शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-छब्बीसवां
जीवंत शिक्षकों की खोज
मेरे प्रिय आत्मन्!
आधुनिक शिक्षक के संबंध में कुछ कहना थोड़ा कठिन
है। इसलिए कठिन है कि शिक्षक आज के पहले कभी दुनिया में था ही नहीं। आधुनिक ही
शिक्षक का होना है। जैसा अभी परिचय में कहा, शिक्षक का धंधा, वह बहुत आधुनिक
घटना है। वह कभी पहले था नहीं। गुरु थे, वे शिक्षक से बहुत
भिन्न थे। शिक्षण उनका धंधा नहीं था, उनका आनंद था। शिक्षण
पहली दफे धंधा बना है। और जिस दिन शिक्षण धंधा बन जाएगा, उस
दिन शिक्षक गुरु होने की हैसियत खो देता है। उस दिन वह गुरु नहीं रह जाता, नौकर ही हो जाता है या व्यवसायी हो जाता है।
आधुनिक शिक्षक आधुनिक घटना है। पुराने युगों में
लोग थे। वे शिक्षण में धंधे की भांति संबंधित नहीं थे। असल में कभी सोचा ही नहीं
गया था कि शिक्षण भी कभी धंधा बन सकता है, लेकिन अब बन गया है। और उसका परिणाम यह हुआ है कि
शिक्षण संस्थाएं फैक्ट्रियों और कारखानों से ज्यादा नहीं हैं।
कारखानों में चीजें
बनाई जाती हैं, विश्वविद्यालयों में आदमी ढाले जाते हैं,
उतना ही फर्क है। लेकिन आदमी भी उसी तरह ढाले जाते हैं, जैसे मशीनें ढाली जाती हैं। गुरु नहीं है, लेकिन
शिक्षक के मन में यह भ्रम है, अभी भी गुरु होने का। उससे
शिक्षक को बड़ा कष्ट भी है, उसको पीड़ा भी बहुत है। वह आदर तो
उतना ही चाहता है जितना गुरु को मिलता था। सम्मान उतना चाहता है जितना गुरु को
मिलता था।
शिक्षकों से मिलता हूं तो सब जगह उनकी तकलीफ यही
है कि विद्यार्थी सम्मान नहीं दे रहा है, आदर नहीं दे रहा है। लेकिन उसे पता ही नहीं है कि
गुरु नाम का प्राणी बहुत और बात थी। शिक्षक वह नहीं था, जिसको
आदर मिला था। शिक्षक बहुत और बात है। उसे आदर नहीं मिल सकता है। उसे आदर की
आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और या फिर गुरु होने की हिम्मत जुटानी चाहिए। ऐसा नहीं
है कि गुरु को आदर देना पड़े। बात उलटी है। जिसे हमें आदर देना ही पड़ता है उसको ही
गुरु कहते हैं। जिसे आदर दिए बिना कोई रास्ता ही नहीं है, जो
हमारे आदर को खींच ही लेता है, उसे ही हम गुरु कहते हैं।
लेकिन शिक्षक और बात है। शिक्षक कुछ काम ही दूसरा कर रहा है।
क्या काम शिक्षक कर रहा है आज? वह जो मास प्रोडक्शन
है, वह जो बड़े पैमाने पर आदमियों को ढालने की कोशिश चल रही
है, वह जो बड़े-बड़े कारखाने हैं, प्राइमरी
स्कूल से लेकर युनिवर्सिटी तक, उन सब कारखानों में जो आदमी
को ढालने का प्रयास चल रहा है। शिक्षक उसमें नौकर है और वह जो काम वहां कर रहा है,
वह काम किसी भी व्यक्ति की आत्मा को नहीं जगा पाता।
गुरु वह है जो किसी की आत्मा को जगा दे, किसी के व्यक्तित्व
को गरिमा दे दे, उसके बंद फूल खिल जाएं। शिक्षक वह है जो
पुरानी पीढ़ियों के द्वारा अर्जित सूचनाओं को, नई पीढ़ी तक
पहुंचाने का वाहन का काम कर दे और विदा हो जाए। शिक्षक सिर्फ पुरानी पीढ़ियों ने जो
ज्ञान अर्जित किया है, उसे नई पीढ़ी तक जोड़ने का काम करता है,
इेससे ज्यादा नहीं। वह मध्यस्थ है।
और वहां भी एक क्रांतिकारी घटना घट गई है। जीसस
के मरने के बाद कोई साढ़े अट्ठारह सौ वर्षों में मनुष्य जाति का जितना ज्ञान बढ़ा था, उतना ज्ञान पिछले डेढ़
सौ वर्षों में बढ़ा है और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान बढ़ा था, उतना ज्ञान पिछले पंद्रह वर्षों में बढ़ा है। पंद्रह वर्षों में उतना ज्ञान
बढ़ रहा है अब, जितने ज्ञान को बढ़ने के लिए पहले साढ़े अट्ठारह
सौ वर्ष लगते थे। इसका एक बहुत गहरा परिणाम होना स्वाभाविक है, वह परिणाम यह हुआ है कि पहले, आज से दो सौ साल पहले
बाप हमेशा बेटे से ज्यादा जानता था, गुरु हमेशा शिष्य से
ज्यादा जानता था। आज ऐसा जरूरी नहीं है। आज संभावनाएं बिलकुल बदल गई हैं, क्योंकि बीस वर्ष में एक पीढ़ी बदलती है, और बीस वर्ष
में नये ज्ञान का इतना विस्फोट हो जाता है कि बीस साल पहले जो शिक्षित हुआ था,
वह अपने विद्यार्थी से भी पीछे पड़ जाता है।
आज तो शिक्षक और विद्यार्थी में जो फर्क होता है, पहले तो फर्क होता था
बहुत भारी, क्योंकि सारा ज्ञान अनुभव से उपलब्ध होता था। और
ज्ञान थिर था, हजारों साल तक उसमें कोई बदलाहट नहीं होती थी।
इसलिए शिक्षक बिलकुल आश्वस्त था। वह जरा भयभीत न था। वह बिलकुल मजबूती से जो कहता
था, उसे जानता था कि वह ठीक है, कल भी
ठीक था, कल भी ठीक रहेगा। हजारों साल से बातें ठीक थीं,
अपनी जगह ठहरी हुई थीं।
इधर पिछले सौ वर्षों में सब अस्त-व्यस्त हो गया
है। वह शिक्षक का आश्वस्त रूप भी विदा हो जाएगा, हो ही गया है। आज वह जोर से नहीं
कह सकता कि जो वह कह रहा है, वह ठीक ही है, क्योंकि बहुत डर तो यह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब वह विश्वविद्यालय से पास
होकर निकला था, तब जिसे ज्ञान समझा जाता था, पंद्रह साल में वह सब आउट आॅफ डेट हो गया, वह सब समय
के बाहर हो गया है। उसमें से कुछ भी अब ज्ञान नहीं है। आज शिक्षक और विद्यार्थी के
बीच अक्सर तो एक घंटे का फासला होता है। वह एक घंटे पहले तैयार करके आता है,
एक घंटे बाद विद्यार्थी भी उतनी बातें जान लेता है। जहां इतना कम
फासला होगा तो वहां बहुत ज्यादा आदर नहीं मांगा जा सकता। आदर फासले से पैदा होता
है। सम्मान दूरी से पैदा होता है। कोई शिखर पर खड़ा है और हम भूमि पर खड़े हैं,
तब सम्मान पैदा होता है। लेकिन जरा सा आगे कोई खड़ा है, और थोड़ी देर बाद हम भी उतने करीब पहुंच जाएंगे। पहले हमेशा ऐसा होता था कि
बाप बेटे से ज्यादा ज्ञानी होता ही था, क्योंकि अनुभव से ही
ज्ञान मिलता था। एक आदमी अस्सी साल जी लिया था तो उसके पास ज्ञान होता था। लेकिन
आज हालत बहुत बदल गई है।
आज उम्र से ज्ञान का कोई संबंध नहीं रह गया है।
संभावना तो इस बात की है कि बेटा बाप से ज्यादा जान ले, क्योंकि बाप का जानना
कहीं रुक गया होगा और बेटा अभी भी जान रहा है। और जो बाप ने जाना था वह सब जाना
हुआ बदल गया है।
अब नये जानने के बहुत से नये तथ्य सामने आ गए
हैं। यह तथ्यों का एक्सप्लोजन इतनी तेजी से हुआ है कि बाप के भी पैर हिल गए हैं और
उसके साथ शिक्षक के भी पैर हिल गए हैं। वे आश्वस्त नहीं रह गए हैं। और अब आज कोई
सिर्फ उम्र के कारण, या आगे होने के कारण, या पहले जन्मे होने के कारण
किसी बात को थोपना चाहेगा तो थोपना मुश्किल है। इसलिए आधुनिक शिक्षक को बहुत
विनम्र होना पड़ेगा। शिक्षक की विनम्रता कभी भी गुण न था, गुण
था विद्यार्थी का कि वह विनम्र हो। शिक्षक अविनम्र ही था। बहुत अकड़ी हुई हालत में
था। बड़े अहंकार से भरा हुआ था।
हालतें अब बदल गई हैं। शिक्षक को विनम्र होना
पड़ेगा। और शिक्षक की इस विनम्रता की बात को अभी हम स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई
अनुभव करते हैं। लेकिन सारी दुनिया में विद्यार्थियों की बगावत है, वह शिक्षक की
अविनम्रता के खिलाफ है जो हजारों पीढ़ियों में सीखी गई है आदत, उसके खिलाफ। अब विद्यार्थी यह कह रहा है कि अब शिक्षक केंद्र होकर नहीं
रहेगा शिक्षा संस्थान में, केंद्र तो विद्यार्थी ही होगा।
शिक्षक केंद्र था कल तक। विद्यार्थी उसकी परिधि
पर था। अब हालत बिलकुल बदल गई है। अब विद्यार्थी केंद्र होगा, शिक्षक बिलकुल परिधि
पर होगा। इतनी उलटी हो गई हालतें, अपने को पुर्नआयोजित करने
में, शिक्षक के लिए बड़ा सवाल है। और अगर वह पुरानी आदतों को
लेकर चलता है तो शिक्षक और विद्यार्थी के बीच की खाई बड़ी होती चली जाएगी। उस खाई
को कम करने की पहली तो बात यह, और वह बहुत जरूरी है नहीं तो
शिक्षक का बचना ही मुश्किल है। उस खाई को कम करने की पहली तो बात यह जरूरी है समझ
लेना कि शिक्षक को विनम्र होना पड़ेगा। और हमें सारी अब तक सोचने की जो भी हमारी े
व्यवस्था थी, वह सारी की सारी बदल देनी होगी।
मेरे एक मित्र रूस गए हुए थे। और एक कालेज में एक
क्लास को देखने गए थे। एक युनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, तो सोचा वहां भी देख
आएं। तो उन्होंने वहां देखा कि एक विद्यार्थी जूते टिकाए हुए टेबल के ऊपर, टिका हुआ पीछे आंख बंद किए हुए, क्लास में शिक्षक की
बातें सुन रहा है। उनको तो बहुत ही इन-डिसिप्लिन मालूम पड़ी। हद्द हो गई! क्लास के
भीतर कोई जूते टेक कर बैठा हो, आंखें बंद करके बैठा हो,
टिक कर बैठा हो, तो शिक्षक का बहुत अपमान हो
गया। कक्षा पूरी हो जाने पर, उस क्लास के शिक्षक से उन्होंने
पूछा कि यह क्या हो रहा है, आप इसमें अपमान अनुभव नहीं करते?
