शिक्षा
में क्रांति-ओशो
प्रवचन-दसवां
विषबुझी
महतवाकांक्षा
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से
मैं अपनी इस चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।
एक सम्राट के द्वार पर
बहुत भीड़ लगी हुई थी। और भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई और बढ़ती ही चली गई थी। दोपहर आ
गई थी और करीब-करीब सारा नगर वहां इकट्ठा हो गया था। जो आदमी भी आकर खड़ा हो गया, उसने
हटने का नाम नहीं लिया। उस सम्राट के द्वार पर कोई बड़ी अनहोनी घटना घट गई थी। सांझ
होते-होते तो दूर-दूर के गांव से भी लोग आ गए थे। क्या हो गया था वहां!--और सभी
मंत्रमुग्ध खड़े थे!
सुबह ही सुबह एक
भिखारी ने आकर भिक्षा मांगी थी सम्राट से। और कहा था, कि
मैं एक ही शर्त पर भिक्षा लेना स्वीकार करता हूं--मेरा जो भिक्षापात्र है, उसे
पूरा भर दोगे न! अधूरा भिक्षापात्र लेकर मैं किसी द्वार से जाता नहीं हूं।
सम्राट हंस पड़ा था। शायद इस भिखारी को पता नहीं कि वह किस शक्तिशाली सम्राट के सामने खड़ा है। इस पागल को यह शर्त रखने की जरूरत नहीं है कि मैं इसके भिक्षापात्र को भर दूंगा या नहीं भर दूंगा।
उसने अपने वजीरों को कहा कि अन्न से नहीं, स्वर्ण-अशर्फियों
से इसके भिक्षापात्र को भर दो। उस भिखारी ने दुबारा कहा, लेकिन
मेरी शर्त सुन ली है आपने? मैं अधूरा भिक्षापात्र लेकर हटूंगा नहीं। मेरा
भिक्षापात्र पूरा ही भर सकते हों तो भिक्षा दें, अन्यथा मैं कोई दूसरा
द्वार खोज लूं। सम्राट के अहंकार को बड़ी चुनौती थी। उसने अपने वजीरों को कहा, जाओ, और
हीरे-जवाहरातों से इसके भिक्षापात्र को भर दो। और जब तक हीरे-जवाहरात पात्र के
बाहर न गिरने लगें, तब तक रुकना मत। सम्राट हंस पड़ा था। शायद इस भिखारी को पता नहीं कि वह किस शक्तिशाली सम्राट के सामने खड़ा है। इस पागल को यह शर्त रखने की जरूरत नहीं है कि मैं इसके भिक्षापात्र को भर दूंगा या नहीं भर दूंगा।
वे वजीर गए। उस सम्राट
के पास संपदा की कोई कमी न थी। उसके पास अटूट खजाने थे। एक
भिक्षापात्र...हीरे-जवाहरातों से कुछ कम हो जाने को नहीं था। उसने सारी पृथ्वी को
लूटा था और अपने खजानों में भर लिया था। लेकिन भिक्षापात्र जैसे ही भरा गया, वैसे
ही राजा को भूल पता चल गई थी, वह गलत दांव में पड़ गया था। यह लड़ाई दो सम्राटों के
बीच होती तो वह जीत जाता। एक भिखारी से लड़ाई हो गई थी और बड़ी कठिनाई में पड़ गया।
जैसे ही उसके वजीरों ने लाकर हीरे-जवाहरातों से उस भिक्षापात्र को भरा, वे
हैरान रह गए! हीरे-जवाहरात गिरते ही पात्र में कहीं विलीन हो गए, पात्र
खाली का खाली ही रहा। तब एक दौड़ शुरू हुई, वजीर दौड़-दौड़ कर लाने लगे
खजानों से हीरे-जवाहरात, और उस भिक्षापात्र में वे सब विलीन होने लगे। इसीलिए
भीड़ इकट्ठी हो गई थी और बढ़ती चली गई थी। कोई भी हट न रहा था कि क्या होगा! क्या आज
सम्राट एक भिखारी के सामने हार जाएगा?
और सांझ होते-होते
सम्राट को समझ में आ गया कि हारने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। सूरज के
डूबने के साथ सम्राट उस भिखारी के पैरों पर गिर पड़ा और कहा, मुझे
क्षमा कर दो,
भूल हो गई। मैं भूल ही गया इस बात को कि भिखारियों के पात्र
को कौन सम्राट कब भर सका है? भूल हो गई! क्षमा कर दो मुझे, मैं
हार गया और पराजित तुम्हारे चरणों में पड़ा हूं। लेकिन जाने के पहले एक बात बताते
जाना, यह पात्र किन मंत्रों से सिद्ध है? इस पात्र में पड़ी हुई संपत्ति
खो कैसे गई?
यह पात्र भरता क्यों नहीं है? यह छोटा सा दिखने वाला
पात्र, सारी पृथ्वी की संपदा को पी जाएगा क्या? उस भिखारी ने कहाः न तो कोई
मंत्रों से सिद्ध है, न कोई रहस्य है इस पात्र का। एक छोटा सा सूत्र
है--इस पात्र को मैंने मनुष्य के हृदय से बनाया है। न मनुष्य का हृदय कभी भरता है, न
यह पात्र कभी भर सकता है। यह पता नहीं, कहानी कहां तक सच है और सच
होने से कोई वास्ता भी नहीं है।
मैं उस शिक्षा को
वास्तविक शिक्षा कहता हूं, जो मनुष्य के हृदय के पात्र को भरने की कला में
दीक्षित कर दे। बाकी सब शिक्षा अधूरी और भ्रांत और खतरनाक है। आज तक शिक्षा इस
कसौटी पर पूरी उतर नहीं सकी है। बल्कि शिक्षित व्यक्ति का पात्र और बड़ा हो जाता है, अशिक्षित
से। उसे भरना और कठिन हो जाता है, और मुश्किल हो जाता है। जितनी
शिक्षा बढ़ती है दुनिया में, उतने भिखारी बढ़ते जाते हैं। जितनी शिक्षा बढ़ती है
दुनिया में,
उतनी महत्वाकांक्षा का, एंबीशन का पात्र बड़ा
होता जाता है। वह सारी पृथ्वी की संपदा से भी भरा नहीं जा सकता है। तो शिक्षा
मनुष्य को आनंद दे रही है या पीड़ा, तनाव? शांति
दे रही है या अशांति? यह आज की शिक्षा का सवाल नहीं है, आज
तक की शिक्षा का सवाल है।
यह कोई पुरानी और नई
शिक्षा का भेद नहीं है--शिक्षा मात्र पृथ्वी के किसी भी कोने पर और किसी भी युग
में मनुष्य को महत्वाकांक्षा सिखाने का ही मार्ग रही है। अब तक शिक्षा ने
नाॅन-एंबीशस माइंड, महत्वाकांक्षा से शून्य मन पैदा नहीं किया है।
महत्वाकांक्षा का ज्वर, फीवर कितना हम भर दें, उतना ही हम व्यक्ति को
शिक्षित मान लेते हैं। पहली कक्षा से इस बीमारी की शिक्षा शुरू होती है और अंतिम
विश्वविद्यालय की कक्षाओं तक चलती है। पहली ही कक्षा से एक ही पाठ में दीक्षा दी
जाती है--महत्वाकांक्षा के पाठ में।
और क्या आपको पता है, मनुष्य
के मन को जो बीमारियां घेर सकती हैं, महत्वाकांक्षा उनमें सबसे बड़ी
है? और क्या आपको पता है, जो आदमी महत्वाकांक्षा के घेरे में घिर जाता है और
जिसके प्राणों में महत्वाकांक्षा का ज्वर समाविष्ट हो जाता है, उस
जगत में पूरे जीवन दौड़ कर भी कभी शांति और आनंद को उपलब्ध नहीं होता है? क्या
आपको पता है कि महत्वाकांक्षा से बड़ा जहर, पाय.जन अब तक नहीं खोजा जा
सका है?
लेकिन महत्वाकांक्षा
के सिवाय हम और क्या सिखाते हैं? और जो भी हम सिखाते हैं, वह
सब महत्वाकांक्षा के केंद्र पर ही खड़ा होता है। बुनियाद में महत्वाकांक्षा होती
है। पहले ही वर्ष से बच्चों को हम क्या सिखाते हैं? हम सिखाते हैं दौड़, हम
सिखाते हैं आगे निकलने की होड़, हम सिखाते हैं प्रतिस्पर्धा, काम्पिटीशन।
हम सिखाते हैं,
तुम पीछे मत रुकना, आगे निकल जाना और सबसे प्रथम
खड़े हो जाना। ये उपदेश बड़े मीठे मालूम पड़ते हैं। ये उपदेश बड़े मधुर मालूम पड़ते
हैं। बाल-बुद्धि के ऊपर इनका प्रभाव भी गहरा होता है। लेकिन, प्रथम
आने की दौड़ मनुष्य को विक्षिप्त करती रही है, यह हमें खयाल भी नहीं है।
जीसस क्राइस्ट ने एक
अदभुत बात कही है। बहुत सोचने जैसी बात कही है। शायद बहुत कम लोगों के खयाल में यह
बात कभी आई होगी। और जीसस के अनुयायियों के खयाल में भी यह बात नहीं आई। क्योंकि
जो भी महत्वपूर्ण है, अनुयायी उसे छोड़ देने में, आंख
से अलग कर देने में बड़े होशियार होते हैं। जीसस क्राइस्ट ने कहा है, धन्य
हैं वे लोग,
जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। यह सूत्र बड़ा अदभुत है।
हम तो उस आदमी को धन्य कहते हैं, जो प्रथम खड़े होने में सफल हो
जाता है। हम तो उस आदमी को धन्य कहते हैं, जो सबके आगे पहुंचने में
उत्तीर्ण हो जाता है। लेकिन जीसस क्राइस्ट कहते हैं, धन्य हैं वे लोग जो
अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्योंकि प्रभू का राज्य उन्हीं का होगा। क्या मतलब
है अंतिम खड़े होने की सामथ्र्य का? कौन खड़ा होता है अंतिम? और
प्रथम खड़े होने की दौड़ का क्या अर्थ होता है? प्रथम खड़े होने की दौड़ ही
महत्वाकांक्षा है। छोटी कुर्सियों से बड़ी कुर्सियों पर, बड़ी
कुर्सियों से और बड़ी कुर्सियों पर। बड़ौदा से अहमदाबाद, अहमदाबाद
से दिल्ली। सारे जगत को एक ही ज्वर में, एक ही बुखार में प्रवेश
दिलवाते हैं हम--दौड़ो और आगे निकल जाओ।
राधाकृष्णन शिक्षक से
राष्ट्रपति हो गए थे तो सारे हिंदुस्तान के शिक्षकों ने कहा, यह
बहुत महान घटना घट गई। शिक्षक-दिवस मनाना शुरू किया। शिक्षकों का बड़ा सम्मान हो
गया है। भूल से मुझे भी दिल्ली में एक शिक्षक सम्मेलन में बुला लिया किन्हीं लोगों
ने। मैंने उनसे कहा, जिस दिन कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए, उस
दिन शिक्षक-दिवस मनाना। एक शिक्षक के राष्ट्रपति हो जाने से शिक्षक-दिवस मनाने का
कोई भी कारण नहीं है। यह शिक्षक का सम्मान नहीं है, राजनीतिज्ञ का सम्मान
है। यह शिक्षक का सम्मान नहीं है, यह पदों की ही महिमा है। तो
किसी दिन कोई राष्ट्रपति छोड़ दे अपना पद और कहे, बड़ौदा के न्यू एरा हाई
स्कूल में चलो हम शिक्षक हुए जाते हैं। तो उस दिन मना लेना शिक्षक-दिवस। लेकिन
उसके पहले रोने के दिन हैं, ऐसे दिन उत्साह एवं उत्सव मनाने के नहीं। क्यों
शिक्षक सम्मानित हो गया किसी के राष्ट्रपति हो जाने से। राष्ट्रपति होना कोई मूल्य
है?
लेकिन हम प्रथम खड़े
होने का अगर मूल्य मानते हैं तो फिर राष्ट्रपति होने में मूल्य है, क्योंकि
वह सारे मुल्क में प्रथम खड़ा हो गया है वह आदमी। हम पहले दिन से ही यह दीक्षा दे
रहे हैं कि प्रथम खड़े हो जाओ। अगर पहली कक्षा में तीस बच्चे हैं तो जो प्रथम खड़ा
हो जाता है,
वह धन्यभागी हो जाता है। जो पीछे छूट जाते हैं वे दुखी, विपन्न
हो जाते हैं,
हीन हो जाते हैं। क्या आपको पता है दुनिया में इतनी
इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, इतनी हीनता किसने पैदा की है? आपके
प्रथम खड़े होने की शिक्षा ने। जो कि तीस बच्चों में एक बच्चा प्रथम आ सकेगा, उनतीस
बच्चे पीछे छूट जाएंगे। एक बच्चे को प्रथम लाने के लिए उनतीस बच्चों की आत्माओं का
घात किया जा रहा है। एक बच्चे को सम्मान देने के लिए उनतीस बच्चे विपन्न किए जा
रहे हैं, निराश किए जा रहे हैं, उदास किए जा रहे हैं। एक बच्चे को गौरव देने के लिए
उनतीस बच्चों की कुर्बानी हो रही है, यह आपको दिखाई पड़ता है, नहीं
दिखाई पड़ता है?
ये जो सफल लोग हैं
थोड़े से, इनके पीछे कितने असफल लोगों की पंक्तियां खड़ी हो जाती हैं, इसका
कोई बोध है?
और ये सफल दस-पांच लोग दुनिया नहीं बनाते हैं, दुनिया
बनाते हैं वे सब जो पीछे रह गए और असफल हो गए हैं। उन उदास लोगों से यह दुनिया
बनेगी तो यह स्वर्ग नहीं बन सकती है, यह नर्क ही बनना निश्चित है।
उन हारे हुए लोगों से यह दुनिया बनेगी तो यह दुनिया अच्छी नहीं हो सकती है।
और जो शिक्षा और जो
समाज और जो संस्कृति बहुत बड़े वर्ग को हारा हुआ और पराजित सिद्ध कर देती है, वह
संस्कृति स्वागत के योग्य नहीं है, वह शिक्षा भी आदर के योग्य
नहीं है। लेकिन हम उस एक को देखते हैं जो सफल हो गया, उनतीस
को देखता कौन है जो असफल हो गए हैं। वे अंधेरे में खड़े हो जाएं, वे
अपने मुंह छुपा लें। उन्हें देखने की जरूरत क्या? उन पर रोशनी डालने का
कारण कहां है?
भूल है उनकी, हार गए हैं जो।
लेकिन मैं आपसे कहता
हूं, वे उनतीस कितनी ही कोशिश करें, उन तीस में एक ही प्रथम हो
सकता है। उनतीस तो कभी भी प्रथम नहीं हो सकते हैं। उन तीस में से एक ही जीत सकता
है, उनतीस तो हारेंगे ही। चाहे वह एक कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता
है। वे उनतीस जो हार गए हैं, आपको पता है, उनके मन को कितने बुनियादी
घाव आपने पहुंचा दिए? उनके प्राणों की ऊर्जा को आपने शुरू से ही थका हुआ
साबित कर दिया। वे शुरू से ही जिंदगी के प्रति आशा से भरे हुए नहीं हैं। निराशा, अपमान
से भरे हुए,
हताशा से भरे हुए प्रवेश करेंगे। फिर अगर ये हारे हुए लोग
क्रोध से भर जाएं और जिंदगी को तोड़ने लगें, और जगह-जगह तोड़-फोड़ करने लगें, और
जगह-जगह इनका क्रोध प्रकट होने लगे तो कौन जिम्मेवार है? कौन
इसकी जिम्मेवारी लेगा? शिक्षा और शिक्षा की व्यवस्था। और कौन इसके लिए
जिम्मेवार होगा?
यह दुनिया में आपको
पता है, जिस दिन से शिक्षा बढ़ गई है, उस दिन से युवकों के मन में
गहरा विध्वंस का, डिस्ट्रक्शन का भाव पैदा हो गया है? लोग
कहते हैं, पहले के लोग बड़े अच्छे थे, वे विध्वंस नहीं करते थे। उसका कुल कारण इतना था कि
वे अशिक्षित थे, शिक्षित नहीं थे। और कोई कारण नहीं था। आज भी दुनिया
में जहां अशिक्षा है, वहां का युवक शांत है।
क्या मैं यह कह रहा
हूं, कि शांति बनाए रखने के लिए दुनिया में अशिक्षा बनाई रखी जाए? नहीं, मैं
यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि यह शिक्षा गलत है, हमें
कोई और शिक्षा खोजनी चाहिए। आज नहीं कल, इस संबंध में सोचना ही पड़ेगा।
नहीं सोचेंगे तो यह शिक्षा ही हमारे आत्मघात का कारण बन सकती है। इसमें पहला स्वर, इस
शिक्षा में जो भूल भरा है, वह महत्वाकांक्षा का, एंबीशन का है।
एंबीशन या
महत्वाकांक्षा कहां पहुंचाती है मनुष्य के मन को? जब कोई व्यक्ति प्रथम
आने के लिए कोशिश में संलग्न होता है तो आपको पता है, वह
क्या सीख रहा है? वह क्या कर रहा है? उसके भीतर क्या गुजर
रहा है? उसका मन किस प्रक्रिया से पार हो रहा है, उसके मन में क्या निर्मित हो
रहा है? उसको जो खुशी मिलती है प्रथम आकर, आपको पता है कि वह खुशी किस
बात पर खड़ी है?
वह प्रथम आने की खुशी
नहीं है, वह दूसरों को दुखी करने का सुख है। वह स्वयं के प्रथम आने की खुशी है ही नहीं, वह
दूसरों को दुखी करने का आनंद है। जो पीछे छूट गए हैं और जिनकी आंखें आंसुओं से भरी
हैं, उन्हीं से वह मुस्कुराहट निर्मित होती है जो प्रथम आने वाले की थी।
महत्वाकांक्षा इसलिए
अनिवार्य रूप से हिंसा सिखाती है, वायलेंस सिखाती है।
महत्वाकांक्षा हिंसा का गहरे से गहरा परिणाम है। महत्वाकांक्षा के केंद्र पर हिंसा
है, वायलेंस है। और फिर जब एक बार युवा होते-होते तक चित्त इसमें दीक्षित हो जाता
है, तो फिर जीवन भर इसी दौड़ में दौड़ता है और जीता है। फिर किनके कंधों पर पैर रखने
पड़ते हैं, किनकी लाशों को सीढ़ियां बनाना पड़ता है, फिर इसका कोई ध्यान नहीं दिया
जा सकता है।
जिंदगी छोटी है और
प्रथम पहुंचना बहुत जरूरी है। बहुत जरूरी है कि हम प्रथम पहुंच जाएं। क्योंकि जगत
उनका गुणगान करता है, जो प्रथम पहुंच जाते हैं। फिर वह यह पूछता ही नहीं
कि वह प्रथम पहुंचे कैसे? उनके प्रथम पहुंचने के पीछे क्या-क्या हुआ, यह
फिर कोई भी नहीं पूछता! सफलता से कोई प्रश्न ही पूछे नहीं जाते! प्रश्न सिर्फ
असफलता से पूछे जाते हैं। असफल आदमी से लोग पूछते हैं, आप
असफल कैसे हो गए? सफल आदमी से कोई भी नहीं पूछता कि किन सीढ़ियों को, किन
सैनियों को,
किन पुलों को पार करके आप पहुंचे हैं। कहीं उन सब सीढ़ियों
पर खून के निशान तो नहीं हैं, कहीं उन सब मंजिलों पर लाशें तो नहीं रखी हैं? यह
कोई भी नहीं पूछता! सफलता सफल होते ही महिमावंत हो जाती है। तो फिर दौड़ को आदमी
दौड़ता रहता है,
दौड़ता रहता है। और इसको हम सिखाना शुरू कर देते हैं पहले
दिन से!
यह मैं क्यों कह रहा
हूं कि प्रथम आने का सुख खुद के प्रथम आने का सुख नहीं है!
एक छोटे से गांव में
मेरे एक मित्र रहते हैं। उन्होंने उस गांव में एक बहुत बड़ा आलीशान भवन बनाया था।
वे खूब खुश थे जब मैं उनके गांव गया। वे बहुत प्रसन्न थे अपने मकान के बाबत। तीन
दिन वहां था तो बार-बार बात करते थे, कैसा आपको लगा? फिर
दो वर्ष बाद मैं उनके गांव गया। उनका मकान उतना ही अच्छा था, लेकिन
एक गड़बड़ हो गई थी। पड़ोस में उससे भी बड़ा एक मकान खड़ा हो गया था। फिर वे मुझसे
बिलकुल भी नहीं पूछते थे कि इस मकान के बाबत आपका क्या खयाल है? बल्कि
बहुत उदास मालूम पड़ते थे। मैंने उनसे पूछा, आप कुछ खिन्न-खिन्न, कुछ
उदास-उदास मालूम होते हैं, बात क्या है? उन्होंने कहा, जब
से यह बड़ा मकान पड़ोस में बन गया, न मालूम कैसी उदासी मन में छा
गई? तो मैंने उनको कहा कि क्या मैं निवेदन करूं, वह जो खुशी थी आपकी, अपने
मकान के कारण नहीं थी, बगल में जो झोपड़ियां खड़ी थीं, उनके
कारण थी। क्योंकि बगल का महल उदास करने लगा। आपका मकान तो वैसा का वैसा है, उसमें
कोई भी फर्क नहीं पड़ा। अगर उसके ही कारण खुशी थी तो खुशी आज भी होती। लेकिन वह
खुशी विलीन हो गई। पास में बड़ा मकान खड़ा हो गया। पास में झोपड़ियां थीं, मन
बड़ा खुश था।
अमीर आदमी की खुशी
अमीरी में नहीं, आस-पास के गरीबों में होती है। सुंदर आदमी की खुशी
सौंदर्य में नहीं, पास-पड़ोस छिपे हुए कुरूप चेहरों में होती है, जीते
हुए आदमी की खुशी जीत में नहीं, हारे लोगों की कतार में और पंक्तियों में होती है।
लेकिन यही हम सिखाते हैं। यही हम कोशिश करते हैं। यही हम श्रम करते हैं। इसके लिए
ही हम इतना उपाय और आयोजन करते हैं और अंत में हम यह सिखाते हैं।
और क्या आपको पता है
कि जो आदमी प्रथम पहुंच जाता है--थोड़े से लोग ही सही--क्या वे भी सच में आनंदित हो
जाते हैं? क्योंकि जिनका आनंद दूसरों के दुख पर खड़ा हो, वे ज्वालामुखी के ऊपर
बैठे हुए हैं,
वे वस्तुतः आनंदित हो नहीं सकते हैं। और फिर एक बड़ा मजा है।
प्रथम होने की यह जो दौड़ है, इसमें आप कितने भी प्रथम हो जाएं, आप
अंतिम रूप से प्रथम कभी भी नहीं हो पाते। आज तक दुनिया में एक भी आदमी ऐसा नहीं
हुआ, जिसने यह कहा हो, मैं बिलकुल प्रथम हो गया हूं, अब
मुझसे आगे कोई भी नहीं। हुआ है कोई आदमी? सिकंदर, नेपोलियन, या
हिटलर या स्टैलिन की आत्माओं से पूछें? वे पहुंच गए वहां जिसके आगे
कोई भी न हो?
आज तक एक भी आदमी नहीं पहुंचा।
क्या आपको मालूम है, सिकंदर
से मरते वक्त किसी ने कहा था, आपने तो सारी दुनिया जीत ली, आप
तो प्रसन्न होंगे! सिकंदर ने कहाः जैसे ही मैं पूरी दुनिया जीतने के करीब पहुंचा, मेरे
मन में एक उदासी घिरने लगी कि एक ही दुनिया है केवल, फिर अब आगे क्या
करूंगा, दूसरी दुनिया नहीं है। ठीक कहा उसने। एक दुनिया जीत नहीं पाते कि दूसरी दुनिया
जीतने को चाहिए। और कोई आदमी प्रथम नहीं हो पाता, इससे आपको कुछ पता
चलता है? फेरिये करके एक वैज्ञानिक था जो छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों पर शोध करता था। एक
जाति के कीड़े होते हैं, जो हमेशा कतारबद्ध चलते हैं, नेता-कीड़े
के पीछे चलते हैं। आदमी जैसी प्रवृत्ति उनकी भी होती होगी। एक नेता होता है, वह
आगे चलता है,
पीछे कतार बांध कर कीड़े चलते हैं। उस फेरिये ने क्या किया? एक
गोल थाली में नेता-कीड़े को चला दिया और पीछे दस पांच कीड़े छोड़ दिए। अब वे गोल थाली
में चक्कर लगाना शुरू किए, शुरू किए। अब वे लगाते जाते हैं, नेता
चलता जाता है। पीछे उसके वे चलते जाते हैं। कोई अंत आता नहीं, क्योंकि
गोल का कोई अंत होता नहीं। गोल चक्कर का कोई अंत हो नहीं सकता। वे चलते जाते हैं।
आखिर, तब तक चलते रहते हैं कि फेरिये भी थक गया और वे कीड़े भी थक-थक कर मरने लगे।
लेकिन वे चलते जा रहे हैं, वे चलते जा रहे हैं।
आदमी भी किसी गोल
चक्कर में चल रहा है, इसलिए कोई कभी पहला नहीं हो पाता। हमेशा पीछे भी कोई
होते हैं, आगे भी कोई होते हैं। गोल चक्कर है, उसमें पहले कोई हो ही नहीं
सकता। उसमें कितने ही चलते चले जाएं आप, आप पाएंगे कि फिर भी आगे लोग
मौजूद हैं। पीछे लोग मौजूद हैं। कोई कभी पहला नहीं हो पाता। और धन्यता हम सिखाते
हैं उसको, जो पहला हो जाएगा। तो धन्यता तो नहीं आती, आ जाता है विषाद, आ
जाता है फ्रस्ट्रेशन, आ जाती है चिंता, आ जाता है हारा हुआ
पन। तो यह तो पहला सूत्र है, जिसके इर्द-गिर्द आज तक की सारी शिक्षा गलत हो गई
है।
दूसरा सूत्र, जिसके
कारण शिक्षा जीवनदायी नहीं हो पाती, वह है कि हम आदर्श तो सिखाते
हैं, लेकिन अब तक व्यक्ति को आत्मनिष्ठ नहीं बना पाए! क्या मतलब है मेरा
आत्मनिष्ठता से? शायद आपको खयाल में भी न हो, शायद
आपने कभी सोचा भी न हो?
अब तक मनुष्य इस
स्थिति में नहीं पहुंच पाया कि वह किसी व्यक्ति को कह सके कि तुम जैसे हो, वैसे
ही बन जाओ। हम हर बच्चे से कहते हैं, राम जैसे बन जाओ, कृष्ण
जैसे बन जाओ,
बुद्ध जैसे बन जाओ। और पुरानी तस्वीरें फीकी पड़ गई हों तो
रामकृष्ण जैसे बन जाओ, विवेकानंद जैसे बन जाओ, गांधी
जैसे बन जाओ। जैसे कि हर आदमी कोई और बनने को पैदा हुआ है!
कोई आदमी किसी और जैसा
बनने को पैदा नहीं हुआ। लेकिन हम आज तक भी यह नहीं कह पाए कि तुम अपने जैसे बन
जाओ। यह साहस शिक्षा अब तक नहीं जुटा पाई। इसके घातक परिणाम हुए हैं। जिनकी हमें
कल्पना भी नहीं हो सकती, उतने घातक परिणाम हुए हैं। क्योंकि कुछ मनुष्य के
जीवन के विज्ञान को समझे बिना यह बात होती रही है। कोई मनुष्य लाख कोशिश करे, तो
भी किसी जैसा नहीं बन सकता है। आज तक एक जैसे दो आदमी पैदा नहीं हुए। राम को हुए
कितने दिन हो गए, क्राइस्ट को हुए कितना समय बीत गया, बुद्ध
को मरे हुए कितना समय हुआ? कितने लोगों ने कोशिश की है कि हम बन जाएं राम जैसे, बुद्ध
जैसे, क्राइस्ट जैसे--कोई दूसरा आदमी बन सका है? रामलीला के राम को
खयाल में मत ले लेना आप। रामलीला के राम बन सकते हैं आप, लेकिन
राम नहीं। और रामलीला का राम एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस है। क्योंकि
रामलीला का राम झूठा आदमी है। वह अभिनय है, वह आत्मा नहीं है। तो अगर
कोशिश करें आप,
तो ज्यादा से ज्यादा सफलता इतनी मिल सकती है कि रामलीला के
राम बन जाएं। लेकिन तब एक पाखंड में आप गिरेंगे। अपनी आत्मा को खो देंगे, आत्मच्युत
हो जाएंगे।
जब भी कोई आदमी किसी
दूसरे जैसे बनने की कोशिश करता है तो आत्मच्युत हो जाता है, अपनी
आत्मा के केंद्र से गिर जाता है। इसलिए गिर जाता है कि यह संभव ही नहीं है कि कोई
आदमी किसी जैसा बन जाए। प्रत्येक आदमी अद्वितीय, बेजोड़ और यूनिक है।
एक-एक आदमी बेजोड़ है। आदमी की तो बात अलग, अगर बड़ौदा की सड़कों पर से हम
एक पत्थर उठा लें और सारी पृथ्वी में खोजें उस जैसा दूसरा पत्थर, तो
नहीं मिल सकेगा। एक जैसे दो पत्थर भी नहीं हैं इस बड़ी पृथ्वी पर, एक
जैसे दो आदमियों का तो कोई सवाल नहीं। हां, फोर्ड की कारें मिल सकती हैं
एक जैसी। मशीनें हो सकती हैं एक जैसी। मनुष्य नहीं हो सकते हैं।
और अभागा होगा वह दिन, जिस
दिन हम एक जैसे मनुष्य बनाने में समर्थ हो जाएंगे। उससे बड़े दुर्भाग्य की कोई घटना
ही नहीं घट सकती, क्योंकि उस दिन, जिस दिन हम एक जैसे
मनुष्य बनाने में सफल हो गए, उसी दिन मनुष्य की आत्मा समाप्त हो जाएगी और मनुष्य
एक मशीन हो जाएगा। मनुष्य की विभिन्नता में उसकी मनुष्यता है और जितने विभिन्न
मनुष्य इस पृथ्वी पर हो सकें, उतनी ही गरिमा है। लेकिन अब तक हम यह कोशिश करते रहे
हैं कि एक ढांचे में आदमी ढल जाए, एक पैटर्न में ढल जाए, एक
जैसे आदमी हो जाएं। राम बहुत अच्छे हैं, कृष्ण बहुत प्यारे हैं, गांधी
का अपना होने का अलग मजा है। लेकिन कोई दूसरा आदमी उन जैसा होने की कोशिश करे, तो
गलती में पड़ता है।
क्यों गलती में पड़ता
है?
इसलिए गलती में पड़ता
है--कि समझ लें मैं किसी बगीचे में चला जाऊं और वहां जाकर चमेली को कहूं कि चमेली, तू
गुलाब हो जा और गुलाब को कहूं गुलाब, तू कमल हो जा। पहली तो बात यह
है, बगीचे के फूल मेरी बिलकुल भी नहीं सुनेंगे। कोई आदमियों जैसे नासमझ नहीं हैं
कि हर किसी की सुनने को इकट्ठे हो जाएं। लेकिन यह भी हो सकता है कि आदमी के साथ
रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों। सोहबत का असर पड़ता है। जंगल में जो जानवर होते हैं, उनको
वे बीमारियां नहीं होतीं, जो आदमियों के साथ रहने वाले जानवरों को होने लगती
हैं। सोहबत का असर पड़ता है। और बुरी सोहबत का असर तो जरूर ही पड़ता है। सो आदमी से
ज्यादा बुरी सोहबत फूलों को, पशु-पक्षियों को नहीं मिल सकती है। हो सकता है, कुछ
फूल बिगड़ गए हों और मेरी बात मानने को राजी हो जाएं, तो उस बगिया में क्या
होगा, पता है?
उस बगिया में फूल पैदा
होने बंद हो जाएंगे। क्योंकि चमेली अगर गुलाब होने की कोशिश करेगी और गुलाब कमल
होने की, तो एक बात निश्चित है, चमेली गुलाब हो नहीं सकती। चमेली के गुलाब होने की
कोई संभावना नहीं है। लेकिन चमेली गुलाब होने की कोशिश में चमेली भी नहीं हो
पाएगी। सारी ऊर्जा और सारी शक्ति लग जाएगी गुलाब होने के लिए और जो हो सकती थी, वह
होने से वंचित रह जाएगी।
आदमियों की बगिया में
भी फूल आने बंद हो गए हैं। कभी भूल-चूक से कोई एकाध आदमी के जीवन में फूल लगते
हैं। बाकी लोग बिना फूलों के जीते हैं और मर जाते हैं। और इसका जिम्मा किस पर है? इसका
जिम्मा है उस शिक्षा पर, उस संस्कृति पर, उस सभ्यता पर, उन
सिखावनों पर,
जो आदमी को कहती हैं कि तुम फलां जैसे बन जाओ। तुम गांधी
जैसे बन जाओ,
तुम बुद्ध जैसे बन जाओ। कोई आदमी किसी दूसरे जैसा न बनने को
पैदा हुआ है,
न बन सकता है, न बनने की जरूरत है। प्रत्येक
व्यक्ति को वही बनना है, जो वह बन सकता है। इसलिए शिक्षा चाहिए ऐसी, जो
व्यक्ति की छिपी हुई संभावनाओं को खोजने में सहयोगी बने--उसके ऊपर किसी आदर्श को
थोपने में नहीं, उसके भीतर जो छिपा है उसे प्रकट करने में, उसे
अभिव्यक्ति देने में--उसके भीतर जो है राज, उसके भीतर जो हैं बीज, उनको
अंकुरित करने में।
अभी तो शिक्षा पैटर्न
है एक, एक ढांचा है। इसलिए बड़ी हैरानी की बात है, इमर्सन ने एक युवक को
जो विश्वविद्यालय से शिक्षा पाकर स्नातक होकर निकला था, उसके
गांव का पहला युवक था, वह स्नातक होकर आया था, तो
इमर्सन भी उसके स्वागत में गया था। गांव के लोगों ने उसके स्वागत में बड़ी-बड़ी
बातें कहीं। इमर्सन ने जो बात कही, बड़ी खयाल रखने की है। इमर्सन
ने कहाः मैं इस युवक का स्वागत करता हूं, इसलिए नहीं कि यह
विश्वविद्यालय की उपाधि लेकर आया है, बल्कि इसलिए कि विश्वविद्यालय
से अपनी प्रतिभा बचा कर घर वापस आ गया है। मैं इसका स्वागत करता हूं।
विश्वविद्यालय से अपनी प्रतिभा बचा कर लौटना बहुत कठिन मामला है।
पंद्रह-बीस वर्षों की
यांत्रिक व्यवस्था से गुजरने पर मिडियाकर आदमी पैदा होते हैं--प्रतिभाशाली नहीं, मिडियाकर!
बिलकुल मध्यवर्गीय मस्तिष्क पैदा होता है। प्रतिभा नहीं पैदा होती है, बल्कि
प्रतिभा कुचल जाती है और दब जाती है, और मर जाती है। और इसको दबने
और मरने का और कुचल जाने का कुल कारण इतना है, कुल कारण इतना है कि
अब तक हम यह स्वीकार ही नहीं कर सके कि प्रत्येक मनुष्य को स्वयं होने का अधिकार
है।
तो पहली बात मैं कहना
चाहता हूं,
एक ऐसी शिक्षा चाहिए जो महत्वाकांक्षा न सिखाती हो। लेकिन
फिर हम क्या सिखाएं, अगर महत्वाकांक्षा न सिखाएं? क्योंकि
हम तो एक ही तरकीब जानते हैं कि आदमी को भर दो बुखार कि दूसरे से तुझे आगे निकलना
है और नहीं निकला तो पिट जाएगा तू। तो वह भागे, दौड़े और सब लोगों को
दौड़ता देखे,
उसे कुछ समझ में न आए। भीड़ में दौड़ना पड़े उसे, क्योंकि
खड़ा हो तो गिर जाए, तो दब जाए। तो दौड़ना ही पड़े। तो उसे सबकी भीड़ में
दौड़ना सिखाएं। तो हम सोचते हैं, ऐसे ही वह कुछ सीख सकेगा। अगर हमने दौड़ न सिखाई तो
वह कुछ भी न सीख सकेगा।
मैंने सुना है, काशी
से एक कुत्ता दिल्ली की यात्रा किया। और आदमियों को दिल्ली की तरफ जाते देख कर
कुत्तों के दिमाग में भी यह भनक पड़ गई होगी कि दिल्ली चलना चाहिए। तो जो कुत्तों
का नेता था,
कुत्तों ने उससे कहा कि तुम दिल्ली जाओ। बिना दिल्ली जाए
कुछ भी नहीं हो सकता। जमाने बदल गए जब दिल्ली के लोग काशी आते थे, अब
तो काशी के लोग दिल्ली जाने लगे हैं--तुम जाओ। उन्होंने बड़ी सभा, समारोह
किया, फूलमालाएं पहनाईं और कुत्ता रवाना हुआ। कुत्तों ने खबर कर दी दिल्ली के
कुत्तों को कि हमारा नेता आता है, सर्किट हाउस, वहां
रिजर्वेशन कर रखना। एक महीना लग जाएगा पहुंचने में, लंबी यात्रा है। लेकिन
तय कर लिया है कि दिल्ली पहुंच कर रहेंगे। पहुंचेगा नेता हमारा, व्यवस्था
वहां कर रखना।
लेकिन बड़ा मुश्किल हो
गया। महीने भर बाद पहुंचने की बात थी, वह नेता जो कुत्तों का था, सात
दिन में ही दिल्ली पहुंच गया। दिल्ली के कुत्ते बहुत हैरान हुए। ऐसे उन्होंने बहुत
नेता देखे थे,
लेकिन इतनी तेजी से आता कोई नहीं देखा था। सात दिन में आ
गया! तो उन्होंने पूछा कि तुम सात दिन में कैसे आ गए, महीने
भर का रास्ता,
सात दिन में कैसे पार कर लिया! हांफ रहा था वह कुत्ता। उसने
कहा कि बताता हूं। काशी से चला था तो यही सोचा था कि महीने भर, शायद
और भी ज्यादा दिन लग जाएं। लेकिन काशी के कुत्ते जहां छोड़ कर गए थे, दूसरे
गांव के कुत्तों ने वहीं से मेरा पीछा किया। वे कुत्ते मुझे दूसरे गांव तक पहुंचा
गए। वहां से दूसरे कुत्ते मिल गए, उन्होंने मेरा पीछा किया।
मुझे विश्राम का मौका ही नहीं मिला। कहीं ठहर ही नहीं सका। महीने भर की यात्रा सात
दिन में पूरी हो गई। लेकिन मेरे मित्रो, यह यात्रा मेरी बिलकुल ही
पूरी हुई जाती है, इतना कहते-कहते वह कुत्ता मर गया। पहुंच तो गया
दिल्ली, लेकिन लाश पहुंची दिल्ली, मरा हुआ पहुंचा दिल्ली, तेजी
से तो पहुंच गया!
हम भी आदमी को दौड़
सिखा देते हैं और बाकी सारे आदमी उसके पीछे पड़ जाते हैं। कोई उसको विश्राम करने
नहीं देता जिंदगी में। पहले मां-बाप पीछे पड़े रहते हैं, फिर
पत्नी पड़ जाती है, फिर लड़के-बच्चे पड़ जाते हैं। उसको दौड़ाते रहते हैं।
एक दिन दिल्ली पहुंच जाता है बेचारा। लेकिन लाश ही पहुंचती है दिल्ली, कोई
जिंदा आदमी नहीं पहुंचता। वहां जाकर श्वास टूट जाती है। दौड़ तो हम सिखा देते हैं, लेकिन
पहुंच कोई नहीं पाता इस दौड़ में कहीं भी। दौड़ो और दौड़ो और पहुंचना कहीं भी नहीं
है।
क्या इसको हम सम्यक
शिक्षा कहें?
लेकिन हमारे सामने और शिक्षकों के सामने यही सवाल है कि अगर
महत्वाकांक्षा न सिखाएं तो फिर तो कोई चलेगा ही नहीं। सब जड़ हो जाएंगे अपनी-अपनी
जगह, कोई गति ही नहीं करेगा। नहीं, मनुष्य और तरह से भी गति कर
सकता है। और जीवन में जिन लोगों ने कभी भी गति की है गति, सीधी
और सहज--दूसरे की प्रतिस्पर्धा में नहीं, बल्कि अपने आनंद में--उन
लोगों ने गति और तरह से की है। विनसेंट वानगाॅग से, एक डच पेंटर से उसके
मित्रों ने पूछाः तू किसलिए चित्र बनाता है? क्या इसलिए कि दूसरे
चित्रकारों से तू आगे निकल जाए? वानगाॅग ने कहाः दूसरे चित्रकार! मुझे आज तक खयाल
नहीं आया उनका। मैं चित्र बनाता हूं इसलिए कि चित्र बनाना मेरा आनंद है। और किसी
दूसरे से आगे निकलने का सवाल कहां? अपने से ही आगे निकलता जाऊं
रोज, तो काफी है।
बड़ी अदभुत बात कही।
अपने से ही आगे निकलता जाऊं रोज तो काफी है। दूसरे से क्या तुलना, दूसरे
से क्या प्रतिस्पर्धा; दूसरे से क्या नाता, दूसरे से क्या संबंध? दूसरा
दूसरा है, मैं मैं हूं। कहां तुलना, कहां संबंध, कहां नाता; कौन
सी प्रतिस्पर्धा? दूसरा दूसरा होगा, मैं मैं हो पाऊंगा। हर
आदमी वही हो पाएगा, जो हो सकता है। दूसरे से लेना-देना कहां है? वानगाॅग
ने कहाः अपने से आगे निकलता जाऊं, काफी है। और अपने आनंद से
चित्रित करता हूं।
क्या यह नहीं हो सकता
कि गणित कोई इसलिए सीखे और सिखाया जाए कि गणित सीखना उसका आनंद है? क्या
यह नहीं हो सकता कि कोई काव्य इसलिए सीखे कि काव्य उसका आनंद है? कोई
संगीत इसलिए सीखे कि संगीत उसका आनंद है, उसकी खुशी है? और
रोज अपने को अतिक्रमण करने के लिए आगे बढ़ता चला जाए कि कल मैं जहां था, और
कल के सूरज ने जहां मुझे छोड़ा, आज का उगता सूरज मुझे वहां न पाए? मैं
आगे निकल जाऊं। अपने से ही रोज-रोज स्वयं को अतिक्रमण और ट्रांसेंड करता चला जाऊं, क्या
यह नहीं हो सकता? क्या इस भांति की गैर-प्रतिस्पर्धी शिक्षा नहीं हो
सकती? आप शायद कहेंगे, हो भी सकती है, लेकिन तब इतने लोग गणित नहीं
सीखेंगे, इतने लोग संगीत नहीं सीखेंगे। क्योंकि बहुत से लोग इसलिए गणित सीख रहे हैं कि
प्रतिस्पर्धा में बिना गणित के खड़े नहीं हो सकते। निश्चित ही, लेकिन
जरूरत क्या है कि बहुत लोग गणित सीखें ही। जो जिनका आनंद हो वे वही सीखें।
अब्राहम लिंकन
प्रेसिडेंट हो गया अमरीका का। चमार का लड़का था। अनेक लोगों के मन को बड़ी पीड़ा हुई।
चमार का लड़का और प्रेसिडेंट हो गया। जिस दिन, पहले दिन पहला उसने अपना
व्याख्यान दिया संसद में, तो एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि महाशय अब्राहम, यह
मत भूल जाना कि आपके बाप मेरे घर जूते सुधारा करते थे, जूते
बनाया करते थे। सारे संसद के लोग हंस पड़े। यह हतप्रभ करने को लिंकन को कहा गया था
कि एक चमार का लड़का है, सबको याद दिला दिया जाए, लोग
भूल न गए हों। लिंकन ने क्या कहा, मालूम है? लिंकन
ने कहा, कि मेरे मित्र ने मेरे पिता की याद दिला दी। ऐसे अवसर पर पिता की याद से मेरा
हृदय गदगद हो उठा है। और मैं यह कह देना चाहता हूं कि मेरे पिता जितने अच्छे चमार
थे, उतना अच्छा प्रेसिडेंट मैं नहीं हो सकूंगा। वे बड़े लाजवाब आदमी थे। और जिन
मित्र ने यह कहा है कि उनके घर के जूते मेरे पिता सुधारा करते थे। मैं उनसे पूछना
चाहूंगा, मेरे पिता ने कभी गलत तो नहीं सुधारे जूते, कमजोर तो नहीं सुधारे।
उनके जूतों की लोग तारीफ करते थे, वे बड़े कुशल कारीगर थे। और
मुझे कोई आशा नहीं कि मैं उतना अच्छा प्रेसिडेंट हो सकूं, जितना
अच्छे वे चमार थे।
सवाल यह नहीं है कि आप
प्रेसिडेंट हो जाएं या चमार न हों। सवाल यह है, आप जो भी हो जाएं, वह
आपके पूरे प्राणों का आनंद हो--चाहे चमार ही हो जाएं, चाहे
एक सड़क झाड़ने वाले हो जाएं, चाहे एक कपड़ा बुनने वाले हो जाएं। कपड़े बुनने की
अपनी कुशलता और अपनी कला है, कविताएं बनाने की ही नहीं। और जूते बनाने की अपनी
कला है, मूर्तियां बनाने की ही नहीं।
जीवन में जिसका जो
आनंद हो, वह उस तरफ चला जाए और उस आनंद में पूरा डूब जाए। और रोज अपने को अतिक्रमण करता
जाए।
क्या कभी भविष्य में
ऐसी शिक्षा निर्मित नहीं हो सकती? कोई कारण नहीं है कि क्यों
निर्मित न हो?
और तब हम एक-एक व्यक्ति को उसका व्यक्तित्व दे सकेंगे। और
उसे ज्वर से मुक्त कर सकेंगे। उसे दौड़ से बचा सकेंगे। उसे प्रतिस्पर्धा और हिंसा
से बचा सकेंगे। और उसे आत्मनिष्ठ बनाने के लिए दूसरा सूत्र भी हम दे सकेंगे--कि वह
स्वयं जैसे होने का!
एक ही जीवन की साधना
है कि जो आप हैं, जो छिपा है आपके भीतर, वह आप हो जाएं, तो
उसको फुलफिलमेंट उपलब्ध होता है, उसको आप्त-कामता उपलब्ध होती
है। जो वही हो पाता है, जो होने को पैदा हुआ है। जब बीज अंकुर बन जाता है और
अंकुर जब फूल में खिल जाता है और हवाओं में, सूरज की रोशनी में जब फूल
नाचता है, तो उसकी खुशी देखी? क्या है उसकी खुशी? उसकी खुशी है कि वह
फूल पूरा खिल सका, फ्लाॅवरिंग हो गई, पूरा खिलना हो
गया--फिर चाहे वह फूल घास का फूल क्यों न हो, या कमल का फूल क्यों न हो!
आपको पता है,
कमल के फूल पर सूरज ज्यादा देर रोशनी नहीं फेंकता कि तुम
कमल के फूल हो,
बड़े ब्राह्मण हो। वह घास के फूल को यह कह कर अलग नहीं हट
जाता कि हट शूद्र रास्ते से, तू भी कहां बीच में आ गया, हम
कमल के फूलों को रोशनी देने जा रहे थे। न तो परमात्मा की हवाएं घास के फूल पर कम
ठहरती हैं,
न सूरज की रोशनी, न आकाश से गिरता हुआ पानी।
घास के फूल का अपना अर्थ है इस विराट जगत में और कमल के फूल का अपना अर्थ है। और
दोनों के अर्थों में कोई नीचा-ऊपर नहीं है। घास का फूल जब अपनी पूरी मौज में खिल
जाता है, तो वह किसी कमल के फूल से छोटा और नीचा नहीं होता। पूरी तरह कमल का फूल खिल
जाए और पूरी तरह घास का फूल खिल जाए, तो दोनों पौधों के प्राणों को
एक सा आनंद उपलब्ध हो जाता है।
आनंद का संबंध कमल
होने और घास के फूल होने से नहीं है। आनंद का संबंध पूरे फ्लाॅवरिंग से, पूरे
खिल जाने से है।
हर आदमी पूरा खिल सके, आत्म-केंद्रित
हो सके; वह जो है,
वह हो सके, तो दो सूत्र खयाल में रखें।
एक तो महत्वाकांक्षा
से शिक्षा को मुक्त करना जरूरी है और दूसरा, आदर्शों से। दूसरे व्यक्तियों
के अनुकरण से,
दूसरे लोगों के पीछे जाने से प्रत्येक व्यक्ति को बचाना
आवश्यक है,
ताकि हरेक अपनी नियति को, अपनी डेस्टिनी को
उपलब्ध हो सके। और जिस दिन भी हम ऐसी शिक्षा विकसित करने में समर्थ हो सकेंगे, उसी
दिन मनुष्य-जाति के ऊपर एक बिलकुल नये भाग्य का सूर्योदय हो सकता है। आज तक हम
बहुत अंधेरी रात में जीए हैं। और आज तक हम बहुत रुग्ण और विक्षिप्त जीए हैं। और आज
तक हमारी स्थिति बिलकुल पागलों जैसी है। लेकिन, स्वस्थ हो सकता है
मनुष्य का चित्त, विकसित हो सकता है, पूरे फूल की तरह खिल
सकता है।
शिक्षा के जगत में इन
दो सूत्रों पर बुनियादी क्रांति हो जाए तो यह हो सकता है। अन्यथा जो होता रहा है
उससे और बड़े परिमाण में पागलपन बढ़ेगा, क्योंकि शिक्षा बढ़ेगी और जिस
दिन पूरी पृथ्वी शिक्षित हो जाएगी, उस दिन पूरी पृथ्वी एक बड़े
पागलखाने की शक्ल ले ले, तो आश्चर्य नहीं है। आपको पता है? आज
जो सर्वाधिक शिक्षित मुल्क हैं, उनमें सर्वाधिक पागल हैं! आज अमरीका पागलों में
अग्रणी है। अमरीका में प्रति दिन तीस लाख लोग अपने मानसिक अस्वास्थ्य के लिए
चिकित्सा लेते हैं--प्रतिदिन! और यह सरकारी आंकड़े हैं और आप जानते हैं, सरकारी
आंकड़े कभी भी सच नहीं होते। और फिर पागलों के संबंध में तो सरकार कभी सच आंकड़े
नहीं दे सकती है। बहुत बड़ी संख्या होगी इससे। न्यूयार्क में तीस प्रतिशत लोग बिना
नींद की दवाइयां लिए नहीं सो सकते हैं--तीस प्रतिशत! न्यूयार्क के मनोवैज्ञानिकों
का कहना है,
इस सदी के पूरे होते-होते न्यूयार्क का कोई निवासी बिना दवा
लिए नहीं सो सकेगा।
जो न्यूयार्क में इस
सदी में होगा,
अगली सदी में भारत में हो जाएगा। कोई ज्यादा दिन तक हम पीछे
थोड़े रहेंगे। हमारे नेता मानते ही नहीं, वे कहते हैं हमें मुकाबला
करना है, पीछे हमको रहना ही नहीं। सबके साथ खड़े होना है, सबके साथ चलना है। कब
तक हम पीछे रहेंगे? हमारे नेता मानने को राजी नहीं हैं पीछे रहने को। वे
बहुत जल्दी हमें उनके साथ खड़े कर देंगे। उन जैसे मकान हमने बना लिए हैं, उन
जैसी मशीनें हम बना रहे हैं। उन जैसा आदमी बनाने में भी बहुत देर हम नहीं करेंगे।
वह बहुत जल्दी हो जाएगा। सारी पृथ्वी पर यह होगा।
सभ्यता के बढ़ने के
साथ-साथ पागलपन बढ़ा है। होना चाहिए था उलटा, सभ्यता के साथ-साथ पागलपन कम
होता। आदमी ज्यादा सौम्य, आदमी ज्यादा शांत, आदमी ज्यादा सुस्थिर, आदमी
ज्यादा अपने में ठहरा हुआ उपलब्ध होता। वह नहीं है। आदमी पागल की तरह अपने से बाहर
भटकता हुआ पैदा हो रहा है। और यह रोज बढ़ता चला जा रहा है। इसके परिणाम अंतिम क्या
होंगे, कहना कठिन है। खतरा मुझे नहीं दिखाई पड़ता हाइड्रोजन बम से, एटम
बम से। उनके बहुत खतरे नहीं हैं। खतरा मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि कोई और दुर्घटना
मनुष्य का अंत कर देगी। खतरा मुझे यह दिखाई पड़ता है कि मनुष्य इतना अस्वस्थ होता
चला जा रहा है कि उसके अंतिम परिणाम क्या होंगे, नहीं कहा जा सकता!
टाॅयनबी ने पीछे एक
वक्तव्य दिया,
और वह बहुत महत्वपूर्ण है। उसने कहा, पिछली
सभ्यताएं बाहर के आक्रमणों से नष्ट हो गई थीं। सारी पिछली सभ्यताएं बाहर के, विदेशियों
के आक्रमण से नष्ट हो गईं थीं। लेकिन आने वाली और हमारी सभ्यता भीतर से नष्ट हो
जाएगी। बाहर से आक्रमण का कोई डर नहीं है। लेकिन भीतर से आदमी जैसा होता चला जा
रहा है, रोगग्रस्त,
उससे नष्ट हो सकता है। शिक्षा के अतिरिक्त इस रोग को दूर
करने के लिए कोई दिशा नहीं है। इसलिए मैंने ये दो छोटी सी बातों पर आपसे अपना खयाल
दिया।
नहीं कहता कि मेरी बात
आप मान लें। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं कि आपको कहूं कि मान ही लें मेरी बात--नहीं
तो फेल हो जाएंगे, असफल हो जाएंगे। मैं तो निवेदन कर सकता हूं कि मैंने
जो कहा, उस पर आप सोचेंगे, थोड़ा विचार करेंगे। हो सकता है, मेरी
बात में कोई सच्चाई मालूम पड़े। और अगर सच्चाई कोई मेरी बात में मालूम पड़ जाए, आपके
अपने सोचने-विचारने और मंथन से, तो वह बात मेरी नहीं रह जाती, वह
आपकी अपनी हो जाती है। और जो सत्य अपना हो जाए, वही सार्थक है। उसके
अतिरिक्त कुछ भी सार्थक नहीं है।
ये मैंने थोड़ी सी
बातें कहीं। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे
बहुत-बहुत आनंदित और अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
प्राचार्य और शिक्षकों
के बीच ‘शिक्षा व महत्वाकांक्षा’ विषय पर
न्यू एरा हाईस्कूल, बडौदाः
10 जनवरी 1968
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