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गुरुवार, 17 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-31

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-इक्कतीसवां
शिक्षा: नया धर्म

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीसवीं सदी नये मनुष्य के जन्म की सदी है। इस संबंध में थोड़ी सी बात आपसे करना चाहूंगा। इसके पहले कि हम नये मनुष्य के संबंध में कुछ समझें, यह जरूरी होगा कि पुराने मनुष्य को समझ लें।
पुराने मनुष्य के कुछ लक्षण थे। पहला लक्षण पुराने मनुष्य का था कि वह विचार से नहीं जी रहा था, विश्वास से जी रहा था। विश्वास से जीना अंधे जीने का ढंग है। मानव की अंधे होने की भी अपनी सुविधाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास के अपने संतोष हैं और अपनी सांत्वनाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास की अपनी शांति और अपना सुख है लेकिन यदि विचार के बाद शांति मिल सके और संतोष मिल सके, विचार के बाद यदि सांत्वना मिल सके और सुख मिल सके तो विचार के आनंद का कोई भी मुकाबला, विश्वास का सुख नहीं कर सकता है।

सुकरात से किसी ने पूछा था एक दिन सुबह कि तुम एक संतुष्ट सुअर होने की बजाय असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करोगे या असंतुष्ट सुकरात होने की बजाय एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे। सुकरात ने कहा कि संतुष्ट सुअर होने कि बजाय मैं एक असंतुष्ट सुकरात होना ही पसंद करूंगा, क्योंकि सुअर की जिंदगी में जहां असंतोष नहीं है वहां संतोष भी मुर्दा ही होगा। जहां जीवंत असंतोष नहीं है वहां संतोष के जीवंत होने की भी कोई संभावना नहीं है। और जहां जीवित अशांति नहीं है वहां शांति मरघट की ही हो सकती है।
सुकरात का चुनाव बीसवीं सदी की पहली सूचना है, पच्चीस सौ साल पहले दी गई। बीसवीं सदी एकदम में नहीं हो गई है, बीसवीं सदी को आने में हजारों वर्ष लगे हैं--आते, आते...आई है! अभी भी सारी जमीन पर नहीं आ गई है। बीसवीं सदी से मेरा संबंध समय के मापदंड से नहीं है। इस बीसवीं सदी में आज पृथ्वी पर बहुत सदियों में रहने वाले लोग हैं। असल में हम यहां इतने लोग बैठे हैं और सभी लोग एक सदी के हों, ऐसा मानने का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। हम सब कंटेंपरेरीज हैं, समसामयिक हैं, यह सिर्फ कैलेंडर का धोखा है। हमारे बीच में कोई आदमी बीसवीं सदी का हो सकता है और कोई आदमी पहली सदी का हो सकता है, कोई इक्कीसवीं सदी का भी हो सकता है। सुकरात बीसवीं सदी का पहला आदमी था जिसने यह कहा कि विचारपूर्वक असंतोष को भी स्वीकार कर सकता हूं, लेकिन अंधविश्वासपूर्वक संतोष का भी कोई अर्थ नहीं है।
असल में, जिंदगी का सारा विकास विचार का विकास है। और जो विश्वास को पकड़ कर बैठ जाएगा, वह विकास की गति को छोड़ कर बैठ जाता है। पुराना मनुष्य चूंकि विश्वास के केंद्र पर जी रहा था, इसलिए स्टेग्नेंट था, ठहरा हुआ था--जैसे कोई नदी तालाब बन जाए। तालाब बहुत विश्वासी है, नदी बहुत अविश्वासी है और विचारवान है। असल में तालाब ने सारी खोज छोड़ दी है। वह जहां है वहां होने के लिए राजी हो गया है। जो है उसे उसने भाग्य मान लिया है। नदी की खोज जारी है। वह जो नहीं है, उसे पाने की चेष्टा है। वह जहां नहीं है वहां पहुंचने की आकांक्षा है। जो उपलब्ध नहीं है, उसे उपलब्ध करने की तीव्र पीड़ा है। इसलिए नदी असंतुष्ट है। नदी डिसकंटेंट है और नदी रोज नये के लिए खोज कर रही है।
निश्चित ही, अपरिचित रास्तों की तकलीफें हैं। तालाब का सुख नहीं हो सकता नदी को, लेकिन अपरिचित सागरों को पाने का आनंद भी है। वह आनंद तालाब के पास नहीं हो सकता। तालाब नहीं कहीं जाएगा, न कुछ पाएगा, जहां है वहां जिएगा, या कहना चाहिए, जिएगा कम, मरेगा ज्यादा। तालाब के पास जिंदगी नहीं होती क्योंकि जिंदगी गति के साथ है; तालाब के पास तो क्रमिक मृत्यु होती है, ग्रेजुअल डेथ होती है--सिर्फ सूखता है, सड़ता है। नदी गति है जीवन की।
पुराना मनुष्य तालाब की तरह विश्वास के डबरे में बंद है। नया मनुष्य नदी की तरह है--असंतोष, विचार, तर्क, नये की खोज को आतुर, अभीप्सित। नदी और तालाब पहला प्रतीक है, जो मैं कहना चाहूं--पुराना आदमी तालाब की तरह है, नया आदमी नदी की तरह है। लेकिन कठिनाई यह पड़ रही है कि पुराना आदमी जो तालाब की तरह था, वह पुराना पानी जो तालाब में था, नदी में आकर बहुत पीड़ा में पड़ गया है, क्योंकि उसकी आदत सदा बंद घेरे में जीने की है, बिना बहने की है। और यह जो संक्रमण का क्षण है, जब कि तालाब नदी बन गया, क्योंकि तालाब नदी में रूपांतरित हो रहा है, जब कि विश्वास संदेह में परिवर्तित हो रहे हैं तो बहुत पीड़ा की घड़ी है, प्रसव-पीड़ा की घड़ी है। बीसवीं सदी प्रसव-पीड़ा की घड़ी है जिसमें हम पुरानी सारी सीमाओं को तोड़ कर नये रास्तों की खोज कर रहे हैं।
तो पहली तो बात कि विश्वास पुराने आदमी का मौलिक लक्षण है और विश्वास नये आदमी का लक्षण नहीं है। और विश्वास और विचार के बीच इतना फासला है जितना जमीन और आसमान के बीच नहीं है। विश्वास का अर्थ ही है--विचार नहीं। असल में विश्वास में विचार के अंकुरण का कोई उपाय ही नहीं है, और अगर कोई विश्वास थोड़ा-बहुत विचार करता हो तो उसी मात्रा में अविश्वासी होता है। विचार का मतलब ही है कि संदेह मौजूद है, डाउट मौजूद है। संदेह है तो विचार है। संदेह नहीं है तो विचार कैसा? असल में अगर ठीक कोई आदमी पूरा विश्वासी है तो उसके भीतर मस्तिष्क विलीन और विदा हो जाएगा। या कहना चाहिए कि उसके भीतर मस्तिष्क पैदा ही नहीं होगा। वह तो विचार से पैदा होगा।
पुराना आदमी...इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहूं, पुराने आदमी चूंकि विश्वास से जी रहे थे; इसलिए विचार, मस्तिष्क, बुद्धि उससे उनका कम वास्ता था। भाव, भावना, फीलिंग, उससे उनका ज्यादा वास्ता था। स्वभावतः भाव के अपने रस हैं। स्वभावतः भाव के अपने सुख हैं। लेकिन विचार के बाद जिस भाव का जन्म होता है उसका प्लेन, उसका तल दूसरा है, और विचार के पूर्व जो भाव होता है उसका तल दूसरा है। कभी किसी पहाड़ पर आप चढ़े हों तो बहुत बार एक ही जगह पर आ जाते हैं। जगह तो एक ही होती है लेकिन ऊंचाई में फर्क होता है। अगर आप पहाड़ पर चढ़ रहे हों तो गोल चक्रों में ही चढ़ना पड़ता है। घंटेभर बाद आप फिर पाते हैं कि उसी जगह पर आ गए हैं जहां घंटेभर पहले थे चार मील चलने के, लेकिन अब दूसरे तल पर हैं। तल बदल गया है। जगह वही है, दृश्य वही है, लेकिन तल बदल गया है।
विचार के पहले जो भाव है वह पशु का तल है, वह मनुष्य का तल है नहीं। पशु भी विचार के बिना भाव में जी रहा है। लेकिन, विचार के बाद जब भाव का तल आता है तब पहली दफे मनुष्य के तल पर भाव की दुनिया शुरू होती है। जो विचार नहीं कर सकता है वह इसलिए भावना से भरा हुआ है, इसलिए भावना का कोई भी मूल्य नहीं है। जो विचार कर सकता है, फिर भी भावना को विकसित कर पाया है, इसकी भावना मानवीय है, मनुष्य की। लेकिन दोनों ही भाव के स्थान हैं अलग-अलग तलों पर।
पुराना आदमी भाव के पास जी रहा था, वह पशु की निकटता है, अगर पुराना आदमी बेईमान नहीं था, तो आप यह मत समझ लेना कि वह ईमानदार था। पुराना आदमी बेईमान नहीं था इसलिए बेईमान--पूर्ण था। ईमानदार सिर्फ उसी आदमी को हम कह सकते हैं जो बेईमान हो सकता है। जो नहीं हो सकता है, उसकी ईमानदारी का कोई बहुत अर्थ नहीं है। पुराने आदमी की ईमानदारी का कोई भी अर्थ नहीं है क्योंकि उसमें बेईमानी की संभावना नहीं है। अगर एक आदिवासी ईमानदार है तो उसकी ईमानदारी का कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह बेईमान होने में असमर्थ है।
बेईमान के लिए बुद्धि चाहिए। इसलिए जितनी दुनिया में बुद्धि बढ़ेगी, उतनी बेईमानी स्वभावतः बढ़ेगी। लेकिन बेईमानी बुद्धि का अंत नहीं है। असल में बेईमानी, पहली दफा ईमानदारी को वास्तविक मानवीय तल पर प्रकट होने का मौका है। बुद्धिमानी का अधूरा होना बेईमानी बन जाएगा, और बुद्धिमानी जब और बढ़ेगी तो हम फिर एक ईमानदारी को उपलब्ध होते हैं, वह ईमानदारी उपलब्धि की भांति है। वह आदिवासी की और गांव के ग्रामीण की ईमानदारी नहीं है जो कि बेईमान होने में असमर्थ था। वह एक नये मनुष्य की ईमानदारी है, जो बेईमान हो सकता है और नहीं हो रहा है।
ध्यान रखें, मनुष्य का सारा विकास विपरीत संभावनाओं की अपेक्षा में होता है। अगर गांव का आदमी भोला-भाला था तो उस भोले-भाले को मैं दो कौड़ी का भी मूल्य देने को राजी नहीं हूं। भोला-भाला होना ही उसकी नियति थी, डेस्टिनी थी। और वह भोला-भाला ही हो सकता था। अपने भोले-भालेपन के बाहर जाने के लिए कोई रास्ता उसके पास नहीं था। वह चाहता तो भी भोले-भालेपन के बाहर नहीं जा सकता था। उसका भोला-भालापन मजबूरी थी, कंपल्शन था। वह भोले-भालेपन के लिए गौरवान्वित नहीं किया जा सकता। हां, भोले-भालेपन के लिए प्रशंसित भला किया जा सके लेकिन गौरवान्वित नहीं किया जा सकता है।
इसलिए जो लोग आज इस बीसवीं सदी में गांव की बात करते हैं, नासमझी की बात करते हैं। जो लोग कहते हैं कि पीछे लौट चलो, बैक टू नेचर वे नासमझी की बात करते हैं। उनको पता नहीं है कि गांव का भोला-भालापन वस्तुतः वह भोला-भालापन नहीं है जो मनुष्य को गौरव दे। वह वही भोला-भालापन है जिसमें सारे पशु जी रहे हैं, पक्षी जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं।
बीसवीं सदी ने मनुष्य को उपलब्धि के द्वार खोले, जहां ईमानदारी होना हमारा चुनाव और च्वाइस होगी। ध्यान रहे, जिस क्षण हम चुनते हैं उसी क्षण पहली दफा हम मनुष्य होते हैं। चुनाव ही मनुष्य की प्राथमिक भूमिका है। पशु जैसे हैं, हैं, वह उनका चुनाव नहीं है। वह उनकी च्वाइस नहीं है। वे ऐसे हैं, यही उनका होना है, यह उनका स्वभाव है। पौधे जैसे हैं यह उनका चुनाव नहीं है। कोई गुलाब यह चुनाव नहीं करता है कि मैं लाल फूल को चुनूं--लाल आता है तो लाल आता है, सफेद आता है तो सफेद आता है। न ही कोई गुलाब यह चुनाव करता है कि मेरा फूल सुंदर हो--सुंदर हो तो ठीक, असुंदर हो तो ठीक। न कोई वृक्ष चुनाव करता है कि उसके पत्ते कैसे हों।
मनुष्य पहला चुनाव है। और बीसवीं सदी का मनुष्य प्रत्येक चीज को चुनाव करके जिएगा। असल में विश्वास जब तक हो तब तक चुनाव भी नहीं होता। विचार हो तब चुनाव शुरू होता है। चुनाव मनुष्यता की गरिमा का पहला आधार है। आप जो हैं, अगर वह आपका चुनाव नहीं है तो आप पशु के निकट जी रहे हैं। अगर वह आपका चुनाव है तो आप पशु के ऊपर उठ रहे हैं। और ध्यान रहे, पशुता की ईमानदारी के मुकाबले में, चुनी हुई बेईमानी को भी चुनना है। अपने-आप सहज जो भोला-भालापन है उसकी बजाए तो मैं चुनी हुई चालाकी और कनिंगनेस को पसंद कर लूंगा।
कारण हैं उसके। क्योंकि चुनाव से मनुष्य का प्रारंभ होता है। और जो मनुष्य बेईमानी चुन सकता है वह आज नहीं कल ईमानदारी भी चुन सकता है। और जो मनुष्य चालाकी चुन सकता है, वह आज नहीं कल, भोला-भालापन भी चुन सकता है। लेकिन जब चुना हुआ भोला-भालापन मनुष्य में आएगा तो इसमें तल का भेद होगा। वह पहाड़ का रास्ता है जिस पर हम एकदम सीधे आ जाएंगे जहां आदिवासी था, लेकिन उसके और हमारे बीच जमीन का बहुत फासला हो गया है, ऊंचाई का बहुत फासला हो गया है। प्लेन अलग हो गया है, जगह वही है।
ऐसा समझें कि एक छोटा बच्चा है। छोटे बच्चे की इनोसेंस किसी कीमत की नहीं है। छोटे बच्चे का निर्दोष होना दो कौड़ी का भी नहीं है। छोटे बच्चे का निर्दोष होना सहज है, लेकिन अगर कोई बूढ़ा आदमी छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाए तो संत हो जाता है। लेकिन छोटे बच्चे को हम संत कहने को राजी नहीं होंगे। बालक संत होता भी नहीं क्योंकि जो अभी शैतान होने में समर्थ नहीं हुआ उसके संत होने का क्या उपाय है? इसलिए छोटे बच्चे का निर्दोषपन ठीक है, अपनी जगह। लेकिन जब कोई बूढ़ी आंखें और छोटे बच्चों की तरह सरल हो जाती हैं तो उपलब्धि है, अचीवमेंट है। कोई आसान मामला नहीं है यह, चुनाव है। यह बूढ़ा आदमी शैतान होने की पूरी जिंदगी से गुजर गया और संत है, और शैतान होने के हर मौके थे और नहीं चुने, या चुने थे और छोड़े।
हर संत का अतीत शैतानी के रास्ते से गुजरता है, लेकिन बच्चे का कोई अतीत नहीं है। बच्चे की पूरी संभावना है अभी कि वह शैतान होगा। और हम चाहेंगे कि वह उस जगह आ जाए जहां चुनाव का क्षण आए। क्योंकि जिस क्षण चुनाव का क्षण है, डिसीजन का, उसी क्षण मनुष्य पैदा होता है। डिसीजन के मूमेंट्स हैं। निर्णय के क्षण में मनुष्यता पहली दफा क्रिस्टलाइज होती है। और जितना बड़ा चुनाव, उतनी बड़ी मनुष्यता का जन्म होता है।
इसलिए मैं उनके पक्ष में नहीं हूं जो आदमी को पीछे लौटाना चाहते हैं--चाहे रूस हो, चाहे टाल्सटाय और चाहे रस्किन और चाहे थोरो और चाहे इमर्सन और चाहे गांधी, ये सारे लोग जो मनुष्य को पीछे लौटाना चाहते हैं और सोचते हैं, पुराने दिन वापस लौट आएं, वे मनुष्य की जिंदगी में बड़े से बड़े खतरे की बात कर रहे हैं। नहीं, कोई पुराना दिन वापस नहीं चाहिए, पुराने दिन की भांति नया आदमी चाहिए।
पुराने दिन वापस लौटाने की कोशिश रिग्रेशन है, वह आदमी को पीछे ढकेलना है। डर तो लगता है, गांव के आदमी को देखते हैं तो लगता है कि कैसा भोला-भाला है! लेकिन लाओ गांव के आदमी को शहर में और पाओगे कि वह चालाक हो गया। लाओ गांव के आदमी को शहर में और पाओगे वह शहर के आदमी से ज्यादा चालाक हो गया है। क्योंकि नया मुसलमान ज्यादा मस्जिद जाता है। चालाकी उसके लिए पहला मौका है। उसकी चेतना तेजी से चालाकी का काम करेगी। इसलिए जब ग्रामीण चालाक होता है तो शहरी चालाक से ज्यादा होगा। शहर के आदमी के लिए चालाकी थिर हो गई है, चारों तरफ का परिचित वातावरण हो गई है।
गांव का आदमी चालाक नहीं है, क्योंकि परिस्थितियां और चेतना चुनाव की नहीं हैं। नहीं, आदमी को पीछे नहीं लौटाना है, आगे ले जाना है। बीसवीं सदी ने जो मौका दिया है, वह मौका बहुत डिसीसिव है, वह मौका बहुत निर्णायक है, और हमें चुनाव का मौका पहली दफा मिला है। इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं क्योंकि बीसवीं सदी के मनुष्य का जो विशेष लक्षण है वह चुनाव है, च्वाइस। अब हम जो भी होंगे च्वाइस से होंगे। अब हम वही नहीं हो सकते प्रकृति--प्रकृति ने हमें उस जगह ला दिया है जहां अब हमारा चुनाव काम करेगा।
मेरे हिसाब से बीसवीं सदी पहली दफे ठीक मनुष्य को जन्म दे रही है। निश्चित ही खतरे हैं। चुनाव के साथ खतरे शुरू हो जाते हैं। लेकिन, जितना बड़ा खतरा है, जीवन की पुलक उतनी बढ़ जाती है। जितना कम खतरा है, जीवन की पुलक उतनी क्षीण हो जाती है। अगर खतरा बिलकुल नहीं है तो जीते और मरे आदमी में कोई फर्क नहीं रह जाता है। कब्र सबसे सुरक्षित जगह है, वहां कोई खतरा नहीं आता। न वहां बीमारी आती, और न कब्र में मौत आ सकती है। अब मरने का भी कोई उपाय नहीं है कब्र के भीतर। वहां सब सुरक्षित है।
मैंने सुना है कि एक सम्राट ने महल बनाया था और ऐसा महल कि जिसमें सब तरह से सुरक्षा थी। उसमें खिड़की दरवाजे नहीं रखे थे, सिर्फ एक दरवाजा रखा था क्योंकि कहीं कोई चोर, कहीं कोई बीमारी, कहीं कोई दुश्मन कहीं से घुस न जाएं। एक दरवाजा था और एक दरवाजे पर हजार सिपाहियों का पहरा था। पड़ोस का राजा उसके महल की खबर सुन कर देखने आया। देख कर उसने कहाः सच में, इतनी सुरक्षित जगह मैंने नहीं देखी। कोई खतरा नहीं है, मैं भी ऐसा महल बनाऊंगा। जब पड़ोस का राजा बाहर द्वार पर विदा ले रहा था और अपने रथ पर सवार हो रहा था तो उसने पुनः-पुनः धन्यवाद दिए और प्रशंसा की और उसने कहा कि ऐसा सुरक्षित महल निश्चित ही होना चाहिए, जहां कोई खतरा न हो।
रास्ते के किनारे बैठा एक भिखारी जोर से हंसने लगा। उस मकान के मालिक राजा ने पूछा कि क्यों हंसते हो? क्या बात हो गई? उस भिखारी ने कहा कि मैं इसलिए हंसता हूं कि आपके मकान को मैंने बनते भी देखा, बन गया भी देखा, दूसरों को प्रशंसा करते भी देखता हूं, लेकिन मुझे एक भूल मालूम पड़ती है। उस राजा ने कहाः कौन सी भूल? उस भिखारी ने कहाः इसमें एक दरवाजा है, यह भी खतरा है। इसको भी बंद करवा लें और भीतर हो जाएं। आप खतरे के बिलकुल बाहर हो जाएंगे। एक दरवाजा भी कुछ खतरा तो है ही। बहुत दरवाजे बहुत खतरा था, एक दरवाजा कुछ खतरा है। लेकिन खतरे के बाहर नहीं हो गए हैं। और दुश्मन चाहे न घुस सके, मौत तो एक दरवाजे से घुस जाएगी। उस राजा ने कहाः पागल, अगर मैं यह दरवाजा भी बंद करके भीतर हो जाऊं तब तो मौत को घुसने की जरूरत ही न रह जाएगी, मैं मर ही जाऊंगा। उस भिखारी ने कहाः करीब-करीब आप मर ही चुके हैं क्योंकि जिंदगी में जितने खतरे के दरवाजे होते हैं उतनी ही जिंदगी होती है। जितने खतरे के दरवाजे कम हो जाते हैं जिंदगी कम हो जाती है। अगर खतरे के सब दरवाजे बंद हो जाएं तो जिंदगी खतम हो जाती है।
बीसवीं सदी ने पहली दफे खतरा लिया है। आज तक आदमी ने खतरे नहीं लिए थे। वह खतरे के बाहर सुरक्षा में जी रहा था। उसने सब तरह की सुरक्षाएं कर रखी थीं; सब तरह की सुरक्षाएं--मानसिक, आध्यात्मिक, सब तरह की सुरक्षाएं। जिंदगी बहुत साफ नक्शे की भांति थी जिसमें खतरे नहीं थे। रास्ते टिके हुए और ठीक से बने हुए थे, रेडीमेड थे।
बीसवीं सदी में पहली दफा आदमी ने अनिश्चित होने का खतरा लिया। आज स्वर्ग निश्चित नहीं है। आज पुण्य करना खतरे से खाली नहीं है। पहले पुण्य करना बिलकुल ही खतरे के बाहर था। आज से पहले पुण्य करना बिलकुल सुनिश्चित बात थी। पुण्य के बाद उसका परिणाम निश्चित था कि स्वर्ग मिलना है, उसमें कोई शक संदेह नहीं था। पाप के बाद नरक मिलना है यह साफ था, यह तय था। जिंदगी बहुत साफ-सुथरी थी। शतरंज की खेल की तरह खाने बंटे हुए थे और रास्ते बंधे-बंधाए थे। जिंदगी में हर चीज का उत्तर था। बीसवीं सदी ने सब उत्तर छोड़ दिए। अब जिंदगी में बंधा हुआ उत्तर कोई भी नहीं है। रेडीमेड आंसर जैसी कोई चीज ही नहीं।
बीसवीं सदी का आदमी पहली दफे सारे खतरों के दरवाजे खोल कर खड़ा हो गया है। उसने शतरंज उठा कर फेंक दी। उसने कहा, यह भी कोई जिंदगी है कि बंधे हुए खांचों में घूमते रहो? यह जिंदगी नहीं है, यह रेल की पटरियां जैसी बिछी हैं, उस पर रेल के डिब्बे दौड़ रहे हैं, मालगाड़ी की जिंदगी है। बंधी हुई पटरियां हैं लोहे की, आदमी उन पर दौड़ रहा है। पुराना आदमी बंधी पटरियों पर दौड़ रहा था। उसने सब पटरियां तय कर रखीं थीं, वह नीचे कभी नहीं उतरता था। सब पटरियां तय थीं और सब उत्तर सुनिश्चित थे, और जिंदगी के पास सब उत्तर थे, संदेह बिलकुल न था। सब साफ सुथरा था।
अगर आप आज से पांच सौ साल, या हजार साल पहले पैदा होते या अभी भी हजार साल पुराने अगर किसी साधु संत के पास आपको जाने का सौभाग्य मिल जाए तो आपके लिए सब बंधे हुए उत्तर मिलेंगे। आप पूछिए तो स्वर्ग और नरक के सब नक्शे मंदिरों में टंगे हुए हैं। कुछ मंदिरों ने डर की वजह से उन्हें उतार दिए, कुछ पुराने मंदिर अभी भी टांगे हुए हैं। जिनको इस जमीन के पूरे नक्शे का भी पूरा पता नहीं था उन्होंने स्वर्ग और नरक के नक्शे भी तय कर रखे थे। जिनको यह भी पता नहीं था कि यह जमीन गोल है, उन्होंने स्वर्ग के रास्तों का भी ठीक-ठीक हिसाब बना रखा था। जिनको यह भी पता नहीं था आग कितनी डिग्री पर जलाती है, उन्होंने नरक में भट्टियां रखीं थीं। जिनको वस्तुतः कुछ भी पता नहीं था, वे इस भ्रम में जी रहे थे कि उन्हें सब पता है।
असल में, अज्ञानी चित्त एक ही तरह से अपने अज्ञान को बचा सकता है कि वह अपने अज्ञान के रहते हुए पूरी तरह ज्ञानी होने के खयाल से भर जाए। बीसवीं सदी के पहले का आदमी पूरी तरह अज्ञानी था जीवन के रहस्यों के बाबत, लेकिन पूरे खयाल से भरा था कि सब पता है। और यह सब पता का खयाल अज्ञान के खिलाफ सुरक्षा के लिए था क्योंकि अज्ञान बड़ा खतरनाक है। क्योंकि जब हमें सब पता न रह जाए तो जिंदगी डांवाडोल हो जाती है। तय करना मुश्किल हो जाता है।
आज बहुत साफ नहीं है कि धर्मशाला बनाने के बाद भगवान आपकोे स्वर्ग के दरवाजे पर लेने को तैयार मिलेगा कि नहीं मिलेगा। कुछ पक्का नहीं है। यह भी पक्का नहीं है कि धर्मशाला बना कर स्वर्ग भी जाइएगा कि नरक जाइएगा। यह भी कुछ पक्का नहीं है। नरक-स्वर्ग है भी, यह भी पक्का नहीं है। धर्मशाला बनाने में पुण्य हो रहा है कि पाप हो रहा है, यह भी कुछ पक्का नहीं है। पहली दफे आदमी अपने अज्ञान को स्वीकार करने की हिम्मत जुटा पाया है। यह बहुत बड़ी हिम्मत है। यह बहुत बड़ा करेज है। यह साहस इतना बड़ा है कि इतना बड़ा साहस कभी आदमी नहीं जुटा पाया था।
बीसवीं सदी साहस की है और बीसवीं सदी का आदमी साहस का आदमी है। स्वभावतः साहस के साथ खतरे आने शुरू हो जाते हैं। वे चारों तरफ से आ गए। जब जिंदगी में कोई उत्तर तय न रह जाए तब जिंदगी को मशीन की तरह चलाना मुश्किल हो जाता है। जब जिंदगी में कोई उत्तर साफ न रह जाए तो अपने उत्तर खुद खोजने पड़ते हैं और भूल-चूक होनी शुरू हो जाती है। और जब जिंदगी में बंधा हुआ ढांचा न रह जाए तब हर आदमी अपना ढांचा अलग बनाने लगता है। इसलिए समाज का ढांचा टूटने लगता है। बीसवीं सदी के पहले का व्यक्तित्व वस्तुतः व्यक्तित्व नहीं है। समाज का एक अंश था बीसवीं सदी के पहले का आदमी। पहली दफे बीसवीं सदी में इनडिविजुअल पैदा हुआ और सोसाइटी मरने के करीब पहुंची। समाज मरने के करीब है, और व्यक्ति पैदा हुआ है।
असल में अगर आज से हम पिछले गांव में लौट जाएं तो हमें पता चलेगा कि व्यक्ति पैदा ही नहीं हो सकता था। जिस गांव की हम बहुत तारीफ करते हैं, और हमारे कवि जिसकी बहुत चर्चा करते हैं। हालांकि वे सब कवि शहरों में रहते हैं, गांव में कोई जाता नहीं। और जो महात्मा गांव की बहुत प्रशंसा करते हैं वे सब राजधानियों में ठहरते हैं, कोई गांव-आंव से मतलब नहीं है। लेकिन जिस गांव की हमारी सारी चर्चा चलती है, हमें पता नहीं कि उस गांव में व्यक्ति था ही नहीं, हो ही नहीं सकता था। गांव में व्यक्ति के पैदा होने का उपाय नहीं था। गांव समाज था, और समाज इतना भारी और मजबूत था कि उसमें इंच भर हिलना-डुलना संभव नहीं था।
अगर एक आदमी गांव में जरा सा व्यक्तित्व का प्रदर्शन करे तो उसको हुक्का-पानी बंद है। उसको कोई घर में बैठने नहीं बुलाएगा, उसका मंदिर में प्रवेश बंद हो जाएगा, गांव के कुएं पर उसको पानी नहीं मिलेगा और सारा गांव उस पर एक साथ हंसेगा, सारा गांव उसका एक साथ विरोध करेगा और सारा गांव एक-एक व्यक्ति पर आंख रखेगा कि वह क्या कर रहा है। वह क्या खा रहा है, क्या पी रहा है, कहां उठ रहा है, कहां बैठ रहा है? पूरे गांव की आंखें एक व्यक्ति पर टिकी रहेंगी। सारा गांव, सारे गांव की आंखें उस व्यक्ति को जकड़े रहेंगी। वह जरा सा भी हिल-डुल नहीं सकता है इसके बीच में।
पहली दफे बीसवीं सदी ने व्यक्ति को व्यक्तित्व दिया, प्राइवेसी दी है। इसके पहले कोई प्राइवेसी नहीं थी। अगर आप एक छोटे गांव में एक अपरिचित स्त्री के साथ निकल जाते हैं तब आपको पता चलता है कि प्राइवेसी बिलकुल नहीं है। सारा गांव पकड़ लेता है कि स्त्री कौन है। गांव की सेंक्शन चाहिए एक स्त्री के साथ सड़क पर निकलने के लिए। गांव का लाइसेंस चाहिए तो आप एक स्त्री के साथ सड़क पर निकल सकते हैं। आदमी का प्रेम भी अगर व्यक्ति निर्णायक न हो और समाज निर्णायक हो, तो व्यक्तित्व के जन्म की कोई संभावना नहीं है। किसी को कोई हक नहीं है कि कोई किसी से पूछे कि आप किसके साथ हैं, यह अशिष्टता की हद्द है, असभ्यता की, असंस्कृति की हद्द है। लेकिन, पुरानी दुनिया इसे स्वीकार करके चलती है। असल में पुरानी दुनिया व्यक्ति को कोई मौका नहीं देती।
इसलिए पुरानी दुनिया में न व्यक्ति था, न पुरानी दुनिया में कोई क्रांति थी, क्योंकि व्यक्ति आए तो क्रांति उसके पीछे आनी शुरू होती है। व्यक्ति के बिना कोई क्रांति नहीं आती। गांव के देखते क्रांति बहुत मुश्किल है, बहुत कठिन है, क्योंकि गांव अपनी बंधी हुई लीक पर जीता है और लीक से इंचभर कोई हटा कि पूरा गांव उसका दुश्मन हो जाता है। इसलिए भारत जैसा देश, जो हजारों साल से गांवों का देश है, क्रांति-विरोधी देश है। उसमें कोई क्रांति नहीं हो सकती। भारत जैसा देश जिसमें सबकी आंखें सब पर हैं, और हरेक आदमी के बाकी लोग पुलिसवाले का काम कर रहे हैं, उस देश में व्यक्तित्व पैदा नहीं होता, उस देश में व्यक्तित्व पैदा होना मुश्किल है। उस देश में व्यक्तित्व पैदा होना अत्यंत असंभव है।
बीसवीं सदी ने पहली दफे समाज के ढांचे को ढीला किया है और व्यक्ति की आत्मा को प्रखर किया है। लेकिन इससे हमें बहुत बेचैनी होती है। क्योंकि जब ढांचे ढीले होते हैं तो अराजकता आ जाती है। जब ढांचे ढीले होते हैं तो इनडिसिप्लिन आ जाती है। जब ढांचे ढीले होते हैं तो अनुशासन टूट जाता है। असल में, अनुशासन का वक्त गया। भविष्य में पुराने दिनों का अनुशासन नहीं हो सकता। और जब तक हम पुराने अनुशासन की जिद्द करेंगे तब तक भविष्य का एक नया अनुशासन जो पैदा हो सकता है वह भी पैदा नहीं हो सकता। पुराना अनुशासन समाज आरोपित था। नया अनुशासन व्यक्ति से आविर्भूत होगा। वह एक इनर-डिसिप्लिन होगी जो व्यक्ति के भीतर से आएगी।
जब व्यक्ति पैदा हो चुका है तो अनुशासन समाज नहीं थोप सकता। जब व्यक्ति पैदा हो चुका है तो हमें नया अनुशासन खोजना पड़ेगा। जिसका निर्णायक व्यक्ति होगा।
असल में हमें अनुशासन की सारी परिभाषा बदलनी पड़ेगी। अब अनुशासन आत्मानुशासन ही होगा, अब अनुशासन समाज अनुशासन नहीं हो सकता। असल में पुराना सारा अनुशासन किसी के द्वारा दिया गया है, नया अनुशासन अब किसी के द्वारा स्वीकार नहीं किया जा सकेगा। व्यक्ति पैदा हो चुका है और आप उस ढांचे को थोपना चाह रहे हैं जो व्यक्ति-पूर्व है, प्रि-इंडिविजुअल है। वह नहीं टिक सकता। इसलिए बच्चे अगर आपको बगावत करते मालूम पड़ रहे हैं तो इसमें बच्चों का कसूर नहीं है। असल में आपने बच्चों को व्यक्तित्व दे दिया और आप अनुशासन वह दे रहे हैं, जो समाज का है। ये दोनों बातें साथ नहीं चल सकतीं। जब व्यक्ति पैदा हो गया है, विचार पैदा हो गया है तो अब तो व्यक्ति को अपना अनुशासन स्वयं तय करना पड़ेगा।
स्वभावतः पुरानी आंखों में अराजकता, अनारकी दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी, लेकिन यह अराजकता पुरानी आंखों के देखने के ढंग की गलती है। यह अराजकता है नहीं। यह असल में व्यक्तियों के पैदा होने का अराजक क्षण है, जब समाज की पुरानी व्यवस्था जाएगी और नई व्यवस्था आएगी। बहुत हैरानी की बात है। अगर एक युवक या एक युवती अपने ढंग के कपड़े पहन कर सड़क पर निकलते हैं तो अराजकता क्या हो गई? कपड़े पहनने का हक भी आप तय करेंगे कि कैसे कपड़े पहनने चाहिए? तो जब कपड़े तक आप तय करेंगे तो फिर आत्मा को आप क्या तय करने देंगे किसी व्यक्ति को, कि उसकी अपनी हो पाए।
नहीं, लेकिन पुरानी आंखों में तकलीफ शुरू हो जाती है। तकलीफ शुरू हो जाती है क्योंकि कपड़े भी समाज तय करता था। उस संबंध में भी व्यक्ति की कोई हैसियत न थी। आप क्या पहनेंगे, यह समाज का निर्धारण था। आप क्या खाएंगे, यह समाज का निर्धारण था। आप कैसे उठेंगे, बैठेंगे यह समाज का निर्धारण था। नहीं, अब यह कुछ भी नहीं चल सकता है। नया आदमी जन्म के करीब है। करीब-करीब उसकी पहली खबरें आ गई हैं, उसकी प्रसव-पीड़ा करीब है, वह बगावत करेगी और बगावत कठिन हो जाएगी, अगर रुकावट डाली गई। अगर स्वीकार कर ली गई तो सरल हो जाएगी।
मैं कई दफा हैरान होता हूं कि स्वीकार करने में कठिनाई क्या है। अगर लोग अपने ढंग के कपड़े पहनते हैं तो उन्हें बेचैनी क्या है? आप अपने ढंग के पहन रहे हैं, किसी को बेचैनी नहीं है। वह अपने ढंग के पहने रहे हैं, आपको बेचैनी क्या है, लेकिन पिता को बेचैनी है कि उसका लड़का और ढंग के कपड़े पहने हुए है। पिता को बेचैनी है कि वह टोपी लगाए हुए है तो बेटा टोपी नहीं लगाए हुए है। पिता को बेचैनी है कि वह ढीले कपड़े पहने हुए है, बेटा चुस्त कपड़े पहने हुए है। लेकिन बेचैनी क्या है? बेटे बाप के कपड़े पहने, यह जरूरी क्यों है? मां बहुत परेशान है कि उसकी लड़की कैसे कपड़े पहने हुए है। कोई अर्थ नहीं है इस बात में। इसको हम व्यर्थ की अराजकता और अनुशासनहीनता समझ कर चल रहे हैं, व्यर्थ ही।
पुरानी व्यवस्था थी तो मां-बाप बच्चों का विवाह तय कर रहे थे, क्योंकि पुरानी व्यवस्था चुनाव का मौका व्यक्ति को कम से कम देना चाहती थी। चुनाव का मौका मिला कि व्यक्ति का जन्म हुआ। इसलिए बाल-विवाह सारे जगत में स्वीकृत है। बाल-विवाह का मतलब है कि हम प्रेम न होने देंगे। बाल-विवाह का मतलब है कि इसके पहले कि तुम्हारी जिंदगी में प्रेम उठे, हम तुम्हें विवाहित किए देते हैं। बाल-विवाह का मतलब है कि प्रेम से ज्यादा मूल्यवान सेक्स है। इसके पहले कि प्रेम का जन्म हो, हम तुम्हें सेक्स की सुविधा दिए देते हैं।
पुराना आदमी कामुकता के घेरे पर जी रहा था। हालांकि पुराना आदमी कहता है कि नया आदमी कामुक है। गलत है यह बात। पुराना आदमी कहता है कि नये लोग बहुत कामुक हैं। झूठी है यह बात। पुराना आदमी बिलकुल कामुक था। असल में नये आदमी ने पहली दफे काम के ऊपर प्रेम की आवाज बुलंद की है इसलिए तकलीफ शुरू हो गई है। और प्रेम मनुष्य के खास गुणों में से एक है, और सेक्स मनुष्य का कोई खास गुण नहीं है। पशुओं में, पक्षियों में, पौधों में, सबमें है। पुराने मनुष्य ने सेक्स की व्यवस्था दी थी, प्रेम की कोई सुविधा न दी थी। असल में पुराना मनुष्य पत्नी को भी इसी भांति, इसी तरह देखता था जिस तरह कि मां मिलती है, बहन मिलती है, भाई मिलता है, पिता मिलता है--गिवन फैक्ट्स! मैं अपनी मां को नहीं बदल सकता, वह मेरा चुनाव नहीं है। मैं अपने पिता को नहीं बदल सकता, वह मेरा चुनाव नहीं है। कोई उपाय नहीं है उसमें। अपनी बहन को नहीं बदल सकता, वह मेरा चुनाव नहीं है, यह गिवन फैक्ट्स है।
जिंदगी में सिर्फ एक चुनाव है, पत्नी का, वह पुराने आदमी ने छीन रखा था, क्योंकि उससे व्यक्ति पैदा हो जाएगा। और चुनाव का मौका नहीं होना चाहिए। मां तो चुनी नहीं जा सकती, कोई डर नहीं है। पिता चुना नहीं जा सकता, कोई डर नहीं है। पत्नी या पति चुना जा सकता है। वह भी समाज चुन लेगा। मां-बाप चुन लेंगे। वह चुनाव भी छीन लिया जाएगा और जिस आदमी की जिंदगी में प्रेम का चुनाव नहीं है उस आदमी की जिंदगी में आत्मा के जन्म की संभावना बहुत क्षीण हो जाती है। उसमें व्यक्तित्व की संभावना क्षीण हो जाती है।
निश्चित ही, पुराना समाज प्रेम के खतरों से मुक्त था। विवाह में कोई खतरा नहीं है क्योंकि वह एक इंस्टीट्यूशन है। विवाह में कोई खतरा नहीं है, वह एक व्यवस्था है। विवाह में कोई खतरा नहीं क्योंकि वह मां-बाप, अनुभवी, समझदारों के द्वारा किया गया इंतजाम है। प्रेम में सदा खतरा है क्योंकि वह गैर-अनुभवी, नासमझों के द्वारा किया गया एक्सपेरिमेंट, प्रयोग है। विवाह में कभी खतरा नहीं है। प्रेम में सदा खतरा है। लेकिन विवाह में इसलिए खतरा नहीं है कि उसमें प्रेम का उपाय नहीं है, और प्रेम में इसीलिए खतरा है कि अगर प्रेम ठीक से विकसित हो तो विवाह विदा हो सकता है। विवाह समाप्त हो सकता है। विवाह में खतरा नहीं है क्योंकि वह डेड इंस्टीट्यूशन है, मरी हुई संस्था है। प्रेम में खतरा है क्योंकि वह लिविंग, वह जीवंत भावना है। तो कोई खतरा नहीं था।
दुनिया में नीति बड़ी ढंग से चल रही थी। बीसवीं सदी ने पहली दफे दुनिया की नीति को भूकंप ला दिया। नीति बड़ी व्यवस्थित चल रही है। बड़ी व्यवस्थित दुनिया थी। पत्नियां घर में थीं, वेश्याएं सड़कों पर थीं। हमने दोनों इंतजाम कर दिए थे। हमने इंतजाम कर दिया था पत्नी का, पति का। यह जीवन स्थायी इंतजाम था। यह एक दफा हो गया तो इसमें बदलने का कोई उपाय नहीं था। दुबारा चुनाव की कोई संभावना नहीं थी। यह फिर संबंध था।
लेकिन इसमें खतरा था और डर था, और डर सिर्फ एक था कि यह भी हो सकता है कि जिन दो अपरिचित लोगों को किन्हीं पंडितों ने जन्म कुंडली देख कर मिला दिया है, जिनका इससे कोई संबंध नहीं है, जिनका इनके प्रेम से कोई संबंध नहीं है, जिनका इनके हृदय से कोई संबंध नहीं है--किन्हीं दो पंडितों ने जिनकी जन्म-कुंडली देख कर मेल बिठा दिया है; किन्हीं मां-बाप ने धन, पद, प्रतिष्ठा, वंश, परंपरा, सब सोच-समझ कर; सिर्फ प्रेम को सोचने के बाहर छोड़ कर--बाकी सब सोच-समझ कर इंतजाम कर दिया है। हो सकता है इनके बीच तनाव रहे, हो सकता है इनके बीच लगाव न बन पाए, इसलिए विवाह की व्यवस्था को एक सब्स्टीट्यूट इंस्टीट्यूशन वेश्या की खड़ी करनी पड़ी है।
जब तक दुनिया में विवाह प्रभावी रहेगा, दुनिया से वेश्याएं नहीं मिट सकतीं, क्योंकि विवाह और वेश्या एक ही संस्था के दो पहलू हैं। असल में घर की पत्नी को अगर जीवनभर साथ रखना है और घर के पति को अगर जीवनभर साथ रखना है तो बीच-बीच में व्यावसायिक छूट के मौके होने जरूरी हैं। वेश्या खतरनाक नहीं है क्योंकि उससे पैसे का संबंध है। उससे भी प्रेम का कोई संबंध नहीं है। और पत्नी भी यही पसंद करेगी कि उसका पति वेश्या के पास चला जाए, बजाए किसी और स्त्री के पास चला जाए। क्योंकि किसी और स्त्री से प्रेम पैदा हो सकता है, वेश्या से प्रेम का कोई कारण नहीं है। वह धंधा है। इसलिए पत्नियां अपने सामने अपने पतियों को वेश्याओं को नाचते देखती रहीं, उनसे उन्हें कोई तकलीफ न थी, उसमें कोई खतरा न था, खतरे का कोई कारण न था। वेश्या से संबंध पैसे का है, वह सेक्सुअल है, वह कामुक है। प्रेम खतरा है पत्नी के लिए। उसका कोई खतरा नहीं है।
पुरानी दुनिया का आदमी सोचता तो ऐसा ही रहा है कि बड़ा ही काम-मुक्त था, बड़ा ही नैतिक था। मुझे नहीं दिखाई पड़ता है। क्योंकि नैतिक होने की संभावना अनैतिक होने की संभावना से ही शुरू होती है। इसलिए नैतिक होने की सब संभावनाएं भी कट गई हैं। बीसवीं सदी का आदमी पहली दफा मारल हो सकता है, नैतिक हो सकता है, क्योंकि चुनाव है और उसके पास मौका है कि वह चाहे तो अनैतिक हो जाए और चाहे तो नैतिक हो जाए।
यह जो हमने चुनाव रहित, व्यक्तित्वहीन, विचार रिक्त विश्वास और श्रद्धा का जाल खड़ा किया था वह सब जगह टूट गया है। हम उसी को जोड़ने में लगे हैं। हम किसी तरह उसी जाल को, पुराने जाल को जोड़ने में समय गंवा रहे हैं। जब कि जरूरी है कि हम समझ लें कि पुराना जाल न अब जोड़ा जा सकता है, न अब लौटाया जा सकता है। न उसके वापस लौटने की कोई संभावना है। इसलिए जितनी देर हम उसको सुधारने में और उसको ठीक करने में गंवा रहे हैं, उतनी देर यह प्रसव की पीड़ा लंबी होती चली जाती है। अगर यह साफ हो सके कि वह गया ही, जा ही चुका, तो उसको दफना देने की जरूरत है और तत्काल चिंतन को नया मार्ग देने की जरूरत है कि नये मनुष्य के चुनाव के लिए हम क्या करें। उसके सामने नैतिक, अनैतिक कौन सी धाराएं उपस्थित करें? निश्चित ही पुरानी धारणाएं काम नहीं करेंगी।
जैसे--पुरानी सारी नीति भय पर खड़ी है। सब भय पर खड़ी है नीति, डर पर खड़ी है। डरा रहे थे हम आदमी को। उससे कह रहे थे कि तूने बुरा किया तो फिर आग में, नरक में, कीड़े-मकोड़ों में जिंदगी बसर करनी पड़ेगी और जिसने ये नरकों की कल्पनाएं की थीं, बड़े खतरनाक लोग रहे होंगे क्योंकि उनकी कल्पनाएं बताती हैं कि वे जरूर पैथालाॅजिकल...उनका दिमाग रुग्ण रहा होगा! कैसी कल्पनाएं हैं कि कड़ाहों में आदमी को जलाया जा रहा है। जलते तो बहुत हैं लेकिन जल ही नहीं जाते। बड़े मजेदार लोग हैं, बड़े सैडिस्ट, बड़े दूसरे को दुख देने में उत्सुक लोग रहे होंगे।
आदमी को कड़ाहे में जलाया जा रहा है, जलने की पूरी तकलीफ भोग रहा है वह, लेकिन जल नहीं जाता, क्योंकि जल जाए एक दफा तो फिर दुबारा तकलीफ कैसे रहेगी। उनको तकलीफ दिए चले जाना है, अंतहीन पीड़ा होगी वह। नरक में कीड़े-मकोड़े...उसके शरीर में हजारों कीड़े-मकोड़े इधर से निकलेंगे, उधर से निकलेंगे, सब छेद कर देंगे और दौड़ते रहेंगे, वह आदमी मरेगा नहीं, जिंदा रहेगा, जिंदा रखना जरूरी है। नहीं तो कीड़े जो तकलीफ दे रहे हैं वह तकलीफ कैसे झेली जाएगी। प्यास नरक में लगेगी, पानी भी नरक में होगा लेकिन पी न सकेंगे, जैसे पीएंगे फौरन मूच्र्छित हो जाएंगे। जैसे ही होश आएगा, प्यास लगेगी, जैसे ही पानी के पास जाएंगे, मूच्र्छित हो जाएंगे।
अजीब लोग थे। इनसे ज्यादा वायलेंट, इनसे ज्यादा हिंसक आदमी खोजना कठिन है। लेकिन ये सब साधु-संत थे। इनकी हिंसा का आप विचार करें कि ये किस तरह का इंतजाम कर रहे थे, उन लोगों के लिए जो उनकी बात को न मानेंगे, उनके लिए इंतजाम कर रहे थे। इसलिए इनको, बेचारों को हर मुल्क में अलग-अलग नरक का इंतजाम करना पड़ा। क्योंकि हर मुल्क में दुख की धारणा अलग-अलग है।
हिंदुस्तान में अगर हमने नरक बनाया तो उसमें आग जलानी पड़ी। तिब्बत में अगर नरक में आग जलाओगे तो वे लोग नरक में जाने को राजी हो जाएंगे क्योंकि ठंड से तिब्बत बहुत पीड़ित है। इसलिए तिब्बत के नरक में बर्फ ही बर्फ जमानी पड़ी। वहां बर्फ ही बर्फ है अंतहीन। वहां आग जल ही नहीं सकती, तिब्बत के नरक में।
बड़े मजे की बात है कि नरक भी हमें अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के हिसाब से बांटने पड़े। तिब्बती नरक अलग है क्योंकि तिब्बती आदमी को ठंड से ही डराया जा सकता है और भारत के आदमी को गर्मी से डराया जा सकता है--यह भय! स्वर्ग में हमें इंतजाम करना पड़ा हमें प्रलोभन का, वह भय का दूसरा रूप है। प्रलोभन भी गहरे में भय है कि अगर इस बात को माना तो यह लाभ है और नहीं माना तो यह हानि है। तो हमने स्वर्ग में इंतजाम किए हैं। हमने सब वह इंतजाम कर दिए जिसको धर्मगुरु यहां इनकार करते हैं आदमी के लिए कि बुरा है। यहां वह कहते हैं कि दूसरे की स्त्री की तरफ देखना बुरा है। असल में स्त्री की तरफ देखना ही बुरा है। और वहां--वहां अप्सराएं, जिनको स्वर्गीय वेश्याएं कहना चाहिए उनका इंतजाम किया हुआ है। और मजे की बात यह है कि यहां तो जमीन पर स्त्री आखिर बूढ़ी हो जाती है लेकिन वेश्याएं जो स्वर्ग की हैं, अप्सराएं जिनका नाम है, उनकी उम्र सोलह साल से आगे नहीं बढ़ती है, वहां रुक जाती है।
और यह महात्माओं ने यह सारा का सारा इंतजाम किया हुआ है लोगों को प्रलोभन देने के लिए कि अगर तुमने अच्छे काम किए, अच्छे काम के फल में यह मिलने वाला है। बहिश्त में, स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। यहां शराब चुल्लू भर मत पीना और वहां चश्मे बह रहे हैं। अरब में चूंकि एक परवरटेड सेक्सुअलिटी प्रचलित थी, होमो-सेक्सुअलिटी प्रचलित थी मोहम्मद के वक्त में। चूंकि अरब में पुरुष भी पुरुषों के साथ काम संबंध तय किए हुए थे। इसलिए इस्लाम धर्म को स्वर्ग में अप्सराओं की ही नहीं, गिल्मों की भी व्यवस्था करनी पड़ी, लड़कों की, खूबसूरत लड़कों की। कैसा पागलपन है? होमो-सेक्सुअल के लिए भी इंतजाम किया था स्वर्ग में। यानी जिनका यहां इलाज होना चाहिए उनका वहां इंतजाम किया हुआ है।
यह सारा भय और प्रलोभन पुरानी नीति के आधार में था। ये सब भय और प्रलोभन खतम हो गए हैं। हमें पता नहीं चल रहा है कि इनके आधार खतम हो गए हैं। अब न कोई स्वर्ग के लिए उत्सुक है और न कोई नरक से भयभीत है, लेकिन हम पुरानी नीति की बातें दोहराए चले जा रहे हैं और उनकी बुनियादें गिर गई हैं। मकान के नीचे से जमीन खिसक गई है और छप्पर को सम्हाले खड़े हैं तो छप्पर भारी पड़ रहा है। नहीं, हमें नई नीति को जन्म देना पड़ेगा जो भय पर आधारित नहीं हो सकती। आदमी भय के बाहर हो गया है। बीसवीं सदी का आदमी फियरलेस हो गया है, भय के बाहर हो गया है--उचित है! जब भी कोई आदमी जवान होगा तो भय के बाहर हो जाएगा। बच्चों को डराना आसान है कि चैके में मत जाना, वहां भूत-प्रेत है। लेकिन वह बच्चा जब जवान हो जाएगा, अडल्ट हो जाएगा और उससे आप कहेंगे, भूत-प्रेत है तो वह कहेगा निपट लेंगे। उसको भूत-प्रेत से कोई परिणाम नहीं हो सकता।
मनुष्यता अडल्ट हो गई है--इस सदी में आकर पहली दफे मनुष्यता प्रौढ़ हो गई है, बचपन नहीं रहा आदमी का। अब उसको पुराने भय काम नहीं करते। लेकिन हम पुराने भय दोहराए जा रहे हैं और जब वह भय काम नहीं करते और आदमी अनैतिक होता जाता है तो हम चिल्लाते हैं, आदमी अनैतिक हो गया है। असली बात यह है कि हमारी नीति असंगत हो गई है। हमारी जो माॅरल सिस्टम थी, वह जो नीति की व्यवस्था थी वह इररिलेवेंट हो गई है। उसका कोई संबंध नहीं रह गया है। अब इस नये आदमी को, इस बीसवीं सदी के आदमी को नई नीति चाहिए।
इस नीति के नये आधार चाहिए। यह नई नीति ज्ञान पर खड़ी होगी, भय पर नहीं। यह नई नीति इस बात पर खड़ी होगी कि आज के आदमी को समझ में आना चाहिए कि नैतिक होना उसके लिए आनंदपूर्ण है। नैतिक होना उसके लिए स्वास्थ्यपूर्ण है। नैतिक होना उसके निजी हित में है। यह किसी भविष्य के लिए नहीं है, यह कल मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग के लिए नहीं, आज इसी पृथ्वी पर नैतिक होने का रस--और जो अनैतिक है वह अपने हाथ से अपने पैर काट रहा है। जो अनैतिक है वह भविष्य में नरक जाएगा, ऐसा नहीं; जो अनैतिक है वह आज अपने लिए नरक पैदा कर रहा है।
असल में अनीति, कर्म और फल, नरक...इतना फासला अब नहीं चल सकता। अनीति ही नरक है, यह आदमी के ज्ञान का हिस्सा बन जाए और नीति ही स्वर्ग है, अगर यह आदमी के ज्ञान का हिस्सा बन जाए तो हम भविष्य के लिए नीति के आधार रख पाएंगे, अन्यथा हम न रख पाएंगे। लेकिन मुझे लगता है, ये आधार रखे जा सकते हैं।
आज सारी दुनिया के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि क्रोध के क्षण में आप इसी वक्त नरक में हो जाते हैं। कहीं मरने के बाद नरक में जाने की कोई जरूरत नहीं है। क्रोध के क्षण में आपके सारे शरीर में जहर फैल जाता है। अब किसी को यह कहना कि तुम क्रोध करोगे तो नरक में सड़ना पड़ेगा, बेमानी है।
अब तो क्रोध को लेबोरेटरी में जांच करवाया जा सकता है कि जाओ और लेबोरेटरी में प्रयोग करके देखो कि जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम्हारी कितनी उम्र कम हो जाती है क्रोध के फैलने से। जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम्हारी कितनी बुद्धि क्षीण हो जाती है जहर के फैलने में। जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम्हारा स्वास्थ्य कितना कमजोर हो जाता है जहर के फैलने से। और तुम्हारे बीमार होने की संभावना कितनी तीव्र हो जाती है जहर के फैलने से। और जब तुम क्रोध में हो तब तुम अपनी आत्महत्या कर रहे हो। फ्रेग्मेंट्री है यह आत्महत्या, खंड-खंड, अंश-अंश में है इसलिए पता नहीं चलती। एक आदमी जब पूरे तीव्र क्रोध में होता है तो जितना जहर उसके खून में फैलता है इसका सौ गुना जहर एक आदमी की हत्या के लिए काफी है। यह हमें ज्ञान का हिस्सा बनाना पड़ेगा।
अब भविष्य की नैतिकता ज्ञान का हिस्सा होगी। हमें प्रेम को ज्ञान का हिस्सा बनाना पड़ेगा। अभी आॅक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में एक लेबोरेटरी में, डीलाबार--उस लेबोरेटरी में कुछ बहुत अदभुत प्रयोग हुए हैं जो आपसे कहना चाहूंगा, जो कि भविष्य की नीति को प्रभावित करेंगे। उन प्रयोगों ने बहुत हैरानी में डाल दिया है। एक ईसाई फकीर ने एक लेबोरेटरी में जाकर यह कहा कि मैं जिन बीजों पर प्रार्थना करके पानी डाल दूं वे उन बीजों से जल्दी अंकुरित होते हैं जिन पर मैं प्रार्थना करके पानी न डालूं। लेबोरेटरी...और वैज्ञानिक यह मानने को तैयार नहीं हो सकता कि प्रार्थना किया गया पानी और बीज को जल्दी अंकुरित कर दे!
प्रयोग किया गया, सौ प्रयोग किए गए और आज वह फकीर सही साबित हुआ। एक ही पूड़े के बीज आधे एक गमले में डाले गए, आधे दूसरे गमले में डाले गए। एक सी जमीन, एक सी मिट्टी, एक सा पानी, एक सी धूप, सारा इंतजाम है एक सा। सिर्फ इतना थोड़ा-सा फर्क--एक सा पानी, लेकिन एक पानी पर उस फकीर ने खड़े होकर प्रार्थना की और दूसरे पानी पर प्रार्थना न की, इतना ही फर्क! हर बार सौ प्रयोगों में वह फकीर सही साबित हुआ। जिस बीज पर प्रार्थना करके पानी डाला गया वह बीज जल्दी अंकुरित हुआ, सारे बीज अंकुरित हुए। जल्दी उनमें फूल आए, जल्दी वे फलों को उपलब्ध हुए। उनके फूलों की सुगंध भी और थी, उनके फलों की ताजगी भी और थी, उन वृक्षों की शान भी और थी।
और जिन बीजों पर प्रार्थना नहीं की गई उनमें कुछ भेद था। वे सारे बीज अंकुरित न हुए, अंकुरित जैसे धीरे-धीरे होने थे वैसे हुए और इन पौधों के सामने वे बिलकुल ही ऐसे मालूम पड़ने लगे जैसे कि कोई अनिवार्य तत्व उनको नहीं मिला है जो इन पौधों को मिल गया है। लेकिन वह अनिवार्य तत्व प्रार्थना हो सकती है, इसकी कल्पना तक वैज्ञानिक को कठिन है। लेकिन प्रयोगों ने सिद्ध किया है कि प्रार्थना वह अनिवार्य तत्व हो सकती है।
अब प्रार्थना भगवान से डर कर इस दुनिया में कोई आदमी नहीं करेगा। करना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जो प्रार्थना भय के कारण की जाएगी वह प्रार्थना हो भी नहीं सकती। क्योंकि जिस प्रार्थना में भीतर भय है वह प्रार्थना नहीं बन सकती। असल में जहां भय है वहां प्रेम पैदा नहीं हो सकता। तुलसीदास ने कहाः भय बिनु होहिं न प्रीति।एकदम गलत बात कही है। कहा है कि बिना भय के प्रेम नहीं होता। यह पुराने आदमी का दिमाग था। मैं आपसे कहता हूं, जहां भय है वहां प्रेम कभी होता ही नहीं। जहां भय नहीं है वहीं प्रेम होता है। पुराना आदमी भय के कारण प्रार्थना कर रहा था, हाथ जोड़े, घुटने टेके खड़ा हुआ था। नये आदमी को भयभीत नहीं किया जा सकता। यह उचित है। बुरा भी नहीं हुआ है। यह आदमी का विकास है, यह ग्रोथ है। उसकी चेतना आगे बढ़ी है। अब अगर वह प्रार्थना भी करेगा तो किसी ज्ञान के कारण।
नई नीति भय केंद्रित नहीं, ज्ञान केंद्रित होगी। इस फकीर के साथ एक और घटना घटी है उस लेबोरेटरी में, वह भी आपसे कहना चाहगाूं। जिस बीज पर इसने प्रार्थना की, उसमें से एक बीज का फोटोग्राफ लिया गया कि उसमें कोई फर्क तो नहीं हो गया बीज में। क्योंकि जब बीज के अंकुर में फर्क पड़ा, अगर उसके पत्तों में फर्क पड़ा और फूलों में फर्क पड़ा तो बीज में कोई फर्क पड़ जाना चाहिए, नहीं तो कैसे फर्क पड़ेगा। तो उस बीज का फोटो लिया गया है जिस पर प्रार्थना नहीं की गई और उस बीज का फोटो लिया गया जिस पर प्रार्थना की गई और एक मिरेकल और एक चमत्कार की घटना घटी और आॅक्सफोर्ड जैसी युनिवर्सिटी में। वह चमत्कार की घटना यह है कि जिस बीज पर प्रार्थना की गई...वह फकीर अपने गले में क्राॅस लटकाए हुए था क्राइस्ट का, उस बीज के भीतर क्राॅस का चिह्न आ गया।
अब अगर हम मनुष्य को प्रार्थना की तरफ...और बिना प्रार्थना के मनुष्य अधूरा है और बिना प्रार्थना के मनुष्य की जिंदगी में रौनक नहीं हो सकती। लेकिन बीसवीं सदी अब प्रार्थना को, प्रेम को, घृणा को, क्रोध को, अनीति को, नीति को ज्ञान-केंद्रित बनाएगी। वह नाॅलेज ओरिएंटेड होंगे, फियर ओरिएंटेड नहीं हो सकते। असल में, अज्ञान में भय के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। अब ज्ञान में भय कोई भी उपाय नहीं है। लेकिन हम पुरानी बातचीत दोहराए चले जाते हैं। हम पुराने गुरुओं को दोहराए चले जाते हैं।
हम पुराने शास्त्रों को दोहराए चले जाते हैं उन बच्चों के सामने, जो कि बीसवीं सदी के हैं। इनके बीच हजारों साल का फासला हो गया है। इनका कोई संबंध नहीं रह गया है। अब ये सब शास्त्र और सब ग्रंथ और ये सब गुरु इनके लिए बेमानी हो गए हैं। इनसे इनका कोई आत्मिक संबंध नहीं रह गया है। इनके भीतर और इन गुरुओं और शास्त्रों के बीच अब कोई लेन-देन नहीं है। और आप अगर इन्हीं को दोहराए चले गए तो इन बच्चों को अगर विकृति मिल जाए, अगर यह बीसवीं सदी का आदमी अनीति की तरफ झुकता चला जाए, अगर यह बीसवीं सदी का आदमी अराजक हो जाए, अगर यह बीसवीं सदी का आदमी उच्छृंखल हो जाए, तो जिम्मा किसका होगा? जिम्मा हमारा होगा। जो कि पुरानी बातें दोहराए चले गए, जो कि असंगत हो गई।
नये मनुष्य के लिए नये जीवन का ज्ञान चाहिए। नये मनुष्य के लिए परमात्मा की नई प्रतिमाएं चाहिए, नये मनुष्य के लिए नीति के नये मापदंड चाहिए, नये मनुष्य के लिए जीवन की पूरी नई व्यवस्था चाहिए। वह पुराने से सब छूट गया है। जैसे बैलगाड़ी के चक्के रेलगाड़ी में काम नहीं पड़ते वैसा ही सब पुरानी नीति के चक्के अब नये आदमी के बिलकुल काम पड़ने वाले नहीं। यह अगर हमें स्मरण आ जाए तो कोई कठिनाई नहीं है कि बीसवीं सदी का मनुष्य एक बहुत बड़ा चरण है, एक बहुत बड़ा सोपान है, एक बहुत बड़ी उपलब्धि सिद्ध हो। और यह अगर हमें समझ में न आए तो भी पीछे लौटा नहीं जा सकता। प्रसव की पीड़ा लंबी हो जाएगी और इस प्रसव की पीड़ा में यह खतरा है कि पुरानी पीढ़ियां आदमी को पीछे की तरफ खींचती रहें, और नई पीढ़ियां सिर्फ प्रतिक्रिया में विकृत और परवर्ट हो जाएं। और पुराने आदमी से बचने के लिए कहीं भी दौड़ने लगें और विक्षिप्त हो जाएं।
यह खतरा सामने खड़ा हो गया है। आज सारी दुनिया में चाहे हिप्पी हो, चाहे बीटल हो, चाहे बीटनिक हो और चाहे हिप्पीज हों और चाहे और हजार तरह के नाम हैं, यूरोप और अमरीका में उनके वे हों, चाहे हमारे नेक्सलाइट्स और चाहे कोई और हों, ये सारे बच्चे एक बहुत गहरी घनी पीड़ा में जी रहे हैं। इनकी पीड़ा यह है कि पुरानी सारी व्यवस्था असंगत हो गई और नई कोई व्यवस्था नहीं है। और नई व्यवस्था बच्चे पैदा कर पाएं, इसमें अगर उनको पुरानी पीढ़ियों का सहारा मिल जाए, साथ मिल जाए तो बड़ी सुविधा हो सकती है। नये बच्चे पैदा करेंगे, लेकिन देर लग सकती है--बहुत देर लग सकती है। इतनी भी देर लग सकती है कि चीजें इतनी रुग्ण और इतनी विकृत हो जाएं कि उनको सुधारना निरंतर कठिनाई लगने लगे।
एक अंतिम बात फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। और वह बात यह है आखिरी कि पुराना आदमी दुख को स्वीकार करके जी रहा था। उसकी एक एक्सेप्टिविटी थी दुख के प्रति। उसमें राजी हो गया था। मौत थी तो राजी था, बीमारी थी तो राजी था, गरीबी थी तो राजी था, जो कुछ भी था उसके लिए राजी था। नया आदमी अब दुख को स्वीकार करने को राजी नहीं है, क्योंकि विज्ञान ने सुख की सारी सुविधाएं दे दी हैं, जो पुराने आदमी के पास नहीं थीं। इसलिए अब हम नये आदमी को यदि दुखवादी दर्शन सिखाने जाएंगे तो वह अर्थहीन है। पुराना आदमी मजबूरी में था। दुख था और कोई उपाय न था। मौत थी और उसको आगे हटाने का कोई उपाय न था।
इसलिए हस्तरेखा विज्ञान और ज्योतिष और सब चीजें विकसित करना सुलभ था। आदमी पता लगा लेता था, सत्तर साल जीना है, जीना है। सत्तर साल, बात खत्म हो गई। इकहत्तर साल का कोई सवाल नहीं था। अब यह बात खत्म हो गई है। अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। अब आदमी जितना लंबा जीना चाहेगा, उसके हमारे पास उपाय हैं। और अब यह भी कठिन नहीं है कि किसी आदमी को हम अगर अनंत समय तक जिंदा रखना चाहें तो पचास सालों बाद हम उसे जिंदा रख सकें।
एक आदमी ने--अमरीका में अभी मरा है, वह दस करोड़ डालर की वसीयत करके मरा है कि उसकी लाश को सुरक्षित रखा जाए क्योंकि विज्ञान करीब-करीब उस जगह पहुंच गया है जहां बीस-पच्चीस साल में मरे हुए आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सके। उस आदमी की लाश पर एक लाख रुपया रोज खर्च किया जा रहा है ताकि वह उसी हालत में रहे जिस हालत में मरते क्षण में था। वह आदमी इस आशा में मरा हुआ पड़ा है--तीस-चालीस साल में जब विज्ञान उस जगह आ जाएगा, कि आदमी पुनरुज्जीवित किए जा सकें, वह पुनरुज्जीवित हो सके।
वह करीब आ रहा है। इसलिए अब मृत्यु को रेखा नहीं माना जा सकता। अब ज्योतिष उस अर्थ में सार्थक नहीं हो सकता। अब बीमारी अनिवार्य नहीं है, वह हमारा अज्ञान है। अब कुरूपता भी भाग्य नहीं है, सिर्फ हमारा अज्ञान है। क्योंकि अब भविष्य में बीस-पच्चीस सालों में दुनिया में किसी आदमी के कुरूप होने का कोई कारण नहीं है। तो अब जो भविष्य का मनुष्य होगा वह दुख के आधार पर जीवन को निर्मित नहीं करेगा, इसलिए त्यागवादी नहीं हो सकता। भविष्य का मनुष्य सुख के जीवन पर आधार बनाएगा, इसलिए भोगवादी होगा। और ध्यान रहे, त्यागवाद हमारी मजबूरी थी और इसलिए त्याग यहां करवाते थे, भोग का इंतजाम स्वर्ग में करते थे। जब भविष्य का आदमी यहीं स्वर्ग बना सकेगा तो त्यागवादी नहीं हो सकता।
हमें समझ लेना चाहिए कि दुनिया में अब उसी धर्म का भविष्य है जो जीवन के रस और जीवन के भोग को सहज स्वीकार कर सके। जो जीवन को दुख की दिशा न दे। जो यह न कहे कि संसार दुख है, जो यह न कहे कि जीवन पाप है, जो यह न कहे कि आवागमन से मुक्ति ही हमारा लक्ष्य है।
नहीं, अब जो धर्म यह घोषणा कर सके कि जीवन परमात्मा की देन है, जो धर्म यह घोषणा कर सके कि जीवन परमात्मा का दिया हुआ आशीर्वाद है, अब जो धर्म यह घोषणा कर सके कि जो योग्य हैं, जो सफल हैं, जो जीवन के रस को पूरा लेते हैं, उन्हें अनंत जीवन उपलब्ध होने की संभावना है। ऐसा धर्म भविष्य की पीढ़ी के लिए धर्म बन सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातों को मान लेना आवश्यक नहीं है। खतरनाक भी है मान लेना। मानने से बचना ही चाहिए। मेरी बातों को सोचना। हो सकता है, मेरी सारी बातें गलत हों--शायद आप सोचें और पाएं कि बातें गलत हैं तो भी आपका लाभ होगा। क्योंकि कुछ बातों को गलत जान लेने से आदमी सही की तरफ बढ़ जाता है। और अगर कोई बात सही मालूम पड़ जाए तो वह मेरी न रह जाएगी, वह आपकी अपनी हो जाएगी। जिसको हम विचारपूर्वक जानते हैं कि सही है, वह उधार नहीं रह जाती। वह स्वयं की हो जाती है।
और सिर्फ वे ही सत्य कारगर होते हैं जो स्वयं के हैं। दूसरे के उधार सत्य सिर्फ बोझ बन जाते हैं। मैं आपका बोझ न बनूं, इसकी आखिरी प्रार्थना करता हूं। पुराने गुरु बहुत बोझ बन गए हैं। अब किसी को सिर पर रखने की जरूरत नहीं है।

मेरी बातें इतने प्रेम और शांति से सुनीं उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 

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