यह तो बहुत अनुशासनहीनता है।
उस शिक्षक ने कहाः अनुशासनहीनता! नहीं, आप शिक्षक की बहुत
पुरानी धारणाएं लिए हुए हैं, अनुशासनहीनता नहीं है।
विद्यार्थी मुझे इतना प्रेम करते हैं कि मेरे साथ एर्ट इ.ज हो सकते हैं। वे मुझे
जानते हैं कि मुझसे इतना प्रेम है उनका कि जैसे वह अपने घर बैठ सकते हैं, वैसे मेरे सामने बैठ सकते हैं। और उस शिक्षक ने कहा, मेरा काम इससे जरा भी संबंधित नहीं है कि वे कैसे बैठें। मेरा काम इससे
संबंधित है कि मैं जो समझा रहा हूं, उसे वे समझ रहे हैं या
नहीं समझ रहे हैं। और मैं मानता हूं कि वे जितना आराम से बैठे हैं उतना ही ज्यादा
समझ सकेंगे और जितने तनाव से बैठे हैं, उतना कम समझ सकेंगे।
लेकिन हमें यह पचाना बहुत कठिन पड़ जाएगा। इसलिए कठिन पड़ जाएगा कि हमारे मन में
शिक्षक की एक पुरानी धारणा काम कर रही है, गुरु की धारणा काम
कर रही है, जिसे सब तरह का आदर अनिवार्य था।
भविष्य में शिक्षक को आदर का खयाल छोड़ कर प्रेम
के खयाल पर आना पड़ेगा। और मेरा मानना है, प्रेम आदर से ज्यादा मूल्यवान है। क्योंकि प्रेम में
आदर तो समाविष्ट है, लेकिन आदर में जरूरी रूप से प्रेम
समाविष्ट नहीं होता। प्रेम बड़ी वैल्यू है, आदर उतनी बड़ी
नहीं। हम जिसे आदर करना पड़ता हो, उसे हम घृणा ही करते हैं,
प्रेम नहीं। लेकिन जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे
हम किसी गहरे अर्थों में आदर भी करने लगते हैं। प्रेम में तो आदर समाविष्ट हो सकता
है, लेकिन आदर में जरूरी नहीं है कि प्रेम समाविष्ट हो।
क्योंकि आदर जब मांगा जाता है, तो अपमानजनक हो जाता है। और
आदर जब थोपा जाता है, तो भीतर निषेध और बगावत पैदा करता है।
आज्ञा जब ऊपर से डाली जाती है तो अपने को तोड़े जाने का निमंत्रण देती है।
अब यह नहीं हो सकेगा। शिक्षक को अपना पूरा चेहरा, अपने पूरे व्यक्तित्व
की अब तक की परिकल्पना को ही बदल देने की जरूरत आ गई है। अन्यथा आने वाला शिक्षक
और विद्यार्थी, दो वर्ग बन जाएंगे जिनके बीच संघर्ष होगा
जैसे मजदूर और पूंजीपति के बीच संघर्ष होता है। संघर्ष शुरू हो गया है। और उस
संघर्ष को तोड़ने का कोई उपाय नहीं हो रहा, क्योंकि शिक्षक
सोच रहा है कि हमारे अनुशासन की व्यवस्था में कुछ कमी है, इसलिए
आदर कम हो रहा है। नहीं, आदर की मांग ही गलत हो गई है नये
परिवेश में, इसलिए सारा उपद्रव हो रहा है।
तो मैं शिक्षकों से मिलता हूं तो वे तो कहते हैं
कि कुछ और इंतजाम करना चाहिए सख्ती से, शिक्षक के हाथ में ज्यादा ताकत होनी चाहिए दंड देने
की, तो हम अनुशासन रख पाएंगे और आदर बचा पाएंगे। लेकिन जितनी
भी ताकत दी जाएगी उतनी ही विपरीत ताकत तोड़ने के लिए खड़ी होगी, क्योंकि नई स्थितियों में शिक्षक का पूरा स्थान बदल गया है। वह अब केंद्र
पर नहीं है। अब केंद्र पर शिक्षार्थी है। वह जो शिक्षा ले रहा है और यह है भी ठीक।
होना भी यही चाहिए।
बाप केंद्र पर नहीं होना चाहिए, बेटा ही केंद्र पर
होना चाहिए। क्यों? क्योंकि बेटा भविष्य है और बाप अतीत है।
बाप जा चुका, बेटा आ रहा है। जो आ रहा है वही केंद्र पर होना
चाहिए, जो जा रहा है, वह नहीं। जो उबर
रहा है, वही केंद्र पर होना चाहिए, जो
डूब रहा है, वह नहीं। जहां तक परमात्मा का संबंध है वहां तक
तो बेटा ही कीमती है, क्योंकि बाप को विदा कर रहा है
परमात्मा और बेटे को बड़ा कर रहा है। बाप को हटा रहा है और बेटे के लिए जगह खाली कर
रहा है।
परमात्मा नये में सदा से उत्सुक है, पुराने को रोज विदा
कर देता है। नये को रोज जन्मा देता है। लेकिन अब तक हमारे चिंतन की जितनी धारणाएं
थीं, वे पुराने को केंद्र बनाती थीं और नये को परिधि पर रख
देती थीं। अब यह नहीं हो सकेगा। यह अब असंभव ही हो गया है। असंभव अब तक क्यों न
हुआ था? अब तक न होने के भी कारण थे। जैसे मैंने कहा कि
शिक्षक एक नई घटना है, वैसे ही युवक भी एक नई घटना है। पहले
दुनिया में बच्चे होते थे और बूढ़े होते थे, युवक नहीं होता
था। उसके कारण थे। युवक न हो सके, इसकी हमने पूरी व्यवस्था
की थी। वह सब व्यवस्था टूट गई। छोटे बच्चों का विवाह कर देते थे, वह उन्हें कभी युवा नहीं होने देता था। विवाहित होते ही वह बूढ़े की दुनिया
में प्रविष्ट हो जाते थे और एक बच्चे के बाप बन जाने के बाद--उम्र कितनी है,
यह सवाल नहीं है, बाप बूढ़ा हो ही जाता है।
सारी पुरानी दुनिया में बच्चों को हम सीधा
वृद्धावस्था में प्रवेश कर देते थे। बीच का जो अंतराल था, युवा होने का वह
विलुप्त हो जाता था। इसलिए पुरानी दुनिया ने बगावत नहीं थी, क्योंकि
बगावत न तो बच्चे कर सकते हैं, न बूढ़े कर सकते हैं। बगावत
सिर्फ युवक कर सकता है। इसलिए पुरानी दुनिया में नई घटना नहीं घटती थी, क्योंकि नई घटना न तो बच्चे घटा सकते हैं, न बूढ़े
घटा सकते हैं। बच्चे असमर्थ होते हैं, बूढ़े शक्तिहीन हो जाते
हैं। बच्चों को कुछ पता नहीं होता और बूढ़े अब नये को बनाने और जानने में उत्सुक
नहीं रह जाते।
युवक भी नई घटना है। इसलिए दुनिया की सारी की
सारी व्यवस्था में मुसीबत खड़ी हो गई है, क्योंकि युवक पहले था ही नहीं। उसको हमने सोच कर कुछ
नियम न बनाए थे। बच्चे आदर देते थे, बूढ़े आदर ले लेते थे। और
शिक्षक पुराना जो था, वह निरंतर सदा ही बूढ़ा होता था,
क्योंकि अनुभव के बाद ही तो वह कुछ सिखा सकता था। इस मुल्क में तो
ऐसा ही था कि चैथे आश्रम में, जब आदमी कुछ करने में समर्थ न
रह जाए तब वह शिक्षक हो जाए। तब उसने जो जीवन में जो जाना है वह उन बच्चों को बता
दे जो कल आ रहे हैं। बूढ़े सिखाते थे, बच्चे सीखते थे। आज
हालत बिलकुल बदल गई है। आज युवक ही सिखा रहे हैं, और युवक ही
सीख रहे हैं। यह स्थिति बिलकुल भिन्न है और नई है। इसलिए बच्चे बूढ़ों को जो आदर
देते थे वह युवक ही युवकों को आदर देंगे, यह असंभव है।
लेकिन स्थितियां बदल जाती हैं, हमारा मन नहीं बदलता,
हमारे आग्रह पुराने बने रहते हैं। और हम जब पुराने आग्रह को नई
स्थितियों में थोपते हैं, तो आग्रह टूटता है, स्थिति नहीं बदलती। स्थिति बहुत बलशाली है। लेकिन यदि यह सब समझा जा सके,
तो एक नये शिक्षक की अवधारणा, एक नये शिक्षक
का कंसेप्ट विकसित हो सकता है।
नये शिक्षक का काम अब ज्यादा से ज्यादा बड़े भाई
का होगा, पिता का नहीं। नया शिक्षक ठीक अर्थों में मित्र होगा, गुरु नहीं। उसको मित्रता की कोई धारणा विकसित करनी होगी। उसे आज्ञा देने
