सूत्र
:
जटिलो
मुण्डी
लुग्चितकेशः
काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि
च न पश्यति
मूढ़ो
ह्युदरनिमित्तं
बहुकृतवेषः।।
अंगं
गलितं पलितं
मुण्डं
दशनविहीनं
जातं तुण्डम्।
वृद्धो
याति
गृहीत्वा
दण्डं तदपि न
मुग्चत्याशापिण्डम्।।
अग्रे
वह्निः
पृष्ठे भानू
रात्रौ
चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः
तदपि न
मुग्चत्याशापाशः।।
कुरुते
गंगासागरगमनं
व्रतपरिपालनमथवा
दानम्।
ज्ञानविहीनः
सर्वमतेन
मुक्तिं नः
भजति जन्मशतेन।।
सुरमंदिरतरुमूलनिवासः
शय्या
भूतलमजिनं
वासः।
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः
कस्य सुखं न
करोति विरागः।।
योगरतो
वा भोगरतो वा
संगरतो वा
संगविहीनः।
एक
अति प्राचीन
कथा है। घने
वन में एक
तपस्वी साधनारत
था--आंख बंद
किए सतत
प्रभु-स्मरण
में लीन।
स्वर्ग को
पाने की उसकी
आकांक्षा थी; न भूख की
चिंता थी, न
प्यास की
चिंता थी। एक
दीन-दरिद्र
युवती लकड़ियां
बीनने आती थी
वन में। वही
दया खाकर कुछ
फल तोड़ लाती, पत्तों के
दोने बना कर
सरोवर से जल
भर लाती, और
तपस्वी के पास
छोड़ जाती। उसी
सहारे तपस्वी जीता
था। फिर
धीरे-धीरे
उसकी
तपश्चर्या और
भी सघन हो गई--फल
बिना खाए ही
पड़े रहने लगे;
जल दोनों
में पड़ा-पड़ा
ही गंदा हो
जाता--न उसे याद
रही भूख की और
न प्यास की।
लकड़ियां
बीनने वाली
युवती बड़ी
दुखी और उदास
होती, पर
कोई उपाय भी न
था।
इंद्रासन
डोला; इंद्र
चिंतित हुआ; तपस्या भंग
करनी जरूरी है;
सीमा के
बाहर जा रहा
है यह
व्यक्ति--क्या
स्वर्ग के
सिंहासन पर
कब्जा करने का
इरादा है?
लेकिन
कठिनाई
ज्यादा न थी, क्योंकि
इंद्र मनुष्य
के मन को
जानता है। स्वर्ग
से जैसे एक
श्वास
उतरी--सूखी, दीन-दरिद्र,
काली-कलूटी
वह युवती
अचानक
अप्रतिम सौंदर्य
से भर गई; जैसे
एक किरण उतरी
स्वर्ग से और
उसकी साधारण सी
देह
स्वर्णमंडित
हो गई। पानी
भर रही थी
सरोवर से
तपस्वी के लिए,
अपने ही
प्रतिबिंब को
देखा, भरोसा
न कर
पाई--साधारण
स्त्री न रही,
अप्सरा हो
गई; खुद के
ही बिंब को
देख कर मोहित
हो गई! तपस्वी
की सेवा उसने
करनी जारी
रखी।
फिर एक
दिन तपस्वी ने
आंख खोलीं। इस
वनस्थली से
जाने का समय आ
गया--तपश्चर्या
को और गहन
करना है, पर्वत-शिखरों
की यात्रा पर
जाना है। उसने
युवती से कहा
कि मैं अब
जाऊंगा, यहां
मेरा कार्य पूरा
हुआ। अब और भी
कठिन मार्ग
चुनना है, स्वर्ग
को जीत कर ही
रहना है।
युवती
रोने लगी।
उसकी आंख से
आंसू गिरने
लगे। उसने कहा, मैंने कौन
सा दुष्कर्म
किया कि मुझे
अपनी सेवा से
वंचित करते हो?
और तो कुछ
मैंने कभी
मांगा नहीं!
तपस्वी
ने सोचा, उस
युवती के
चेहरे की तरफ
देखा। ऐसा
सौंदर्य कभी
देखा नहीं था।
स्वप्न में भी
ऐसा सौंदर्य
कभी देखा नहीं
था। युवती
पहचानी भी
लगती थी और
अपरिचित भी
लगती थी। रूप-रेखा
तो वही थी, लेकिन
कुछ महिमा उतर
आई थी।
अंग-प्रत्यंग
वही थे, लेकिन
कोई
स्वर्ण-आभा से
घिर गए थे।
जैसे कोई गीत
की कड़ी, भूली-बिसरी,
फिर किसी
संगीतज्ञ ने
बांसुरी में
भर कर बजाई हो।
तपस्वी
बैठ गया। उसने
पुनः आंख बंद
कर लीं। वह
रुक गया।
उस रात
युवती सो न
सकी--विजय का
उल्लास भी था
और साधु को
पतित करने का
पश्चात्ताप
भी। आनंदित थी
कि जीत गई और
दुखी थी कि
किसी को
भ्रष्ट किया, किसी के
मार्ग में
बाधा बन गई, और कोई जो
ऊर्ध्वगमन के
लिए निकला था,
उसकी
यात्रा को
भ्रष्ट कर
दिया। रात भर
सो न सकी--रोई
भी, हंसी
भी। सुबह
निर्णय लिया,
आकर तपस्वी
के चरणों में
झुकी और कहा, मुझे जाना
पड़ेगा, मेरा
परिवार दूसरे
गांव जा रहा
है।
तपस्वी
ने आशीर्वाद
दिया कि जाओ, जहां भी रहो,
खुश रहो, मेरा
आशीर्वाद
तुम्हारे साथ
है।
युवती
चली गई। वर्ष
बीते, तपस्या
पूरी हुई।
इंद्र उतरा, तपस्वी के
चरणों में
झुका और कहा, स्वर्ग के
द्वार स्वागत
के लिए खुले
हैं।
तपस्वी
ने आंखें
खोलीं और कहा, स्वर्ग की
अब मुझे कोई
जरूरत नहीं!
इंद्र
तो भरोसा भी न
कर पाया कि
कोई मनुष्य और
कहेगा कि
स्वर्ग की
मुझे अब कोई
जरूरत नहीं। इंद्र
ने सोचा, तब
क्या मोक्ष की
आकांक्षा इस
तपस्वी को
पैदा हुई है।
पूछा, क्या
मोक्ष चाहिए?
तपस्वी
ने कहा, नहीं,
मोक्ष का भी
मैं क्या
करूंगा।
तब तो
इंद्र चरणों
में सिर रखने
को ही था कि यह
तो आत्यंतिक
बात हो गई, तपश्चर्या
का अंतिम चरण
हो गया, जहां
मोक्ष की
आकांक्षा भी
खो जाती है।
पर झुकने के
पहले उसने
पूछा, मोक्ष
के पार तो कुछ
भी नहीं है, फिर तुम
क्या चाहते हो?
उस
तपस्वी ने कहा, कुछ भी नहीं,
वह लकड़ियां
बीनने वाली
युवती कहां है,
वही चाहिए।
हंसना
मत; आदमी की
ऐसी कमजोरी
है। सोचना, हंसना मत; क्योंकि
पृथ्वी का ऐसा
प्रबल आकर्षण
है। कहानी को
कहानी समझ कर
टाल मत देना, मनुष्य के
मन की पूरी
व्यथा है। और
ऐसा मत सोचना
कि ऐसा विकल्प
उस तपस्वी के
सामने ही था
कि युवती थी, स्वर्ग था, दोनों के
बीच चुनना था।
तुम्हारे
सामने भी विकल्प
वही है; सभी
के सामने
विकल्प वही
है--या तो उन
सुखों को चुनो
जो क्षणभंगुर
हैं, या
उसे चुनो जो
शाश्वत है; या तो
शाश्वत को
गंवा दो
क्षणभंगुर के
लिए, या
क्षणभंगुर को
समर्पित कर दो
शाश्वत के लिए।
और
अधिकतम लोग
वही चुनेंगे, जो तपस्वी
ने चुना। ऐसा
मत सोचना कि
तुमने कुछ
अन्यथा किया
है। चाहे
इंद्र
तुम्हारे
सामने खड़ा हुआ
हो या न खड़ा
हुआ हो; चाहे
किसी ने
स्पष्ट
स्वर्ग और
पृथ्वी के विकल्प
सामने रखे हों,
न रखे
हों--विकल्प
वहां हैं। और
जो एक को
चुनता है, वह
अनिवार्यतः
दूसरे को गंवा
देता है।
जिसकी आंखें
पृथ्वी के नशे
से भर जाती
हैं, वह
स्वर्ग के
जागरण से
वंचित रह जाता
है। और जिसके
हाथ पृथ्वी की
धूल से भर
जाते हैं, स्वर्ग
का स्वर्ण
बरसे भी तो
कहां बरसे, हाथों में
जगह नहीं
होती! हाथ
खाली चाहिए तो
ही स्वर्ग उतर
सकता है; आत्मा
खाली चाहिए तो
ही परमात्मा
विराजमान हो
सकता है।
तुम्हारी
आत्मा में अगर
कोई आसक्ति
पहले से ही
विराजमान है, अगर वहां
सिंहासन पहले
से ही भरा है, तो तुम यह मत
कहना कि
परमात्मा ने
तुम्हारे साथ
अन्याय किया
है; यह
तुम्हारा ही
चुनाव है। अगर
परमात्मा
तुम्हें नहीं
मिलता, तो
इसमें
परमात्मा को
दोष मत देना, तुमने उसे
अभी चुना ही
नहीं; क्योंकि
जिन्होंने भी,
जब भी उसे
चुना है, तत्क्षण
वह मिल गया
है--एक क्षण की
भी वहां देरी
नहीं है।
लेकिन अगर
तुम्हीं न
चाहो तो परमात्मा
तुम्हारे ऊपर
जबरदस्ती
नहीं करता; सत्य
तुम्हारे ऊपर
जबरदस्ती
आरूढ़ नहीं
होता।
तुम्हें
जन्मों-जन्मों
तक सत्य को
इंकार करने की
स्वतंत्रता
है।
यही
मनुष्य की
गरिमा है, यही मनुष्य
का दुर्भाग्य
भी। गरिमा है,
क्योंकि
स्वतंत्रता
है, चुनाव
की अप्रतिम
स्वतंत्रता
है; दुर्भाग्य,
क्योंकि हम
गलत को चुन
लेते हैं।
लेकिन
स्वतंत्रता
में गलत का
चुनाव समाहित
ही है। ऐसी तो
कोई स्वतंत्रता
नहीं हो सकती, जिसमें ठीक
ही चुनने की
स्वतंत्रता
हो और गलत को
चुनने की
स्वतंत्रता न
हो। तब तो
स्वतंत्रता न
होगी, परतंत्रता
होगी।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही है
कि भटकने की
भी सुविधा है।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही है
कि पाप करने
की भी सुविधा
है।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही है
कि परमात्मा
को इंकार करने
की सुविधा है।
बुद्ध
का जन्म हुआ।
पांचवें दिन
रिवाज के अनुसार
श्रेष्ठतम
पंडित इकट्ठे
हुए।
उन्होंने बुद्ध
को नाम
दिया--सिद्धार्थ।
सिद्धार्थ का अर्थ
होता है:
कामना की
पूर्ति; आशा
की पूर्ति; अर्थ की
उपलब्धि; मंजिल
का मिल जाना।
बूढ़े
शुद्धोधन के
घर में बेटा
पैदा हुआ था।
जीवन भर
प्रतीक्षा की
थी, आशा की
थी, सपने
देखे थे; बहुत
बार निराश हुआ
था; और अब
बुढ़ापे में
बेटा पैदा हुआ
था; निश्चित
ही सिद्धार्थ
था। पंडितों
ने नाम ठीक ही
दिया था। आठ
बड़े पंडित थे।
सम्राट पूछने
लगा, इस
नवजात शिशु का
भविष्य भी
कहोगे? सात
पंडितों ने
अपने हाथ उठाए
और दो
अंगुलियों का
इशारा किया।
सम्राट कुछ
समझा नहीं।
उसने कहा, मैं
कुछ समझा
नहीं। इशारे
में नहीं, स्पष्ट
कहो। तो उन
सात पंडितों
ने कहा कि दो विकल्प
हैं--या तो यह
चक्रवर्ती
सम्राट होगा
और या सब छोड़
कर सर्वत्यागी,
वीतरागी, संन्यस्त हो
जाएगा; या
तो यह
चक्रवर्ती
सम्राट होगा
और या सर्व वीतरागी
संन्यासी
होगा।
सिर्फ
एक पंडित चुप
रहा। वह सबसे
युवा था। कोदन्ना
उसका नाम था।
लेकिन वह सबसे
ज्यादा प्रतिभाशाली
भी था। सम्राट
ने पूछा, तुम
चुप हो, तुमने
दो अंगुलियां
न उठाईं!
कोदन्ना
ने कहा, दो
अंगुलियां तो
सभी के जन्म
के साथ उठाई
जा सकती हैं, क्योंकि
दोनों विकल्प
सभी के सामने
होते हैं--या
तो संसार की
दौड़ का, या
संन्यास का।
संन्यास या
संसार--ये तो
दो विकल्प सभी
के सामने होते
हैं। इन
पंडितों ने
कुछ विशेष
नहीं किया अगर
बुद्ध के लिए
दो अंगुलियां
उठाईं; मैं
एक अंगुली
उठाता हूं: यह
संन्यासी
होगा।
लेकिन
आदमी का अभागा
मन, शुद्धोधन
रोने लगा। यह
कोदन्ना
सर्वज्ञात ज्योतिषी
है; युवा
है, पर
महातेजस्वी
है; और
उसके वचन कभी
खाली नहीं गए।
दूसरे
पंडितों के
साथ तो सुविधा
थी थोड़ी कि
चक्रवर्ती भी
बन सकता है, कोदन्ना ने
तो विकल्प ही
तोड़ दिया।
उसने तो कहा, यह निश्चित
बुद्ध बनेगा।
उन पंडितों के
साथ तो सम्राट
रोया न था, प्रसन्न
हुआ
था--चक्रवर्ती
सम्राट होगा
बेटा। और
दूसरे विकल्प
को उसने कोई
मूल्य न दिया
था, क्योंकि
जब चक्रवर्ती
सम्राट होने
का विकल्प हो
तो कौन
संन्यासी
होना चाहता
है! लेकिन कोदन्ना
ने तो मार्ग
तोड़ दिया, उसने
तो एक ही
अंगुली उठाई
है। लेकिन
सम्राट ने
अपने मन को
समझाया, कोदन्ना
अकेला है, विपरीत
सात ज्योतिषी
हैं। ऐसे ही
तो आदमी अपने
मन को सांत्वना
देता है। सात
ही ठीक होंगे,
एक ठीक न
होगा। लेकिन
वह एक ही ठीक
सिद्ध हुआ। और
अच्छा हुआ कि
वह एक ही ठीक
सिद्ध हुआ।
तुम्हारे
जन्म के समय
भी, जन्म के
बाद भी--चाहे
पंडित बुलाए
गए हों, न
बुलाए गए
हों--प्रकृति
दो अंगुलियां
उठाती है।
सारी प्रकृति
दो विकल्प सामने
रखती है--या तो
खो जाना
मूर्च्छा में,
या जाग जाना
होश में; या
तो बाहर की
संपदा को
जुटाना, चक्रवर्ती
होने की दौड़
में लगना; या
भीतर की संपदा
को जुटाना, आत्मवान
होने में थिर
होना।
कोदन्ना की एक
अंगुली याद
रखना! कोई
कोदन्ना
तुम्हें न
मिलेगा अंगुली
उठाने को, तुम्हें
ही अपनी
अंगुली उठानी
पड़ेगी।
शंकर
के ये सूत्र
त्याग और
वैराग्य के
सूक्ष्मतम
इशारे हैं।
'जिसके
माथे पर जटा
है, जो सिर
मुड़ाए है, जिसने
अपने बाल नोच
डाले हैं, जो
काषाय पहने है,
अथवा
तरहत्तरह के
वेश धारण किए
हैं, वह
मूढ़ आंख रहते
भी अंधा है।
केवल पेट भरने
के लिए उसने
बहुत रूप बना
रखे हैं।'
ध्यान
रखना, आदमी
का मन बड़ा
खतरनाक है, वह संन्यास
में भी संसार
खोज लेता है।
वह मंदिर में
भी पाखंड खोज
लेता है। वह
साधना में भी
भोग खोज लेता
है। आवरण कुछ
भी हो, भीतर
मन अपनी
पुरानी आदतों
का जाल बुनता
चला जाता है।
तो शंकर
कहते हैं, जिसके माथे
पर जटा है, उससे
धोखा मत खा
जाना। जटा
होने से ही
कुछ भी नहीं
होता। जिसने
सिर मुड़ा लिया
है, धोखा
मत खा जाना; और दूसरे
धोखा खा जाएं
तो खा जाएं, तुम खुद
धोखा मत खा
जाना--सिर
मुड़ा कर या
बाल बढ़ा कर या
बाल नोच डाले
हैं...जैन
दिगंबर मुनि केश-लुंच
कर लेते हैं, बालों को
नोच डालते
हैं--धोखा मत
खा जाना। जो काषाय
पहने है, जिसने
गैरिक वस्त्र
पहन लिया है, इससे धोखा
मत खा जाना।
और दूसरा खा
भी जाए तो उसकी
चिंता मत करना,
खुद मत खा
जाना।
क्योंकि
काषाय पहन
लेना भी सरल
है, बाल
नोच लेने भी
सरल हैं। थोड़े
से अभ्यास की
बात है। सिर
मुड़ा लेने में
क्या कठिनाई
है? जटा-जूट
बढ़ा लेने में
क्या अड़चन है?
थोड़े से
अभ्यास की बात
है। लेकिन
भीतर ध्यान रखना
कि यह सब
किसलिए किया
है? कहीं
इसके भीतर भी
तो संसार ही
तो नहीं चल
रहा? इसके
भीतर भी कहीं
व्यवसाय तो
नहीं चल रहा? केवल पेट
भरने के लिए
तो ये सारे
रूप नहीं बना
रखे हैं?
सौ में
निन्यानबे
संन्यासी पेट
को ही भर रहे हैं।
और पेट ही
भरना था तो
संसार बेहतर
था, कम से कम
ईमानदारी तो
थी; दुकान
बेहतर थी, क्योंकि
कम से कम
साफ-सुथरा तो
था। दुकान ही
चलानी थी तो
दुकान ही उचित
थी, कम से कम
मंदिर को
भ्रष्ट न करते;
साधारण वेश
ही ठीक था, फिर
गैरिक
वस्त्रों को
विकृत करने की
कोई जरूरत न
थी। नाई से ही
बाल कटवा लिए
होते, लोंचने
का आग्रह न
करते, वही
उचित था।
क्योंकि
अंततः मन
व्यापार कर रहा
हो, तो
बाहर के धोखे
से कुछ भी
नहीं होता।
अंतिम निर्णायक
तो भीतर का मन
है कि तुम यह
किसलिए कर रहे
हो।
मुझे
खबर मिली कुछ
महीनों पहले, दो दिगंबर
जैन
मुनि--नग्न, जिन्होंने
सब छोड़ दिया
है, जिनके
पास कुछ भी
नहीं है--वे
सुबह शौच के
लिए गांव के
बाहर गए थे, वहां उन
दोनों में
झगड़ा हो गया।
दोनों गुरु-शिष्य
थे। एक-दूसरे
पर हमला कर
दिया। झगड़े और
हमले के कारण
बात खुली।
दोनों ने अपनी
पिच्छी के
डंडे में
रुपये छिपा
रखे थे। डंडा
पोला कर लिया
था, उसमें
नोट छिपा रखे
थे। बंटवारे
पर झगड़ा हो गया
कि कौन कितना
ले।
दोनों
पकड़ कर पुलिस
स्टेशन लाए
गए। गांव के
उनके भक्त
चिंतित हुए, दुखी हुए, क्योंकि
उनकी ही
प्रतिष्ठा का
सवाल न था, उनके
प्रेम करने
वाले भक्तों
की भी
प्रतिष्ठा का
सवाल था। पैसा
देकर पुलिस को
किसी तरह चुप
किया कि यह
खबर सब तरफ न
फैल जाए।
नग्न
खड़ा आदमी भी
अंततः वही कर
रहा है, जो
दुकान पर बैठा
कर रहा है।
फिर दुकान पर
ही बैठना उचित
है। फिर कम से
कम नग्नता को
तो अपवित्र न
करो। कोई नहीं
कह रहा है कि
छोड़ो संसार
को। छोड़ना हो तो
ही छोड़ो।
ऊपर-ऊपर छोड़ो,
भीतर-भीतर
सम्हालो, इस
धोखे से कुछ
भी लाभ न
होगा।
'जिसके
माथे पर जटा
है, जो सिर
मुड़ाए है, जिसने
बाल नोच डाले
हैं, जिसने
काषाय पहना है,
अथवा तरहत्तरह
के वेश धारण
किए हैं, वह
मूढ़ आंख रहते
भी अंधा है।'
क्यों
शंकर कहते हैं, वह मूढ़ आंख
रहते भी अंधा
है?
क्योंकि
वह किसको धोखा
दे रहा है! यह
सवाल दूसरों
को धोखा देने
का नहीं है, दूसरों का
कोई प्रयोजन
ही नहीं है; वह अपने को
ही धोखा दे
रहा है।
क्योंकि अंतिम
निर्णय में, तुम जो भीतर
थे, उसी से
निश्चित होता
है; तुम जो
बाहर थे, उससे
कुछ निश्चित
नहीं होता।
जीवन, तुम
जो भीतर हो, उससे
निर्धारित
होता है; तुम
जो बाहर हो, उससे
निर्धारित
नहीं होता। वह
जो तुम्हारे भीतर
चल रहा है सतत,
वहां तुम
रुपये गिन रहे
हो; ऊपर
तुम राम-राम
जप रहे हो। वह
राम-राम
व्यर्थ है। वह
जो तुमने
रुपये गिने
हैं, वही
सार्थक है।
उससे ही
निर्णय होगा।
क्योंकि
निर्णय कोई और
करने वाला
नहीं है, कोई
दूसरा निर्णय
करने वाला
नहीं है। तुम
जो भीतर कर
रहे हो, उसी
से प्रतिपल
निर्णय हुआ जा
रहा है। कोई
निर्णायक भी
होता तो
समझा-बुझा
लेते, हाथ
जोड़ लेते, पैर
जोड़ लेते, क्षमा
मांग लेते।
कोई निर्णायक
भी नहीं है। कहीं
कोई परमात्मा
बैठा नहीं है,
जिसको तुम
समझा-बुझा
लोगे। तुमने
जो किया, तुम्हारा
कृत्य ही
तुम्हारी
नियति है।
तुम्हारे
कृत्य में ही
फल छिपा है।
तुम्हारे
सोचने में ही
तुम्हारे
होने का सारा
आधार है।
तुमने जैसा
सोचा!
महावीर
के जीवन में
बड़ी प्यारी
कथा है: कि महावीर
खड़े हैं एक
वन-प्रांत में, ध्यानस्थ।
उनका बचपन का
एक साथी, जो
सम्राट है, उनके दर्शन
को आ रहा है।
उसने राह में
एक दूसरे
सम्राट को भी
जो महावीर का
संन्यासी हो
गया है, उसको
एक शिलाखंड के
पास
तपश्चर्यारत
खड़ा देखा।
तीनों बचपन के
साथी हैं।
उसके मन में
बड़ा ही
पश्चात्ताप
होने लगा कि
मैं बड़ा पीछे
रह गया हूं।
यह सम्राट
प्रशेनचंद्र
खड़ा है--कितना
शांत, कितना
मौन, कितने
अपूर्व आनंद
में मग्न! और
एक मैं हूं कि अभी
भी रुपये-पैसे
गिन रहा हूं।
और महावीर परम
अवस्था को
उपलब्ध हो गए
हैं! मैं
अभागा हूं।
उसके मन में
बड़े त्याग का
भाव उठा।
जब वह
महावीर के पास
गया तो उसने
पूछा कि मैं एक
प्रश्न पूछना
चाहता हूं।
मैंने सम्राट
प्रशेनचंद्र
को राह में
तपश्चर्या
करते देखा, वे आपके
शिष्य हो गए
हैं; उन्हें
देख कर मेरे
मन में त्याग
के बड़े भाव उठे।
एक प्रश्न
पूछना है: जब
मैं
प्रशेनचंद्र
के सामने खड़ा
था, अगर
उनकी उसी समय
मृत्यु हो जाए,
तो उनका
कहां जन्म
होगा?
महावीर
ने कहा, अगर
उसी वक्त
मृत्यु हो तो
वे सातवें नरक
में पैदा
होंगे।
सम्राट
तो हैरान हो
गया! इतने
शांत, इतने
मौन, इतने
ध्यानस्थ वे
खड़े थे--और मौत
हो तो सातवें नरक
में जन्म
होगा!
महावीर
ने कहा, चिंतित
मत होओ। लेकिन
अब अगर मृत्यु
हो--अभी कोई
घड़ी भर ही
बीती है दोनों
के बीच, घटनाओं
में--तो वे
सातवें
स्वर्ग में
प्रवेश पाएंगे।
सम्राट
ने कहा, यह
तो बड़ी पहेली
हो गई, आप
सुलझा कर
कहें।
महावीर
ने कहा, तुम्हारे
पहले
तुम्हारे
सैनिक
प्रशेनचंद्र
के पास से
गुजरे थे।
उन्होंने कहा,
देखो ये
मूरख खड़ा है।
ये यहां आंख
बंद किए खड़े हैं
और जिन
मंत्रियों के
हाथ में ये
राज्य सौंप
आया है--इसके
बेटे तो अभी
छोटे हैं, नाबालिग
हैं--वे
मंत्री सब
लूट-खसोट कर
रहे हैं और ये
मूरख की तरह
यहां खड़े हैं!
सैनिक, साधारण
सैनिक बात
करते हुए निकल
गए। प्रशेनचंद्र
ने यह सुना कि
मंत्री
लूट-खसोट कर
रहे हैं! जिन
पर मैंने
भरोसा किया, वे धोखा दे
रहे हैं! क्षण
भर को भूल गया
कि मैं त्यागी
हूं। भूल ही
गया, बेहोशी
छा गई, मन
में खयाल उठा
कि मैं अभी
जिंदा हूं, तुमने समझा
क्या है, नासमझो!
अभी मैं जिंदा
हूं, सिर
धड़ से अलग कर
दूंगा
मंत्रियों का!
और उसका हाथ
तलवार पर चला
गया। कोई
तलवार नहीं है
अब, लेकिन
पुरानी आदत।
म्यान से
तलवार खींच
ली--सपने में।
और जैसी उसकी
आदत थी सदा की,
जब भी वह
क्रोध में आ
जाता--जैसे
तुम्हारी या बहुतों
की आदत होती
है, कोई
अपना सिर
खुजलाता है, कोई अपनी
चैंथी
खुजलाता
है--उसकी आदत
थी कि जब भी वह
क्रोध में आ
जाता, तो
अपने मुकुट को
सम्हालता था।
उसने मुकुट को
सम्हालने की
कोशिश की--वहां
सिर घुटा था, वहां कुछ भी
न था, मुकुट
वगैरह कुछ भी
न था! उसे होश आ
गया कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं? न कोई
तलवार है और न
अब मैं सम्राट
प्रशेनचंद्र
हूं! मैं तो सब
छोड़ चुका!
मेरे मन में
यह कैसे हत्या
का विचार उठा?
महावीर
ने कहा, जब
तुम
प्रशेनचंद्र
के सामने खड़े
थे, तब
भीतर उसने
तलवार खींची
हुई थी, उसी
समय मरता तो
सातवें नरक
में जाता। अब
उसे होश फिर आ
गया है, वह
हंस रहा है, उसने अपनी
मूढ़ता पहचान
ली है, इस
समय मर जाए तो
सातवें
स्वर्ग में
उत्पन्न होगा।
प्रत्येक
कृत्य
निर्णायक है।
और कृत्य का
निर्णय
तुम्हारे
अंतस में है, तुम्हारे
बाहर नहीं।
तुम बाहर से
मौन खड़े हो सकते
हो और भीतर
तूफान उठा हो
सकता है। तुम
बाहर शांत
दिखाई पड़ सकते
हो और भीतर
अशांति का दावानल
हो। तुम बाहर
चुप और भीतर
ज्वालामुखी
तैयार हो रहा
हो विस्फोट
पाने को।
तुम्हारा बाहर
मूल्यवान
नहीं है, तुम्हारा
भीतर ही
तुम्हारा
अस्तित्व है।
और तुम्हारा प्रत्येक
कृत्य निर्णय
करता है, तुम्हारी
आत्मा के
स्वरूप की।
तुम्हारा प्रत्येक
कृत्य
तुम्हें
निर्मित करता
है। कोई निर्णायक
नहीं है, तुम्हीं
हो।
इसलिए
शंकर कहते
हैं: वह मूढ़
आंख रहते भी
अंधा है। जो
सोचता है, मैं दूसरों
को धोखा दे
रहा हूं। धोखा,
सब धोखा, अपने को ही
दिया गया धोखा
है। सब
प्रवंचना अपने
को ही दी गई
प्रवंचना है।
गंवाओगे तुम
अपना ही, किसी
और का तुम कुछ
गंवा नहीं
सकते हो। शायद
दूसरे की जेब
से थोड़े पैसे
खींच लो।
लेकिन उन्हीं
पैसों में
तुम्हारी जेब
से पूरी आत्मा
बिखर जाएगी।
तुम खोओगे
बहुत, पाओगे
कुछ भी नहीं।
दूसरे को धोखा
भी दोगे तो क्या
धोखा दोगे? चार पैसे
उससे छीन
लोगे। वे पैसे
तो पड़े ही रह जाने
वाले हैं। न
जिससे तुमने
छीने हैं, वह
ले जाने वाला
था; न तुम
ले जाओगे। वे
पैसे किसकी
जेब में रहे, बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन तुमने
छीना, तुमने
आकांक्षा की,
तुम विकृत
हुए, तुमने
अपने मन को
धूमिल किया, तुमने भीतर
पाप को जगह दी,
तुमने पाप
का बीज बोया।
फिर तुम आशा
मत करना कि उस
पाप के बीज से
कोई
स्वादिष्ट फल
लगने वाले हैं,
या कोई
सुगंधित फूल
लगेंगे।
'वह
मूढ़ आंख रहते
भी अंधा है।
केवल पेट भरने
के लिए उसने
बहुत रूप बना
रखे हैं। अतः
हे मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
'अंग
गल गए हैं, बाल
सफेद हो गए
हैं, मुंह
में एक दांत
नहीं; ऐसा
वह वृद्ध छड़ी
पकड़ कर चलता
है। फिर भी वह
आशा के पिंड
से बंधा हुआ
है।'
मरने
के आखिरी क्षण
तक भी आशा
नहीं छूटती। तुम
मर जाते हो, आशा नहीं
मरती।
मरते-मरते भी
आशा सजग रहती
है--जीती है, जवान रहती
है। मरने वाला
आदमी भी सोचता
है: कल सब ठीक
हो जाएगा।
मरते-मरते भी
कल का सपना
देखता रहता
है। सपने
देखते-देखते
ही लोग मरते
हैं।
आशा
समझ लेने की
बात है। आशा
है क्या?
जो
नहीं है, वह
मिलेगा--इसकी
भ्रांति। जो
नहीं है, वह
कभी
होगा--इसका
सपना आशा है।
और आशा
से जागना क्या
है?
जो है, उसका बोध।
जो है, उसके
प्रति जाग
जाने में आशा
टूट जाती है।
और जो नहीं है,
उसकी मांग
में आशा बनी
रहती है। गरीब
भी आशा में
जीता है, अमीर
भी आशा में
जीता है।
सिकंदर
भारत आता था, तो एक फकीर
डायोजनीज से
मिलने गया; क्योंकि उस
फकीर की बड़ी
चर्चा सुनी
थी। और अनेक
बार ऐसा हुआ
है कि सम्राट
भीर् ईष्या से
भर जाते हैं
फकीरों से। वह
डायोजनीज
फकीर भी ऐसा था,
महावीर
जैसा नग्न ही
रहता था।
अनूठा फकीर था,
हाथ में
भिक्षा का एक पात्र
भी नहीं रखता
था। जब
शुरू-शुरू में
फकीर हुआ था
तो एक पात्र
रखता था।
लेकिन फिर
उसने एक दिन
एक कुत्ते को
पानी पीते
देखा नदी में।
उसने कहा, अरे
मैं भी पागल
हूं, यह
पात्र नाहक
ढोता हूं।
कुत्ता बिना
पात्र के पानी
पी रहा है!
कुत्ता हमसे
ज्यादा
समझदार है। और
जब यह काम चला
लेता है बिना
पात्र के, तो
हम आदमी होकर
न चला पाएंगे?
उसने पात्र
वहीं फेंक
दिया।
उसकी
बड़ी खबर
सिकंदर के पास
पहुंचती थी कि
वह परम आनंदित
है। सिकंदर
उससे मिलने
गया। सिकंदर
जब उसे मिलने
गया तो
डायोजनीज ने
पूछा, कहां
जा रहे हो?
सिकंदर
ने कहा, एशिया
मायनर जीतना
है।
डायोजनीज
ने पूछा, फिर
क्या करोगे? और डायोजनीज
लेटा था नदी
की रेत में।
सर्दी की ऐसी
ही सुबह रही
होगी, धूप
ले रहा था। वह
लेटा ही रहा, वह उठ कर
बैठा भी नहीं।
फिर क्या
करोगे?
सिकंदर
ने कहा, फिर
भारत जीतना
है।
डायोजनीज
ने कहा, फिर?
सिकंदर
ने कहा कि फिर
और जो
थोड़ी-बहुत
दुनिया बचेगी, वह जीत लेनी
है।
डायोजनीज
ने कहा, और
फिर?
सिकंदर
ने कहा, फिर
क्या, फिर
आराम करेंगे।
डायोजनीज
हंसने लगा, उसने कहा, आराम तो हम
अभी कर रहे
हैं। तुम तब
करोगे? अगर
आराम ही करना
है, अगर
आखिर में आराम
ही करना है, तो इतनी
दौड़-धूप
किसलिए? आराम,
देखो हम अभी
कर रहे हैं।
वह लेटा ही
था। और इस नदी
के तट पर बहुत
जगह है, कोई
ऐसा भी नहीं
कि जगह की कमी
है, तुम भी
आराम कर सकते
हो, कहीं
जाने की कोई
जरूरत नहीं
है।
सिकंदर
निश्चित ही
गहन रूप से
प्रभावित हुआ
था। झेंप गया
क्षण भर को।
बात तो सच थी।
अंत में आराम
ही करना है और
अंत के आराम
के लिए इतना
इंतजाम कर रहा
है। और डायोजनीज
निश्चित आराम
कर रहा है। यह
कह भी नहीं
सकते कि वह
गलत बोल रहा
है--वह आराम कर
ही रहा है। और
सिकंदर से
ज्यादा
प्रफुल्लित
है, सिकंदर
से ज्यादा
उसका खिला कमल
है। सिकंदर के
पास सब कुछ है
और भीतर कुछ
भी नहीं। डायोजनीज
के पास बाहर
कुछ भी नहीं
है और भीतर सब
कुछ।
सिकंदर
ने डायोजनीज
से कहा कि तुम
मुझेर् ईष्या
से भरते हो।
अगर दुबारा
मुझे कोई जन्म
मिला तो
परमात्मा से
कहूंगा, मुझे
सिकंदर मत बना,
डायोजनीज
बना दे।
डायोजनीज
ने कहा, यह
फिर तुम अपने
को धोखा दे
रहे हो।
परमात्मा को
क्यों बीच में
लाते हो? अगर
तुम्हें
डायोजनीज
बनना है, तो
अभी बनने में
कौन सी अड़चन
है? मुझे
अगर सिकंदर
बनना हो तो
अड़चन हो सकती
है; क्योंकि
सारी दुनिया
जीत पाऊं, न
जीत पाऊं; इतना
फौज-फाटा
इकट्ठा कर
पाऊं, न कर
पाऊं। लेकिन
तुम्हें
डायोजनीज
बनने में क्या
अड़चन है? कपड़े
फेंक दो, विश्राम
करो।
सिकंदर
ने कहा, बात
जंचती है, लेकिन
आशा नहीं
मानती। मैं
आऊंगा, मैं
जरूर लौट कर
आऊंगा। लेकिन
अभी तो मुझे
जाना होगा, अभी तो
यात्रा अधूरी
है। तुम्हारी
बात शत-प्रतिशत
सही है।
यही
मजा है। बात
ठीक भी लगती
है, फिर भी
आशा खींचे चली
जाती है!
कुछ
दिन पहले, जापान में
हुए एक बड़े
कवि ईशा की
कुछ पंक्तियां
मैं सुना रहा
था। उसकी
पत्नी मर गई, बहुत दुख
हुआ; फिर
उसकी बेटी मर
गई, बहुत
दुख हुआ; और
जब वह तैंतीस
साल का था, तभी
उसके पांचों
बच्चे मर गए; वह अकेला रह
गया। वह बड़ी
पीड़ा में था
और कवि हृदय
था, कंप
गया। यह दुख
इतना क्यों
है--पूछने
लगा। सो न सके
रात, दिन
होश न रहे--बस
एक ही बात
पूछे कि इतना
दुख क्यों है
संसार में? और मैंने
ऐसा क्या बुरा
किया है? किसी
ने कहा कि तुम
मंदिर जाओ, मंदिर में
एक फकीर है, शायद वह
तुम्हारी
समस्या हल कर
दे। वह मंदिर
गया। मंदिर के
फकीर ने कहा, दुख क्यों
है? यह बात
ही व्यर्थ है।
जीवन तो ओस की
बूंद की भांति
है--अब गया, तब
गया। तुम भी
जाओगे। पांच
बच्चे गए, पत्नी
गई, अब तुम
समय खराब मत
करो। जीवन तो
घास के पत्ते पर
ठहरी ओस की
भांति है--अभी
गया, तभी
गया। लौट आया
ईसा घर। बात
तो जंची। जीवन
ऐसा ही है।
उसने एक हाइकू
लिखा, एक
छोटी सी कविता
लिखी। कविता
है:
लाइफ
इज़ ए डयू
ड्रॉप
यस आई
एम कनविंस्ड
परफेक्टली--लाइफ
इज़ ए डयू ड्रॉप
एंड यट, एंड यट...
निश्चित
ही जीवन एक ओस
का कण है
और मैं
पूर्णतया
सहमत हूं कि
जीवन एक ओस का
कण है
फिर भी, फिर भी...
'फिर
भी' आशा
है। समझ में
भी आ जाए, तो
भी आशा समझने
नहीं देती; बुद्धि भी
पकड़ ले, तो
भी प्राण से
संबंध नहीं
जुड़ता; विचार
में झलक भी
जाए, तो भी
भावना में
नहीं झलकता और
आशा अपना जाल
बुने जाती है।
'अंग
गल गए हैं, बाल
सफेद हो गए
हैं, मुंह
में एक दांत
नहीं; ऐसा
वह वृद्ध छड़ी
पकड़ कर चलता
है। फिर भी वह
आशा के पिंड
से बंधा हुआ
है।'
आशा
धागा है, जिसके
सहारे हम जीते
हैं। बड़ा महीन
धागा है, कभी
भी टूट सकता
है, लेकिन
टूटता नहीं।
मजबूत से
मजबूत जंजीर
बन गया है। एक तरफ
से टूटता है
तो हम दूसरी
तरफ से सम्हाल
लेते हैं। अगर
संसार से भी
टूट जाता है
तो हम मोक्ष
की आशा करने
लगते हैं, स्वर्ग
की आशा करने
लगते हैं। आशा
जारी रहती है।
आशा संसार से
भी बड़ी है।
संसार छूट जाए,
टूट जाए, संसार का
दुख दिखाई पड़
जाए, तो
आदमी स्वर्ग
की आशा करने
लगता है। आशा
चलती रहती है।
तुम थक जाते
हो, गिर
जाते हो, आशा
घसीटती चली
जाती है।
तुम्हें
भी कई बार
सवाल उठा
होगा--राह के
किनारे किसी
भिखमंगे को न
हाथ हैं, न
पैर हैं, न
आंख हैं, शरीर
गल रहा है--कभी
तुम्हें भी
सवाल उठा
होगा: क्योंकि
जीए जा रहा है?
अब क्या है
जीने को? लेकिन
ऐसा मत सोचना
कि यह गलती
वही कर रहा है;
अगर यही दशा
तुम्हारी भी आ
जाए तो तुम
सोचो, क्या
करोगे? फिर
भी तुम जीओगे।
तुम किसी
चमत्कार की
आशा करोगे--कि
कौन जाने, कल
सब ठीक हो जाए!
आदमी कितने ही
दुख को स्वीकार
कर लेता है, फिर भी जीए
जाता है।
एक
बहुत अनूठी
घटना तुमसे
कहना चाहता
हूं: आदमी दुख
में तो आशा
छोड़ता ही नहीं, कितना ही
दुख हो।
तर्कतः ऐसा
लगता है कि
दुख आशा को
तोड़ देगा।
नहीं लेकिन, दुख आशा को
नहीं तोड़ पाता;
जितना दुखी
आदमी होता है,
उतनी ही बड़ी
आशा करता है।
दुख आशा को
जगाता है, तोड़ता
नहीं। हां, सुख में
कभी-कभी आशा
टूट जाती है, लेकिन दुख
में नहीं
टूटती। इसलिए
तो राजपुत्र--महावीर,
बुद्ध--उनकी
आशा टूट गई; भिखमंगों की
नहीं टूटती।
जैनों के
चौबीस तीर्थंकर
राजपुत्र हैं,
बुद्धों के
चौबीस बुद्ध
राजपुत्र हैं,
हिंदुओं के
सब अवतार
राजपुत्र
हैं। क्या कारण
होगा? सुख
में आशा टूट
जाती है, दुख
में नहीं
टूटती।
यह बड़ी
विडंबना है।
लगता ऐसा है
कि दुख में टूटनी
चाहिए। जब
आदमी इतने दुख
में है, तो
क्यों नहीं
छोड़ देता आशा
को? लेकिन
जितना ज्यादा
दुख होता है, उतना ही मन
आशा पैदा करता
है। दुख में
आशा खिलती है,
उसका अंकुरण
होता है।
लेकिन सुख में
टूट जाती है।
इसलिए
जितना सुखी
समाज हो, उतना
धार्मिक हो
जाता है। और
जितना दुखी
समाज हो, कम्युनिस्ट
हो सकता है, धार्मिक
नहीं हो सकता।
अमेरिका में
संभावना है कि
धर्म का उदय
हो, भारत
में नहीं। कभी
भारत में धर्म
का उदय हुआ था;
वे बड़े सुख
के दिन
थे--मुल्क
सुखी था; लोग
तृप्त थे, संतुष्ट
थे--आशा टूट
गई।
जब
तुम्हारे पास
सब होता है, तब तुम्हें
दिखाई पड़ता
है: सब व्यर्थ
है। और यह ठीक
भी है, क्योंकि
जो तुम्हारे
पास नहीं है, उसकी
व्यर्थता
तुम्हें
दिखाई कैसे
पड़ेगी? जिसके
पास धन है, उसको
दिखाई पड़ सकता
है कि धन
व्यर्थ है।
जिसके पास धन
नहीं है, उसे
कैसे दिखाई
पड़ेगा कि धन
व्यर्थ है? व्यर्थता
दिखाई पड़ने के
पहले होना तो
चाहिए। जिसके
पास ज्ञान है,
उसे दिखाई
पड़ सकता है कि
ज्ञान व्यर्थ
है। जिसके पास
ज्ञान नहीं है,
उसे कैसे
दिखाई पड़ेगा
कि ज्ञान
व्यर्थ है? कोहिनूर
तुम्हारे हाथ
में हो तो समझ
में आ सकता है
कि न खा सकते
हो, न पी
सकते हो, करोगे
क्या--व्यर्थ
है। लेकिन हाथ
में न हो तो सिर्फ
सपना है। सपने
कभी व्यर्थ
नहीं होते। सपने
को जांचने का
कोई उपाय नहीं
है।
दुख
में आशा जीती
है, सघन होती
है; सुख
में टूट जाती
है।
इसलिए
दुखी आदमी सड़क
के किनारे पड़ा
मरता रहे नरक
में, तो भी आशा
करता रहता है।
अगर तुम कभी
नरक जाओ तो
तुम्हें वहां
दुनिया के सब
से बड़े आशा
करने वाले लोग
मिलेंगे। वे
नरक में सड़
रहे होंगे, लेकिन वे
आशा कर रहे
हैं कि आज
नहीं कल
छुटकारा होने
वाला है।
मैंने सुना
है कि एक
जेलखाने में
एक नया कैदी
आया। जिस
कोठरी में उसे
लाया गया, कोठरी में
एक आदमी पहले
से था। उस
आदमी ने पूछा
कि कितने साल
की सजा हुई है?
उस कैदी ने
कहा कि दस साल
की। तो उसने
कहा कि तू दरवाजे
के पास ही बैठ,
क्योंकि
हमें तीस साल
की हुई है। हम
दीवाल के पास
रहेंगे, तू
दरवाजे के पास;
तुझे जल्दी
जाना है। दस
साल की सजा
हुई है, तू
दरवाजे के पास
ही बैठ!
कारागृह
में भी आशा है, कौन कब
छूटने वाला
है। उस छूटने
के दिन के लिए लोग
जी लेते हैं।
जीवन
में एक बात
समझ लेना: जो
सुख तुम्हें
मिला हो, उसको
गौर से देखना;
क्योंकि
उससे ही
मुक्ति का
उपाय है। अगर
सुंदर पत्नी
तुम्हारे पास
हो, तो
सौंदर्य में
ठीक से उतरना;
अगर धन
तुम्हारे पास
हो, तो धन
का ठीक से
स्वाद लेना; अगर पद
तुम्हारे पास
हो, तो
उसकी
परिक्रमा
करके ठीक से
निरीक्षण
करना। जो
तुम्हारे पास
हो, उसे
गौर से देखना,
तो ही आशा
टूटेगी। और जो
तुम्हारे पास
नहीं है, अगर
उसका तुमने
ध्यान रखा, तो आशा कभी
नहीं टूट
सकती। और
जिसकी आशा न
टूटी, उसके
जीवन में धर्म
का कोई प्रवेश
नहीं होता।
आशा
अधर्म का
द्वार है; आशा का टूट
जाना, धर्म
का प्रवेश है।
और एक
बात और समझ लो:
आशा का टूट
जाना निराशा
नहीं है, ध्यान
रखना। निराशा
तो आशा का
हारना है, टूटना
नहीं। निराशा
में तो आशा
जिंदा रहती है।
अभी निराश हो
गए, फिर
आशा से भर
जाओगे।
निराशा तो आशा
का ही हारा
हुआ पहलू है।
वह तो थकी हुई,
हारी हुई
आशा है। वह तो
गिर गई आशा है,
मिट गई आशा
नहीं। जब आशा
मिटती है, तो
निराशा नहीं
छूटती।
इस बात
के कारण
पश्चिम में
बड़ी चिंता
पैदा हुई।
क्योंकि
पश्चिम में
महावीर, बुद्ध
लोगों को
निराशावादी
मालूम होते
हैं। क्योंकि
वे कहते हैं, आशा छोड़ दो।
भूल हो रही
है। महावीर और
बुद्ध निराशावादी
नहीं हैं, वे
पेसिमिस्ट
नहीं हैं। वे
आशावादी भी
नहीं हैं, निराशावादी
भी नहीं हैं।
वे कहते हैं, जब आशा छूट
गई तो निराशा
तो अपने आप
छूट जाती है; निराशा तो
आशा की छाया
है। जब तुम
चलते हो तो छाया
बनती है; जब
तुम चलते ही
नहीं धूप में
तो छाया किसकी
बनेगी? जब
आशा होती ही
नहीं तो
निराशा अपने
आप मिट जाती
है।
इसलिए
जितनी तुम आशा
करोगे, उतनी
ज्यादा
निराशा होती
है; क्योंकि
उतनी ही हार
मिलती है, उतना
ही विषाद
मिलता है, उतना
ही संताप
मिलता है। फिर
निराशा से नई
आशा पैदा होती
है। और यह खेल
दिन-रात की
तरह चलता रहता
है।
आशा
टूट जाए तो न
आशा होती है, न निराशा होती
है। और तभी
तुम शांत होते
हो। आशा और
निराशा के
झंझावात में
तुम्हारी
चेतना की लौ
कंपती रहती
है। जब न आशा
रहती, न
निराशा--हवा
के झोंके आने
बंद हो जाते
हैं--स्थितप्रज्ञता
उपलब्ध होती
है; थिर
होता है
चैतन्य। उस
थिरता में ही
परम सौभाग्य
है। उस थिरता
में ही परम
धन्यता है। वह
थिरता ही
समाधि है।
'सर्दी
के मारे सुबह
वह सामने आग
रख कर या सूर्य
की तरफ पीठ
करके गरमाई
लेता है, रात
में जानुओं के
बीच ठुङ्ढी
दबाए सोता है,
हाथ पर भीख
लेता है, पेड़
के नीचे वास
करता है, फिर
भी आशा का
बंधन नहीं
छोड़ता। अतः हे
मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
'चाहे
वह गंगा या
समुद्र की
यात्रा करे, चाहे अनेक
व्रतों का
पालन करे, अथवा
दान करे; लेकिन
यदि ज्ञान
नहीं है, तो
सर्वमत यही है
कि सौ जन्मों
में भी मुक्ति
न हो सकेगी।'
चाहे
गंगा या
समुद्र की
यात्रा करे, चाहे अनेक
व्रतों का
पालन करे, अथवा
दान करे; लेकिन
यदि ज्ञान
नहीं है, तो
सौ जन्मों में
भी मुक्ति
नहीं होगी।
इसे
समझें।
क्योंकि यह
आसान लगता
है--व्रत कर लेना, दान कर देना,
उपवास साध
लेना; नियम-अनुशासन
जीवन का बना
लेना, संयम-मर्यादा
से जीना, थोड़ी
तपश्चर्या कर
लेना--यह आसान
है। क्योंकि कृत्य
सदा आसान है; तुम बदलते
नहीं और कृत्य
हो जाता है।
ज्ञान
कठिन है, क्योंकि
ज्ञान का अर्थ
है--रूपांतरण।
ज्ञान का अर्थ
है--तुम बदलो, तुम्हारी
चेतना का ढंग
बदले। ज्ञान
का अर्थ है--तुम्हारी
चेतना की गति
और दिशा बदले।
ज्ञान का अर्थ
है--तुम्हारी
चेतना थिर हो;
डगमगाए न, निष्कंप हो।
कठिन है।
कर
लेना तो आसान
है। ज्यादा
खाते हो तो भी
शरीर को कष्ट
देते हो, उपवास
कर लिया तो भी
शरीर को कष्ट
देना है; दोनों
हालत में कोई
बहुत अंतर
नहीं पड़ता।
पहले ज्यादा
खाकर कष्ट
देते रहे, फिर
उपवास करके
कष्ट दे दिया।
धन को पकड़ते
हो, छोड़ भी
सकते हो। क्योंकि
धन को पकड़ने
में ही
तुम्हें पता
चलेगा, कुछ
भी नहीं है, व्यर्थ है।
व्यर्थ का दान
कर देना कोई
बहुत बड़ी
क्रांति है?
कठोपनिषद
की कथा है, उस कथा के
कारण ही उस
उपनिषद का नाम
कठोपनिषद है:
कथा-उपनिषद।
नचिकेता के
बाप ने बड़ा
यज्ञ किया।
यज्ञ के बाद
उसने बड़ा दान
किया।
नचिकेता पास
ही बैठा है, छोटा सा
बच्चा है, वह
बार-बार पूछने
लगा: क्या सभी
आप दे डालोगे?
बाप ने
कहा कि सभी
दान करना
पड़ेगा। जो भी
मेरा है, सभी
दान करना है।
लेकिन
नचिकेता ने
देखा कि बाप
ऐसी गऊएं दान
कर रहा है
जिनका दूध कभी
का खो चुका, जिनसे दूध
निकलता ही
नहीं। लोग ऐसी
चीजों का दान
करते हैं, जो
व्यर्थ हो
जाती हैं। उन
चीजों को दे
रहा है, जिनका
कोई उपयोग ही
नहीं है; जिनका
कोई उपयोग हो
भी नहीं सकता।
और बड़े उत्साह
से बांट रहा
है और बांटने
में बड़ा मजा
ले रहा है। वह
नचिकेता की
ताजी बुद्धि,
बाप की बूढ़ी
बुद्धि; जो
बाप को नहीं
दिखाई पड़ रहा,
वह उसे
दिखाई पड़ रहा
है। वह कहने
लगा कि इन सबको
देने से क्या
होगा? ये
गऊएं तो दूध
देना बंद कर
चुकी हैं। ये
तो जिन
ब्राह्मणों
को तुम दे रहे
हो, उनको
और इनके लिए
घास-पात
जुटाना पड़ेगा,
और व्यर्थ
की मुसीबत
होगी। इससे
पुण्य नहीं हो
सकता।
बाप ने
उससे कहा, तू चुप रह!
लेकिन
तब नचिकेता
पूछने
लगा--जैसे
छोटे बच्चे होते
हैं--कि ठीक है, जब सभी आप दे
रहे हैं, तो
मुझे किसको
दोगे? मैं
भी तो
तुम्हारा हूं!
तुम कहते हो
कि सभी जो तुम्हारा
है, बांट
दोगे। मुझे
किसको दोगे? वह बार-बार
बाप को पूछने
लगा कि मुझे
किसको दोगे?
बाप ने
क्रोध में कहा, तुझे मौत को
दे देंगे।
आदमी
देता है, जो
व्यर्थ हो
गया। तुम भी
बांटते हो
चीजों को, जब
वे तुम्हारे
काम की नहीं
होतीं। मैं
ऐसा देखता
हूं: कुछ
चीजें ऐसी हैं
जो घूमती ही
रहती हैं
एक-दूसरे से
दूसरे के पास।
किसी के काम
की नहीं हैं।
उनको लोग
बांटते रहते
हैं। तुम जिसको
देते हो, वह
भी किसी को दे
आता है। जब
देने ही का
मजा लेना है, तो ठीक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके एक मित्र
ने शराब की एक
बोतल दी। पूछा
बाद में, कहो,
कैसी रही? मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा: कहना
चाहिए, करीब-करीब
ठीक। उसने कहा,
कुछ समझे
नहीं।
करीब-करीब
ठीक! क्या
मतलब? या
तो कहो ठीक या
कहो गलत।
नसरुद्दीन ने
कहा कि नहीं, करीब-करीब
ठीक। अगर ठीक
से थोड़ी
ज्यादा ठीक होती
तो तुम हमें
देते नहीं; और अगर ठीक
से थोड़ी कम
ठीक होती तो
हम किसी और को
देते।
करीब-करीब ठीक
थी, पी गए।
लोग
करीब-करीब ठीक
चीजें दे रहे
हैं, जिनका
कोई मूल्य
नहीं है।
दान
में कुछ भी
नहीं बिखरता, व्यर्थ को
तुम बांट देते
हो; उपवास
में भी कुछ
नहीं लगता, शरीर को
थोड़ा सता लेते
हो; तपश्चर्या
भी चल सकती है,
क्योंकि
उससे भी
अहंकार तृप्त
हो सकता है।
इसलिए
क्रांति तो
केवल एक है, और वह
क्रांति
है--आत्मज्ञान
की क्रांति।
उस क्रांति के
अतिरिक्त न
कभी कोई मुक्त
हुआ है, न
कभी हो सकता
है।
ज्ञान
एकमात्र
मुक्ति है।
ज्ञान मोक्ष
है।
लेकिन
ज्ञान से तुम
शास्त्र-ज्ञान
मत समझ लेना; क्योंकि वह
तो बिलकुल
आसान है; वह
तो उपवास से
भी ज्यादा आसान
है; वह तो
दान से भी
ज्यादा आसान
है। शास्त्र
पढ़ लेने में
क्या कठिनाई
है? और
बुद्धि को
शास्त्र से भर
लेने में भी
क्या अड़चन है?
गीता
कंठस्थ हो
सकती है और
जीवन में जरा
भी गीत न हो।
और जब गीत ही न
हो जीवन में
तो भगवत-गीत कैसे
हो सकता है? गीता हो
सकती है कंठस्थ
और गीत बिलकुल
न हो। गीत
चाहिए। और गीत
इतना सघन होता
चला जाए कि
तुम गीत में
संपूर्ण डूब
जाओ, तो
गीत भगवत-गीत
हो जाता है।
फिर न तो
कृष्ण याद
रहते हैं, न
अर्जुन याद
रहता है; न
गीता में क्या
कहा है, वह
याद रहता है।
लेकिन जो कहा
है, तुम
वही हो गए
होते हो। तुम
स्वयं ही वही
बन गए होते
हो। फिर उस सब
कचरे को याद
रखने की जरूरत
भी नहीं होती।
शास्त्र
मूल्यवान है
उन्हें, जो
कचरे को
इकट्ठा करने
में रस लेते
हैं। जो स्वयं
शास्त्र बन
जाते हैं, उनके
लिए शास्त्र
का फिर कोई भी
मूल्य नहीं है।
और जब तक तुम
स्वयं
शास्त्र न बन
जाओ, तब तक
ज्ञान नहीं
है। ज्ञान तब
है, जब
तुम्हारा
इशारा-इशारा
सत्य की तरफ
हो जाए। जब
तुम्हारी आंख
झपके तो सत्य
का इशारा
प्रकट हो; तुम
बोलो तो सत्य
का इशारा
प्रकट हो; तुम
न बोलो तो
तुम्हारे न
बोलने में
सत्य प्रकट
हो।
चाहे
तुम गंगा की
यात्रा करो...
गंगा का
बेचारी का
क्या कसूर है? तुम उसे
क्यों सताते
हो?
रामकृष्ण
से कोई पूछा
कि मैं गंगा
जा रहा हूं।
आपका क्या
खयाल है--गंगा
में स्नान
करने से पाप
धुल जाते हैं
या नहीं?
रामकृष्ण
बड़े सरल
व्यक्ति थे।
उन्होंने कहा कि
जरूर धुल जाते
हैं; जब गंगा
में स्नान
करोगे, डुबकी
लगाओगे, पाप
अलग हो जाते
हैं। लेकिन
निकलोगे बाहर
कि नहीं?
निकलेंगे
तो जरूर।
उन्होंने
कहा, वे वृक्ष
जो गंगा के
किनारे खड़े
हैं, इसीलिए
खड़े हैं कि उन
पर पाप बैठ
जाते हैं। तुम
निकले, वे
फिर उचक कर
तुम पर सवार
हो गए। गंगा
की वजह से
छूटे थे, तुम्हारी
वजह से तो
छूटे भी नहीं
थे। अगर तुम
डूबे ही रहो
गंगा में तो
मुक्त हो
जाओगे।
निकलना मत।
उस
आदमी ने कहा, लेकिन
निकलना तो
पड़ेगा!
तो फिर
बेकार मेहनत
कर रहे हो।
गंगा
का गुण है, छुड़ा देगी।
लेकिन किए
तुमने हैं, तो गंगा
कैसे छुड़ा
देगी? और
गंगा ऐसे सबके
पाप छुड़ाने का
काम करती रहे,
तो आखिर में
गंगा बड़ी
महापापी हो
जाएगी; क्योंकि
कोई भी करे
पाप और गंगा
छुड़ा दे, तो
अंत में सारे
पाप गंगा की
ही
जिम्मेवारी
हो जाएंगे। तो
गंगा का ऐसा
क्या कसूर है?
लेकिन
आदमी बहाने
खोजता है।
आदमी करता है
पाप, फिर कोई
बहाने खोजता
है, ताकि
पाप का बोझ न
रह जाए। तो
गंगा में
डुबकी लगा आता
है, फिर
निश्चिंत हो
जाता है। फिर
पाप करने को
तैयार होकर आ
गए वे। अब वे
फिर पाप
करेंगे; फिर
गंगा में
स्नान कर
आएंगे। गंगा
ने तुम्हें
पाप से मुक्त
करवाया, ऐसा
नहीं; तुम्हें
और भी पाप
करने में कुशल
बना दिया। क्योंकि
तुम्हें एक
तरकीब मिल गई
कि जब भी पाप
होगा, गंगा
में स्नान कर
आएंगे। सस्ता
है मामला; कोई
टिकट बहुत
मंहगी नहीं
है। और बिना
टिकट ही जाते
हैं अक्सर
तीर्थयात्री।
क्योंकि जब इतने
पाप ही गंगा
छुड़ा रही है
तो और टिकट की
झंझट क्या
करनी, वह
भी छूट जाएगी।
'चाहे
वह गंगा की यात्रा
करे, चाहे
अनेक व्रतों
का पालन करे, अथवा दान
करे; लेकिन
यदि ज्ञान
नहीं है, तो
सर्वमत यह है
कि सौ जन्मों
में भी मुक्ति
न हो सकेगी।
अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द
को भजो।'
'देवता
के मंदिर या
वृक्ष के नीचे
निवास हो, भूमि
ही शय्या हो, मृगछाला ही
वसन हो, सब
प्रकार के
परिग्रह और
भोग का त्याग
हो; ऐसा
वैराग्य
किसको सुखी
नहीं करता?'
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
वचन है और बड़ी
गंभीर समस्या
शंकर उठा रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
अगर तुम सचमुच
त्यागी हो तो
आनंद सबूत
होगा कि तुम्हारा
त्याग सच है
या नहीं।
त्यागी और
दुखी दिखाई
पड़े, तो त्याग
झूठा। तुम कहो
कि मेरे घर
में दीया जला
है और सब तरफ
अंधेरा हो, तो तुम्हारा
दीया झूठा।
दीया जला हो
तो घर में
रोशनी होनी
चाहिए।
शंकर
कहते हैं, देवता के
मंदिर या
वृक्ष के नीचे
निवास हो--और तुम
दुखी! और तुम
उदास! तो
देवता से
पहचान नहीं हुई,
तो मंदिर
अभी मिला
नहीं।
'भूमि
ही शय्या हो।'
ऐसी
जिसकी मुक्ति
हो कि आकाश ही
ओढ़नी और भूमि ही
शय्या! इसलिए
तो महावीर को
दिगंबर कहा।
आकाश ही जिनकी
ओढ़नी हो गई, भूमि ही
जिनकी शय्या
हो गई।
'भूमि
जिसकी शय्या
हो, मृगछाला
ही वसन हो, सब
प्रकार के
परिग्रह और
भोग का त्याग
हो; ऐसा
वैराग्य
किसको सुखी
नहीं करता?'
सुख
कसौटी है। सुख
की रोशनी
तुममें प्रकट
हो, वही सबूत
है कि तुम
विरागी हो। और
कोई सबूत नहीं
है। तुमने घर
छोड़ा, तुमने
धन छोड़ा, तुम
नग्न हो गए, तुमने सिर
मुड़ा लिया, तुमने
जटा-जूट बढ़ा
लिए, तुमने
गैरिक वस्त्र
पहन लिए, तुम
भाग गए हिमालय,
तुम गंगा के
किनारे बैठ गए,
लेकिन अगर
सुख में तुम
विराजमान न
हुए, तो सब
धोखा है।
कसौटी पर तुम
न उतर पाओगे।
तुम सोने जैसे
दिखाई पड़ते हो,
सोना तुम हो
नहीं, पीतल
हो। सोने को
कसने की कसौटी
जैसे है, वैसे
ही त्याग को
कसने की कसौटी
है--वह है तुम्हारा
आनंद। त्यागी
और आनंदित न
हो, और
भोगी दुखी न
हो, यह
असंभव है।
दुखी जहां तुम
किसी को पाओ, समझना भोगी;
आनंदित तुम
जहां किसी को
पाओ, समझना
त्यागी।
इसलिए
शंकर कहते
हैं: 'चाहे वह
भोग में रत हो
या योग में, चाहे वह
किसी के संग
हो या अकेला, यदि उसका
चित्त ब्रह्म
में रमण करता
है, तो वही
आनंदित है, वही आनंदित
है, वही
आनंदित है।'
फिर
चाहे तुम घर
में हो या
बाहर, तुम
सिंहासन पर
बैठे हो कि
पहाड़ के किसी
शिलाखंड पर।
'चाहे
वह भोग में रत
हो या योग
में।'
योगरतो
वा भोगरतो वा।
'चाहे
वह किसी के
संग हो या
अकेला।'
संगरतो
वा संगविहीनः।
परिवार
में हो, संग-साथ
में हो, समाज
में हो, या
एकांत में हो;
तुम उसे महल
में पाओ या
झोपड़े में, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
'यदि
उसका चित्त
ब्रह्म में
रमण करता है, तो वही
आनंदित है, वही आनंदित
है, वही
आनंदित है।
अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द
को भजो।'
ब्रह्म
में रमण।
ब्रह्म की
हमने परिभाषा
की है
सच्चिदानंद--सत्य
में रमण, चैतन्य
में रमण, आनंद
में रमण। जो
प्रामाणिक हो;
जो वैसा हो
जैसा है; जो
वही हो जैसा
है; जो
अन्यथा प्रकट
न करे; जो
बाहर-भीतर
एकरस हो--सत्।
चैतन्य हो; मूर्च्छित न
हो; होशपूर्ण
हो; जागा
हुआ हो--चित।
और आनंदित हो,
कि उसके
रोएं-रोएं में
सुवास हो
परमात्मा की,
कि उसकी
श्वास-श्वास
में संगीत हो,
कि उसके
उठने-बैठने
में अज्ञात के
घूंघर बजें, कि तुम उसके
पास आओ तो
उसकी शीतलता
तुम्हें घेर
ले, कि
तुम्हारे
हृदय में भी
उसका आनंद
नृत्य करने
लगे; उसकी
मौजूदगी
परमात्मा की
याद दिलाए; उस पर आंखें
टिक जाएं तो
सब दुख
विसर्जित हो जाएं;
उसका आशीष
मिल जाए तो सब
पा लिया--ऐसी
प्रतीति हो; गहन परितोष
आ जाए; तो
ही सबूत है।
अब
यहीं बड़े मजे
की घटना घट
जाती है।
महावीर की
प्रतिमा
तुमने देखी, परम आनंदित।
उनकी देह
तुमने देखी? फिर तुम जैन
मुनि को खोजो,
वह तुम्हें
दुखी और दीन
दिखाई पड़ेगा।
आनंद प्रकीर्ण
होता नहीं
मालूम होता, बल्कि
उदासी। जैसे
सिकुड़ गया है,
फैला नहीं;
कली खिल कर
फूल नहीं बनी
है, कली और
सिकुड़ गई है।
लेकिन तुम इस
सिकुड़ने को त्याग
कहते हो!
तुम्हें उसके
पास चाहे
पसीने की बदबू
आ जाए, क्योंकि
वह स्नान नहीं
करता; और
चाहे बातचीत
तुम उससे करो
तो उसके मुंह
से दुर्गंध
तुम्हें मिल
जाए, क्योंकि
वह दतौन नहीं
करता। इसको
उसने त्याग समझा
है। लेकिन
उसके पास तुम
नाचते हुए न
अनुभव होओगे।
और उसके पास
ऐसा नहीं होगा
कि तुम जाओ तो
एक गीत
तुम्हें घेर ले,
कोई
बांसुरी बजने
लगे जो तुमने
कभी न सुनी
थी। उसके पास
से तुम थोड़े
बेचैन होकर
लौटोगे। शायद
उसकी मौजूदगी
तुम्हें अपने
प्रति निंदा
से भर दे; शायद
उसकी मौजूदगी
में तुम्हें
ऐसा लगने लगे कि
मैं पापी हूं;
लेकिन उसकी
मौजूदगी
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर के
परमात्मा के
बोध से न
भरेगी।
और यही
फर्क है:
वास्तविक
संन्यासी के
पास तुम
निंदित होकर न
लौटोगे, तुम
आनंदित होकर
लौटोगे।
वास्तविक
संन्यासी के
पास तुम
अहोभाव से भर
कर लौटोगे।
वास्तविक
संन्यासी
तुम्हें
तुम्हारा
अंधकार नहीं दिखाएगा,
वह तुम्हें
तुम्हारे
भीतर की रोशनी
की तरफ इशारा
करेगा। तुम
कितने ही पापी
होओ, वास्तविक
संन्यासी का
इशारा
तुम्हारे पाप
की तरफ नहीं, क्योंकि वह
भी कोई बात
करने की बात
है? वह दो
कौड़ी की चीज
है। तुम्हारे
भीतर की महिमा
ही असली बात
है। तुम पापी
भी हो तो
इसलिए कि तुम्हें
अपनी महिमा का
अब तक पता
नहीं चला।
तुम्हारे पाप
का बोध
तुम्हें और
करवा दिया जाए
तो तुम्हारी
महिमा और दब
जाएगी। नहीं,
पाप तो जैसे
है ही नहीं।
वह तो जैसे
सपना है रात
का। उसका कोई
मूल्य नहीं
है। तुम्हारे
भीतर का
परमात्मा--उसका
स्मरण
तुम्हें आ
जाए।
लेकिन
उसका स्मरण
तुम्हें वही
दिला सकता है, जो उसमें रत
हो; जो
ब्रह्म में
रमण कर रहा
हो। उसकी
मौजूदगी में
तुम्हारे
भीतर भी कोई
जागने लगेगा।
उसकी मौजूदगी
में--जैसे
आकाश में मेघ
घिरते हैं और
मोर नाचने
लगते हैं, ऐसे
उसके भीतर...
बुद्ध
ने कहा है कि
जब उस परम के
मेघ किसी के
भीतर घिरे
होते हैं तो
अनेकों के
भीतर के मोर
नाचने लगते
हैं।
बस
उसकी मौजूदगी
में तुम नाच
उठोगे। जहां
तुम्हें आनंद
की अनुभूति हो, जानना कि
वहीं ब्रह्म
का निवास है, जानना वहीं
मंदिर है।
'चाहे
वह भोग में रत
हो या योग में,
चाहे वह
किसी के संग
हो या अकेला, यदि उसका
चित्त ब्रह्म
में रमण करता
है, तो वही
आनंदित है, वही आनंदित
है, वही
आनंदित है।'
और वही
लक्ष्य है, वही साध्य
है; सब तरफ
से उसी तरफ
जाना है।
'अतः
हे मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
भज
गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्
मूढ़मते।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें