कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 11 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-17

शिक्षा में क्रांति-ओशो

प्रवचन-सत्रहवां
महत्वाकांक्षा रहित अतुलनीय प्रेम
प्रेम आत्मन
ए.ज आई हैव अंडरस्टुड योर...सेक्स दैट यू वांट दैट एवरी इंडिविजुअल शुड बी अवेअर आॅफ एण्ड शुड अंडरस्टैंड दि लाइफ एट लार्ज। बट टुडे दि सोसाइटी व्हिच वी हैव इ.ज वेरी कांप्लिकेटेड। अवर इनवायरनमेंट्स आर सो कांप्लिकेटेड दैट दे डु नाॅट अलाउ अस टु लिव फ्री लाइफ, टु लव दि पीपल आर टु लिव इन दि स्टेट व्हेअर वी शुड लिव वेरी क्लीन एण्ड स्मूथ लाइफ।

     समाज ऐसा है, इस सत्य को स्वीकार करके ही कुछ किया जा सकता है। समाज ऐसा है, लेकिन अगर किसी व्यक्ति को यह दिखाई पड़ जाए कि एक सरल, प्रेमपूर्ण, आनंदपूर्ण, स्वच्छ जीवन के अतिरिक्त कोई जीवन ही नहीं है, यदि एक व्यक्ति को यह दिखाई पड़ जाए कि प्रेमपूर्ण हुए बिना जीवन के आनंद से मैं वंचित ही रह जाऊंगा, अगर एक व्यक्ति को यह दिखाई पड़ जाए कि सरल हुए बिना सत्य को पाने, पहुंचने का कोई मार्ग ही नहीं है तो फिर इसकी फिकर वह छोड़ देगा कि समाज कैसा है! क्योंकि समाज उसे दे क्या सकता है, दे क्या रहा है?
एक बार उसे यह दिखाई पड़ जाए, कि किसी और दिशा में, जो समाज देता ही नहीं बल्कि बाधा बनता है! मेरे जीवन के आनंदों का द्वार है, तो वह व्यक्ति उसके सामने चलना शुरू कर देगा।
निश्चित ही समाज का जीवन, समाज की व्यवस्था बाधा डालेगी। लेकिन ये बाधाएं उस व्यक्ति के लिए बाधाएं नहीं होंगी, बल्कि चुनौतियां बन जाएंगी और इन बाधाओं को वह सीढ़ियां बनाने की कोशिश करेगा। ये रास्ते में डाले गए पत्थर उसे रोकेंगे नहीं, इन पत्थरों पर चढ़ कर वह और ऊंचाइयां पाना शुरू कर देगा। ये तो हमें बाधाएं तभी तक मालूम होती हैं, जब हमारे मन में ही समाज की इस व्यवस्था के ठीक होने का गहरा भाव पड़ा रहता है। और हमारे मन में ही कोई अन्य आयाम, कोई दूसरे डायमेंशन, में भी जीवन की खोज हो सकती है, इसका कोई किरण भी नहीं हो, तभी हमें ये सब बाधाएं बाधाएं मालूम पड़ती हैं। सच में ये बाधाएं नहीं हैं, बल्कि ये भी हम बाधाएं कह कर सिर्फ रुक जाना चाहते हैं। जाने का हमारे सामने कोई सवाल नहीं है तो इसलिए हम इन बाधाओं को बाधाएं मान कर रुक जाते हैं।
एक बार उस तरफ की थोड़ी सी झलक मिलनी शुरू हो जाए तो दुनिया में कोई किसी को रोकता नहीं है। बल्कि उलटी घटना घटनी शुरू होती है, आनंद की, सत्य की दिशा में गया व्यक्ति इतना सबल हो जाता है कि समाज उसे रोक ही नहीं पाता, बल्कि वही व्यक्ति बहुत से समाज के बहुत से अंगों को अपने साथ ले जाने का सामथ्र्य प्रकट करने लगता है। उसे तो कोई रोक ही नहीं पाता, बल्कि वह भी बहुत से रुके लोगों को अपने साथ ले जाने की धुन और प्यास और दौड़ पैदा कर देता है।
हम कमजोर हैं तभी तक, जब तक हम हैं ही नहीं, तब तक हम कमजोर हैं। यानी अगर ठीक से समझें तो समाज के समक्ष हमारी कमजोरी हमारे व्यक्तित्व का सोया हुआ होना है, वह एब्सेंस है, हमारी। हमारी अनुपस्थिति ही हमारी कमजोरी है, हम है ही नहीं! तब तक हम कमजोर हैं। जिस दिन हम होना शुरू हो जाते हैं, उस दिन समाज बिलकुल ही कमजोर है क्योंकि तब हमारे पास सत्य होता है और समाज के पास सिवाय सपने के कुछ भी नहीं। तब हमारे पास प्रेम होता है और समाज के पास प्रेम के नाम पर झूठी आसक्तियों के सिवाय कुछ भी नहीं। और तब हमारे पास प्रकाश होता है और समाज के पास सिवाय अंधकार के कुछ भी नहीं।
तो हमें समाज से हारने का कोई कारण ही नहीं है। समाज से हम हारते हैं, क्योंकि हम हैं ही नहीं। जिस दिन हम होना शुरू हो जाते हैं, समाज की हार सुनिश्चित है। और इतने व्यक्ति पैदा हो जाएं कि समाज जगह-जगह से टूट जाए। ऐसी शिक्षा पैदा हो जाए कि समाज को हम बहुत बुनियाद से उखाड़ना शुरू कर दें तो यह समाज जिसे हम बहुत मजबूत पाते हैं, यह समाज ऐसे बह जाएगा, यह ऐसे वाष्पीभूत हो जाएगा, एवोपरेट हो जाएगा जैसे सुबह सूरज निकलता है और ओस के कण सूरज की रोशनी में विदा हो जाते हैं, उड़ जाते हैं, उनका पता भी नहीं चलता, कहां चले गए वे! थे रात भर अंधेरे में, बहुत मजबूत थे, कोई मिटा भी नहीं सकता था, सोच भी नहीं सकते थे कि मिट जाएंगे। सुबह की रोशनी में विदा हो जाते हैं।
प्रेम को जन्म देने वाली शिक्षा तो बड़े पैमाने पर समाज के ढांचे को तोड़ सकती है। लेकिन एक व्यक्ति भी प्रेम की स्थिति में जाने वाला भी, समाज के ढांचे को झकझोर जाता है।

शुड आई मीन आचार्य जी, दैट दि नाॅन-एक्सेप्टेंस आॅफ दि चैलेंज इ.ज वन काइंड आॅफ एस्केपिज्म?

