रांति
इस भ्रांति से
पैदा हो रही है
कि अब इस अपूर्ण
को पूर्ण होना
है। अब अएर्ण चेष्टा
करेगा पूर्ण होने
की।
थोड़ा
सोचो, अपूर्ण की
सब चेष्टाएं अपूर्ण
रहेंगी! और अपूर्ण
से पूर्ण को निकालने
का कोई उपाय नहीं
है।
अगर
तुम सही हो तो नर्क
ही एकमात्र सत्य
है। अगर मैं सही
हूं तो स्वर्ग
हो सकता है। चुनाव
तुम्हारा है। और
तुम्हारी जिंदगी
है और तुम्हें
चुनना है। मैं
तुमसे कहता हूं.
भोगो जीवन को इस
क्षण! नाचो, गुनगुनाओ!
आनंदित होओ! यह
आनंद का अभ्यास
सघन होगा तो इसी
आनंद के अभ्यास
की सघनता में कल
भी आएगा। और तुम
आज में ही रस लेना
सीख लोगे, तो
कल भी तुम रस लोगे,
और रसधार बहेगी।
परसों भी आएगा,
तब तक तुम्हारा
रस का अभ्यास और
गहन हो जाएगा।
तुम और रस से भर
जाओगे। तुम और
मुग्ध मतवाले,
तुम्हारे रोएं—रोएं
में मदिरा फैल
गई होगी। परसों
भी आएगा; तुम
और नाचोगे, और गुनगुनाओगे।
धीरे— धीरे तुम
पाओगे, तुम्हें
नाचना आ गया। अब
आंगन टेढ़ा हो कि
चौकोर, आंगन
हो कि न हो, अब
तुम नाच सकते हो।
अब तो तुम बैठे
भी रहो शांत तो
भी भीतर नृत्य
चलता है। अब तो
तुम न भी बोलो तो
भी गीत उठते हैं।
अब तो तुम कुछ भी
न करो तो भी कमल
खिलते चले जाते
हैं।
नियति, स्वभाव
का इतना ही अर्थ
है जो अपने से हो
रहा है, और जो
अपने से होगा।
जिसे
करने के लिए चेष्टा
की जरूरत है, वह
तुम्हारी नियति
नहीं। चेष्टा का
अर्थ ही यह होता
है कि कुछ नियति
के विपरीत करने
चले हो; तुमने
कुछ अपनी योजना
बनाई। जो परमात्मा
ने तुम्हें ब्लूप्रिंट
दिया, जो परमात्मा
ने तुम्हें जीवन
की दिशा दी, गंतव्य दिया,
उससे अन्यथा
तुमने कोई योजना
बनाई। और इसलिए
तो तुम्हारी योजना
कभी पूरी नहीं
होती। सदा तुम्हारी
योजना टूटती है,
पराजित होती
है।
तुम
परमात्मा से लड़
कर जीत न सकोगे।
उससे जीतने का
एक ही रास्ता है, उससे
हार जाना। प्रेम
में हार ही विजय
है। प्रार्थना
में भी वही बात
है। प्रार्थना
में भी हार विजय
है। तुम हारो!
तुमने
कब से बांध रखे
आदर्श, क्या करोगे?
और इतना भी तुम
नहीं देखते कि
जीवन भर आदर्श
की चेष्टा करके
तुम उपलब्ध क्या
कर पाते हो?
मैं
देखता हूं कोई
ब्रह्मचर्य का
आदर्श बनाए बैठा
है। सब तरह से अपने
को कसता है। दीवालें
बनाता है, बाधाएं
खड़ी करता है, छाती पर पत्थर
अटकाता है, ताकि किसी तरह
वासना न उठे। लेकिन
जितनी चेष्टा करता
है उतना ही वासना
से भरता चला जाता
है। वासना मालूम
होती है परमात्मा
की है, और ब्रह्मचर्य
तुम्हारा है। वासना
तो तुम्हें मिली
है, ब्रह्मचर्य
तुम ला रहे हो।
वासना तो स्वाभाविक,
प्राकृतिक है;
ब्रह्मचर्य
आदर्श है।
मैं
यह नहीं कह रहा
हूं कि ब्रह्मचर्य
फलित नहीं होता; फलित
होता है, लेकिन
ऐसे ही फलित होता
है जैसे वासना
फलित हुई है। तुम
छोड़ो परमात्मा
पर, तुम सहज
भाव से बहे चले
जाओ। वह जहां ले
चले—कभी अंधेरे,
कभी उजाले;
कभी आंसूओ में,
कभी मुस्कुराहटों
में—तुम चले चलो।
तुम निष्ठा रखो।
तुम वासना में
भी यही खयाल रखो.
प्रभु की मर्जी!
उसने जो चाहा है,
हो रहा है। तुमने
तो वासना पैदा
नहीं की।
एक
महात्मा मेरे पास
आए और कहने लगे
: बस,
वासना से छुटकारा
करवा दें। मैंने
कहा, तुमने
पैदा की है? उन्होंने कहा
कि नहीं, मैंने
तो पैदा नहीं की
है। मैंने कहा,
जो तुमने पैदा
नहीं की उसे तुम
मिटा न सकोगे।
जो तुमने पैदा
की है उसे तुम मिटा
सकते हो। तुम पत्नी
को छोड़ कर भाग सकते
हो, क्योंकि
पत्नी तुमने चुनी
है, बनाई है।
लेकिन वासना छोड़
कर कहां भागोगे?
जहां जाओगे वासना
रहेगी। तुम स्त्रियों
से आंख बंद कर ले
सकते हो, तुम
आंख फोड़ ले सकते
हो। स्त्रियों
को देखो न देखो,
इससे कुछ फर्क
न पड़ेगा। वासना
को कैसे मिटाओगे?
अंधा भी वासना
को देखता रहता
है। तुमने सुनी
है सूरदास की कथा?
मुझे ठीक नहीं
मालूम पड़ती, सच नहीं मालूम
पड़ती। क्योंकि
कथा ऐसी बेहूदी
है कि सूरदास का
सारा मूल्य खराब
हो जाता है। सूरदास
जैसे कीमती मनुष्य
के जीवन में ऐसी
घटना घट सकती है,
यह मैं मानने
को राजी नहीं।
घटी हो तो सूरदास
दो कौड़ी के। न घटी
हो, तो ही सूरदास
में कुछ मूल्य
है।
कथा
कहती है कि सूरदास
ने एक सुंदर युवती
को देखा और वे चल
पड़े उसके पीछे।
उसके द्वार पर
भिक्षा मांगी, फिर
रोज—रोज भिक्षा
मांगने जाने लगे।
फकीर हैं। अपना
लिए इकतारा, गीत ग्गुनगुनाते
रहते हैं; लेकिन
सब गीत अब उस स्त्री
की तरफ समर्पित
होने लगे। घबड़ाहट
पैदा हुई। तो कहते
हैं, अपनी आंखें
फोड़ डालीं। सूरदास
उस दिन हुए। आंखें
फोड़ लीं, अंधे
हो गए। क्योंकि
सोचा कि जो आंखें
भटका रही हैं,
इन आंखों से
क्या संग—साथ!
यह
कहानी जरूर नासमझों
ने गढ़ी होगी। क्योंकि
आंखें फोड़ लेने
से वासना से कहीं
मुक्ति होती है? आंखें
फोड़ लेने से तो
वासना बाहर दिखाई
पड़ती थी, अब
भीतर दिखाई पड़ने
लगेगी।
तुम
कभी सोचो, एक
सुंदरी जाती हो
रास्ते से, घबड़ाहट में आंखें
बंद कर लो, साधु—महात्मा
हो जाओ—तो आंखें
बंद करके क्या
स्त्री का रूप
खो जाता है? और सुंदर हो कर
प्रगट होता है।
और सुगंधित हो
कर प्रगट होता
है। वह साधारण—सी
स्त्री, जो
खुली आंख से देखते
तो शायद उससे छुटकारा
भी हो जाता। कौन
स्त्री, कौन
पुरुष इतना सुंदर
है कि अगर ठीक से
देखो तो छुटकारा
न हो जाए! अगर गौर
से देखते तो मुक्त
भी हो जाते। अब
आंख बंद करके तो
बड़ी मुश्किल हो
गई। अब तो स्त्री
अप्सरा हो गई,
सपना बन गई।
तुमने
खयाल किया, तुम्हारे
सपनों में जैसी
सुंदर स्त्रियां
होती हैं, ऐसी
सुंदर स्त्रियां
जगत में नहीं हैं!
इसलिए तो कवि बड़े
अतृप्त रहते हैं,
क्योंकि वे जैसी
कल्पना कर लेते
हैं स्त्रियों
की, वैसी स्त्रियां
कहीं मिलती नहीं।
चित्रकार बड़े अतृप्त
रहते हैं, मूर्तिकार
बड़े अतृप्त रहते
हैं। किसी से मन
नहीं भरता। अब
जो मूर्ति गढ़ता
है, उसकी रूप
की कल्पना बड़ी
प्रगाढ़ है। नाक—नक्या
का उसका अनुपात
बड़ा गहरा है। वह
तो अति सुंदर हो
तो ही सुंदर हो
सकता है, वैसा
तो कोई चेहरा कहीं
मिलता नहीं। सपने
इतने सुंदर हैं
कि यथार्थ उनसे
फीका पड़ता है।
तो
जिसकी भी कल्पना
प्रगाढ़ है, वह
कभी जीवन में तृप्त
नहीं होता। उसकी
कल्पना ही कहे
चली जाती है. इसमें
क्या रखा है? इसमें क्या रखा
है? उसकी कल्पना
तुलना का आधार
रहती है। आंख बंद
करने से कल्पना
तो न मिटेगी, सपने तो न मिटेंगे।
आंख बंद करने से
तो जो ऊर्जा थोड़ी—बहुत
बाहर चली जाती
थी, सपने नहीं
बनती थी, वह
भी सपने बनने लगेगी।
सारी ऊर्जा सपना
बनने लगेगी।
तो
जिस व्यक्ति ने
वासना के खिलाफ
ब्रह्मचर्य का
आदर्श बनाया, वह
ब्रह्मचर्य को
तो उपलब्ध नहीं
होता, एक मानसिक
व्यभिचार को उपलब्ध
होता है। उसके
भीतर— भीतर वासना
दौड़ने लगती है।
मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि ब्रह्मचर्य
घटित नहीं होता,
लेकिन आदर्श
की तरह कभी घटित
नहीं होता। वासना
को समझ कर वासना
को जी कर, वासना
के अनुभव से, वासना के रस में
डूब कर, प्रतीति
से, साक्षात
से, धीरे — धीरे
तुम्हें दिखाई
पड़ता है कि वासना
से कुछ भी मिलने
को नहीं है। और
धीरे — धीरे वासना
में ही तुम्हें
दिखाई पड़ना शुरू
होता है—निर्वासना
की पहली—पहली झलकें।
ब्रह्मचर्य
की पहली झलकें
वासना की गहराई
में ही मिलती हैं।
संभोग की आत्यंतिक
गहराई में ही पहली
दफे समाधि की किरण
उतरती है। वैसी
किरण जब उतर आती
है,
बस फिर घटना
घट गई। फिर तुम
उस किरण के सहारे
चल पड़ो, सूरज
तक पहुंच जाओगे।
फिर तुम्हें कोई
रोक सकता नहीं।
लेकिन वह घटना
उतनी ही स्वाभाविक
है, जैसे वासना
स्वाभाविक है,
कामना स्वाभाविक
है, ब्रह्मचर्य
भी स्वाभाविक है।
थोपा, आरोपित,
आयोजित ब्रह्मचर्य
दो कौड़ी का है।
तुम
हिंसक हो, अहिंसा
का आदर्श बना लेते
हो। सच तो यह है
कि तुम आदमी का
आदर्श देख कर बता
सकते हो कि आदमी
कैसा होगा, उल्टा कर लेना।
अगर आदमी का आदर्श
ब्रह्मचर्य हो
तो समझ लेना कामी
आदमी है। कामी
के अतिरिक्त कौन
ब्रह्मचर्य का
आदर्श बनाएगा!
अगर आदमी दान को
आदर्श मानता हो,
तो समझना लोभी
है। अगर आदमी करुणा
को आदर्श मानता
हो, समझना क्रोधी
है। अगर आदमी कहता
हो, जीवन में
शांति आदर्श है
तो समझ लेना, अशांत आदमी है,
विक्षिप्त आदमी
है।
तुम
मुझे बता दो किसी
आदमी का आदर्श
और मैं बता दूंगा
उसका यथार्थ क्या
है। यथार्थ बिलकुल
विपरीत होगा। इस
गणित में तुम्हें
कभी चूक न होगी।
तुम पूछ लो आदमी
से,
आपका आदर्श क्या
है महानुभाव?