वाले की शक्ल छोड़ देनी पड़ेगी। अब वह आज्ञा नहीं देगा, कमांड
नहीं करेगा, ज्यादा से ज्यादा परसुएड करेगा, समझाएगा, बुझाएगा, राजी करेगा।
और राजी हो जाए तो ठीक है; न राजी हो तो नाराज नहीं हो
जाएगा। इसलिए आधुनिकशिक्षक के सामने जो बड़े से बड़ा सवाल है वह यह है कि उसे पुरानी
सारी की सारी जो परिकल्पनाएं थीं शिक्षक के आस-पास, वे छोड़नी
हैं और नई परिकल्पनाएं विकसित करनी हैं, जो अब तक नहीं थीं।
उसे विनम्र होना पड़ेगा। जैसे मैंने कहा, एक बहुत बुनियादी
आधार--हम सदा सिखाए हैं अब तक कि बच्चों को, विद्यार्थियों
को विनम्र होना चाहिए। क्योंकि हम कहते थे कि जो विनम्र है वही सीख सकता है।
अब सूत्र बदलना पड़ेगा। अब तो जो विनम्र है, वही सिखा सकता है।
असल में, विनम्र हुए बिना कोई सिखा नहीं सकता। और मेरा मानना
है, जिस दिन सिखाने वाला विनम्र होगा उसी दिन सीखने वाला भी
विनम्र हो सकता है। क्योंकि सिखाने वाला ही विनम्र न हो, तो
सीखने वाला विनम्र कैसे हो सकता है? सिखाने वाला अब तक बहुत
अविनम्र था। अगर हम पुराने शिक्षक की कल्पना करें, तो वह
बहुत ईगोसेंट्रिक है, वह बहुत अहंकार से भरा हुआ है। उसके
अहंकार के आस-पास उसने पैर छूने से लेकर सब तरफ से नई पीढ़ी को झुकाने का काम किया
था।
अब यह नहीं संभव है, उचित भी नहीं है,
बहुत हिंसात्मक थी यह बात और इस बात को चलाए रखने के लिए बहुत
इंतजाम करना पड़ा था और वह इंतजाम ऐसा था कि उसने मनुष्य को विकसित न होने दिया।
अगर हमें अंधी श्रद्धा मांगनी हो, अगर किसी से भी अंधी
विनम्रता मांगनी हो तो हमें जिनसे भी अंधी श्रद्धा मांगनी है उनके भीतर विचार की
हत्या करनी चाहिए। उसके बिना अंधी श्रद्धा नहीं मिल सकती। जो विचार कर सकता है वह
अंधी श्रद्धा देने में असमर्थ हो जाता है। तो पुरानी सारी की सारी शिक्षा अंधे
विश्वास पर और अंधी श्रद्धा पर निर्भर थी। विचार करने की प्रेरणा नहीं दी जाती थी,
विचार को रोकने की चेष्टा की जाती थी।
और ध्यान रहे, विचार बहुत विद्रोही है, विचार सदा विद्रोही है। विचार का मतलब ही विद्रोह है, क्योंकि विचार हमेशा इनकार करने से शुरू होता है। जो इनकार नहीं करता है,
वह विचार ही नहीं कर सकता है। अगर मैं हां कहता हूं तो विचार करने
का आगे कोई उपाय नहीं रह जाता। हां, डेड एंड है। जब मैं कहता
हूं, ‘हां’, तो अब आगे कोई उपाय नहीं
है। जब मैं कहता हूं, ‘नहीं’, तो अब
आगे सब उपाय हैं। ‘नहीं’, जो है,
वह द्वार है, क्योंकि जब मैं कहता हूं नहीं,
तो तर्क करना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा, दलील देनी पड़ेगी। और जब मैं कहता हूं ‘ हां’ तो न सोचना पड़ेगा, न तर्क देना पड़ेगा, न दलील करनी पड़ेगी।
पुरानी सारी व्यवस्था सिखाती थी हां कहना, वह यस सेयर्स पैदा
करती थी जो हां कहें। उससे एक फायदा था कि समाज की जो व्यवस्था थी वह इन हां कहने
वालों की वजह से कभी बदलती नहीं थी। लेकिन बड़ा नुकसान था कि समाज विकसित नहीं होता
था। गतिमान नहीं होता था। इस दुनिया में जितना विकास हुआ है, वह ना कहने वाले लोगों की वजह से हुआ है। जिन्होंने किसी गहरे तल पर इनकार
किया है, वे विकास के कारण बने हैं। चाहे वह कोई दिशा रही
हो--चाहे वह गणित हो, और चाहे वह दर्शन हो, चाहे धर्म हो, चाहे विज्ञान हो। जिन्होंने इनकार
किया है, वे विकास के आधार बने हैं। जिन्होंने हां किया है,
वे पुराने घेरे में, वह जो स्थिति-स्थापक घेरा
है, उसमें ही जीए हैं। तो पुरानी एक व्यवस्था थी, जिसने हां कहलवा ली थी युवकों से, और तब बूढ़ों के
बाहर वह व्यवस्था कभी नहीं गई थी, वह चुपचाप एक घेरे में बंद
होकर जीती थी। वह ऐसी थी, जैसे एक बंद तालाब, जो बहता नहीं है; बंद है, सड़ता
है, उड़ता है धूप में उसका पानी, गंदगी
फैलती है; लेकिन गति नहीं है।
नई मनुष्यता ने तालाब के किनारे तोड़ दिए हैं और
वह नदी बन गई है। और यह सौभाग्यपूर्ण है। लेकिन नदी के साथ हम तालाब की अपेक्षाएं
नहीं कर सकते। तालाब बंद होकर जीता था एक ही जगह, नदी रोज किनारे बदल देती है। रोज
तट बदल जाता है, रोज पानी बहा चला जाता है। गंगा जहां कल थी,
आज वहां नहीं है। कल जहां होगी, उसका हमें पता
नहीं है।
पहली दफे मनुष्य की चेतना नदी बन गई है और अज्ञात
की तरफ रोज भागी चली जा रही है। शिक्षक का काम था, जो ज्ञात है वह दे देना, अब तक, और चूंकि तालाब की दुनिया थी, इसलिए सब ज्ञात था। हजारों वर्ष से वही किनारा था, वही
वृक्ष थे, वही मछलियां थीं, वही सूरज
था। सब बंद था। इसलिए शिक्षक ज्ञान को दे देता था। पुराने शिक्षक का महत्वपूर्ण
काम यह था कि वह ज्ञान को दे दे बच्चों को। नये शिक्षक का महत्वपूर्ण काम सिर्फ
ज्ञान देना नहीं होगा, बल्कि अज्ञात का बोध देना भी होगा--वह
जो दी अननोन है। क्योंकि बच्चे कल वहां होंगे जहां हम कभी भी नहीं रहे। और अगर
हमने उन्हें सिर्फ ज्ञान ही दिया जो कि अतीत का है, तो हम
उन्हें भविष्य की रेत पर खड़े होने में समर्थ नहीं बना पाएंगे।
शिक्षक के सामने एक नया काम आ गया है कि वह
अज्ञात का बोध दे। वह न केवल इतना बताए कि हम क्या जानते हैं, वह यह भी बताए कि जो
भी हम जानते हैं वह कल व्यर्थ हो जाएगा, और नये जानने के
द्वार खुल जाएंगे। इसलिए पुराना शिक्षक एक सरटेंटी में था, एक
निश्चय में था। नया शिक्षक एक अनिश्चय में है। वह निश्चित नहीं हो सकता। और अगर
निश्चित होता है, तो मनुष्य को गति नहीं दे सकता। पुराना
शिक्षक कहता था, जो मैं कहता हूं वह ठीक है और तुम्हारा काम
है कि मान लो। नये शिक्षक को बहुत रिलेटिविस्ट होना पड़ेगा, उसे
सापेक्षवादी होना पड़ेगा। उसे कहना पड़ेगा कि शायद जो मैं कहता हूं वह ठीक है। अब तक
ठीक है, कल गलत भी हो सकता है। पुराना शिक्षक कहता था,
जो मैं कह रहा हूं, ठीक है। तुम भी अपनी
जिंदगी में उसको ठीक सिद्ध करना। नये शिक्षक को कहना पड़ेगा, जो
मैं कह रहा हूं, वह ठीक है। भगवान से प्रार्थना है कि तुम
उसे अगर गलत सिद्ध कर सको तो हित होगा मनुष्य का, आगे गति
होगी।
बहुत भिन्न काम शिक्षक के ऊपर है। और दो-चार
बातें कहना चाहता हूं। एक तो यह कि शिक्षा की हमारी जो धारणा है वह भी नये शिक्षक
को बदलनी पड़े तो ही नया शिक्षक भी पैदा हो सकता है। शिक्षा की हमारी अब तक की
धारणा सिर्फ इंफार्मेशन फीडिंग की है, सूचनाएं डाल देने की है। अंग्रेजी में शब्द है