हां, चुनौतियों को स्वीकार न करना एक प्रकार का पलायन और एस्केप है। और जब तक हम चुनौतियों को स्वीकार नहीं करते, तब तक हमारा जन्म नहीं हो सकता। जिस दूसरे जन्म की मैं बात कर रहा हूं, वह जन्म तो तभी होगा जब हम समस्त चुनौतियां को स्वीकार कर लेते हैं। स्वीकार करते हैं, चुनौती को लड़ते हैं, सामना करते हैं, उसी सामना करने में हमारे भीतर आत्मा का जन्म होता है। एस्केपिस्ट के पास कभी आत्मा पैदा होने वाली नहीं है क्योंकि वह उन मौकों से ही भाग गया जहां आत्मा पैदा होती है।
जैसे एक बीज है, उसे माली जमीन में गाड़ता था। वह डर गया कि जमीन के अंधेरे में मैं नहीं जाता हूं, मैं तो ठीक था माली के घर में कोने में रखा हुआ। मैं जमीन में, अंधेरे में नहीं जाता। एक चुनौती मिलती थी अंधेरे में उतरने की, वह बीज ने इनकार कर दिया। उस बीज में अंकुर पैदा नहीं होगा। या समझ लें कि बीज डाल दिया गया जमीन में, अब बीज से अंकुर फूटने का सवाल है, लेकिन अंकुर डरता है, बीज के भीतर सुरक्षित है, बाहर निकलेगा, खतरा है। डरता है खतरे से, फिर भाग जाता है। तो फिर अंकुर पैदा नहीं होगा।
जिंदगी प्रतिपल चुनौती है और जितने हम जीवन के गहरे अनुभव में उतरना चाहेंगे उतनी बड़ी चुनौतियां खड़ी होंगी, और हर बड़ी चुनौती को हमें आनंद से सामना करना होगा। क्योंकि हम सामना करके उसके पार हो सकेंगे, उससे ऊपर उठ सकेंगे। सब तरफ का पलायनवाद मनुष्य में आत्मा को पैदा नहीं होने देता। इसलिए जो देश, जो समाज जितना एस्केपिस्ट है, उतना आत्महीन हो जाता है। और मजे की बात यह है कि एस्केपिस्ट भी आत्मा की बातें कर सकता है, यानी आत्मा के नाम और ओढ़ने में भी एस्केपिज्म हो सकता है। जैसे एक आदमी जिंदगी छोड़ कर भाग रहा है और वह कहता है कि जिंदगी तो मैं इसलिए छोड़ कर भागता हूं कि मुझे तो परमात्मा खोजना है। अब उसे पता ही नहीं कि जिंदगी की चुनौती और संघर्ष में ही परमात्मा का अनुभव होने वाला था। अब वह परमात्मा के नाम से एक नई एस्केप खोज रहा है सिर्फ, और जिंदगी छोड़ कर भाग जाएगा, परमात्मा कभी मिलने वाला नहीं है। क्योंकि परमात्मा अगर कहीं था, तो जिंदगी के सारे संघर्षों के मध्य था। और उन संघर्षों को जो पार करता वह शायद उस गहराई तक पहुंच जाता, उस ऊंचाई तक, जहां परमात्मा को जान लेता है।
तो कठिनाई आदमी के साथ यह है कि वह अपने पलायनों को भी ऐसे नाम दे सकता है जिनसे उसका कोई संबंध नहीं है। अपने पलायन को भी रैशनलाइज कर सकता है, उसको भी बुद्धियुक्त ठहरा सकता है। लेकिन पलायन चाहे बुद्धियुक्त ठहराया जाए, या चाहे न ठहराया जाए, जब भी हम जिंदगी के किसी सवाल से भागते हैं तब हम उस सवाल से ऊपर कभी नहीं उठ सकेंगे, और वह सवाल खड़ा ही रहेगा वहीं, जहां से हम कहीं भी भाग जाएं। और वह सवाल हमारा पीछा भी करेगा।
जब तक हम किसी समस्या से न जूझें, तब तक समाधान मिलता ही नहीं। समाधान है समस्या से जूझने में, संघर्ष में है। और बड़ी अदभुत बात है कि जितना कोई गहरे संघर्ष में उतरता
है उतनी गहरी शांति को उपलब्ध होता है। यानी शांति संघर्ष के विपरीत भाग जाने में नहीं है, शांति संघर्ष में परिपूर्णता से उतर जाने में है। समाधान समस्याओं से दूर कहीं किसी पहाड़ की गुफा में नहीं रखा है। समाधान समस्या के भीतर परिपूर्ण रूप से उतर जाने में है। जो भागेगा वह हार जाएगा। भागने से तो जीत संभव भी नहीं है। जो लड़ेगा, जूझेगा, वही जीत सकता है।
     जीवन के सारे प्रश्नों में, चाहे वे प्रेम के हों, चाहे ज्ञान के हों, चाहे जीवन की दैनंदिन समस्याओं के हों, भागना नहीं है। भागने वाला चुनौतियों को कहेगा कि बड़ी बाधाएं हैं, इन बाधाओं में मैं पड़ना नहीं चाहता। मत पड़ो, लेकिन तब तुम पैदा ही नहीं हो सकोगे। तो इन्हीं बाधाओं में से--ठीक से समझें, जैसे मां के पेट में से बच्चा पैदा होता है तो जो प्रसव की पीड़ा है, मां भी भोगती है उस पीड़ा को तो ही बच्चे को जन्म दे पाती है। और बच्चा भी एक बहुत बड़ी पीड़ा से गुजरता है क्योंकि कहां गर्भ का सुख, सुविधा, शांति, आनंद और कहां गर्भ के बाहर अज्ञात, अनजान जगत में फेंका जाना! मां भी गुजरती है पीड़ा से तो जन्म दे पाती है, और बच्चा भी गुजरता है मां से बड़ी पीड़ा से क्योंकि मां की पीड़ा तो बहुत अर्थों में शारीरिक है। बच्चे की पीड़ा बहुत आत्मिक है, बहुत गहरी है, क्योंकि बच्चा एक ऐसे असहाय, हेल्पलेस, ऐसी दुनिया में जा रहा है--कल तक उसे भोजन की चिंता न थी, श्वास तक लेने की उसे फिकर न थी--मां श्वास लेती थी, मां भोजन देती थी; मां खून बनाती थी--सब मां कर रही थी। वह बिलकुल परम आनंद में था। उसे कुछ भी करना नहीं होता था।
वह एक अनजान, अज्ञात जगत में फेंका जा रहा है जहां वह मां से अलग हो जाएगा। जहां धीरे-धीरे रोज मां से अलग होता चला जाएगा। जहां धीरे-धीरे सब चिंता उसी को करनी पड़ेगी। रोज-रोज चिंता बढ़ती चली जाएगी। अगर बच्चे को विकल्प हो, आॅल्टरनेटिव हो कि बच्चा सोच सके कि मैं जन्म लूं या न तो दुनिया में करोड़ में से एक बच्चा जन्म लेगा, बाकी बच्चे भीतर ही रह जाएंगे। वे कहेंगे, बहुत ही झंझट है, बहुत चुनौती है, बड़ा संघर्ष है, वहां नहीं जाना है। लेकिन, चूंकि यह जन्म अनिवार्य है, कोई बच्चा नहीं बच पाता।
लेकिन एक और दूसरे जन्म की, दूसरे जन्म की जिसकी मैं बात कर रहा हूं, वह अनिवार्य नहीं है। उससे हम बचना चाहें, बच सकते हैं। इसलिए बहुत कम लोग द्विज हो पाते हैं, ट्वाइस बाॅर्न हो पाते हैं। ट्वाइस बाॅर्न का, द्विज का मेरे लिए यही मतलब है, दूसरा जन्म। जनेऊ बांध लेने से नहीं कोई द्विज होता, न कोई ब्राह्मण के घर में पैदा होने से द्विज होता है। द्विज का मतलब ही यह है कि जिसने एक और जन्म लिया। यह दूसरा जन्म हमारे स्वीकार पर निर्भर है, हम चाहें तो इससे बच सकते हैं। अगर बच गए तो हम शरीर के तल पर ही रह जाएंगे, आत्मा के तल पर कभी नहीं पहुंच पाएंगे। शरीर के तल पर हमें जन्म मिल गया, वह मां-बाप से मिल गया है। आत्मा के तल पर हमारा चुनाव तय करेगा कि हम जन्म लें या न लें। और वहां जितनी कठिनाइयां हैं, जितनी बाधाएं हैं उन सबके सामने हमें सोचना पड़ेगा कि इनसे भाग जाएं। भाग जाएं तो जन्म से बच जाएंगे। लेकिन तब हम जीवन से ही बच जाएंगे। और उससे जूझते हैं, लड़ते हैं तो जन्म हो सकेगा, तो जीवन हो सकेगा।
पलायनवाद आत्महत्या है, वह सुसाइडल है। और जितना हम पलायन करना चाहते हैं, उतनी बाधाओं को बड़ा करके करते हैं। जो आदमी लड़ना चाहता है, उसके सामने बाधाएं एकदम छोटी हो जाती हैं। उसके लड़ने का निर्णय ही बाधाओं को एकदम छोटा कर देता है। जो आदमी भागना चाहता है, उसके सामने बाधाएं एकदम बड़ी हो जाती हैं। असल में भागने के लिए बाधाओं को बड़ा वह खुद कर लेता है और लड़ने के लिए बाधाओं को छोटा कर लेता है।
मेरी दृष्टि में बाधा की...बड़ा या छोटा होना इस पर निर्भर करता है कि आपके लड़ने का संकल्प बड़ा या छोटा, कैसा है! संकल्प छोटा होगा, बाधा बड़ी होगी; संकल्प बड़ा होगा, बाधा छोटी हो जाएगी। संकल्प पूर्ण होगा, बाधा विलीन हो जाएगी। बाधा बचेगी भी नहीं। टोटल विल अगर हो तो बाधा है ही नहीं--यानी अगर ठीक से समझें तो बाधा जो है, वह विल की कमी है, संकल्प की कमी है। और जहां भी हमें बाधा दिखाई पड़ती है वहां हमारा संकल्प कमजोर है। और संकल्प इसलिए कमजोर है कि हम इस सत्य को ही नहीं समझ सके कि बाधा को लड़ने से ही हमारे जीवन की गति है और विकास है। यह एक बार खयाल में आ जाए कि सब लड़ाई अवसर है विकास का, सब तरह की लड़ाई अवसर है, आॅपरच्युनिटी है, तो फिर हमें भागने का सवाल नहीं रह जाएगा।

शुड आई मीन आचार्य जी, दैट एस्केपिस्ट कैन नाॅट लव एण्ड कैन नाॅट बी ए नाॅन-वायलेंट?

हां, पलायनवादी न तो प्रेम कर सकता है, न अहिंसक हो सकता है। लेकिन पलायनवादी प्रेम करता हुआ दिखाई पड़ सकता है और अहिंसक, अहिंसक पोशाक भी पहन सकता है! और अक्सर वह यही करेगा। पलायनवादी इसलिए प्रेम नहीं कर सकता कि वह पैदा ही नहीं हो पाया, वह है ही नहीं। प्रेम करेगा कौन? जैसा कि मैंने कहा, कि जिसे हम प्रेम करते हैं उस पर निर्भर नहीं है, जो प्रेम करता है, उस पर निर्भर है। तो प्रेम तो वही कर सकता है जिसके व्यक्तित्व का आविर्भाव हो गया है, भीतर इंडिविजुअलिटी आ गई, जिसके भीतर व्यक्ति पैदा हो गया। और व्यक्ति पैदा होता है संघर्ष और चुनौती में रोज लड़ने से। जैसे एक पत्थर पर एक मूर्तिकार छेनी से काटता है। पत्थर इनकार कर दे कटने-पिटने से, फिर मूर्ति पैदा नहीं होती, फिर पत्थर ही रह जाता है अनगढ़।
ठीक जीवन के सारे संघर्ष व्यक्ति के भीतर मूर्ति को निखारते हैं। हम उसको इनकार कर देते हैं तो हम पत्थर ही रह जाते हैं। तो जिस व्यक्ति के भीतर अभी व्यक्तित्व का, आत्मा का, बीइंग का आविर्भाव नहीं हुआ तो प्रेम करेगा कौन? और जैसा मैंने कहा कि जब आनंद जगता है भीतर तो उस आनंद की ज्योति के जलने से जो प्रकाश फैलता है वही प्रेम है। तो इस व्यक्ति के भीतर कभी आनंद पैदा नहीं हुआ तो प्रेम तो असंभव है। लेकिन यह प्रेम करता हुआ दिखाई पड़ेगा, यह प्रेम का ढोंग करेगा। लेकिन इसका प्रेम का ढोंग भी पलायन का हिस्सा है क्योंकि यह प्रेम की बातें करके और प्रेम दिखा कर संघर्ष को कम करेगा। सब तरफ से यह किसी से भी लड़ना नहीं चाहता है। यह किसी से भी जूझना नहीं चाहता है। तो जरूरी है कि वह प्रेम की खोल पहन ले। वह प्रेम इसका कवच होगा, क्योंकि उस प्रेम के द्वारा सब तरह की लड़ाई, झंझट, झगड़े, उपद्रव से बचेगा। यह सबको कहेगा, सब भाई हैं, सब मित्र हैं, कोई शत्रु नहीं है। इसकी यह जो प्रेम की बातें होगी, यह इसकी सिक्योरिटी की व्यवस्था है। यह इस तरह अपने चारों तरफ एक कवच ओढ़ लेगा और सब तरफ प्रेम दिखाता हुआ मालूम पड़ेगा, ताकि किसी से अप्रेम की संभावना न रह जाए। कोई आदमी शत्रु न बन जाए, कोई दुश्मन न बन जाए।
तो यह आदमी बहुत प्रेम की बातें करेगा, यह बहुत गले मिलेगा। लेकिन इस सबके पीछे इसका भय काम करेगा कि मैं प्रेम के द्वारा ही सुरक्षित हो सकता हूं। इसके लिए प्रेम भी सिक्योरिटी मेजर होगा। यह अहिंसा की भी बातें करेगा। इसलिए नहीं कि यह अहिंसक हो गया बल्कि इसलिए कि अहिंसा की बातें और व्यवहार करके ही यह दूसरे से जो हिंसा आ सकती है, उससे बच सकता है। अगर यह खुद हिंसा करता तो फिर हिंसा को निमंत्रण देगा और हिंसा से यह भयभीत है।
हिंसा से भयभीत आदमी भी अहिंसा ओढ़ लेता है। कायर अक्सर अहिंसा ओढ़ लेता है। सच तो यह है कि अब तक दुनिया में बहुत ही कम ऐसे लोग हुए हैं जो अहिंसक हैं। अधिकतर तो कायरों ने अहिंसा ओढ़ ली है। और ओढ़ ली है सुरक्षा की कवच की तरह क्योंकि जब मैं अहिंसा ओढ़ लेता हूं तब मैं आपके भीतर भी हिंसा को रोकने का उपाय कर लेता हूं। मैं हिंसा करूंगा तो हिंसा लौटेगी। मैं हिंसा नहीं करूंगा तो हिंसा नहीं आएगी। तो हिंसा नहीं करनी क्योंकि हिंसा से मैं भयभीत हूं कि कहीं मैं न मिट जाऊं। तो ऐसा आदमी अहिंसा भी ओढ़ेगा हिंसा के बचाव के लिए, और ऐसा आदमी प्रेम का वस्त्र भी चारों तरफ खड़ा करेगा ताकि किसी का अप्रेम न जग जाए। लेकिन ऐसा आदमी न तो भीतर प्रेम से भरा होगा और न अहिंसा उसके भीतर होगी।
मेरे लिए तो प्रेम और अहिंसा एक ही चीज के दो नाम हैं। जब कोई व्यक्ति प्रेम से भरता है, वह भरता ही तब है जब वह जीवन की सारी चुनौतियों को, जीवन की सारी समस्याओं को सैनिक की भांति लड़ता है। मेरे मन में साधु का मतलब ही यह है कि जो जीवन की गहरी समस्याओं में सैनिक की भांति लड़े, वह साधु है और जो भाग जाए वह न सैनिक है, न साधु है। वह सिर्फ भागा हुआ एक कमजोर आदमी है और इस भागने से और कमजोर हो जाएगा। और धीरे-धीरे एक इम्पोटेंस, एक नपुंसकता उसे घेर लेगी। उस इम्पोटेंस में वह अहिंसा की और प्रेम की बातें भी करेगा क्योंकि अब यही उसकी सुरक्षा बन सकती है। लेकिन यह प्रेम बिलकुल मरा हुआ होगा, यह अहिंसा बिलकुल बेजान होगी।
जिस व्यक्ति की मैं बात कर रहा हूं, जो कि जीवन के सारे संघर्षों में से गुजर कर व्यक्तित्व को जन्म दे देगा और उस जगह पहुंच जाएगा, जहां आनंद का फूल खिलता है; उसके जीवन में एक प्रेम होगा; लेकिन वह बहुत लिविंग लव होगा, बहुत जीवंत होगा। उस प्रेम में किरणें होंगी, और वह प्रेम किसी तरह का कवच नहीं होगा। उस प्रेम का आपसे कोई संबंध ही नहीं होगा कि आप क्या करते हो, यह सवाल नहीं है। वह प्रेम करेगा। आप छुरा भी भोंक दो तो भी उसका प्रेम बहता रहेगा। वह जीसस की तरह सूली पर भी प्रार्थना करेगा कि इन सबको माफ कर देना क्योंकि यह नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। वह मरने के क्षण में भी उसके प्रेम में कमी होने वाली नहीं है। प्रेम उसका कवच नहीं था। अगर प्रेम कवच होता, तो लोग मारने आते तो खतम हो जाता क्योंकि प्रेम उसने इसलिए ओढ़ा हुआ था कि कोई मार न सके।
तो जिसके जीवन में प्रेम पैदा हुआ है वह तो मृत्यु के क्षण में भी प्रेमपूर्ण होगा। वह प्रेम बांटता ही रहेगा, आखिरी श्वास तक। और हिंसक होने का सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि हिंसक होने का अर्थ है कि जो दूसरे को दुख देने में सुख पाए। और अहिंसक होने का अर्थ है, जो दूसरे के दुख पाने में कोई सुख न पाए, बल्कि दुख पाए, और दूसरे के सुख पाने में सुख पाए।
तो जो व्यक्ति प्रेम को उपलब्ध हुआ है, वह जितना प्रेम बांटेगा उतना सुखी होगा। उतना दूसरे को सुखी पाएगा। उसके द्वारा किसी के लिए दुख की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि दूसरे को दुख देने में वह खुद ही दुखी हो जाने वाला है। प्रेमपूर्ण चित्त का अर्थ ही यही है कि वहां दूसरे का दुख दुखी करता है, दूसरे का सुख सुखी करता है। और घृणा से भरे चित्त की स्थिति बिलकुल उलटी है, वहां दूसरे का दुख सुखी करता है और दूसरे का सुख दुखी करता है। वहां जब कोई आदमी सुखी दिखाई पड़ता है तो ईष्र्या, और बेचैनी और कष्ट पकड़ लेता है। जब कोई आदमी दुखी दिखाई पड़ता है तो ऊपर से वह बड़ी सहानुभूति की बातें करता है, लेकिन भीतर रस पाता है, बड़े सुख का।
एक आदमी के पास बड़ा मकान हो तो आस-पास के लोग दुखी हो जाते हैं। हालांकि कोई कहने नहीं जाता। वह आदमी मिलेगा तो बड़ा सुख जाहिर करेंगे कि बहुत अच्छा मकान है आपके पास, लेकिन उनकी आंखों में उस वक्त भी दुख झांकेगा। और उस बड़े आदमी के मकान में आग लग जाए तो पास-पड़ोस के सारे लोग सुखी होंगे, लेकिन आकर उससे कहेंगे कि बड़ा दुख हुआ। लेकिन जब वे दुख जाहिर कर रहे होंगे, तब भी उनकी आंख की चमक और झलक बताएगी कि वे बड़े गहरे में सुखी हो रहे हैं।
घृणा से भरा हुआ चित्त जगत में दुख बांटता है, सुख मिटाता है। क्योंकि वह खुद ही सुखी नहीं है तो वह किसी को कैसे सुखी देख सकता है? वह खुद ही दुखी है। तो दुख के अलावा वह बांट भी क्या सकता है! प्रेम से भरा हुआ चित्त इतना सुख में पहुंच जाता है, इतने आनंद में कि अब ईष्र्या का तो कोई सवाल ही नहीं। वह उस जगह खड़ा है, जहां से ईष्र्या असंभव है क्योंकि इतना मिल गया है, इतना अनंत कि अब किससे ईष्र्या करनी है? वहां से करुणा ही संभव है, ईष्र्या नहीं। और हमारे मन में सिवाय ईष्र्या के कुछ नहीं होता; करुणा हो ही नहीं सकती। और वह आदमी कुछ भी करेगा, वह किसी का सुख बढ़ जाए तो करेगा, वह किसी को दुख नहीं देना चाहेगा, इसलिए अहिंसक होगा। यह अहिंसा एक अदभुत तरह की वीरता होगी क्योंकि यहां कोई कितना ही उसके साथ हिंसा करे तो भी वह अहिंसक होगा। यहां किसी की हिंसा उसके भीतर हिंसा पैदा नहीं करती है।
यह व्यक्ति बात ही और है, लेकिन तथाकथित अहिंसक और प्रेम की बातें करने वाले लोग ये सिर्फ सामाजिक सुरक्षा का उपाय खोज रहे हैं। गाली मत दो, ताकि तुम्हें कोई गाली न दे। इसलिए गाली नहीं दे रहे हैं। किसी को मारो मत ताकि कोई तुम्हें मारे न, इसलिए मार भी नहीं रहे हैं। और किसी को दुख मत पहुंचाओ, नहीं तो लोग तुम्हें दुख पहुंचाएंगे, इसलिए दुख भी नहीं पहुंचा रहे हैं। लेकिन इससे ज्यादा गहरा कोई मामला नहीं है। इसलिए इनकी सारी अहिंसा एक एकिं्टग है, जिसके भीतर हिंसक बैठा हुआ है। और इसका प्रेम एक एकिं्टग है, जिसके भीतर घृणा करने वाला बहुत मजबूत आदमी बैठा है। पर धोखा चल जाता है, धोखा चल जाता है। बल्कि कई बार तो यह होगा कि जो सच में प्रेम से भरा हुआ है, उस आदमी को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है।