और आप उनके यथार्थ
से परिचित हो जाओगे।
अगर आदमी कहे कि
अचौर्य मेरा आदर्श
है, तो अपनी
जेब संभाल लेना;
यह आदमी चोर
है। क्योंकि चोर
के लिए ही केवल
अचौर्य का आदर्श
हो सकता है। जो
आदमी चोर नहीं
है उसे तो खयाल
भी नहीं आएगा कि
अचौर्य भी आदर्श
है। अगर वह कहे
कि ईमानदारी मेरा
आदर्श है, तो
वह बेईमान है।
तुम
आदर्शों को मत
देखना। तुम तत्क्षण
विपरीत खोजना—और
तुम्हें अचानक
उस आदमी के जीवन
की कुंजी मिल जाएगी।
जिस
आदमी के जीवन में
ईमानदारी है उसे
ईमानदारी का खयाल
ही नहीं रह जाता; जो
है, उसका खयाल
ही भूल जाता है।
स्वस्थ आदमी के
जीवन में कभी भी
स्वास्थ्य का आदर्श
नहीं होता; बीमार आदमी के
जीवन में होता
है। तुम बीमारों
को देखोगे प्राकृतिक
चिकित्सा की किताबें
पढ़ रहे हैं, ऐलोपैथी, होम्योपैथी,
बायोकेमिस्ट्री
और न मालूम कहां—कहां
से खोज कर ले आते
हैं। बीमार आदमी
को तुम हमेशा स्वास्थ्य
के शास्त्र पढ़ते
देखोगे। स्वस्थ
आदमी को हैरानी
होती है कि कुछ
और पढ़ने को नहीं
है? यह क्या
पढ़ रहे हो तुम?
प्राकृतिक चिकित्सा,
कि पेट पर मिट्टी
बांधो, कि सिर
पर गीला कपडा रखो,
कि टब में लेटे
रहो, कि उपवास
कर लो, कि ऐसा
करो, कि एनीमा
ले लो, यह तुम
कर क्या रहे हो?
यह कोई...?
वह
आदमी कहेगा, स्वास्थ्य
मेरा आदर्श है।
लेकिन यह आदमी
बीमार है। यह बुरी
तरह से बीमार है।
इसका रोग भयानक
है। यह रोग से ग्रस्त
है।
और
आदर्श बनाना कहीं
और से नहीं आता—तुम्हारे
रोग से आता है।
स्वस्थ आदमी को
स्वास्थ्य का पता
नहीं चलता। वस्तुत:
स्वास्थ्य की परिभाषा
यही है कि जब तुम्हें
शरीर का बिलकुल
पता न चले तो तुम
स्वस्थ। अगर शरीर
का कहीं भी पता
चले तो बीमार।
बीमारी का मतलब
क्या होता है ग्र
सिर में जब दर्द
होता है तो सिर
का पता चलता है।
सिर में दर्द न
हो तो सिर का पता
चलता ही नहीं।
तुम सोचो, देखो।
सिर की तुम्हें
याद कब आती है गुम
जब सिर में दर्द
होता है। अगर कोई
आदमी चौबीस घंटे
सिर के संबंध में
सोचने लगे तो समझना
कि सिर उसका रुग्ण
है। पैर में कांटा
गड़ता है तो पैर
का पता चलता है।
जूता काटता है
तो जूते का पता
चलता है। अगर जूता
काटता न हो तो जूते
का पता चलता है?
जिस
चीज से पीड़ा होती
है उसका हमें पता
चलता है। जब पता
चलता है तो उससे
विपरीत को हम आदर्श
बनाते हैं।
आदर्श
रुग्ण चित्त के
लक्षण हैं। स्वस्थ
व्यक्ति आदर्श
नहीं बनाता; जो
स्थिति है, उसको समझने की
कोशिश करता है,
उसको जीने की
कोशिश करता है—ध्यान—पूर्वक,
होशपूर्वक।
और उसी होश से स्वास्थ्य
फलित होता है।
उसी होश से ब्रह्मचर्य
फलित होता है,
करुणा फलित होती
है।
तुम
अपने क्रोध को
समझो, क्रोध को
जीयो—करुणा अपने
आप आ जाएगी। आदर्श
मत
बनाओ।
तुम अपनी कामवासना
को पहचानो, दीया
जलाओ होश का। तुम
कामवासना में होशपूर्वक
जाओ। ऐसे डरे—डरे,
सकुचाते, परेशान, घबडाए
हुए, तने हुए,
नहीं जाना और
जाना पड़ रहा है—ऐसे
अपराध में डूबे
हुए मत जाओ। इसमें
कुछ सार न होगा।
सहज भाव से जाओ।
प्रभु ने जो दिया
है, अर्थ होगा।
जो समग्र में उठ
रहा है, उसमें
अर्थ होगा।
तुम
यहां होते नहीं
अगर वासना न होती; न तुम्हारे
महात्मा होते,
न ब्रह्मचर्य
का उपदेश देने
वाले होते। वे
सब वासना के ही
फल हैं।
तो
जिस वासना से बुद्ध
जैसे लोग पैदा
होते, उस वासना
को गाली दोगे?
जिस वासना से
महावीर जैसे फल
लगते, उसको
गाली दोगे? जिस वासना से
अष्टावक्र जन्मते,
तुम उसे गाली
देते थोड़ा संकोच
नहीं करते?
अगर
ब्रह्मचर्य इस
जगत में फला है
तो वासना से ही
फला है। फल को तो
तुम आदर देते हो, वृक्ष
को इंकार करते
हो? तो तुम भूल
कर रहे हो। तो तुम्हारे
जीवन के गणित में
साफ—सुथरापन नहीं,
बड़ी उलझन है,
बड़ा विभ्रम है।
बुद्ध
हों कि महावीर, कृष्ण
हों कि मुहम्मद
कि क्राइस्ट—सब
आते हैं। वासना
के सागर में ही
ये लहरें उठती
हैं और ब्रह्मचर्य
की ऊंचाई पर पहुंच
जाती हैं। सागर
को धन्यवाद दो,
विरोध मत करो।
जब मैं कहता हूं, सभी आदर्श खतरनाक
हैं, तो मेरा
मतलब इतना ही है
कि जीवन पर्याप्त
है, इसके ऊपर
तुम और आदर्श मत
थोपी, जीवन
में गहरे उतरो।
जीवन की गहराई
में ही तुम उन मणियों
को पाओगे, जिनको
तुम चाहते हो।
वासना
में उतर कर मिलता
है ब्रह्मचर्य।
मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि सभी
वासना से भरे लोगों
को ब्रह्मचर्य
मिल जाएगा या मिल
गया है। मेरी शर्त
खयाल में रखना।
वासना में उतर
कर मिलता है, लेकिन
जो जागरूकता से
उतरता है, बस
उसी को मिलता है,
जो साक्षी— भाव
से उतरता है, उसी को मिलता
है।
तो
दुनिया में दो
तरह के लोग हैं
साधारणत: —वासना
में उतरते मूर्च्छा
से,
उनको कुछ नहीं
मिलता; फिर
वासना से भयभीत
हो कर भागते ब्रह्मचर्य
की तरफ मूर्च्छा
में, उनको भी
कुछ नहीं मिलता।
मिलता उसे है जो
सजग हो कर, जाग
कर, जीवन जो
दिखाए उसे देखने
को राजी होता है;
जो कहता है,
मेरी निजी कोई
मर्जी नहीं, प्रभु जो दिखाएगा
उसे देखेंगे,
लेकिन साक्षी
को जगा कर देखेंगे,
पूरा—पूरा देखेंगे,
रत्ती—रत्ती
देखेंगे, कुछ
छोड़ न देंगे, छोड़ने की जल्दी
न करेंगे।
ऐसे
सजग जागरण में
सभी आदर्श अपने
— आप फलने लगते हैं।
जब
मैं तुमसे कहता
हूं आदर्श छोड़ो
तो मैं आदर्शों
के विरोध में नहीं
हूं। अगर तुम मेरी
बात समझो तो मैं
ही आदर्शों के
पक्ष में हूं।
क्योंकि जो मैं
कह रहा हूं उसी
से आदर्श फलेंगे।
और जो तुम सुनते
रहे हो, उससे आदर्श
कभी नहीं फलते।
आदर्श
के पीछे दौड़ो और
आदर्श कभी न मिलेगा।
और मैं तुमसे कहता
हूं. रुको, जो
है उसमें उतरो।
आदर्श अपने—आप
फल जाएंगे।
स्वभाव
का अर्थ ही यही
है,
नियति का अर्थ
ही यही है. कुछ करने
को नहीं है। जाग
कर जीना है। और
जागना कोई करना
थोड़े ही है! वह तो
तुम्हारी क्षमता
ही है। उसमें कुछ
कृत्य जैसा नहीं
है।
लेकिन
अहंकार आदर्शों
से पलता है। तुम
चकित होओगे। अहंकार
बहुत घबड़ाता है
इस बात से जो मैं
कह रहा हूं। क्योंकि
अगर मेरी बात तुमने
मानी तो अहंकार
इसी क्षण मर जाएगा।
फिर अहंकार को
सजाने के लिए कोई
उपाय न रहेगा।
अहंकार सजता है
आदर्शों से। न
तो कभी आदर्श मिलते, लेकिन
अहंकार की दौड़
हो जाती। दौड़ में
अहंकार है। और
आदर्श दौड़ की सुविधा
देते हैं। किसी
को धन कमाना है,
तो अहंकार को
सुविधा है। किसी
को पद पर पहुंचना
है, तो अहंकार
को सुविधा है।
किसी को मोक्ष
पाना है, तो
अहंकार को सुविधा
है। किसी को त्यागी
बनना है, तो
अहंकार को सुविधा
है। मैं कहता हूं.
कुछ बनना नहीं,
तुम हो! तो दौड़
खत्म। दौड़ गिरी,
अहंकार गिरा।
अहंकार
बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया
है। अगर तुमने
निरहकारिता का
आदर्श बना लिया
तो भी अहंकार बना
रहेगा। अहंकार
कहता है, निरहंकार
होना है। फिर चली
यात्रा, फिर
चल पड़े तुम। फिर
मन का व्यापार
शुरू हो गया।
तुम
कोई आदर्श मत बनाओ।
फिर देखो क्या
घटता है! तुम इतना
ही कह दो कि जो हूं
हूं ऐसा हूं! खोल
कर रख दो अपनी किताब, ढांको
मत। उदघोषणा कर
दो कि बुरा हूं
पापी हूं क्रोधी
हूं कामी हूं —ऐसा
हूं। और अपने बनाए
हूं ऐसा नहीं,
क्योंकि मैंने
कभी ऐसा बनना नहीं
चाहा। ऐसा मैंने
अपने को पाया है
तो मैं कर क्या
सकता हूं? देखूंगा
जो है। बैठ कर देखेंगे
इस खेल को, जो
प्रभु ने दिखाना
चाहा, जरूर
कोई राज होगा।
और राज है।
राज यही है कि इस
लीला को तुम देखने
वाले बन जाओ, तुम
द्रष्टा बन जाओ।
आदर्श तुम्हें
कर्ता बना देते
हैं; कुछ करने
का मौका हो जाता
है।
मैं
तुमसे आदर्श छीन
रहा हूं। अष्टावक्र
तुमसे आदर्श छीन
रहे हैं, सिर्फ
इसलिए ताकि कर्ता
को कोई जगह न बचे।
आदर्श गए तो करने
के सब उपाय गए।
फिर करोगे क्या?
फिर तो होना
ही बचा। शुद्ध
होना!
आदर्श
से सावधान रहना!
आदर्श के कारण
ही तुम्हारा जीवन
रिक्त रह गया है।
आदर्श के कारण
ही आदर्श नहीं
फल पाए, नहीं फूल
पाए। अगर सच में
ही तुम चाहते हो
कि आदर्श तुम्हारे
जीवन को भर दें
तो आदर्शों को
बिलकुल भूल जाओ
और जीवन के साक्षी
हो जाओ। जैसा है,
है। जो है, है। इस तथाता
में ठहरो। इसमें
रत्ती भर हेर—फेर
करने की आकांक्षा
मत करो। तुम हो
कौन? तुम हेर—फेर
कर कैसे सकोगे?
जरा
धार्मिक लोगों
की विडंबना तो
देखो! एक तरफ कहते
हैं,
उसके बिना हिलाए
पत्ता नहीं हिलता,
और ये महात्मा
बन रहे हैं—उसके
बिना हिलाए! इनसे
थोड़ा पूछो कि जब
उसके बिना हिलाए
पत्ता नहीं हिलता
तो यह पापी कैसे
हिलेगा? जब
वह हिलाका, हिलेगे। जब तक
नहीं हिलाता तो
जरूर कोई राज होगा,
स्वीकार करेंगे।
अगर दुख दे रहा
है तो जरूर मांजने
के लिए दे रहा होगा।
अगर कामना दी है
तो जरूर जलने के
लिए दी होगी। इसी
आग से गुजर कर निखरेगा
रूप। तो स्वीकार
करेंगे। पत्ता
नहीं हिलता उसकी
बिना आज्ञा के,
और तुम सारे
जीवन को बदल देने
की चेष्टा कर रहे
हो? तुम हो कौन?
