शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-उन्नतीसवां
नई दिशा, नया बोध
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
लक्ष्मी ने जो पूछा है,
वह सवाल तो छोटा मालूम पड़ता है लेकिन उससे बड़ा कोई और दूसरा सवाल
नहीं है। नई पीढ़ी को कैसे शिक्षित करना, यह बड़े से बड़ा सवाल
है। और मनुष्यता का सारा भविष्य इस पर निर्भर है। इसकी दो-तीन गहरी बातों को खयाल
में लेना चाहिए।
एक तो अब तक बच्चे का पूरी दुनिया में कहीं भी कोई आदर नहीं है।
बच्चे से आदर हम मांगते थे, बच्चे को आदर देते नहीं थे। प्रेम देते थे, आदर नहीं
देते थे। इसके बहुत ही भयानक परिणाम हुए। इसका सबसे बुरा जो परिणाम हुआ, वह यह हुआ कि जब तक बच्चे को आदर न दिया जाए तब तक हम किसी न किसी गहरे
रूप में यह प्रकट करते हैं कि वह हमसे हीन है। हम उसमें हीनता का भाव पैदा करते
हैं।
यह हीनता का भाव बहुत तरह की विकृतियां पैदा करेगा, करता है और बच्चे बड़े होकर इसी हीनता का बदला जब लेना शुरू करते हैं तभी हमें पता चलता है कि यह क्या हो गया। लेकिन तब भी हम बीमारी को नहीं समझ पाते, क्योंकि बीमारी के बीज बचपन में बोए गए थे और उनका जवाब और उनके फूल और फल बहुत देर बाद आने शुरू होते हैं।
यह हीनता का भाव बहुत तरह की विकृतियां पैदा करेगा, करता है और बच्चे बड़े होकर इसी हीनता का बदला जब लेना शुरू करते हैं तभी हमें पता चलता है कि यह क्या हो गया। लेकिन तब भी हम बीमारी को नहीं समझ पाते, क्योंकि बीमारी के बीज बचपन में बोए गए थे और उनका जवाब और उनके फूल और फल बहुत देर बाद आने शुरू होते हैं।
बच्चों के प्रति किया गया अनादर और अपमान अंततः बूढ़े के प्रति
किए गए अपमान और अनादर का कारण बनता है। लेकिन पुरानी सारी शिक्षा और सारी
संस्कृति बच्चे के सम्मान पर नहीं खड़ी थी। तो बच्चे को कोई सम्मान जैसी बात न थी।
हम बच्चे से सम्मान मांगते थे। और मजे की बात यह है कि सम्मान केवल वही दे सकता है
जिसको सम्मान दिया गया हो। सम्मान प्रतिध्वनि है। इसलिए बाप आदर योग्य था, मां आदर योग्य थी, शिक्षक आदर योग्य था, और ये तीनों मिल कर जिससे आदर
मांग रहे थे, वह बिलकुल आदर योग्य नहीं था। इससे हमने
प्रत्येक बच्चे के मन में निरंतर सदियों से इनफिरिआरिटी और हीनता की ग्रंथियां
हमने पैदा की। वह हीनता की ग्रंथि कितना दुष्परिणाम लाती है उस पर थोड़ा सा खयाल कर
लेना जरूरी है।
असल में जो व्यक्ति एक दफे हीनता के भाव से भर जाता है वह...या
तो उसके पास दो ही उपाय रह जाते हैं,
या तो वह जीवन में दूसरों को हीन सिद्ध करने की कोशिश में लग जाएगा
जो कि रुग्ण है, जैसे राजनीतिज्ञ है। ये हीनता की ग्रंथि से
पीड़ित हैं। यह बड़े पदों पर चढ़ कर, बड़ी कुर्सियों पर बैठ कर
दूसरों को छोटा करने की कोशिश में लगे हैं। ऐसा फिर जीवन में वह बच्चा बहुत तरह के
रास्ते खोजेगा जिनसे दूसरों को कैसे हीन कर सके, छोटा कर
सके। और या फिर वह अगर ऐसी स्थितियों में पला हो कि उसे कोई उपाय ही न रह जाए,
दूसरे को हीन सिद्ध करने का तो वह अपनी हीनता को आत्मसात कर लेगा,
स्वीकार कर लेगा कि मैं हीन हूं।
और कोई व्यक्ति यह मान ले कि मैं हीन हूं तो उसके भीतर जो-जो
संभावनाएं थीं, जो
प्रकट हो सकती थीं, वे अब कभी प्रकट न हो सकेंगी। उसके भीतर
जो-जो बीज थे, फूल बन सकते थे, अब वे
कभी फूल न बन सकेंगे। तो या तो वह सुपीरियर होने की कोशिश में लग जाएगा, श्रेष्ठ होने की। और श्रेष्ठ होने की कोशिश में अनेक लोगों को हीन करेगा।
और या फिर वह खुद हीन होकर बैठ जाएगा जो कि सुसाइडल है। तो या तो वह दूसरों की
हत्या करने का कारण बनेगा या अपनी हत्या करने का कारण बन जाएगा।
तो भविष्य में बच्चों की शिक्षा के संबंध में जो पहली बात मैं
कहना चाहूं, वह
यह कि हमें अब तक की सारी व्यवस्था का जो मूल आधार था, बच्चे
से आदर मांगना और बच्चे को आदर देना--कभी नहीं! उसे आमूल मिटा देना पड़ेगा। बच्चे
को आदर देना पड़ेगा। लेकिन हमारे गहरे मन में कहीं यह बात समझ में नहीं आती कि
बच्चे को और आदर! असल में हम सब भी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हैं क्योंकि हमारे
मां-बाप ने भी हमारे साथ वही किया है। तो छोटे को आदर कैसे दे सकते हैं। लेकिन बड़े
आश्चर्य की बात है कि जिसे हम आदर दे नहीं सकते, उससे आदर
मांग कैसे सकते हैं! बच्चे को आदर देते ही हमारा चुकता खयाल बदलेगा।
पुराना स्कूल था,
उसमें शिक्षक केंद्र पर था, बच्चा नहीं। नया
स्कूल, नई शिक्षा में बच्चा केंद्र पर होगा, शिक्षक नहीं। पुराने परिवार में मां केंद्र पर थी, बच्चा
नहीं; बाप केंद्र पर था, बच्चा नहीं।
नये परिवार में बच्चा केंद्र पर होगा, मां-बाप परिधि पर
होंगे। जीवन की सहज स्वाभाविकता भी यही है कि आने वाला सूरज केंद्र पर हो, जाने वाला सूरज परिधि पर हो। आदमी ने जो व्यवस्था बनाई है उसमें जाने वाला
सूरज केंद्र पर है और आने वाला सूरज परिधि पर है। जो उग रहा है वह महत्वपूर्ण है,
जो विदा हो रहा है, फेड आउट हो रहा है,
जा रहा है, उसे हमने महत्वपूर्ण बना रखा है।
इसका सबसे बड़ा खतरा तो यह हुआ कि जो विदा हो रहा है, वह इस
बच्चे को जिस तरह की भी शिक्षा देगा वह खतरनाक है। वह खतरनाक इसलिए है कि वह जीवन
से विदा होता आदमी है। उसके ऊपर मृत्यु की छाया पड़ने लगी है। और अभी यह जीवन की जो
कोंपल उग रही है, यह मृत्यु की छाया जिस पर पड़ने लगी है वह
इसे शिक्षित करेगा, दीक्षित करेगा और स्वयं महत्वपूर्ण होगा।
तो बहुत संभावना यह है कि वह इस उगते हुए अंकुर को जगह-जगह से काट डाले।
अब तक आदमी ने यही किया है इसलिए अच्छा आदमी पैदा नहीं हो सका।
और यह विसियस सर्किल है कि क्योंकि जो हमारे मां-बाप ने हमारे साथ किया है वह ब्लूपिं्रट
बन जाता है। हम अपने बच्चों के साथ वही करते हैं। बच्चे अपने बच्चों के साथ वही
करते हैं। तो यह सिलसिला लंबा होता है। इसका कोई अंत नहीं मालूम होता। अगर ठीक से
समझें तो आदमी विकास नहीं कर पाता,
सिर्फ पुनरुक्त करता है। हर पीढ़ी दोहरा जाती है वही जो पिछली पीढ़ी
ने उसके साथ किया था।
बच्चों की शिक्षा के संबंध में मौलिक आधार बदलने पड़ेंगे। असल
में उगता सूरज नमस्कार के योग्य है। बच्चा परम आदर के योग्य है, कई कारणों से। एक तो अभी वह
सिर्फ संभावना मात्र है, बीज मात्र है। अभी वह कुछ हो नहीं
गया है, बहुत कुछ हो सकता है। काश, उसे
हमारा सम्मान मिल सके, आदर मिल सके तो उसके बहुत कुछ होने की
संभावनाएं प्रकट होने में सहयोग हो सके। दूसरी बात--अभी वह पवित्र है, निर्दोष है, इनोसेंट है। उम्र आदमी को चालाक कर जाती
है, कनिंग कर जाती है। अनुभव आदमी को करप्ट कर जाता है।
जितना-जितना अनुभवी आदमी होता है उतना बेईमान, उतना चालाक
होता चला जाता है। जिंदगी के सारे धक्के उसे कठोर कर जाते हैं। जिंदगी उसे सब
भांति बिगाड़ जाती है। जिंदगी से बच कर निकलना बहुत कठिन मामला है कि वह आपको न
बिगाड़ पाए। वह इतने धक्के देती है चारों तरफ से कि बहुत संभावना हो जाती है कि आप
बिगड़ जाएं। तो जो अभी अबिगड़ा है, वर्जिन है, कुंआरा है, जो अभी पवित्र है उससे हम आदर मांग रहे
हैं, उसके लिए जो करप्ट हो गया, बिगड़
गया, सड़ गया--उसका हम आदर मांग रहे हैं।
यह पूरी प्रक्रिया बदल देनी पड़ेगी। कठिन होगी बहुत यह बात।
क्योंकि मां यह सोच भी नहीं सकती कि बेटे को कैसे आदर दे, बेटी को कैसे आदर दे। मां
को तो पहली दफे मौका मिला है कि उसके पास भी कोई है कमजोर, अबोध
जिससे वह आदर लेने का मजा नहीं छोड़ पाई है। बाप को संभव नहीं है कि वह बेटे को
कैसे आदर दे। किसी और से नहीं मिल सका आदर, तो कम से कम बेटे
की गर्दन तो वह दबा ही सकता है। उससे तो आदर मांग ही सकता है। इसलिए मनुष्य को
हमने जो शिक्षा दी है उससे मनुष्यता पैदा नहीं होती, उससे
अध्यात्म पैदा नहीं होता। वह ज्यादा से ज्यादा इनफर्मेशन जो पिछली पीढ़ी ने इकट्ठी
की थी, उनको हम ट्रांसफर कर पाते हैं, बस!
हमारी शिक्षा सिर्फ ट्रांसफर है। जो पिछली पीढ़ी ने जान लिया था वह हम नई पीढ़ी को
दे जाते हैं, वस्तु की भांति। जैसे मकान दे जाते हैं,
धन दे जाते हैं वैसा पिछली पीढ़ी की सारी सूचनाएं नये बच्चों को हम
दे जाते हैं। नये बच्चों के भीतर जो जीवन की ऊर्जा थी, जो
जीवन की शक्ति थी, उसके खिलने के जो अनंत-अनंत द्वार थे,
वह सब हम अवरुद्ध कर जाते हैं--एक।
दूसरी बात यह कहना चाहूं कि जब भी हम अपने बच्चों को कुछ सिखाते
हैं तो भूल कर भी यह न समझें--मां हो,
बाप हो, शिक्षक हों, कोई
भी हों--भूल कर भी यह न समझें कि जो हम सिखा रहे हैं वह अनिवार्यरूपेण बच्चे के
लिए सही होगा। हमारा शिक्षक कभी भी विनम्र नहीं रहा, बहुत
अविनम्र है। ह्युमिलिटी जैसी चीज शिक्षक में कभी नहीं है। बल्कि डर तो यह है कि जो
लोग बहुत अविनम्र हैं, बहुत इगोइस्ट हैं वे ही लोग शिक्षक
बनने की तरफ गतिमान होते हैं क्योंकि छोटे बच्चों के साथ वे पूरी तरह अविनीत हो
सकते हैं और पूरी तरह ज्ञानी हो सकते हैं कि वे जो कह रहे हैं, वह परम सत्य है।
नहीं, परम सत्य किसी को भी ज्ञात नहीं है। और जो सत्य आपने जाने, मैंने जाने, वे परिस्थितिगत सत्य हैं, परम सत्य नहीं है। वे रिलेटिव ट्रूथ हैं, सापेक्ष
सत्य हैं जो अनुभव ने हमें दिए। जब हम अपने बच्चों को उन्हें दे रहे हैं तो एक बात
ध्यान में रख कर देना कि बच्चे उस दुनिया में नहीं जीएंगे, जिसमें
हम जीए थे। और बच्चों की जिंदगी की परिस्थितियां वे ही नहीं होंगी, जो हमारी थीं। बच्चे बिलकुल नये रास्तों पर, नई
दुनिया में, नई परिस्थतियों में जीएंगे। हमारा दिया हुआ
ज्ञान उन्हें नई परिस्थितियों में जीने में बाधा न बन जाए, यह
बहुत ध्यान रखने की जरूरत है। क्योंकि ज्ञान हम दे इसलिए रहे हैं कि उनके जीवन में
वह साधन बनेगा। उनको क्रिपल्ड नहीं करेगा, पंगु नहीं कर
जाएगा, लंगड़ा नहीं कर जाएगा। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा नई
पीढ़ी को पंगु करने के काम आती है। उसके सब हाथ-पैर बांध जाती है, आंख-कान फोड़ जाती है।
फोड़ इसलिए जाती है कि पिता कहता है कि मेरी आंख ठीक है, तुम मेरी आंख उधार ले लो और
अपनी आंख फोड़ डालो। क्योंकि मैं सत्तर साल के अनुभव से इस आंख को कमा पाया। अब तुम
आज के बच्चे हो। तुम्हारी इस आंख, गैर अनुभवी है, इसे हटाओ। मेरी आंख लो, मेरे कान से सुनो, मेरी आंख से देखो। क्योंकि मैंने सत्तर साल में जो देखा और सुना है,
वह मैं तुम्हें दे देता हूं। इस देने की कोशिश में बच्चे की अपनी
सेंसिटिविटी, अपनी संवेदनशीलता, अपनी
रिसेप्टिविटी, ग्राहकता वह सब मर जाती है। उसकी अपनी आंख की
हत्या करके हम उसको आंख देते हैं।
आने वाली शिक्षा अगर सम्यक होना चाहे तो, शिक्षक को, पिता को, पुरानी पीढ़ी को भलीभांति जान लेना चाहिए कि
तुम्हारी आंख बच्चों के काम नहीं आएगी। तुम किसी और रास्ते से गुजरे थे जिस पर
बच्चे कभी नहीं गुजरेंगे। लेकिन पहले यह संभव हो सका था। क्योंकि दुनिया में ज्ञान
बहुत मुश्किल से बदलता था, आज से डेढ़ सौ साल पहले। ईसा के
मरने के दो हजार साल में जितना ज्ञान विकसित हुआ, उतना पिछले
पांच वर्षों में विकसित हुआ है। दो हजार साल में जितना ज्ञान विकसित होता था,
उतना आज पांच वर्षों में होता है। तो दो हजार साल में कितनी पीढ़ियां
बदल जाती थीं, ज्ञान वही होता था। इसलिए पिता सुनिश्चित रूप
से कहता था कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है। मेरे पिता ने भी यही कहा था, उनके पिता ने भी यही कहा था और अनुभव की परीक्षा कहती है कि हम जो कहते
हैं, वह ठीक है। आज हालत बिलकुल बदल गई है। जो पिता जानता है
वह बेटे कभी नहीं जानेंगे। आज बेटे और बाप के बीच इतनी बड़ी खाई हो गई है कि उस खाई
में अगर किसी पिता ने, शिक्षक ने, पुरानी
पीढ़ी ने यह कोशिश की कि हम अपनी आंख दे जाएं तो हम बच्चों को अंधा करने में सहयोगी
होंगे, आंख देने में नहीं।
तो इस बात का ध्यान रखना,
अपना अनुभव देना, लेकिन अपना अनुभव बच्चे की
अपनी संवेदनशीलता को नष्ट करने वाला न बने, सिर्फ उत्प्रेरक
बने, इंस्परेशन हो, प्रेरणा हो,
बच्चे की आंख का सब्स्टीट्यूट न हो, जो बड़ा
शिक्षा के सामने सवाल है। कि उसकी आंख पर चश्मे की तरह हावी न हो जाए, उसके देखने में सहारा बने। हम एक बच्चे को चलना सिखाते हैं, तो अपने पैर उसे नहीं दे देते। और बूढ़े के पैर अगर बच्चे को मिल जाएं,
तो बड़ी आकवर्ड हालत होगी। चलने का मन होगा बच्चे का और पैर बूढ़े के
होंगे। बच्चा इतनी मुश्किल में पड़ जाएगा जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
ऐसा ही हुआ है शिक्षा में और ज्ञान में कि मन बच्चे का है, जो दौड़ना चाहता है, छलांग लगाना चाहता है, वृक्षों पर चढ़ना चाहता है,
समुद्र पार करना चाहता है, पहाड़ों को खोदना
चाहता है। और पैर बूढ़े के हैं; जो कि कहीं मसाज करवाते तो
ठीक था, वह कहीं जाना नहीं चाहता। ज्ञान के संबंध में ऐसा
हुआ है। नहीं, इसलिए हम बच्चे को पैर नहीं देते, हाथ का सहारा देते हैं उस समय तक, वह भी जब तक उसके
पैर अपने नहीं सम्हल जाते। जैसे ही उसके पैर सम्हल कर चलते हैं, हाथ अपना खींच लेते हैं।
ज्ञान का जो ट्रांसफर है--और शिक्षा का एक ही मतलब है ज्ञान का
नई पीढ़ी को हस्तांतरण--वह जो पुरानी पीढ़ी ने जान लिया वह नई पीढ़ी को दे जाए। उस
हस्तांतरण में ध्यान रखना कि हमारा ज्ञान ऐसा ही हो जैसे चलते हुए बच्चे को थोड़ा
सहारा देते हैं। सहारा बैसाखी न बन जाए कि जिंदगी भर हमारे ही सहारे की बैसाखी लगा
कर ही बच्चा चल सके, खुद लंगड़ा हो जाए। और जैसे-जैसे बच्चे के पैर में बल आता है, अपना हाथ खींचते चले जाते हैं। शिक्षा की कीमती से कीमती जो वैल्यू और
मूल्य है, आज मेरी दृष्टि में वह यही है कि पुराना ज्ञान,
हाथ का सहारा देकर तत्काल हटने लगे, और नई जो
संभावना है वह सीधी, वर्जिन, अनकरप्टेड
प्रकट हो सके।
तीसरी बात, जो इन दोनों से भी ज्यादा जरूरी है, और वह यह है कि
हम जो हैं--पिता हों, मां हों, शिक्षक
हों, कोई भी हों--हमें यह भलीभांति जान लेना चाहिए, इसे बहुत स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि एक बच्चे को शिक्षित करना
अनिवार्य रूप से स्वयं को भी शिक्षित करना है। असल में हम जब एक बच्चे को कुछ सिखा
रहे होते हैं तो बच्चा सीखता है, और हम सिखाते हैं, ऐसा नहीं है। बच्चा भी सीखता है और हम भी सीखते हैं।
बच्चे को सिखाना एक प्रोसेस है जिसमें हम दोनों इनवाल्व हो जाते
हैं। लेकिन पुरानी दुनिया में ऐसा न था। शिक्षक सिखाने वाला था, बाप सिखाने वाला था,
बेटा सीखने वाला था; वर्ग विभाजन सीधा था,
साफ था। कोई बताने वाला था, कोई मानने वाला
था। लेकिन जो भी लोग शिक्षक की दुनिया से थोड़े-बहुत संबंधित रहे हैं, वे जानते हैं कि बच्चे को सिखाने में दो पीढ़ियों के बीच एनकाउंटर होता है।
एक सत्तर साल का वृद्ध एक सात साल के बच्चे को कुछ सिखा रहा है। दो पीढ़ियां सत्तर
साल के फासले पर हाथ मिलाती हैं। बड़ी खाई है दोनों के बीच। आर-पार दोनों हाथ
फैलाते हैं, सत्तर साल का बूढ़ा सात साल के बच्चे तक हाथ
पहुंचाता है। दोनों को सीखने का मौका है, क्योंकि सात साल का
नया तत्व सत्तर साल के बूढ़े तत्व को बहुत कुछ सिखाएगा। सत्तर साल का अनुभव,
ज्ञान सात साल के नये बच्चे को बहुत कुछ सिखाएगा।
इसलिए शिक्षा के लिए तीसरी बात में मैं कहना चाहता हूं कि कोई
सिखाने वाला और कोई सीखने वाला,
यह भ्रम अब जाना चाहिए। सीखने की एक प्रक्रिया है। इसलिए अच्छी
दुनिया में जब अच्छे स्कूल कभी होंगे, अभी तो कल्पना हो सकती
है--वहां पता लगाना मुश्किल होगा कि कौन शिक्षक है और कौन सीख रहा है। वह क्लास
सीखने वालों का एक समूह होगा जिसमें पुरानी पीढ़ी भी मौजूद होगी, जिसमें नई पीढ़ी भी मौजूद होगी। नई पीढ़ी भी बहुत कुछ सिखाएगी, क्योंकि नई पीढ़ी बिलकुल नये तत्व लेकर आई है। पुरानी पीढ़ी बहुत कुछ
सिखाएगी क्योंकि पुरानी पीढ़ी बहुत कुछ पुराना ज्ञान लेकर आई है।
तो शिक्षण जो है वह,
वह एक एकतरफा, वन वे ट्रैफिक नहीं है। मजा तो
इसी में है कि मां को, कि वह सिखाए और कोई सीखे; बाप को कि वह सिखाए और कोई सीखे। क्योंकि जब हम किसी को सिखाते हैं तब
हिंसा का बड़ा सुख मिलता है। जब भी हम किसी को कुछ सिखाते हैं तो उसकी गर्दन हमारे
हाथ में हो जाती है। हम ज्ञानी हो जाते हैं वह अज्ञानी हो जाता है। हम जानने वाले
हो जाते हैं, वह न जानने वाला होता है। इसलिए हिंसक वृत्ति
कितना रूप ले सकती है इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। सबसे सौम्य रूप उसका शिक्षा
देने का होता है। किसी को शिक्षा देना, किसी को कुछ सिखाना,
और जब हम किसी को कुछ सिखा रहे हैं, तब हमें
बड़ा मजा आ रहा है, अहंकार की बड़ी तृप्ति हो रही है कि मैं
जानता हूं और तुम नहीं जानते। और कितनी बेहूदी और एब्सर्ड है यह बात कि मां अपने
बेटे के सामने इस तरह खड़ी है कि मैं जानती हूं और तुम नहीं जानते। और जब भी कोई यह
कहता है, हम जानते हैं और तुम नहीं जानते, हमसे सीखो। तभी वह दूसरे की सीखने की क्षमता को भारी आघात पहुंचा देता है,
क्योंकि अहंकार इस दुनिया में शिक्षक नहीं हो सकता।
शिक्षण किसी की तरफ से किसी को सिखाया जाना नहीं है--किसी की
तरफ से किसी के लिए आमंत्रण है,
निवेदन है, आग्रहहीन। अभी मैं एक छोटी सी
किताब पढ़ रहा हूं। यह किताब मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी है और एक स्त्री ने लिखी है। वह
एक छोटे बच्चे के साथ रहना शुरू करती है। उसकी उम्र सत्तर साल की है। उस छोटे
बच्चे की उम्र कोई तीन साल है। वह इस प्रयोग को करती है, जो
मैं कह रहा हूं। वह यह नहीं कि वह शिक्षक है और वह शिक्षित है, उसको सिखाया जाना और मुझे सिखाना है, न, हम दोनों साथ रह कर सीखेंगे। तो उसने जो अनुभव लिखा है वह बहुत हैरानी का
है।
वह बच्चे को सिखाती ही नहीं, बच्चे से सीखती भी है। अब बच्चा है, समुद्र के किनारे दौड़ रहा है, सीपियों को उठा रहा
है। रेत को उठा कर सिर से छू कर उसका स्पर्श कर रहा है, तो
वह बूढ़ी औरत भी रेत को उठा कर सिर से उठा कर स्पर्श करती है कि बच्चे को क्या पता
चल रहा है, वह मैं भी तो जानूं। बच्चा जब रेत को उठा कर सिर
पर डाल रहा है तो बूढ़े आदमी को सिर्फ इतना ही पता चलता है कि बाल खराब कर रहे हो
और फिर सफाई करनी पड़ेगी। उससे ज्यादा कुछ पता नहीं चलता क्योंकि वह सिखाने वाला
है। लेकिन बच्चा जब रेत को सिर पर डाले चला जा रहा है तो बच्चे को भी कुछ अनुभव हो
रहा है जो कि सीखने योग्य हो सकता है।
तो वह बूढ़ी औरत अपने सिर पर भी उस बच्चे के साथ रेत डाल रही है
और तब उसने लिखा कि जब बच्चे के साथ समुद्र तट पर खेलते, रेत में दौड़ते, बच्चे के साथ चिल्लाते, तितलियों को पकड़ते, पानी में भागते-गिरते; तब उसने कहा, मैं कई बार भूल जाती हूं कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। मेरा सारा बचपन वापस