डु यू फील आचार्य जी, दैट प्रेजेंट इंस्टीट््यूशंस आॅर युनिवर्सिटी कैन सोल्व दि परप.ज आॅफ अवर एजुकेशन आॅफ लव एण्ड नाॅन-वायलेंस एण्ड ब्यूटी?

कठिन है। जैसी आज व्यवस्था है--चाहे विश्वविद्यालय की, चाहे विद्यालयों की, उस पूरे ढांचे को बदले बिना कठिन है। क्योंकि वह पूरा ढांचा भी चालाकी, घृणा, महत्वाकांक्षा, हिंसा, पदलिप्सा, हीनता, श्रेष्ठता, उसी सब चक्कर का हिस्सा है। हमारा विश्वविद्यालय हमारे समाज से अलग कोई चीज नहीं है। हमारा विश्वविद्यालय हमारे समाज का ही एक छोटा ढांचा है। यानी हमारा विश्वविद्यालय हमारे समाज के ढांचे को ही बार-बार पैदा करने की फैक्टरी है, और कुछ भी नहीं है। विश्वविद्यालय तो वह है ही नहीं, वह तो फैक्टरी है जो कि पुराना जो समाज का ढांचा था, नये बच्चों में कैसे उसको ट्रांसप्लांट कर दे, इसका काम कर रहा है। वहां भी शिक्षक उसी दौड़ में है, जिसमें राजनीतिज्ञ दौड़ में हैं। वहां भी वाइस चांसलर उसी हीनता से पीड़ित है, जिस हीनता से कोई राजनीतिज्ञ और मिनिस्टर पीड़ित हैं। वही सब दौड़ वहां जारी है। और यही सारे दौड़ और पागलपन में लगे हुए लोग नये बच्चों को भी उसी पागलपन में दीक्षित कर रहे हैं।
हमारे विश्वविद्यालय पागलखानों की स्थिति में हैं। जिस मैडनेस से समाज पीड़ित है, वह उसको फिर अपने बच्चों में थोपने का इंतजाम किया जा रहा है। पूरा ढांचा बदलना पड़े। विद्यालय और ही ढांचे पर होना चाहिए जो समाज से व्यक्ति को बचाते हों, समाज को थोपते न हों। यानी पुराने समाज में कहां-कहां रोग था, वहां से हर नये बच्चे को बचाए जाने की जरूरत है। हर बाप से हर बेटे को बचाए जाने की जरूरत है। और इतना बोध चाहिए कि पुराना कोई भी रोग इस बच्चे में न चला जाए। अब बाप हिंदू और मुसलमान की तरह लड़ रहे थे, बेटे फिर हिंदू मुसलमान की तरह दीक्षित किए जा रहे हैं। युनिवर्सिटी भी पूछ रही है कि तुम हिंदू हो या मुसलमान? अदालत भी पूछ रही है कि तुम हिंदू हो या मुसलमान? फिर वही रोग दीक्षित किया जा रहा है जिससे बाप पीड़ित थे।
विश्वविद्यालय को पूछना बंद कर देना चाहिए कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान? विश्वविद्यालय के कैंपस कोई हिंदू नहीं, कोई मुसलमान नहीं हैं। नहीं तो विश्वविद्यालय का मतलब क्या है? जहां विश्व एक नहीं है तो उसको विश्वविद्यालय कहना क्यों? वही बीमारी जो समाज में है कि कौन लड़का है, कौन लड़की है, कौन स्त्री है, कौन पुरुष है, और इसके साथ सारा मूल्यांकन है, वही विश्वविद्यालय में भी थोपा जा रहा है। विश्वविद्यालय को फिकर छोड़ देनी चाहिए थी कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है? शिक्षा से क्या संबंध है किसी के स्त्री-पुरुष होने का? हमारे लिए विद्यार्थी हैं। कौन स्त्री, कौन पुरुष है, यह उनका अपना मामला है। यह होगा वह जो शादी-विवाह करेंगे, विचार करेंगे, सोचेंगे, घर बसाएंगे। विश्वविद्यालय के कैंम्पस में स्त्री-पुरुष से क्या लेना-देना है? लेकिन वहां भी स्त्री-पुरुष खड़े हैं, फासले पर खड़े हैं। वहां भी वही रोग फिर दीक्षित किया जा रहा है, जो कि सारे समाज को पीड़ित किए हुए है।
सारा का सारा ढांचा वही है। वही महत्वाकांक्षा वहां सिखाई जा रही है--नंबर एक आओ, गोल्ड मेडल लो। और बड़े जलसे हो रहे हैं जो कि बिलकुल बचकाने मालूम पड़ते हैं। वाइस चांसलर और चांसलर सर्कस के बफूनों की तरह कपड़े पहन कर और मंचों पर खड़े हैं और बेवकूफियों में, कि जिन पर हंसा जाना चाहिए विश्वविद्यालय में कि यह क्या पागलपन है? मगर यह बड़ी गंभीरता से ये कृत्य किए जा रहे हैं। तो जो रिचुअल, जो क्रियाकांड, जो बेवकूफियां समाज को पकड़े हुए हैं, वहां खत्म नहीं होतीं। उससे भी ज्यादा वहां पकड़े हुए हैं। वहां एक वाइस चांसलर को इसमें कुछ हैरानी नहीं मालूम पड़ती कि वे सर्कस के जोकर की तरह कपड़े पहन कर और टोपी लगा कर खड़ा हुआ है और बड़ी गंभीरता से! और बड़ी गंभीरता से ज्ञान की पदवियां बांट रहा है!
अगर कभी अच्छी दुनिया हुई तो हम ऐसे आदमियों का इलाज करेंगे, इनका दिमाग खराब है कि ये ज्ञान की पदवियां कैसे बांट रहे हैं? ये तो उस हालत में हैं, इन्हें किसी सर्कस में भर्ती होना चाहिए। लेकिन बहुत गंभीरता से वह सब चल रहा है। समाज की जो बेवकूफियां अत्यंत गंभीरता से बच्चों में आरोपित की जा रही हैं, मेडल वहां भी लगाए हुए हैं, कपड़े वहां भी पहने हुए हैं। और वह सब खेल, जो समाज में कल पूरा किया जाएगा, उसका रिहर्सल वहां है।

वाॅट मेजर्स शुड वी टेक आचार्य जी, दैट वी शुड स्टे अवे विद दि सोसाइटी फ्राॅम दि सोसाइटी एक्टीविटी.ज?

जैसा मैंने कहा, ये विश्वविद्यालय, ये शिक्षा का तंत्र, ये समाज की सारी नासमझियां और समाज के सारे अज्ञान को नये बच्चों में पुनः आरोपित करने का प्रयास है। बच्चे फिर इसी तरह का समाज बना सकें , इसी तरह का समाज रिपीट कर सकें, इसकी चेष्टा है। निश्चित ही इस चेष्टा को तोड़ना बड़ा कठिन मामला है। व्यक्तियों से ही तोड़ी जा सकती है।
तो अभी तो एक-एक व्यक्ति तक जो भी लोग सोच सकते हैं, विचार सकते हैं, जिनके सामने सवाल खड़े हो गए हैं। उन तक बस खबर ले जाने की बात है कि उनको यह सारा खयाल में आ सके। फिर तब छोटे-छोटे स्कूल भी हो सकते हैं, जहां थोड़े दो-चार मित्र बैठ कर प्रयोग करते हों। बहुत छोटे तल पर यह प्रयोग हो, फिर धीरे-धीरे वे बड़े भी प्रयोग हो सकते हैं। और कम से कम इतना तो तय है कि जो भी व्यक्ति जहां है, अगर उसे यह समझ आ जाए तो वह जो भी कर रहा है, उसमें तो इसका प्रयोग कर ही सकता है। और हम सब संगठक हैं इस समाज के। यह समाज अगर बुरा है, तो मैं भी जिम्मेवार हूं। मैं चाहे कुछ भी करूं, इस समाज के बुरे होने में मेरी जिम्मेदारी कायम है। अगर एक आदमी चोरी कर रहा है, कहीं भी दुनिया के कोने में तो भी उस एक्ट में, उस कर्म में मैं भी भागीदार हूं। क्योंकि जिस दुनिया को हम बना रहे हैं उसमें चोरी घटित हो रही है।
तो अगर हम इसकी सारी बुराइयों में जिम्मेवार हैं, तो हम कुछ प्रयोग तो कर ही सकते हैं व्यक्तिगत हैसियत से भी; क्योंकि मैं पिता भी हूं, पति भी हो सकता हूं, किसी का भाई हूं, किसी की बहिन हूं, किसी का मित्र हूं, इन सारे संबंधों में मुझे जो भी दृष्टि दिखाई पड़ती हो उसका मुझे प्रयोग शुरू करना चाहिए--प्रेम का, गैर-महत्वाकांक्षा का, किसी को साधन न बनाऊं इसका, किसी को हीन और श्रेष्ठ न समझूं इसका, समानता का, स्वतंत्रता का। सबको मुक्त करूं। मेरे निकट जो आए वह मुक्ति अनुभव करे, बंध न जाए, बंधन अनुभव न करे। मेरे पास जो आए, उससे और मेरे बीच जो संबंध हो वह किसी भी तल पर घृणा के, ईष्र्या के, दुख के न हों। यह तो एक-एक व्यक्ति प्रयोग कर सकता है।
सवाल तो बहुत बड़ा है, क्योंकि बड़ी दुनिया है और कोई दो-तीन लाख वर्ष का पीछे इतिहास है जिसने आदमी को ऐसा बनाया है, जैसा वह आज है। लेकिन एक बड़ी बात सहारे की है कि इस तीन लाख वर्ष का अनुभव सुखद नहीं है। इसलिए बेचैनी सब तरफ शुरू हो गई है। यह ढांचा संदिग्ध हो गया है और इसलिए अब इसको अगर कोई धक्का देने वाले थोड़े लोग हिम्मत करेंगे तो यह ढांचा चला जाएगा, यह गिर जाएगा। और एक बार यह ढांचा चला जाए तो नये ढांचे को बनाने में, नई व्यवस्था लाने में कठिनाई नहीं होगी।
पर जितना हमसे बन सके, जो जहां है, इस बात को जानते हुए कि अनंत समस्या है यह, फिर भी जो मैं कर सकूं, वह मुझे करना चाहिए। सिर्फ समस्या को बड़ा मान कर कहीं ऐसा न हो कि वह भी मेरा पलायन बन जाए। समस्या बहुत बड़ी है, इसलिए क्या हो सकता है, इसलिए क्या कर सकते हैं, इसलिए बात छोड़ो। समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि कुछ भी नहीं हो सकता। बहुत कुछ हो सकता है। थोड़े पैमाने पर शुरू होगा, थोड़े से लोग हिम्मत करेंगे। लेकिन अगर उनकी हिम्मत सफल होती है और उनके प्रयोग अर्थ लाते हैं और दिखता है कि नये तरह के मनुष्य पैदा होने शुरू हो गए हैं तो आज नहीं कल, पूरी मनुष्यता उस मार्ग पर जाने लगेगी, जहां थोड़े से लोग गए, आनंद पाया और जीवन को एक नये ढंग से जीया।
सारी व्यवस्था में प्रयोग करने की जरूरत है--परिवार में, शिक्षा में, आर्थिक संबंधों में, मित्रता में, सब में प्रयोग करने की जरूरत है। और वे सब में प्रयोग अपने आप हो जाते हैं। एक बार दृष्टि हो तो यह सवाल विस्तार का नहीं रह जाता। फिर एक दफा दृष्टि हो, एक दर्शन हो, एक बात दिखाई पड़ जाए तो हमारे जीवन की सब चीजों में काम करना शुरू कर देती है--जाने, अनजाने। उसका कोई पता भी नहीं रह जाता कि दृष्टि कैसी हो! वही फिकर करनी चाहिए।

दैट मींस आचार्य जी, यू सजेस्ट दि डायरेक्ट कम्युनिकेशंस एण्ड दि परसेप्शंस?

ठीक है, यही कह रहा हूं कि हमें प्रत्येक को अपने जीवन का एक प्रत्यक्ष बोध हो। और जिनको यह बोध हो वह भी व्यक्तिगत रूप से व्यक्तियों को सामने लेकर व्यक्तिगत कम्युनिकेशन, दो व्यक्ति एक दूसरे के सामने खड़े होकर कैसे अपनी दृष्टि को कम्युनिकेट कर सकें, यह भी हलका मामला नहीं है बहुत; यह मामला इतना जटिल है कि व्यक्ति को ही दिखाई पड़ जाए तो बहुत है। भीड़ को दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल बात है। भीड़ सोचती भी नहीं है।
तो एकदम डायरेक्ट कम्युनिकेशन की बात है और डायरेक्ट परसेप्शंस की। खुद सीधा प्रत्यक्ष हों खुद को सीधा दिखाई पड़ने लगे। और जिसे दिखाई पड़े वह अपने निकट जहां भी किसी को दिखा सके, इस बात को दिखाने की कोशिश करे--अपने व्यक्तित्व से, अपने व्यवहार से, अपनी वाणी से, विचार से, अपने जीवन से। आग फैल सकती है जैसे एक दीये से दूसरा दीया जल सकता है--ऐसे आग फैल सकती है। करोड़ों दीये जल सकते हैं। लेकिन यह होगा कम्युनिकेशन, डायरेक्ट। यह व्यक्ति और व्यक्ति के बीच ही संवादित करना होता है। क्योंकि दो व्यक्ति ही अत्यंत सहानुभूति में एक दूसरे के समक्ष खड़े हो सकते हैं।
कठिनाई मनुष्य के अतीत में है, क्योंकि सारा अतीत गलत परंपराओं से भरा हुआ है। भविष्य में कठिनाई नहीं है। भविष्य अभी मुक्त है। और अगर अतीत की कठिनाइयों का दिग्दर्शन भी लोगों को करा सकें और उनको दिखा सकें और जगा सकें। एक अवेकनिंग की जरूरत है कि हम जगा सकें लोगों को कि यह हुआ है इससे, और यही होता रहेगा आगे भी, अगर यही जारी रहता है तो। सारे कारण बताए जा सकें कि समाज कैसे सड़ रहा है, तो न मालूम कितने लोग होंगे जो कि जाग सकते हैं। और जिनको दिखाई पड़ जाए एक बार कि यह आग है तो फिर उसमें हाथ डालने को वे राजी नहीं होंगे और न वे अपने बच्चों को उसमें हाथ डलवाने को राजी होंगे।
अभी तक कठिनाई क्या थी? कि ऐसे जगाने वाले लोग नहीं के बराबर थे। अक्सर तो यह हुआ है कि सारे शिक्षकों ने, धर्म-गुरुओं ने अतीत का ही गुणगान किया निरंतर, और जो अतीत था उसको ही वे श्रेष्ठ सिद्ध किए चले गए। अगर उन्होंने वर्तमान की निंदा भी की तो भविष्य की प्रशंसा के लिए नहीं, अतीत की प्रशंसा के लिए। और अतीत जैसा नहीं हो रहा है, इसलिए सब गड़बड़ हो रहा है। तो अतीत को हम वापस ले आएं तो सब ठीक हो जाएगा।
अब मेरा कहना यह है कि गड़बड़ सब हो रहा है, वह अतीत के कारण ही हो रहा है। इसलिए अतीत को तो लाना ही नहीं है। अतीत न आ पाए, इसकी चिंता करनी है। और एक नया भविष्य कैसे आ जाए उसका विचार करना है। अतीत से मुक्ति--इसके लिए लोगों को जगाना है। अब तक लोगों को सिखाने वाले लोग अतीत को स्वर्ण-युग कहते थे, द गोल्डन ए.ज थी, वह जा चुकी है। तब सब अच्छा था। हम उसको भूल गए हैं व्यवस्था को, इसलिए सब गड़बड़ हो रही है। जब कि सचाई यह है कि उस व्यवस्था के कारण ही सब गड़बड़ हो रही है।
यह इसके प्रति अगर हम लोगों को जगा सकें, रूढ़ियों, परंपराओं, अतीत का जो ओल्ड माइंड है, ट्रेडीशनल माइंड है, उसके प्रति जगा सकें कि उसमें रोग के बीज हैं, इसकी आग फैला सकें--निश्चित ही ये तो व्यक्ति-व्यक्ति को फैलानी पड़े और जिसकी जितनी सीमा हो, जितनी सामथ्र्य हो, वह फैलाए, तो कठिन नहीं है कि पचास वर्ष के भीतर सारी दुनिया में एक बोध जग जाए, जो कभी भी नहीं था। और आने वाली पीढ़ी तैयार है। आने वाली पीढ़ी पुरानी से ऊब गई है, बुरी तरह ऊब गई है।
सारी दुनिया में लड़कों का जो विद्रोह है, वह विद्रोह छोटा नहीं है, और बहुत ही नवीन घटना है मनुष्य के इतिहास में। लड़कों ने कभी कोई विद्रोह नहीं किया था। लड़के पहली दफा एक पीढ़ी की तरह विद्रोह कर रहे हैं। यह विद्रोह बहुत ही जोर से फैल रहा है, क्योंकि लड़कों को दिखाई पड़ रहा है कि तुम्हारी सारी शिक्षा बेमानी है, तुम्हारी सब पद-प्रतिष्ठा दो कौड़ी की है, तुम्हारा सारा ढांचा जीवन का नहीं है, मरने का ढांचा है। यह दिखाई पड़ रहा है। बच्चे, छोटे बच्चे आज शिक्षित मुल्कों में, सुसंस्कृत मुल्कों में मां बाप से पूछ रहे हैं कि हम क्यों पढ़ें? क्योंकि पढ़ कर तुम्हें क्या मिल गया है? आज हिप्पी हैं, बीटल हैं, बीटनिक हैं, अपने मां-बाप से पूछ रहे हैं कि हम क्यों नौकरी करें? हम क्यों किसी पद पर जाएं? पद पर पहुंचने से तुम्हें क्या मिल गया है? ये सवाल बच्चों ने कभी पूछे ही नहीं थे।
तो ऐसा लगता है कि जगत की मनुष्य-चेतना उस जगह पहुंच रही है, जहां क्रांति संभव हो सकती है। बायलिंग प्वाइंट करीब आ रहा है। तो इसलिए बहुत तेजी से, जिन लोगों को भी खयाल है, उनको लग जाना चाहिए जगाने में। हो सकता है, आने वाले पचास वर्षों में मनुष्य एक छलांग लगाए। यह छलांग उस छलांग से बड़ी होगी जो बंदरों ने जमीन पर आकर आदमी होने में लगाई थी। ये दो पैर से खड़े हो गए थे। चार पैर वाले बंदर, कुछ बंदर खड़े हुए होंगे, शेष बंदर तो बंदर रह गए। वह जितनी बड़ी क्रांतिकारी घटना थी कि मनुष्य का सारा इतिहास फिर उससे आगे बढ़ा। उससे भी बड़ी क्रांतिकारी घटना आने वाले पचास वर्षों में घट सकती है। यह छलांग अब चेतना की होगी; रूढ़ि से, पुराने से, अतीत से मुक्ति की होगी और भविष्य के लिए द्वार खोलेगी।
तो एक बहुत ही मोमेंट्स, एक बहुत ही मूल्यवान और बहुत क्रांतिकारी क्षण मनुष्य की चेतना के करीब है। अगर उसका ध्यान हो और व्यक्तिगत रूप से भी चेष्टा की जाए तो कुछ हो सकता है, जो कभी भी नहीं हुआ था, वह हो सकता है।

बट आचार्य जी, ए.ज आई अंडरस्टैंड दैट कम्युनिकेशन मीन्स डायरेक्ट कम्युनिकेशन, ए.ज आई मीन, इ.ज वेरी डिफिकल्ट प्राॅब्लम, बिका.ज ह्यूमन बीइंग हैज बीन कंडीशंड ए.ज यू सैड, सिन्स मिलियंस आॅफ इयर्स। दैट इ.ज, दि मैन कैरी.ज आॅल दोज इंप्रेशंस एण्ड वाॅट ही विल बी कम्युनिकेटिंग आलसो वुड बी द इंपिं्रटस आॅफ दि पास्ट। हाउ शुड वी सी अवर सिन्स सो दैट वी कैन हैव दि डायरेक्ट कम्युनिकेशंस?

कठिनाई तो है ही। मनुष्य संस्कारित है, उसकी कंडीशनिंग है--भाषा, धर्म, दर्शन, नीति। असल में कोई आदमी सोचता ही नहीं। जो उसे फीड किया गया है, जो उसके मन में डाल दिया गया है, उसको ही दोहराए चला जाता है। और जब कोई नई बात भी उससे कही जाती है तो तत्काल वह अपनी पुरानी भाषा में ही उसकी व्याख्या खोज लेता है। इसलिए नई से नई बात को फौरन कहने लगता है, अच्छा-अच्छा, यही तो गीता में कहा है। यही तो हमारे उपनिषद में भी लिखा हुआ है। वह नये को फिर मार डालता है। तो फिर पुराने की जगह जाकर थिर हो जाता है कि ठीक है, उपनिषद में यही बात है--बात खत्म हो गई। कठिनाई ये हैं और बिलकुल वास्तविक कठिनाइयां हैं।
लेकिन ये सारी की सारी कंडीशनिंग, अगर हम इसकी कोई बात ही न करें कि माइंड कंडीशंड है, और सीधी नई बात की खबर पहुंचाएं तो बहुत डर है कि वह संस्कारित मन इसको भी अपने पुराने संस्कारों में ढाल कर व्याख्या कर लेगा। कोई परिणाम नहीं होगा। इसलिए इस अवेकनिंग का, जागरण का एक अनिवार्य और प्राथमिक हिस्सा यह है कि हम एक-एक आदमी को इस बात के प्रति भी सजग करें कि उसका मन पुराने संस्कारों से भरा है। क्या वह उन्हीं संस्कारों से सोचेगा, या उनसे मुक्त होने के लिए तैयार होता है?
अगर हम यह समझा सकें किसी व्यक्ति को--और यह कठिन नहीं है समझाना; क्योंकि यह सत्य है, इसलिए दिखाई पड़ सकता है कि हम किसी व्यक्ति को कह सकते हैं--कि तुम स्वयं सोचते हो, कि गीता ही तुम्हारे भीतर बोलती चली जाती है? तुम खुद सोचते हो कि समाज ने जो तुम्हें सिखाया है वही तुम दोहरा रहे हो? तुमने भी खुद कभी कुछ सोचा है? कभी तुमने किसी प्राॅब्लम को, किसी समस्या को सीधा साक्षात किया है? कभी ऐसा किया है कि बीच से सब जाना हुआ अलग कर दिया हो और तुम सीधे साक्षात किए हो? अगर नहीं किए हो तो तुम अभी विचार ही नहीं करना जानते हो। यानी इस जागरण की प्रक्रिया का अनिवार्य और प्राथमिक हिस्सा तो यही होने वाला है कि हम प्रत्येक व्यक्ति को, वह जो हजारों लाखों वर्ष की संस्कारित धूल है उसके चित्त पर, उसको पोंछना भी बता सकें। और यह दिखाई पड़ना कठिन नहीं पड़ता। एक आदमी को यह समझाना कठिन नहीं है कि दुकान पर जाकर जब उसने दुकानदार से कहा है कि मुझे लक्स साबुन चाहिए तो हम उसे पकड़ कर कह सकते हैं कि तूने सोचा है? कि सिर्फ रेडियो रोज दोहराता था, अखबार में रोज आता था कि लक्स टायलेट साबुन अच्छी है। तो तू पढ़ लिया है, सुन लिया है, तेरे मन में बैठ गया है, और आज तू बोल रहा है कि लक्स मुझे चाहिए! यह तू बोल रहा है या यह जो प्रोपेगेंडा किया गया है वही बोल रहा है? तो कठिन नहीं है कि उस आदमी को यह स्मरण आ जाए कि उसने कभी नहीं सोचा कि लक्स अच्छी है। सिर्फ प्रोपेगेंडा है, प्रचार है, जो उससे बोला गया है।
हम एक आदमी को पकड़ कर कह सकते हैं कि तू यह जो हिंदू भगवान के सामने जाकर सिर झुका रहा है, यह तूने सोचा है कि यह भगवान है या तुझे सिखाया गया है? वही लक्स टायलेट वाला साबुन का मामला है! या तुझे प्रोपेगेंडा किया गया है बचपन से कि तू हिंदू है, यह तेरा भगवान है, यह तेरी किताब है। अगर तू मुसलमान घर में पैदा होता तो तू क्या भूल कर भी कभी इस मंदिर में नमस्कार किया होता? तब तू किसी मस्जिद में गया होता! लेकिन वह जाना हुआ भी सिखाया गया है। एक-एक व्यक्ति को हम झकझोर कर इस अहसास को कराने की भी जरूरत है कि उसे पता चल जाए कि वह जो कर रहा है, जो सोच रहा है, वह सिर्फ दिया हुआ है, उसका अपना कुछ भी नहीं है।
इसका खयाल आते ही एक गहरी चेतना भीतर पैदा होती है और व्यक्ति को पहली दफा एक बोध होता है कि मैं एक गहरी गुलामी में भीतर घिरा हुआ हूं। यह बोध काम करेगा। और इस बोध को जगाने के बाद ही कम्युनिकेशन संभव है, उसके पहले संभव नहीं है। इसलिए पहले जिन लोगों को कुछ नई दिशा देनी हो, वे कैसे सुनें, कैसे सोचें, कैसे समझें, यह सारी की सारी व्यवस्था देनी जरूरी है। नहीं तो, नहीं तो ठीक ही है, वह वही सोचे चले जाएंगे। लाखों वर्ष के संस्कार हैं। लेकिन मनुष्य को कितना ही संस्कारित करो, उसके भीतर एक हिस्सा है, जो हमेशा असंस्कारित छूटा हुआ है--वही उसकी आत्मा है।
यानी इसको ऐसा समझना चाहिए कि जो संस्कारित हो गया है, वह मन है। जो कंडीशन हो गया, वही मन है। असल में मन का मतलब है, दी टोटल कंडीशनिंग। लेकिन मन के पीछे भी एक अवेयरनेस है, एक चेतना है, जो कंडीशन नहीं की जा सकती, जिसको कंडीशंड करना संभव ही नहीं है। उस चेतना की तरफ इशारा करना जरूरी है। और इसीलिए मेरा ध्यान पर बहुत जोर है। क्योंकि मैं मानता हूं कि जैसे ही कोई ध्यान में उतरता है वैसे ही मन के पीछे जाता है। ध्यान का मतलब है मन के पीछे जाना। और जैसे ही उसे पहली दफा पीछे उतरता है मन के, सारे विचारों को छोड़ कर, सारे भावों को छोड़ कर, सारे संस्कारों को छोड़ कर, जैसे ही पीछे हटता है, वैसे ही उसे पता चलता है कि मैं तो कुछ और ही हूं, जो मैं सोचता था, वह नहीं--हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, शरीर नहीं। मैं जो सोचता था, वह तो नहीं, मैं तो कुछ और हूं।
यह बोध जितना गहरा होता है उतना ही उस व्यक्ति से डायरेक्ट कम्युनिकेशन हो सकता है। क्योंकि तब हम उसके मन से बात नहीं कर रहे, तब हम उसकी चेतना से संबंधित हो गए। इसीलिए मैंने ध्यान को प्राथमिक मूल्य दे रखा है। क्योंकि मेरा मानना है कि जो ध्यान से गुजरेंगे, वे ही नये सत्यों की तरफ यात्रा कर सकते हैं। जो ध्यान से नहीं गुजरेंगे वे मन के भीतर ही जीते हैं। और मन कंडीशनिंग है--मन सदा कंडीशनिंग है।
मन से हम कैसे व्यक्ति को तोड़ सकें तो ही कम्युनिकेशन संभव है। अगर ठीक से समझें तो कम्युनिकेशन संभव है, एक बहुत मेडिटेटिव स्थिति है। और इसलिए मेरा इधर निरंतर जोर रहा है कि ध्यान से गुजरना ही है। यानी समझना उतना मूल्यवान नहीं है, जितना ध्यान से गुजरना है क्योंकि ध्यान से गुजरने के बाद ही समझना संभव है। ध्यान झाड़-बुहार कर अलग कर देता है उस सबको, जिसके कारण समझने में बाधा है। तो ध्यान के बाद एक कम्युनिकेशन होता है जो और ही तरह का है। एक संवाद होता है जो बहुत दूसरे ढंग का है, जहां हम शब्दों से नहीं उलझते, जहां हम सीखे हुए कंसेप्टस् और धारणाओं को बीच में नहीं लेते, जहां चीज सीधी उतरने लगती है। जहां हम समझते हैं, जहां हम व्याख्या नहीं करते हैं, इंटरप्रेट नहीं करते भीतर, जहां कि डायरेक्ट समझ शुरू हो जाती है। यह समझ ध्यान के व्यापक प्रयोगों से फैलाई जा सकती है।

बट आचार्य जी, ए.ज आई अंडरस्टेंड अवर माइंड इ.ज कंडीशंड एण्ड इट प्ले.ज समटाइम्.ज वेरी मन्की ट्रिक्स एण्ड ड.ज नाॅट अलाउ टु गो इन दि स्टेट आॅफ मेडीटेशन। वाॅट मेज.र्ज यू सजेस्ट अबाउट दैट?

यह होगा ही। मन सारी चेष्टा करेगा स्वयं को बचाने की। मन पूरे प्रयास करेगा स्वयं को बचाने की। और सच तो यह है कि वह प्रयास कर ही इसलिए पाता है कि हम भी मानते हैं कि हम मन ही हैं। इसलिए प्रयास सफल हो जाते हैं। लेकिन ये प्रयास तोड़े जा सकते हैं, क्योंकि ये प्रयास सत्य पर खड़े हुए नहीं हैं, सत्य यह नहीं है। जो हमें सिखाया गया है, वही हम नहीं हैं। अगर वही हम होते तो सिखाया किसको जा सकता था?
एक बच्चा पैदा हुआ। चेतना तो लेकर आया है, वह माइंड लेकर नहीं आया है। माइंड तो अब पैदा किया जाएगा। चेतना को वह लेकर आया है, सीखने की क्षमता लेकर आया है, एक कांशसनेस लेकर आया है, एक आत्मा लेकर है उसके पास। इस आत्मा के चारों तरफ अब मन की एक दीवार खड़ी की जाएगी, जिसमें सिखाया जाएगा कि तू हिंदू है, तो दीवार पर लिखा जाएगा, तू हिंदू है। इसमें सारी बातें सिखाई जाएंगी, ऊंचा है, नीचा है; ब्राह्मण है, शूद्र है; क्या है, क्या नहीं है; यह सब सिखाया जाएगा। यह दीवार खड़ी होगी। इसी को हम लर्निंग कह रहे हैं--इस माइंड को क्रिएट करने को। यह खड़ा हो जाएगा माइंड। इस लड़के को, इस बच्चे को यह भूल ही जाएगा कि मैं इसके अलावा कुछ हूं। यह समझेगा, मैं यही हूं। यह आइडेंटिटी हो जाएगी।
ध्यान की प्रक्रिया में जाने का मतलब है, इस आइडेंटिटी को तोड़ना। जो मैं जानता हूं, क्या वही मैं हूं? जो मैंने सुना है, समझा है, क्या वही मैं हूं? क्या मेरा मन ही मैं हूं? इसके बाबत बोध है, इसके बाबत अवेयरनेस है। तो जो मन निरंतर तरकीबें करेगा बचने की, वह तोड़ी जा सकेंगी। सच तो यह है कि जैसे ही यह खयाल आ जाए कि मैं कुछ पृथक, कुछ बियांड, कुछ अलग, कुछ भिन्न, वैसे ही मन की ट्रिक्स बंद हो जाती हैं। आइडेंटिटी टूटी कि ट्रिक्स गईं।
ट्रिक्स का मतलब हैः आइडेंटिटी, और वह देर तक चल सकता है, समय लग सकता है। ऐसे एक क्षण में भी हो सकता है, खयाल आ जाए। खयाल आ जाए कि यह मैं नहीं हूं। और चूंकि सत्य यह है, यह खयाल आ सकता है, इस बोध को जगाया जा सकता है। मन आखिरी दम तक कोशिश करेगा। लेकिन उसकी कोई कोशिश अंततः सफल होना अनिवार्य नहीं है। अगर हम थक जाएं तो सफल हो सकती है। अगर हम थोड़े जूझते ही चले जाएं तो बहुत जल्दी वह फासला पैदा हो जाता है, जहां हम अलग और मन अलग हो जाता है। जिस दिन यह फासला पैदा हो गया, उस दिन के बाद ही अंडरस्टैंडिंग संभव है, उसके पहले संभव नहीं है। समझ नहीं पैदा होती है उसके पहले। उसके पहले हम जिसको समझ कहते हैं, वह बहुत धोखे की चीज है। वह हमारा जो सीखा हुआ है, उसी की समझ है और उसी को दोहराए हम चले जाते हैं जिंदगी भर!
तो ध्यान के लिए, इस बात के बोध को पहली सीढ़ी बनाया जाना चाहिए, इस बात के चिंतन को कि क्या मैं वही हूं, जो मैं जानता हूं? क्योंकि मां के पेट में मैं कुछ भी नहीं जानता था, फिर भी था। पैदा हुआ तब भी कुछ नहीं जानता था, फिर भी था। फिर बढ़ा, फिर मैंने कुछ जान लिया। तब भी जो भीतर है, वह तो अलग ही होगा। जानने की यह जो एक पर्त चारों तरफ घिर गई है, इससे वह अलग होगा।