और तुम्हारे
किए कब क्या हुआ
है?
और
फिर इस जाल को और
भी थोड़ा गौर से
देखो। तुम जो भी
करोगे, तुम्हीं
करोगे न? कामी
कोशिश करेगा ब्रह्मचर्य
लाने की, लेकिन
कामी कोशिश करेगा
न? कामी की कोशिश
कामना की ही
होगी।
क्रोधी कोशिश करेगा
करुणा की, क्रोधी
करेगा न? तो
क्रोधी की सारी
चेष्टा में क्रोध
होगा। करुणा भी
क्रोध से विषाक्त
हो जाएगी।
अहंकारी
विनम्र बनने की
चेष्टा करता है, पर
अहंकारी करता है।
तो तुम विनम्र
आदमियों को देखो!
उन जैसे सजे—सजाए
अहंकारी तुम्हें
कहीं भी न मिलेंगे।
कोई आदमी आता है,
तुमसे कहता है
: आपके पैरों की
धूल हूं मैं! वह
यह नहीं कह रहा
है कि मैं पैरों
की धूल हूं। वह
यह कह रहा है, मैं बड़ा विनम्र
आदमी हूं। वह यह
कह रहा है कि अब
तुम मुझसे कहो
कि नहीं—नहीं,
आप और पैरों
की धूल? आप तो
सरताज हैं! वह यह
सुनने को खड़ा है
कि बोलो अब! वह यह
कह रहा है कि छुओ
मेरे चरण! देखो
मैंने इतनी विनम्रता
दिखाई कि कहा कि
मैं तुम्हारे पैरों
की धूल हूं!
और
अगर तुमने मान
लिया कि नहीं, आप
बिलकुल ठीक कहते
हैं, पहले तो
मैं तो ऐसा मानता
ही हूं सदा से कि
आप बिलकुल पैरों
की धूल हैं। तो
वह आदमी तुम्हें
जिंदगी भर माफ
न कर सकेगा। हालांकि
कहा उसी ने था।
तुमने कुछ और कुछ
जोड़ा न था। तुमने
इतना ही कहा कि
आप बिलकुल ठीक
कह रहे हैं। सभी
को पता है। एक—एक
आदमी जानता है
इस गांव में कि
आप बिलकुल पैरों
की धूल, पैरों
की धूल से भी गए—बीते
हैं।
फिर
देखना उस आदमी
की आंख में कैसी
आग जलती है! तब तुम्हें
पक्का पता चलेगा
कि विनम्रता की
ओट में भी अहंकार
पलता है। लेकिन
स्वाभाविक है।
अहंकार ही विनम्र
होने की कोशिश
कर रहा है, अन्यथा
होगा भी कैसे?
तो
मैं तुम्हारे विपरीत
किन्हीं आदर्शों
को तुम्हारे ऊपर
नहीं थोपना चाहता।
क्योंकि तुम्हीं
थोपोगे उन्हें, अड़चन
खड़ी होगी। मैं
तो चाहता हूं कि
तुम जीवन, जैसा
तुम्हारा है,
जो तुम्हारे
जीवन का यथार्थ
है, उस यथार्थ
को समझो। उसी यथार्थ
की समझ में से खिलेंगे
फूल, उठेंगे
गीत। उसी यथार्थ
के बोध में से तुम्हारे
जीवन में क्रांति
घटेगी। क्रांति
घटती है—तुम्हारे
घटाए नहीं घटती।
तुम जाग कर देखने
लगो जो है—और घटती
है!
क्रांति
प्रभु—प्रसाद है।
दूसरा
प्रश्न :
एक
ही सपना बार—बार
पुनस्थ्य होता
है,
इसलिए पूछता
हूं। सपना ऐसा
है : मैं कार चला
रहा हूं, पहाड़ी
रास्ता है और यात्रा
ऊपर की ओर है। अचानक
कार पीछे की तरफ
जाने लगती है—रिवर्स।
और मैं रोकने की
कोशिश करता हूं, लेकिन न मैं गियर
संभाल पाता हूं
और न ब्रेक और न
स्टीयरिंग। असहाय
होकर दुर्घटना
के किनारे पहुंच
जाता हूं और तभी
चौंक कर जाग जाता
हूं। कभी—कभी कार
जब उतार पर होती
है, तब भी मेरा
सब नियंत्रण जाता
रहता है। लेकिन
एक बात सदा महसूस
होती है कि यद्यपि
मैं ड्राइवर हूं
तो भी मेरा पैर
एक्सीलरेटर पर
नहीं है। गाड़ी
अपने— आप चलती है।
मैं रोकने की कोशिश
करता हूं और नियंत्रण
नहीं रख पाता हूं।
पूछा है
'अजित सरस्वती'
ने।
सपना
महत्वपूर्ण है
और सभी के काम का
है। और अभी— अभी
जो मैं पहले प्रश्न
के उत्तर में कह
रहा था, उससे जुड़ा
हुआ है। उसी संदर्भ
में समझने की कोशिश
करना।
'मैं कार चला रहा
हूं, पहाड़ी
रास्ता है, यात्रा ऊपर की
ओर है। '
सभी
लोग जीवन को ऊपर
की ओर खींच रहे
हैं—पहाड़ी पर! आदर्श
यानी पहाड़, ऊपर!
सभी कोशिश कर रहे
हैं. गंगोत्री
में पहुंच जाएं
गंगा में तैर कर।
गंगा के साथ जाने
को कोई तैयार नहीं,
विपरीत जा रहे
हैं। धार के विपरीत
बह रहे हैं।
अहंकर
को मजा ही धार के
विपरीत बहने में
है। धार के साथ
बहने में क्या
मजा! धार के साथ
बहने में तो तुम
बचते ही नहीं, धार
ही बचती है। तुम्हारा
क्या है? छोड़
दिए हाथ—पैर, चल पड़े, तो
गंगा तुम्हें ले
जाएगी सागर तक,
गिरा देगी वहां
बंगाल की खाड़ी
में। लेकिन तुम्हारा
क्या? तुम इतना
भी तो न कह पाओगे
कि मैंने इतनी
यात्रा की। लोग
हंसेंगे। वे कहेंगे,
'तुमने यात्रा
की? यह तो गंगा
की यात्रा है।
तुम तो बचे कहां?
तुम तो उसी दिन
मिट गए जिस दिन
तुमने धार में
अपने को छोड़ा।
तुम तो बच सकते
थे एक ही तरकीब
से कि लड़ते धार
से, जाते ऊपर
की तरफ। उलटे बहते।
विपरीत करते कुछ।
तो
देखना तुम, तुम्हारा
त्यागी, तुम्हारा
महात्मा महत रूप
से अहंकारी हो
जाता है। वह धारे
के विपरीत बह रहा
है। वह तुमसे कहता
है. 'तुम क्या
हो, क्षुद्र
मनुष्य! पापी! कामवासना
में पड़े हो। देखो
मुझे, ब्रह्मचर्य
साध रहा हूं! तुम
हो क्या? जमीन
के कीड़े, लोभ
में पड़े हो, क्रोध में पडे
हो! क्षुद्र क्षणभंगुर
में पडे हो! मुझे
देखो, विराट
की तलाश कर रहा
हूं!'
तुम
जरा अपने महात्माओं
को जा कर गौर से
तो देखना। उनकी
आंख में ही तुम्हारी
निंदा है। उनके
व्यवहार में तुम्हारी
निंदा है। उनके
उठने—बैठने में
तुम्हारी निंदा
है। वे धारे के
विपरीत जा रहे
हैं। उन्होंने
अहंकार छोड़ने की
कोशिश की है, वासना
छोड़ी, क्रोध
छोड़ा, धन छोड़ा,
परिवार छोड़ा,
सब छोड़ा। तुम
क्या कर रहे हो?
तुम साधारण भोगी!
तुम गंगा में बह
रहे हो। तुम्हें
भी लगता है कि बात
तो ठीक है, हम
कर क्या रहे हैं?
इसलिए तुम भी
महात्माओं के चरण
छूते हो। महात्माओं
के चरण छूने में
तुम इतना ही कहते
हो कि करना तो हमको
भी यही है, कर
नहीं पा रहे, मजबूइरयां हैं,
हजार झंझटें
हैं, घर—द्वार,
बाल—बच्चे,
पाल ली उलझन!
कर नहीं पा रहे,
लेकिन आपको देख
कर प्रसन्नता होती
है कि चलो कोई तो
कर रहा है।
तुम
कोई आदमी शीर्षासन
लगाए खड़ा हो तो
रुक कर देखने लगते
हो। पैर के बल खड़े
आदमी को कौन देखता
है! वह कुछ उलटा
कर रहा है। काटो
पर कोई आदमी सोया
हो तो लोग फूल चढ़ाने
लगते हैं। लेकिन
तुम अच्छी शैया
लगा कर और लेट जाओ, कोई
फूल न चढ़ाका। उलटे
लोग पत्थर मारने
लगेंगे कि 'यह क्या लगा है?
बीच में, बाजार में उपद्रव
किया हुआ है! बिस्तर
अपने घर में लगाओ!'
लेकिन काटो की
शैया पर कोई सो
जाए तो लोग फूल
चढ़ाते हैं। अच्छे
बिस्तर पर, ज्ञानदार बिस्तर
को लगा कर कोई लेट
जाए तो लोग पत्थर
मारते हैं।
क्या, मामला
क्या है? आदमी
उलटे में रस लेता
मालूम होता है,
क्योंकि उलटे
में पता चलता है
कि कोई कुछ कर रहा
है।
'मैं कार चला रहा
हूं पहाड़ी रास्ता
है और यात्रा ऊपर
की ओर है।'
सभी
यही कर रहे हैं, यही
सबका सपना है,
और यही सबकी
जिंदगी है। और
तुम्हारी जिंदगी
इस सपने से भिन्न
नहीं है।
'अचानक कार पीछे
की तरफ जाने लगती
है—रिवर्स। और
मैं रोकने की कोशिश
करता हूं। '
ऐसे
मौके जीवन में
बहुत बार आएंगे
कि तुम तो ले जाना
चाहते हो पहाड़
की चोटी पर, लेकिन
जीवन की घटनाएं
तुम्हें पीछे की
तरफ ले जाने लगती
हैं। तब घबड़ाहट
पैदा होती है।
तुम तो जाना चाहते
हो गंगोत्री की
तरफ और गंगा जा
रही है सागर की
तरफ, वह तुम्हें
सागर की तरफ ले
जाने लगती है।
कई दफा तुम थक जाते।
कई दफा तुम हार
जाते। स्वाभाविक
के विपरीत कब तक
लड़ोगे? अगर
कार को ऊपर ले जाना
हो तो पेट्रोल
चाहिए। नीचे लाना
हो तो पेट्रोल
की कोई जरूरत नहीं
है, तो पेट्रोल
बंद कर दो, कार
अपने से चली आएगी,
क्योंकि नीचे
आना स्वाभाविक
है; ग्रेवीटेशन,
जमीन की कशिश
खींच लेती है।
ऊपर जाना अस्वाभाविक
है, इसलिए बड़ी
शक्ति की जरूरत
पड़ती है।
तो
हजार मौके आएंगे
जीवन में, जब
तुम अचानक पाओगे
कार पीछे की तरफ
सरकने लगी।
और
जब भी ऐसे मौके
आएंगे, तुम रोकने
की कोशिश करोगे;
क्योंकि यह तो
तुम्हारे अहंकार
के बिलकुल विपरीत
हो रहा है। यह तो
तुम्हारे संकल्प
के विपरीत हो रहा
है। यह तो तुम्हारी
हार हुई जाती,
यह तो तुम पराजित
होने लगे, यह
तो विफलता आ गई।
'और मैं रोकने
की कोशिश करता
हूं लेकिन न मैं
गियर सम्हाल पाता
हूं न ब्रेक और
न स्टीयरिंग।
'यह मेरे पास रहने
का परिणाम है अजित
सरस्वती! अब यह
संभलेगा नहीं।
अब न तो तुम गियर
सम्हाल पाओगे,
न ब्रेक सम्हाल
पाओगे, न स्टीयरिंग।
क्योंकि मेरा सारा
प्रयोजन तुम्हें
समझाने का इतना
ही है कि जीवन के
साथ एकरस हो जाओ।
जहां जीवन ले जाए
वहीं चलो, वहीं
मंजिल है।
तो
अब तुम सपने में
भी न रोक पाओगे, यह
शुभ है। रोक लेते
तो दुर्घटना थी।
यह शुभ है कि अब
सपने में भी तुम
रोक नहीं पाते।
तुम्हारा नियंत्रण
खो रहा है। तुम्हारा
नियंत्रण खो रहा
है, अर्थात
तुम्हारा अहंकार
खो रहा है, क्योंकि
अहंकार नियंता
है। जैसे ही तुमने
अहंकार छोड़ा,
परमात्मा नियंता
है, फिर तुम
नियंता नहीं हो।
जब तक तुम्हारा
अहंकार है, तुम नियंता हो,
तब तक परमात्मा
इत्यादि की तुम
कितनी ही बातें
करो, लेकिन
परमात्मा से तुम्हारा
कोई संबंध नहीं
बन सकता। तुम हो,
तो परमात्मा
नहीं है।
अच्छा
हो रहा है कि अब
न गियर सम्हलता, न ब्रेक
लगता, न स्टीयरिंग
पर पकड़ रह गई है।
' असहाय हो कर
दुर्घटना के किनारे
पहुंच जाता हूं।
'
वह
दुर्घटना जैसी
लगती है, क्योंकि
तुम ऊपर जाना चाहते
थे। खयाल रखना,
कौन—सी बात दुर्घटना
है? घटना पर
निर्भर नहीं होता,
तुम्हारी व्याख्या
पर निर्भर होता
है। तुम जो करना
चाहते थे उसके
विपरीत हो जाए
तो दुर्घटना है।
तुम जो करना चाहते
थे उसके अनुकूल
हो जाए तो सौभाग्य,
फिर दुर्घटना
नहीं है। तुम्हारे
ऊपर निर्भर है।
तो वह जो अहंकार
की छोटी—सी बची
हुई कहीं छिपी
कोने में पड़ी हुई
आशा है, वह तत्क्षण
कहती है, यह
तो दुर्घटना हुई
जा रही है! नियंत्रण
खोए दे रहे हो! यह
तो कार तुम्हारी
तुम्हारे हाथ के
बाहर हुई जा रही
है।
'असहाय हो कर दुर्घटना
के किनारे पहुंच
जाता हूं।'
तुम
नहीं चाहते और
पहुंच जाते हो, इसलिए
असहाय अवस्था मालूम
होती है। अगर तुम
चाहने लगो तो जिसे
तुम असहाय कह रहे
हो, वह असहाय
न रह जाएगी। उसी
अवस्था में तुम
पाओगे, जहां
तुमने अपना सब
आधार छोड़ा, वहीं, जहां
तुम निराधार हुए,
वहीं परमात्मा
का आधार मिला।
तब तुम अचानक पाओगे,
पहली दफा आसरा
मिला। अब तक असहाय
थे, क्योंकि
अपने सिवाय अपना
कोई सहारा नहीं
था। वह भी कोई सहारा
था? तिनकों
को पकड़े थे और सागर
में तैरने की सोचते
थे। कागज की नाव
में बैठे थे। अब
पहली दफा तुम पाओगे
कि बेसहारा हो
कर सहारा मिला।
हारे को हरिनाम!
जैसे
ही आदमी पूर्ण
रूप से हार जाता
है,
हरिनाम का उदघोष
होता है। निर्बल
के बल राम! जब तुम
बिलकुल निर्बल
सिद्ध हो जाते
हो, सब तरह से
असहाय, उसी
क्षण तुम्हें प्रभु
का सहारा मिलना
शुरू हो जाता है।
तुम्हारे कारण
ही बाधा पड़ रही
थी, अब कोई बाधा
न रही।
'असहाय हो कर दुर्घटना
के किनारे पहुंच
जाता हूं और तभी
चौंक कर जाग जाता
हूं। '
वहीं
जागने की घटना
घटेगी जहां अहंकार
बिलकुल असहाय हो
कर गिर जाता है।
यह सपना सुंदर
है। यह सपना बड़ा
सार्थक है। इसका
एक—एक प्रतीक मूल्यवान
है। इसलिए यह बार—बार
दोहर रहा होगा।
क्योंकि यह सपना
ही नहीं है, यह
अजित की जिंदगी
में भी घट रही बात
है। सपना तो उसका
प्रतिफलन है। सपना
तो केवल छाया है
अचेतन में—उस घटना
की जो उनके जीवन
में चारों तरफ
घट रही है।
'और तभी चौंक कर
जाग जाता हूं।
'
अगर
जागना हो तो बेसहारा
हो जाओ, असहाय
हो जाओ। जब तक तुम्हें
अकड़ रहेगी कि मैं
कुछ कर लूंगा,
तब तक तुम सोए
रहोगे। जब तक तुम्हें
अकड़ रहेगी कि मैं
कर्ता हूं तब तक
तुम सोए रहोगे।
जैसे ही तुम्हारी
अकड़ टूटने लगेगी,
न गियर सम्हलेगा,
न ब्रेक, न स्टीयरिंग,
अचानक गाड़ी चलने
लगेगी तुम्हारे
नियंत्रण के बाहर,
उसी क्षण तुम
जाग जाओगे।
अहंकार
मूर्च्छा है, निद्रा
है। निरहंकार होना
जाग जाना है, अमूर्च्छा है।
'कभी—कभी कार जब
उतार पर होती है,
तब भी मेरा सब
नियंत्रण जाता
रहता है। '
उतार
से ही हम डरते हैं।
उतार शब्द से ही
घबड़ाहट है। चढ़ाव
तो अहंकार को रस
देता है, उतार, तो बेचैनी शुरू
हो जाती है।
इसलिए
तो जवानी में रस
होता है, बुढापे
में बेचैनी शुरू
हो जाती है। कोई
का नहीं होना चाहता।
होना पड़ता है,
यह दूसरी बात
है। कोई होना नहीं
चाहता। और लोग
के भी हो जाते हैं,
तब तक दावा भी
करते रहते हैं
कि वे जवान हैं।
और लोग बड़े प्रसन्न
होते हैं उनकी
बात को सुन कर।
पंडित
जवाहरलाल नेहरू
बुढ़ापे तक कहते
रहे हैं कि मैं
जवान हूं! और सारा
मुल्क प्रसन्न
होता था कि बिलकुल
ठीक बात है।
यह
क्या बात हुई? चढ़ाव
पर ही रहने में
रस है, उतार
को स्वीकार करने
की भी हिम्मत नहीं?
लेकिन मुल्क
को बड़ा अच्छा लगता
था कि मुल्क का
प्रधानमंत्री
कहता है कि मैं
जवान हूं बुढ़ापे
में, कि मैं
साठ साल का जवान
हूं, कि मैं
पैंसठ साल का जवान
हूं! हम बड़े प्रसन्न
होते थे। वह प्रसन्नता
हमारे भीतर की
आकांक्षा को बताती
है। हममें से भी
कोई बूढ़ा नहीं
होना चाहता है।
हम सब जवान रहना
चाहते हैं। हम
सब चढ़ाव पर रहना
चाहते हैं, सदा चढ़ाव पर रहना
चाहते हैं।
मगर
सोचो भी तो, चढ़ाव
बिना उतार के हो
कैसे सकते हैं?
चढ़ते ही रहोगे
और उतार न होगा
तो पागल हो जाओगे।
हर पहाड़ के पास
खाई होगी, खड्ड
होगा। हर बड़ी लहर
के पीछे गड्डा
होगा। जवानी के
साथ बुढ़ापा जुड़ा
है। और अगर जवान
ही कोई रह जाए,
अटक जाए तो सड़ाध
पैदा होगी, बहाव मिट जाएगा।
का होना बिलकुल
स्वाभाविक है।
जैसे जवानी को
स्वीकार किया,
वैसे बुढ़ापे
को स्वीकार करना।
जो अटक गया जवानी
में, उसका प्रवाह
रुक गया।
बुढ़ापे
से हम सभी घबड़ाते
हैं। जब आदमी देखता
है पहले बाल सफेद
होने लगे, तो
बड़ा घबड़ा जाता
है। जब पहली दफा
देखता है पैर कंपता
है चलने में, हाथ थर्राता
है—बडा घबड़ा जाता
है। उतार आ गया!
और हम तो सोचते
थे, सदा जवान
रहेंगे। और हम
तो सोचते थे, सदा जीएंगे।
यह तो उतार आ गया!
अब मौत भी ज्यादा
दूर न होगी। यह
तो मौत का संदेशवाहक
आ गया।
बुढ़ापे
को —हम इंकार करते
हैं,
क्योंकि हम मौत
को इंकार करना
चाहते हैं। बुढ़ापा
तो सीडी है मौत
की तरफ। लेकिन
ध्यान रखना, जो बुढ़ापे को
इंकार करता है,
मृत्यु को इंकार
करता है, वह
जीवन को भी स्वीकार
नहीं कर पाता।
क्योंकि जीवन में
ही तो ये घटनाएं
घटती हैं—बुढ़ापा
और मृत्यु। ये
जीवन के ही तो अंतिम
चरण हैं। यह जीवन
का ही तो आखिरी
चरण, आखिरी
अभिव्यक्ति है।
यह आखिरी स्थिति
है। यह जीवन का
ही तो अंतिम उदघोष
है—मृत्यु। यह
जीवन का तार जो
अंतिम स्वर बजाता
है, वह मृत्यु
का है। तो फिर जीवन
को भी तुम प्रेम
नहीं कर पाते।
'नीचे आते कार
को देखता हूं तब
भी नियंत्रण जाता
रहता है। '
असल
में जब भी कोई चीज
नीचे आती है, तभी
तुम्हें पता चलता
है कि अपने नियंत्रण
में सब कुछ नहीं
है। जब तक चीजें
ठीक चलती हैं,
पत्नी झगड़ती
नहीं, बच्चे
ठीक से स्कूल में
पढ़ते हैं, धंधा,
दुकान कमाई में
चलती है—तब तक सब
ठीक है। तब तक तुम्हें
पता नहीं चलता
कि तुम असहाय हो।
फिर अचानक देखा
कि दुकान टूटी,
दिवाला निकल
गया। जब तक दीवाली,
तब तक ठीक; जब दिवाला, तब घबडाए कि यह
अपने बस के बाहर
हुई जा रही है बात।
मैं तो सोचता था,
सब अपने बस में
है, और दीवाली
ही दीवाली रहेगी।
यह
'दिवाला' शब्द
बड़ा बढ़िया है।
अब दीवाली बिना
दिवाले के हो कैसे
सकती है? दीवाली
तो स्त्री
है,
दिवाला तो पति
है। यह तो पूरा
जोड़ा ही है। तुम
सोचते थे, सिर्फ
दीवाली से गुजार
लें, मगर जब
पत्नी आ गई तो पति
भी आ रहा है पीछे
से। देर—अबेर आ
ही जाएगा।
पत्नी
ठीक है, कोई झगड़ा—झांसा
नहीं, सब ठीक
चल रहा है—तो तुम
सोचते हो बिलकुल
तरंग उठ रही है,
जीवन बड़ी प्रसन्नता
से भरा है, अहंकार
मजबूत है। जरा—सा
पत्नी कलह कर देती
है, जरा—सा उपद्रव
खड़ाहो जाता है
कि बस क्षण भर में
तुम्हारा सब संगीत
खो जाता है, सब लय विच्छिन्न
हो जाती है। तत्क्षण
तुम्हें पता चलता
है. अरे, यह नाव
डूबने वाली है!
तुमने
कभी खयाल किया, जरा—सा
झगड़ा हो जाए पत्नी
से, तुम सोच
लेते हो. कहां पड़
गए इसकी झंझट में,
क्यों विवाह
किया, यह मर
ही जाए तो बेहतर,
या कहीं छूट
निकलें तो अच्छा!
अभी क्षण भर पहले
सब ठीक चल रहा था,
तब अहंकार तरंगें
ले रहा था।
अहंकार
बड़ा घबड़ाता है
पराजय से, उतार
से। लेकिन उतार
ही मनुष्य को परमात्मा
की तरफ लाती है।
दीवाला ही परमात्मा
की तरफ लाता है।
अगर तुम जीतते
ही चले जाओ तो तुम
कभी धार्मिक बनोगे
ही नहीं। तुम्हारी
जीत में वस्तुत:
तुम्हारी नियति
की हार है। और जब
तुम हारते हो तब
पहली दफे तुम्हें
अपनी असली स्थिति
का पता चलता है
: हम इस विराट में
एक छोटी—सी तरंग
हैं, एक बूंद
हैं सागर में।
हमारी जीत क्या,
हमारी हार क्या!
जीत है तो उसकी,
हार है तो उसकी।
'लेकिन एक बात
सदा महसूस होती
है कि यद्यपि मैं
ड्राइवर होता हूं
तो भी मेरा पैर
ऐक्सीलरेटर पर
कभी नहीं होता।
'
यह
बात ठीक है। है
भी नहीं किसी का
पैर ऐक्सीलरेटर
पर। ऐक्सीलरेटर
पर पैर तो परमात्मा
का है।
तुम्हारी
हालत तो वैसी है
जैसे कोई छोटा
बच्चा बाप से कहता
है,
कार में बैठा
कर मुझे चलाने
दो। और बाप ऐक्सीलरेटर
पर पैर रखता है,
ब्रेक पर पैर
रखता है, स्टीयरिंग
भी पकड़े रहता है
और लड़के को संभलवा
देता है स्टीयरिंग
और लड़का बड़ा अकड़
से, बड़ा मजे
से.. हालांकि वह
जो घुमा रहा है
वह भी बाप ही घुमा
रहा है.. और बड़ा प्रसन्न
होता है कि गाड़ी
चला रहा है! उस वक्त
उसका चेहरा देखो,
उसकी प्रफुल्लता
देखो! वह चारों
तरफ देखता है कि
लोग देख लें कि
गाड़ी कौन चला रहा
है।
यह
जीवन की जो गाड़ी
है,
इस पर ऐक्सीलरेटर
पर पैर तुम्हारा
नहीं है, कभी
नहीं है; न स्टीयरिंग
तुम्हारे हाथ में
है। तुम छोटे बच्चे
की भांति हो, जो भांति में
पड़ गया है। गाड़ी
अपने आप चलती है,
गाड़ी अपने आप
ही चल रही है। तुम्हारे
चलाने की जरा भी
जरूरत नहीं। तुम
नाहक परेशान हो
रहे हो, पसीने—पसीने
हुए जा रहे हो।
यह बच्चा नाहक
परेशान हो रहा
है। यह सोच रहा
है, गाड़ी यह
चला रहा है, अगर न चलाए तो
मुश्किल हो जाएगी।
बड़ा हॉर्न बजा
रहा है। यह सोच
रहा है इसके बिना
तो सब अस्तव्यस्त
हो जाएगा यह सारा,
अभी दुर्घटना
हो जाएगी, कहीं
कोई टक्कर हो जाएगी।
यह पसीने—पसीने
हुए जा रहा है।
इसे पता नहीं कि
तेरे न हॉर्न बजाने
से कुछ होना है,
न तू गाड़ी को
संभाल रहा है।
गाड़ी कोई और संभाले
हुए है। किन्हीं
विराट हाथों में
सब है। हम सिर्फ
साक्षी हो जाएं।
कर्ता हम नहीं
हैं। हम सिर्फ
साक्षी हो जाएं,
तो बड़ी हंसी
आएगी। जीवन की
इस विडंबना पर
बड़ी हंसी आएगी
कि खूब मजाक रही।
'गाड़ी अपने— आप
चलती है। मैं रोकने
की कोशिश करता
हूं और नियंत्रण
नहीं रख पाता हूं।
'नियंत्रण छोड़
देना ही मेरी देशना
है। मैं तुमसे
कहता हूं. छोडो
सब नियंत्रण! तुम्हारे
हाथ बड़े छोटे हैं,
इनसे नियंत्रण
हो भी न सकेगा।
तुम छोड़ो प्रभु
पर। करने दो उसे
नियंत्रण। तुम
नहीं थे, तब
भी यह जगत चल रहा
था। फूल खिलते
थे, चांद निकलते
थे, वर्षा आती,
धूप आती! तुम
नहीं थे, तब
भी सब चल रहा था।
चांद—तारे घूमते,
सूरज निकलता!
तुम नहीं रहोगे,
तब भी सब चलता
रहेगा। इतना विराट
चल रहा है। तुम
नाहक इसमें परेशान
हो रहे हो।
मैंने
सुना है, एक छिपकली
राजा के महल में
रहती थी। स्वभावत:
राजा के महल में
रहती थी तो वह अपने
को सम्राट से कम
नहीं मानती थी।
कोई साधारण छिपकली
न थी। गांव की और
छिपकलियों में
उसका बड़ा समादर
था। उसको बड़े निमंत्रण
भी मिलते थे कि
आज इस जगह उदघाटन
कर दो, कि नई
छिपकली ने घर बसाया,
कि किसी छिपकली
का विवाह हो रहा
है, कि किसी
छिपकली को बच्चा
पैदा हुआ; लेकिन
वह कभी जाती नहीं,
वह मुस्कुरा
कर टाल देती। वह
कहती, किसी
और को ले जाओ, क्योंकि मैं
अगर चली गई तो इस
महल के छप्पर को
कौन सम्हालेगा?
यह महल गिर जाएगा।
छिपकली सोचती है
सम्हाले है छप्पर
को! कोई सम्हाले
नहीं। हमारे सम्हाले
कुछ सम्हला नहीं।
लेकिन हमारे अहंकार
के कारण हम यह बात
मानने को राजी
नहीं हो पाते कि
हमारे बिना भी
महल रह जाएगा।
असंभव!
वर्नर
इरहार्ड एक छोटी—सी
कहानी कहते हैं, कि
अमरीका के पहाड़ों
में बसे एक कबीले
में एक गुरु था।
वह रोज सांझ कों—उसके
पास एक जादुई कंबल
था—वह जोर से कंबल
को उठा कर घुमाता
और तत्क्षण आकाश
में तारे निकलने
शुरू हो जाते।
ऐसा सदियों से
होता रहा था। और
वह कबीला मानता
था कि गुरु के कंबल
में कुछ जादू है।
क्योंकि जब भी
गुरु घुमाता है
कंबल को, फिर
तुम जाओ बाहर और
देखना शुरू करो,
शीघ्र ही आकाश
में तारे दिखाई
पड़ने लगते हैं।
उस गुरु से लोग
बहुत डरते थे,
क्योंकि खतरनाक
मामला है, किसी
दिन कंबल न घुमाए,
फेंक दे कंबल,
कह दे कि नहीं
निकालते तारे—तो
क्या होगा?
फिर
ऐसा हुआ कि कोई
दूसरे कबीले का
चोर,
गुरु का कंबल
एक दफे चुरा कर
ले गया। अब गुरु
बड़ी मुश्किल में
पड़े। सबसे बड़ी
मुश्किल यह थी
.ऐसे तो गुरु को
भी यही भरोसा था,
उनके कंबल घुमाने
से तारे निकलते
हैं. सारा कबीला
उदास है कि अब क्या
करें? आज क्या
होगा? सब अस्तव्यस्त
हो गया। लेकिन
कुछ अस्तव्यस्त
न हुआ। तारे निकल
आए ठीक समय पर।
कहते हैं गुरु
ने आत्महत्या कर
ली। फिर कोई रहने
का कोई उपाय नहीं
रहा। लोग हंसने
लगे। उन्होंने
कहा, हम भी बड़ी
नासमझी में पड़े
थे। तारे निकलते
ही थे। कंबल से
तारों के निकलने
का कोई संबंध न
था। यह तो कंबल
ठीक वक्त पर घुमाते
थे। सूरज ढल गया,
ठीक समय तय था,
तब यह कंबल घुमा
देते थे। कंबल
के घुमाने और तारों
के निकलने में
कोई कार्य —कारण
का संबंध न था।।
कंबल घुमाओ न घुमाओ,
तारे निकलते
ही हैं।
तुम
करो न करो, जो
होता है होता है।
तुम्हारे किए कुछ
भी नहीं है। जिस
दिन यह बात तुम्हें
समझ में आ जाएगी,
जिस दिन तुम्हारा
कंबल चोरी चला
जाएगा.. और वही हुआ,
अजित सरस्वती
का कंबल चोरी जा
रहा है, खींच
रहा हूं धीरे— धीरे,
काफी तो निकल
गया है, थोड़ा—सा
पकड़े रह गए
हैं
वे हाथ में, वह
भी जिस दिन छूट
जाएगा, उसी
दिन यह सपना बंद
हो जाएगा। उस दिन
तुम अचानक पाओगे
: हम व्यर्थ ही परेशान
हो रहे थे; जीवन
चल ही रहा है, सुंदरतम ढंग
से चल रहा है। इससे
और ज्यादा गौरवशाली
ढंग हो नहीं सकता।
बड़ी गरिमा और प्रसाद
से चल रहा है। हम
व्यर्थ ही इसमें
शोरगुल मचा रहे
थे। हम व्यर्थ
ही चिल्ला रहे
थे, चीख रहे
थे।
हम
चीखते—चिल्लाते
हैं,
क्योंकि हमारा
अहंकार यह मानने
को राजी नहीं हो
पाता कि हमारे
बिना भी दुनिया
चलती रहेगी। हमारे
बिना, और दुनिया
चलती रहेगी त्र:
असंभव! हम गए कि
महल का छप्पर गिरा।
नहीं, महल
का छप्पर तुमसे
सम्हला नहीं है।
न तुम्हारे कंबल
के घुमाने से जीवन
चल रहा है। इस भ्रांति
को छोड़ देने का
नाम ही धर्म है।
तुम ईश्वर को मानो
या न मानो, धार्मिक
होने से ईश्वर
को मानने न मानने
का कुछ प्रयोजन
नहीं। तुम इसकी
भ्रांति छोड़ दो
कि मेरे चलाए सब
चल रहा है—तुम धार्मिक
हो गए; तुमने
जान ही लिया प्रभु
को; परमात्मा
अवतरित हो ही गया;
तुम उसके आमने
— सामने खड़े हो गए।
फिर साक्षात में
क्षण भर देर नहीं
होती।
तीसरा प्रश्न
:
मैंने
देश के अनेक आश्रमों
में देखा है कि
वहां के अंतेवासियो
के लिए कुछ न कुछ
अनिवार्य साधना
निश्चित है, जिसका
अभ्यास उन्हें
नियमित करना पड़ता
है। परंतु आश्चर्य
है कि यहां ऐसा
कोई साधन, अनुशासन
नहीं दिखता। कृपया
इस विशिष्टता पर
कछ प्रकाश डालने
की अनकंपा करें!
मैं यहां
मौजूद हूं मैं
तुम्हारा अनुशासन
हूं। जब मैं न रहूं
तब तुम्हें नियम, व्यवस्था,
अनुशासन की जरूरत
पड़ेगी। शास्ता
हो, तो शासन
की कोई जरूरत नहीं।
जब शास्ता
न हो तो शासन
परिपूरक है। मुर्दा
आश्रमों में तुमने
जरूर यह देखा होगा।
यह
एक जिंदा आश्रम
है। अभी यह जिंदा
है। मरेगा कभी—और
तब तुम निश्चित
मानो. नियम भी होंगे, अनुशासन
भी होगा। मेरे
जाते ही नियम होंगे,
अनुशासन होंगे;
क्योंकि तुम
बिना नियम— अनुशासन
के रह नहीं सकते—तुम
ऐसे गुलाम हो! मैं
भी लाख उपाय करता
हूं तब भी तुम बार—बार
पूछने लगते हो
: कुछ नियम, कुछ
अनुशासन! मेरी
सारी चेष्टा तुम्हें
समझाने की यह है
कि तुम्हारे हाथ
में कुछ भी नहीं
है। क्या अनुशासन?
क्या नियम?
तुम
पांच बजे सुबह
उठ आओगे तो ज्ञान
को उपलब्ध हो जाओगे? किस
मूढ़ता में पड़े
हो? पांच बजे
उठो कि चार बजे
उठो कि तीन बजे
उठो, तुम मूढ़
के मूढ़ ही रहोगे।
मूढ़ पांच बजे उठे
कि तीन बजे, कोई फर्क नहीं
पड़ता। घड़ी से तुम्हारे
आत्मज्ञान का कोई
संबंध नहीं है।
मगर मूढ़ों को रस
मिलता है। उनको
कम से कम कुछ सहारा
मिल जाता है। मैं
उनको कोई सहारा
नहीं देता। उनको
अगर मैं कह दूं
ब्रह्ममुहूर्त
में उठो तो ब्रह्मज्ञान
होगा...। हालांकि
उन्हें तकलीफ होगी
उठने में पांच
बजे, अड़चन पाएंगे,
लेकिन अड़चन में
मजा आएगा; क्योंकि
अड़चन में लगेगा
कार ऊपर की तरफ
चढ़ रही है। उनको
मैं कह दूं रोज
सुबह शीर्षासन
लगा कर खड़े हो जाओ.।
बुद्ध मालूम पड़ेंगे
शीर्षासन करते
हुए। कौन आदमी
सुंदर मालूम पड़ता
है सिर के बल खड़ा!
लेकिन तकलीफ भी
होगी, गर्दन
भी दुखेगी; लेकिन फिर भी
उनको रस आएगा।
वे कहेंगे, चलो कुछ कर तो
रहे, मोक्ष
की तरफ बढ़ तो रहे!
मैं
तुमसे कह रहा हूं
तुम मुक्त हो।
ही,
तुम्हें अगर
आनंद आता हो पांच
बजे उठने में,
बराबर उठो,
लेकिन पाच बजे
उठने से मोक्ष
मिलेगा, इस
भ्रांति में मत
पड़ना। तुम्हें
अगर सिर के बल खड़े
होने से रस मिलता
हो, बराबर खड़े
हो जाओ, मैं
तुम्हें रोकता
नहीं। लेकिन मैं
तुमसे यह नहीं
कह सकता हूं कि
सिर के बल तुम खड़े
हो गए तो संबोधि
की घटना घट जाएगी।
तुम सस्ती तरकीबें
चाहते हो, मैं
तुम्हें कोई तरकीब
नहीं देता।
मेरे
रहते इस आश्रम
में कोई नियम, अनुशासन
होने वाला नहीं
है। मेरे रहते
यह आश्रम अराजक
रहेगा, क्योंकि
अराजकता जीवन का
लक्षण है। मैं
तुम्हें परिपूर्ण
स्वतंत्रता देता
हूं कि तुम जो भी
होना चाहो और जैसे
भी होना चाहो,
जागरूकता—पूर्वक
वही होने में रस
लो।
पूछा
है 'स्वामी योग चिन्मय'
ने। बार—बार,
चिन्मय घूम—फिर
कर यही पूछते हैं।
जिन मुर्दा आश्रमों
में उनको जाने
का दुर्भाग्य से
अवसर मिला, उनसे पीछा नहीं
छूटता। क्योंकि
कहीं कोई एक दफे
भोजन करते हैं,
कहीं कोई तीन
बजे रात उठते हैं,
कहीं कोई सिर
के बल खड़े होते
हैं, नौली— धोती
करते हैं, कहीं
कोई योगासन साधते
हैं, कहीं क्रियायोग,
कहीं कुछ, कहीं कुछ। और
सब एक जबर्दस्त
अनुशासन की तरह,
कि न किया तो
पाप, अपराध;
किया तो पुण्य!
ये मूढ़ता के लक्षण
हैं।
मैं
तुम्हें स्वतंत्रता
देता हूं। मैं
तुम्हें अपराधी
नहीं सिद्ध करना
चाहता किसी भी
कारण से। क्योंकि
नियम दूंगा तो
उसके पीछे अपराध
का भाव आता है।
किसी दिन पांच
बजे सुबह तुम न
उठ पाए तो पीछे
से अपराध का भाव
आता है कि आज आज्ञा
का उल्लंघन हो
गया;
तुम्हें मैंने
अपराधी कर दिया।
पांच बजे उठने
से तो कुछ मिलने
वाला था नहीं।
इतनी सस्ती बात
नहीं है। स्वास्थ्यपूर्ण
है पांच बजे उठो,
लेकिन मोक्ष
से कुछ लेना—देना
नहीं है। ताजी
हवा होती है, सुंदर सुबह होती
है, एस्थेटिक
है। सौंदर्य का
जिन्हें बोध है,
वे सुबह पांच
बजे उठेंगे; लेकिन धर्म से
इसका कुछ लेना—देना
नहीं। जिन्हें
थोड़ा काव्य का
रस है वे चूकेंगे
नहीं, क्योंकि
सुबह पांच बजे
जैसी दुनिया होती
है, जैसी सुंदर,
आदमी से अछूती!
अभी सब बुद्ध और
बुद्धिमान, सब सो रहे हैं,
अभी दुनिया अछूती
है, जैसी भगवान
ने बनाई होगी,
कुछ—कुछ वैसी
है! तो पांच बजे
जिनको थोड़ा भी
जीवन में रस है,
वे जरूर उठेंगे।
मेरी
बात को तुम समझ
लेना। मैं यह नहीं
कह रहा हूं तुम
पांच बजे मत उठो।
मैं तो कह रहा हूं.
जिनमें थोड़ी भी
समझ है वे जरूर
उठेंगे। लेकिन
यह अनुशासन नहीं
है। उठे, तो तुम्हारी
मौज।
उठे, तो
तुमने लाभ लिया,
फल मिल गया।
तुम्हें मैं कोई
प्रमाण—पत्र न
दूंगा कि तुम महाज्ञानी
हो, क्योंकि
पांच बजे उठते
हो; क्योंकि
तुम उठे तो तुमने
लाभ ले लिया, अब और कुछ प्रशंसा
की जरूरत नहीं
है। अगर न उठे तो
तुम चूक गए। एक
सुंदर सुबह थी
मौजूद, तुम्हारे
द्वार खटखटाई थी,
तुम पड़े सोए
रहे, घुर्राते
रहे। बाहर संगीत
फैल रहा था, सुबह का सूरज
ऊगा था, तुम
आंखें बंद किए
अपनी तंद्रा में
पड़े रहे, तुम
चूक गए! दंड तुम्हें
काफी मिल गया।
अब और मैं तुम्हें
इसके ऊपर से अपराधी
सिद्ध करूं कि
तुमने आज्ञा का
उल्लंघन किया—यह
तो गलत हो जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दिन
जा रहा था अपनी
कार से। तेज चला
रहा था। पुलिस
वाले ने रोका।
पुलिस वाले के
रोकते ही.. पीछे
पत्नी बैठी थी
मुल्ला की गाड़ी
में। वह एकदम मुल्ला
पर नाराज होने
लगी कि हजार दफे
कहा कि तुम आंख
के अंधे हो? तुम्हें
दिखाई नहीं पड़ता?
कि इतनी तेजी
से कार मत चलाओ
पू तुम्हें मीटर
नहीं दिखाई पड़ता?
और तुम्हें मैं
पूरे वक्त चिल्लाती
रहती हूं कि बाएं
घूमो, दाएं
घूमो, फिर भी
तुम चले जा रहे
हो। न तुम्हें
लाइट दिखाई पड़ती
है कि अब यह गाड़ी
जाने की है कि नहीं
है। तुम होश में
हो?
वह
पुलिस वाला यह
सब सुनता रहा।
आखिर उसने मुल्ला
से कहा कि अब आप
जाइए, आपको सजा
पहले ही काफी मिल
चुकी, अब और
क्या सजा? यह
पत्नी काफी है।
जो
आदमी सुबह नहीं
उठा,
उसे सजा काफी
मिल चुकी। अब और
क्या उस बेचारे
को, गरीब को
और दंड दे रहे हैं
कि पापी है, कि अपराधी है,
कि आज्ञा का
उल्लंघन हो गया!
नहीं, मैं
तुम्हें कोई अनुशासन
नहीं देता। मैं
तो तुम्हें सिर्फ
केवल एक बोध —मात्र
देता हूं कि तुम
जो भी करो जाग कर
करो।
अब
रह गई बात.. पूछा
है,
अनिवार्य साधना?
कुछ अनिवार्य
नहीं है यहां।
क्योंकि जो भी
अनिवार्य हो,
वह बंधन बन जाता
है। जो करना ही
पड़े, वह बंधन
बन जाता है। इसी
तरह तो हमने बहुत
सुंदर चीजें खराब
कर दीं। जो करना
ही पड़े, उसका
रस ही खो जाता है।
तुम गए, और मां
है, तो उसके
पैर छूना ही चाहिए,
वह अनिवार्य
है, तो मां के
पैर छूते हो—मजा
खो गया, अनिवार्य
हो गया! उससे मौज
चली गई, उसमें
से मुक्ति चली
गई। अब तुम छूते
हो, क्योंकि
मां है और सदा छूना
चाहिए, इसलिए
छूते हों—स्व नियम,
औपचारिकता।
मुल्ला
एक दिन अपने घर
आया। और उसने देखा
उसका मित्र उसकी
पत्नी को चूम रहा
है ?इा तो वह बड़ा हैरान
हो गया, सकते
में खड़ा हो गया।
मित्र भी घबड़ा
गया, पत्नी
भी घबड़ा गई और वह
कुछ बोले ही नहीं।
मित्र ने पूछा,
कुछ बोलो तो!
उसने कहा, बोलें
क्या! मुझे तो करना
पड़ता है यह, लेकिन तुम क्यों
कर रहे हो? मुझे
तुम्हारी बुद्धि
पर तरस आता है।
खैर, मेरी वह
पत्नी है तो मुझे
वह करना पड़ता है।
इसमें कोई... मगर
तुम्हें क्या हुआ?
जो
करना पड़ता है, उसमें
से सब रस चला जाता
है—वह चाहे पत्नी
का चुंबन ही क्यों
न हो। दुलार और
प्रेम और आलिंगन
भी कष्टपूर्ण मालूम
होने लगते हैं,
अगर करने पड़े।
अनिवार्य...! मैं
एक संस्कृत विद्यालय
में शिक्षक था।
जब मैं पहले —पहले
वहां गया तो संस्कृत
महाविद्यालय था,
तो पंडितों का
राज्य था वहां
तो। मैं तो बिलकुल
एक उपद्रव की तरह
वहां पहुंच गया।
कुछ भूल—चूक हो
गई सरकार की, वह मुझे वहां
ट्रांसफर कर दिया।
जल्दी उन्होंने
फिर सुधार ली,
छ: महीनों में
मुझे वहां से हटाया,
क्योंकि वहां
बड़ा उपद्रव शुरू
हो गया। वे तो सब
पंडित थे और वहां
तो उन्होंने बड़ी
अजीब हालत कर रखी
थी।
तो
मैं,
कोई मेरे पास
रहने की जगह न थी
तो छात्रावास में
मैं रुका। कोई
सत्तर अस्सी विद्यार्थी
छात्रावास में
थे। उनको तीन बजे
रात उठना पड़ता
था, अनिवार्य।
संस्कृत महाविद्यालय!
कोई इस आधुनिक
सदी का तो नहीं,
गुरुकुल पुराना!
तीन बजे रात उठना!
सर्दी हो कि गर्मी,
वर्षा हो कि
कुछ, तीन बजे
तो उठना ही पड़ता।
और फिर सबको कुएं
पर जा कर स्नान
करना है। मैं भी
—गया। जब तीन बजे
पूरा होस्टल उठ
आया तो मैं भी उठा,
मैं भी गया कुएं
पर। मुझे लोग तब
जानते भी नहीं
थे। पहले ही दिन
आया था, तो किसी
ने मेरी फिक्र
भी नहीं की। वे
अपने नहा रहे थे
और वे गाली दे रहे
थे प्रिंसिपल से
ले कर परमात्मा
तक को—मां —बहन की
गाली! मैंने सुना,
यह भी खूब हो
रहा है! इस गाली—गलौज
के बाद फिर उनको
प्रार्थना करने
खड़ा होना पड़ता
था, तो वे किसी
तरह प्रार्थना
करते। मैंने प्रिंसिपल
को कहा कि देखो,
तुम नर्क में
सडोगे। उसने कहा,
क्या मतलब?
मैंने
कहा कि ये लड़के, सत्तर
लड़के, रोज सुबह
अनिवार्य रूप से
प्रिंसिपल से ले
कर परमात्मा तक
को गाली देते हैं।
तुम्हें गाली ठीक,
मगर परमात्मा
को गाली पड़ रही
हैं, तुम इसके
कारण हो।
यह
अनिवार्यता खतरनाक
है,
मैंने कहा।
उसने
कहा,
नहीं, यह
अनिवार्य नहीं
है; जैसा कि
लोग हमेशा कहते
हैं। यह तो लोग
अपनी स्वेच्छा
से, अपने मजे
से करते हैं। तो
मैंने कहा, फिर मेरे हाथ
में आप दे दो। मैं
नोटिस लगा देता
हूं और कल तीन बजे
सुबह आप भी कुएं
पर मौजूद हो जाना
और मैं भी हो जाऊंगा।
नोटिस
मैंने लगा दिया
कि 'जिनको करना हो
स्नान तीन बजे
केवल वे ही उठें;
जिनको प्रार्थना
में सम्मिलित होना
हो केवल वे ही उठें।
कोई अनिवार्यता
आज से नहीं है।
'
मेरे
और प्रिंसिपल के
सिवाय कुएं पर
कोई नहीं था। मैंने
पूछा, कहो जनाब!
अब अगर हिम्मत
हो तो डूब जाओ कुएं
में!
उन्होंने
मुझे छह महीने
के भीतर वहां से
कहा कि नहीं, आप
यहां से जाओ, यह सब गड़बड़ कर
दिया! सब ठीक चल
रहा था।
इसको
ठीक चलना कहते
हो?
अनिवार्यता
त्र: प्रार्थना
और अनिवार्य हो
सकती है? प्रेम
और अनिवार्य हो
सकता है? पूजा
और अनिवार्य हो
सकती है? अनिवार्य
तो केवल चीजें
कारागृह में होती
हैं। जीवन में
कुछ भी अनिवार्य
नहीं। भूल कर भी
किसी चीज को अनिवार्य
मत करना, अन्यथा
उसी क्षण उस चीज
का मूल्य नष्ट
हो जाएगा।
'जीवन बड़ा नाजुक
है, फूल जैसा
नाजुक है! इस पर
अनिवार्यता के
पत्थर मत रख देना,
नहीं तो फूल
मर जाएगा। मुझसे
कोई आ कर भी पूछता
है, आश्रमवासी
हैं, मुझसे
पूछते हैं आ कर
कि हम अनिवार्य
—रूप से आपको सुबह
सुनने आएं? मैं कहता हूं, भूल कर मत आना।
अनिवार्य, और
मुझे सुनने? तुम मुझे गालियां
देने लगोगे। तुम्हें
आना हो तो आना,
तुम्हें न आना
हो तो न आना। और
भूल कर भी अपराध
अनुभव मत करना
कि हम आश्रम में
रहते हैं और हम
सुनने न गए और लोग
इतने दूर से आते
हैं! इसकी फिक्र
छोड़ो। तुम्हारी
जब मौज हो, तब
तुम आ जाना। तो
अगर महीने में
तुम एक बार भी आए
तो इतना पा लोगे
जितना कि अनिवार्य
आ कर महीने भर में
भी नहीं पा सकते
थे; क्योंकि
पाने की घटना तो
प्रेम से घटती
है।
तो
यहां अनिवार्य
कुछ भी नहीं है।
और अनुशासन जो
बाहर से थोपा जाए
वे तो बेड़ियां
हैं। मैं तुमसे
कहूं कि ध्यान
करो,
यह भी कोई बात
हुई? मैं रोज
सुबह समझा रहा
हूं ध्यान का रस,
बहाता रसधार
सुबह रोज ध्यान
की, गंगा तुम्हारे
सामने कर देता
हूं—अब यह भी तुमसे
कहूं कि रोज गंगा
में स्नान करो,
कि रोज पीयो
जलधार? अब यह
तुम्हारी मर्जी
है। इतना क्या
कम है कि मैंने
गंगा तुम्हारे
सामने ला दी। अब
यह भी मुझे करना
पड़ेगा? गंगा
का इतना गुणगान
कर दिया, अब
ठीक है, अब तुम्हारी
मौज। तुम्हें ध्यान
करना हो करो, न करना हो न करो।
लेकिन मैं तुमसे
यह नहीं कहूंगा
कि अनिवार्य रूप
से तुम्हें ध्यान
करना है। क्योंकि
जैसे ही अनिवार्य
हुई कोई बात वैसे
ही गड़ने लगती है,
कांटे की तरह
गड़ने लगती है।
ध्यान जैसी महिमापूर्ण
चीज को खराब तो
मत करो।
तो
तुम पूछे हो कि
अनिवार्य साधना
निश्चित होती आश्रमों
में,
जिसका अभ्यास
उन्हें नियमित
करना होता है।
नहीं, यहां
मेरे पास कुछ भी
नियम नहीं है और
न कोई अभ्यास है
तुम्हें देने को।
सब अभ्यास अहंकार
के हैं। अध्यात्म
का कोई अभ्यास
नहीं। मैं तो कहता
हूं. जागो! इति ज्ञानं!
यही ज्ञान है! इति
ध्यान! यही ध्यान
है! इति मोक्ष:! यही
मोक्ष है!
तुम
जाग कर जीने लगो, ध्यान
तुम्हारे चौबीस
घंटे पर फैल जाएगा।
ध्यान कोई ऐसी
चीज थोड़े ही है
कि कर लिया सुबह
उठ कर और भूल गए
फिर। ध्यान तो
ऐसी धारा है जो
तुम्हारे भीतर
बहनी चाहिए। ध्यान
तो ऐसा सूत्र है
जो तुम्हारे भीतर
बना रहना चाहिए;
जो तुम्हारे
सारे कृत्यों को
पिरो दे एक माला
में। जैसे हम माला
बनाते हैं तो फूलों
को धागे में पिरो
देते हैं, फूल
दिखाई पड़ते, धागा तो दिखाई
भी नहीं पड़ता—ऐसा
ही ध्यान होना
चाहिए, दिखाई
ही न पड़े। जीवन
के सब काम— उठना—बैठना,
खाना—पीना,
चलना, बोलना,
सुनना, सब—फूल
की तरह ध्यान में
अनस्थूत हो जाएं,
ध्यान का धागा
सब में फैल जाए।
तो
ध्यान तो मेरे
लिए जागरण और साक्षी—
भाव का नाम है।
और
जब मैं न रहूंगा, तब
निश्चित यह उपद्रव
होने वाला है।
क्योंकि कोई न
कोई 'योग चिन्मय'
इस कुर्सी पर
बैठ जायेंगे। ऐसी
मुश्किल है यह
कुर्सी खाली थोड़े
ही रहेगी। कोई
न कोई चलाने लगेगा
अनुशासन। जिस दिन
अनुशासन चलने लगे,
उस दिन समझना
मेरा संबंध टूट
गया इस जगह से।
जिस दिन यहां नियम
हो जाए, अनिवार्यता
हो जाए, अभ्यास
हो जाए, उस दिन
जानना यह मेरा
आश्रम न रहा; यह एक मुर्दा
आश्रम हो गया,
जो जुड़ गया दूसरे
मुर्दा आश्रमों
से।
मेरे
जीते—जी ऐसा न हो
सकेगा। मैं स्वयं
जी रहा हूं और तुम्हें
भी जिंदा देखना
चाहता हूं मुर्दा
नहीं। मैं तुम्हें
साधक नहीं मानता।
मैं तुम्हें सिद्ध
मानता हूं। और
मैं चाहता हूं
कि तुम भी अपनी
सिद्धावस्था को
स्वीकार कर लो।
मैं चाहता हूं
कि तुम भी कह सको
: अहो,
मेरा मुझको नमन!
चौथा
प्रश्न :
आबू
में जो अनुभव हुआ
था,
वह अब प्रगाढ़
हो गया है। सतत
आनंद का भाव बना
रहता है। जीवन
धन्य हो गया प्रभु!
जो अनुभव में आया
है, उसे कह नहीं
पाती। अहोभाव के
सागर में तैर रही
हूं। मेरे अनंत
प्रणाम स्वीकार
करें।
पूछा है
'हेमा' ने।
हेमा
को जो आबू में हुआ
था,
वह निश्चित अनूठा
था। जिसको झेन
फकीर सतोरी कहते
हैं, समाधि
की पहली झलक, हेमा को आबू में
घटी। इतनी आकस्मिक
थी कि वह खुद भी
भरोसा न कर पाई।
तीन दिन तक वह हंसती
ही रही, उसकी
हंसी देखने—योग्य
थी। वैसी हंसी
तुम्हें फिर कहीं
और सुनाई नहीं
पड़ सकती। वैसी
हंसी केवल सतोरी
के बाद ही आती है।
यह
मैंने उससे तब
कहा भी नहीं था
कि यह सतोरी है, आज
कहता हूं। क्योंकि
उस वक्त कहने से
उसका अहंकार मजबूत
हो सकता था। अब
डर नहीं है।
वह
तीन दिन तक हंसती
ही रही। उसकी हंसी
बड़ी अलौकिक थी।
वह रुक ही न पाती
थी;
अकारण, सतत
हंसी जारी रही।
ऐसा
बोधिधर्म के जीवन
में उल्लेख है, जब
उसे पहली दफे समाधि
उपलब्ध हुई तो
वह हंसता ही रहा
तीन दिन तक। हंसता
रहा इस बात पर,
कि भरोसा ही
न आए कि क्या हो
गया—और ऐसा रस,
और ऐसी गुदगुदी
कि भीतर से कोई
गुदगुदाए जा रहा
है। अपनी सीमा
में न रहा।
उसके
परिवार के लोग
चिंतित भी हुए
कि यह पागल हो गई।
स्वभावत:, मिनट
दो मिनट की हंसी
भी कठिन मालूम
होने लगती है।
हम रोने के ऐसे
आदी हैं कि अगर
आदमी तीन दिन रोता
रहे तो कोई पागल
न कहेगा। देखो
मजा, उसको हम
स्वीकार करते हैं।
लेकिन अगर कोई
आदमी तीन दिन तक
सतत हंसता रहे
तो पागल निश्चित
हो गया। यहां आनंदित
होने में बड़ा खतरा
है। यहां लोग ऐसे
दुख में रहे हैं
कि दुख को तो स्वीकार
करते हैं; आनंद
तो संभव ही नहीं
है, ऐसा मान
लिया है; सिर्फ
पागलों को हो सकता
है।
सिगमंड
फ्रॉयड ने अपने
जीवन भर के अनुभवों
के बाद लिखा है
कि आदमी सुखी हो
ही नहीं सकता।
चालीस साल का सतत
मनोविश्लेषण, हजारों—हजारों
रोगियों का इलाज
और उसके बाद उसका
यह अनुभव है कि
आदमी सुखी हो ही
नहीं सकता। यह
असंभव है। दुख
आदमी की नियति
है। तो जब सिगमंड
फ्रॉयड जैसा विचारशील
व्यक्ति यह कहे
तो सोचना पड़ता
है कि जरूर दुख
आदमी की नियति
बन गया है। कृष्ण
अपवाद मालूम होते
हैं, नियम नहीं।
बांसुरी लगता नहीं
कि बज सकती है जीवन
में। और कभी—कभी
जब हम बांसुरी
में डूबते भी हैं
तो सिर्फ इसीलिए
कि जीवन का दुख
भूल जाए, और
कुछ नहीं। बांसुरी
में हमें रस नहीं
है; जीवन का
दुख भुलाने का
एक उपाय है, विस्मरण की एक
व्यवस्था है।
हेमा
जब हंसी थी तो वह
हंसी वही थी जो
बोधिधर्म की हंसी
थी। वह तीन दिन
तक हंसती रही।
उसके परिवार, प्रियजनों
में तो बड़ी घबड़ाहट
फैल गई। उसके परिवार
और प्रियजनों में
से जो मुझे सुनने
आते थे, उन सबने
आना बंद कर दिया.
हेमा तो पागल हो
गई! लेकिन बड़ी अनूठी
घटना घटी थी।
पूछा
है उसने. 'आबू में
जो अनुभव हुआ था
वह अब प्रगाढ़ हो
गया है। सतत आनंद
का भाव बना रहता
है, जीवन धन्य
हो गया है प्रभु।
जो अनुभव में आया
उसे कह नहीं पाती।
अहोभाव के सागर
में तैर रही हूं।
'
अब
हंसी खो गई है।
वह उद्वेग चला
गया। क्योंकि वह
उद्वेग तो प्राथमिक
क्षण में ही होता
है। फिर तो हंसी
धीरे— धीरे रोएं—रोएं
में समा गई है।
अब वह प्रफुल्लित
है,
आनंदित है। एक
स्मित है व्यक्तित्व
में। अब रस सिर्फ
ओंठों में नहीं
है।
जब
पहली दफे घटता
है तो हंसी बड़ी
प्रगाढ़ होती है, फिर
धीरे— धीरे हंसी
संतुलित हो जाती
है, धीरे— धीरे
व्यक्तित्व में
समा जाती है। एक
सहज अहोभाव और
एक आनंद का भाव
निर्मित हो जाता
हे
निश्चित
ही जो अनुभव में
आया है, वह कहती
है, उसे कहा
नहीं जा सकता।
कोई उसे कभी नहीं
कह पाया है। जितना
ज्यादा अनुभव में
आता है उतना ही
कहना मुश्किल हो
जाता है।
बाहर
वह खोया पाया मैला
उजला
दिन—दिन
होता जाता वयस्क
दिन—दिन
धुंधलाती आंखों
से
सुस्पष्ट
देखता जाता था
पहचान
रहा था रूप
पा रहा
वाणी और बूझता
शब्द
पर दिन—दिन
अधिकाधिक हकलाता
था
दिन—पर—दिन
उसकी घिग्घी बंधती
जाती थी
धुंध
से ढंकी हुई, कितनी
गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी
लघु अंजुलि हमारी!
हाथ
हमारे छोटे हैं।
प्रभु का आनंद—लोक
बहुत बड़ा है।
धुंध
से ढंकी हुई, कितनी
गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी
लघु अंजुलि हमारी!
जितना
ही कोई जानता है, उतना
ही हकलाता है।
जितना ही कोई जानता
है, उतनी ही
घिग्घी बंधती जाती
है। कहने को मुश्किल
होने लगता है।
जो
कहना है वह तो कहा
नहीं जा सकता।
उसके आसपास ही
प्रयास चलता है।
तो
ठीक,
'जो अनुभव में
आया उसे कह नहीं
पाती। अहोभाव के
सागर में तैर रही
हूं। '
उसे
कहने की फिक्र
भी मत करना। अन्यथा
उस चेष्टा से भी
तनाव पैदा होगा।
समाधि
बहुत लोगों को
घटती है, बहुत थोड़े—से
लोग उसे कहने में
थोड़े —बहुत समर्थ
हो पाते हैं। हेमा
से वह नहीं होगा।
उस चेष्टा में
पड़ेगी तो उसके
भीतर जो घट रहा
है उसमें अवरोध
आ जाएगा, बाधा
आ जाएगी। कहने
की फिक्र ही मत
करो। अगर बहुत
कहने का मन होने
लगे—और होगा मन—क्योंकि
जब भीतर कुछ घटता
है तो हम बांटना
चाहते, साझीदार
बनाना चाहते औरों
को।
जब रस
भीतर बहता है तो
हम चाहते हैं किसी
और को भी मिल जाए।
लोग इतने प्यासे
हैं,
लोग इतने भूखे
हैं, लोग इतने
जल रहे हैं, तो बांटने की
इच्छा पैदा होती
है। लेकिन जब भी
कहने का सवाल उठे
तो कहने की जगह
हंसना, हेमा!
नाचना, गुनगुनाना!
उससे आसान होगा।
शब्द तुम न बना
सकोगी। शब्द तुम्हारा
संभव नहीं होगा।
कुछ और ढंग से तुम्हें
कहना होगा—जैसे
मीरा ने कहा, गुनगुना कर कहा;
बुद्ध ने कह
कर कहा; जैसे
चैतन्य ने कहा,
ले गए, ले
कर मंजीरा और मृदंग,
नाचते हुए कहने
लगे।
अपना
ढंग खोजना होगा।
शब्द निश्चित तुम्हारा
ढंग नहीं है। हंसो, नाचो,
गुनगुनाओ—हजार
ढंग हो सकते हैं।
लेकिन
अपना ढंग खोजना
ही पड़ता है, जब
घटना घट जाती है।
नहीं तो भीतर कुछ
उबलने लगता है।
और भीतर कुछ तैयार
होता है, पकता
है —और हम उसे बांट
न पाएं तो बोझिल
होने लगते हैं,
जैसे वर्षा के
मेघ जब भर जाते
जल से तो वर्षा
होती है। वर्षा
स्वाभाविक है।
(इतने में किसी
को जोर से रुलाई
आई और लोग उसे रोकने
को दौड़े। भगवान
श्री ने एक संन्यासी
को संबोधित करते
हुए कहा : 'संत,
छोड़ दो। छोड़
दो उन्हें। छोड़
दो। छोड़ दो उन्हें।
वह शांत हो जाएंगे,
छोड़ दो। बिलकुल
छोड़ दो, अलग
हट जाओ। दूर हट
जाओ उनसे।')
प्रत्येक
को अपनी विधि, अपनी
व्यवस्था खोजना
पड़ती है। अभिव्यक्ति
सभी के लिए एक जैसी
नहीं हो सकती।
फिर स्त्री—पुरुषों
में भी बड़ा फर्क
है। इसलिए तो तुम्हें
स्त्री सदगुरु
बहुत कम दिखाई
पड़ते हैँ—उसका
कारण यह नहीं है
कि स्त्रियां मोक्ष
को उपलब्ध नहीं
हुईं। मेरे देखे
तो स्त्रियां मोक्ष
को ज्यादा आसानी
से उपलब्ध हो सकती
हैं, बजाय पुरुषों
के। क्योंकि पुरुषों
के अहंकार को गिरने
में बड़ी देर लगती
है। स्त्रियों
का अहंकार बड़ी
सरलता से गिर जाता
है। लेकिन फिर
भी तुम्हें बुद्ध,
महावीर, पार्श्व,
कृष्ण, क्राइस्ट,
शंकर, नागार्जुन
ऐसे पुरुषों की
श्रृंखलाबद्ध
कतार दिखाई पड़ती
है— ऐसे स्त्रियों
के नाम लेने जाओ
तो उंगलियों पर
भी नहीं गिने जा
सकते। कभी कोई
सहजो, कोई मीरा,
राबिया, थैरेसा—बस
ऐसे तीन चार नाम
हैं। इसका यह अर्थ
नहीं है, इस
गलत तर्क में मत
पड़ जाना कि इसलिए
स्त्रियां मोक्ष
को उपलब्ध नहीं
हुईं, या स्त्रियों
ने पाया नहीं,
या स्त्रियां
पा नहीं सकतीं।
स्त्रियों
ने पाया—उतना ही
जितना पुरुषों
ने,
शायद थोड़ा ज्यादा।
लेकिन स्त्रियां
शब्द में नहीं
कह पातीं। यह अड़चन
है। और बिना शब्द
में कहे, तुम्हें
बुद्ध का पता न
चलता अगर बुद्ध
ने शब्द में न कहा
होता। अगर बुद्ध
चुप बैठे रहते
बोधि—वृक्ष के
नीचे, किसी
को कानों—कान खबर
न होती। अगर मैं
न बोलूं तो तुम
यहां न आ सकोगे।
मैं तो न बोल कर
भी मैं ही रहूंगा।
क्या फर्क पड़ेगा
मेरे न बोलने से?
मेरे लिए कोई
फर्क न पड़ेगा,
लेकिन तुम न
आ सकोगे।
तुम
मुझे सुनने आए
हों—सुनते —सुनते
शायद तुम फंस भी
जाओ,
सुनते—सुनते
शायद तुम मेरे
साथ उलझ भी जाओ,
सुनते —सुनते
शायद तुम मुझमें
धीरे — धीरे पग जाओ।
लेकिन आए थे तुम
सुनने। सुनते—सुनते
शायद तुम गुनने
भी लगो। गुनते
—गुनते शायद तुम
गुनगुनाने भी लगो।
मेरे पास बैठते—बैठते
हो सकता है यह पागलपन
तुम्हें भी छू
जाए। तुम मदमस्त
हो जाओ। लेकिन
तुम आए थे मुझे
सुनने।
शब्द
की गति है जगत में।
शब्द के अतिरिक्त
और कोई संवाद का
उपाय नहीं दिखाई
पड़ता।
इसलिए
स्त्रियां सदगुरु
तो हुईं, लेकिन
उनका पता भी नहीं
चल सका। ज्ञान
को तो उपलब्ध हुईं,
लेकिन वे गुरु
न बन पाईं। शिष्य
तो शब्द सुनने
आते हैं। मीरा
ने ऐसे अदभुत भजन
गाए, फिर भी
कोई शिष्य थोड़े
ही पैदा कर पाई
मीरा। कोई मीरा
की स्थिति सदगुरु
की तरह थोड़े ही
है। अदभुत गाया,
जिन्होंने सुना
उन्होंने भी रस
पाया; लेकिन
गुरु की स्थिति
तो नहीं बन पाई।
क्योंकि गुरु का
तो अर्थ ही यह है
: जो मीरा को मिला
था वही वह दूसरों
को भी मिलाने में
सहयोगी हो जाती।
वह नहीं हो पाया।
स्त्री के चित्त
की अपनी व्यवस्था
है।
तो
मैं हेमा से यही
कहूंगा : अगर तुझे
भर जाए भाव, बांटने
का मन होने लगे
और शब्द कहने को
न मिलें, किसी
के पैर दबाने लगना;
वह तेरा रास्ता
होगा। किसी का
सिर दबाने लगना,
किसी को प्रेम
देना, नाचना,
गाना, गुनगुनाना!
खोजना कोई उपाय।
शब्द तो तेरा उपाय
नहीं हो सकता।
लेकिन बांटना तो
पड़ता है, बिना
बांटे रहा नहीं
जा सकता। जब सुगंध
आ गई फूल में तो
पंखुरी को खिलना
ही होगा, सुगंध
को विसर्जित होना
ही होगा, गंध
चढेगी पंखों पर
हवा के, जाएगी
दूर—दूर लोकों
तक, तो नियति
पूरी होती है।
ऐ कल्पना
के दर्पण!
तन—मन
तुझ पर अर्पण
जब होंगे
तेरे दर्शन
धड़कन
हरसूं होगी।
कोयल
की तरह मेरा
चंचल
मन मचलेगा
जब आम
के पेड़ों पर
हरसूं
कू—कू होगी।
जब
समाधि की पहली
झलक आती है तो ऐसा
ही होता है।
ऐ कल्पना
के दर्पण!
तन—मन
तुझ पर अर्पण
जब होंगे
तेरे दर्शन
धड़कन
हरसूं होगी।
तब
तुम्हारा हृदय
ही नहीं धड़कता
है जब समाधि फलित
होती है —तब तुम
पहली दफे पाते
हो तुम्हारे हृदय
के साथ सारा जगत
धड़क रहा है। पत्थर
भी धड़क रहे हैं; वहां
भी हृदय है। वृक्ष
भी धड़क रहे हैं,
चांद—तारे भी
धड़क रहे हैं। तब
तुम्हारी धड़कन
के साथ सारा जगत
एक लयबद्ध, एक छंदोबद्ध
गति में आ जाता
है—एक गीत, एक
संगीत—जिसमें तुम
अलग नहीं हो; एक विराट आर्केस्ट्रा
के हिस्से हो गए
हो!
कोयल
की तरह मेरा
चंचल
मन मचलेगा
जब आम
के पेड़ों पर
हरसूं
कू—कू होगी।
यह
किसी बाहर की कोयल
की बात नहीं है
और यह किसी बाहर
के आमों की बात
नहीं है। भीतर
भी वसंत आता है।
भीतर की कोयल भी
कू—कू करती है।
उस
घटना के करीब है
हेमा। अगर चलती
रही और इस बात को
सुन कर कि मुझे
समाधि की पहली
प्रतीति हुई है, अकड़
न गई..। क्योंकि
उस अकड़ में ही मर
जाता सब। इसलिए
पहली दफा वर्षों
पहले जब उसे आबू
में हुआ था, मैंने कुछ कहा
नहीं, मैं चुप
ही रहा। अब कहता
हूं लेकिन फिर
भी खतरा तो सदा
है। अब इस बात को
बहुत अहंकार का
हिस्सा मत बना
लेना। नहीं तो
जो हुआ है वह वहीं
अटक जाएगा। जहां
अहंकार आया वहीं
गति अवरुद्ध हो
जाती है।
ऐसा
हुआ है तो यह मत
सोचना कि मेरे
किए हुआ है। ऐसा
सोचना, प्रभु
का प्रसाद है! ऐसा
सोचना कि कृतज्ञ
उसकी, उसका
आशीष है! ऐसा सोचना
कि मैं अपात्र,
कैसे यह हो पाया!
आश्चर्य! अहो! अहोभाव
का इतना ही अर्थ
है कि भीतर अहो
का भाव उठता रहे,
कि अहो, मुझे
होना नहीं था और
हुआ! मैं पात्र
नहीं थी, और
हुआ! अपात्र थी,
और हुआ!
उसकी 'अनुकंपा
अपार है!
आखिरी
प्रश्न :
गर
जाम नहीं है हाथों
में, आंखों से
पिला दे, काफी
है। अब जीने की
है फिक्र किसे,
तू मुझे मिटा
दे, काफी है।
अब डोर तेरे ही
हाथों में, जी भर के नचा दे,
काफी है। ना
होश रहे बाकी,
ऐसा— पागल ही
बना दे, काफी
है। अब अमृत की
है चाह किसे, तू जहर पिला दे,
काफी है।
पूछा है
'हंस' ने।
हंस
के पास कवि का हृदय
है : और ठीक जो उसके
हृदय में हो रहा
है,
वही इन शब्दों
में बांध दिया
है।
जो
अभी हृदय में हो
रहा है, जिसकी
अभी थोड़ी— थोड़ी
झलक है, वह कभी
समय पा कर, ठीक
अवसर पर, ठीक
मौसम में पका हुआ
फल
भी बनेगा।
तुम नाचोगे! तुम
मस्त हो कर नाचोगे!
और
जो व्यक्ति जहर
पीने को राजी हो
गया है मस्ती में, उसके
लिए जहर भी अमृत
हो जाता है। जो
प्रभु के साथ चलने
को राजी हो गया
है—सब स्थितियों
में, चाहे जहर
पिलाए तो भी, चाहे नर्क
में
फेंक दे तो भी—उसका
नर्क समाप्त हुआ; अब
उसके लिए स्वर्ग
ही स्वर्ग है।
'गर
जाम नहीं है हाथों
में
आंखों
से पिला दे, काफी
है।
अब जीने
की है फिक्र किसे
तू मुझे
मिटा दे, काफी है।
अब डोर
तेरे ही हाथों
में
जी भर
के नचा दे, काफी
है।
ना होश
रहे बाकी, ऐसा
पागल
ही बना दे, काफी
है।
अब अमृत
की है चाह किसे
तू जहर
पिला दे, काफी है।
'
यह
होगा। पिलाऊंगा।
यह घटना घटेगी।
भरे आशा से, प्रतीक्षा
से, स्वीकार
से तुम तैयार रहो—यह
घटना घटेगी। यह
घटना घटनी शुरू
ही हो गई है। यह
तुम्हारे गीत में
तुमने जो भाव बाधा
है, उसी सुबह
की पहली किरण है।
प्राची लाल होने
लगी, प्राची
पर लाली होने लगी—सूरज
ऊगेगा! सूरज ऊगता
ही है, हम जरा
राजी भर हो जाएं।
हमारे न राजी होने
पर भी सूरज तो ऊगता
ही है, लेकिन
हम आंख खोल कर नहीं
देखते। तो हम अंधेरे
में ही रहे आते
हैं। आंख बंद,
तो हमारी रात
जारी रहती है।
जब हम राजी हो जाते
हैं तो हम आंख खोल
कर देखने की तत्परता
दिखाते हैं! सूरज
तो ऊगता ही रहा
है। हर रात के बाद
सुबह है। हर भटकन
के बाद पड़ाव है।
हर संसार के बाद
मोक्ष है। बस हम
आंख खोल कर देखने
को तैयार हों!
हरि ओंम तत्सत्!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें