दिनांक
25 दिसम्बर, 1973;
वुडलैण्ड्स,
बम्बई,
संध्या।
योगसूत्र:
अथ
योगानुशासनम्
।।1।।
अब योग
का अनुशासन।
योगक्षित्तवृत्तिनिरोधः।।2।।
योग
मन की समाप्ति
है।
तदास्तु:
स्वस्वपेऽवस्थानम्।।
3।।
तब साक्षी
स्वयं में स्थापित
हो जाता है।
वृत्तिसास्वषमितरत्र।।
४।।
अन्य
अवस्थाओं में
मन की
वृत्तियों के
साथ तादात्म्य
हो जाता है।
हम
एक गहरी
भ्रांति में
जीते हैं—आशा
की भांति में, किसी
आने वाले कल
की, भविष्य
की भ्रांति
में। जैसा
आदमी है, वह
आत्म—वंचनाओं
के बिना जी
नहीं सकता।
नीत्से ने एक
जगह कहा है कि
आदमी सत्य के
साथ नहीं जी
सकता; उसे
चाहिए सपने, भ्रांतियां;
उसे कई तरह
के झूठ चाहिए
जीने के लिए।
और नीत्से ने
जो यह कहा है, वह सच है।
जैसा मनुष्य
है, वह
सत्य के साथ
नहीं जी सकता।
इस बात को
बहुत गहरे में
समझने की जरूरत
है, क्योंकि
इसे समझे बिना
उस अन्वेषण
में नहीं उतरा
जा सकता जिसे
योग कहते हैं।
और
इसके लिए मन
को गहराई से
समझना होगा—उस
मन को जिसे
झूठ की जरूरत
है,
जिसे
भ्रांतियां
चाहिए उस मन
को जो सत्य के
साथ नहीं जी
सकता; मन
जिसे सपनों की
बड़ी जरूरत है।
तुम
केवल रात में
ही सपने नहीं
देखते; तुम
तो जब जाग रहे
हो तब भी
लगातार सपने
ही देखे चले
जाते हो। तुम
मुझे देख रहे
हो, सुन
रहे हो, लेकिन
एक सपने की
धारा लगातार
तुम में दौड़ी
चली जा रही है।
मन लगातार
सपने, स्वप्न
और कल्पनाएं
बनाता जा रहा
है।
अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
मनुष्य नींद
के बिना तो जी
सकता है, लेकिन
सपनों के बिना
नहीं जी सकता।
पुराने समय
में समझा जाता
था कि नींद
जीवन की बड़ी जरूरत
है। लेकिन अब आधुनिक
खोजें कहती
हैं कि नींद
सचमुच कोई बड़ी
जरूरत नहीं है।
नींद की जरूरत
है, ताकि
तुम सपने देख
सको। सपने जस्वरी
हैं। यदि
तुम्हें नींद
में सपने न
देखने दिया
जाए, तो
सुबह तुम अपने
को ताजा और
जीवंत नहीं
पाओगे। तुम
स्वयं को इतना
थका हुआ पाओगे
जैसे कि बिलकुल
सो ही नहीं
पाये।
रात
कुछ समय होता
है गहरी नींद
का और कुछ समय
होता है सपनों
का। एक आवर्तन
है,
एक लय है।
जैसे रात और
दिन के आने
जाने की एक लय
है। आरम्भ में
तुम गहरी नींद
में उतर जाते
हो, कोई
चालीस या
पैंतालीस मिनट
के लिए। फिर स्वप्नवस्था
प्रारम्भ
होती है और
तुम सपने
देखने लगते हो।
फिर स्वप्नहीन
निद्रा आ जाती
है, और
उसके बाद फिर
से सपनों का
आना शुरू हो
जाता है। सारी
रात यह क्रम
चलता है। यदि
तुम्हारी
नींद में उस
समय बाधा आये
जब तुम स्वप्नरहित
गहरी नींद में
सो रहे हो, तो
सुबह तुम ऐसा
अनुभव नहीं
करोगे कि कहीं
कुछ खोया है।
लेकिन नींद
यदि उस समय
टूटे जब तुम
सपने देख रहे
हो तब सुबह
तुम स्वयं को
बिलकुल थका
हुआ और निढाल—सा
पाओगे।
अब
इन बातों को
बाहर से भी
जाना जा सकता
है। यदि कोई
सो रहा है तो
तुम जान सकते
हो कि वह सपने देख
रहा है या नही।
अगर वह सपने देख
रहा है तो उसकी
आंखे लगातार
गतिमान हो रही
होगी—मानो वह बंद
आंखों से कुछ
देख रहा है।
जब वह स्वप्नरहित
गहरी नींद में
है तो उसकी आंखे
गतिमान नहीं
होंगी; ठहरी हुई
होगी। जब आंखें
गतिमान हों और
तुम्हें बाधा पहुंचाई
जाये, तो सुबह
तुम थके—मांदे
अनुभव करोगे।
और यदि आंखें
थिर हों और नींद
तोड़ी जाये तो सुबह
उठने पर कोई
थकावट महसूस नहीं
होती, कुछ खोता
नहीं।
अनेकों
शोधकर्ताओं ने
प्रमाणित कर दिया
है कि मनुष्य का
मन सपनों पर ही
पलता है।
यद्यपि सपना पूर्णत
एक स्वचालित वचना
है। फिर यह सपनों
की बात केवल रात
के विषय में ही
सच नहीं है; जब
तुम जागे हुए होते
हो तब भी मन में
कुछ ऐसी ही प्रक्रिया
चलती रहती है।
दिन में भी
तुम अनुभव कर सकते
हो कि किसी समय
मन में स्वप्न
तैर रहे होते है
और किसी समय स्वप्न
हीं होते है।
दिन
में जब सपने चल
रहे है और अगर तुम
कुछ कर रहे हो तो
तुम
अनुपस्थित—से होओगे
क्योंकि कही
भीतर तुम व्यस्त
हो। उदाहरण के
लिए,
तुम यहाँ हो
यदि तुम्हारा मन
स्वप्निल दशा में
से गुजर रहा है,
तो तुम मुझे
सुनोगे बिना कुछ
सुने क्योंकि मन
भीतर व्यस्त
है। और अगर तुम
ऐसी स्वप्निल दशा
में नहीं हो, तो ही केवल तुम
मुझे सुन सकते
हो।
मन
दिन—रात
इन्हीं
अवस्थाओं के
बीच डोलता
रहता है—गैर—स्वप्न
से स्वप्न
में,
फिर स्वप्न
से गैर—स्वप्न
में। यह एक आंतरिक
लय है। इसलिए ऐसा
नहीं है कि हम सिर्फ
रात्रि में ही
निरंतर सपने देखते
है, जीवन में
भी हम अपनी
आशाओं को
भविष्य की और प्रक्षेपित
करते रहते है।
वर्तमान
तो लगभग हमेशा
नरक जैसा है।
तुम उसके साथ जी
लेते हो तो उन
आशाओ के सहारे
ही,
जिन्हें
तुमने भविष्य में
प्रक्षेपित कर
रखा है। तुम
आज जी लेते हो,
आने वाले कल
के भरोसे। तुम
आशा किये चले
जा रहे हो कि कल
कुछ न कुछ घटित
होगा कि कल किसी
न किसी स्वर्ग
के द्वार खुलेगे।
वे आज तो हरगिज
नहीं खुलते।
और कल जब आता है
तो वह कल की तरह
नही आता; वह
'आज' की
तरह आता है।
पर तब तक तुम्हारा
मन फिर से कहीं
और आगे बढ़ चुका
होता है। तुम
अपने से भी
आगे दौड़ते चले
जाते हो यही है
सपनों का अर्थ।
तुम यथार्थ से
तो एकात्म नहीं
हो, वह जो कि
पास है, वह जो
यहां और अभी उपस्थित
है। तुम कहीं
और हो, आगे गतिमान—आगे
कूदते—फांदते!
उस
कल को, उस
भविष्य को तुमने
कई—कई नाम दे रखे
है। कुछ लोग उसे
स्वर्ग कहते है,
कुछ मोक्ष कहते
हैं। लेकिन यह
सदा भविष्य में
है। कोई धन के बारे
में सोच रहा है,
पर वह धन भी
भविष्य में ही
मिलने वाला है।
कोई स्वर्ग की
आकांक्षा में खोया
हुआ है, पर वह
स्वर्ग मृत्यु
के उपरांत ही
आने वाला है।
स्वर्ग है दूर,
सुदूर किसी
भविष्य में।
जो नहीं है उसी
के लिए तुम
अपना वर्तमान खोते
हो—यही है स्वप्न
में जीने का
अर्थ। तुम अभी
और यहीं नहीं
हो सकते। इस
क्षण में होना
दु:साध्य प्रतीत
होता है।
तुम
अतीत में जी
सकते हो, क्योंकि
वह भी स्वप्नवत
है : उन बातों की
स्मृतिया, यादें,
जो अब नहीं हैं।
और या तुम
भविष्य में जी
सकते हो, लेकिन
वह भी एक प्रक्षेपण
है, यह फिर
अतीत में से ही
कुछ निर्मित करना
है। भविष्य कुछ
और नही, वरन
अतीत की ही प्रति
छबि है—ज्यादा
रंगीन, ज्यादा
सुंदर, ज्यादा
खुशनुमा, लेकिन
वह है तो अतीत का
ही एक परिष्कृत
स्वप्न।
तुम
अतीत के सिवा
और किसी चीज के
बारे में सोच ही
नहीं सकते। और
भविष्य भी
अतीत की प्रतिछाया
है। न तो अतीत
अस्तित्वगत
है और न
भविष्य। है तो
वर्तमान ही, लेकिन
तुम कभी उसमें
नहीं होते।
यही है सपनों
में जीने का
अर्थ। तो
नीत्से सही है
जब वह कहता है
कि मनुष्य सत्य
के संग जी
नहीं सकता।
उसे झूठ चाहिए,
उसी के
सहारे वह जी सकता
है।
नीत्से
कहता है कि हम
सब कहे जाते
हैं कि हमें सत्य
चाहिए, लेकिन
कोई सत्य को
नहीं चाहता।
हमारे
तथाकथित सत्य
कुछ और नहीं, झूठ ही हैं—सुंदर
झूठ! नग्न
वास्तविकता
को देखने को
कोई तैयार
नहीं है।
यह
जो मन है वह
योग के पथ पर
प्रवेश नहीं
कर सकता
क्योंकि योग
सत्य को
उद्घाटित
करने की एक
पद्धति है।
योग तो एक
विधि है स्वप्नविहीन
मन तक पहुंचने
की। योग
विज्ञान है—अभी
और यहां होने
का। योग का
अर्थ है कि अब
तुम तैयार हो
कि भविष्य की
कल्पना न
करोगे। इसका
अर्थ है कि
तुम्हारी वह
अवस्था है कि
अब तुम न
आशाएं
बांधोगे और न
स्वयं की
सत्ता से, वर्तमान
क्षण से आगे
छलांग लगाओगे।
योग का अर्थ
है. सत्य का
साक्षात्कार—जैसा
वह है।
इसलिए
योग के मार्ग
में वही
प्रवेश कर
सकता है जो
अपने मन से
जैसा वह है, बिलकुल
थक गया हो, निराश
हो गया हो।
यदि तुम अब भी
आशा किये चले
जा रहे हो कि
तुम मन द्वारा
कुछ न कुछ पा
लोगे, तो
योग का यह पथ
तुम्हारे लिए
नहीं है।
समग्र पराजय
का भाव चाहिए
इस सत्य का
रहस्योद्घाटन
कि यह मन जो
आशाओं को
पक्के रखता है,
यह मन जो
प्रक्षेपण
करता है, यह
व्यर्थ है; यह निरर्थक
है और यह कहीं
नहीं ले जाता।
यह मन
तुम्हारी आख