लौट आता है। और उस बच्चे के साथ साल भर रह कर उन दोनों के बीच एक सिम्पैथी बनती है
जो शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बननी चाहिए। क्योंकि अब वह बच्चा बच्चा है,
और बूढ़ी बूढ़ी है, ऐसा नहीं, अब ये दोनों मित्र हैं। अब वह बच्चा आकर उसका हाथ पकड़ कर उससे कहता है कि
बाहर एक मेढक आया हुआ है, आवाज बड़ी अदभुत है, चलो। वह उसे घसीट रहा है सत्तर साल की स्त्री को, वह
उसके पीछे भागी जा रही है। वह बच्चा एक झाड़ी में छिप कर मेढक की आवाज सुन रहा है और
वह बूढ़ी भी उसके पास कान रख कर आवाज सुन रही है।
इतने विनम्र हों माता और पिता और शिक्षक कि बच्चे को सिर्फ
सिखाने का मजा न लें, मजा बहुत है सिखाने का। हिंसा है इसलिए मजा है। सिखाने में मजा यह है कि
दूसरे को हम अपने हिसाब में ढाल रहे हैं। मैं जब मैं कहता हूं कि आपकी गर्दन थोड़ी
ऊंची है, हम थोड़ा छील कर छोटा करेंगे। आपका पैर जरा लंबा है,
इसे हम जरा छोटा करके शेप में ला देंगे, तब हम
हिंसा का मजा ले रहे हैं। जब बच्चे को कहते हैं कि नहीं, इतने
जोर से नहीं चिल्ला सकते हो, तब भी हम हिंसा का मजा ले रहे
हैं। जब हम उसको कहते हैं कि ऐसा नहीं कर सकते हो, तब भी हम
हिंसा का मजा ले रहे हैं। असल में हम डाॅमिनेशन का मजा ले रहे हैं। शिक्षक जो है
वह बहुत गहरे में छिपा हुआ डिक्टेटर है, तानाशाह है। और
बच्चे पर जितनी तानाशाही कायम हो सकती है उतनी और किसी पर नहीं हो सकती है।
अगर हिटलर को चार बच्चे होते तो हिटलर अच्छा आदमी हो सकता था।
अच्छा आदमी इसलिए हो सकता था कि जो मजा उसे बच्चों को डाॅमिनेट करने में मिल जाता, उस मजे को खोजने उसे इतने
बड़े युद्ध को करने की जरूरत न होती। वह उसको नहीं मिल पाया।
यह तीसरी बात बहुत खयाल में लेने जैसी है कि शिक्षण की
प्रक्रिया दोनों तरफ से यात्रा है। नहीं,
बूढ़ा खड़ा रहेगा अपनी जगह सख्त पत्थर की तरह और बच्चे को सीखने आना
पड़ेगा अकेला, तो ऐसी शिक्षा किपिल्ड करेगी। नहीं, बूढ़ा भी जाए, बच्चे से मिले हाफ-वे। कहीं जाकर बीच
जगह पर मिले, जहां वह बूढ़ा नहीं रह जाऐगा, जहां बच्चा बच्चा नहीं रह जाएगा, जहां दो साथी,
दो सहयोगी, दो मित्र सीखने की दुनिया की
यात्रा पर निकलें।
मैंने कहा--यह तीसरा तत्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, और इसलिए मेरी यह अपनी समझ
है कि मां मुश्किल से ही मां होने का मजा ले पाती है। सिर्फ प्रसव की पीड़ा झेलती
है। क्योंकि मां होने का जो असली मजा है वह एक ऐसे बच्चे को पा जाना है जिसके साथ
हम फिर से बच्चा हो सकें। बाप होने का जो सुख है, वह एक ऐसे
बच्चे को पा जाना है, जिसके साथ बाप फिर दौड़ सके, कुश्ती लड़ सके, नाच सके, वह
संभव नहीं है। बाप सख्त खड़ा है, वह गंभीर है, गुरु गंभीर। और बच्चा अगर नाच रहा है, तो उसकी आंखें
कह रही हैं कि पाप हो रहा है, नरक चले जाओगे, बंद करो। वह गुरु गंभीरता बच्चों के बीच और दूसरी पुरानी पीढ़ी के बीच कोई
तादात्म्य, कोई पैसेज, कोई ब्रिज,
कोई सेतु नहीं बनने देती। वे अलग खड़े रह जाते हैं, जहां तक मेरी समझ है।
अभी एक युवक ने मुझसे आकर कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में शायद
अपने पिता से दो सौ शब्द बोले हों। हमारा कोई मिलन ही नहीं होता। मिलन से डरते भी
हैं। पिता भी डरता है, बेटा भी डरता है। इसलिए पिता और बेटा एक ही कमरे में छोड़ दिए जाएं,
तो उस कमरे में जितना टेंशन होता है, उतना दो
दुश्मन भी उस कमरे में छोड़ जाएं, तो नहीं हो सकता। बाप भी
परेशान हो जाता है कि हटो यहां से क्योंकि बेटे के सामने वह एक शक्ल कायम रखना
चाहता है जो उसकी असली शक्ल नहीं है। बेटे को पता नहीं कि वह भी क्लब में बैठ कर
हंसी-मजाक करता है। बेटे को पता ही नहीं कि उसका बाप भी हंस सकता है। लड़की को पता
नहीं कि उसकी मां भी कभी किसी को प्रेम कर सकती है, कि उसकी
मां भी किसी को प्रेम करती है, कि उसकी मां भी किसी के प्रेम
में, किसी की गोदी में बिलकुल ही छोटी और बच्ची हो जाती है,
कि उसका बाप भी किसी के प्रेम में किसी के पास जाकर बिलकुल बचपन की
बातें बोलने लगता है, तुतलाने वाली बातें बोलने लगता है जो
कि उसे पता नहीं।
बाप और मां की एक झूठी इमेज बच्चे के सामने पड़ती है और यह इमेज
बहुत क्रिपलिंग है और बहुत पंगु करने वाली है और यही हमारी सारी शिक्षा है। इससे
हम बच्चे को विकृत कर देते हैं और नष्ट कर देते हैं। मां-बाप जितना बच्चों को
मारते हैं उतना और कोई भी नहीं मारता। उनके बाद मारने वालों में नंबर दो जो है, वह शिक्षक है। हम सब मिल कर
उसको मार डालते हैं। फिर बच्चा नहीं रह जाता, सिर्फ बच्चे की
जगह हमारी आकांक्षित एक प्रतिमा रह जाती है। अगर बच्चा थोड़ा बलशाली हुआ तो वह
रिएक्ट करता है, बगावती हो जाता है। अगर गोबरगणेश हुआ तो
राजी होकर सेटल हो जाता है। लेकिन जिंदगी खत्म हो जाती है दोनों हालातों में। अगर
बच्चा राजी होकर सेटल हो जाता है और स्थापित जगत का हिस्सा बन जाता है तो वह एक
मशीन हो जाता है। अगर बगावती हो जाता है तो चीजों को व्यर्थ ही तोड़ने-फोड़ने लगता
है और बनाने की क्षमता खो देता है।
पुराने बच्चों ने पहला विकल्प चुना था, गोबरगणेश होने का, वे राजी हो जाते थे। पांच हजार साल में वह विकल्प बहुत उबाने वाला साबित हुआ।
नए बच्चे दूसरा विकल्प चुन रहे हैं कि वे तोड़-फोड़ करके राजी हैं। लेकिन दोनों
विकल्प असुंदर हैं और दोनों का जिम्मा गहरे में शिक्षण की प्रक्रिया में हैं।
प्रक्रिया वही है।
ये तीन बातें ध्यान में अगर हों तो विस्तार में कैसे करना है, वह तो दूसरी बात है। अगर यह
ध्यान में हो, तो होना शुरू हो जा सकता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, आप जो कहते हैं, पहली तो बात यह--ठीक आप कहते हैं कि
बहुत से स्कूल विशेष कर पश्चिम में, कुछ यहां भी बच्चों को
पूरी स्वतंत्रता दे रहे हैं। दी गई स्वतंत्रता का बहुत मूल्य नहीं है। दी गई
स्वतंत्रता भी परतंत्रता का एक ढंग है। देने वाले आप ही हैं। नहीं, मैं स्वतंत्रता देने की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि
देने वाले आप ही हैं। अगर पुरुष कहे कि हम स्त्रियों को स्वतंत्रता देने का इंतजाम
कर दिए हैं, उस स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। वह सिर्फ
परतंत्रता को स्वतंत्रता का नाम देना होगा जो कि और खतरनाक है। क्योंकि परतंत्रता
परतंत्रता ही रहे, साफ परतंत्रता समझी जाए तो कम से कम
आनेस्ट होती है। और जब हम स्वतंत्रता देने की बात करने लगते हैं, लेकिन जब दी जाती है स्वतंत्रता तो स्वतंत्रता नहीं रह जाती।
कहीं दुनिया में मां-बाप ने अभी कोई स्वतंत्रता नहीं दी है और न
शिक्षक कहीं ने कोई स्वतंत्रता दी है। स्वतंत्रता दे रहा है वह, यह मैं नहीं कह रहा हूं,
यह निगेटिव बात हुई कि हम स्वतंत्रता दें। न, मैं
बहुत पाजिटिव बात कह रहा हूं कि बच्चे को आदर, सम्मान,
बच्चे से सीखने की संभावना। यह बहुत दूसरी बात कह रहा हूं मैं। मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि परतंत्रता हटा लें। हटाएगा जो, वह
मालिक है हटाने में भी। मैं बहुत पाजिटिव बात--मैं यह कह रहा हूं कि बच्चों को
स्वतंत्रता नहीं दे देनी है क्योंकि आप हैं कौन देने वाले? और
अगर आप स्वतंत्रता देने वाले हैं तो कल आप फिर कंट्रोल कर सकते हैं, परतंत्रता फिर ला सकते हैं। लेना-देना आपके हाथ में है। यह मैं नहीं कह
रहा हूं, मैं एक पाजिटिव वैल्यू की बात कर रहा हूं।
वह मैं यह कह रहा हूं कि बच्चे को आदर, सम्मान, रिवरेंस...। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि बच्चे मां-बाप को आदर न दें,
अनादर की उनकी इच्छा नहीं है, मैं यह नहीं कह
रहा हूं। मैं मां-बाप से यह कह रहा हूं कि वे बच्चों को आदर दें। मां-बाप बरदाश्त
करने को राजी हो जाएंगे कि हमें आदर न दिया जाए, इससे कोई
बड़ी क्रांति नहीं होती। नहीं, बड़ी क्रांति का मतलब यह है कि
मैं यह कह रहा हूं कि बच्चा बहुत आदर योग्य है। मां-बाप टालरेट कर सकते हैं इस बात
को कि बच्चे आदर न दें, यह टालरेंस होगी उनकी, यह उनकी सहिष्णुता होगी, सुशिक्षण होगा, संस्कृति होगी, लेकिन जिस, जिस
क्रांति की मैं बात कर रहा हूं वह बहुत दूसरी है।
वह मैं यह कह रहा हूं कि मां-बाप की आदर मांगने की आकांक्षा ही
गलत थी। बच्चे को आदर दिया जा सके,
इसकी संभावना खुलनी चाहिए। तब हम स्वतंत्रता देंगे, ऐसा नहीं, जिसको हम आदर करते हैं वह स्वतंत्र हो
जाता है। स्वतंत्रता आदर के पीछे छाया की तरह चलती है। जिसे हम आदर करते हैं उसे
हम परतंत्र नहीं कर सकते हैं। तब स्वतंत्रता सहज आएगी। और जो यह, यह जो खयाल है कि कंट्रोल न किया जाए, यह जो खयाल है
कि बच्चे जैसे बढ़ना चाहें बढ़ें, मैं इसके पक्ष में नहीं हूं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बच्चे जैसे बढ़ना चाहें बढ़ें, क्योंकि
मैं मानता हूं कि जरूरी है कि बच्चे को किसी दिन कोई हाथ का सहारा देकर पैर पर
चलाए, नहीं तो अपने आप बच्चा पैर पर चलेगा नहीं।
पीछे अभी एक कोई दस साल पहले कानपुर के पास एक भेड़ियों के
द्वारा पाला हुआ बच्चा पकड़ा गया। वह चार हाथ-पैर से ही चलता था। और छह महीने लग गए
उसको दो पैर पर खड़े होने की तैयारी करवाने में, और उसी तैयारी में वह मरा। क्योंकि बाहरी उसकी
सारी मसल्स, सारी व्यवस्था चार हाथ-पैर से चलने वाली हो गई,
वह सब अकड़ गई। उसके पहले भी कलकत्ते के जंगलों में पास में दो
लड़कियां मिलीं, वे भी भेड़िए उठा कर ले गए थे, उन्होंने पालीं। वे भी चार हाथ-पैर से चलती थीं, दो
से नहीं चलती थीं।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बच्चे को कोई सहयोग न दे पुरानी पीढ़ी, कि उसको जैसा होना चाहे, हो जाए। यह भी बच्चे के
प्रति अनादर का नया रूप है। यह भी बच्चे के असम्मान की नई प्रक्रिया है। अब,
अब तक बच्चे के लिए हम सब तरफ से ऐसा बनाना चाहिए, इसकी फिकर में थे। वह अगर आप नहीं करने देते तब हम निगलेक्ट करते हैं कि
बच्चे को जैसा होना हो, हो जाए। इसे हम स्वतंत्रता का नाम
देंगे, सब देंगे, लेकिन बेईमानी की बात
है। मैं नहीं मानता हूं कि बिना पुरानी पीढ़ी के सहारे के बच्चा कुछ हो सकेगा,
आदमी भी हो सकेगा, यह भी शक है। और कुछ होना
तो बहुत दूर की बात है। नहीं, सहारा तो देना होगा, लेकिन सहारा उसे बांधने वाला न हो। कंट्रोल भी रखना होगा, लेकिन कंट्रोल उसे बांधने वाला न हो, बल्कि
अनकंट्रोल में उसे पहुंचाने वाला हो।
इसलिए डेलिकेट है ज्यादा बात। सारी कठिनाई हमारी यह है कि सीधे
पोलेरिटी में सोचना तो सदा आसान पड़ जाता है। या तो हम सोचते हैं कि पूरी तरह
कंट्रोल्ड हो कि खाए तो वही जो हम कहें,
उठे तो तब जब हम कहें, सोए तो तब जब हम कहें,
श्वास ले तो तब जब हम कहें, यह तो कंट्रोल है!
या आप कहते हैं कंट्रोल नहीं, बस ठीक है फिर। गड्ढे में
गिरें तो हम खड़े होकर देखते रहें, क्योंकि स्वतंत्रता है उसे
कि उसे जो होना है वह हो जाए।
अमरीका में वही हुआ। पहली पोलेरिटी से वह दूसरी पोलेरिटी पर गए।
वह भी मां-बाप का क्रोध है। वह भी कहते हैं कि अगर सारे शिक्षा शास्त्री और सारे
मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि हमने बिगाड़ दिया है बच्चों को, तो ठीक है। तब हम छोड़ते हैं,
अब जो होना है हो जाए। मैं दोनों में से दोनों के लिए राजी नहीं
हूं। दोनों ही गलत दृष्टिकोण हैं क्योंकि जिंदगी पोलेरिटी में नहीं बांटी जा सकती।
जिंदगी सदा ही विरोधी पोल्स को एक साथ लेकर चलती है और इसलिए जिंदगी का मामला बहुत
ही नाजुक है। वह ऐसा नहीं है जैसा हम उसे पकड़ लेते हैं। वह ऐसा ईदर-आर वाला नहीं
है, या तो यह या इससे उलटा। यह भी और वह भी और दोनों के बीच
से मार्ग जाता है। न, बच्चे को तो मां-बाप को नियंत्रण देना
ही होगा! इसलिए नहीं कि मां-बाप जानकार हैं, ताकतवर हैं,
बल्कि इसलिए कि बच्चा कोमल है, अपरिचित है,
अज्ञात रास्तों पर है। इसलिए सहारा तो उनका पूरा चाहिए, नियंत्रण उनका पूरा चाहिए। बस इतना ही ध्यान रखने की जरूरत है कि नियंत्रण
बच्चे की आत्मा की हत्या करता है या इस बात के लिए बच्चे को योग्य बनाता है कि कल
वह नियंत्रण के बाहर हो सके। नियंत्रण इसलिए कि कल नियंत्रण न रह जाए। नियंत्रण दो
तरह का हो सकता है। इसलिए कि नियंत्रण रोज बढ़ता चला जाए और अंत में फांसी बन जाए,
या नियंत्रण इसलिए कि नियंत्रण रोज कम होता चला जाए और अंत में
स्वतंत्रता बन जाए।
पश्चिम में जो हुआ है वह सुखद नहीं हुआ। वह रिएक्शनरी है, रिवोल्यूशनरी नहीं है। वह
प्रतिक्रिया है। जो होना था उससे उलटे जाने का खयाल है। अगर आदमी दो पैर के बल खड़े
होकर अच्छी दुनिया नहीं बना पाया तो हम कहते हैं, हम
शीर्षासन करके अच्छी दुनिया बना लेंगे। लेकिन आदमी वही रहेगा। शीर्षासन करने से
फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ इनवर्टेड खड़ा हो जाएगा। सारी दुनिया की पांच-छह हजार वर्ष
की शिक्षा की जो व्यवस्था थी, उससे उलटी खड़ी हो गई वह। उसने
भी नुकसान पहुंचाया है, यह भी नुकसान पहुंचा रही है। एक ऐसी
शिक्षण व्यवस्था चाहिए जो पुरानी पीढ़ी को पूरी की पूरी तरह सहयोग ले लेती हो और
फिर भी नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से आगे जाने में बाधा न बनती हो। अब या हम कहते हैं
कि हम बच्चों को स्वतंत्रता दे रहे हैं लेकिन हम देने वाले बीच में खड़े हैं,
जिन्होंने स्वतंत्रता दी।
यह स्वतंत्रता नहीं है,
सम्मान की बात मैं कह रहा हूं, स्वतंत्रता की
नहीं। बच्चे कोई कैदी नहीं हैं कि जेल की दीवाल तोड़ दी और जंजीरें तोड़ दीं और कहा
कि हाथ जोड़ा, अब जाओ। उनको स्वतंत्रता देने से कुछ होने वाला
नहीं है। क्योंकि कोई कारागृह ऐसा नहीं है कि हमने उनको छोड़ दिया और मामला समाप्त
हो गया। कि अब तुम्हें जहां जाना हो, तुम जा सकते हो। हमारी
तरफ से स्वतंत्र हो। यह सम्मान न हुआ, यह आदर न हुआ। यह आने
वाले, उगने वाले सूरज के प्रति सदभाव न हुआ। यह सिर्फ क्रोध
हुआ कि ठीक है तुम हमारी व्यवस्था को तुम कारागृह कहते हो? तो
ठीक है, हम कारागृह के बाहर छोड़े देते हैं। तो एक मां और बाप
अपने बेटे को छोड़ दें कि जब तुम्हें चलना हो तो दोनों पैर से चलना, अन्यथा जैसा तुम्हें करना हो। वह कभी दो पैर से खड़ा नहीं होगा। और इसकी
बहुत चिंता न करें कि जो मैं कह रहा हूं, वह नया है या
पुराना है। क्योंकि सत्य के नये और पुराने होने का कोई सवाल नहीं है। वह सत्य है
या नहीं, ठीक है या नहीं, इसकी फिकर
करें।
इस सदी में नये-पुराने ने एक अजीब तरह का वैल्यूएशन ले लिया है
जिसका कोई मूल्य नहीं है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि कोई चीज पुरानी है, इसलिए ठीक है। कुछ लोग हैं,
जो कहते हैं कि कोई चीज नई है इसलिए ही ठीक है। ठीक होने का नये
पुराने से कोई प्रयोजन नहीं है। पुराने में भी गलत था और नये में भी गलत है।
पुराने में भी ठीक था और नये में भी ठीक है। चिंतना इसकी होनी चाहिए कि ठीक क्या
है और कितने दूर तक हम पुराने का उपयोग कर सकते हैं और कितने दूर तक हम नये का
उपयोग कर सकते हैं। एक टोटल पर्सपेक्टिव के लिए पुरानी सारी शिक्षण पद्धति को समझा
जाना जरूरी है, नई सारी शिक्षण पद्धति को समझा जाना जरूरी
है। और दोनों के बीच एक माध्यम जो स्वतंत्रतापूर्ण नियंत्रण का हो या
नियंत्रणपूर्ण स्वतंत्रता का हो, और उसके बहुत गहरे में
सम्मान छोटे के प्रति, बढ़ते हुए के प्रति आधार और केंद्र बन
सकते हैं।
इस संबंध में कुछ पूछ लें तो अच्छा है क्योंकि दूसरा सवाल फिर
बहुत बड़ा है वह दुबारा जब बैठे तभी हो सके। वह दांपत्य जीवन, गौरवशाली दांपत्य जीवन कैसे
पैदा हो सके। वह दुबारा जब बैठें तभी, क्योंकि वह बड़ा सवाल
होगा। और उसके बहुत पहलू होंगे। अभी तो दस-पांच मिनट इसी संबंध में और बात कर लें
तो अच्छा है।
मेरे खयाल से बच्चों को,
मैं जहां तक मानती हूं, जहां तक जितना हो सके
उतना ‘न’ कम करना चाहिए--यह मत करो,
वह मत करो, ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं, वैसा नहीं! जो नकार है, तो नकार निकाल कर जितना हो सके सकार रखना और जितना हमारे को जरूरत नहीं
पड़े, उनको कम किया जाना चाहिए।
हां, बबी बहन भी एक ठीक बात उठाती हैं कि बच्चों को हम जितना डोंट, ‘नहीं’ कहने से बच सकें, उतना
अच्छा है। ऐसा पिछले सौ साल के सभी मनस्शास्त्री कहेंगे, लेकिन
मैं पूरी तरह राजी नहीं हूं। सारे मनःशास्त्री यह कहेंगे और बहुत दूर तक मैं भी
कहूंगा कि बच्चे को जब तक बने हां कहा जा सके, तो न नहीं
कहना। और अगर न भी कहना हो, तो उसे अगर हां के रूप में कहा
जा सके तो बहुत अच्छा है। जैसे बच्चा एक फूल तोड़ रहा है। तो उसे रोकने की बजाय यह
कहना कि फूल मत तोड़ो, उसके हाथ में फव्वारा थमा देना बेहतर
है। उससे कहना कि पानी डालो। फूल तोड़ना रुक जाएगा, वह पानी
डालने में लग जाएगा। और न कहने से हम बच सकेंगे, क्योंकि न
जो है वह उसे बार-बार अत्यंत पीड़ा में डाल जाता है। जहां भी बढ़ता है, वहीं न खड़ा हो जाता है। वह उसकी सीमा बनने लगती है। वह परतंत्र अनुभव करने
लगता है, गुलाम मालूम होने लगता है कि कुछ भी करने की
स्वतंत्रता नहीं है। न भी कहना हो तो उसको हां के ही रूप में कहने की कोशिश करनी
चाहिए।
मैंने सुना है कि भोज के दरबार में एक ज्योतिषी आया है और वह
भोज ने उसे अपनी कुंडली दिखाई है और उसने कहा कि महाराज, आप अपनी पत्नी को भी
दफनाएंगे, अपने बेटे को भी दफनाएंगे, अपने
बाप को तो दफनाएंगे ही, अपने सब बेटों को भी आप दफनाएंगे।
सबको मार कर तुम मरोगे। भोज बहुत नाराज हो गया। उसने उसे कैद में डाल दिया।
कालिदास बैठा सुनता था। बाद में रात जाकर कालिदास ने कहा कि वह
बेचारा कुछ गलत नहीं कह रहा था,
जो उसे दिखाई पड़ा था, वही कहा। लेकिन शायद उसे
कहने का ढंग नहीं आया। मैं यह एक श्लोक बना कर लाया हूं। उस श्लोक में उसने कहा है
कि महाराज, आप धन्यभागी हो। आपके प्रियजनों को आपकी मृत्यु
का दुख न होगा। ऐसा धन्यभाग मुश्किल से मिलता है। आप सौ वर्ष से ज्यादा जीओगे।
जिसकी हम कामना करते हैं कि सौ वर्ष से ज्यादा कोई जीए, वह
आपकी सुनिश्चित संभावना है। और धन्यभागी हैं आप कि आपके किसी प्रियजन को, न आपके बेटे को, न आपकी बेटी को, न आपकी पत्नी को आपकी मृत्यु का दुख नहीं होगा। और एक लाख मुद्राएं राजा
ने कालिदास को भेंट कीं।
ना में कही जाने वाली बात भी हां में कही जा सकती है। इनकार
करने वाली बात भी स्वीकार में कही जाए,
यह ठीक है। लेकिन यह अधूरा सत्य है। और इस पर पश्चिम के
मनोवैज्ञानिकों ने इतना जोर दिया कि दूसरे खतरे पैदा हो गए। अधूरे सत्य झूठ से भी
खतरनाक होते हैं। इसलिए अधूरा सत्य है कि जिंदगी तो नहीं कहेगी, आप मत कहो। मां ने नहीं कहा नहीं, पिता ने नहीं कहा
नहीं, शिक्षक ने नहीं कहा नहीं। लेकिन जब लड़का बड़ा होगा,
तब जिंदगी में हजार तरफ से ‘नहीं’ मिलेगा। और जो ‘नहीं’ से
बिलकुल अपरिचित है, वह इतना फ्रस्ट्रेट हो जाएगा जिसका कोई
हिसाब नहीं। नहीं की भी ट्रेनिंग तो चाहिए पड़ेगी। नहीं तो एक लड़का, जो बीस वर्ष तक नहीं नहीं सुना और जिसकी जिंदगी में कभी भी कहीं कोई
रुकावट नहीं है, सब जगह हां था। जिंदगी इतनी फिकर नहीं
करेगी।
जिंदगी मां नहीं है,
जिंदगी पिता नहीं है, जिंदगी शिक्षक नहीं है।
जिंदगी हजार जगह कहेगी कि नहीं। तब उस लड़के के प्राण पर ऐसा पड़ेगा कि मर गए,
क्योंकि उसकी नहीं की कोई भी योजना उसके भीतर नहीं है। नहीं को सहने
की कोई क्षमता उसके भीतर नहीं है। इसलिए पश्चिम बहुत कमजोर बच्चे पैदा कर रहा है,
जो इतनी छोटी-छोटी बातों से फ्रस्ट्रेशन में चले जाते हैं कि जिनमें
पुराना बच्चा कभी नहीं जाता। क्योंकि वह नहीं के लिए तैयार था। जिंदगी में हां भी
है और नहीं भी है और उनका एक संतुलन है।
तो मैं मानता हूं कि जहां तक बने, नहीं मत कहना और नहीं वहीं मत कहना, जहां नहीं कहने में मजा आता है, वहां नहीं मत कहना।
लेकिन जहां नहीं कहने से बच्चे के व्यक्तित्व में रेसिस्टेंस बढ़ता हो, वहां जरूर नहीं कहना। और वहां नहीं का मतलब हमेशा नहीं रखना। नहीं तो
मां-बाप के नहीं और हां में बहुत डांवाडोल होते रहते हैं वे, इसलिए बच्चे बहुत कंफ्यूज्ड हो जाते हैं। बच्चा कहता है मुझे पिक्चर देखने
जाना है, मां कहती है कि नहीं जा सकते। और बच्चा दो दफे जोर
से पैर पटकता है और मां कहती है, अच्छा जाओ। तो बच्चे को
बहुत मुश्किल हो जाता है कि नहीं का मतलब क्या है, हां का
मतलब क्या है? नहीं हां बन सकती है, हां
नहीं बन सकती है। जिंदगी भर के लिए हम उसे एक वेगनेस दे रहे हैं, एक कंफ्यूजन दे रहे हैं जो वह बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा।
अगर एक दफे बच्चे से कहो नहीं, तो इस दुनिया में अब दुबारा उसको हां मत बनाना,
ताकि बच्चा ठीक से समझे कि नहीं का मतलब नहीं होता है। हां का मतलब
हां होता है। यह भी सिखाने की जरूरत है उसे कि नहीं का मतलब ना होता है और जब ना
हो जाता है तो ना ही हो जाता है। नहीं तो मां-बाप बहुत जल्दी झुकते हैं। बजाय
झुकने के, पहले हां भर देना। बच्चा कहे कि पिक्चर जाना है,
और रोज का अनुभव है, लेकिन हम कुछ सीखते नहीं
हैं। तो पहले हम कहेंगे नहीं। असल में दूसरे को रोकने में बड़ा मजा आता है। अब वह
सिर पीटेगा और चिल्लाएगा और खाना नहीं खाएगा और थाली फेंकेगा। अब हम कहेंगे कि
जाओ! हां का मजा भी चला गया उसके भीतर से, नहीं का अर्थ भी न
रहा और प्रतिकार का उसने एक गलत ढंग सीखा। प्रतिकार का गलत ढंग सीखा जो कि जिंदगी
भर उसका पीछा करेगा। बड़ा होकर भी वह बच्चों जैसा करेगा। कल वह पति हो जाएगा और
पत्नी पर नाराज होगा तो इसी तरह थाली फेंकेगा जैसा उसने मां के सामने फेंक दी थी।
उसी तरह पैर पटकेगा जैसा वह पांच साल का बच्चा था, तब पैर
पटकता था। तब वह बहुत ही बेहूदा मालूम पड़ेगा। लेकिन हम उसे सिखा रहे हैं।
नहीं, मेरी अपनी समझ है कि नहीं का भी उपयोग तो है, लेकिन
व्यर्थ की चीजों में नहीं मत कहना। लेकिन नहीं की अपनी सार्थकता है क्योंकि जिंदगी
आपकी फिकर न करेगी, वह नहीं कहेगी। और जब कहेगी तो उसकी तैयारी
होनी चाहिए। और उसकी तैयारी भी शिक्षण का अनिवार्य अंग है। इसलिए पश्चिम के जो
बच्चे हैं वे, वे नहीं न कहने से बिगाड़े गए बच्चे हैं। उनको
इधर पिछले पचास-साठ साल में विशेष कर फ्रायड का जो प्रभाव पश्चिम की शिक्षा पर पड़ा,
वह संघातक सिद्ध हुआ। उसने कुछ फायदे पहुंचाए, लेकिन उतने ही वजन के, शायद और ज्यादा वजन के नुकसान
भी पहुंचाया।
मैडम मांटेसरी की शिक्षा से बच्चों में क्या फर्क पड़ा? वह ठीक है या नहीं?
साधारण है, ठीक और गलत बहुत नहीं है मामला। मांटेसरी ने एक हिम्मत की और एक प्रयोग
किया है, उस लिहाज से तारीफ की बात है, लेकिन कुछ विशेष फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि विशेष फर्क जो है वह शिक्षा की
पद्धति में कम, मां-बाप के होने के ढंग में और शिक्षक के
होने के ढंग में ज्यादा है। वह बहुत सवाल नहीं है। सवाल गहरा है और ज्यादा डीप
रूटेड है, वह हममें है। अब जब एक बच्चा आपसे आकर कहता है कि
मैं फूल तोड़ लूं? तब आप दो क्षण भी नहीं सोचतीं कि फूल तोड़ने
दिया जाए या नहीं। नहीं कहने में इतना मजा आता है कि नहीं। आप यह नहीं सोचते हैं
कि फूल तोड़ा जा सकता है तो तोड़ लेने दो। यह सोचने की जरूरत नहीं है। बच्चा कहता है,
मुझे बाहर खेलने जाना है, आप कहते हैं,
नहीं।
हमारा ‘नहीं’ तो एकदम सामने खड़ा रहता है। वह भी हमारे
फ्रस्ट्रेशन का हिस्सा है। हां कहने की हमें भी तो हिम्मत नहीं जुट पाती। मैं तो
रोज अनेक घरों में ठहरता हूं। मैं बहुत हैरान होता हूं कि जिन मामलों में कोई
जरूरत न थी--अब बच्चा कहता है, बाहर खेलने जाना है, तो मां बिना सोचे--‘नहीं’ तैयार
है, वह रेडीमेड है। और बच्चा जानता है कि रेडीमेड उत्तर है,
इसने सोच कर नहीं दिया है। क्योंकि अब भी इसको प्रेस किया जा सकता
है और यह कहेगी हां। क्योंकि अगर सोच कर दिया गया है तो फिर हां नहीं होना चाहिए
दुबारा। क्योंकि अगर बच्चे के अहित में ही है बाहर जाना तो फिर हां कैसे हुआ वह।
और अगर हां हो सका दो मिनट बाद तो दो मिनट पहले नहीं होने की क्या जरूरत थी।
यानी मेरा कहना यह है कि ‘हां’ साफ, ‘नहीं’ साफ, और दोनों में कभी कंफ्यूजन नहीं। वह बिलकुल साफ
होना चाहिए। तब बच्चा एक तो अपने मां-बाप का क्लीयर इमेज बना पाता है। बड़ी से बड़ी
कठिनाई है कि बच्चे के मन में मां-बाप की साफ प्रतिमा नहीं बन पाती कि मां-बाप
क्या चाहते हैं। क्या इरादे हैं। वह कभी पकड़ ही नहीं पाता है कि उनका क्या प्रयोजन
है। उसे तो पता नहीं कि मां-बाप भी भीतर कंफ्यूज्ड हैं। उन्हें भी पता नहीं कि वे
क्या कह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या
नहीं कर रहे हैं। तो बच्चे के सामने बहुत स्पष्ट प्रतिमा मां-बाप की बननी चाहिए,
शिक्षक की बननी चाहिए। तो बच्चे को अपनी प्रतिमा स्पष्ट बनाने में
बड़ा सहयोग मिलता है। नहीं तो वह भी वैसा ही एक कंफ्यूज्ड, भ्रमित,
उलटे-सीधे खयालों से भरा हुआ आदमी बन जाता है। और तब उसे पता
ही नहीं रहता कि वह कब हां कहे,
कब ना कहे। तब एक इनडिसीसिवनेस पैदा होती है जो जिंदगी भर पीछा करती
है।
मेरी अपनी समझ में लाखों लोगों की बीमारी इनडिसीसिवनेस है कि वह
कभी निर्णय नहीं ले पाते कि हां या नहीं। और अगर लेते हैं तो वह हमेशा हाॅफ
हार्टेड होता है। वह हां कहते हैं तो उसमें भीतर किसी परसेंटेज में नहीं भी होता।
अगर एक लड़की एक लड़के को हां भरती है कि हां मैं तुझे प्रेम करती हूं तो यह मामला
हां का नहीं होता है, यह साठ परसेंट हां, चालीस परसेंट नहीं का होता है।
अच्छा, चालीस परसेंट कभी भी पचास परसेंट हो सकता है, क्योंकि मन कोई ऐसी चीज नहीं है। कभी साठ परसेंट हो सकता है। तब पछतावा
शुरू हो जाता है। तब मुश्किल हो जाती है। और जिंदगी में सौ प्रतिशत हां निकल सके,
सौ प्रतिशत न निकल सके, तो उस आदमी के पास
कैरेक्टर होता है, व्यक्तित्व होता है। और अगर हर हां में न
का भी परसेंटेज हो और न में हां का परसेंटेज हो, तो वह आदमी
अडल्टरेटेड हो जाता है; वह आदमी फिर कैरेक्टरलेस हो जाता है।
उसके भीतर कोई कैरेक्टर नहीं होता।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि ना कहना, जब ना कहना जरूरी हो, और
उस ना को कभी मत बदलना, चाहे उसके लिए खुद जान खोनी पड़े।
बेटे को, बेटी को साफ पता चल जाना चाहिए कि मां ने जब ना कहा
है तो यह ना अल्टीमेट है। इसका बड़ा उपयोग है। क्योंकि इससे मां के चरित्र का पता
चलता है। और बच्चे को भी एक चरित्र बनाने में सहयोग मिलता है।
तो मेरी बड़ी तकलीफ है। मेरी बड़ी तकलीफ यह है कि मैं पुराने से
बहुत अंशों में राजी नहीं हूं। उससे भी बड़ी मेरी तकलीफ यह है कि मैं नये से भी
बहुत अंशों में राजी नहीं हूं। इसलिए पुराना मुझसे नाराज हो जाता है कि मैंने
पुराने को गलत कहा। नया मुझसे नाराज हो जाता है कि मैंने नये को गलत कहा। और मुझसे
राजी होना किसी का भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन मेरी नजर में नया और पुराना नहीं, मेरी नजर में मनुष्य है कि
वह मनुष्य को क्या लाभ है।
एक छोटी सी घटना,
मैं अपनी बात पूरी कर दूं!
रेनपा ने एक संस्मरण में लिखा है--वह पांच साल का बच्चा है और
उसके बाप ने रात उसको बुला कर कहा है कि कल सुबह तुझे आश्रम में शिक्षा अध्ययन
करने के लिए जाना है। लेकिन हमारे वंश में कभी कोई बच्चा रोता हुआ विद्यालय नहीं
गया है। इसलिए ध्यान रखना--पांच साल के बच्चे से--ध्यान रखना हमारे परिवार में कोई
बच्चा कभी रोता हुआ स्कूल नहीं गया है! कल सुबह पांच बजे तुम्हें विदा कर दिया
जाएगा घोड़े पर और मैं या तुम्हारी मां तुम्हें दरवाजे पर छोड़ने नहीं आएंगे।
क्योंकि हो सकता है, हमें देख कर तुम्हें रोना आ जाए। और यह देखना हमारे लिए बहुत कठिन होगा कि
हमारा बच्चा भी रोता हुआ स्कूल जा रहा है क्योंकि रोते हुए बच्चे क्या सीख कर वापस
लौटेंगे? फिर हमारे घर में ऐसा कभी हुआ नहीं!
यह बाप-दादों की पूरी की पूरी इज्जत का सवाल है! पांच साल के
बच्चे से, सुबह
नौकर ने उसे उठाया है। रात बारह बजे उसकी मां ने उससे विदा ले ली है कि मैं न आ
सकूंगी क्योंकि हो सकता है कि मुझे देख कर तुझे रोना आ जाए। लेकिन हमारे बच्चे कभी
रोते नहीं रहे।
सुबह पांच बजे नौकर ने उसे तैयार किया। उसकी आंख में आंसू भर-भर
आते हैं, लेकिन
वह अपने आंसू पी रहा है क्योंकि उसके पिता ने कहा है कि उनके घर से कभी कोई बच्चा
रोता हुआ नहीं गया है। तो यह अशोभन न हो जाए, मैं ही एक ऐसा
बच्चा न हो जाऊं जो रोता हुआ जा रहा हो, अपने आंसू पीए वह
घोड़े पर बैठ गया है। नौकर ने कहा है, पीछे लौट कर मत देखना,
पिता छत पर खड़े होकर देख रहे हैं। इस घर से जब भी कोई बच्चा आश्रम
गया है अध्ययन के लिए तो उस मोड़ तक उसने कभी लौट कर पीछे नहीं देखा है। क्योंकि
पीछे लौट कर देखने वाले आगे नहीं जा सकते। पांच साल का बच्चा घोड़े पर बैठा,
उसकी आंखों में आंसू भरे जा रहे हैं। लेकिन वह पीछे लौट कर नहीं देख
रहा है क्योंकि उसका बाप क्या सोचेगा? कभी किसी बच्चे ने
पीछे लौट कर नहीं देखा।
यह बड़ी ज्यादती मालूम पड़ सकती है। लेकिन निश्चित, इससे डेफिनेट कैरेक्टर पैदा
होगा।
और उसने बाद में लिखा है कि आज मैं अनुभव करता हूं कि उस सुबह, उस सुबह मेरे पिता ने जितना
प्रेम मुझे किया, और मेरे सारे वंश की सारी परंपरा का मुझे
हकदार और मालिक बनाया और मुझ पर इतना भरोसा किया कि पांच साल का बच्चा बिना रोए,
बिना पीछे देखे जाएगा, उससे बड़ा सम्मान मेरे
प्रति और क्या हो सकता था--आज! उस दिन तो उसने कहा कि बहुत दुख मुझे था कि बाप
कठोर है, दुष्ट है। मां भी कैसी मां है! लेकिन आज मैं जानता
हूं कि मुझे कितना सम्मान उन्होंने दिया था पांच साल के बच्चे को कि भरोसा था कि
नहीं, उसने लौट कर नहीं देखा। वह मोड़ तक घोड़े पर बैठा रहा।
इसका भी उपयोग है--इसका भी उपयोग है! आज दुनिया में जो इतना
दबाव, डाॅमिनेशन
के माध्यम से नहीं, सम्मान के माध्यम से, आदर के माध्यम से, तो तो उसके परिणाम व्यापक हो सकते
हैं!
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