एजुकेशन, वह बहुत अच्छा है। उसका मतलब होता है, टु ड्रा आउट। उसका मतलब होता है, भीतर कुछ है,
उसे बाहर निकाल लेना है। लेकिन शिक्षा अब तक की जो है वह भीतर जो है
उसे बाहर नहीं निकालती; बाहर जो है, उसे
भीतर डालती है--टु पुश इन। उसका जो काम है वह भीतर डालने का है। बाहर कुछ सूचनाएं
हमारे पास हैं, शिक्षक उनको भीतर डाल देता है। वह उन्हें
हेमर करता रहता है खोपड़ी पर और भीतर डाल देता है। भीतर वह व्यक्ति क्या हो सकता था,
इससे कोई संबंध नहीं है, बाहर हमारे पास क्या
डालने को है, वह हम उसके भीतर डाल देते हैं।
सूचना देने का काम ही क्या शिक्षा का काम है? शिक्षा पर्याप्त हो
जाती है? और ध्यान रहे, सूचना और ज्ञान
में बहुत फर्क है। सूचना वह है जो हमें बाहर से मिलती है और ज्ञान वह है जो हमारे
भीतर से आता है। अब अकेली सूचना से काम न चलेगा। अभी हिंदुस्तान में चलता है,
लेकिन बीस साल के बाद यहां भी न चलेगा। यूरोप और अमरीका में चलना
मुश्किल हो गया है। आज लाखों लड़के हैं, लड़कियां हैं जो कालेज
की क्लासेस छोड़ कर भाग गए हैं और जो यह कह रहे हैं, कि अगर
यही सब है तो फिर ठीक है। हमें इसकी जरूरत नहीं है। हमें ज्ञान चाहिए। हमें सिर्फ
इंफर्मेशन नहीं चाहिए। तो वे ज्ञान की तलाश में उलटे-सीधे न मालूम कितने तरह के
प्रयोग कर रहे हैं। वे एल एस डी भी ले रहे हैं, मेस्कलीन भी
ले रहे हैं, समाधि भी लगा रहे हैं, ध्यान
भी कर रहे हैं, किसी गुरु के पीछे भी जा रहे हैं, वे सब कर रहे हैं। वे यह कहते हैं कि बस यह सूचनाओं का संग्रह अगर हम हैं,
तो यह काम तो कंप्यूटर कर देगा, इसके लिए आदमी
की क्या जरूरत है? अभी हमें कंप्यूटर का पूरा बोध नहीं है।
बीस साल में हमें बोध हो जाएगा और हम भी कहेंगे कि जो काम कंप्यूटर की मशीन कर
सकती है, वह आदमी से क्यों लेना!
टिम्बकटू कहां है, मेडागास्कर कहां है, यह आदमी की खोपड़ी में भरने से कोई बहुत अर्थ नहीं है। यह कंप्यूटर कर
सकेगा। आदमी को चाहिए ज्ञान। ज्ञान का मतलब है कि आदमी के भीतर जो छिपा है वह कैसे
पूरा प्रकट हो, कैसे मैनीफेस्ट हो। आदमी के भीतर जो बीज छिपे
हैं, वे कैसे फूल बनें। इतना काफी नहीं है कि हम बाहर से कुछ
बातें सिखा दें। हम सिखा रहे हैं। पांच साल के बच्चे से हम सिखाना शुरू करते हैं
और पच्चीस साल तक हम सिखाते रहते हैं। और अगर पच्चीस साल के व्यक्ति को जो
युनिवर्सिटी से निकलता है, उसकी हम खोपड़ी की जांच-पड़ताल करें,
तो वह कोई बुद्धिमत्ता लेकर नहीं आता, वह
सिर्फ स्मृति का संग्रह लेकर बाहर आता है। और इसीलिए अक्सर ऐसा होता है कि
विश्वविद्यालय जिन्हें गोल्ड मेडल देता है, जिंदगी उन्हें
मिट्टी के मेडल भी नहीं देती। वे खो जाते हैं, उनका कुछ पता
नहीं चलता है कि वे कहां चले जाते हैं!
दुनिया में इतने विश्वविद्यालय हैं, हर वर्ष वे न मालूम
कितने स्वर्ण-पदक बांटते हैं, कितनी पदवियां बांटते हैं,
कितने लोग प्रथम आते हैं, फिर वे कहां खो जाते
हैं, जिंदगी में उनका कुछ पता नहीं चलता है। जिंदगी पर उनकी
छाप छूट ही नहीं पाती। और जिंदगी पर जिनकी छाप छूट पाती है, अक्सर
वे, वे लोग नहीं होते जो स्वर्ण-पदक धारी हैं। कुछ बात है,
कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है।
एक लड़का एक दिन सुबह अपने घर आया है। और अपने
पिता को उसने स्कूल की चिट्ठी दी है। उसके हेडमास्टर ने लिखा है कि यह लड़का सीख
नहीं सकता है, इसकी स्मृति बहुत कमजोर है। यह किसी परीक्षा में पास ही नहीं हो सकता। इसे
कृपा करके स्कूल से उठा लें, हम थक गए हैं। उस लड़के का नाम
उस वक्त किसी को पता नहीं था, वह तो बाद में पता चला। उसका
नाम था थाॅमस अल्वा एडीसन। जिस आदमी ने बाद में एक हजार आविष्कार किए हैं, उसके स्कूल के हेडमास्टरों ने लिख दिया है कि इसको स्कूल से हटा लें;
यह हमारे काम का नहीं है; इसकी स्मृति ठीक
नहीं है; यह कुछ सीख सकता नहीं।
एक आदमी बस में चल रहा था और उसने बस कंडक्टर से
टिकट ली है और पैसे दिए हैं। उसने कुछ पैसे वापस लौटाए हैं, उसने गिनती की है और
वापस पैसे लौटा कर कंडक्टर को कहा है कि पैसे कम मालूम पड़ते हैं। उस कंडक्टर ने
पैसे वापस गिने हैं, हाथ में जोर से पैसे पटक दिए हैं,
और कहा कि इट सीम्स, यू डू नाॅट नो फिगर्स।
ऐसा मालूम पड़ता है, तुम्हें अभी इकाइयां भी पता नहीं हैं
गणित की। किसी को पता नहीं था, वह आदमी अलबर्ट आइंस्टीन था।
जिसको एक बस कंडक्टर कह सकता है कि तुम्हें अभी
गणित की इकाइयां पता नहीं हैं। वह आदमी दुनिया का सबसे बड़ा गणितज्ञ हो जाएगा, यह हम सोच ही नहीं
सकते। असल में गड़बड़ इसीलिए हो गई थी, वह बड़ा गणितज्ञ होने को
था। और वह जो पैसे गिनने में उससे भूल हो गई थी, वह इसीलिए
हुई थी, क्योंकि उस वक्त भी वह निरंतर यह सोचता रहा था कि ये
दस इकाइयां ही क्यों हैं। यह एक से लेकर दस तक की संख्या सारी दुनिया में क्यों
हैं? और इसकी जरूरत क्या है? इससे कम
में काम नहीं चल सकता है? वह यही सोच रहा था। वह इसी सोचने
में निरंतर लगा रहा था।
और ठीक भी है, अगर कोई गणितज्ञ से आप पूछेंगे
कि दस की संख्या होने का क्या वैज्ञानिक कारण है तो बताना मुश्किल है, सिवाय इसके कि आदमी के हाथ में दस अंगुलियां हैं। और कोई कारण नहीं है,
और कोई बेसिस नहीं है उसकी, वह जो भी आदमी
पहले अंगुलियों से गिनना शुरू किया, दस अंगुलियां थीं,
इसलिए सारी दुनिया की भाषाओं में दस फिगर्स हैं। और कोई उसके भीतर
गणितज्ञ का कोई मीनिंग नहीं है। आइंस्टीन सोच रहा था कि इतनी ज्यादा, क्योंकि एक वैज्ञानिक को सोचना चाहिए कि कितने कम से कम में काम चल जाए।
तो वह सोच रहा था कि फिर इनसे तीन से काम चल सकता है। और बाद में उसने गणित के
बड़े-बड़े हल भी तीन से ही किए और एक-दो तीन के बाद उसका दस आ जाता था। ग्यारह-बारह,
तेरह, फिर बीस आ जाता, ऐसी
उसकी संख्या चलती थी। वह इसीलिए गड़बड़ा गया था। उसने वह गिनती की थी, वह गड़बड़ हो गई थी। लेकिन कंडक्टर एक बस का उसको कह सका कि आपको मालूम होता
है कि अंकगणित मालूम नहीं है, आप कृपा करके पैसे खीसे में रख
लें। थाॅमस अल्वा एडीसन को उसके हेडमास्टर ने कह दिया कि इस लड़के को स्कूल से अलग
कर लें, क्योंकि इसकी स्मृति कमजोर है।
हमारा स्कूल सिवाय स्मृति के और परीक्षा में कुछ
भी नहीं जांच पाता है। और ध्यान रहे, स्मृति का अच्छा होना बुद्धि के अच्छे होने का जरूरी
लक्षण नहीं है। अक्सर उलटा होता है। अक्सर बहुत अच्छी स्मृति वाले लोग बहुत गहरी
बुद्धि वाले लोग नहीं होते। क्योंकि स्मृति बिलकुल मैकेनिकल है, यांत्रिक है। और बुद्धि बड़ी और बात है। स्मृति अतीत से संबंधित है और
बुद्धि भविष्य से। स्मृति उससे संबंधित है जो ज्ञात है और बुद्धि उससे संबंधित
होती है जो अज्ञात है, अननोन है। उन दोनों की यात्रा अलग-अलग
है। जो नोन है, जो मालूम है, स्मृति
उससे संबंधित है। स्मृति संग्रह है। और जो अज्ञात है, जो
अनजान है उसकी तो स्मृति में कोई जगह नहीं है, क्योंकि उसका
हमें कोई पता ही नहीं है, बुद्धि उससे संबंधित है। विज्ञान
एक पैदा होता है तब जब वह अज्ञात में प्रवेश कर पाता है। चिंतक पैदा होता है तब,
जब वह अनजान में प्रवेश कर पाता है। स्मृति सिर्फ पंडित बना सकती है,
ज्ञानी नहीं, और पंडित कभी ज्ञानी नहीं हो
पाता है।
आज के शिक्षक के सामने सवाल होगा कि वह
विद्यार्थियों को सिर्फ पांडित्य न दे। क्योंकि पांडित्य अब ऊब पैदा करने वाला हो
गया है। अब पांडित्य किसी को भी अर्थपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है। क्योंकि जब से
कंप्यूटर विकसित हुए हैं तब से नया सवाल पैदा हो गया है कि यह सारी की सारी स्मृति
तो मशीन रख सकती है। हमसे हजार गुना ज्यादा रख सकती है, हमसे जल्दी उत्तर दे
सकती है। बहुत जल्दी छोटे पाकेट-कंप्यूटर्स होंगे जो खीसे में आदमी रख कर चल
सकेगा। तो सिर में बहुत किताबें रखने की जरूरत न होगी। वह अपने कंप्यूटर से पूछ
लेगा कि टिम्बकटू कहां है। वह कंप्यूटर बता देगा कि वहां है। अभी भी हम यही कर रहे
हैं। अभी हमको कंप्यूटर खोपड़ी में रखना पड़ता है। तो वहां बहुत बोझ हो जाता है।
वहां बहुत भारी हो जाती है बात। आधुनिक शिक्षक के सामने ये सारे सवाल हैं। उसे
ध्यान में लेना पड़ेगा कि उसके शिक्षक होने का भविष्य का जो फंक्शन है, भविष्य में उसका जो बड़े से बड़ा काम है--जिसके कारण विद्यार्थी उसे प्रेम
करेगा और सम्मान से भरेगा, वह है अज्ञात में प्रवेश कराने की
क्षमता पैदा करवाना। निश्चित ही यह संदेह से होगा, विश्वास
से नहीं होगा। निश्चित ही यह विचार से होगा, आस्था से नहीं
होगा। निश्चित ही यह ना और इनकार और अस्वीकार से होगा। यह हां, और चुपचाप स्वीकृति से नहीं होगा। डिनायल, डाउट,
आने वाले शिक्षक के बुनियादी शब्द होंगे कि वह सिखा सके इनकार करना।
वह सिखा सके संदेह करना। अगर हम एक युवक को विश्वविद्यालय से संदेहों से भरा हुआ
बाहर निकाल देते हैं, अनिश्चय में डांवाडोल, निश्चित ज्ञान का मालिक नहीं, लेकिन बहुत से
अनिश्चित आयामों में उत्सुक--निश्चित ज्ञान का पंडित नहीं, लेकिन
बहुत से अज्ञात प्रश्नों से उद्विग्न, तो शिक्षक ने काम पूरा
किया है। पहले वे उत्तर देते थे। शिक्षक का काम था उत्तर दे देना कि वह सब उत्तर
सिखा दे। नये शिक्षक का काम होगा कि वह ऐसे प्रश्न सिखा दे जिनके उत्तर खोजने पड़ें,
जिनके उत्तर नहीं हैं।
हम आज सारी दुनिया में पिछड़े हुए हैं, उसका एक कारण है कि
हमारी शिक्षा आज भी उत्तर पर निर्भर है। अभी भी प्रश्नों पर निर्भर नहीं है।
बट्र्रेंड रसल ने लिखा है कि जब मैं बच्चा था तो मैं सोचता था कि फिलासफी पढूंगा,
दर्शन शास्त्र पढूंगा, तो मुझे सब उत्तर मिल
जाएंगे। अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूं, नब्बे वर्ष पार कर रहा
हूं, तब मैं यह कहना चाहता हूं कि वह मेरी बड़ी भूल थी कि मैं
सोचता था कि सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। अब मैं नब्बे वर्ष में जानता हूं कि
जो उत्तर बचपन में उत्तर मालूम पड़ते थे वह भी उत्तर नहीं रहे हैं, और हजार नये प्रश्न खड़े हो गए हैं, जिनका कोई उत्तर
नहीं है। तो उसने लिखा है कि पहले मैं परिभाषा करता था फिलासफी की कि वह शास्त्र
जो उत्तर देता है। अब मैं परिभाषा करना चाहता हूं, वह
शास्त्र जो प्रश्न देता है। पुराना शिक्षक उत्तर देता था। जो उत्तर हमें मालूम न
था वह बता देता था। नया शिक्षक प्रश्न देगा, जो प्रश्न हमें
नहीं मालूम, वह हममें जगा देगा। और जब प्रश्न जगता है किसी
के प्राणों में तो एक बड़ी क्रांति हो जाती है। और जब उत्तर आता है, तो क्रांति नहीं होती, बड़ा संतोष हो जाता है।
नहीं, मरे हुए उत्तर नहीं चाहिए, जीवंत
प्रश्न चाहिए। क्यों? ताकि हम अपने उत्तर की खोज पर निकल
सकें। और जब कोई व्यक्ति प्रश्नों को लेकर उत्तर की खोज पर निकलता है, तो उसका जीवन एक यात्रा बन जाती है। नया शिक्षक नई पीढ़ियों को जीवन की खोज
की, जिज्ञासा की यात्राओं पर निकलने का माध्यम बनना
चाहिए--अतीत के प्रश्नों को दोहरा देने वाला, अतीत के उत्तर
हाथ में दे देने वाला नहीं। भविष्य के प्रश्नों को जगाने वाला, और भविष्य के अनजान प्रश्नों में आतुरता भरने वाला--तो शिक्षक नई स्थिति
में, नया मापदंड और नया मूल्य बन सकता है। जैसा मैंने कहा,
शिक्षा का मौलिक और गहरे से गहरा अर्थ--वह जो भीतर है वह बाहर लाना
है। इसका मैं कुछ उदाहरण देना चाहूंगा।
रवींद्रनाथ को उनके घर के लोग पढ़ा रहे हैं, लेकिन वह हैं कि वे
पढ़ते नहीं हैं। कुछ उनके भीतर है जो बहुत भिन्न है। गणित पढ़ाया जाता है और गणित
उनकी पकड़ के बाहर है। जिसकी भी कवि होने की संभावना है, गणित
उसकी पकड़ के बाहर होगा। गणितज्ञ और कवि एक साथ होना असंभव है, क्योंकि गणित के नियम बहुत और हैं, काव्य के नियम
बहुत विपरीत हैं। गणित में दो और दो चार होते हैं, काव्य में
कभी दो और दो तीन भी होते हैं और कभी पांच भी होते हैं। असल में काव्य तरल है,
गणित ठोस है। गणित बिलकुल पथरीला है और काव्य बहुत तरल और बहाव वाला
है। गणित के अपने नियम हैं और काव्य के अपने नियम हैं। गणित के नियम गणित की
दुनिया में ठीक हैं और काव्य के नियम काव्य की दुनिया में ठीक हैं। अगर गणितज्ञ
कविता लिखेगा तो बड़ी बेरस होगी।
आइंस्टीन की पत्नी गणितज्ञ नहीं थी, कवि थी, आइंस्टीन तो गणितज्ञ था। वह पहली रात को ही उसकी पत्नी जब उसे मिली थी,
तो उसने एक कविता सुनानी चाही थी। पहली रात को जो कवि नहीं होते वे
भी कविताएं सुनाते हैं, तो वह कवि थी। उसने कविता सुना देनी
चाही। लेकिन आइंस्टीन कविता को ऐसे सुनता रहा, जैसे कोई
परीक्षक सुनता है, या तो पुलिस का इंस्पेक्टर सुनता है,
वैसा सुनता है। पूरी कविता सुनने के बाद उसने कहाः एब्सर्ड, एब्सर्ड, एब्सर्ड बिलकुल बेकार है!
उसकी पत्नी ने कहाः क्या कहते हैं आप? कई लोगों ने इसकी
प्रशंसा की है। उसने कहा, वे कुछ जानते नहीं होंगे। क्योंकि
उसने उस कविता में कुछ प्रेमी की, प्रेयसी की बात की है और
प्रेमी प्रेयसी के लिए कह रहा है कि तेरा चेहरा चांद जैसा सुंदर है। आइंस्टीन कहता
है, हो ही नहीं सकता, हो ही नहीं सकता।
क्योंकि कहां चांद और कहां प्रेयसी का चेहरा, इसमें कोई
अनुपात ही नहीं है। इसमें कोई प्रपोर्शन ही नहीं है। और उसने कहाः एक स्त्री के
ऊपर अगर हम चांद को रख दें तो उस स्त्री का कहीं पता ही नहीं चलेगा कि वह कहां गई।
चेहरा तो बन ही नहीं सकता। और उसने कहाः तुझे पता ही नहीं चांद--किसने कहा कि
सुंदर है? बड़े गड्ढे हैं, खाइयां हैं,
टीले हैं, बड़ा कुरूप है, किसने कहा कि चांद सुंदर है? उसकी पत्नी ने किताब
बंद कर दी। उसने कहाः यह बात ही बंद करो, क्योंकि यह,
इसमें कम्युनिकेशन संभव नहीं है।
रवींद्रनाथ को मां-बाप पढ़ा रहे हैं। घर में बहुत
बच्चे थे। रवींद्रनाथ के घर में एक किताब रखी हुई है। अभी भी रखी हुई है। उस किताब
में हर बच्चे के जन्म दिन पर घर के जो बड़े बूढ़े हैं, वे अपने बच्चों के बाबत कुछ
भविष्यवाणियां करते रहे हैं। तो उसमें रवींद्रनाथ की मां ने लिखा है कि और सब
बच्चे तो ठीक हैं, उनसे बड़ी आशा है, रवींद्र
से कोई आशा नहीं है। कैसे आशा होगी, क्योंकि जब शिक्षक क्लास
में गणित पढ़ाता है, तब वह शिक्षक का चित्र बना रहे हैं। और
जब शिक्षक पढ़ाने आया है, तो वह उसके नाक-नक्शे का ध्यान कर
रहे हैं कि कल उसका चित्र कैसे बन जाए। वह चूक गए, वह कभी
मैट्रिक पास नहीं हुए। लेकिन भगवान की बड़ी कृपा कि उनके मां-बाप सफल नहीं हुए,
नहीं तो वह मैट्रिक पास करवा सकते थे और दुनिया एक बहुत अदभुत आदमी
से वंचित रह जाती। क्योंकि उस आदमी के भीतर काव्य था, और ऊपर
से गणित, भूगोल और इतिहास थोपे जा रहे थे।
आत्मिक चिंतन के लिए एक बड़ी समस्या है, और वह यह कि क्या हम
हर विद्यार्थी में वह थोपते जाएं जो हमने तय किया है, या
किसी सिलेबस कमेटी ने तय किया है, या दिल्ली में किसी आयोग
ने तय किया है। या कि उस व्यक्ति को देखें कि वह व्यक्ति क्या भीतर होने की क्षमता
लेकर आया है। बड़ा कठिन है--बड़ा कठिन है, क्योंकि एक-एक
व्यक्ति की क्षमता अलग है, और हमें तो मास एजुकेशन देनी है,
तो यह हो नहीं सकता, यह होना बड़ा मुश्किल
मालूम पड़ता है। एक-एक व्यक्ति अलग तरह का आदमी होने आया है और शिक्षा सबको एक जैसी
दी जानी है। तो ऊपर से थोपने का काम ही हो सकता है।
यह ऐसे ही है कि जैसे कि किसी गांव में बहुत मरीज
हों और एक ही डाक्टर हो, और उसके पास एक ही दवाई हो, और
वह परेशान हो कि एक-एक मरीज की कहां जांच करूं और कहां पता लगाओ कि किसको टी. बी.
है, किसको कैंसर है, किसको नजला है,
किसको क्या है, और दवाई भी ज्यादा नहीं है।
आदमी भी एक है और मरीज बहुत हैं, तो वह जो भी आए, उसको दवा देता चला जाए।
तो जो उस गांव की हालत हो जाए, वह दुनिया की हालत हो
गई है, शिक्षकों के कारण। क्योंकि शिक्षक को एक-एक व्यक्ति
के व्यक्तित्व का कोई मूल्य नहीं है। मैं आपसे कहता हूं, टी.
बी. और कैंसर में जितना फर्क है उससे ज्यादा फर्क दो आदमियों में होता है। और मजा
तो यह है कि दो आदमियों को भी अगर टी. बी. हो जाए तो दो तरह की टी. बी. होती है,
एक तरह की टी. बी. नहीं होती है।
हमारी हाथ की रेखाएं जितनी अलग हैं और हमारे
अंगूठे के निशान जितने अलग हैं। अभी मैं अंगूठे का निशान बनाऊं, तो सारी जमीन पर खोज
कर भी वह निशान फिर नहीं मिल सकता है। उतना ही व्यक्तित्व अलग है। और शिक्षा को
इसकी अभी तक कोई चिंता नहीं रही है। यह चिंता करनी पड़ेगी--यह चिंता करनी ही पड़ेगी।
अगर यह चिंता हम नहीं कर पाएंगे तो शिक्षा का पूरा अर्थ ही प्रकट नहीं हो पाता।
सबके लिए न तो भूगोल जरूरी है, सबके लिए न गणित जरूरी है,
सबके लिए न काव्य जरूरी है, न पेंटिंग जरूरी
है।
लेकिन हमने जो अभी दुनिया बनाई है उस दुनिया में
कुछ चीजें बहुत जरूरी हैं और कुछ चीजें बिलकुल गैर-जरूरी हैं। जैसे अगर गणित में
आप सफल हो जाते हैं, तो आप काम के आदमी हो जाएंगे और कविता में सफल हुए तो बेकाम हुए। अगर
कविता में सफल भी हो गए तो भी भूखों मरना पड़ेगा, अगर गणित
में बहुत सफल न भी हुए तो रोजी-रोटी मिल जाएगी। यह दुनिया हमने बनाई है, चारों तरफ वह जैसी सब आदमियों के लायक नहीं बनाई है और शिक्षा भी जो हम दे
रहे हैं, वह किन्हीं खास ढांचों में सबको ढाल देना चाह रहे
हैं। उस ढांचे में जो ठीक पड़ जाता है उसको तो आनंद आ जाता है, जो ठीक नहीं पड़ता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है।
उससे वह बहुत कठिनाई में पड़ जाता है।
इस समय जो बेचैनी है मनुष्य-जाति की और आदमी पागल
होता जा रहा है, आत्महत्या कर रहा है। चित्त परेशान है, रात नींद
नहीं है, मानसिक अशांति है, और जितनी
शिक्षा बढ़ती है, उतना यह सब उपद्रव बढ़ता है। ऐसा कुछ मालूम
पड़ता है कि शिक्षित होने में और पागल होने के अनुपात में कोई गहरा संबंध है। होता
चला जाता है। आज अमरीका में पंद्रह लाख से लेकर तीस लाख लोग रोज मानसिक चिकित्सा
के लिए सलाह लेते हैं। और ये सरकारी आंकड़े हैं और सरकारी आंकड़े कभी भी सही नहीं
होते हैं। क्योंकि अमरीकी सरकार कैसे कहे कि कितने आदमी रोज पागलपन की हालत में
हैं, तो घटा-बढ़ा कर तीस लाख बताती है। लेकिन यह संख्या इससे
चैगुनी होनी चाहिए।
जितना कोई मुल्क सभ्य होता है, शिक्षित होता है उतनी
मुश्किल में पड़ जाता है। वह तो डी. एच. लारेंस एक अदभुत विचारक था, उसने तो यहां तक क्रोध में सुझाव दे दिया कि सौ साल के लिए सब कालेज,
सब स्कूल, सब युनिवर्सिटी बंद कर दो, अगर आदमी को बचाना है। पहले तो लोगों ने समझा कि वह मजाक कर रहा है,
लेकिन उसकी मजाक धीरे-धीरे गंभीर होती जा रही है। और ऐसा लगता है कि
कहीं वह ठीक ही तो नहीं कह रहा है।
आज अमरीका में कोई तीस लाख लड़के हिप्पी हैं।
हिप्पी का मतलब, वह लड़के और लड़कियां जिन्होंने कह दिया है कि सब बेकार है, तुम्हारी सब व्यवस्था, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे संस्कार, तुम्हारी नीति--सब बेमानी है,
हम कुछ नहीं मानते। हमको तो जैसा जीना है हम जीएंगे, हमको सड़क के किनारे सोना है तो हम सोएंगे। हमको शराब पीनी है तो पीएंगे।
हमको नंगा नाचना है, तो हम नंगा नाचेंगे, क्योंकि कौन कहता है कि नहीं नंगा नाचना कोई बहुत अच्छी बात है, और कौन कहता है कि शराब नहीं पी, तो कोई बहुत बड़ा
काम हो जाएगा। क्योंकि जिन्होंने शराब नहीं पी है, उन्होंने
क्या कर लिया है!
वे बच्चे यह सवाल अपने बाप से यह पूछ रहे हैं। वे
यह पूछते हैं कि हम आज शादी करेंगे, कल तोड़ेंगे, हम शादी ही नहीं
करेंगे। हमें जिस लड़की के साथ रहना ठीक लगता है, हम रहेंगे,
जब तक ठीक लगता है ठीक, नहीं ठीक लगता है,
नहीं। अगर पिता समझाता है कि यह बात ठीक नहीं है, तो वे कहते हैं कि हम तुम्हारे और अपनी मां के बीच जो संबंध देख रहे हैं,
कलह का और दुश्मनी का, कृपा करके हम पर मत
थोपो। इस मार्ग को जाने पर हम राजी नहीं हैं। शिक्षक समझा रहा है, पढ़ो-लिखो, वे शिक्षक से पूछ रहे हैं, कि आपको पढ़-लिख कर क्या मिल गया है? आपने क्या पा
लिया है, पढ़-लिख कर? जो आपको मिल गया
है पढ़-लिख कर, वही हमको मिल जाएगा। कृपा करो, हम ऐसे ही अच्छे हैं।
हिंदुस्तान में भी ये सवाल उठ ही आएंगे। अभी हम
बहुत गरीब हैं, इसलिए थोड़ी देर लगेगी, लेकिन ये सवाल उठ ही आएंगे,
यह देर-अबेर की बात है। यह क्या हो गया है? कहीं
कुछ भूल हो रही है। सभी के योग्य और सभी के व्यक्तित्व के भीतर, जो छिपा है उसे प्रगट करने की संभावना की तरफ हमारी खोज कम है। हमारी खोज
टाइप के लिए है। हम एक खास टाइप सोच कर बैठ गए हैं, उस टाइप
में सबको ढाल देना है। उसमें कुछ के लिए ठीक पड़ जाता है और वे प्रसन्न हो जाते
हैं। कुछ के लिए ठीक नहीं पड़ता है, और वे मुश्किल में पड़
जाते हैं। अधिक के लिए ठीक नहीं पड़ता है और वह मुश्किल में पड़ जाते हैं। उनकी
बेचैनी परेशानी बन जाती है। उनकी परेशानी, चिंता और
बीमारियां बन जाती हैं।
जब एक आदमी चिंतित और परेशान होता है, तो ध्यान रखना,
दस को चिंतित और परेशान कर देता है। क्योंकि चारों तरफ उसकी चिंता
और परेशानियों के वर्तुल फैलने शुरू हो जाते हैं। जिन-जिन से उनका संबंध होगा सबको
वह बीमार कर डालता है, सबको परेशान कर डालता है। क्या करना
होगा?
आधुनिक शिक्षक के सामने सवाल यह है कि वह व्यक्ति
के भीतर सिर्फ बेचैनी और अशांति और तनाव की दुनिया खड़ी न करे, व्यक्ति के भीतर एक
शांति और एक आनंद और एक प्रकाश का फूल खिलाने में भी सहयोगी हो जाए। लेकिन यह तभी
हो सकता है, यह तभी हो सकता है गुलाब का फूल अगर पूरी तरह
खिल जाए तो गुलाब के पौधे को पास से देखना। उसके रोएं-रोएं में आनंद छा जाता है।
जब भी कोई पौधा अपना पूरा फूल खिला लेता है, तो आनंद से भर
जाता है।
और आदमी का पूरा फूल नहीं खिल पाता है। आदमी में
भी जब पूरा कोई फूल खिलता है--जैसे कोई कृष्ण, या कोई बुद्ध या कोई क्राइस्ट जब
पूरी तरह खिल जाता है, तो उसके सारे प्राण का रोआं-रोआं आनंद
से पुलकित हो जाता है। लेकिन हम नहीं खिल पाते। मेरी दृष्टि में चाहे कितनी ही
कठिनाइयां हों, हमें शिक्षा के ऐसे प्रयोग और ऐसी
प्रक्रियाएं खोजनी पड़ेंगी, जिनमें एक-एक व्यक्ति के भीतर का
फूल खिल सके। शिक्षण संस्थाएं फैक्ट्रियां नहीं होनी चाहिए, शिक्षण
संस्थाएं सिर्फ प्रत्येक व्यक्ति की उसकी आत्म-खोज में सहयोग के स्थल होने चाहिए।
तो वह अपने आत्म-खोज की, सेल्फ आइडेंटिटी की खोज में निकल
जाए। और अपने को पा ले कि वह कौन है, क्या हो सकता है।
सारा ढांचा सोच कर फिर से बदलना पड़ेगा। और इसके
पहले कि हम पश्चिम के पूरे ढांचे को ओढ़ लें, जो कि हम कर रहे हैं और हमारे नेता बहुत जिद्द में
हैं, वे कहते हैं, हम बहुत जल्दी करके
रहेंगे, हम पूरे ढांचे को ओढ़कर रहेंगे। उन नेताओं को मुझे
करीब-करीब ऐसा मालूम पड़ता है कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता, अंधे
हैं। क्योंकि जिस ढांचे को पश्चिम में सफलता मिल गई है, उसका
परिणाम उनको दिखाई नहीं पड़ता है। वह परिणाम वहां क्या हो रहा है? वे कहते हैं, हम सबको शिक्षित करके रहेंगे--बिलकुल
करके रहिए। अब आप राजी हो गए तो होना पड़ेगा सबको शिक्षित। वे कहते हैं, कंप्लसरी शिक्षा देकर रहेंगे। वह भी करिए। सबको शिक्षित करिए, बड़ा अच्छा मालूम पड़ता है, लेकिन जहां अनिवार्य
शिक्षा है और जहां शिक्षा ने सारे लोगों को शिक्षित कर दिया है, वहां परिणाम क्या हुआ है, वह बिना देखे ही हुए,
यह सब किए जाना पागलपन होगा।
मैं सोचता हूं, हिंदुस्तान बहुत दुर्भाग्यों के
कारण, एक सौभाग्य की स्थिति में है और वह यह कि पश्चिम जो
प्रयोग कर रहा है उसे पूरा करके हमें देखने की जरूरत नहीं है। हम पिछड़ गए हैं,
इसलिए, हमें कोई पूरा करके देखने की जरूरत
नहीं है। हम कुछ नये प्रयोग कर सकते हैं। और वे नये प्रयोग पश्चिम के लिए भी
मार्गदर्शक हो सकते हैं।
वह तो विस्तार की बात होगी कि कैसे व्यक्ति के
फूल खिलने की, स्पांटेनियस, उसके सहजस्फूर्त होने के लिए हम क्या
करें। लेकिन अगर इतनी स्वीकृति भी हमारे मन में आ जाए कि प्रत्येक व्यक्ति अलग है
और दूसरे जैसा नहीं बनाया जा सकता, न बनाया जाना चाहिए,
तो हम बहुत ही गहरे परिणाम ला सकते हैं। अगर एक विद्यार्थी गणित में
कमजोर है, तो शिक्षा को यह जोर देने की जरूरत नहीं है कि वह
गणित में मजबूत होगा तभी वह स्कूल से बाहर निकल सकता है। नहीं कोई जरूरत है। गणित
कुछ ऐसी बात नहीं है कि उसके बिना जिंदगी नहीं हो सकती। और हमारे जोर देने से भी
कुछ बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है। सिर्फ एक फर्क पड़ेगा कि वह व्यक्ति एक
इनफिरिआरिटी काम्पलेक्स लेकर, एक हीनता का भाव लेकर दुनिया
में जाएगा कि मैं कमजोर हूं गणित में, और यह भाव उसको जिंदगी
में दूसरे तरफ भी हराने वाला भाव बन जाएगा।
इसलिए जो व्यक्ति जो हो सकता है--तो मेरी दृष्टि
में ऐसा मालूम पड़ता है, जो मैं अंतिम बात कहना चाहता हूं वह यह कि सबसे पहला
काम तो यह है कि प्राथमिक स्कूल, जहां हम पहली दफा बच्चों से
साक्षात्कार करते हैं, जहां छोटे बच्चे पहली दफे पुरानी पीढ़ी
के आमने-सामने खड़े होते हैं, जहां एनकाउंटर शुरू होता है,
वहां श्रेष्ठतम शिक्षक होने चाहिए। अभी हमने वहां निकृष्टतम शिक्षक
बिठा रखे हैं। जिनको हम युनिवर्सिटी में बिठाए हुए हैं, उनको
सबको प्राइमरी स्कूल में होना चाहिए। क्योंकि वहां पहला मुकाबला है, पुरानी पीढ़ी का नई पीढ़ी से। वहां पुरानी पीढ़ी को अपने श्रेष्ठतम व्यक्ति
खड़ा करना चाहिए, क्योंकि वह अनुभव सदा के लिए कीमती होगा।
लेकिन हमारा ऐसा खयाल है, प्राथमिक शिक्षक तो
कोई होना न चाहे। युनिवर्सिटी में भी जो शिक्षक जरा दो-चार साल आगे हुआ कि वह कहता
है कि अंडर ग्रेजुएट नहीं पढ़ाएंगे, तो पोस्ट ग्रेजुएट
पढ़ाएंगे। अंडर ग्रेजुएट बेइज्जती है पढ़ाना। जब कि सचाई यह है कि प्राथमिक स्कूल से
ज्यादा कठिन और कहीं कोई बात नहीं है, बाद में सब सरल होता
चला जाता है। असली सवाल वहां है जहां बिलकुल नई पीढ़ी, कच्ची
पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सामने खड़ी होती है, वहां, वहां श्रेष्ठतम शिक्षक होने चाहिए।
देश में सारे मनोवैज्ञानिकों को हमें प्राथमिक
स्कूल में उलझा देना चाहिए कि वहां खोज कर लें कि व्यक्ति हो क्या सकता है। वे चार
वर्ष दो काम के लिए होने चाहिए, एक तो हम जिसको बहुत प्राथमिक ज्ञान कहें, जो जिंदगी के लिए, सब के लिए जरूरी होगा, वह दे दें। और दूसरी, उससे भी कीमती बात कि हम चार
वर्ष में यह खोज लें कि यह व्यक्ति हो क्या सकता है, इसकी
संभावना क्या है! ताकि हम उसे मार्ग दे सकें।
तो ऐसा न हो कि जो चमार बन सकता था वह मिनिस्टर
बन जाए, जो मिनिस्टर बन सकता था वह चमार बन जाए। ऐसा हो रहा है और सब अस्त-व्यस्त
हो गए हैं। जिसको जहां होना चाहिए, वह वहां नहीं है। कोई
कहीं है, कोई कहीं है। सब अस्त-व्यस्त है। उसका कारण है कि
वह प्राथमिक शिक्षा फिर शिक्षा का ही केंद्र नहीं होना चाहिए, वहां हमारी जांच-पड़ताल भी होनी चाहिए कि यह व्यक्ति चार साल में हम परख
लें कि यह हो क्या सकेगा। इसकी पहचान कर लें, इसको पकड़ लें,
इसको जान लें, इसकी दिशा को खोज लें।
लेकिन अभी कोई दिशा का सवाल नहीं है। चैथी कक्षा
के बाद, पांचवीं कक्षा के बाद उसे कहां भर्ती होना है, क्या
पढ़ना है, ये सब संयोग तय कर रहे हैं, इसमें
कोई वैज्ञानिकता नहीं है। पिता तय कर देता है कि लड़के को डाक्टर बनाना है और लड़का
पता नहीं क्या बनने को पैदा हुआ है। लड़का पता ही नहीं क्या बनने को पैदा हुआ है और
पिता तय कर रहा है। और पिता बेचारा इसलिए तय कर रहा है कि डाक्टर की मार्केट
वैल्यू है। बाजार में कीमत है, लड़के को बाजार में बेचना है,
तो वहां डाक्टर के पैसे मिलेंगे वहां और किसी के पैसे मिल सकते
नहीं। इंजीनियर बनाना है, वहां पैसे मिल जाएंगे और तो पैसे
मिल सकते नहीं हैं और पैसा महत्वपूर्ण है, यह व्यक्ति
महत्वपूर्ण नहीं है, जो यह पैदा हुआ है। उसके हिसाब से सब चल
रहा है। वह तय कर देगा, वह उसे पढ़ना है, उसमें उसे जी जान लगा देनी है।
मेरी अपनी समझ यह है कि प्राथमिक शिक्षा पर सबसे
पहले ध्यान दिया जाना जरूरी है, क्योंकि प्राथमिक शिक्षक सबसे महत्वपूर्ण शिक्षक है।
और वहां हमें श्रेष्ठतम लोगों को खड़ा कर देना चाहिए। इधर मैं ऐसा सोचता हूं,
यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम प्राथमिक स्कूल में कोई पढ़ाता है उस
हिसाब से उसकी तनख्वाह तय न करें। तनख्वाह हम उसकी इस हिसाब से तय करें कि वह आदमी
क्या है। वह चाहे युनिवर्सिटी में पढ़ाए और चाहे पहली कक्षा में पढ़ाए। और श्रेष्ठतम
को हम नीचे ले आएं। असल में बुनियाद के पास श्रेष्ठतम होने चाहिए, शिखर तो सम्हल सकता है।
लेकिन आदमी तो डगमगा गया है, उनकी बुनियाद तो
बिलकुल कमजोर है। शिखर बहुत मजबूत बनाते हैं। शिखर भारी होता चला जाता है। उलटा
पिरामिड बना रहे हैं, आदमी का। नीचे बहुत छोटा सा आधार रख
देते हैं, ऊपर बड़ा भवन बनाते हैं। उससे बड़ी आशाएं करते हैं,
वे सब आशाएं गिर जाती हैं। क्योंकि वह आदमी खड़ा नहीं हो पाता। नीचे
बड़ा भवन बनाना पड़े।
और यह समझ लेना जरूरी है कि इसके पहले कि हम
शिक्षा के जगत में किसी व्यक्ति को प्रवेश कराएं, वह क्या हो सकता है, इसकी खोज-बीन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसकी खोज-बीन न हो सके तो कोई
हर्जा नहीं है, एक आदमी अशिक्षित रह जाए। लेकिन इस खोज-बीन
के पहले उसको शिक्षित करना बहुत खतरनाक है। कहीं ऐसा न हो कि वह जो हो सकता था
उससे उलटे ढांचे में उसको फंसा दें, तो वह जिंदगी भर अपने
ढांचे से लड़ता रहे और मरता रहे, और परेशान हो जाए।
रोज मुझे लोग मिलते हैं जो अपने ढांचों से लड़ रहे
हैं। वे परेशान हैं, घबड़ा गए हैं, हैरान हो गए हैं, मुश्किल में पड़ गए हैं। बचने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि जो ढांचा है,
जिसमें वे शिक्षित हुए हैं, अगर उसको छोड़ दें
तो वे उनके पास कुछ अर्थ नहीं रह जाता, काम नहीं रह जाता,
उपयोग नहीं रह जाता। और अगर उसमें ही लगे रहते हैं, तो उनकी आत्मा तड़फती है और आत्मा के लिए मार्ग नहीं मिल पाता। आदमी इतना
मुर्झाया हुआ हो गया है, उसका और कोई कारण नहीं है। प्रत्येक
व्यक्ति जो हो सकता है, वह नहीं हो पा रहा है।
शिक्षक के लिए बड़े काम हैं, भविष्य में। शायद उसी
के लिए बड़े काम हैं। और सब क्रांतियां असफल हो गई हैं। राजनीतिक क्रांतियां असफल
हो गई हैं, आर्थिक क्रांतियां हुईं, वे
भी असफल हो गई हैं, आदमी नहीं बदला। न फ्रांस में कुछ हुआ,
न रूस-चीन में कुछ हुआ। आदमी वैसा का वैसा है। अब एक ही आशा है
भविष्य में कि एक शिक्षा की क्रांति हो जाए--एक रिवोल्यूशन इन एजुकेशन हो जाए तो
शायद एक आशा बची है, और मुझे लगता है कि वही सबसे बड़ी
संभावना है क्रांति की। अगर शिक्षा पूरी वैज्ञानिक हो सके और आदमी की आत्मा की
तलाश बन सके, तो शिक्षक के सामने बड़ा काम है जो पुराने
शिक्षक के पास कभी भी नहीं था। शिक्षक के सामने बड़ा भविष्य है जो पुराने शिक्षक के
पास कभी भी नहीं था। लेकिन आज बड़ी मुश्किल है। पुराना शिक्षक खो गया है, नया पैदा नहीं हुआ है और बीच की बेचैनी है। उस बीच की बेचैनी में शिक्षक
अटका हुआ है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, हजार बातें हैं कहने
की; लेकिन एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
मैंने सुना है, एक गांव में एक छोटा सा चर्च था।
और उस राष्ट्र का जो सबसे बड़ा पुरोहित था वह उस चर्च को विजिट दे रहा था, आ रहा था मिलने चर्च को। देश भर में घूम रहा था। दस-पांच वर्ष में एक दफा
वह चक्कर लगाता था, बड़ा पुरोहित। जब उस चर्च के दरवाजे में
प्रविष्ट हुआ और गांव का छोटा सा पुरोहित उसको अंदर ले जाने लगा तो उस बड़े पादरी
ने एक सवाल उठाया, क्योंकि परंपरागत नियम था कि जब भी बड़ा
पादरी, बड़ा पुरोहित किसी चर्च में जाता तो उसके स्वागत में
घंटियां बजाई जातीं। उस रोज पादरी से पूछा कि क्या बात है, तुम्हारे
चर्च में घंटियां नहीं बजाई जा रही हैं। उसने कहा, हजार कारण
हैं। उस बड़े पुरोहित ने कहाः हजार कारण? मसलन, पहला? तो उसने कहाः पहला तो एक है कि चर्च में घंटी
ही नहीं है। उस बड़े पुरोहित ने कहा बाकी हजार अब रहने दो। एक ही काफी है।
तो ऐसे तो हजार बातें मेरे मन में कहने को हैं, लेकिन एक ही बात काफी
है कि शिक्षक अभी है नहीं और इसके लिए थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं। मेरी बातों को
सोचना, मानने की कोई जरूरत नहीं है। मैं कोई गुरु नहीं हूं
कि आपको उत्तर दे दूं। मैं तो कुछ प्रश्न देना चाहता हूं। मैं कोई निश्चित बात
आपको नहीं दे रहा। आपको अनिश्चय में छोड़ना चाहता हूं, ताकि
आप सोचें, खोजें और शायद कुछ हो सके।
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