बंद कर देता
है, तुम्हें
मूर्च्छित
करता है और
कभी भी सत्य
तुम्हें
प्रगट हो सके
इसका कोई मौका
नहीं देता। यह
मन तुम्हें
सत्य से बचाता
है।
तुम्हारा
मन एक नशा है।
जो है—मन उसके
विरुद्ध है।
इसलिए जब तक
तुम अपने मन
को,
अपने अब तक
के होने के
ढंग को पूरी
तरह व्यर्थ हुआ
न जान लो; जब
तक इस मन को
तुम बेशर्त छोड़
न सको, तब
तक तुम योग—मार्ग
में प्रवेश
नहीं कर सकते।
कई
व्यक्ति योग
में उत्सुक
होते हैं, लेकिन
बहुत कम लोग
ही योग में
प्रवेश कर
पाते हैं।
क्योंकि
तुम्हारी
रुचि भी मन के
कारण ही बनती
है। शायद तुम
आशा बनाते हो
कि अब योग के
द्वारा तुम
कुछ पा लोगे; कुछ पाने का
प्रयोजन तो
बना ही रहता
है। तुम सोचते
हो कि शायद
योग तुम्हें
एक सम्पूर्ण
योगी बना देगा;
तुम
आनंदपूर्ण
अवस्था तक
पहुंच जाओगे;
तुम ब्रह्म
में लीन हो
जाओगे; शायद
तुम्हें
सच्चिदानंद—अस्तित्व,
चैतन्य और
परमानंद मिल
जाये! और अगर
यही बातें योग
में रस लेने
का, अभिरुचि
बनाने का कारण
है तो कभी भी
तुम्हारा मिलन
उस पथ से नहीं
हो सकता, जिसे
योग कहते हैं।
इस मनोदशा में
तो तुम इस
मार्ग के
पूर्णत: विरुद्ध
हो; तो तुम
बिलकुल ही
विपरीत दिशा
में चल रहे हो।
योग
का अर्थ है कि
अब कोई आशा न बची, अब
कोई भविष्य न
रहा, अब
कोई इच्छा न
बची। अब
व्यक्ति
तैयार है उसे
जानने के लिए,
जो है। अब
कोई रुचि न
रही इस बात
में कि क्या
हो सकता है, क्या होना
चाहिए या कि
क्या होना
चाहिए था। जरा
भी रस न रहा।
अब केवल उसी
में रस है—जो
है। क्योंकि
केवल सत्य ही
तुम्हें
मुक्त कर सकता
है, केवल
वास्तविकता
ही मुक्ति बन
सकती है।
परिपूर्ण
निराशा की जरूरत
है। ऐसी
निराशा को ही
बुद्ध ने दुख
कहा है। और
अगर सचमुच ही
तुम्हें दुख
है,
तो आशा मत
बनाओ, क्योंकि
तुम्हारी आशा
दुख को और आगे
बढ़ा देगी।
तुम्हारी आशा
एक नशा है जो तुम्हें
और कहीं नहीं,
केवल
मृत्यु तक
जाने में
सहायक हो सकती
है। तुम्हारी
सारी आशाएं
तुम्हें केवल
मृत्यु में पहुंचा
सकती है। वे
तुम्हें वहीं
ले ही जा रही
हैं।
पूर्ण
स्वप्न से
आशा रहित हो
जाओ। अगर कोई
भविष्य नहीं
बचता तो आशा
भी नहीं बचती।
बेशक यह कठिन
है। सत्य का
सामना करने के
लिए बड़े साहस
की जरूरत है।
लेकिन देर—अबेर
वह क्षण आता
है। हर आदमी
के जीवन में
वह क्षण आता
ही है, जब वह
परिपूर्ण
निराशा का
अनुभव करता है।
नितान्त
अर्थहीनता का
भाव घटित होता
है उसके साथ।
जब उसे बोध
होता है कि वह
जो कुछ कर रहा
है, व्यर्थ
है; जहां
कहीं भी जा
रहा है, कहीं
पहुंच नहीं पा
रहा है; कि
सारा जीवन
अर्थहीन है—तब
अनायास ही
आशाएं गिर
जाती हैं, भविष्य
खो जाता है और
तब पहली बार
वह वर्तमान के
साथ लयबद्ध
होता है। तब
पहली बार सत्य
से आमना—सामना
होता है।
जब
तक तुम्हारे
लिए यह क्षण न
आये तब तक
कितने ही
योगासन किये
चले जाओ लेकिन
वह योग नहीं
है। योग तो
अंतस की ओर
मुड़ना है। यह
पूरी तरह
विपरीत मुड़ना
है। जब तुम
भविष्य में
गति नहीं कर
रहे हो, जब
तुम अतीत में
नहीं भटक रहे
हो, तब तुम
अपने भीतर की
ओर गतिमान
होने लगते हो,
क्योंकि
तुम्हारा
अस्तित्व अभी
और यहीं है, वह भविष्य
में नहीं है।
तुम अभी और
यहां उपस्थित
हो— अब तुम
यथार्थ में
प्रविष्ट हो
सकते हो। तब
मन का इसी
क्षण में
उपस्थित रहना
जस्वरी है।
पतंजलि
का पहला सूत्र
इसी क्षण की
ओर संकेत करता
है। इससे पहले
कि इस प्रथम
सूत्र पर
चर्चा हो, कुछ
और बातें समझ
लेनी होंगी।
पहली बात, योग
कोई धर्म नहीं
है, यह बात
स्मरण रहे।
योग हिन्दू
नहीं है, मुसलमान
नहीं है। योग
तो एक विशुद्ध
वितान है—गणित,
फिजिक्स या
कैमिस्ट्री
की तरह।
फिजिक्स न तो
ईसाई है और न
बौद्ध। चाहे
ईसाइयों
द्वारा ही
फिजिक्स के
नियमों की खोज
की गयी हो, लेकिन
फिर भी इस
विज्ञान को
ईसाई नहीं कहा
जा सकता। यह
संयोग मात्र
है कि ईसाइयों
ने फिजिक्स के
नियमों का
अन्वेषण किया।
भौतिकी वितान
तो मात्र
वितान है। और
योग भी मात्र
एक विज्ञान है।
यह फिर एक
संयोगपूर्ण
घटना ही है कि
हिंदुओं ने
योग को खोजा। लेकिन
इससे यह
हिन्दू तो न
हुआ। यह तो एक
विशुद्ध गणित
हुआ आंतरिक
अस्तित्व का।
इसलिए एक
मुसलमान भी
योगी हो सकता
है; ईसाई
भी योगी हो
सकता है। इसी
तरह एक जैन, एक बौद्ध भी
योगी हो सकता
है।
योग
तो शुद्ध
विज्ञान है।
और जहां तक
योग—विज्ञान
की बात है
पतंजलि इस
क्षेत्र के
सबसे बड़े नाम हैं।
यह पुरुष विरल
है। किसी अन्य
की पतंजलि के
साथ तुलना
नहीं की जा सकती।
मनुष्यता के
इतिहास में
धर्म को पहली
बार वितान की
अवस्था तक
लाया गया।
पतंजलि ने
धर्म को मात्र
नियमों का
विज्ञान बना
दिया, जहां
विश्वास की जरूरत
नहीं है।
सब
तथाकथित
धर्मों को
विश्वासों की जरूरत
रहती है।
धर्मों में
परस्पर कोई
विशेष अंतर
नहीं है। अंतर
है तो उनकी
अलग—अलग
धारणाओं में
ही। एक
मुसलमान के
अपने विश्वास
हैं;
इसी तरह
हिन्दू और
ईसाई के अपने—अपने
विश्वास हैं।
अंतर तो
विश्वासों
में ही है। जहां
तक विश्वासों
की बात है, योग
इस विषय में
कुछ नहीं कहता।
योग तो
तुम्हें किसी
बात पर
विश्वास करने
को नहीं कहता।
योग कहता है :
अनुभव करो।
जैसे विज्ञान
कहता है :
प्रयोग करो, योग कहता है
अनुभव करो।
प्रयोग और
अनुभव एक ही
बात है, उनकी
दिशाएं
अलग—अलग
हैं। प्रयोग का
अर्थ है कि तुम
कुछ बाहर की और
कर रहे हो
अनुभव का अर्थ
है कि तुम कुछ
अपने भीतर कर रहे
हो। अनुभव है एक
आन्तरिक प्रयोग।
वितान
कहता है, विश्वास
मत करो; जितना
बन पड़े संदेह
ही करो। लेकिन
अविश्वास भी मत
करो, क्योंकि
अविश्वास भी
एक तरह का विश्वास
ही है। तुम ईश्वर
में विश्वास
कर सकते हो या तुम
निरीश्वरवाद की
धारणा में
विश्वास बना सकते
हो। तुम आग्रह
पूर्वक कह सकते
हो कि ईश्वर है
या इसके विपरीत
उसी हठधर्मी के
साथ कह सकते हो
कि 'ईश्वर नहीं
है।' आस्तिक
और नास्तिक दोनो
ही विश्वासी है।
लेकिन विश्वास
विज्ञान की दिशा
नही है।
विज्ञान का
अर्थ है. 'जो
है' उसका
अनुभव करना; किसी
विश्वास की जरूरत
नहीं। तो
दूसरी बात याद
रखनी है कि योग
अस्तित्वगत है,
अनुभव जन्य है,
प्रायोगिक है।
वहाँ किसी विश्वास
की अपेक्षा नहीं,
किसी निष्ठा
की आवश्यकता नहीं।
वहाँ केवल साहस
चाहिए प्रयोग करने
का। लेकिन इसी
की तो कमी है।
तुम
विश्वास तो
बड़ी आसानी से कर
लेते हो, क्योंकि
तब तुम स्वपांतरित
होने वाले नही
हो। विश्वास तो
ऐसी चीज है, जो ऊपरी तौर पर
एक सत ही ढ़ंग से
तुम से जुड जाती
है; उससे तुम्हारा
अंतस
परिवर्तित नहीं
होता तुम किसी
स्वपांतरण की
प्रक्रिया से नहीं
गुजर रहे होते।
तुम हि हो तो तुम
अगले दिन ईसाई
बन सकते हो।
तुम सरलता से बदल
जाते हो। तुम गीता
की जगह कुरान या
बाइबिल पकड सकते
हो। लेकिन वह व्यक्ति,
जिसके हाथ में
गीता थी और अब जो
बाइबिल या कुरान
पकड़े हुए है, वह तो ज्यो का
त्यो बना रह जाता
है। उसने केवल
अपने विश्वासो
को बदल लिया है।
विश्वास
तो कपड़ों की
भांति हैं।
किसी आधार भूत
तत्व का स्वपांतरण
नहीं होता तुम
भीतर वही के वही
बने रहते हो।
जरा हिंदू और मुसलमान
की चीर फाड़ कर के
देखो, भीतर दोनो
एक समान ही है।
हिंदू मंदिर जाता
है और मुसलमान
मंदिर से नफरत
करता है।
मुसलमान
मस्जिद जाता है
और हिन्दू
मस्जिद से नफरत
करता है।
लेकिन भीतर दोनो
एक जैसे ही
आदमी हैं।
विश्वास
आसान है क्योंकि
उस में तुम्हे
वास्तव में कुछ
करना नहीं पड़ता।
वह तो एक छिछला—सा
पहरावा है, सज्जा
है; जिस
क्षण चाहो उसे
अलग करके रख सकते
हो। योग विश्वास
नहीं है।
इसलिए यह कठिन
है, दुष्कर
है और कई बार तो
लगता है कि बिलकुल
असंभव है। योग
एक अस्तित्वगत
प्रयोग है।
तुम किसी विश्वास
के द्वारा सत्य
को नहीं पाओगे,
बल्कि अपने ही
अनुभव द्वारा पाओगे
अपने ही बोध द्वारा
उसे उपलब्ध करोगे।
और इसका अर्थ हुआ
कि तुम्हें
आमूल स्वप्न
से स्वपांतरित
होना होगा।
तुम्हारा दृष्टिकोण,
तुम्हारे जीने
का ढंग, तुम्हारा
मन, तुम्हारे
चित्त का पूरा
ढांचा—यह सब
जैसा है उसे
चकनाचूर कर
देना होगा।
कुछ नये का
सृजन करना
होगा। उसी नवतत्व
के साथ तुम यथार्थ
के सम्पर्क मे
आ सकोगे।
योग
मृत्यु तथा नव
जीवन दोनो ही है।
तुम जैसे हो, उसे
तो मरना होगा।
और जब तक पुराना
मरेगा नही, नये का जन्म नहीं
हो सकता। नया तुम
में ही तो छिपा
है। तुम केवल उसके
बीज हो। और बीज
को गिरना ही होगा,
धरती में पिघलने
के लिए। बीज को
तो मिटना ही होगा,
केवल तभी तुम
में से नया प्रकट
होगा।
तुम्हारी मृत्यु
ही तुम्हारा नव
जीवन बन पायेगी।
योग दोनों है—मृत्यु
भी और जन्म भी।
जब तक तुम मरने
को तैयार न होओ
तब तक तुम्हारा
नया जन्म नहीं
हो सकता। यह केवल
विश्वास को बदलने
की बात नहीं है।
योग
दर्शन—शास्र नहीं
है। मैंने कहा, योग
धर्म नहीं है।
मैं यह भी कहता
हू कि योग दर्शन—शास्र
नहीं है।
यह कोई
ऐसी बात नहीं
जिसके बारे
में तुम कुछ
विचार करो। यह
कुछ ऐसा है
जैसा कि
तुम्हें होना
होगा। केवल
सोचने—विचारने
से कुछ नहीं
होगा। विचार
तो तुम्हारे
मस्तिष्क में
चलता रहता है, यह
तुम्हारे
अस्तित्व की
जड़ों में कहीं
गहरे नहीं
होता। विचार
तुम्हारी
समग्रता नहीं
है। यह तो
मात्र एक
हिस्सा है, एक कामचलाऊ
हिस्सा; और
इसे
प्रशिक्षित
किया जा सकता
है। तुम
तर्कपूर्ण
ढंग से विवाद
कर सकते हो, युक्तिपूर्ण
विचार कर सकते
हो, लेकिन
तुम्हारा
हृदय तो वैसा
का वैसा ही
बना रहेगा।
तुम्हारा
हृदय गहनतम
केंद्र है, सिर तो उसकी
शाखा मात्र है।
तुम मस्तिष्क
के बिना तो हो
सकते हो, लेकिन
हृदय के बिना
नहीं हो सकते।
तुम्हारा मन
आधारभूत तत्व
नहीं है।
योग
तुम्हारे
समग्र अस्तित्व
से,
तुम्हारी
जड़ों से
संबंधित है।
वह दार्शनिक
नहीं है।
इसलिए पतंजलि
के साथ हम
चिंतन—मनन
नहीं करेंगे।
पतंजलि के साथ
तो हम जीवन के
और उसके स्वपांतरण
के परम नियमों
को जानने का प्रयत्न
करेंगे।
पुराने की
मृत्यु और
सर्वथा नये के
जन्म के नियमों
को और अंतस की
एक नव
लयबद्धता की
कीमिया को
जानने का प्रयत्न
हम करेंगे।
इसलिए मैं योग
को एक विज्ञान
कहता हूं।
पतंजलि
अत्यंत विरल
व्यक्ति हैं।
वे प्रबुद्ध
है बुद्ध, कृष्ण
और जीसस की
भांति; महावीर,
मोहम्मद और जरथुस्त्र
की भांति, लेकिन
एक ढंग से अलग
है। बुद्ध, कृष्ण, महावीर,
मोहम्मद, जरथुस्त्र—इनमें
से किसी का
दृष्टिकोण
वैज्ञानिक
नहीं है। वे
महान धर्म
प्रवर्तक है,
उन्होंने
मानव—मन और
उसकी संरचना
को बिलकुल बदल
दिया, लेकिन
उनकी पहुंच
वैज्ञानिक
नहीं है।
पतंजलि
बुद्ध
पुरुषों की दुनिया
के आइंस्टीन
है। वे अद्भुत
घटना है। वे
सरलता से
आइंस्टीन, बोर,
मैक्स
प्लांक या
हेसनबर्ग की
तरह नोबल
पुरस्कार
विजेता हो
सकते थे। उनकी
अभिवृत्ति और
दृष्टि वही है
जो किसी परिशुद्ध
वैज्ञानिक मन
की होती है।
कृष्ण कवि हैं;
पतंजलि कवि
नहीं है।
पतंजलि
नैतिकवादी भी
नहीं है, जैसे
महावीर है।
पतंजलि बुनियादी
तौर पर एक वैज्ञानिक
हैं, जो
नियमों की
भाषा में ही
सोचते—विचारते
है। उन्होंने
मनुष्य के
अंतस जगत के
निरपेक्ष नियमों
का निगमन करके
सत्य और
मानवीय मानस
की चरम कार्य—प्रणाली
के विस्तार का
अन्वेषण और
प्रतिपादन
किया।
यदि
तुम पतंजलि का
अनुगमन करो तो
तुम पाओगे कि
वे गणित के
फार्मूले
जैसी ही सटीक
बात कहते हैं।
तुम वैसा करो
जैसा वे कहते
है और परिणाम
निकलेगा ही; ठीक
दो और दो चार
की तरह निश्चित।
यह घटना उसी
तरह निश्चित
ढंग से घटेगी
जैसे पानी को
सौ डिग्री तक
गर्म करें तो
वाष्प बन उड़ जाता
है। किसी
विश्वास की
कोई जरूरत
नहीं है। बस, तुम उसे करो
और जानो। यह
कुछ ऐसा है
जिसे करके ही
जाना जा सकता
है। इसलिए मैं
कहता हूं कि
पतंजलि बेजोड़
है। इस पृथ्वी
पर पतंजलि
जैसा दूसरा
कोई नहीं हुआ।
बुद्ध की वाणी
में तुम्हें
कविता मिल
सकती है। वहां
कविता होगी ही।
अपने को
अभिव्यक्त
करते हुए
बुद्ध बहुत
बार काव्यमय
हुए हैं। परम
आनंद का, चरम
ज्ञान का जो
संसार है वह
इतना सुंदर, इतना भव्य
है कि
काव्यात्मक
हो जाने के
मोह से बचना मुश्किल
है। उस अवस्था
की सुंदरता
ऐसी, उसका
मंगल आशीष ऐसा,
उसका परम
आनंद ऐसा कि
उद्गार सहज ही
काव्यमय भाषा
में फूट पड़ते
हैं।
लेकिन
पतंजलि इस पर
रोक लगाते हैं।
हालांकि यह
बहुत कठिन है।
ऐसी अवस्था
में आज तक कोई
भी स्वयं को
नहीं रोक सका।
जीसस, कृष्ण, बुद्ध, सभी
काव्यमय हो
गये। जब उसकी
अपार भव्यता
और उसका परम
सौंदर्य
तुम्हारे
भीतर फूटता है,
तो तुम नाच
उठोगे, गाने
लगोगे। उस
अवस्था में
तुम उस प्रेमी
की तरह हो जो
सारी सृष्टि
के ही प्रेम
में पड गया है।
पतंजलि
इस पर रोक लगा
लेते हैं। वे
कविता का
प्रयोग नहीं
करते। वे एक
भी
काव्यात्मक
प्रतीक का
उपयोग नहीं करते।
कविता से
उन्हें कोई
सरोकार ही
नहीं। वे
सौंदर्य की
भाषा में बात
ही नहीं करते।
वे गणित की
भाषा में बात
करते हैं। वे
संक्षिप्त
होंगे और
तुम्हें कुछ
सूत्र देंगे।
वे सूत्र
संकेत मात्र
हैं कि क्या
करना है। वे
आनंदातिरेक
में फूट नहीं
पड़ते। वे ऐसा
कुछ भी कहने
का प्रयास
नहीं करते, जिसे
शब्दों में कहा
न जा सके। वे
असंभव के लिए
प्रयत्न ही
नहीं करते। वे
तो बस नींव
बना देंगे और
यदि तुम उस
नींव का आधार
लेकर चल पड़े, तो उस शिखर
पर पहुंच
जाओगे जो अभी
सबके परे है।
वे बड़े कठोर
गणितज्ञ हैं,
यह बात
ध्यान में
रखना।
पहला सूत्र
है:
अब योग
का अनुशासन।
’अथ
योगानुशासनम्।’
'अब
योग का
अनुशासन।’ एक—एक
शब्द को ठीक
से समझना है, क्योंकि
पतंजलि एक भी
अनावश्यक
शब्द का प्रयोग
नहीं करते।’ अब योग का
अनुशासन।’ पहले
'अब' शब्द
को समझने का
प्रयत्न करें।
यह 'अब' मन
की उसी अवस्था
की ओर संकेत
करता है, जिसकी
बात मैं तुमसे
कह रहा था।
यदि
तुम्हारा
मोहभंग हुआ है, यदि
तुम आशारहित
हुए हो, यदि
तुमने सब
इच्छाओं की
व्यर्थता को
पूरी तरह जान
लिया है; यदि
तुमने देखा है
कि तुम्हारा
जीवन अर्थहीन है,
और जो कुछ
भी अब तक तुम
कर रहे थे वह
सब बिलकुल निर्जीव
होकर गिर गया
है; यदि
भविष्य में
कुछ भी नहीं
बचा है; यदि
तुम समग्र स्वप्न
से निराशा में
डूब गये हो, जिसे
कीर्कगार्द
ने तीव्र
व्यथा कहा है;
अगर तुम इस
तीव्र व्यथा
में हो, पीड़ित—नहीं
जानते कि क्या
करना है, कहां
जाना है, किसकी
सहायता खोजनी
है; बस
पागलपन या
आत्महत्या या
मृत्यु की
कगार पर खड़े
हो, यदि
तुम्हारे
पूरे जीवन का
ढांचा अचानक
व्यर्थ हो गया
है—और यदि ऐसा
क्षण आ गया है
तो पतंजलि
कहते हैं— ' अब
योग का
अनुशासन।’ केवल
अब, तुम
योग के
विज्ञान को, योग के
अनुशासन को
समझ सकते हो।
यदि
ऐसा क्षण नहीं
आया तो तुम
योग का अध्ययन
किये चले जा
सकते हो, तुम एक
बड़े विद्वान
बन सकते हो
लेकिन तुम
योगी नहीं
बनोगे। तुम इस
पर शोध—प्रबंध
लिख सकते हो, भाषण भी दे
सकते हो, लेकिन
तुम योगी न
बनोगे। वह
क्षण अभी
तुम्हारे लिए
नहीं आया है।
बौद्धिक तौर
पर तुम इसमें
रुचि ले सकते
हो, मन के
द्वारा तुम
योग से
संबंधित हो
सकते हो लेकिन
योग कुछ नहीं
है, अगर यह
अनुशासन नहीं
है। योग कोई
शास्त्र नहीं
है; योग
अनुशासन है।
यह कुछ ऐसा है
जिसे तुम्हें
करना है। यह
कोई जिज्ञासा
नहीं है, यह
दार्शनिक
चिंतन भी नहीं
है। यह इन
सबसे कहीं
गहरा है। यह
तो सवाल है
जीवन और मरण
का।
यदि
वह क्षण आ गया
है जब कि तुम
महसूस करते हो
कि सारी
दिशाएं अस्त—व्यस्त
हो गयी हैं, सारी
राहें खो गयी
है, भविष्य
अंधियारा है
और हर इच्छा कडुआ
गयी है और हर
इच्छा द्वारा
तुमने केवल
निराशा ही
पायी है, यदि
आशाओं और
सपनों की ओर
सारी गतियां
समाप्त हो
चुकी हैं— ' अब
योग का
अनुशासन।’ और
यह 'अब' आया
ही नहीं होगा
तो मैं योग के
विषय में कितना
ही कहता जाऊं
लेकिन तुम
नहीं सुन
पाओगे। तुम
तभी सुन सकते
हो, यदि वह '
क्षण' तुम
में उपस्थित
हो चुका है।
क्या
तुम वास्तव
में असंतुष्ट
हो?
हर कोई कह
देगा 'हां',
लेकिन वह
असंतुष्टि
वास्तविक
नहीं है। तुम इससे—उससे
—किसी बात से
असंतुष्ट हो
सकते हो लेकिन
तुम पूरी तरह
असंतुष्ट
नहीं हो। तुम
अब भी आशा
किये जा रहे
हो। तुम
असंतुष्ट हो
भी तो अतीत की
किन्हीं
आशाओं के कारण,
लेकिन
भविष्य के लिए
तो तुम अब तक
आशा किये जा रहे
हो। तुम्हारी
असंतुष्टि
संपूर्ण नहीं
है। तुम अब भी
कहीं कोई
संतोष, कहीं
कोई संतुष्टि
पा लेने को
ललक रहे हो।
कई
बार तुम
निराशा अनुभव
करते हो लेकिन
वह निराशा
सच्ची नहीं है।
तुम निराशा
अनुभव करते हो
क्योंकि कुछ
आशाएं पूरी
नहीं हुईं, कुछ
आशाएं विफल हो
गयी हैं।
किंतु आशा अब
भी जारी है।
आशा गिरी नहीं।
तुम अब भी आशा
करोगे। तुम
किसी विशेष
आशा के प्रति
ही असंतुष्ट
हो लेकिन तुम
आशा मात्र से
असंतुष्ट
नहीं हो। यदि
तुम आशा मात्र
से निराश हो
गये हो तो वह
क्षण आ गया है
जब तुम योग
में प्रविष्ट
हो सकते हो।
और यह प्रवेश
किसी मानसिक
और वैचारिक
घटना में
प्रविष्ट
होने जैसा
नहीं होगा। यह
प्रवेश होगा
एक अनुशासन
में प्रवेश।
अनुशासन
क्या है?
अनुशासन का
अर्थ है अपने
भीतर एक
व्यवस्था निर्मित
करना। जैसे
तुम हो, तुम
एक अराजकता हो।
जैसे कि तुम
हो, पूरी
तरह
अव्यवस्थित—से
हो—गुरजिएफ
कहा करते थे।
और गुरजिएफ की
बहुत—सी बातें
पतंजलि की
भांति हैं।
उन्होंने भी
धर्म के मर्म
को विज्ञान
बनाने का
प्रयास किया।
गुरजिएफ कहा
करते थे तुम
एक नहीं हो, तुम भीड़ हो।
जब तुम कहते
हो 'मैं', तो कोई मैं
होता नहीं।
तुम्हारे
भीतर अनेक 'मैं' अनेक
अहं हैं। सुबह
कोई एक 'मैं'
है, दोपहर
कोई और 'मैं'
है और शाम
कोई तीसरा ही 'मैं' होता
है। लेकिन इस
गड़बड़ी के
प्रति तुम कभी
सचेत भी नहीं
होते।
क्योंकि सचेत
होगा भी कौन? कोई अंतस
केंद्र ही
नहीं है, जिसे
इसका बोध हो
पाये।
'योग अनुशासन
है' इसका
अर्थ है कि योग
तुम्हारे
भीतर एक
क्रिस्टलाइज्ड
सेंटर का, एकजुट
केंद्र का
निर्माण करना
चाहता है। तुम
तो जो हो, एक
भीड़ हो। और
भीड़ के बहुत—से
गुण होते हैं।
एक तो यह कि
भीड़ पर कोई
विश्वास नहीं
कर सकता।
गुरजिएफ कहते
थे कि आदमी
वादा नहीं कर
सकता। वादा
करेगा भी कौन?
तुम तो वहां
होते ही नहीं
और तुम वादा
करते हो उसे
पूरा कौन
करेगा? अगली
सुबह वह तो
रहा ही नहीं
जिसने वादा
किया था!
मेरे
पास लोग आते
हैं और कहते
हैं,
' अब मैं
व्रत लूंगा।’
वे कहते हैं,
'अब मैं यह
करने की
प्रतिज्ञा
करता हूं? 'मैं
उनसे कहता हूं
'इससे पहले
कि तुम कोई
प्रतिज्ञा लो,
दो बार फिर
सोच लो। क्या
तुम्हें पूरा
आश्वासन है कि
जिसने वादा किया
है वह अगले
क्षण बना भी
रहेगा?' तुम
कल से सुबह
जल्दी चार बजे
उठने का
निर्णय लेते
हो। और चार
बजे तुम्हारे
भीतर कोई कहता
है, 'झंझट
मत लो। बाहर
इतनी सर्दी पड़
रही है! और ऐसी
जल्दी भी क्या
है? मैं यह
कल भी कर सकता
हूं।’ और
तुम फिर सो
जाते हो।
जब
सुबह उठते हो
तो पछताते हो।
सोचते हो कि
यह अच्छा नहीं
हुआ;
तुम्हें
जल्दी ही उठ
जाना चाहिए था।
तुम फिर
निर्णय लेते
हो कि कल तुम
चार बजे ही उठोगे।
लेकिन कल भी
यही कुछ होने
वाला है
क्योंकि जिसने
प्रतिज्ञा की
वह सुबह चार
बजे वहां होता
नहीं, कोई
दूसरा ही उसकी
जगह आ बैठता
है। तुम रोटरी
क्लब की भांति
हो। चेयरमैन
निरंतर बदलता
रहता है।
तुम्हारा हर
हिस्सा रोटरी
चेयरमैन बन
जाता है। यह
चक्र चल रहा
है, हर
घडी कोई और ही प्रधान
बन जाता है।
गुरजिएफ
कहा करते थे कि
मनुष्य का प्रमुख
अभिलक्षण यही है
कि वह प्रतिज्ञा
नहीं कर सकता।
तुम वचन पूरा
नहीं कर सकते।
वचनबद्ध हुए चले
जाते हो, और
तुम अच्छी तरह
जानते हो कि
वचनों को पूरा
नहीं कर पाओगे।
क्योंकि तुम एक
नहीं हो, तुम
एक अव्यवस्था हो,
एक अराजकता हो।
इसलिए पतंजलि कहते
है, 'अब योग का
अनुशासन।’ यदि
तुम्हारा जीवन
एक परम दुःख बन
चुका है, यदि
अनुभव करते हो
कि तुम जो भी करते
हो उससे नर्क ही
बनता है, तब
वह क्षण आ गया है।
यह क्षण
तुम्हारी हस्ती
के, तुम्हारे
अस्तित्व के
आयाम को बदल सकता
है।
अभी
तक तो तुम एक
अव्यवस्था, एक
भीड़ की तरह
जिये। योग का
मतलब है कि अब तुम्हें
लयबद्धता
बनना होगा, तुम्हें 'एक' बनना होगा।
एक जुट होने की
आवश्यकता है,
केंद्रीकरण
की आवश्यकता है।
और जब तक तुम केंद्र
नहीं पा लेते,
जो कुछ भी तुम
करते हो वह व्यर्थ
है। जीवन और समय
का बेकार विनष्ट
होना है। पहली
आवश्यकता है
केंद्रबिंदु।
और जिसके पास यह
केंद्र है वही
व्यक्ति आनंदित
हो सकता है।
हर व्यक्ति आनंद
की मांग करता है।
लेकिन तुम मांग
नहीं कर सकते।
इसे तो तुम्हें
अर्जित करना होगा।
अंतस की आनंद
अवस्था के लिए
सब लालायित रहते
हैं, लेकिन
केवल केंद्रस्थ
व्यक्ति ही आनंदित
हो सकता है।
भीड़ तो कैसे आनंद
मय हो सकती है।
भीड़ का तो कोई व्यक्तित्व
नहीं है। वहां
कोई आत्मा नहीं,
इसलिए आनंदमय
हो गातो कौन?
आनन्द
का अर्थ है, एक
परम मौन। और ऐसा
मौन तभी संभव है
जब भीतर लयबद्धता
हो, जब सारे
बेमेल टुकड़ो का
मेल हो जाये, वे एक बन जायें
जब भीड़ न रहे बल्कि
केवल एक ही हो।
जब भीतर घर
में कोई न हो
और तुम अकेले हो,
तब तुम
आनन्द से भर जाओगे।
पर अभी तो हर एक
तुम्हारे घर
में है। तुम
वहाँ हो नहीं,
केवल मेहमान
ही वहाँ है। मेंजबान
तो सदा ही अनुपस्थित
है। और केवल मेजबान
आनन्द मय हो सकता
है। इस
केंद्रीयकरण
की प्रक्रिया
को ही पतंजलि
ने अनुशासन
कहा है—अनुशासनम्
डिसिप्लिन।
यह डिसिप्लिन
शब्द बहुत
सुंदर है। यह
उसी जड़, उसी
उद्गम से आया
है जहां से
डिसाइपल शब्द
आया। अनुशासन
काम तलब है सीखने
की क्षमता, जानने की
क्षमता।
किन्तु तब तक तुम
नहीं जान सकते,
नहीं सीख
सकते, जब तक
तुम स्व—केद्रित
न हो जाओ।
एक
बार एक आदमी
बुद्ध के पास
आया। वह आदमी
अवश्य कोई
समाज—सुधारक
रहा होगा, कोई
क्रांतिकारी।
उसने बुद्ध से
कहा, 'संसार
बहुत दुःख में
है; आपकी इस
बात से मैं सहमत
हूं।’ बुद्ध
ने यह कभी कहा
ही नहीं कि संसार
दुख में है।
बुद्ध ने कहा,
'तुम दुःख हो,
संसार नहीं।
जीवन दुःख है,
संसार नहीं।
मन दुःख है, संसार नही।’
लेकिन क्रांतिकारी
ने कहा, 'संसार
बडी तकलीफ में
है। मैं आपसे सहमत
हूं। अब मुझे
बताइए कि मैं क्या
कर सकता हूं? बड़ी गहरी करुणा
है मुझ में और
मैं मानवता की
सेवा करना चाहता
हू।’
सेवा
करना जरूर उसका
आदर्श रहा होगा।
बुद्ध ने उसकी
तरफ देखा और वे
मौन ही रहे।
बुद्ध के शिष्य
आनन्द ने कहा, यह
आदमी सच्चा
जान पड़ता है।
इसे राह
दिखाइए। आप
चुप क्यों हैं?
तब बुद्ध ने
उस क्रांतिकारी
से कहा, 'तुम
संसार की सेवा
करना चाहते हो,
लेकिन तुम हो
कहा? मैं तुम्हारे
भीतर किसी को नही
देख रहा। मैं देखता
हूं और वहाँ कोई
नहीं है।
तुम्हारा
कोई केन्द्र
नहीं। और जब
तक तुम्हारे
भीतर एक ठोस
केन्द्र नहीं बनता
तब तक तुम जो
भी करोगे उससे
और अनिष्ट होगा।
तुम्हारे
सारे समाज—सुधारक, क्रांतिकारी,
तुम्हारे
नेता, वे
सब
अनिष्टकारी
और उपद्रव
मचाने वाले
हैं। दुनिया
बेहतर होती
यदि नेता न
होते। लेकिन
वे आदत से
मजबूर हैं। वे
यही महसूस
करते हैं कि
उन्हें कुछ
करना चाहिए क्योंकि
संसार बड़े दुख
में है। और
स्वयं भीतर
केंद्रस्थ
हुए नहीं, अत:
जो भी वे करते
हैं, उससे
दुख की मात्रा
बढ़ती ही है।
केवल करुणा और
केवल सेवा
सहायक न हो
सकेगी। आत्म—केंद्रित
व्यक्ति से
उठी करुणा की
बात ही और है।
भीड़ से उठी
करुणा
हानिकारक है,
उपद्रव
मचाने वाली है;
वह तो जहर
'
अब योग का
अनुशासन।’ अनुशासन
का मतलब है
होने की
क्षमता, जानने
की क्षमता, सीखने की
क्षमता। हमें
ये तीनों
बातें समझ
लेनी चाहिए।’होने की
क्षमता।’ पतंजलि
कहते हैं, यदि
तुम अपना शरीर
हिलाये बिना
मौन रह कर कुछ
घंटे बैठ सकते
हो, तब
तुम्हारे
भीतर होने की
क्षमता बढ़ रही
है। तुम हिलते
क्यों हो गुर
कुछ पल भी तुम
बिना हिले—डुले
नहीं बैठ सकते।
तुम्हारा
शरीर सतत चंचल
है। कहीं
तुम्हें
खुजलाहट. होती
है, टांगें
सुन्न होने
लगती हैं, बहुत
कुछ होना शुरू
हो जाता है। ये
सब हिलने के
बहाने हैं।
तुम
मालिक नहीं हो।
शरीर से नहीं
कह सकते कि ' अब
एक घंटे तक
मैं नहीं
हिलूंगा।’ शरीर
तो तत्काल
विद्रोह कर
देगा। उसी पल
तुम्हें वह
मजबूर करेगा
हिलने के लिए,
कुछ करने के
लिए। और वह
तुम्हें कारण
भी देगा कि 'तुम्हें
हिलना ही है
क्योंकि एक
कीड़ा काट रहा
है, वगैरह—वगैरह।’
तुम उस कीड़े
को जब देखने
जाओ तो हो
सकता है उसे ढूंढ
भी न पाओ।
तुम
आत्मस्थ नहीं
हो। तुम एक
सतत कंपित
ज्वरग्रस्त
हलचल हो।
पतंजलि के
बताये आसन
किसी शारीरिक
प्रशिक्षण से
खास संबंधित
नहीं है, बल्कि
वे एक आंतरिक
प्रशिक्षण से
संबंधित हैं
कि बस, होना;
कि बिना कुछ
किये, बिना
किसी गति के, बिना किसी
हलचल के बस, ठहर जाओ। यह
ठहरना अंतस के
केंद्रीयकरण
में सहायक गो।।
यदि
तुम एक ही आसन
में ठहर सकते
हो तो शरीर
गुलाम, सेवक
बन जायेगा फिर
वह तुम्हारा
अनुगमन करेगा।
शरीर जितना
अधिक
तुम्हारा
अनुगमन करेगा,
उतना ही
अधिक
शक्तिपूर्ण
और विराट
बनेगा तुम्हारे
भीतर का
अस्तित्व। और
इसे ध्यान में
रखना कि
तुम्हारे
शरीर में गति
नहीं होती तो
तुम्हारा मन
भी गतिमय नहीं
हो सकता।
क्योंकि शरीर
और मन कोई अलग—अलग
चीजें नहीं
हैं। वे एक ही
घटना के दो
छोर हैं। तुम
शरीर और मन
नहीं हो, तुम
हो शरीर—मन।
तुम्हारा
व्यक्तित्व
मनोशरीर है, साइकोसोमैटिक
है, एक साथ
शरीर और मन
दोनों है। मन
शरीर का सबसे
सूक्ष्म
हिस्सा है और
तुम इससे
विपरीत भी कह
सकते हो : शरीर
सबसे स्थूल
हिस्सा है मन
का।
इसलिए
जो कुछ शरीर
में घटित होता
है वही मन में घटित
होता है। और
इसके विपरीत
जो कुछ मन में
घटित होता है
वही शरीर में
घटित होता है।
यदि शरीर में
कोई गति नहीं
हो रही और तुम
एक ही आसन में
स्थिर रह सकते
हो,
यदि तुम
शरीर को खामोश
रहने के लिए
कह सकते हो तो
मन भी खामोश
बना रहेगा।
वास्तव में मन
गतिमय बनता है
तो शरीर में
भी गति लाने
की कोशिश करता
है। क्योंकि
शरीर में गति
आयेगी तो फिर
मन भी आसानी
से गति कर
सकता है।
गतिहीन शरीर
के साथ मन
गतिमय नहीं हो
सकता। मन को
गतिमान शरीर
का सहयोग
चाहिए।
यदि
शरीर अगतिमान
है और मन भी
अगतिमान है, तब
तुम केंद्र
में, अंतस
में केंद्रस्थ
हो। स्थिर आसन
केवल शारीरिक
प्रशिक्षण
नहीं है। यह
एक ऐसी स्थिति
का निर्माण
करना हुआ
जिसमें कि
केंद्रस्थता
घटित हो सकती
है; जिसमें
कि तुम
अनुशासित हो
सकते हो। जब
तुम बस हो, जब
तुम
केंद्रस्थ हो
गये हो, जब
तुम जान गये
कि मात्र होने
का क्या अर्थ
है, तब तुम सीख
सकते हो
क्योंकि तभी
विनम्र बनोगे।
तब तुम
समर्पित हो
सकते हो। तब
कोई नकली
अहंकार तुमसे
चिपका न रहेगा
क्योंकि एक
बार जब स्वयं
में केंद्रित
हो जाते हो तब
जान लेते हो
कि सारे
अहंकार झूठे
हैं। तब तुम
झुक सकते हो।
और तब एक
शिष्य का जन्म
होता है।
शिष्य
होना एक बड़ी
उपलब्धि है।
अनुशासन के
द्वारा ही तुम
शिष्य बनते हो।
अंतस में
केंद्रस्थ
होकर ही तुम
विनम्र बनोगे।
तुम ग्रहणशील
बनोगे, तुम
खाली हो पाओगे
और तब गुरु
अपने को
तुममें उड़ेल
सकता है।
तुम्हारी
रिक्तता में,
तुम्हारे
मौन में ही वह
प्रवेश कर
सकता है, तुम
तक पहुंच सकता
है। तभी
संप्रेषण
संभव हो पाता
है।
शिष्य
का अर्थ है, जो
अंतस में
केंद्रित है,
जो विनम्र,
ग्रहणशील
और खुला है; जो तैयार है,
सचेत है; प्रतीक्षारत
और
प्रार्थनामय
है। योग में
गुरु अत्यंत
महत्वपूर्ण
है—सर्वथा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
जब तुम उस
व्यक्ति के, जो कि
आत्मस्थ है, उसके गहन
सान्निध्य
में होते हो
तभी तुम्हारे
केंद्रीभूत
होने की घटना
घटेगी।
यही
है सत्संग का
मतलब। तुमने
सत्संग शब्द
को सुना है।
इस शब्द का
प्रयोग
बिलकुल गलत
किया जाता है।
सत्संग का
अर्थ है सत्य
का गहरा
सान्निध्य।
इसका अर्थ है
सत्य के पास होना, सद्गुरु
के पास होना, जो कि सत्य
के साथ ख्याल
हो चुका हो।
बस, सद्गुरु
के निकट बने
रहना खुले हुए,
ग्रहणशील
और
प्रतीक्षारत।
और यदि
तुम्हारी
प्रतीक्षा
गहरी और सघन
हो जाती है तब
एक गहन आत्म—मिलन
घटित होगा।
सद्गुरु
कुछ कर नहीं
रहा। बस वह
वहां है, मौजूद,
उपलब्ध।
यदि तुम खुले
हो तो वह
तुममें
प्रवाहित हो
जायेगा। यह
प्रवाहित
होना ही
सत्संग
कहलाता है।
सद्गुरु के
साथ तुम्हें
कुछ और सीखने
की आवश्यकता
नहीं है। यदि
तुमने सत्संग
सीख लिया, उतना
काफी है। यदि
तुम सद्गुरु
के निकट रह
सकते हो बिना
कुछ पूछे, बिना
सोच—विचार के,
बिना तर्क
के, बस, गुरु
के निकट
उपस्थित हो, प्राप्य हो,
तो सद्गुरु
का आत्म—अस्तित्व
तुममें
प्रवाहित हो
सकता है। और
आत्म—अस्तित्व
प्रवाहित हो
सकता है। वह
तो प्रवाहित
हो ही रहा है।
जब कोई
व्यक्ति
अखंडता
प्राप्त कर
लेता है, तब
उसका
अस्तित्व एक
विकिरण, रेडिएशन
बन जाता है।
वह प्रवाहित
होता रहता है।
तुम उसे ग्रहण
करने के लिए
वहां हो या
नहीं इसका कोई
प्रश्र ही
नहीं। वह तो
नदी की भांति
बह रहा है। और
यदि तुम खाली
हो एक पात्र
की तरह—तैयार
और खुले हुए
तो वह तुममें
बह आयेगा।
शिष्य
का अर्थ है, वह
व्यक्ति जो
ग्रहण करने को
तैयार है, जो
एक गर्भाशय की
तरह बन चुका
है ताकि
सद्गुरु
उसमें प्रवेश
कर सकें, उसे
अनुप्राणित कर
सकें। सत्संग
शब्द का यही
अर्थ है।
सत्संग
प्रवचन नहीं
है। हां, प्रवचन
हो सकता है, लेकिन
प्रवचन तो बस
एक बहाना है।
तुम
यहां हो और
मैं पतंजलि के
सूत्रों पर बोलूंगा, लेकिन
वह एक बहाना
है। यदि तुम
सच में ही
यहां हो तब यह
प्रवचन, यह
बोलना, यह
तो तुम्हारे
यहां होने का
बहाना मात्र
ही है। यदि
तुम सच में ही
यहां हो तो
सत्संग आरम्भ
होने लगता है।
मैं प्रवाहित
हो सकता हूं
और वह प्रवाह
किसी भी
बातचीत से
कहीं अधिक
गहरा है।
वह
प्रवाह भाषा
के द्वारा बने
संप्रेषण से, तुम्हारे
साथ हुई किसी
भी मानसिक
भेंट से बहुत
गहरा है। जब
तुम्हारा मन
सुनने में संलग्न
है, तब यह
मिलन, यह
संप्रेषण
घटित होता है।
यदि तुम शिष्य
हो, यदि
तुम एक
अनुशासित
व्यक्ति हो, यदि
तुम्हारा मन
मुझे सुनने
में संलग्न है,
तुम्हारी
अंतस सत्ता
सत्संग में हो
सकती है। तब
तुम्हारा सिर
व्यस्त रहता
है और हृदय
खुला रहता है,
तब एक गहरे
तल पर मिलन
घटित होता है।
वही मिलन
सत्संग है। और
दूसरी बातें
तो बस बहाने
हैं, सद्गुरु
के निकट होने
के।
पास
होना ही सब
कुछ है। लेकिन
केवल शिष्य ही
पास हो सकता
है। कोई भी या
हर कोई पास
नहीं आ सकता।
क्योंकि
जुड़ाव का, पास
आने का मतलब
है एक प्रेम—भरा
भरोसा।
हम
निकट क्यों
नहीं होते? क्योंकि
डर रहता है।
बहुत नजदीक
होना खतरनाक
हो सकता है, बहुत खुला
होना खतरनाक
हो सकता है
क्योंकि तब तुम
अति
संवेदनशील हो
जाते हो और तब
स्वयं का बचाव
करना मुश्किल
हो जायेगा।
इसलिए एक
सुरक्षा के
उपाय की तरह
हम हर व्यक्ति
से एक खास
दूरी बनाये
रखते हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति के आस—पास
एक अपना
क्षेत्र होता
है। और जब कोई
तुम्हारे उस
क्षेत्र में
प्रवेश करता
है,
तुम भयभीत
हो जाते हो।
हर व्यक्ति के
पास बचाव के
लिए बनाया
फासला है। तुम
अकेले अपने
कमरे में बैठे
हो और एक
अजनबी कमरे
में दाखिल
होता है। तब
जरा ध्यान
देना कि तुम
सचमुच डर जाते
हो। एक सीमाबिन्दु
है। यदि वह
व्यक्ति उस
बिन्दु तक
पहुंच जाये या
उसके पार
पहुंच जाये तो
तुम आशंकित हो
उठेने, भयभीत
हो जाओगे।
अचानक एक कंपन
महसूस करने
लगोगे। वह
आदमी एक खास
सीमाबिन्दु
तक ही आ सकता
है।
पास
होने का अर्थ
है कि अब
तुम्हारा कोई
अपना क्षेत्र
न बचा। पास
होने का अर्थ
है कि अब तुम
कोमल और
असुरक्षित हो।
इसका अर्थ है
कि अब चाहे
कुछ भी हो
जाये, तुम
किसी तरह की
सुरक्षा की
बात सोच ही
नहीं रहे।
एक
शिष्य पास आ
सकता है। दो
कारणों से : एक
तो यह कि वह
अंतस
केंद्रित हो चुका
है;
एक यह कि वह
केंद्रस्थ
होने का
प्रयत्न कर
रहा है। जो
केंद्रस्थ
होने का प्रयत्न
कर रहा है वह
व्यक्ति भी
निर्भय हो जाता
है। उसके पास
ऐसा कुछ है
जिसे मिटाया
नहीं जा सकता।
तुम्हारे पास
कुछ है नहीं
और इसीलिए तुम
डरते हो। तुम
एक भीड़ हो।
भीड़ किसी भी
क्षण बिखर
सकती है।
तुम्हारे पास
ऐसा कुछ नहीं
है, जो कुछ
भी घटित होने
पर चट्टान की
तरह ही मजबूती
से बना रहे।
तुम जी रहे हो
बिना किसी ठोस
आधार के, बिना
किसी नींव के—ताश
के घर की तरह।
तो निश्रित ही
हमेशा भय में
जीयोगे। कोई
तेज हवा, या
हवा का हल्का
झोंका तक
तुम्हें नष्ट
कर सकता है।
इसलिए
तुम्हें
स्वयं का बचाव
करना होता है।
और
इसी लगातार
बचाव के कारण
तुम प्रेम
नहीं कर सकते, भरोसा
नहीं कर सकते,
मैत्री
नहीं कर सकते।
तुम्हारे
बहुत से मित्र
हो सकते हैं
लेकिन मैत्री
नहीं है
क्योंकि
मित्रता
समीपता की मांग
करती है।
तुम्हारे
पति हैं, पत्नियां
हैं और
तथाकथित
प्रेमी, प्रेमिकाएं
हैं लेकिन
प्रेम कहीं
नहीं।
क्योंकि
प्रेम तो
सन्निकटता की
मांग करता है;
भरोसा
चाहिए उसके
लिए। हो सकता
है कि
तुम्हारे
गुरु हैं, शिक्षक
हैं, लेकिन
शिष्यत्व
कहीं नहीं।
क्योंकि तुम
किसी के अंतस
अस्तित्व के
प्रति स्वयं
को पूरी तरह
दे नहीं सकते।
तुम स्वयं को
मौका नहीं दे
पाते कि पूरी
तरह गुरु के
पास हो सको, गहरी
घनिष्ठता बना
सको उसके
अस्तित्व के
साथ, ताकि
वह तुम्हें
पूर्णस्वप्न
से अभिभूत कर
सके, अपने
प्रवाह में
तुम्हें पूरी
तरह प्लावित कर
सके।
शिष्य
का अर्थ है एक
ऐसा खोजी, अन्वेषक,
जो भीड़ नहीं
है; जो
केंद्रीभूत
होने की, एकजुट
होने की कोशिश
कर रहा है, जो
कम से कम
प्रयास कर रहा
है, मेहनत
कर रहा है; गहनता
से प्रयास कर
रहा है, व्यक्ति
बनने के लिए, अपनी सत्ता
को महसूस करने
के लिए, अपना
मालिक स्वयं
बनने के लिए।
तुम तो ऐसे
जैसे हो, बस,
एक गुलाम हो
कितनी—कितनी
इच्छाओं के।
कितने ही
मालिक हैं और
तुम तो बस एक
गुलाम हो, और
अनेक दिशाओं
में खींचे जा
रहे हो।
'अब योग का
अनुशासन।’ योग
अनुशासन है, साधना है।
यह तुम्हारा
प्रयत्न है
स्वयं को स्वपान्तरित
करने का। और
इसमें बहुत—सी
चीजें समझ
लेने जैसी हैं।
'योग
चिकित्सा—विज्ञान
नहीं है।
पश्रिम में आज
बहुत से
मनोवैज्ञानिक
रोगोपचारों
का चलन है और
पश्िचम के बहुत
से मनोवैज्ञानिक
समझते हैं कि
योग भी
चिकित्सा है।
ऐसा नहीं है।
योग अनुशासन
है, साधना
है। अन्तर
क्या है? अन्तर
यही है कि
चिकित्सा की
आवश्यकता
होती है यदि
तुम बीमार
होते हो, रोगग्रस्त
हो। चिकित्सा
की तो तब
आवश्यकता आ
पड़ती है अगर
तुम रोगात्मक
हो। लेकिन
अनुशासन की
आवश्यकता तो
स्वस्थ होने पर
भी है। वास्तव
में अनुशासन
तो सहायक ही
तभी होता है जब
तुम स्वस्थ
होते हो।
रोगियों
के लिए योग
नहीं है। यह
उनके लिए है
जो
चिकित्साशास्त्र
की दृष्टि से
तो पूरी तरह
स्वस्थ हैं।
जो सहज—सामान्य
हैं। जो
स्किड्जोफ्रीनिक
(खष्ठित—मनस्क)
नहीं हैं; पागल
नहीं हैं, न्यूराटिक
(विक्षिप्त)
नहीं हैं। वे
सहज सामान्य
लोग हैं, स्वस्थ
लोग हैं
जिन्हें कोई
रोग नहीं। फिर
भी वे जान गये
हैं कि जिसे
सामान्य कहा
जाता है वह
व्यर्थ है; जिसे
स्वास्थ्य
कहा जाता है
वह भी बेकार
है। कुछ और
चाहिए, कुछ
ज्यादा विशाल
चाहिए, कुछ
ज्यादा
स्वस्थ, ज्यादा
पावन और
ज्यादा समग्र
चाहिए।
चिकित्साए
बीमार लोगों
के लिए होती
हैं।
चिकित्साएं
तुम्हारी
सहायता कर
सकती है योग तक
आने के लिए, लेकिन
योग चिकित्सा—वितान
नहीं है। योग
स्वास्थ्य की
एक अलग और
ऊंची दशा के
लिए है, एक भिन्न
प्रकार की
समग्रता और
सत्ता के लिए
है।
चिकित्साशास्त्र
अधिक से अधिक
यही कर सकता है
कि तुम्हें
व्यवस्थित कर
दे, समायोजित
कर दे। फ्रायड
भी कहता है कि
हम इससे अधिक
और कुछ नहीं
कर सकते। हम
तुम्हें समाज
का एक सामान्य,
समायोजित
सदस्य बना
सकते हैं।
लेकिन यदि
समाज स्वयं ही
रुका हो तब
क्या किया
जाये? और
ऐसा है। समाज
खुद ही बीमार
है। कोई
चिकित्सा
तुम्हें सहज
बना सकती है
तो इसी लिहाज
से कि तुम
समाज के
अनुकूल हो जाओ,
लेकिन समाज
तो स्वयं
बीमार है, अस्वस्थ
है।
इसलिए
कई बार यही
होता भी है कि
एक बीमार समाज
में स्वस्थ
व्यक्ति को
बीमार समझ
लिया जाता है।
जीसस को बीमार
समझा गया और
हर प्रयत्न
किया गया
उन्हें
अनुकूल बनाने
के लिए। और जब
यह जान लिया
गया कि उनके
बदले जाने की
कोई भी आशा
नहीं तो
उन्हें सूली
पर चढ़ा दिया
गया। जब जान
लिया गया कि
अब कुछ किया
ही नहीं जा
सकता, कि यह
आदमी असाध्य
है, तब
उन्हें सूली
पर चढ़ाया गया!
समाज
स्वयं बीमार
है क्योंकि
समाज है कुछ
नहीं, केवल
तुम्हारा
सामूहिक स्वप्न
है। यदि किसी
समाज के सारे
लोग ही बीमार
हैं, तो
समाज बीमार है
और उसके हर
सदस्य को
रुग्ण समाज के
साथ समझौता
करना होता है।
योग चिकित्सा
नहीं है, योग
किसी भी स्वप्न
में यह कोशिश
नहीं करता कि
समाज के साथ
तुम्हारा
सामंजस्थ
किया जाये।
यदि तुम
समन्वय या
सामंजस्य की
भाषा में ही योग
की व्याख्या
करना चाहते हो,
तब यह
समन्वय समाज
के साथ नहीं, योग समन्वय
है अस्तित्व
के साथ, दिव्य
सत्ता के साथ।
यह
हो सकता है कि
एक श्रेष्ठ
योगी तुम्हें
पागल मालूम
पड़े। ऐसा लग
सकता है कि
इंद्रियां
उसके वश में
नहीं, दिमाग
फिर गया है
उसका; क्योंकि
अब वह किसी
अधिक विराट, किसी अधिक
ऊंचे
मस्तिष्क का
स्पर्श पा रहा
है। वह जुड़
गया है चीजों
की किसी ऊंची
व्यवस्था के
साथ। वह जुड़ा
है उस व्यापक
और वैश्विक
मनस के साथ।
हमेशा इसी
भांति हुआ है।
बुद्ध, जीसस,
कृष्ण, वे
हमेशा कुछ
अनियमित और
मौजी से ही
दीख पड़ते हैं।
वे हम जैसे
नहीं लगते; वे अनजाने, बाहरी
व्यक्ति जान
पड़ते है!
इसीलिए
हम उन्हें
अवतार कहते
हैं—बाहरी
व्यक्ति! जैसे
कि वे किसी
अन्य मह से
आये हों, जैसे
कि वे हमारे
इस संसार से
संबंधित न हों।
वे ऊंचे है, अच्छे है
बहुत, पावन
भी हैं लेकिन
वे हमारे बीच
के व्यक्ति नहीं।
वे कहीं और से
आते हैं, वे
हमारे
अस्तित्व के
अनविार्य अंग
नहीं। यह
भावना अटल हो
गयी है कि वे
कहीं बाहर के
व्यक्ति है; पर वे 'बाहरी'
व्यक्ति
नहीं है। वे
वास्तविक
अंतरंगी है
क्योंकि
उन्होंने अस्तित्व
के अंतरतम सार
का स्पर्श
किया है, उसके
सबसे आन्तरिक
मर्म से जुड़े
है। लेकिन
हमें बाहरी
व्यक्ति ही
लगते है।
'अब
योग का
अनुशासन।’
यदि
तुम्हारे मन
ने पूरी तरह
समझ लिया है
कि जो कुछ तुम
अब तक कर रहे
थे वह बिलकुल
निरर्थक था; कि
वह बुरे से
बुरा दुख स्वप्न
था या अच्छे
से अच्छा सपना
था, तब
अनुशासन का
मार्ग
तुम्हारे
सामने खुल जाता
है। वह मार्ग
क्या है?
उसकी
मूलभूत
परिभाषा है—
योग
मन की समाप्ति
है।
योगश्रित्तवृत्तिनिरोध:।
मैने
तुमसे कहा था, पतंजलि
तो सीधे
गणितज्ञ हैं।
एक ही वाक्य— 'अब योग का
अनुशासन' — और
बात खत्म हो
गयी। यही केवल
एक वाक्य है
जिसे पतंजलि
तुम्हारे लिए
प्रयोग करते
है। फिर वे
इसे निशित हुआ
ही समझ लेते
हैं कि तुम्हारी
योग में रुचि
है— आशा के स्वप्न
में नहीं, अनुशासन
के स्वप्न
में; एक स्वपांतरण
के स्वप्न
में— अभी और
यहां। वे और
आगे परिभाषा
देते है— 'योग
मन की समाप्ति
है।’
यही
योग की
परिभाषा है, सबसे
सही परिभाषा।
योग को बहुत
ढंग से
परिभाषित
किया गया है।
बहुत—सी
परिभाषाएं है
इसकी। कुछ
कहते हैं कि
योग दिव्य
सत्ता के साथ
मन का मिलन है,
इसीलिए इसे 'योग' कहा
जाता है, क्योंकि
योग का मतलब
है मिलना, दो
का जुड़ना। और
कई कहते है कि
योग का अर्थ
है अहंकार का
गिर जाना।
अहंकार ही बीच
में बाधा है
और जिस क्षण
तुमने अहंकार
को गिरा दिया,
तुम दिव्य सत्ता
से जुड़ जाते
हो। तुम जुड़े
ही हुए थे
लेकिन इस
अहंकार के
कारण ही लगता
रहा कि तुम
जुड़े हुए नहीं
हो। बहुत
व्याख्याएं
हैं, लेकिन
पतंजलि की
परिभाषा सबसे
ज्यादा वैज्ञानिक
है। वे कहते
है, 'योग मन
का अवसान है, समाप्ति है।’
योग अ—मन
होने की
अवस्था है।
यह
शब्द 'मन' इन
सबको अपने में
समेटता है—तुम्हारा
अहंकार, तुम्हारी
इच्छाएं
तुम्हारी
आशाएं
तुम्हारे तत्वज्ञान,
तुम्हारे
धर्म, तुम्हारे
शास्त्र। ये
सब मन के
अन्तर्गत हैं।
जो कुछ भी तुम
सोचते हो वह
मन है। जो भी
जाना गया है, जो भी जाना
जा सकता है, जो ज्ञेय है
वह सब मन के
अन्तर्गत है।
मन की समाप्ति
का अर्थ है जो
जाना है, उसकी
समाप्ति; जो
जानना है उसकी
समाप्ति। यह
एक छलांग है
अज्ञात में।
जब मन न रहा, तब तुम
अज्ञात हो।
योग अज्ञात
में एक छलांग
है। पर उसे
अज्ञात कहना
भी बिलकुल सही
नहीं होगा।
वरन कहना तो
उसे चाहिए
अज्ञेय, ज्ञानातीत।
मन
है क्या? मन कर
क्या रहा है? यह क्या है? आम तौर पर हम
यही सोच लेते
हैं कि मन जो
है, सिर
में पड़ी कोई
भौतिक चीज है।
पतंजलि इसे
नहीं
स्वीकारते।
और जिसने भी
मन के भीतर को
जाना है इसे
नहीं ही स्वीकारेगा।
आधुनिक वितान
भी इसे नहीं
स्वीकारता।
मन कोई भौतिक
तत्व नहीं, जो पड़ा है
सिर में। मन
एक वृत्ति है,
क्रियाशीलता
है।
तुम
चलते हो तो मै
कहता हूं तुम
चल रहे हो, पर
यह 'चलना' है क्या? यदि
तुम रुक जाते
हो तो वह चलना,
चाल कहां है?
यदि तुम बैठ
जाओ तो चलना
किधर चला गया?
चलना कोई
ठोस, भौतिक
चीज नहीं है, वह तो एक
क्रिया है।
इसलिए जब तुम
बैठे हुए हो
तो कोई नहीं
पूछ सकता कि
तुमने अपनी
गति कहां रख
दी? अभी—अभी
तो तुम चल रहे
थे, कहां
गया वह चलना? तुम हसोगे
इस पर। तुम
कहोगे, चलना
कोई वास्तविक
तत्व नहीं है।
वह एक क्रिया
मात्र है। मैं
चल सकता हूं
मैं फिर—फिर
चल सकता हूं और
मैं चलना रोक
भी सकता हूं।
यह तो
क्रियाकलाप
है।
मन
भी एक क्रिया
है,
लेकिन इस
शब्द 'मन' की वजह से
लगता है कि वह
भीतर कोई ठोस
चीज है। इस मन
को, इस
माइंड को 'माइंडिंग'
कहना बेहतर
होगा—जैसे
चलने को 'वाकिग'
कहते हैं।
माइंड का मतलब
माइंडिंग, मन
का मतलब सोचना।
यह एक
सक्रियता है।
मैं
बोधिधर्म का
बार—बार
उद्धरण देता
रहा हूं। वह
चीन गया और
चीन का सम्राट
उसके पास आया
मिलने के लिए।
सम्राट ने
उससे कहा, 'मेरा
मन बहुत बेचैन
है, बहुत
अशांत है। आप
महान संत हैं
और मैं आपकी
प्रतीक्षा कर
रहा था। मुझे
बतायें कि मैं
क्या करूं
जिससे मेरा मन
शांत हो जाये?'
बोधिधर्म
ने कहा, 'कुछ
भी मत करो।
पहले अपना मन
मेरे पास ले
आओ।’ सम्राट
कुछ समझ नहीं
सका। उसने कहा,
'आप कहना
क्या चाहते
हैं?' बोधिधर्म
ने कहा, 'सुबह
चार बजे आना
जब यहां कोई
नहीं होता।
अकेले आना। और
ध्यान रखना, अपने मन को
साथ लेते आना।’
वह
सम्राट सारी
रात सो नहीं
सका। बहुत बार
उसने वहां
जाने का विचार
ही रह कर दिया।
वह स्वयं से
कहता, 'यह आदमी
पागल जान पड़ता
है। यह कहने
से उसका आखिर
मतलब क्या है
कि भूलना नहीं,
मन को साथ
लेकर आना!'
लेकिन
वह व्यक्ति
इतना मोहक, इतना
चमत्कारिक था
कि सम्राट उस
नियोजित भेंट
को रह न कर सका।
जैसे कि कोई
चुम्बक उसे
अपनी तरफ खींच
रहा था। चार
बजे वह बिस्तर
से उठ बैठा और
कहने लगा, 'चाहे
जो हो, मुझे
जाना ही है।
इस व्यक्ति के
पास कुछ होगा।
उसकी आंखें
कहती हैं कि
उसके पास कुछ
है। थोड़ा—सा
पगला जरूर
लगता है पर
फिर भी मुझे
जाना चाहिए और
देखना है कि
क्या हो सकता
है।’
इस
प्रकार वह
वहां पहुंचा।
बोधिधर्म
अपने मोटे
सोंटे (डंडे)
को लिये बैठे
हुए थे।
उन्होंने कहा, 'आ
गये तुम? कहां
है तुम्हारा
मन? उसे
अपने साथ लाये
हो या नहीं?'
सम्राट
ने कहा, ' आप
क्या फिजूल
बात कहते हैं।
अब मैं यहां
हूं तो मेरा
मन भी यहीं है
और वह कोई ऐसी
चीज है भी
नहीं जिसे
कहीं भूल से
रख आ सकता हूं।
वह मुझमें ही
है।’
बोधिधर्म
ने कहा, ' अच्छा,
तो ठीक! सो
पहली बात का
तो निर्णय हुआ,
कि मन
तुममें ही है।’
सम्राट ने कहा,
'हां, ठीक,
मन मुझमें
ही है।’ बोधिधर्म
ने कहा, 'तो
अब आंखें बद
कर लो और खोजो
जरा कि मन
कहां है। और
तुम उसे ढूंढ
लो कि वह कहां
है तो फिर उसी
क्षण मुझे बता
देना। मैं
उसकी अवस्था
शांत बना
दूंगा।’
सम्राट
ने आंखें बंद
कर लीं और
कोशिश करता ही
गया देखने की, और
देखने की।
जितना ही भीतर
झांकता गया
उतना ही होश
आता गया कि
वहां कोई मन
नहीं; मन
एक क्रिया
मात्र है। वह
कोई चीज नहीं
कि जिसे ठीक—ठीक
इंगित किया जा
सके। लेकिन
जिस क्षण उसने
जाना कि. मन
कोई वस्तु नहीं,
उसी क्षण
उसे अपनी खोज
का बेतुकापन
भी खुलकर प्रकट
हो गया। यदि
मन कुछ है ही
नहीं तो फिर
इसके बारे में
कुछ किया ही नहीं
जा सकता। यदि
यह क्रिया है
तो फिर उस
क्रिया को
क्रियान्वित
मत करो, बस,
हो गयी बात।
यदि यह गति की
भांति, चाल
की भांति है
तो मत चलो।
उसने
अपनी आंखें
खोलीं। वह
बोधिधर्म के
सामने झुक गया
और बोला, 'ढूंढ
निकालने को मन
जैसा कुछ है
ही नहीं।’ बोधिधर्म
ने कहा, 'मैंने
तब उसे शांत
बना दिया है।
और जब भी तुम
महसूस करो कि
तुम अशांत हो,
बस जरा भीतर
झांक लेना और
देख लेना कि
वह बेचैनी
कहां है।’ यह
अवलोकन ही
मनविरोधी है,
एंटीमाइंड
है। क्योंकि
यह देखना
सोचना नहीं है।
यदि तुम पूरी
उत्कटता से
झांको तो
तुम्हारी
सारी ऊर्जा एक
दृष्टि बन
जाती है, और
वही ऊर्जा गति
और सोच—विचार
भी बन सकती है।
'योग मन की
समाप्ति है।’
यह
पतंजलि की
परिभाषा है।
जब मन सक्रिय
न हो,
तब तुम योग
में हुए। जब
मन मौजूद हो
तो तुम योग
में नहीं हो।
तो तुम सारे
के सारे आसन
लगाये जाओ, मुद्राएं
बनाये जाओ
लेकिन यदि मन
कार्य करता ही
रहे, यदि
तुम सोचते ही
रहो तो तुम
योग में नहीं
उतरे।
योग
अ—मन होने की
अवस्था है।
यदि तुम कोई
आसन लगाये
बिना भी अ—मन
बने रह सको तब
तुम एक
सम्पूर्ण
योगी हुए।
बिना किसी आसन
किये, बहुतों
के साथ ऐसा
घटित हुआ है।
और ऐसा उन
बहुतों के साथ
घटित नहीं हुआ
जो योगासनों
को साधे जा
रहे हैं
जन्मों—जन्मों
से।
सबसे
बुनियादी बात
जो समझने की
है वह यह कि जब
सोचने—विचारने
की क्रिया
वहां नहीं
होती, तब वहां
तुम होते हो।
जब मन की
सक्रियता
वहां नहीं होती,
जब विचार
तिरोहित हो
जाते हैं, जो
कि बादलों की
भांति हैं। और
जब वे तिरोहित
हो जाते हैं
तो तुम्हारा
अस्तित्व जो
आकाश की भांति
है, वह ढका
हुआ नहीं रहता।
वह स्व—सत्ता
तो हमेशा ही
वहां है, केवल
आच्छादित
रहता है
बादलों से, ढका रहता है
विचारों से।
'योग मन की समाप्ति
है।’
अब
तो पश्चिम
में 'झेन' के
लिए बहुत
आकर्षण बन गया
है। झेन
जापानी
प्रणाली है
योग की। यह
शब्द 'झेन'
ध्यान शब्द
से ही बना है।
बोधिधर्म
द्वारा चीन
में इस शब्द ' ध्यान' का
प्रसार हुआ।
बौद्धों की
पाली भाषा में
ध्यान शब्द 'झान ' बन
गया और फिर
चीन में यही
शब्द 'चान'
बना और फिर
यह शब्द जापान
में पहुंच कर 'झेन' बन
गया।
शब्द
का मूल 'ध्यान'
ही है।
ध्यान का अर्थ
होता है अ—मन।
और इसलिए
जापान में झेन
के सारे
प्रशिक्षणों का
सार है कि मन
की क्रियाओं
को कैसे रोका
जाये, अ—मन
कैसे हुआ जाये,
बिना विचार
के होना कैसे
फलित हो।
कोशिश
करो। जब मैं
कहता हूं 'कोशिश
करो', तो
बात कुछ
विरोधाभास पूर्ण
मालूम होगी, लेकिन इसे
कहने का और
कोई ढंग नहीं
है। यदि तुम
कोशिश करो, तो यह
प्रयास मन से
ही आता हुआ
मालूम पड़ता है।
तुम एक आसन
लगा बैठ सकते
हो और कोई जाप
कर सकते हो, मंत्र पढ़
सकते हो या
तुम कुछ भी न
सोचते हुए मौन
बैठने का प्रयत्न
कर सकते हो।
लेकिन कुछ न
सोचने का
प्रयत्न करना
भी सोचना बन
जाता है। तुम
स्वयं से कहते
चले जाते हो, 'मुझे कुछ
नहीं सोचना है;
कुछ न सोचो;
सोचना बन्द
करो।’ लेकिन
यह सब सोचना
ही
समझने
की कोशिश करो।
जब पतंजलि
कहते हैं अ—मन
की बात, 'मन की
समाप्ति' की
बात, तो
उनका मतलब है
पूरी समाप्ति।
वे कभी भी जाप
करने की
स्वीकृति
नहीं देंगे कि
'राम—राम—राम'
दोहराये
चले जाओ। वे
कहेंगे, जप
करना मन की
समाप्ति नहीं
है। तुम मन को
तो इस्तेमाल
कर ही रहे हो, वे कहेंगे, बस, रुक
जाओ। लेकिन
तुम पूछोगे, 'कैसे?' 'कैसे
रुक जायें?' मन तो चलता
ही रहता है।
यदि तुम बैठ
भी जाओ, तो
भी मन सतत
चलता है। यदि
तुम कुछ न करो,
तो भी मन
अपनी गति करता
ही जाता है।
पतंजलि
कहते हैं, बस,
तुम देखो।
मन को चलने दो,
मन को करने
दो, जो वह
कर रहा है।
तुम बस देखो; कोई बाधा मत
डालो। मात्र
साक्षी बन जाओ,
दर्शक बन
जाओ, असंबंधित।
जैसे मन
तुम्हारा है
ही नहीं, जैसे
तुम्हारा
उससे कुछ लेना—देना
नहीं है, कोई
नाता नहीं
उससे।
संबंधित मत
होओ। बस, देखो,
और बहने दो
मन को। वह बह
रहा है तो
अतीत के संवेग
के कारण, क्यौंकि
तुमने हमेशा
इसकी मदद की
है बहने में।
इसकी
क्रियाशीलता
ने अपनी एक
गति बना ली है
इसलिए यह बह
रहा है। इसे
बिलकुल सहयोग
न दो। देखो, और मन को
बहने दो।
बहुत—बहुत
जन्मों से, हो
सकता है लाखों
जन्मों से
तुमने इसे
सहयोग दिया है,
सहायता दी
है, तुमने
अपनी ऊर्जा दी
है इसे। नदी
कुछ समय तक
बहेगी लेकिन
यदि तुम सहयोग
न दो, यदि
तुम असंबंधित—से
बने रहो— जिसे
बुद्ध ने कहा
है उपेक्षा.
बिना किसी संबद्धता
के देखना; बस
देखना; किसी
भी स्वप्न
में कुछ न
करना। ऐसे में
मन कुछ देर
बहेगा और फिर
स्वयं ही थम जायेगा।
जब संवेग चुक
जाता है, जब
ऊर्जा बह चुकी
होती है, तब
मन रुक जायेगा।
और जब मन रुक
जाता है, तुम
योग में उतरते
हो। तुमने
अनुशासन पा
लिया है। यही
परिभाषा है : 'मन की
समाप्ति योग
है।’
तब
साक्षी स्वयं
में स्थापित
हो जाता है।
जब मन का
होना समाप्त
होता है, साक्षी
स्वयं में
स्थापित हो
जाता है। जब
तुम केवल देख
सकी बिना मन
के साथ तादात्म्य
बनाये, बिना
निर्णय किये,
बिना
प्रशंसा या
आलोचना किये,
बिना चुनाव
किये—बस, केवल
देखते रहो
जबकि मन बह
रहा हो, तो
ऐसा क्षण आ
जाता है जब
स्वयं ही मन
रुक जाता है, थम जाता है।
जब
मन नहीं है, तब
तुम अपने
साक्षी में
प्रतिष्ठित
हो जाते हो।
तब तुम साक्षी
बन गये—केवल
देखने वाले, एक द्रष्टा।
तब तुम कर्ता
न रहे, विचारक
न रहे। तब बस, तुम हो—शुद्ध
अस्तित्व, शुद्धतम
अस्तित्व। तब
साक्षी स्वयं
में स्थापित
हो गया।
'अन्य
अवस्थाओं में
मन की
वृत्तियों के
साथ तादात्म्य
बना रहता है।’
साक्षी
के अतिरिक्त
और दूसरी सभी
अवस्थाओं में
मन के साथ
तुम्हारा तादात्म्य
बना रहता है।
तुम विचारों
के प्रवाह के
साथ एक हो
जाते हो; एक हो
जाते हो
बादलों के साथ
: कई बार सफेद
बादलों के साथ,
कई बार
वर्षा से भरे
बादलों के साथ,
तो कई बार
वर्षारिक्त
खाली बादलों
के साथ। लेकिन
कुछ भी हो, तुम
किसी विचार के
साथ, किसी
बादल के साथ
एक हो ही जाते
हो। और इस तरह
तुम आकाश की
शुद्धता गंवा
देते हो, खो
देते हो
अंतरिक्ष की
शुद्धता। तुम
जैसे बादलों
में घिर जाते
हो। और बादलों
का यह घेराव
घटित होता है
क्योंकि तुम तादात्म्य
जोड़ लेते हो, तुम विचारों
के साथ एक हो
जाते हो।
खयाल
आता है कि तुम
भूखे हो और
विचार मन में
कौंध जाता है।
विचार इतना भर
है कि भूख है, कि
पेट को भूख
लगी है। उसी
क्षण तुम तादात्म्य
स्थापित कर
लेते हो। तुम
कहते हो, 'मैं
भूखा हूं।
मुझे भूख लगी
है।’ मन
में तो भूख का
विचार भर आया
था पर तुमने
उसके साथ तादात्म्य
बना लिया है।
तुम कह देते
हो, 'मुझे
भूख लगी है।’ यही तादात्म्य
है।
बुद्ध
भी भूख महसूस
करते हैं, पतंजलि
भी भूख महसूस
करते हैं, लेकिन
पतंजलि कभी
नहीं कहेंगे 'मुझे भूख
लगी है।’ वे
कहेंगे कि
शरीर भूखा है।
वे कहेंगे, मेरा पेट
भूख महसूस कर
रहा है। वे
कहेंगे, भूख
वहां है। वे
तो कहेंगे, मैं साक्षी
हूं। मैं इस
विचार का
साक्षी बना
हूं जो पेट
द्वारा दिमाग
तक कौंध गया, वह यह कि
मुझे भूख लगी
है। पेट भूखा
है, पतंजलि
तो उसके
साक्षीमात्र
बने रहेंगे।
लेकिन तुम तादात्म्य
बना लेते हो, विचार के
साथ एक हो
जाते हो।
'तब साक्षी
स्वयं में
स्थापित होता
है।’
'अन्य
अवस्थाओं में
मन की
वृत्तियों के
साथ तादात्म्य
हो जाता है।’
यही
परिभाषा है : 'योग
मन की समाप्ति
है।’ जब मन
थमता है, समाप्त
होता है, तुम
अपनी साक्षी
सत्ता में
अवस्थ’त होते
हो। इस अवस्था
के अतिरिक्त
बाकी सभी
अवस्थाओं में तादात्म्य
बना ही रहता
है। ये तादात्म्य
ही संसार
बनाते रहते
हैं। वे ही
हैं संसार।
यदि तुम इन तादात्म्य
में हो, तब
तुम संसार में
हो, दुख
में हो। और
यदि तुम इन तादात्म्यों
के मरे हो गये,
तब तुम
मुक्त हुए। तब
तुम सिद्ध हो
गये, सम्बोधि
को उपलब्ध हुए।
तुमने
निर्वाण पा
लिया। तुम इस
दुख—भरे संसार
के पार चले
गये और आनंद
के जगत में प्रविष्ट
हुए।
और
वह जगत अभी और
यहां है।
बिलकुल अभी, इसी
क्षण।
तुम्हें इसके
लिए एक पल भी
प्रतीक्षा
करने की
आवश्यकता
नहीं है। मन
के साक्षी भर
बन जाओ और तुम
उस जगत में
प्रविष्ट कर
जाओगे। मन के
साथ तादात्म्य
जोड़ लो, तो
उसे खो दोगे।
यही है बुनियादी
परिभाषा।
इन
सारी बातों को
याद रखना, क्योंकि
बाद में, दूसरे
सूत्रों में
हम और विस्तार
में जायेगे—कि
क्या करना है,
कैसे करना
है, लेकिन
हमेशा ध्यान
में रखना कि
बुनियाद यही
है।
साधक
को अ—मन की
अवस्था
उपलब्ध करनी
है। यही
लक्ष्य है।
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