आचार्य जी, ए.ज यू सैड जस्ट नाव दैट दि न्यू बोर्न बेबी एक्वाय.ज दि नालेज बाई वे आॅफ लर्निंग फ्राॅम द इनवायरमेंट्स। दैन शुड वी इग्नोर दि हेरिडिटी?

नहीं, उपंक्षा करने की बात नहीं है। बहुत कुछ, नब्बे प्रतिशत वातावरण से सीखा जाता है। दस प्रतिशत वंश-परंपरा से भी आता है। वंश-परंपरा से जो आता है, शायद आज नहीं कल उसको बदलने के भी उपाय हो सकेंगे। आज तो नहीं हो सकते हैं। लेकिन वंश-परंपरा से जो आता है वह बहुत लिक्विडिटी है, वह बहुत तरल चीज है। उसे किसी भी ढांचे में ढाला जा सकता है। अंततः व्यक्ति जो बनता है, वह वातावरण ही बनाता है। और जिस माइंड की हम बात कर रहे हैं, वह तो वातावरण ही बनाता है। शरीर वंश-परंपरा से आता है। शरीर की बहुत सी क्षमताएं हेरेडिटी से आती हैं। ब्रेन की भी बहुत सी क्षमताएं हैं, हेरेडिटी से आती हैं, लेकिन माइंड सोसाइटी पैदा करती है। माइंड तो पूरा एनवायरनमेंट से आता है। निश्चित ही अगर ब्रेन अलग-अलग तरह के हैं, तो समाज को भी वातावरण से भी पैदा करने में कठिनाइयां होती हैं। लेकिन माइंड समाज पैदा करता है। माइंड जो है, वह सोशल प्रोडक्ट है।
जिस बात की मैं बात कर रहा हूं, वह यह है कि माइंड से पीछे जाने की जरूरत है। ब्रेन अलग-अलग हैं। एक बच्चे के पास ऐसा मस्तिष्क है जो ज्यादा जल्दी सीख सकता है। एक के पास ऐसा है जो देरी से सीखता है। एक बच्चा घंटे भर में सीखता है, दूसरा बच्चा छह दिन में सीखता है। ये दोनों के अलग-अलग हैं, ये हेरेडिटी से आएंगे। लेकिन एक दिन में सीखा हो किसी ने कि छह दिन में सीखा हो, जो सीख लिया है वह माइंड है, और उस माइंड से पीछे जाना है। और दोनों अगर उस माइंड के पीछे चले जाएं तो ध्यान में प्रविष्ट हो जाएंगे। और उस ध्यान में, जिसे वे जानेंगे, यह हेरेडिटी से आया हुआ नहीं है। जिसको हम आत्मा कहें, वह हेरेडिटी से आई हुई नहीं है। उसकी अपनी यात्रा है, उसका अपना जगत है। वह मां-बाप के शरीर से नहीं आई है।
समझ लें कि आप एक तरह के कपड़े पहने हुए हैं, मैं एक तरह से दूसरे तरह के कपड़े पहने हुए हूं। इन कपड़ों में भेद है। आपने दूसरे दर्जी से बनवाए हैं, मैंने दूसरे दर्जी से बनवाया है। आपने दूसरी दुकान से खरीदे हैं, मैंने दूसरी दुकान से खरीदे हैं। यह कपड़े में भेद है।
इन कपड़ों को हटा दें तो इन कपड़ों के पीछे जो है, वहां कोई भेद नहीं है। तो ब्रेन में तो भेद है, क्योंकि एक मां-बाप से एक आया है, दूसरे मां-बाप से दूसरा आया है। शरीर में भी भेद है। और फिर अलग-अलग समाजों में हम पलेंगे तो माइंड में भी भेद होगा। लेकिन ये तीनों हमारी पर्तें हैं, कपड़े हैं--शरीर भी, ब्रेन भी, माइंड भी। इन तीनों से पीछे हट जाना ध्यान है। और इन तीनों से पीछे जो हट कर हम खड़े होंगे, तो वह मिलेगा जो है; और उस है में कोई फर्क नहीं है। उसको शुद्ध सत्ता, प्योर एक्झिस्टेंस कहें। उसे जान लेना ही सत्य को जान लेना है। इन सब में तो भेद हैं ही।
एक आदमी ने हिंदी सीखी, एक ने अंग्रेजी सीखी, एक ने पंजाबी सीखी, एक ने जर्मन सीखी--इनके तीनों में भेद है। यह वातावरण का भेद है। फिर सीखने वाला जो ब्रेन है, वह सबको अलग-अलग मिला हुआ है, उसमें भेद है। फिर ब्रेन जिस बाॅडी में बैठा हुआ है, वह बाॅडी सबकी अलग-अलग है। उसमें भेद है। कोई बीमार है, कोई स्वस्थ है, कोई कमजोर है। कोई ताकतवर है, यह सारे फर्क हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम भीतर घुसते हैं, फर्क कम होते चले जाते हैं। अंततः सेंटर पर, केंद्र में कोई फर्क नहीं रह जाता है। वहां हम सभी प्योर एक्झिस्टेंस हैं।
और उस पर हम पहुंच जाएं, तभी हम परम आनंद पर, सत्य पर, ज्योति पर पहुंचते हैं। और उस घटना के बाद ही प्रेम बहना शुरू होगा, उसके पहले बहना शुरू नहीं होगा। और वहां पहुंचने पर ही अहिंसा संभव होगी, उसके पहले संभव नहीं होगी। उस तक पहुंचा सके, ऐसा समाज, ऐसी शिक्षा, ऐसी संस्कृति चाहिए। अभी तो उससे उलटा है। उस पर कैसे हम न पहुंच पाएं, इसका सारा आयोजन है। इस पर हम पहुंच सकते हैं।
सारे धर्म की, सारे दर्शन की, सारे योग की अगर सारभूत निचोड़ है, तो इतनी ही है कि उस पर कैसे पहुंच जाएं, जो हमारे भीतर एसेंशियल है, एक्झिस्टेंशियल है। नाॅन-एसेंशियल हमारे भीतर अलग-अलग है। वह हमें मिला है कहीं से, तो अलग-अलग सोर्सस से मिला है, तो अलग-अलग होगा।

डु यू सजेस्ट आचार्य जी, एनी लिट्रेचर व्हिच इ.ज स्पोकन बाई यू आर रिटन बाई यू व्हिच कैन गिव लाइट आन दि सब्जेक्ट आॅफ लव, नाॅन-वायलेंस एण्ड समाधि ए.ज यू सजेस्टेड?

समाधि के लिए साधना-पथउपयोगी हो सकती है। प्रेम के लिए प्रेम के पंखउपयोगी हो सकती है, अहिंसा के लिए अहिंसा-दर्शनउपयोगी हो सकती है। और ऐसे तो जो भी मैं कह रहा हूं, वह सभी उपयोगी होगा, क्योंकि मैं कुछ लिख नहीं रहा हूं। इसलिए कब क्या कह रहा हूं, कुछ पक्का नहीं है। पहले से कुछ तय नहीं है। और जो भी किताबें हैं वे लिखी हुई नहीं हैं, सब बोली हुई हैं। तो ऐसे तो सभी किताबें उपयोगी होंगी, लेकिन विशेष रूप से इन किताबों पर ध्यान दिया जा सकता है।

शिक्षाः साध्य और साधनविषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-4


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें