शिक्षा
में क्रांति-ओशो
प्रवचन-पंद्रहवा
अखंड
जीवन का सूत्र
आचार्य जी, इनफेक्ट
टु बी वेरी ट्रू लेट मी पुट दिस क्वेश्चन ऑफ परपजफुल वे ऑफ लाइफ टुडे। टु मी सर, दिस
इ.ज नॉट वेरी क्लियर, ए.ज आई सी, ट्रांसफर्मेशन ऑफ फिनामिना
इ.ज एवरचेंजिंग, वेदर इट मे बी ऑफ मिनरल किंग्डम, वेजिटेबल
किंगडम, एनिमल किंग्डम, इनक्लुडिंग रेशनल बीइंगस् एण्ड नेचरल फिनामिना। आई
सी सर, नेचर एवरचेंजिंग, हाउ कैन अवर रेडीमेड फार्मूला.ज सर्व दि परपज? इनफेक्ट
सर वॉट इ.ज दि परपज ऑफ लाइफ--इ.ज नॉट वेरी क्लियर टु मी। शुड आई एक्सपेक्ट फ्रॉम
यू दि डिटेल अकाउंट ऑन दिस आस्पेक्ट ऑफ लाइफ?
सबसे पहली बात तो यह
है कि जीवन का अर्थ और लाइफ का परपज--ऐसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन स्वयं में ही
अपना अर्थ है। जीवन से पार और जीवन से अलग कोई मंजिल नहीं है। जीवन को ही उसकी
पूर्णता में जीना जीवन का लक्ष्य है।
साधारणतः बैलगाड़ी का अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है। बैलगाड़ी का परपज, प्रयोजन किसी आदमी को कहीं पहुंचा देना है। अगर किसी को कहीं नहीं जाना है तो बैलगाड़ी बेकार हो गई। उसका कोई अपने में अर्थ नहीं था।
वह
एक साधन थी,
मीन्स थी। वह स्वयं साध्य नहीं थी। फिर किसी व्यक्ति को बैलगाड़ी
से कहीं जाना है तो जाने का भी अपने आप में कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं है। जाना भी
एक साधन होगा कुछ और पाने के लिए। कोई किसी से मिलने जाता होगा, धन
कमाने जाता होगा, विवाह करने जाता होगा। तो ‘जाना’ भी
अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है। कोई और प्रयोजन होगा पीछे जिसकी वजह से वह
अर्थपूर्ण होगा। साधारणतः बैलगाड़ी का अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है। बैलगाड़ी का परपज, प्रयोजन किसी आदमी को कहीं पहुंचा देना है। अगर किसी को कहीं नहीं जाना है तो बैलगाड़ी बेकार हो गई। उसका कोई अपने में अर्थ नहीं था।
अगर हम जीवन की सारी क्रियाओं को खोजें तो हम
पाएंगे कि प्रत्येक क्रिया किसी और चीज के संदर्भ में, किसी
और चीज के रिफ्रेंस में अर्थपूर्ण है। अपने आप में अर्थहीन है। तो जीवन की सारी
क्रियाओं के संबंध में पूछा जा सकता है, कि परपज क्या है, लेकिन
स्वयं जीवन के संबंध में नहीं पूछा जा सकता, क्योंकि जीवन के बाहर और जीवन
से अलग कुछ भी नहीं है। तो जीवन का तो प्रयोजन है जीवन ही। इसलिए जो लोग जीवन को
भी साधन बनाना चाहते हैं कोई और साध्य बनाना चाहते हैं--कोई कहेगा मोक्ष, कोई
कहेगा परमात्मा, वे समझ नहीं पा रहे हैं! क्योंकि तब यही सवाल
परमात्मा के संबंध में खड़ा हो जाएगा कि परमात्मा का प्रयोजन क्या है? परपज
क्या है? या मोक्ष का प्रयोजन क्या है, परपज क्या है? मोक्ष
पाकर क्या करेंगे? और वहां जाकर वे लोग थके खड़े हो जाते हैं कि अब क्या
उत्तर दें!
तो बजाय इसके कि जीवन
के बाहर हम व्यर्थ की कल्पनाओं में खोएं, यह उचित होगा कि जीवन तो
हमारे हाथ में है, जीवन की पूर्णता जरूर हमारे हाथ में नहीं है। जीवन
हमारे हाथ में है, लेकिन असीम जीवन हमारे हाथ में नहीं है। जीवन हमारे
हाथ में है,
लेकिन जीवन को कैसे ऐसे जीएं कि समग्र आनंद उससे उपलब्ध हो
सके, वह हमारे हाथ में नहीं है।
मेरी दृष्टि में जीवन
ही परमात्मा है। और जीवन ही मोक्ष है। जो व्यक्ति जीने की कला जान लेता है और जीने
की गहराइयों में उतर जाता है और जीने की ऊंचाइयां छू लेता है, वह
आदमी फिर नहीं पूछता कि जीवन का लक्ष्य क्या है? जीवन अपने लिए काफी
है। जीवन पर्याप्त है।
हम यह पूछते भी इसीलिए
हैं कि जीवन हमारा अधूरा है और पर्याप्त नहीं है। इसीलिए यह सवाल उठता है कि यह
जीवन किसलिए है? यह बहुत समझने जैसी बात है। अगर एक आदमी दुख में पड़ा
हो तो वह निरंतर पूछता है कि इस दुख का प्रयोजन क्या है? परपज
क्या है? मैं दुख में क्यों पड़ा हूं? लेकिन वही आदमी आनंद में उतर जाए तो वह आदमी कभी
नहीं पूछता है कि इस आनंद का प्रयोजन क्या है, मैं आनंद में क्यों
हूं? आनंद में होते ही वह प्रयोजन की बात भूल जाता है। क्योंकि आनंद स्वयं में ही
प्रयोजन है।
एक आदमी को जीवन में
प्रेम न मिले तो वह आदमी निरंतर पूछता है कि प्रेमहीन जीवन का क्या प्रयोजन है? लेकिन
उसे प्रेम मिले और वह प्रेम में डूब जाए और नहा जाए, उस क्षण में वह नहीं
पूछता कि प्रेम का प्रयोजन क्या है? प्रेम अपने में प्रयोजन है। आनंद
अपने में प्रयोजन है, प्रेम अपने में प्रयोजन है, जीवन
अपने में प्रयोजन है। और आनंद और प्रेम तो बहुत छोटी घटनाएं हैं, जीवन
तो समग्र, टोटल का नाम है। तो इस समग्र के बाहर कुछ भी नहीं बचता है। जीवन का मतलब है
सब। इसलिए बाहर कुछ है ही नहीं जिसके लिए यह साधन बन सके। यह तो अपना साध्य स्वयं
है--एंड इन इटसेल्फ। और अगर यह हमारे खयाल में आ जाए तो हमारे जीवन की जो दृष्टि
होगी, वह बुनियादी रूप से बदल जाएगी। क्योंकि तब हम यह न पूछेंगे कि हम कहां जाएं, न
हम यह पूछेंगे कि कहां है मोक्ष, कहां है परमात्मा? तब
हम यही पूछेंगे कि जीवन जो मिला है, उसे हम कैसे उसकी परिपूर्णता
में जी सकें और कैसे हम उसकी अंतिम गहराइयों तक डूब जाएं। और कैसे जीवन हमारे
सामने पूरा प्रकट हो जाए। जिस दिन जीवन पूरा प्रकट होता है, उस
दिन यह सवाल ही नहीं होता कि कोई जीवन का प्रयोजन है।
श्वास एक आदमी ले रहा
है। अगर वह आनंद से श्वास ले रहा हो तो एक-एक श्वास भी अपने आप में अर्थपूर्ण है।
फिर वह नहीं पूछता कि यह श्वास मैं क्यों लूं? यह आदमी पूछता ही तब
है, जब श्वास लेना दुखद और कष्टपूर्ण हो जाए। असल में दुख जब जीवन में होता है, तब
प्रयोजन और परपज की बात उठती है। जब आनंद होता है, तब प्रयोजन और परपज की
बात नहीं उठती है।
मेरी दृष्टि में दुखी
चित्त के लिए यह सवाल है कि जीवन का प्रयोजन क्या है? आनंद
में यह सवाल ही गिर जाता है। इसका उत्तर नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि इसका उत्तर
बुद्ध को या महावीर को या क्राइस्ट को इसका उत्तर मिल गया है। उत्तर है ही नहीं।
असल में यह प्रश्न ही गिर जाता है, विदर-अवे हो जाता है। यह
प्रश्न ही नहीं रह जाता है। जब हम पूरे आनंद में खड़े होते हैं तो आनंदित होना ही
सब कुछ होता है। उसके आगे कोई सवाल नहीं। वह जो छोटा सा क्षण भी मिल जाए आनंद का तो
वह क्षण ही इटरनिटी हो जाता है। उसके बाहर कुछ है ही नहीं फिर। उसके पार कुछ सवाल
ही नहीं उठता। उसके पार चित्त नहीं जाता, विचार नहीं जाता, कल्पना
नहीं जाती,
प्रश्न नहीं जाता। फिर हम वही होते हैं।
जीवन अपने आप में अपना लक्ष्य, अपना
आनंद, अपना अर्थ,
अपना प्रयोजन है। और जीवन को जो किसी और चीज के लिए प्रयोजन
बनाएगा, वह दुख में पड़ जाएगा। कुछ लोग जीवन को धन के लिए प्रयोजन बना लेते हैं। धन
जीवन के लिए प्रयोजन हो सकता है, साधन हो सकता है, लेकिन
जीवन धन के लिए नहीं हो सकता है। वह आदमी पागल है जो सोचता हो कि धन कमा लिया तो
जीवन का अर्थ पूरा हो गया। हां, वह आदमी समझदार है जो धन को जीवन की गहराइयों में
उतरने में सहयोगी और साथी बना रहा है।
जीवन, न
धन के लिए साधन है और न धर्म के लिए। कुछ लोग हैं जो धर्म के लिए जीवन को साधन बना
रहे हैं--पूजा और पाठ और त्याग और तप और संन्यास, और सारा जीवन इसमें
लगा देते हैं! वे भी वही गलती कर रहे हैं, जो धन कमाने वाला कर रहा है।
प्रार्थना और पूजा और संन्यास वे सब भी जीवन के लिए हैं। जीवन से ऊपर कुछ भी नहीं
है--न हो सकता है। ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसके लिए हम जीवन खोने को
राजी हों। ऐसी कोई चीज हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसका कोई मतलब नहीं
है, जिसके लिए हमको जीवन खोना पड़े। अगर मैं ही नहीं बचता हूं तो उस चीज का प्रयोजन
क्या है! लेकिन बहुत भूलें चल रही हैं। कुछ लोग धन के लिए जीवन गंवा देते हैं, कुछ
लोग धर्म के लिए जीवन गंवा देते हैं, कुछ किन्हीं और चीजों के लिए
जीवन गंवा सकते हैं। लेकिन मेरी दृष्टि में चाहे जीवन को कोई किसी भी चीज के लिए
गंवा रहा हो,
वह गलती कर रहा है और उसे कभी कुछ उपलब्ध नहीं होगा और वह
भटक जाएगा। सारी चीजें जीवन के लिए हैं।
और यह बात खयाल में आ
सके तो फिर पौधे का जीवन भी आनंदपूर्ण है, पत्थर का जीवन भी। यह सवाल
नहीं है मेरी नजर में कि आदमी का जीवन ही महत्वपूर्ण है। जीवन जहां भी है, अनंत-अनंत
रूपों में,
सब जगह, अपना अंत वही है, सब जगह साध्य वही है।
और एक पौधा भी जब फूल से भर जाता है और हवाओं में नाचता है तो किसी बुद्ध से कम
आनंद में नहीं होता। और एक पक्षी भी जब सुबह उठ कर गीत गाता है, आनंद
का, खुशी का,
तो वह किसी क्राइस्ट से पीछे नहीं होता। इसलिए मेरी दृष्टि
में ऐसा भी नहीं है कि जीवन का कौन सा रूप? जीवन के सब रूप!--सब रूप जीवन
के अपना लक्ष्य हैं, अपना आनंद उनमें छिपा है।
लेकिन यह हो सकता है
कि जीवन के कुछ रूप अचेतन हों। शायद उन्हें अपने आनंद का भी कोई पता नहीं है, शायद
उसकी भी कांशसनेस नहीं है, उसका भी बोध नहीं है। यह हो सकता है कि जीवन के कुछ
रूप अचेतन हों,
लेकिन जीवन के आनंद में तो कोई भेद नहीं है। भेद हो सकता है
चेतना और अचेतना का। बुद्ध के आनंद में और एक फूल के आनंद में कोई भेद नहीं है।
भेद हो सकता है--बुद्ध को आनंद का पूरा बोध है, फूल को हो सकता है, बोध
न हो! लेकिन यह भी अभी नहीं कहा जा सकता है कि उसे बोध नहीं है। क्योंकि बोध के भी
बहुत रूप हो सकते हैं। और चूंकि हम एक ही बोध को जानते हैं--आदमी के बोध को, तो
फूल में हमें आदमी का बोध नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए हो सकता है, हम
कहे चले जा रहे हैं कि वह अबोध है, अनकांशस है। हो सकता है वह
बोध की किसी दूसरी प्रक्रिया से गुजरा हो और वह भी बोध में हो, लेकिन
यह आज नहीं कहा जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि बोध विकसित हुआ है। सारा विकास बोध
का विकास है,
आनंद का नहीं। लेकिन बोध के साथ खतरा भी शुरू होता है।
बोध के साथ बड़ा खतरा
यह है कि बोध भटका भी सकता है, क्योंकि आदमी या बोधपूर्ण प्राणी तब स्वयं सोचने
लगता है कि मैं क्या करूं, क्या न करूं! पौधा स्वयं नहीं सोचता कि क्या करूं।
जो होता है,
उसे जीता है। पक्षी स्वयं नहीं सोचता कि मैं निर्णय करूं।
जो जीवन उसे देता है, उसे भोगता है, आनंदित होता है। इसलिए न कोई
पौधे को चिंता है, न कोई पक्षी को चिंता है।
आदमी को चिंता है।
क्योंकि आदमी स्वयं तय करता है, मैं क्या करूं। जीवन ने आदमी को चुनाव का मौका दिया
है। इस मौके में भटक जाने की पूरी संभावना है। फूल कभी नहीं भटकता। फूल सदा आनंद
को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए आनंद शायद फूल का एक अर्थ में यांत्रिक भी है।
क्योंकि उसे भटकने का मौका ही नहीं है। उसके उस आनंद में भी एक तरह की परतंत्रता
मालूम होती है। ये फर्क हैं।
आदमी जब आनंद को
उपलब्ध होता है तो वह उसकी स्वतंत्र अनुभूति होती है, वह
खुद गया था वहां तक। भेज नहीं दिया गया प्रकृति ने, इंसटिंकटिव नहीं है, अचेतन
नहीं है। चेतन उतर गया है। लेकिन उसी में खतरा है, क्योंकि वह भटक भी
जाता है। और इसी में अभी मनुष्य-जाति भटक रही है, इसलिए थोड़े से मनुष्य
कभी जीवन के पूरे आनंद को उपलब्ध हो पाते हैं, अधिक तो भटक जाते हैं।
अधिक तो इसमें भटक जाते हैं कि साधन को साध्य समझ लेते हैं। और साध्य को भूल ही
जाते हैं।
लेकिन, जिन्हें
दिखाई पड़ता है,
वे यही कहेंगे--जिन्हें भी दिखाई पड़ता है, वे
यही कहेंगे कि किन्हीं रूपों में जीवन हो--पदार्थ में, पौधे
में, पक्षी में कितना ही मूच्र्छित, कितना ही अचेतन हमें मालूम
पड़ता हो, लेकिन सब जगह जीवन अपना लक्ष्य है, अपना अंत है और जीवन सब जगह
पूर्ण होने की चेष्टा कर रहा है।
इसे हम धर्म की भाषा
में कहें तो जीवन को हम परमात्मा कह सकते हैं और परमात्मा अपने को सब तरफ अनुभव
करने की चेष्टा कर रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या नाम देते हैं। हम
इसे चाहें तो मोक्ष कहें, निर्वाण कहें! क्योंकि जीवन जब पूर्ण रूप से उपलब्ध
होता है तो मुक्त हो जाता है। उसके सब बंधन गिर जाते हैं, उसकी
सब सीमाएं गिर जाती हैं, उसका सब दुख गिर जाता है। सारी चिंताएं गिर जाती
हैं। स्वयं का बोध भी गिर जाता है। सिर्फ आनंद की पुलक ही रह जाती है। उस स्थिति
को हम चाहे मोक्ष कहें, चाहे निर्वाण कहें, लेकिन अच्छा होगा कि
हम उसे जीवन ही कहें। क्योंकि ईश्वर शब्द भी गंदा हो गया है। इतना जूठा और इतना
बासा हो गया है, इतना उपयोग किया गया है उसका, और
इतना दुरुपयोग किया गया है; और इतना शोषण किया गया है उस नाम के साथ और उस नाम
के साथ इतनी दुकानें खड़ी हो गई हैं; और मनुष्य के मन में उस नाम
के साथ जो एसोसिएशंस हैं वे अत्यंत दुखद और दुर्घटनापूर्ण हो गई हैं--इसलिए अब
उचित है कि कुछ वर्षों के लिए उस शब्द का उपयोग ही न किया जाए!
ऐसा ही मोक्ष के साथ
हुआ है। क्योंकि मोक्ष पाने वाले लोगों ने मोक्ष को जीवन के ऊपर रख दिया। और तब
मोक्ष मृत्यु का ही पर्यायवाची हो गया था। तो मोक्ष शब्द भी बाधा डाल रहा है। वैसे
ही निर्वाण भी बाधा डालने लगा है। असल में जिन शब्दों का मनुष्य-जाति ने पिछले
अतीत में उपयोग किया है, उन सब उपयोगों के साथ ऐसे संदर्भ जुड़ गए हैं कि अब
उन शब्दों में ताजगी नहीं रह गई है। इसलिए अच्छा है कि हम जीवन का ही उपयोग करें, हम
कहें, जीवन ही परमात्मा है। जीवन ही मोक्ष है। हम कहें कि जीवन ही सब कुछ है।
इसी के साथ अगर हमें
यह खयाल आ जाए तो धर्म का जो अभी तक एक रूप रहा है, लाइफ-निगेटिव, जीवन
का विरोध करने वाला, वह विलीन हो जाएगा। धर्म का अब तक जो रूप रहा है, वह
है जीवन-निषेध का। क्योंकि धर्म ने जीवन के ऊपर कुछ लक्ष्य खड़े कर लिए थे जो
बिलकुल ही काल्पनिक और झूठे हैं। और उन लक्ष्यों के लिए जीवन को कुर्बान करना
जरूरी था। तो जीवन के सब रूपों को सिकोड़ने की एक लंबी प्रक्रिया धर्म ने आदमी को
सिखाई। धर्म का आज तक का जो रूप रहा है, वह किसी न किसी अर्थों में
आत्मघाती रहा है। आदमी सिकुड़े, सिकुड़े, छोड़े; छोड़े, त्याग
करे; बचे जीवन से, भागे, पलायन करे, तब
उसे लक्ष्य मिल सकेगा।
यह बड़े आनंद की बात है
और बड़े आश्चर्य की कि जीवन का प्रयोजन पाने के लिए जीवन को छोड़ना पड़ेगा! यह इतनी
उलटी और मूढ़तापूर्ण बात है जिसका कोई हिसाब नहीं है। अगर जीवन का ही प्रयोजन पाना
है तो जीवन को पूरा जीना पड़ेगा। छोड़ने से कैसे जीवन का अर्थ पूरा होगा? छोड़ने
से तो मृत्यु का अर्थ पूरा हो सकता है। मरने का अर्थ पूरा हो सकता है। मरने का
प्रयोजन मिल सकता है, जीवन का नहीं मिलेगा। लेकिन यह एक फैलेसी, यह
एक भ्रांत चिंतना मनुष्य की अब तक रही है। और वह इसलिए रही कि जीवन का अर्थ खोजने
में कुछ लोगों ने जीवन के ऊपर एक साध्य निर्धारित किया कि यह साध्य है, इसे
पाना है। इसे पाना है तो जीवन को छोड़ो और इस साध्य की तरफ जाओ।
मैं कहना चाहता हूं कि
जीवन के ऊपर कोई साध्य नहीं है। जीवन में जाओ--गहरे और गहरे, उसके
पूरे अंतस्तल में उतर जाओ, जीवन के साथ बिलकुल एक हो जाओ, जीवन
कहीं भी विरोधी न रहे। जीवन से चित्त में कहीं भी कोई निषेध न रहे, इनकार
न रहे, अस्वीकार न रहे। इतनी टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, इसको मैं आस्तिकता
कहता हूं, मेरे अर्थों में।
उस आदमी को आस्तिक
नहीं कहता,
जो ईश्वर को मानता है। उस आदमी को आस्तिक नहीं कहता, जो
मोक्ष की खोज में लगा है। आस्तिक मैं उसे कहता हूं, जिसने जीवन की
परिपूर्णता को,
उसके समग्र रूपों में पूर्ण स्वीकार कर लिया है। जिसके मन
में कोई इनकार नहीं जीवन का। जीवन जैसा आए, वह राजी है--अंधेरा, तो
भी राजी है--उजाला, तो भी राजी है। दुख, तो भी राजी है--सुख, तो
भी राजी है। फूल, तो भी राजी है--कांटे, तो भी राजी है। जीवन
जैसा है, वह उसके साथ पूर्ण रूप से जीने को राजी है। ऐसे व्यक्ति का मेरे मन में अर्थ
हैः आस्तिक! जीवन को उसकी परिपूर्ण श्रद्धा उपलब्ध हुई है। और जीवन के बाहर उसकी
कोई श्रद्धा नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर जीवन को खोजता चला जाए तो एक दिन वहां पहुंच
जाता है, जहां सारे जीवन के साथ एक हो जाता है। उस समग्र जीवन में चांद-तारे भी होते
हैं; पौधे, पशु-पक्षी भी होते हैं। उस समग्र जीवन में मनुष्यता भी होती है और जीवन के ऐसे
बहुत रूप होते हैं, जो हमें आंखों से दिखाई भी नहीं पड़ते हैं। क्योंकि
तब समग्र ही एक होता है, तब ऐसा ही होता है जैसे किसी लहर ने पूरे समुद्र के
साथ अपनी एकता को जान लिया। तब उस लहर को मिटने का डर भी मिट जाता है। लहर तो
मिटेगी ही। लहर तो मिटेगी ही--लहर की तरह जीने का, बचे रहने का कोई उपाय
नहीं है। जरूरत भी नहीं है।
लेकिन जिस लहर ने यह
जान लिया कि पूरे सागर के साथ मैं एक हूं, अब उसके मिटने, न
मिटने का कोई अर्थ नहीं है। वह अब एक अर्थ में कभी नहीं मिटेगी। लहर के अर्थ में
मिटेगी, सागर के अर्थ में होगी। और सागर के अर्थ में होना इतना महान है कि लहर के अर्थ
में मिट जाना आनंदपूर्ण ही है।
जिन लोगों ने जीवन के
ऊपर लक्ष्य रखे, उन सबको यह डर भी पैदा हो गया कि कहीं हम मिट न जाएं, मर
न जाएं। मृत्यु के बाद क्या होगा! इसलिए सारे पुराने धर्म मृत्यु के आस-पास घूम
रहे हैं और उनका सवाल यह है कि मृत्यु के बाद क्या होगा? क्योंकि
जीवन को उन्होंने स्वीकार नहीं किया है। अगर वह जीवन को उसकी पूर्णता में स्वीकार
कर लें तो मैं मरूंगा, लेकिन जीवन नहीं मरेगा--और मैं एक लहर हूं, जो
आती है और जाती है--लेकिन जिससे लहर बनी है, वह न आता है, न
जाता है; वह बना रहता है, वह बना रहता है! व्यक्ति मिटेगा, अहंकार
मिटेगा, ईगो मिटेगा, जीवन नहीं।
लेकिन जिन लोगों ने जीवन
से भिन्न लक्ष्य बना लिए हैं, वे कहते हैं, मुझे बचना चाहिए! मेरी आत्मा
बचेगी कि नहीं,
मैं बचूंगा कि नहीं! मैं यह नाम वाला व्यक्ति, इस-इस
भांति का व्यक्ति बचेगा कि नहीं, यह सवाल है! मैं अगर बचता हूं
तो ठीक, नहीं तो सब बेकार है। ऐसे व्यक्ति को पता ही नहीं कि वह अपने बचने में सारे
जीवन को खो रहा है। जब कि उस जीवन के साथ ही उसका होना है।
लहर को पता न भी हो कि
मैं सागर के साथ एक हूं--हो सकता है! लहर ने छलांग लगाई है सागर की छाती पर।
चांद-तारों की तरफ उठी है, सूरज की तरफ उठी है और भूल गई है कि नीचे कहां से आई
है। आकाश को देख रही है, और उसे पता भी नहीं है कि जिसके साथ मैं एक हूं एक
हूं चाहे पता हो, चाहे न हो! तो शायद लहर डर भी सकती है कि कहीं मैं
मिट न जाऊं,
वह बचने की कोशिश भी कर सकती है।
बचने की कोशिश का एक
ही मतलब हो सकता है कि वह फ्रोजन हो जाए, वह बर्फ की तरह जम जाए तो वह
बच सकती है,
लेकिन तब भी वह मर जाएगी, क्योंकि लहर का होना
उसके चंचल होने में था। उसका जीवन उसके लहर होने में था, उसकी
चंचलता में था। उसका जीवन उसकी गति में था। बर्फ की तरह फ्रोजन हो कर, वह
लहर नहीं रह गई और सागर भी नहीं रह गई। जो बड़ी दुर्घटना घटी वह यह घटी कि वह लहर
भी मिट गई और वह सागर भी नहीं रह गई। वह लहर भी मर गई और सागर होने में भी मुश्किल
पड़ गई।
जितने लोग अहंकार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं
वे फ्रोजन हो जाते हैं--चाहे धन से बचाएं, चाहे यश से, चाहे
धर्म से, चाहे भगवान से। जो लोग भी जीवन को--मेरे जीवन को--मैं बच जाऊं; इसकी
कोशिश में लगे हैं, वे उस लहर की तरह हैं, जो बर्फ की तरह सख्त
हो गई है। बच तो गई, लेकिन मर गई बचने में। काश, वह
लहर ही रहती और जानती कि मैं सागर से एक हूं, मेरे मिटने का कोई उपाय नहीं
है। मैं मिटूंगी, लेकिन फिर भी वह नहीं मिटेगा, जिससे
मैं हूं। जब मैं नहीं थी, तब भी वह था। जब मैं नहीं रहूंगी, तब
भी वह होगा--वह होगा, जीवन सदा होगा। हम आएंगे और जाएंगे, हम
बनेंगे और बिगड़ेंगे, हम पैदा होंगे और मिटेंगे और जीवन सदा होगा। जीवन
अनंत है, जीवन इटरनल है, जीवन शाश्वत है।
लेकिन हमें हमारी फिकर
है। हमारी इस फिकर ने हमें जीवन के साथ तादात्म्य और एकता साधने में डर पैदा कर
दिया है। क्योंकि जो भी व्यक्ति जीवन के साथ तादात्म्य साधना चाहता है, उसको
मिटना पड़ेगा,
उसको जानना पड़ेगा--मैं हूं ही नहीं। तभी वह जीवन के साथ
तादात्म्य जान सकेगा। इसलिए यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हमारे जीवन की पूर्णता
को हम नहीं जान पाते, उसमें एक कारण है। और वह यह है कि मैं अपने को अलग
बचाना चाहता हूं।
जीसस का बहुत अदभुत
वचन है कि जो लोग अपने को बचाएंगे वे मिट जाएंगे। और जो अपने को खो देते हैं, वे
बच जाते हैं। उस खोने में ही बच जाते हैं, क्योंकि तब वे उससे एक हो
जाते हैं, जिससे एक हैं ही। और जिससे आते हैं और जिसमें लौट जाते हैं। जीवन का अर्थ है; वह
सागर जहां से हम आते हैं और जहां छलांग लगाते हैं और वापस लौट जाते हैं। यह छलांग
लगाना भी आनंदपूर्ण है और यह आना भी आनंदपूर्ण है और यह वापस लौटना भी इतना ही
आनंदपूर्ण है। जो व्यक्ति जीवन की इस दृष्टि को समझेगा, उसके
लिए मृत्यु दुखदायी नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे दिन भर श्रम के बाद रात
हम सो गए। श्रम भी आनंदपूर्ण; जागना भी आनंदपूर्ण; सो जाना भी कम
आनंदपूर्ण नहीं है। दिन का प्रकाश भी आनंदपूर्ण था; रात का अंधकार भी
अदभुत है। पूरा जीवन एक दिन है! फिर रात, मौत...फिर विलीन होती है, फिर
लहर उठ सकती है, फिर लहर उठ सकती है, लहर उठती रही है, उठती
रहेगी लेकिन जिन लोगों ने जीवन के पार कोई लक्ष्य बना रखा है...!
जीवन है, जीवन
था, जीवन रहेगा। हम बूंद और लहर से ज्यादा नहीं हैं और अगर हमें यह खयाल में आ जाए
तो फिर हम जीवन को एनक्लोज करने का, सब तरफ से बंद करने की चेष्टा
छोड़ देंगे। फिर द्वार खुले रहेंगे क्योंकि जो आया है, वह
जाएगा। जो मिला है, वह छूटेगा; जो हुआ है, वह
बिखरेगा।
आचार्य जी, डू
यू फील दैट लाइफ एण्ड डेथ, दे आर जस्ट दि टु मोमेंट्स ऑफ दि सेम, आई
मीन आस्पेक्ट?
बिलकुल ही, जीवन
और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। जीवन है उसका आना, मृत्यु है उसका
जाना--उसका,
जिसको हम जीवन कहें। जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। एक
है आगमन, एक है विदा; लेकिन उसी का, जिसको हम जीवन कहें। जीवन जब
आता है, रूप लेता है, आकार होता है, आकार बनता है, प्रकट
होता है, अभिव्यक्त होता है, मैनिफेस्ट होता है, तब तो हम उसे स्वीकार
करते हैं; लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि मैनिफेस्ट होने के पहले वह कहां था? वह
मृत्यु में ही था। एक लहर उठी, अभी जब नहीं उठी थी, तो लहर कहां थी?
जीवन और मृत्यु ऐसे ही
हैं जैसे कि भीतर जाती श्वास, बाहर जाती श्वास--इन ब्रीदिंग, आउट
ब्रीदिंग! और वही श्वास भीतर जाती है, वही बाहर चली जाती है। वही
जीवन में--वही हम आते हैं जन्म के साथ, मृत्यु के साथ हम वापस लौट जाते
हैं। इसे हम पूरे जीवन की श्वास की एक प्रक्रिया कह सकते हैं। पूरा जीवन जो है, वह
श्वास ले रहा है। पुराणों की भाषा में कहें तो ब्रह्मा की श्वास। पुराण ऐसा कहते
हैं कि सृष्टि,
पूरी सृष्टि ब्रह्मा की एक श्वास है। फिर प्रलय, ब्रह्मा
की श्वास का वापस लौट जाना है। यह बहुत ही ठीक है बात।
यह ऐसा ही है, एक
बीज फूटा, अंकुर बना,
पत्ते आए, फूल खिले। यह एक श्वास हुई।
फिर फूल झड़े,
पत्ते गिरे, वृक्ष सूखा, श्वास
वापस लौट गई। एक बच्चा पैदा हुआ, जवान हुआ, जवानी
पर श्वास--अपने पूरे, पुरजोश, पूरे अर्थ में है। फिर आदमी
बूढ़ा हुआ, श्वास वापस लौटने लगी। फिर आदमी मर गया, श्वास वापस लौट गई। श्वास
अनंत बार उठेगी, अनंत बार डूबेगी, जाएगी और आएगी।
जो इस सत्य को समझ ले
कि जीवन-मृत्यु एक ही गाड़ी के दो चाक हैं--दोनों से ही चलना है, होने
के दोनों ही सहारे हैं; एक लाता है, एक ले जाता है--उसे फिर
मृत्यु का भय न रहा। और जीवन की पूर्ण स्वीकृति में मृत्यु की स्वीकृति सम्मिलित
है। जीवन की पूर्ण स्वीकृति में टोटल एक्सेप्टेंस है, फिर
कुछ भी अस्वीकृति नहीं है। कुछ है ही नहीं अस्वीकृत। जो भी है, वह
सब स्वीकृत है।
और जब कोई समग्र जीवन
को इस भांति स्वीकार करता है तो आनंद को, ब्लिस को उपलब्ध होता है।
क्योंकि तब दुख का कोई कारण ही नहीं रह गया। क्योंकि तब दुख भी स्वीकृत है। उतनी
ही सरलता से स्वीकृत है, जितनी सरलता से सुख स्वीकार होता है। तब इनकार न रहा
वैसे आदमी में। वह इनकार करता ही नहीं। वह गुलाब के फूल को उतने ही आनंद से लेता
है, जितने गुलाब के कांटे को। और अब वह जानता है कि कांटा और फूल किसी गहरे प्राण
में इकट्ठे हैं। जहां से कांटा आ रहा है, वहीं से फूल आ रहा है। और
कांटे और फूल की योजना में एक ही प्राण का हाथ है--एक ही वृक्ष का, एक
ही पौधे का,
एक ही जीवन का। वह हमारी भूल थी कि हम कांटे को अलग करें, फूल
को अलग करें। वह हमारा ऊपर से देखना था, भीतर हम उतरे नहीं थे।
तो जहां से जवानी आ
रही है, वहीं से बुढ़ापा भी आएगा और जहां से जन्म आया है, वहीं से मृत्यु भी
आएगी। जहां से सुख आते हैं, वहीं से दुख भी आएंगे। और जब सुख-दुख, जीवन-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश, कांटे-फूल
एक साथ स्वीकृत हो जाते हैं, सम-भाव से स्वीकृत हो जाते हैं तो जो दशा पैदा होती
है, उस दशा का नाम आनंद है।
आनंद सुख नहीं है।
आनंद सुख का पर्यायवाची नहीं है। आनंद का मतलब सुख नहीं, संतोष
नहीं। आनंद का मतलब है, जहां संतोष-असंतोष बराबर हो गए। आनंद का मतलब है
जहां सुख और दुख एक ही मूल्य रखते हैं। आनंद का मतलब है जहां द्वैत न रहा, द्वंद्व
न रहा, डुआलिज्म न रहा। जहां हमने सबको ही अंगीकार कर लिया, क्योंकि
हमने पाया यह कि सब एक का ही हिस्सा है।
इनकार करोगे कैसे? आधे
को छोड़ोगे कैसे? ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अंधेरे को छोड़ दें और
प्रकाश को बचा लें? प्रकाश बचेगा अंधेरे के साथ। ऐसा कैसे हो सकता है कि
हम जन्म को बचा लें और मृत्यु को छोड़ दें? जन्म बचेगा मृत्यु के साथ।
जिसको यह दिखाई पड़ गया है कि सब द्वंद्व, सब द्वैत, एक
ही अद्वैत में समाहित हैं, एक के ही हिस्से हैं--वह हंसने लगा। उसने कहा कि बात
खत्म हो गई। अब कुछ बचाना नहीं, अब कुछ छोड़ना नहीं, अब जो है, वह
है।
इसको बौद्धों ने बहुत
अच्छा नाम दिया है, इसे वे कहते हैं, तथाता--दि फिलासफी ऑफ
सचनेस, चीजें ऐसी हैं! यह भी भाव न रहा कि वे ऐसी हों। यह भी सवाल न रहा। चीजें ऐसी
हैं--जन्म होता है, मृत्यु होती है, मित्र मिलते हैं, बिछुड़ते
हैं। प्रेम आता है, जाता है--ऐसा होता है--थिंग्ज आर सच! जब एक आदमी ऐसा
कहने लगा कि थिंग्ज आर सच, ऐसी चीजें हैं कि फूल भी खिलता है, कांटे
भी होते हैं--जब एक आदमी को ऐसा दिखाई पड़ने लगा कि चीजें ऐसी हैं, और
जब उसने यह भी कामना छोड़ दी कि वे ऐसी होनी चाहिए, क्योंकि होनी चाहिए का
खयाल उसी को पैदा होता है, जो इनकार करता है। जो कहता है, ऐसा
नहीं ऐसा। तब वह आदमी अपने को जगत पर थोप रहा है। जीवन पर अपने को थोप रहा है। वह
जीवन से बड़े होने की कोशिश में संलग्न हो गया है कि ऐसा हो।
ऐसा आदमी दुखी होगा, पीड़ित
होगा क्योंकि जो वह चाह रहा है, वह असंभव है। सब द्वैत जुड़े हुए हैं, आधा
नहीं बचाया जा सकता है। ऐसा जिसको दिखाई पड़ गया, वह आनंद को उपलब्ध हो
गया, क्योंकि अब उसे कोई दुख न रहा, कोई सुख न रहा। जो आया
स्वीकार किया,
जो नहीं आया, तो भी स्वीकार किया। तब मित्र
आए तो सुख है,
मित्र जाए तो सुख है।
सुख का मतलब यह कि अब
दोनों ही स्थितियों में वह कोई चुनाव नहीं करता। अब वह च्वाइसलेस हुआ, अब
उसका कोई चुनाव नहीं, कोई विकल्प नहीं है, सब ठीक है, सब
ही ठीक है। अब हां और ना में भी उसे कोई जरूरत न रही। अब हां और ना भी बराबर हो
गए।
ऐसा धीरे-धीरे जब कोई
व्यक्ति पूर्ण स्वीकार को उपलब्ध होता है तो आस्तिकता पैदा होती है। यानी आस्तिक
नास्तिकता को भी स्वीकार करता है, कि चीजें ऐसी हैं कि कोई कह
सकता है कि ईश्वर नहीं है। परम आस्तिक नास्तिक से भी नहीं लड़ने जाएगा; क्योंकि
वह यह कहेगा कि ठीक है, यह भी हो सकता है कि एक आदमी यह कह सकता है कि ईश्वर
नहीं है। क्योंकि जहां ईश्वर है, ऐसा कहने वाले लोग होंगे; वहां
ईश्वर नहीं है,
ऐसा कहने वाले लोगों की भी जरूरत है; नहीं
तो यह ‘है’ व्यर्थ हो जाएगा। वह ‘नहीं’ के साथ ही खड़ा हो सकता है। वह
भी एक द्वैत है। तब वह आस्तिक को भी कहता है, तू भी ठीक; तब
वह नास्तिक को भी कहता है, तू भी ठीक। तब कोई झगड़ा नहीं है। तब वह उस जगह खड़ा
हुआ है, जहां सब विरोध समाहित हो जाते हैं।
और जहां सब विरोधी
चीजें एक ही में लौट आती हैं। ऐसे बिंदु पर खड़ा हुआ व्यक्ति जीवन को उपलब्ध हुआ।
ड.ज दिस
मीन--थाॅटलेसनेस?
हां, अब
तो कोई सवाल न रहा। यहां विचार का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि विचार वहीं तक
है, जहां तक चुनाव है, जहां तक च्वाइस है। यह होना चाहिए और यह नहीं होना
चाहिए--तो कुछ निकालना है, कुछ हटाना है, कुछ बनाना है, कुछ
बिगाड़ना है। ऐसा व्यक्ति तो जो है--वर्षा आती है तो आनंदित होता है और धूप निकलती
है तो आनंदित होता है, सर्दी आती है तो आनंदित होता है।
एक फकीर के पास कोई
गया था और उसने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? तो उस फकीर ने कहा, मेरी
कोई साधना नहीं है। क्योंकि साधना वे करते हैं, जो कुछ इनकार करते हों
और कुछ पाना चाहते हों। यहां तो सभी स्वीकार है। साधना का क्या सवाल है? साधना
तो वहां है,
जहां कुछ पाना है। यहां तो जो मिल जाता है, सो
ठीक है, जो नहीं मिलता है तो भी ठीक है। बस यही साधना है, अगर
साधना इसे कहो।
उस आदमी ने कहाः मैं
समझा नहीं। फिर भी करते क्या हो? करते क्या रहते हो? उस
आदमी ने कहा! कुछ भी नहीं, जब भूख लगती है, खाना खा लेता हूं और
जब नींद आती है, तब सो जाता हूं, जब नींद टूटती है तो
उठ आता हूं। उस आदमी ने कहा, यह तो हम भी करते हैं। मगर इसमें करने जैसा क्या है?
उस फकीर ने कहाः तुम
नहीं करते हो। तुम्हें जब भूख लगती है तब तुम सिर्फ खाना ही नहीं खाते हो, और
बहुत कुछ भी करते रहते हो--साथ ही करते रहते हो। मैं बस खाना खाता हूं, भूख
लगी तो खाना खा लेता हूं। और मैं क्या खाना खाता हूं, भूख
खाना खाती है। मैं तो देखता ही हूं कि भूख खाना खा रही है। कभी ऐसा भी हो जाता है
कि खाना नहीं मिलता है तो मैं देखता हूं कि भूख परेशान हो रही है। मैं देखता हूं, ऐसा
होता रहता है। भूख भी स्वीकार है, भोजन भी स्वीकार है। दोनों ही
हैं साथ। भूख है तो भोजन है। भूख भी रहेगी, भोजन भी रहेगा। जो है, ठीक
है--ऐसी जो भाव-दशा है।
तो ऐसा व्यक्ति हमें
समझना चाहिए,
जैसे नदी में कोई व्यक्ति फ्लोट कर रहा हो। अब वह तैर नहीं
रहा। वह यह नहीं कहता कि मुझे वहां पहुंचना है, उस किनारे। उसे कहीं
नहीं पहुंचना है। उसे पहुंचना ही नहीं है। वह जहां है, वहां
ही है! तो वह बह रहा है। नदी जहां ले जाती है, वह जा रहा है। नदी कभी
बड़ी हो जाती है तो वह देखता है, नदी बड़ी हो गई। नदी कभी सिकुड़ जाती है, तो
वह देखता है सिकुड़ गई। नदी कभी तेजी से बहती है तो वह तेजी से बहता है। नदी कभी
मंद गति की हो जाती है तो वह मंद गति बहता है। वह कुछ करता ही नहीं, वह
कुछ करता ही नहीं, वह सिर्फ बहता है।
ऐसी जीवन की जो
परम-दशा है,
वहां सिर्फ बहना है। जीवन के साथ एक हो जाना है। जीवन की
धारा में संयुक्त हो जाना है। वहां व्यक्ति को अर्थ, प्रयोजन, जीवन
का उपलब्ध होता है। वह है आनंद, वह है परिपूर्ण शांति।
लेकिन कोई यह कोशिश
करे कि हम ऐसा आनंद पाने के लिए जीवन को साधन बना लें तो गलती में पड़ गया है। वह
तो जीवन जीने से सहज उत्पन्न होता है। वह बाइ-प्राॅडक्ट है। उसको कोई जीवन का लक्ष्य
नहीं बना सकता है। कोई आदमी ऐसा सोचे कि मैं जीवन का लक्ष्य बना लूं, कि
आनंद पाकर रहूंगा, तो वह गलती में पड़ गया। यह ऐसी ही भूल हो जाएगी, जैसे
कि हम गेहूं बोते हैं तो गेहूं के साथ भूसा भी पैदा होता है। फिर एक आदमी कहे कि
हमें तो भूसा ही पैदा करना है। तो वह भूसा बोने लगे। तो फिर न तो भूसा पैदा होगा, न
गेहूं पैदा होगा। बल्कि जो हाथ का भूसा था, वह भी सड़ जाएगा। गेहूं के साथ
भूसा पैदा होता है, वह बाई-प्राॅडक्ट है। वह सीधा पैदा नहीं होता है।
गेहूं पैदा हो जाए तो भूसा उसके साथ आता है।
आनंद जीवन का लक्ष्य
नहीं बनाया जा सकता क्योंकि जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं बनाया जा सकता। वह तो जीवन
मिल जाए तो आनंद पीछे चला आता है; जैसे गेहूं के साथ भूसा चला
आता है। वह बाई-प्राॅडक्ट है। उसे कहीं खोजने नहीं जाना होता। वह तो जैसे-जैसे
हमें जीवन गहरा होता है, वैसे-वैसे वह मिलता चला जाता है। वह जीवन की छाया
है। वह जीवन के साथ ही आता है।
तुम आए हो यहां। मैं
तुमसे कहूं कि मैं तुम्हारी फिकर नहीं करता, मैं तुम्हारी छाया को लाना
चाहता हूं,
तो मैं तुम्हारी छाया को कभी नहीं ला सकता। तुम्हारी छाया
को लाने का कोई उपाय नहीं है। वह तुम्हारे साथ आती है, तुम्हारे
साथ जाती है। तुम आ गए तो तुम्हारी छाया आ गई। इसलिए मैं तुम्हारी छाया की फिकर ही
नहीं करता। तुम आओगे तो वह आने वाली है। आनंद जीवन की छाया है। जैसे-जैसे जीवन
गहरा होता है,
आनंद चला आता है।
लेकिन आदमी के तर्क
में भूल हो गई। उसको उसने आनंद को भी लक्ष्य बना लिया है। कुछ लोग आनंद को ही खोज
रहे हैं जिंदगी भर, और जिंदगी गंवा रहे हैं और आनंद उन्हें मिलेगा नहीं।
क्योंकि आनंद कोई ऐसी चीज नहीं जो अलग मिल जाए। वह तो उसे मिलता है, जो
सुख और दुख में, जन्म और मृत्यु में सम-भाव से बहने की क्षमता को
उपलब्ध हो जाता है। और यह क्षमता जैसे-जैसे हम जीवन में गहरे उतरते हैं, अपने
आप उत्पन्न होने लगती है।
इसलिए मेरा कहना है, जीवन
से भागो मत। जीवन में उतरो। और कई बार ऐसा होता है कि जिन्हें हम पापी कहते हैं, वे
जीवन में ज्यादा गहरे उतर जाते हैं और जिन्हें हम पुण्यात्मा कहते हैं, वे
बिलकुल थोथे रह जाते हैं। वे जीवन से इतने डरे होते हैं कि कभी उतरे नहीं। इसलिए
मेरी दृष्टि में तो जीवन में उतरो, सब तरफ से जीवन में उतरो, जहां-जहां
से जीवन में उतरने का है। अगर भोजन कर रहे हो तो इतनी गहराई से, इतने
रस से करो कि भोजन भी जीवन में उतरने का रास्ता बन जाए। अगर प्रेम कर रहे हो तो
पूरे डूब जाओ। अगर संगीत सुन रहे हो तो मिट जाओ, अगर तैर रहे हो तो खो
जाओ--छोटी से छोटी घटना में।
और ध्यान रहे, जीवन
कोई ऐसी अलग चीज नहीं है कि कहीं रखी हुई है कि हम जाएंगे और मिल जाएगी। वह तो
हमारा रोज-रोज जीना ही जीवन है और प्रतिपल जो हम जी रहे हैं, उसको
हम इंटेंसिटी से, टोटेलिटी से, परिपूर्णता से और सघनता से
जीए चले जाएं। स्नान भी कर रहे हैं तो ऐसे करें कि जैसे स्नान भी अपने आप में एक
कृत्य है। जिसका कोई और लक्ष्य नहीं है। तो फिर स्नान में भी वह झलक आ जाएगी जो
जीवन की झलक है। दौड़ रहे हैं तो ऐसे दौड़ें, जैसे जीवन का बस यही लक्ष्य
है। जो कर रहे हैं, उसमें इस तरह एक हो जाएं कि अलग होना ही न रह जाए।
तब प्रतिपल-प्रतिपल ऐसा जीते, क्षण-क्षण ऐसा जीते--जीवन की पर्तें उखड़ती हैं और
डिस्कवरी, आविष्कार होता है।
एक दिन जब जीवन हमें
पूरा का पूरा हमारी नस-नस में, रग-रग में, कण-कण में दौड़ने लगता है; श्वास-श्वास
में प्रवाहित होने लगता है; तब फिर हम नहीं पूछते कि जीवन का परपज क्या है? तब
हम जानते हैं कि मिल गई, आ गई वह मंजिल और तब हम हैरान होते हैं कि मंजिल तो
सदा पास थी,
ये तो हम थे ही, इसे हमने कभी जाना नहीं, क्योंकि
हम कोई लक्ष्य खोज रहे थे।
इसे ऐसा कहा जा सकता
है, जो जीवन का प्रयोजन खोज रहे हैं, वे प्रयोजन को खो देंगे और जो
जीवन को खोज लेते हैं, उन्हें प्रयोजन भी मिल जाता है।
आचार्य जी, हियर
आई हैव वन डाउट दैट हाउ ह्युमैनिटी विच है.ज बीन कंडीशंड सिंस सेंचुरीज कैन फ्री फ्रॉम
दिस पास्ट इवेंट्स ऑफ लाइफ एण्ड वॉट टाइप ऑफ मे.जर्स यू सजेस्ट सो दैट दि न्यू
एजुकेशन शुड बी क्रिएटड विच शुड गिव अंडरस्टैंडिंग सो दैट पिपल शुड अंडरस्टैंड एट
लार्ज दि परपज ऑफ लाइफ?
अतीत ने संस्कारित किया
है, आदमी को बहुत सी गलत धारणाएं दी हैं। मजे की बात तो यह है कि गलत धारणाएं तो
गलत होती ही हैं; असल में, धारणा मात्र ही गलत होती है।
क्योंकि सब तरह की धारणा हमें पूर्ण को देखने में बाधा डालती है--किसी भी तरह की
धारणा!
धारणा का मतलब होता है
अंश; धारणा का मतलब होता है, खिड़की--जिससे हम देखेंगे। आकाश को खिड़की से देखा जा
सकता है, लेकिन वह आकाश नहीं है । वो चैखटे में कहीं आकाश जड़ा जा सकता है? और
चैखटे से देखा गया आकाश बुनियादी रूप से झूठ है। क्योंकि आकाश का कोई चैखटा ही
नहीं है। आकाश का अर्थ है--विस्तार, अनंत विस्तार। और खिड़की से जो
दिखता है, वह एक चैखटे में दिखता है। आकाश का अर्थ ही है--स्पेस, अनंत।
और चैखटे से जो दिखता है, वह सीमित टुकड़ा होता है। तो वह तो वैसा ही है, जैसे
कि हमने एक पेंटिंग में आकाश देखा हो। वह आकाश वह आकाश नहीं है, जो
खुले आकाश के नीचे खड़े होकर दिखाई पड़ता है। जीवन भी अनंत है, आकाश
की भांति ही। इसलिए कोई भी धारणा बाधा देती है। कोई भी कंसेप्ट चैखटा बन जाता है।
अतीत ने मनुष्य को
बहुत से चैखटे दिए, बहुत से पैटर्न, ढांचे, धारणाएं
दीं। जीवन को कैसे जीएं, यह भी बताया है। कौन सा जीवन का रूप ठीक है, कौन
सा गलत है,
यह भी बताया है। क्या पाप है, क्या पुण्य है, यह
भी समझाया है। क्या करना, क्या नहीं करना, यह भी बताया है। कौन
सा लक्ष्य पाने योग्य है, कौन सा छोड़ने योग्य है, यह
सब बता दिया है। इस सब बताने में ही आदमी मर गया है। इस सब बताने में आदमी इतना
बोझिल हो गया है कि जीना-जीना ही असंभव है। तो हम एक तरह का अभिनय कर रहे हैं, जी
नहीं रहे हैं। बताया है कि...।
यह सारा बताना बहुत
महंगा पड़ गया है, यह सिखावट बहुत महंगी पड़ गई है; और
आदमी जी ही नहीं पाता। प्रेम कैसे करना है, यह भी बताया है; और
तब प्रेम करना असंभव हो जाता है। क्योंकि जीवन में जो भी गहरा है, वह
सदा स्पांटेनियस है; वह बताने से नहीं होता है। वह सदा सहज स्फुरित होता
है।
मैं चाहता हूं कि
एक-एक व्यक्ति को यह खयाल आ जाए कि ढांचे, चैखटे, जीवन
के आकाश को नहीं बता सकते हैं। और यह खयाल आ सकता है, क्योंकि
प्रत्येक इतने दुख में जी रहा है, इतनी परेशानी में, इतनी
चिंता में जी रहा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। और अगर यह खयाल आ जाए कि घर के
बाहर, दीवारों के बाहर बड़ी खुली हवा; सूरज की रोशनी और आकाश है; और
बहुत फूल खिले हैं; बहुत संगीत है--तो इस घर के भीतर, इस
धुएं में, इस बंद दीवाल में, इस गंदगी में बैठने का कोई कारण नहीं। चाहे इस घर
में कोई हजारों वर्ष से रह रहा हो तो भी फर्क नहीं पड़ता।
एक बार यह खयाल भर आ
जाए, यह रिमेंबरिंग आ जाए कि मैं कहीं इन दीवारों में घिरे होने की वजह से तो दुख
में नहीं हूं तो आदमी तत्काल, बाहर हो जाता है। यानी बाहर होने में ऐसा नहीं है कि
हजारों वर्षों से हम एक ढांचे में ढले हैं तो बाहर होने में कठिनाई होगी। एक दफा
स्मरण आ जाए,
यह अवेयरनेस एक दफा खयाल में आ जाए कि ये सारा दुख, सारी
चिंता इस घेरे की वजह से है तो बाहर निकलना एक क्षण में हो जाता है। और
हजारों-लाखों वर्षों की परंपरा भी बाहर निकलने से रोक नहीं सकती। एक सेकेंड में यह
निकलना हो जाएगा।
इसलिए यह बात सच है कि
आदमी धारणाओं में घिरा है, बंद है, पुराने सिद्धांतों से बंधा है, शास्त्रों
से बंधा है। सब बता दिया गया है उसे, पुराने गुरुओं ने बहुत गुलामी
पैदा की है। वह सारी गुलामी उसकी छाती पर है। लेकिन, यह सारी गुलामी उसने
स्वीकार की है,
इसलिए है! उसने पकड़ी है, इसलिए है! और पकड़ी
उसने इसलिए है कि इससे आनंद मिलेगा, नहीं तो वह पकड़ता भी नहीं
इसको। और आनंद मिला नहीं है, इसलिए इस गुलामी को तुड़वाया जाना बहुत कठिन नहीं है।
एक दफा खयाल भर दिलाने
की बात है कि यही पकड़ तुझे परेशान किए हुए है। बाहर आ और देख, तो
कोई धारणा हमारी आत्मा नहीं बन गई है। कोई धारणा हमारी आत्मा नहीं है और कोई खिड़की
हमारे प्राण नहीं है। सिर्फ हम कमरे के भीतर हैं तो खिड़की बेचारी हमको बांधे हुए
है। हम कमरे के बाहर हो जाएं तो खिड़की चिल्लाएगी नहीं, पुकारेगी
नहीं, रोकेगी नहीं, खिड़की अपनी जगह पड़ी रहेगी। ठीक ऐसा ही हमारे चित्त
पर जो ढांचा है, वह हमारी आत्मा का हिस्सा नहीं हो गया है, हो
ही नहीं सकता। हम किसी भी क्षण बाहर आ सकते हैं। यह बिलकुल सडनली हो सकता है। इसके
लिए कोई ऐसा भी नहीं है कि कोई श्रम ही करे तब हो। यह एक मोमेंट, एक
क्षण में भी हो सकता है। और अक्सर एक ही क्षण में होता है और जब होता है, एक
ही क्षण में होता है।
एक दफा खयाल आ जाए कि
हो सकता है,
और आदमी लौट पड़ता है, और बाहर हो जाता है। यह जो
कठिनाई है,
कठिनाई इसी बात की है कि उसी भ्रांति में हम जिए चले जाते
हैं, जो हमारे दुख का कारण है। उसे हम अपने आनंद की खोज का आधार बनाए हुए हैं। और
वही जूता खील दे रहा है, और पैर को घाव बना रहा है। और हम उस जूते को इसलिए
पहने हुए हैं कि इस जूते के बिना चलेंगे कैसे? और वह जूता चलने ही
नहीं दे रहा है! उसकी खील हमारी जान लिए ले रही है। लेकिन हमको यह खयाल है कि जूते
के बिना तो पैर बड़ा असुरक्षित हो जाएगा। तो खील वाले जूते को पहने हुए चले जा रहे
हैं--यह स्मरण भर दिलाने की बात है।
और इसलिए मेरा काम
किसी गुरु का काम नहीं है। मेरा काम कोई उपदेशक का काम भी नहीं है, क्योंकि
मैं न कोई नई धारणा देना चाहता हूं, न कोई नया चैखटा देना चाहता
हूं। मेरा काम एक जगाने वाले के काम से ज्यादा नहीं है कि मैं किसी के घर के द्वार
के सामने चिल्लाऊं कि बाहर सूरज निकला है; तुम नाहक अंधेरे में बैठे हुए
हो; एक दफा आकर बाहर देखो। और कोई उसे बांधे हुए नहीं है। वह बैठा है तो बंधा है।
यानी बंधा हुआ होना हमारा ही निर्णय है। इसलिए एक सेकेंड में टूट सकता है। एक
सेकेंड की भी जरूरत नहीं है।
तो दुनिया में अब ऐसी
बात एक-एक घर,
एक-एक आदमी तक पहुंचाने की जरूरत है कि उसे सिर्फ घर के
बाहर की खबर हम दिला दें। और जब भी दुनिया में कोई, जिनको हम सच में
शिक्षक कहें,
पैदा हुए हैं, उन्होंने कुछ और नहीं किया।
उन्होंने सिर्फ हिलाने का, जगाने का, बाहर बुलाने का काम किया है।
उन्होंने कोई सिद्धांत नहीं दिए, कोई शास्त्र नहीं दिए, क्योंकि
सब शास्त्र और सब सिद्धांत भीतर रखने का काम करते हैं। वे फिर धारणाएं बन जाते
हैं। तो पुरानी धारणा छोड़ कर कोई नई धारणा नहीं दे देनी है।
नहीं, यह
खयाल, यह स्मृति,
यह अवेकनिंग देनी है कि किसी धारणा की मनुष्य को जरूरत नहीं
है। और यह साहस देना है कि तुम जीओ और तुम भयभीत मत होओ जीवन से। जीवन तुम्हें
जहां ले जाए,
तुम निर्भय होकर जाओ। और जीवन हर जगह तुम्हें कीमती अनुभव
देगा। और जहां सारी दुनिया कहती है, मत जाना, रुकना, अगर
जीवन कहता हो तो वहां भी जाना, क्योंकि वहां से गुजर कर भी तुम दूसरे आदमी होकर
निकलोगे। तुम वही आदमी नहीं रह जाओगे जो तुम पहले थे। और अगर कुछ गलत है तो वह गलत
गिर जाएगा तुम्हारे अनुभव से। और जो गलत अनुभव से न गिरता हो तो वह और किसी तरह
गिर ही नहीं सकता।
तो जीवन को उसके सब
रूपों में अनुभव करना है। और सारा भय छोड़ देना है। इसी तरह का मैं शिक्षण चाहता
हूं, जो नई धारणा न देता हो; जो सिर्फ जीने की हिम्मत, बल, आकर्षण, चुनौती, निमंत्रण
देता हो। धारणा न देता हो कि तुम ऐसे जीना, बल्कि जीने का निमंत्रण देता
हो कि तुम जीना तो पूरी तरह जीना, तुम फिकर छोड़ कर जीना।
और अगर तुम पूरी तरह जीने
का ही सिर्फ ध्यान रखे तो जो व्यर्थ है, वह अपने आप छूट जाएगा; जो
सार्थक है,
वह बढ़ता चला जाएगा, वह गहरा होता चला जाएगा।
आचार्य जी, इसका
मतलब यह है कि जिस तरह इकोनाॅमिक्स में एक इश्यू ऐसा होता है, जैसे
लाॅ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न, एक ऐसी स्थिति होती है जहां लाॅ ऑफ डिमिनिशिंग
अप्लाय होता है। तो आदमी के माइंड को भी हम उस लाॅ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न, क्रिटिकल
पाइंट पर पहुंचा दें जहां कि वह फिर से जाग्रत हो जाए और उसमें अवेकनिंग आ जाए और
समझने लगे?
ठीक है, असल में आदमी वहां पहुंच ही
गया है, आदमी वहां पहुंच ही गया है, जहां से उसमें जागरण आ सकता है। सारी मनुष्य चेतना
वहां पहुंच गई है, जहां शास्त्रों की खोल बोझ हो गई है। और जहां गुरु
पत्थर की तरह हो गए हैं, जो छाती पर रखे हुए हैं और जहां सब धारणाएं
परतंत्रता बन गई हैं। मनुष्य की चेतना उस जगह पहुंच ही गई है। और आज इस बात की
बहुत सरलता से संभावना है कि आदमी इतना तड़फ रहा है जीने के लिए, क्योंकि
जीने के सब साधन जुटा लिए हैं।
अब वह भ्रम भी टूट गया
है--वह भ्रम भी टूट गया है कि धन नहीं है तो जीएंगे कैसे! धन भी है और पता चलता है
कि जीना कुछ और ही बात है, जो सिर्फ धन के होने से नहीं होता। सोचते थे, बड़ा
मकान नहीं होगा तो जीएंगे कैसे? बड़ा मकान भी है। अब सवाल है, सब
साधन विज्ञान ने जुटा दिए। आदमी ने जो मांग की थी कि हमें यह चाहिए जीवन के लिए, वह
सब इकट्ठा हो गया है और अब एक मुश्किल खड़ी हो गई, क्योंकि जीवन का तो
कोई पता नहीं चलता कि कहां है!
पहली दफा मनुष्य चेतना
उस जगह पहुंची है, जहां क्रांति हो सकती है, यानी
पहली दफा बुद्ध या क्राइस्ट जैसे लोगों की बात सार्थक होने के करीब आई है। बुद्ध
और क्राइस्ट समय के पहले पैदा हुए लोग हैं। जो उस वक्त चिल्लाए हैं, जब
कि बहुत कम लोग सुन सकते हैं उनको, क्योंकि बहुत से लोग ऐसी छोटी
चीज में जीवन को खोजने के लिए मजबूर हैं कि वे कहां फिकर करें इस बात की कि और
जीवन क्या है! रोटी नहीं तो जीवन क्या होगा!
आज मनुष्यता उस जगह
पहुंच गई है जहां एक मौलिक क्रांति, म्युटेशन ऑफ माइंड होने की
संभावना है--जहां कि पूरी मनुष्य चेतना बदल जाए। तो इसलिए बहुत पुकार लगाने की
जरूरत है और एक-एक घर के छप्पर पर खड़े होकर चिल्लाने की जरूरत है। क्योंकि जहां भी
आदमी, परेशान है,
वह परेशानी के क्लाइमेक्स पर पहुंच गया है, और
अगर वह वहां जागता नहीं है तो मरेगा। इसलिए दुनिया में आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, पागलपन
बढ़ रहा है,
चिंता बढ़ रही है, क्योंकि जहां आदमी खड़ा है, वह
जगह जीने योग्य नहीं रह गई और अगर कोई पुकार नहीं मिलती और कोई चुनौती नहीं आती, और
कोई खबर नहीं आती तो वह वहां सड़ जाएगा, मर जाएगा। वहां वह जीना नहीं
चाहेगा। यानी इतना पक्का हो गया है कि आदमी जैसा है, अब वह वैसा जीने को
राजी नहीं है,
उस तकलीफ में पड़ गया है। इसलिए वह जगह आ गई, जहां
पुकार सुनी जा सकती है।
और ये आने वाले पचास
वर्ष मनुष्य-जाति के इतिहास में बहुत मूल्यवान मोमेंट्स हैं। इनका मूल्य बहुत
अदभुत है। इतना मूल्यवान समय कभी भी नहीं था मनुष्य जाति के लिए, इस
जगह से पुकार सुनी जा सकती है। क्योंकि वह बात टूट गई है कि जिसे हमने स्वीकार
किया था, उससे आनंद मिल सकता है, वह बात खतम हो गई है। अब किससे आनंद मिल सकता है, इसकी
खबर भर पहुंचाने की जरूरत है।
तो शिक्षण की सारी
व्यवस्था अब ऐसी होनी चाहिए कि जीवन की एक चुनौती हो, एक
चैलेंज देता हो। विद्यार्थी वहां से जब लौटता हो विश्वविद्यालय से, तो
वह जीवन जीने का एक निमंत्रण लेकर लौटता हो। उसके बहुत रूपों में--प्रेम में, मित्रता
में, संबंधों में, खोज में, आविष्कार में, चिंतन
में, मनन में,
ध्यान में--सब तरफ निमंत्रण लेकर लौटता हो कि सब तरफ घुसना
है, सब तरफ खोजना है। एक अन्वेषण का भाव भर लेकर लौटता हो, कोई
पक्की धारणाएं लेकर नहीं!
तो जैसा आपने पूछा, रेडीमेड
कोई धारणा काम नहीं करती, कभी नहीं काम करती। कोई बंधी बंधाई धारणा कभी काम
नहीं करती,
कर नहीं सकती है। क्योंकि वह आपको दूसरे के हाथ से मिलती
है। न आप चुनौती से गुजरते हैं, न आप खोज से गुजरते हैं, न
आप संघर्ष से गुजरते हैं, न हार-जीत से, न दुख से गुजरते हैं; न
चिंता से गुजरते हैं। आपको बिलकुल मुफ्त मिल जाती है। और उसके मिलने का मूल्य ही
तब था, जब आपने उसके लिए वह सारा श्रम, वह सारी पीड़ा, वह
सारी सफरिंग झेली होती, तभी उसमें अर्थ था, तभी उसका मूल्य था। वह
मुफ्त नहीं काम आती। हो सकता है, वही धारणा आप खोजें, लेकिन
रेडीमेड लेने का कोई उपाय नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति को
अपना जीवन का सत्य स्वयं ही खोजना पड़ता है। तो शिक्षा ऐसी हो जो प्रत्येक व्यक्ति
को जीवन का सत्य खोजने के लिए सिर्फ पुकार देती हो। कोई बंधी धारणाएं देकर उसे घर
न भेज देती हो कि तुम यह लेकर चले जाओ, तुम्हें जीवन मिल गया। अभी तक
ऐसा ही हो रहा है। हम सब बातें सिखा देते हैं। हम कोई कोना ऐसा नहीं छोड़ते, जो
अनसीखा छोड़ दें, जहां खुद व्यक्ति को सीखना पड़ता हो। निश्चित ही कुछ
बातें सिखानी ही पड़ेंगी--रास्ते पर बाएं चलना कि दाएं चलना, सिखाना
पड़ेगा। और केमिस्ट्री, फिजिक्स और गणित भी सिखाने पड़ेंगे, और
भूगोल और हिस्ट्री भी सिखानी पड़ेंगी। यह कोई व्यक्ति अपने लिए खोज नहीं लेगा। ये
सब सिखाई जाएं,
लेकिन जीवन नहीं सिखाया जाए। जीवन के बाबत धारणा ही न दी
जाए।
जीवन के बाबत सिर्फ
खोज की, अन्वेषण की जिज्ञासा दी जाए, इनक्वायरिंग माइंड पैदा किया
जाए। सब सिखा दो, जो व्यर्थ है, उसे सिखा देने में कोई हर्जा
नहीं। वह दूसरे से सीखना पड़ता है, वह हमेशा ही उधार होता है।
लेकिन जो जीवन का परम मूल्य है, जो प्रत्येक को साक्षात्कार स्वयं करना है, वह
मत सिखाओ, वह सिखाओ ही मत। उसके बाबत प्रश्न जगाओ, उसके बाबत चर्चा जगाओ, उसके
बाबत हवा पैदा करो, संदेह पैदा करो, खोज पैदा करो, बस
इतना ही करो। विश्वविद्यालय से एक लड़का दिमाग में एक खयाल लेकर आए कि जीवन को
खोजना है मुझे और ऐसे ही नहीं मर जाना है। नहीं तो व्यर्थ हो गया, मेरे
जीने का कोई अर्थ नहीं! वह सब सीख कर आए, जीवन अनसीखा रह जाए। वह, वह
सीखे, खोजे, खुद।
‘शिक्षाः साध्य और साधन’ विषय
पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-2
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