शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-पच्चीसवां
शक्ति-नियोजन
मेरे प्रिय आत्मन्!
शिक्षा का जगत सदा से क्रांति का विरोधी रहा है।
शिक्षा सदा से प्रतिगामी रही है, रिएक्शनरी रही है। ऐसा होने का कारण था--आज तक की
सारी शिक्षा अतीत-उन्मुख रही है, पीछे की तरफ देखती रही है।
यही कारण है कि शिक्षकों ने आज तक क्रांतिकारी विचारक पैदा नहीं किए। शिक्षकों के
ऊपर आज तक किसी आविष्कार का इल्जाम नहीं लगाया जा सकता। शिक्षकों ने कोई आविष्कार
नहीं किए। शिक्षालय और विद्यापीठ नये का अब तक स्वागत नहीं करते रहे हैं, उसका कारण था कि पुराने को नई पीढ़ी तक पहुंचा देना ही उनका काम था। वह काम
पूरा हो जाए, शिक्षा का काम पूरा हो जाता था।
यह अब तक ठीक था, लेकिन आगे ठीक न हो सकेगा।
शिक्षा के सामने एक नई बात और पैदा हो गई है। अतीत का ज्ञान ही युवकों को नहीं दे
देना है, युवकों को भविष्य का नागरिक भी बनाना है। एक काम अब
तक किया गया। दूसरा काम पहली बार शिक्षक के हाथ में आया है।
अब तक शिक्षक अपने को
उस काम को पूरा करने में समर्थ नहीं बना पाता था। अतीत के ज्ञान को दे देना अत्यंत
यांत्रिक कृत्य है। भविष्य के नागरिक को निर्मित करना बहुत सृजनात्मक, बहुत क्रिएटिव बात है। अतीत के ज्ञान को दे देने के लिए बहुत बुद्धिमान
लोगों की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि बहुत बुद्धिमान लोग अतीत के ज्ञान को देने
के काम में लगाए ही नहीं जा सकते। बुद्धिमान सदा भविष्योन्मुख होता है। बुद्धिमान
को अतीत का ज्ञान दूसरों को सौंपने का काम बहुत व्यर्थ का मालूम पड़ेगा। अतीत के
ज्ञान को नई पीढ़ी को सौंपने के लिए बहुत मध्यमवर्गीय बुद्धि की जरूरत है। लेकिन
भविष्य का नागरिक बनाने के लिए प्रथम कोटि की प्रतिभा जरूरी है।
शिक्षक का व्यवसाय समादृत हो रहा है, लेकिन प्रथम कोटि की
प्रतिभा शिक्षक की तरफ आकर्षित नहीं हुई है। परिणाम में अब तक तो ठीक था, लेकिन नया जिम्मा जो शिक्षक के ऊपर आया है उसे पूरा करना मुश्किल पड़ेगा।
इस नये जिम्मे को थोड़ा सा समझ लेना जरूरी है। बंधे-बंधाए उपलब्ध ज्ञान को देना
बहुत सरल है, लेकिन नये ज्ञान की खोज की क्षमता और प्यास
पैदा करना बहुत कठिन है। और भविष्य का नागरिक यदि बनाना हो नई पीढ़ी को तो केवल
स्मृति, मेमोरी के आधार पर नहीं; बुद्धि,
इंटेलिजेंस के आधार पर ही उसे बनाया जा सकता है। पिछली सारी शिक्षा
स्मृति पर केंद्रित है और इसीलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि विश्वविद्यालय जिन्हें गोल्ड
मेडल देता है, जिंदगी उन्हें मिट्टी के मेडल भी नहीं दे
पाती। वे गोल्ड मेडलिस्ट जिंदगी में कहां खो जाते हैं, कुछ
पता नहीं चलता। जिंदगी में उनकी कहीं कोई उपादेयता नहीं मालूम पड़ती है। वे जो
विश्वविद्यालय में चमकते हुए सितारे थे वे अचानक जिंदगी में बुझ जाते हैं और राख
हो जाते हैं।
कुछ कारण हैं--जिंदगी मांगती है बुद्धिमत्ता, इंटेलिजेंस, वि.जडम; और विश्वविद्यालय देता है स्मृति, मेमोरी। जिंदगी में स्मृति काफी नहीं है। और यह भी बड़े मजे की बात है कि
बहुत ज्यादा स्मृति होना अनिवार्य रूप से बहुत बुद्धिमान होने का लक्षण नहीं है।
आमतौर से उलटा होता है। बहुत बुद्धिमान आदमी की स्मृति कमजोर होती है। बहुत
बुद्धिमान लोग भुलक्कड़ होते हैं। असल में स्मृति बिलकुल यांत्रिक प्रक्रिया है।
उससे बुद्धि का कोई संबंध नहीं है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा स्मृति को ही
आरोपित करने में व्यय होती रही है। जितने पीछे हम लौटेंगे उतनी स्मृति की शिक्षा
गहरी थी। स्मरण करा देना ही शिक्षक का काम था। रटा देना, पक्का
मजबूत मन में बिठा देना, संस्कारित कर देना, कंडीशनिंग कर देना ही शिक्षा का काम था। शिक्षा ने बुद्धिमत्ता पैदा नहीं
की। शिक्षा ने स्मृति पैदा की है; जो पुनरुक्त कर सकती है।
इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मृति की परीक्षाएं
हैं, बुद्धिमत्ता की नहीं, इंटेलिजेंस की नहीं। हम
परीक्षाओं में सिर्फ इस बात की जानकारी कर लेना चाहते हैं कि कौन व्यक्ति ठीक से
दोहरा सकता है। लेकिन ठीक से दोहराने वाला आदमी जिंदगी में खो जाएगा क्योंकि
जिंदगी रोज नये सवाल उठाती है। और ठीक से दोहराने वाला सिर्फ पुराने उत्तर दोहरा
सकता है। पुराने उत्तर जिंदगी के नये सवालों के सामने हार जाते हैं, बेमानी हो जाते हैं। बंधी हुई टेक्स्ट बुक में जो लिखा है, परीक्षा दे देना एक बात है। जिंदगी की कोई बंधी हुई परीक्षा नहीं है।
जिंदगी बहुत चपल है, बहुत चंचल है, उसकी
परीक्षा का बंधा हुआ हिसाब नहीं है। और जिंदगी की किताब के पीछे कहीं उत्तर नहीं
लिखे हैं जिनकी चोरी की जा सके।
तो जिंदगी में जिसे हम विश्वविद्यालय में प्रतिभा
कहते हैं, वह जिंदगी में प्रतिभाहीन होती है। और कई बार तो ऐसा होता है कि
विश्वविद्यालय में जिसकी कोई गणना न थी वह जिंदगी में बड़ा प्रतिभावान सिद्ध हो
जाता है। अगर हम दुनिया के प्रतिभाशाली लोगों के नाम उठा कर देखें तो उनमें से
गोल्ड मेडलिस्ट शायद ही कोई होे।
कुछ कारण हैं--स्मृति पर बहुत आधार खतरनाक है।
फिकर करनी पड़ेगी बुद्धि के विकास की। शिक्षा में क्रांति का पहला आधार होगा स्मृति
को केंद्र से हटाएं, बुद्धि को केंद्र पर रखें। पहला सूत्र आपसे बात करना चाहता हूं। स्मृति
नहीं, क्योंकि स्मृति का काम तो अब यंत्रों से भी लिया जा
सकता है। टेप-रिकार्डर और कंप्यूटर भी काम कर देंगे। अब, अब
बहुत जल्दी छोटे कंप्यूटर बन जाएंगे जिनको एक आदमी खीसे में लेकर चल सके और जो भी
उत्तर पूछना हो पूछ ले। फिर गोल्ड मेडलिस्ट का क्या होगा? उसका
कोई उपयोग ही नहीं रह जाने वाला है। उपयोग खत्म हो गया है। रोज-रोज स्मृति का
उपयोग कम हुआ है, बुद्धि का उपयोग बढ़ा है।
पुरानी भाषाएं अगर हम एक दृष्टि डालें तो हमारी
समझ में आएगा--संस्कृत, अरबी, ग्रीक या लैटिन इस भांति
से बनाई गई थीं कि स्मरण की जा सकें। इसलिए पुरानी भाषाएं गद्य में नहीं, पद्य में लिखी हुई हैं, कविता में लिखी हैं। पुरानी
सारी भाषाएं ऐसी हैं कि उनको गाया जा सके--जैसे, संस्कृत या
अरबी या ग्रीक। गाने से कोई चीज जल्दी याद की जा सकती है इसलिए पुरानी भाषाएं
कविता पर जोर देती थीं। यह जान कर हैरानी होगी कि संस्कृत में गणित, भूगोल, ज्योतिष और वैद्यक की किताबें तक काव्य में
लिखी गई थीं। उनको याद करने का सवाल था। बड़ा सवाल याद करने का था कि कोई चीज याद
कैसे हो सके? रिदिम अगर हो तो याद जल्दी हो जाए।
लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसे
दिखाई पड़ा कि सवाल याद करने का नहीं है, सवाल नये को खोजने का है। याद किया जाता है पुराने को,
खोजा जाता है नये को। और जो कौम और जो विद्यार्थी और जो शिक्षा याद
करने पर ही निर्भर हो, नये को नहीं खोज पाएगी। नये को याद
नहीं किया जा सकता। याद सिर्फ पुराने को किया जा सकता है। नये को तो खोजना पड़ेगा,
डिस्कवर करना पड़ेगा।
हमारे विद्यालय, अब तक के विद्यालय नये की खोज के
लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं। पुराने को याद करा देने की चेष्टा में संलग्न हैं।
स्मृति बहुत ज्यादा से ज्यादा हमें संग्रह बना सकती है, लेकिन
व्यक्तित्व नहीं देती है, आत्मा नहीं देती है। नये की खोज
कैसे हो? स्मृति पर जोर कम करना पड़े, प्रतिभा
पर जोर देना पड़े। मेरी दृष्टि में दो-तीन बातें खयाल में आती हैं।
पहली बात तो यह--अब तक का शिक्षक जोर देता है कि
बंधा हुआ उत्तर दो; वही सही है। भविष्य के शिक्षक को जोर देना पड़ेगा, बंधा
हुआ उत्तर कृपा करके मत दो, नया उत्तर खोजो। नये उत्तर का
ज्यादा सम्मान होगा, चाहे नया उत्तर थोड़ा गलत ही क्यों न हो।
पुराने उत्तर का सम्मान नहीं होना चाहिए, चाहे पुराना उत्तर
बिलकुल ठीक ही क्यों न हो। क्योंकि बिलकुल ठीक उत्तर भी अगर सिर्फ दोहराया जाता है
तो प्रतिभा को विकसित नहीं करता है। और नया उत्तर अगर थोड़ा गलत भी है तो प्रतिभा
को विकसित करता है। असल में भूल करने का भय हमें छोड़ देना चाहिए। भूल वह करेगा ही
जो नये रास्ते पर चलेगा। सिर्फ वही आदमी भूल नहीं करता जो बंधी हुए लकीरों पर
घूमता है। नये की खोज में भूल अनिवार्य है।
मेरी अपनी दृष्टि है कि अब तक शिक्षाशास्त्री भूल
से इतना डरा रहा है कि नये में कदम नहीं रख पाता है। हां, भूल एक बार ही करनी
चाहिए। रोज नई भूल करनी चाहिए, पुरानी भूलें नहीं दोहरानी
चाहिए। क्योंकि पुरानी भूल दोहराने से सिर्फ बुद्धि को नुकसान पहुंचता है। जो आदमी
रोज नई भूलें कर सकता है उसकी प्रतिभा निरंतर विकसित होती चली जाती है। नई भूलें
करना बहुत बड़ा साहस है। दुनिया में जितने अभीष्ट आदमी हैं वे उन लोगों से हुए हैं,
जो भूल करने के लिए तैयार हैं, नहीं तो नये की
खोज नहीं हो सकती। नये के साथ भूल तो होगी ही।
मैंने सुना है कि आइंस्टीन अपने एक युवक खोजी के
साथ एक प्रयोग में लगा था। कोई डेढ़ वर्ष से प्रयोग चल रहा था और सात सौ बार असफलता
आ गई, सात सौ बार प्रयोग करने पर बार-बार असफलता हुई। वह जो युवक था वह थक गया
और भाग गया। लेकिन आइंस्टीन रोज सुबह फिर ताजा, भागा हुआ
लबोरेटरी में चला आता और फिर काम में लग जाता। उस युवक ने कहाः हद्द हो गई। सात सौ
बार हार चुके हैं, सात सौ बार भूल हो चुकी है, आप थकते नहीं! मैं तो बुरी तरह थक गया और ऊब गया। आइंस्टीन ने कहाः मैं तो
सोचता था, तुम जवान हो। तो तुम इतनी जल्दी बूढ़े हो गए?
भूल करने से इतनी जल्दी थकते हो? मैं तो बहुत
प्रसन्न हूं। उस युवक ने कहाः मैं भी हैरान हुआ आपकी प्रसन्नता को देख कर। सात सौ
बार भूल करने के बाद भी आप प्रसन्न हैं? आइंस्टीन ने कहाः
तुम्हारे देखने का ढंग ही गलत है। मैं इस तरह सोचता हूं कि सात सौ रास्ते हमने खोज
लिए, सात सौ रास्ते गलत हो गए। अब ठीक रास्ता करीब आता जा
रहा है। अब सात सौ रास्तों पर भटकने की जरूरत न रही। हो सकता है, सात सौ एकवां रास्ता ठीक हो। तो हमने सात सौ काट डाले। हमारा प्रयोग असफल
नहीं हो रहा है। हम असफलता को काट रहे हैं। हम सफलता के करीब पहुंच गए हैं। आखिर
वह क्षण आ जाएगा कि भूल-चूक के सब रास्ते बंद हो जाएंगे और ठीक रास्ता मिल जाएगा।
सत्य की खोज भूल से गुजर के ही हो सकती है। सत्य
का मतलब है, हमने असत्य के सब द्वार खोज डाले और गलत पाए। फिर अंत में वही शेष रह गया
जो सत्य है। और जिंदगी बहुमुखी है, बहुआयामी है, मल्टी-डाइमेन्शनल है। उसमें तो खोजना पड़ेगा। सत्य कहीं रेडीमेड नहीं रखा
है कि हम जाएंगे और मिल जाएगा। भूल करनी पड़ेगी, चूकना पड़ेगा,
भटकना पड़ेगा। सत्य की खोज ऐसे ही है जैसे कोई पहेली में भटकता है।
लेकिन जितनी भूलें हो चुकती हैं उतने हम सत्य के करीब पहुंचने लगते हैं क्योंकि
उतनी भूलें करने का फिर कोई उपाय नहीं रह जाता है। पुरानी शिक्षा जोर देती है,
भूल मत करो। और अगर भूल नहीं करनी है तो जो बंधा हुआ उत्तर है उसको
ही पकड़ना पड़ेगा।
अगर स्मृति से मुक्त और बुद्धि पर केंद्र रखना हो
तो हमें ध्यान रखना होगा कि भूल करने का स्वागत करना चाहिए। कक्षा में उस विद्यार्थी
को सर्वाधिक आदर मिलना चाहिए जो सर्वाधिक भूलें करने के लिए निरंतर तत्पर है। और
जो और नई भूलें करने के लिए आतुर हैं; लेकिन जो दोहराने की उत्सुकता में नहीं हैं, कुछ खोज लेनेे की उत्सुकता में हैं तो हम बुद्धिमत्ता को विकसित करेंगे।
और ध्यान रहे, अब तक ऐसा ही समझा जाता था कि
पिछली पीढ़ी ज्यादा जानती थी, उससे पिछली पीढ़ी और ज्यादा
जानती थी। जितना पुराना आदमी उतना ज्यादा जानता था, वह बात
एकदम गलत है। पिछली पीढ़ी से नई पीढ़ी ज्यादा जान सकेगी। संभावना आगे है। आने वाले
बच्चे और ज्यादा जानेंगे, इसकी संभावना और ज्यादा है। ज्ञान
रोज विकसित हो रहा है, ज्ञान का विस्तार रोज फैलता चला जा
रहा है। इसलिए ध्यान रहे, पुरानी पीढ़ी नये बच्चों के
मस्तिष्क को इस भांति न पकड़ ले कि उनके विकास और विस्तार में बाधा बन जाए। अब तक
शिक्षक, बाप जो जानता था वह बेटे तक पहुंचाने का काम करता
था। अब शिक्षक को यह काम भी करना पड़ेगा कि बाप जितना जानता था, बेटे को उससे ज्यादा जानने की यात्रा पर संलग्न करना है। इतना ही काम काफी
नहीं है कि बाप जितना जानता था, बेटा उतना जान ले। काम इतना
है कि बेटा बाप को पराजित करके आगे जा सके। अब तक शिक्षक बाप का एजेंट था और बेटे
को बाप की शक्ल में ढाल रहा था। अब शिक्षक को बेटे के पक्ष में होना पड़ेगा और बेटा
बाप की शक्ल में न ढल जाए इसकी चिंता करनी पड़ेगी, ताकि बेटा
आगे जा सके।
निश्चित ही बाप जिस दुनिया का नागरिक था, बेटा उस दुनिया का
नागरिक नहीं होगा। और बाप ने जो दिन देखे, बेटे नहीं
देखेंगे। बेटे नये रास्तों पर चलेंगे, नई दुनिया को खोजेंगे।
इसलिए भूल हो जाएगी। अगर बेटा बाप की शक्ल में ढल गया तो बेटा नये भविष्य में जीने
में असमर्थ हो जाएगा, कमजोर और पंगु हो जाएगा। हम अपना ज्ञान
तो दें, लेकिन हमारा ज्ञान नये ज्ञान के आने में बाधा न बने।
हमारा ज्ञान नये ज्ञान की खोज में प्रेरणा बने, यह शिक्षक को
ध्यान में लेना पड़ेगा। अब तक ऐसा नहीं था। अब तक शिक्षक का काम यही था कि वह बेटे
को बाप की दुनिया में फिट कर दे। वह जो बाप की दुनिया थी, एक
ढांचा था, एक व्यवस्था थी, बेटा उसमें
फिट कर दिया जाए। इसलिए शिक्षक बेटे को काटने, छांटने,
तराशने और बाप की दुनिया में मौजूं बना देने की चेष्टा में संलग्न
था। और वही शिक्षक कुशल था जो यह काम कर देता था। और वही विद्यार्थी कुशल था जो इस
काम में, कर लेने में शिक्षक का सहयोगी हो जाता था।
नहीं, आगे यह नहीं हो सकता है। आगे हमें बेटे को ऐसा बनाना
है कि वह नये, अनजान और अज्ञात के लिए तैयार हो सके। ज्ञात,
बीते में उसे फिट नहीं कर देना है, उसे अज्ञात
के लिए तैयार करना है। शिक्षा के सामने बहुत बड़ा सवाल है यह। क्योंकि शिक्षक के
लिए सबसे बड़ी कठिनाई यही है। शिक्षक भी पिता की पीढ़ी का प्रतिनिधि है। यह सबसे बड़ी
कठिनाई है। शिक्षक भी पिता की पीढ़ी का प्रतिनिधि है। वह भी जाने-अनजाने किसी बेटे
का पिता है। वह भी अतीत से बंधा है। उसका अहंकार भी कहता है कि हम जानते हैं,
और ज्यादा जानते हैं।
वह अहंकार अब महंगा पड़ेगा। उसे समझना होगा कि हम
जितना जान सकते थे, हमने जाना, लेकिन तुम हमसे ज्यादा जान सकोगे। तुम
हमसे आगे जा सकोगे। और हम तुम्हें उतना बता देते हैं जहां तक हम गए और आगे की
यात्रा तुम कर सको, इसके लिए मुक्त किए देते हैं। लेकिन
शिक्षा ने अब तक यह नहीं किया और इसलिए आज शिक्षा के जगत में जो बेचैनी है,
मेरी दृष्टि में उस बेचैनी का एक कारण यह भी है। बच्चे भविष्य में
जाना चाहते हैं, शिक्षक अतीत में ले जाना चाहते हैं। दोनों
के बीच टेंशन है, तनाव है, खिंचाव है।
बच्चे और शिक्षक एक दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े हैं, आमने-सामने
मुंह नहीं रह गया है उनका।
पहले ऐसा कभी न हुआ था। उसके दो कारण थे--एक कारण
तो यह था कि युवक घटना पहली है। युवक पहले कभी था ही नहीं। अतीत के इतिहास में
युवक कभी था ही नहीं। युवक बिलकुल बीसवीं सदी की घटना है। वह जिसको यंगर जनरेशन हम
कहें, युवा पीढ़ी, वह बीसवीं सदी की घटना है। वह पहले कभी
थी ही नहीं, वह बिलकुल नई घटना है। और हमने युवक का कभी
सामना ही न किया था। पहली दफे युवक पैदा हुआ था। उसके कारण थे। हम युवक होने ही न
देते थे किसी को।
पहली तो तरकीब यह थी कि सेक्सुअल मैच्योरिटी के
पहले हम शादी कर देते थे। बाल-विवाह कर देते थे। बाल-विवाह युवा पीढ़ी को पैदा नहीं
होने देता था। यह बहुत सोचने जैसी बात है। बाल-विवाह युवा पीढ़ी को पैदा नहीं होने
देता था। क्योंकि जैसे ही बच्चे यौन की दृष्टि से प्रौढ़ होते थे, गृहस्थ हो जाते थे।
उनके बच्चे पैदा होने लगते थे और एक चक्कर शुरू हो जाता था जो बूढ़े होने का चक्कर
है। वे युवा नहीं हो पाते थे। अब किसी लड़के का लड़का हो गया तो उसकी उम्र कितनी ही
हो, वह बूढ़ी दुनिया का हिस्सा हो गया। वह बाप हो गया और बाप
की तरह सोचने लगा। वह अपने लड़के को सुधारने में लगें कि खुद बिगड़ने में लगें?
और कठिनाई खड़ी हो गई उसके सामने। सत्रह-अट्ठारह साल का जवान बाप हो
जाए तो वह जवान कभी हो नहीं पाता।
पहला मौका है कि हम पच्चीस साल तक विवाह से
युवकों को रोक रहे हैं। बचपन खत्म हो जाता है तेरह-चैदह साल में और बुढ़ापे की
यात्रा पच्चीस साल में शुरू होती है। दस साल का गैप है बीच में, उस गैप में यंगर
जनरेशन पैदा हुई है। वह जो बीच में दस साल का खंड है उस खंड में बच्चे भी नहीं हैं
हम, और हम बूढ़े होने की यात्रा पर भी नहीं गए। एक दस साल में
जवान पैदा हुआ है। यह जवान बिलकुल नई घटना है दुनिया में। इस जवान को हमने पहली
दफे देखा है। इसलिए, इस जवान के साथ क्या व्यवहार करें,
यह हमें भी पता नहीं। और यह जवान हमारे साथ क्या व्यवहार करे,
इसको भी पता नहीं है। नई घटना में ऐसा होना स्वाभाविक है।
और भी एक बात ध्यान रखनी जरूरी है। मनुष्य के पास
जो शक्ति है जीवन की वह अगर बहुत जल्दी यौन के मार्गों से बहनी शुरू हो जाए तो
व्यक्ति के भीतर अतिरिक्त शक्ति कभी इकट्ठी नहीं हो पाती। अगर हम दस-ग्यारह साल, आठ साल, नौ साल के बच्चों का विवाह कर दें तो उनकी यौन शक्ति बहनी शुरू हो जाती
है। उनके पास अतिरिक्त शक्ति कभी इकट्ठी नहीं होती। दुनिया में नई पीढ़ी पैदा हुई
है क्योंकि यौन का निकास नहीं है और यौन की शक्ति अतिरिक्त इकट्ठी हो जाती है। इस
अतिरिक्त शक्ति के ही द्वारा खोज की जा सकती है, शिक्षित हुआ
जा सकता है, संस्कृति को जन्म दिया जा सकता है। इस अतिरिक्त
शक्ति के द्वारा ही विज्ञान, साहित्य, सभ्यता
को विकसित किया जा सकता है। लेकिन यही अतिरिक्त शक्ति विनाश का कारण भी बन सकती
है। अगर इसे ठीक मार्ग न मिले तो यह डिस्ट्रक्टिव हो सकती है।
शायद आप जान कर हैरान होंगे कि अमरीका के
मनोवैज्ञानिक आज अमरीका में यह सलाह दे रहे हैं कि बाल-विवाह फिर से शुरू कर दिया
जाए। किन्से ने अपनी रिपोर्ट में दस साल की मेहनत के बाद यह खबर की है अमरीका की
सरकार को कि बाल-विवाह के लिए हमें प्रोत्साहन देना चाहिए, क्योंकि युवकों के
पास इतनी शक्ति इकट्ठी हो गई है कि कहीं वह डिस्ट्रक्टिव न हो जाएं। कहीं वे पूरे
समाज को न तोड़ डालें।
यह इस बात की खबर है कि अतिरिक्त शक्ति खतरनाक हो
सकती है। लेकिन अतिरिक्त शक्ति सृजनात्मक भी हो सकती है। सृजन और विध्वंस एक ही
शक्ति से होते हैं। आज जो बच्चे पत्थर फेंक रहे हैं बसों पर, स्कूल के कांच तोड़
रहे हैं, शिक्षक के विरोध में खड़े हैं, वे सृजनात्मक भी हो सकते हैं। सिर्फ उनके पास अतिरिक्त शक्ति है और इस
अतिरिक्त शक्ति का नियोजन शिक्षा के सामने एक नया सवाल है। स्मृति की जगह
बुद्धिमत्ता को जगह देना है और अब तक की शक्ति जो पैदा हुई है, उसका नया नियोजन करना है। वह नियोजन नहीं है। हमें खयाल में नहीं है कि
अगर एक युवक दो घंटे तक हाॅकी खेलता रहे तो पत्थर फेंकने की क्षमता उसमें कम हो
जाती है। क्योंकि हाॅकी फेंकने में, बाॅल को चोट मारने में,
गेंद को हमला करने में वही शक्ति निकल जाती है जो बस के ऊपर पत्थर
फेंकती है, जो कांच तोड़ती है। शक्ति वही है, नियोजन का सवाल है। हमें अब तक खयाल था कि बच्चे खेलते हैं।
असल में दुनिया में जवान कभी था नहीं, इसलिए जवान की
अतिरिक्त शक्ति के लिए खेल भी ठीक से विकसित नहीं हो पाया। और हमारे मुल्क में तो
और कठिनाई है कि जवान करीब-करीब खेल ही नहीं रहा है। और मैं मानता हूं कि जब तक
जवान तीन-चार घंटे खेलने में नियोजित न हो तब तक बसें टूटती रहेंगी और कांच फूटते
रहेंगे। यह जवान अपनी तरफ से खेलने का रास्ता खोज रहा है। बूढ़े इसको गंभीरता से ले
रहे हैं। जवानों के लिए यह खेल से ज्यादा नहीं है। बूढ़े इसे गंभीरता से ले रहे
हैं। यह उनके लिए खेल है। अतिरिक्त शक्ति बाहर निकलना चाहती है, ओवरफ्लो होना चाहती है। अतिरिक्त शक्ति तो हमने इकट्ठी कर ली, ओवरफ्लो का कोई मार्ग नहीं है।
दूसरी बात, यह जो अतिरिक्त शक्ति है यह केवल स्कूल या कालेज में
पांच घंटे बैठ कर टेबल पर पढ़ने से नहीं निकल पाती। बल्कि पांच घंटे टेबल पर बैठने
से और इकट्ठी हो जाती है। स्कूल से बच्चों को निकलते आपने देखा होगा। स्कूल से वे
ऐसे निकलते हैं जैसे कारागृह से छूट गए हों। किताबें फेंकते हुए, बस्ता उछालते हुए, स्लेटें फोड़ते हुए घर की तरफ
भागते हैं। और जिस दिन पता चल जाए कि कल छुट्टी है तो सारे वातावरण में चिल्लाहट
मच जाती है कि छुट्टी है और वह कल इस कारागृह में वापस नहीं आना पड़ेगा। पांच घंटे,
छह घंटे बच्चे बैठे हैं। छोटे बच्चे! उनको बिठाया हुआ है वह छह घंटे
उनकी बेचैनी इकट्ठी हो रही है। कहीं छह घंटे बच्चे इकट्ठे बैठ सकते हैं? अगर छह घंटे बच्चे को आप घर में छोड़ें तो आप देखो वह कितना दौड़ेगा,
कितना भागेगा, वृक्ष पर चढ़ेगा, नदी में कूदेगा, लड़ेगा, गिरेगा,
सब करेगा और छह घंटे वह बैठा रहा है। वह लड़ना, दौड़ना, वृक्ष पर चढ़ना वह सब इकट्ठा हो गया है। अब
इसका क्या होगा? कंडेंस्ड, इकट्ठा हो
गया है, इसका क्या होगा? इसका कुछ
परिणाम होगा भयंकर। वह भयंकर परिणाम हम भोग रहे हैं।
शिक्षक और पुरानी पीढ़ी के लोग समझते हैं कि युवक
बिगड़ गए हैं। गलत है उनका सोचना। कोई बिगड़ नहीं गया है। सिर्फ अतिरिक्त शक्ति
इकट्ठी हो गई है उसका निष्कासन नहीं है। और यह भी ध्यान रहे कि इस अतिरिक्त शक्ति
के इकट्ठे होने के और भी कारण हैं, जो पहले नहीं थे।
एक तो मैंने कहा, बाल-विवाह अतिरिक्त शक्ति को कभी
इकट्ठा नहीं होने देता था। दूसरा मैं आपसे कहूं, दुनिया में
स्वास्थ्य इतना अच्छा कभी भी नहीं था जितना अच्छा आज है। दस बच्चे पैदा होते थे
पुरानी दुनिया में तो आठ बच्चे मर जाते थे। जिस दुनिया में दस बच्चे पैदा हों और
आठ मरते हों, उसमें दो बच्चे जो बचते थे वे भी अधमरे ही बचते
थे। वह भी ठीक से नहीं बच सकते थे। पुरानी दुनिया में पचास प्रतिशत लोगों के
चेहरों पर चेचक के दाग मिल जाते थे। मलेरिया था, प्लेग था,
हैजा था, न मालूम कैसी-कैसी महामारियां थीं।
उनकी वजह से अतिरिक्त शक्ति कभी इकट्ठी न हो पाती थी और आदमी मरा-मरा जीता था,
इसलिए आज्ञाकारी था। आज्ञाकारी सिर्फ मरे-मराए लोग ही हो सकते हैं।
जहां जिंदगी है वहां थोड़ी आज्ञा का टूटना शुरू होगा। और या फिर जिंदगी को नियोजित
करने के लिए हमें चिंता करनी पड़ेगी, मार्ग देना पड़ेगा। इसलिए
बेटे सदा सिर झुकाए हुए बाप की आज्ञा मानते हैं। असल में ‘नो’,
नहीं, कहने के लिए अतिरिक्त शक्ति चाहिए। ‘हां’ कहने के लिए शक्ति की कोई जरूरत नहीं होती। ‘हां’ शक्तिहीन भी कह सकता है। ‘न’ शक्तिशाली ही कह सकता है।
पुरानी पीढ़ी के बच्चों ने कभी ‘न’ न कहा, क्योंकि इतनी शक्ति ही न थी। न स्वास्थ्य था,
न ज्यादा उम्र थी, न विटामिंस थे, न बीमारियों से लड़ने के लिए दवाइयां थीं। आदमी ऐसा जीता था बुझा-बुझा।
दीया भी जल लेता है, तेल कम हो तो भी, लेकिन
भभक कर नहीं जल सकता। और तूफानों से टक्कर लेने का विचार नहीं कर सकता। लेकिन जब
तेल पूरा हो और बाती स्वच्छ हो तो फिर दीया धीमे-धीमे नहीं जलता। फिर वह भभक कर
जलता है। फिर वह तूफानों से टक्कर लेना चाहता है, फिर वह
हवाओं से जूझना चाहता है और उस जूझने में आनंद लेना चाहता है।
युवक पहली दफे पैदा हुआ है। वैज्ञानिक सुविधा ने
युवक को पैदा किया है। और इस युवक के साथ हम क्या करें, हमें कुछ भी पता नहीं
है। क्योंकि पुराना कोई अनुभव काम नहीं देता।
शिक्षा में दूसरी क्रांति का सूत्र हमें ध्यान
रखना होगा, अतिरिक्त शक्ति का नियोजन। वह कैसे हो? अतिरिक्त शक्ति
है, उसका नियोजन कैसे हो? वह कैसे
सब्लिमेटेड हो, वह कैसे रूपांतरित हो? वह
कैसे नये मार्गों पर दिशाओं में गति करे? और अगर उस नई शक्ति
को ‘नो’ कहना है तो वह किन चीजों के
लिए ‘नो’ कहे वह भी नियोजन देना पड़ेगा।
हमें आदत रही है बच्चे से ‘हां’ सुनने
की। ‘न’ सुनने की आदत नहीं रही है।
लेकिन अब आने वाली पीढ़ियों के बच्चे रोज-रोज जोर से ‘न’
कहेंगे तो हमें ‘न’ को
किस दिशा में नियोजित करना है, वह ध्यान में रखना पड़ेगा। अगर
बच्चों को पत्थर फेंकने का शौक है तो पत्थर कहां फेंके जाएं, इसका नियोजन करना पड़ेगा। अगर बच्चे कुल्हाड़ी चलाना चाहते हैं, तो वे किन दरख्तों पर जाकर चलाएं, उसकी हमें फिकर
करनी पड़ेगी। अगर बच्चे दौड़ना चाहते हैं, कूदना चाहते हैं,
चिल्लाना चाहते हैं तो हमें उसकी चिंता लेनी पड़ेगी कि वे कैसे
चिल्लाएं, कैसे कूदें, कैसे दौड़ें!
अब जैसे मेरी अपनी दृष्टि यह है, निश्चित ही जब
अतिरिक्त शक्ति होती है तो वह नाचना चाहती है, कूदना चाहती
है। लेकिन हमारे जैसे मुल्क में नृत्य का कोई उपाय नहीं है तो लड़के क्लास रूम में
नाच रहे हैं और बूढ़ा मन राजी नहीं है कि नृत्य का हम कोई उपाय खोजें। अब नृत्य में
तो एक सौंदर्य है, और क्लास में नाचने में एक कुरूपता है।
नृत्य तो एक अदभुत सौंदर्य है। और जब शरीर में अतिरिक्त शक्ति हो तो नृत्य एक आनंद
है। लेकिन वह रुका हुआ है। उसका कोई उपाय नहीं है। शायद इस समय पृथ्वी पर हम अकेली
कौम हैं जो नाचना भूल गए हैं। नृत्य से कोई संबंध न रहा। एक आदमी, हो सकता है पूरी जिंदगी गुजार दे और नाचा न हो। उस आदमी की जिंदगी में कुछ
कमी रह गई है, कुछ भूल हो गई है।
शरीर की अपनी एक भाषा है और एक-एक अंग के कंपन का
अपना अनुभव है और शरीर का एक-एक रोआं अनुभव करने में समर्थ है। लेकिन जब पूरा शरीर
एक रिदमिक गति से नाचता है तो उसकी शक्ति भी बहती है और शरीर को एक सौंदर्य भी
उपलब्ध होता है। लेकिन वह नहीं होगा तो लड़के कूदेंगे, फांदेंगे। स्कूल के
फर्नीचर पर कूदेंगे, उसको तोड़ेंगे और तब हमें लगेगा, बड़ी अनुशासनहीनता हो रही है।
तो मैं यह कह रहा हूं कि नियोजन करना पड़ेगा। इस
देश के युवकों को नृत्य भी सिखाना पड़ेगा, लेकिन नृत्य से हम डरते हैं। नृत्य से हम भयभीत हैं।
गीत गाना सिखाना पड़ेगा। चिल्लाने की बहुत इच्छा है युवकों की। अगर गीत गाना नहीं
सिखाएंगे तो वह किसी को जिंदाबाद, मुर्दाबाद चिल्लाएंगे। फिर
वे यह भी भूल जाएंगे कि किसके लिए चिल्ला रहे हैं, फिर
चिल्लाने का ही सुख हो जाएगा। फिर उनके चिल्लाने से हम परेशान होते हैं, हैरान होते हैं, मुश्किल में पड़ते हैं। युवकों की
तोड़ने की इच्छा है तो हमें उन्हें तोड़ना सिखाना पड़ेगा। बहुत कुछ तोड़ने जैसा है,
बहुत कुछ बनाने जैसा है, बहुत कुछ मिटाने जैसा
है। इसलिए नियोजन देना पड़ेगा।
भविष्य के शिक्षक के सामने बड़े से बड़ा सवाल रोज
खड़ा होता जाएगा और वह यह है कि अतिरिक्त शक्ति है, सुपरफलुअस एनर्जी है, उसे हम कैसे नियोजित करें, उसे हम कैसे मार्ग दें?
हम उसे कैसे नये मार्गों पर ले जाएं? हम कैसे
उसे सृजनात्मक बनाएं? शिक्षक के सामने यह सवाल पहले कभी भी
नहीं था। क्योंकि जो बच्चे आते थे--एक तो गरीब का बच्चा कभी स्कूल में आ ही नहीं
पाता था। उपाय ही नहीं था आने का। बहुत थोड़े से बच्चे आते थे, अमीरों के बच्चे होते थे। सच तो यह है कि अमीर का बच्चा भी पिछली सदियों
का आज के गरीब के बच्चे से ज्यादा कमजोर और बीमार था। यह हमें खयाल में नहीं है।
क्योंकि जो मिल गया है उसका हमें पता नहीं चलता। अशोक ने बहुत शानदार कपड़े पहने
होंगे लेकिन आज का साधारण लड़का भी जो कपड़े पहने है वह भी अशोक को उपलब्ध नहीं थे।
और अकबर बहुत शानदार बिस्तर पर सोए होंगे, लेकिन आज का
साधारण आदमी भी जैसे बिस्तर पर सो रहा है उसका अकबर को कोई पता नहीं था। जिंदगी
बहुत विकसित हुई है।
बुद्ध के जमाने में सारी दुनिया की आबादी अंदाजन
दो करोड़ थी--सारी दुनिया की। क्योंकि इससे ज्यादा आदमी बच ही नहीं सकते थे। आदमी
पैदा तो बहुत होते थे। खयाल रहे, आदमी ज्यादा पैदा होते थे क्योंकि जितने नासमझ लोग
हों, उतने ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। तो आदमी तो बहुत पैदा
होते थे लेकिन मर जाते थे। बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस बच्चे एक
आदमी पैदा करता था और एकाध बच्चा बच जाए तो बहुत कृपा थी। वह भी नहीं बचता था,
वह भी गोद लेने के लिए यहां-वहां घूमना पड़ता था। बच्चे कम बचते थे,
मुश्किल से बचते थे। वे जो थोड़े से बचे हुए बच्चे थे उनको
पढ़ाने-लिखाने का मार्ग एक था मास स्केल पर, इतने वृहत्त
पैमाने पर--क्या आपको अंदाज है, इस वक्त बच्चे कम हैं,
बूढ़े कम हैं, जवान ज्यादा हैं। जवानों का
विस्तार सबसे बड़ा है और यह विस्तार बढ़ता चला जाएगा, क्योंकि
जवानी की उम्र बढ़ती चली जाएगी। जैसे-जैसे औसत उम्र बढ़ेगी, जवान
का पीरिएड बड़ा होता जाएगा और बच्चों का पीरिएड छोटा होता जाएगा और बूढ़ों का पीरिएड
भी छोटा होता जाएगा। यह खयाल में हमें नहीं है।
बच्चे--जैसे आज अमरीका में बारह वर्ष की लड़की
मैच्योर होने लगी है। हिंदुस्तान में चैदह वर्ष की लड़की मैच्योर होती है। और
अमरीकी वैज्ञानिक का कहना है कि आने वाले दस वर्षों में अमरीका में नौ वर्ष की
लड़की मैच्योर हो जाएगी। जितना स्वास्थ्य होगा, जितना ठीक भोजन होगा, जितनी ठीक हवा होगी उतना बचपन छोटा होता चला जाएगा। जितना स्वास्थ्य होगा,
जितना ठीक इंतजाम होगा बीमारी से लड़ने का, बुढ़ापा
छोटा होता चला जाएगा। बट्र्रेंड रसल नब्बे वर्ष की उम्र में भी शादी कर सकता है।
इधर हमारे बूढ़े थोड़े हैरान होते हैं कि कैसा खराब आदमी है! खराब आदमी नहीं है।
नब्बे वर्ष में जब किसी कौम में शादी हो सकती है तो इसका मतलब यह है कि जवानी का
फासला बड़ा हो गया है। जवानी लंबी हो गई। नब्बे वर्ष का आदमी भी एक अर्थ में जवान
है।
हम सोचते हैं कि बूढ़ा शादी करे तो बेहूदी बात है।
उसका कारण है--उसका कारण यह है कि हम यह सोच ही नहीं सकते कि बूढ़ा भी जवान हो सकता
है। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष की उम्र के हजारों लोग हैं। अगर डेढ़ सौ वर्ष का एक
आदमी होगा तो उसकी जवानी एक सौ बीस वर्ष तक तो जाने देंगे कि नहीं जाने देंगे? जवानी का फासला बड़ा
हो जाएगा। और जितनी ज्यादा देर तक कोई आदमी जवान रहेगा उतनी कम देर तक बच्चा,
उतनी कम देर तक बूढ़ा रहेगा। बुढ़ापा सिकुड़ता जाएगा। यह भी हो सकता है
कि वैज्ञानिक सुविधा पूरी तरह जुट जाए तो बुढ़ापा जैसी चीज विदा हो जाए। आदमी मरते
दम तक जवान रह सके, यह बहुत कठिन नहीं है, यह संभव है। और बचपन भी सिकुड़ता चला जाएगा, क्योंकि
जितनी हमारी समझ बढ़ती है उतना बचपन को सिकुड़ना होगा।
अभी नई से नई खोजें यह कहती हैं कि चार वर्ष की
उम्र में बच्चा अपनी जिंदगी का पचास प्रतिशत सीख लेता है। यह बड़ी सोचने जैसी बात
है। चार वर्ष की उम्र का बच्चा अपनी जिंदगी का पचास प्रतिशत सीख लेता है। और चार
वर्ष की उम्र तक सीखने की जितनी क्षमता है, वह चार वर्ष के बाद निरंतर कम होती चली जाती है। इसका
मतलब, इसके इंप्लीकेशंस बहुत गहरे हैं। शिक्षक को और
शिक्षाशास्त्री को विचार करना पड़ेगा कि शिक्षा हमें कब शुरू करनी चाहिए--सात साल
में, छह साल में नहीं।
शिक्षा हमें दो साल में शुरू करनी पड़ेगी, क्योंकि सीखने का
सबसे ज्यादा कीमती और ग्राहक क्षण चार साल के पहले है। और अगर हमें ठीक से सिखाना
है तो हमें चार साल के भीतर कीमती सब बातें सिखा देनी चाहिए, जिंदगी के मूल आधार रख देने चाहिए। लेकिन चार वर्ष तक तो हम कोई आधार ही
नहीं रखते हैं। चार वर्ष तक तो बच्चा ऐसे ही घूमता रहता है। फिर हम उसे सिखाना
शुरू करते हैं। और खोज यह कहती है कि पचास प्रतिशत वह सीख ही चुका है, वह आधा ज्ञान तो उसको उपलब्ध हो चुका है। और ध्यान रहे, जो ज्ञान सीख लिया चार वर्ष की उम्र में उसके विपरीत कुछ भी सिखाना बहुत
कठिन है। उससे भिन्न कुछ भी सिखाना बहुत मुश्किल है क्योंकि वह चार वर्ष में जितनी
रिसेप्टिविटी है उतनी फिर कभी नहीं होगी। चार वर्ष में जो पकड़ लिया गया है वह जिंदगी
का आधार बनेगा। बाद में उसी पर आप ऊपर रख सकते हैं। और चार वर्ष तो फिजूल खो जाते
हैं।
इस वक्त जो सोचते हैं वे चिंतित हैं कि शिक्षा और
जल्दी, और जल्दी शुरू करनी पड़े। वह दो वर्ष में शुरू करनी पड़े कि एक वर्ष में
शुरू करनी पड़े। बहुत कठिन नहीं है कि बहुत जल्द हम इस खयाल पर पहुंचें कि मां के
गर्भ को भी क्यों अशिक्षित छोड़ा जाए? कुछ रास्ते खोजे जा सकते हैं कि मां के गर्भ से
शिक्षा शुरू हो जाए। बराबर खोजे जा सकते हैं, निश्चित खोजे
जा सकते हैं। और कुछ तो इस संबंध में काम शुरू हुआ है क्योंकि मां के गर्भ में भी
बच्चा सीख रहा है। ऐसा नहीं कि नहीं सीख रहा है। जहां चेतना है वहां सीखना शुरू हो
गया। वह सीख रहा है, वह निरंतर सीख रहा है। मां के पेट में
अगर मां बीमार है तो बच्चा बीमारी सीख रहा है। अगर मां स्वस्थ है तो बच्चा
स्वास्थ्य सीख रहा है। और अगर मां भूखी है तो बच्चा गरीबी सीख रहा है। और मां का
पेट अगर भरा है तो बच्चा अमीरी सीख रहा है। वह मां के पेट में सीखना शुरू हो गया
है। उस पर भी ध्यान देना पड़ेगा। इधर बचपन सिकुड़ता चला जाएगा।
फिर एक और नई घटना घटी है कि ज्ञान इतना बढ़ गया
है कि हम पच्चीस साल भी अगर लड़कों को युनिवर्सिटी में रखें तो पूरा ज्ञान नहीं
दिया जा सकता है। पुराना ज्ञान बहुत कम था। इतना कम था, जिसका कोई हिसाब
नहीं। अगर दो हजार साल पहले का हम ज्ञान लें तो वह एक छोटी सी किताब में समा सकता
था और एक आदमी मजे से उसका मास्टर हो सकता था। सच तो यह है कि पुरानी दुनिया में
एक आदमी सारे ज्ञान का मालिक हो जाता था। जो कवि होता था वह एक वैद्य भी होता था।
जो गांव का ब्राह्मण होता था वही शिक्षक भी होता था। जो पुजारी था वही शिक्षक भी
था, वैद्य भी था। असल में जो आदमी थोड़ा समझ सकता था, वह सभी पकड़ लेता था।
एक ही सब्जेक्ट था दुनिया में--फिलाॅसफी। कोई
सब्जेक्ट दूसरा न था, एक ही सब्जेक्ट था। अभी भी पुरानी आदत चलती है। आॅक्सफोर्ड में फिजिक्स
डिपार्टमेंट के ऊपर अभी नेचरल फिलासफी की तख्ती लगी हुई है। वह पुरानी आदत है,
फिलाॅसफी ही एक सब्जेक्ट था। आज भी हम, आप
काॅमर्स में डाक्टरेट करें और डिग्री मिलेगी पी.एचड़ी. की, डाक्टर
आॅफ फिलाॅसफी की। अब काॅमर्स से फिलाॅसफी का क्या लेना-देना है? अब कोई लेना-देना नहीं है। पुरानी आदत! हजार साल पहले फिलाॅसफी एक ही विषय
था। एक ही विषय सब कुछ घेर लेता था। फिर ज्ञान बढ़ता चला गया। अब ज्ञान इतना है कि
हैरानी की बात है। एक दिन एक डाक्टर पूरे शरीर के संबंध में सब कुछ जानता था। फिर
हमें कई डाक्टर बनाने पड़े--आंख का डाक्टर अलग, शरीर का
डाक्टर अलग, पेट का डाक्टर अलग; हमको
बांटना पड़ा।
मैं एक मजाक सुन रहा था। मैं सुन रहा था कि आज से
पचास साल बाद एक औरत एक डाक्टर के दफ्तर में गई, एक आंख के विशेषज्ञ के दफ्तर
में। और उसने कहा कि मेरी आंख में बड़ी तकलीफ है। उस विशेषज्ञ ने पूछा, देवी, कौन सी आंख में? क्योंकि
मैं बायीं आंख का स्पेशलिस्ट हूं। दाईं आंख का स्पेशलिस्ट आगे है।
यह बहुत कठिन नहीं है क्योंकि आज आंख के संबंध
में इतनी किताबें हैं कि एक आदमी जिंदगी भर पढ़े तो नहीं पढ़ सकता है। सिर्फ आंख के
संबंध में इतना ज्ञान विकसित हुआ है। आंख छोटी चीज नहीं है, आंख बहुत बड़ी घटना
है। इतनी बड़ी घटना है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। आंख की पूरी वर्किंग को समझना इतना
बड़ा मामला है कि एक आदमी पूरी जिंदगी लगाए तो नहीं समझ सकता।
इसलिए शिक्षाशास्त्री के सामने एक नया सवाल है कि
जितना ज्ञान पुरानी पीढ़ी ने पैदा कर लिया है वह नई पीढ़ी को कैसे दिया जाए? इसलिए रूस में एक नया
खयाल आया है, वह है स्लीप टीचिंग का। बच्चों को रात में सोते
में भी शिक्षा देनी पड़ेगी; अन्यथा कोई उपाय ही नहीं है। रात
में जब बच्चा सो रहा है, उसके सोने को ऐसे नहीं छोड़ा जा
सकता। तो टेप-रिकार्डर कान में लगा रहेगा पिल्लो के पास, और
रात भर धीरे-धीरे उसे शिक्षित करता रहेगा। क्योंकि तब हम रात भी शिक्षा दें तो ही
हम पुरानी सदी का ज्ञान उसको सौंप पाएंगे, नहीं तो नहीं सौंप
पाएंगे।
युवक की उम्र लंबी हो जाएगी और शिक्षा का काल भी
बढ़ाना पड़ेगा। शिक्षा का काल भी काफी नहीं रहेगा। इसलिए नये सवाल सामने हैं और नये
सवालों से जूझने के लिए नये विचारों को खोजना पड़ेगा। लेकिन हम और हमारी शिक्षा तो
बहुत पीछे जी रही है, हम बीसवीं सदी में नहीं हैं। हमारा बीसवीं सदी से कोई संबंध नहीं है।
हमारा शिक्षक एकदम आउट आॅफ डेट है। क्योंकि शिक्षक जब पढ़ा था--समझ लीजिएः शिक्षक
उन्नीस सौ तीस में पढ़ा था, फिर उन्नीस सौ तीस के बाद उसने
किताब नहीं उठाई आगे। वह उन्नीस सौ तीस पर रुक गया है। और वह वही उन्नीस सौ तीस
में जो उसने पढ़ा था, पढ़ाए चला जा रहा है। उसने जो नोट्स
उन्नीस सौ तीस में बनाए थे वह अब भी उसके लेक्चर के नोट्स हैं। उन्हीं से काम ले
रहा है। इधर तीस साल में दुनिया बदल गई, इधर तीस साल में सब
बदल गया। तीस साल पहले जो भी अर्थपूर्ण था, आज अर्थहीन हो
गया है। लेकिन वह उसे पता नहीं। इसलिए हमारी शिक्षा बहुत पिछड़ी हुई है, सारी दुनिया से पिछड़ी हुई है। हम दुनिया के साथ खड़े हुए नहीं हैं। इसका
मतलब यह हुआ कि शिक्षक को अब चैबीस घंटे शिक्षित होना पड़ेगा। अब ऐसा नहीं हो सकता
कि एक दफे आप शिक्षित हो गए और शिक्षक हो गए! अब शिक्षक को निरंतर विद्यार्थी बना
रहना पड़ेगा--विद्यार्थी से भी ज्यादा। उसे चैबीस घंटे जागा हुआ, समझा हुआ होना पड़ेगा कि क्या हो रहा है।
मैं अभी देख रहा था, पश्चिम में बड़ी किताब
लिखनी मुश्किल हो गई हैं! साइंस पर तो बड़ी किताबें नहीं लिखी जा रही हैं, छोटी-छोटी किताबें लिखी जा रही हैं। तो मैंने एक मित्र को लिख कर पूछा कि
बात क्या है, बड़ी किताबें क्यों नहीं लिखी जाती हैं? तो उन्होंने मुझे लिखा कि कारण यह है कि बड़ी किताब लिखने में दो वर्ष लग
जाते हैं। दो वर्ष में जो लिखा, वह बेकार हो जाता है। महीने
भर में किताब पूरी होनी चाहिए। नहीं तो किताब लिखे जाने के पहले ही व्यर्थ हो
जाएगी। इतने जोर से रिसर्च है, इतने जोर से अन्वेषण है,
इतनी दिशाओं में खोज चल रही है। पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह नये
प्रकाशित हो रहे हैं। पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह नये प्रकाशित हों, इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ, ज्ञान पूर की तरह आकाश से टूट रहा है चारों तरफ। उसे सम्हालना मुश्किल है।
हमें कोई दिक्कत नहीं है। क्योंकि हम आंख बंद किए खड़े हैं, हमें
कोई कठिनाई नहीं है। हम बड़े निशिं्चत बैठे हुए हैं। हमें कुछ पता नहीं है कि सारी
दुनिया में क्या हो रहा है। और हम इस तरह की बातें कर रहे हैं कि जो हमें और सारी
दुनिया से तोड़ने वाली सिद्ध होती हैं, जोड़ने वाली सिद्ध नहीं
होतीं।
शिक्षक को निरंतर शिक्षित होना पड़ेगा। अब पुराने
ढंग से काम नहीं चलेगा। और शिक्षा कभी पूरी नहीं हो जाती। और शिक्षक को, अपने विद्यार्थी को
भी इस भांति तैयार करना होगा कि वह यह न समझें कि किसी दिन शिक्षा पूरी हो जाती
है। अब किसी डिग्री पर शिक्षा पूरी नहीं हो सकती। अब शिक्षा पूरी हो ही नहीं सकती।
अब तो आदमी को निरंतर शिक्षित होना ही पड़ेगा। उसे चैबीस घंटे, मरने की आखिरी घड़ी तक शिक्षित होना पड़ेगा। रोज ज्ञान का नया एक्सप्लोजन
होता चला जाएगा। इसलिए विश्वविद्यालय सिर्फ आप आगे भी कैसे शिक्षित होते रहें,
इसकी तैयारी करवा दें तो काफी है। आपको शिक्षित बना कर न निकाल दें।
अब आपको शिक्षित बना कर निकालना महंगा है।
अब यह भ्रम नहीं पैदा होना चाहिए कि एक लड़के को
एम ए की डिग्री मिल गई तो वह शिक्षित हो गया। और वह अपनी डिग्री लेकर चला गया
दुनिया में शिक्षित होने की हैसियत की। नहीं, अब विश्वविद्यालय को समझाना पड़ेगा कि कोई डिग्री
शिक्षा पूरी नहीं करती है। डिग्री सिर्फ इतना कहती है कि अब कृपा करके इन दीवालों
के बाहर जाकर शिक्षित हों। अब यहां काम पूरा हुआ, अब आप बाहर
जाएं। डिग्री सिर्फ इतना कहती है कि अब बिना शिक्षक के शिक्षित हों। अभी तक शिक्षक
आपको साथ देता था। अब शिक्षक आपके साथ नहीं होगा। अब आप ही शिक्षक होंगे और आप ही
शिक्षार्थी होंगे। डिग्री सिर्फ इतना कहेगी कि आप जाएं और शिक्षित हों। यह भ्रम
हमें छोड़ देना पड़ेगा कि डिग्री से कोई शिक्षित हो जाता है तो हम जिंदगी को एक
ओपनिंग और एक खुलापन दे पाएंगे। और बहुत जरूरी हो गया है कि मन खुला हो, रोज शिक्षित होने को तैयार हो, रोज नया होता चला जाए।
कठिन होता है नये को सीखना। इसलिए कठिन होता है
कि पुराने की आदत बन गई होती है, और पुराना ढांचा बन गया होता है। आदमी तो आदमी है।
अगर हम एक कमरे में एक बाल्टी पानी डाल दें तो पानी, तो पानी
एक रास्ता बना कर बह जाता है। फिर थोड़ी देर में सूख जाता है। पानी चला गया। एक
सूखी रेखा छूट जाती है। अगर आप दोबारा पानी डालें तो वह पानी उसी सूखी रेखा को पकड़
कर बहना चाहेगा--वह भी लीस्ट रेसिस्टेंस को खोजेगा। वह भी यह सोचेगा कि यही रास्ता
अच्छा है। बना बनाया है, पहले से तैयार है, इससे बह जाओ। मन भी यही करता है। जो तैयार है उस पर ही बह जाने की कोशिश
करता है। वह सरल है, उसमें झंझट नहीं है, प्रतिरोध नहीं है। लेकिन अब हमें ऐसा मन तैयार करना पड़ेगा जो रोज नये
रास्ते पर बहने को तैयार हो, क्योंकि रोज नया रास्ता निर्मित
हो रहा है। अगर आप नहीं बहे तो रास्ता नहीं रुकेगा, रास्ता
तो बढ़ता चला जाएगा। जो तैयार होंगे नये रास्ता पर जाने को, वे
जीतते चले जाएंगे। और जो तैयार नहीं होंगे, वे हारते चले
जाएंगे।
इस देश के निरंतर पराजय का एक कारण यह भी है--यह
मैं अंतिम बात कहना चाहूंगा। हम कोई दो हजार साल से निरंतर हार रहे हैं। कोई समझता
होगा कि यह हार हमारे विजेताओं की ताकत की कमी से है। मैं नहीं समझता। कोई सोचता
हो पोरस कमजोर था सिकंदर से, तो गलत है। और कोई सोचता हो कि मुसलमान इस मुल्क में
जब आए हमलावर की तरह तो इस मुल्क के रहने वाले कमजोर थे, तो
गलत थे। और कोई सोचता हो कि अंग्रेजों ने हमें हराया तो अंग्रेज बड़े शक्तिशाली थे,
हम बहुत कमजोर थे, तो गलत है। नहीं, हमारी कुल कमी दो हजार वर्ष से एक है, और वह यह है
कि हम नये रास्ते पकड़ने में करीब-करीब असमर्थ हो गए हैं। हम पुराना रास्ता पकड़े
रहते हैं। दूसरे लोग नये रास्ते पकड़ कर आ जाते हैं और हमें हार जाना पड़ता है।
सिकंदर आया घोड़ों पर सवार होकर। हम हाथियों पर
बैठे थे तो हम हाथियों पर ही बैठे रहे। हमने सोचा भी न कि घोड़ों से हाथी कैसे जीत
सकते हैं? पोरस सिकंदर से जीत सकता था, लेकिन हाथी घोड़ों से
नहीं जीत सकते थे। हाथी बरात वगैरह के लिए बड़े अच्छे हैं। बरात निकलती है, हाथी बड़ा शानदार जानवर है। लेकिन युद्ध के लिए हाथी बिलकुल ही बेमानी है।
लेकिन हम हाथियों पर लड़ते रहे थे तो जब तक आपस में लड़ते थे तब तक कोई दिक्कत न थी,
क्योंकि दूसरी तरफ से भी हाथी पर लड़ने वाला और हम भी हाथी पर लड़ने
वाले थे। कभी झंझट न आई थी। पहली दफा झंझट आई कि सिकंदर घोड़े पर सवार होकर आ गया।
घोड़ा ज्यादा तेज जानवर है, चंचल है, गतिमान है। थोड़ी जगह घेरता है, जल्दी घूमता है,
जल्दी भागता है, बचता है, बचाव करता है। हाथी बहुत शाही जानवर है, धीरे घूमता
है, धीरे चलता है और अगर घबड़ा जाए तो अपनो को ही रौंद डालता
है।
और यही हुआ। पोरस की सेनाएं पोरस के ही हाथियों
के पैरों के नीचे मरीं, लेकिन हम सीख न पाए, हम समझ न
पाए कि यह, यह नया रास्ता लेकर आया है, घोड़ों पर जो लड़ने आया है।
फिर बाबर हिंदुस्तान आया तो हम तलवार, तीर-तरकस से लड़ते
रहे। वह बंदूक लेकर आ गया। बंदूक नई चीज थी। तलवार कितने ही बहादुर के हाथ में हो,
बंदूक एक कमजोर आदमी के भी हाथ में हो, तो
तलवार वाला बंदूक से नहीं जीत सकता है। क्योंकि बंदूक ने एक नई खोज कर ली है। वह
है डिस्टेंस से, दूरी से हमला करने की, जो तलवार में असंभव है। तलवार के लिए फासला कम चाहिए। आप मेरे करीब हों तो
मैं तलवार से लड़ सकता हूं। लेकिन अगर आप मुझसे दूर हैं तो तलवार बेमानी है। बंदूक
की खोज यह थी कि हम दूर से हमला कर सकते हैं। तलवार हार गई, बंदूक
जीत गई।
हम मुश्किल से बंदूक सीख पाए, तब तक अंग्रेज आ गए;
वे तोपें लेकर आ गए। हम फिर बंदूक लिए हुए खड़े थे। हम दो हजार साल
से दुनिया की आंखों में शिक्षा में पीछे हैं। हर स्थिति में पीछे हैं। हम पुराने
को पकड़ लेते हैं, जब नया आता है तो हम मुश्किल में पड़ जाते
हैं। तब हम चैंक जाते हैं। हमारी कुछ समझ में नहीं आता है कि अब हम क्या करें। अब
अभी भी हमारा सैनिक जो है वह लेफ्ट-राइट कर रहा है--अभी भी। अब उसे पता नहीं है कि
अब लेफ्ट-राइट का वक्त गया। अब उसका कोई मतलब नहीं है। अब युद्ध जमीन पर नहीं है,
अब युद्ध आकाश पर है। सच तो यह है कि अब युद्ध बहुत और तरह का है।
अब युद्ध बिलकुल ही टेक्नालाॅजिकल है। अब युद्ध का कोई संबंध आदमी से नहीं है। अब
बटन दबाने से युद्ध हो सकता है। आदमी तो मैदान से हट गया है। हम आदमी को ट्रेंड कर
रहे हैं। वह आदमी बेमानी हो जाएगा। अब आदमी का कोई संबंध ही नहीं है। अब युद्ध का
माप ही बदल गया है। अब युद्ध है टेक्नीक का। कौन टेक्नीक में विकसित है, वह जीतेगा। अब आदमी-वादमी से कुछ लेना-देना नहीं है क्योंकि एक कमजोर से
कमजोर आदमी एक कमरे में बैठ कर बटनों से लड़ सकता है। आप कितने ताकतवर हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम पीछे हैं दो हजार वर्ष से शिक्षा में।
मैं यह कह रहा हूं, हम नये को पकड़ने में बड़े असमर्थ
हैं, इनकेपेबल सिद्ध हुए हैं, अपात्र
सिद्ध हुए हैं। और अगर नये को पकड़ते भी हैं तो बड़ी मुश्किल में, मजबूरी में, परेशानी में, जब
कोई रास्ता नहीं रह जाता है तब। नहीं, जब कोई रास्ता नहीं रह
जाता तब हम नये को पकड़ते हैं--उसका मतलब, तब तक नया पुराना
हो चुका होता है और दूसरे लोग और नये पर निकल गए होते हैं। फिर हम अपने को
बामुश्किल राजी कर पाते हैं। फिर वहीं तकलीफ खड़ी हो जाती है।
हमें नये का स्वागत करना पड़ेगा। पुराने को छोड़ने
की हिम्मत और नये को तत्काल अंगीकार करने का साहस जुटाना पड़ेगा तो हम इस पृथ्वी पर
खड़े हो सकेंगे--शिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्य, अन्यथा हमारा अब आगे कोई इतिहास नहीं हो सकता। ऐसे पीछे भी जो इतिहास है,
उसे इतिहास कहना उचित नहीं। वह भी सिवाय दीनता, दुख, दरिद्रता, दासता के और
क्या है? वह भी पीछे का इतिहास सिवाय अपमान के और क्या है?
वह पीछे का इतिहास भी सिवाय घावों के और क्या है हमारी छाती पर?
लेकिन आगे शायद वह भी न हो। हम एकदम दुनिया की दौड़ में रास्ते के
किनारे खड़े रह गए हैं। सिर्फ लोगों के पैरों की धूल हमें मिल पाती है जो जा रहे
हैं और हम किनारे खड़े देख रहे हैं। बहुत दिन से हम सोचते थे। हम तमाशबीन हो गए हैं,
हम किनारे खड़े देख रहे हैं। हम पार्टिसिपेंट नहीं हैं आज पृथ्वी पर।
आज जगत के विकास में हमारा कोई दान नहीं है। आज हम जगत के विकास के भागीदार नहीं
हैं।
और ध्यान रहे, जो जगत के विकास में भागीदार
बनता है वही अंततः विजेता बनता है। जो जगत को विकास देता है वह जीत जाता है। जो
किनारे खड़ा हो जाता है वह हार जाता है, पराजित हो जाता है।
शिक्षक के सामने यह सवाल भी है कि हमने भारत में
दो हजार साल में जो भूल की है उसे पचास साल में पूरा करना पड़ेगा। बड़ी तीव्र गति से
पूरा करना पड़ेगा। अगर हम पचास साल में पूरा नहीं करते तो हम चूक ही जाएंगे, जैसे ही हम चूक
जाएंगे, हम खड़े न हो पाएंगे दुनिया के साथ।
क्या इतनी बड़ी जिम्मेवारी शिक्षा लेने को तैयार
है? मुश्किल दिखाई पड़ता है क्योंकि शिक्षक लगा है इलेक्शन में। वह कह रहा है
कि मैं वाइस चांसलर कैसे हो जाऊं? प्रोफेसर परेशानी में है
कि वह हेड आॅफ दि डिपार्टमेंट कैसे हो जाए? उसकी अपनी
पाॅलिटिक्स है, वह उसमें लगा हुआ है। वह वहां चक्कर खा रहा
है। कुछ थोड़ा बहुत वक्त बच जाता है तो वह पढ़ा देता है, ऐसे
उससे कोई खास संबंध नहीं है। वह कोई खास बात नहीं है। वह वहां संलग्न है। शिक्षक
कहीं और उलझा है। विद्यार्थी के पास अतिरिक्त शक्ति है। वह अपनी शक्ति से परेशान
है। वह लड़कियों को धक्के दे रहा है, पत्थर मार रहा है,
कांच फोड़ रहा है, उसे कोई मतलब नहीं है। मौका
बच जाता है लड़कियों से कुछ छोड़ कर तो थोड़ा-बहुत पढ़ लेता है। बाकी उसे उससे कोई
मतलब नहीं है। बल्कि अगर लड़कियां हों क्लास में तो ही थोड़ा-बहुत पढ़ लेता है। अगर
लड़कियां क्लास में न हों तो क्लास में ही नहीं लौटता।
यह हमारा शिक्षक और विद्यार्थी जहां खड़ा है, वहां हम आशा नहीं
बांध सकते कि पूरा हम जगत से दो हजार साल पिछड़ गए हैं, हम
पचास साल में उसे कैसे पूरा करेंगे? लेकिन पूरा हम कर सकते
हैं। थोड़े बोध की जरूरत है। थोड़ी समझ की जरूरत है। थोड़ी इस कांशसनेस की जरूरत है
कि हम इतिहास के किस बिंदु पर आकर खड़े हो गए हैं और सारा जगत किस जोर से भागा जा
रहा है। हम उसके साथ, अगर एक दफा हमें बोध आ जाए तो हम
गतिमान हो सकते हैं।
मेरी समझ में, आज शिक्षक के ऊपर जितना बड़ा
दायित्व है, इतना किसी के ऊपर नहीं है। और शिक्षक को जितना
बड़ा रोल अदा करना है, उतना किसी को नहीं करना है। इस संक्रमण
की कड़ी में शिक्षा ही वह माध्यम बन सकती है, जिससे हम दुनिया
के साथ खड़े होने में समर्थ हो सकें। शिक्षक को राजनीतिज्ञ से थोड़ा बचना पड़ेगा।
शिक्षक को राजनीति से थोड़ा बचना पड़ेगा। और शिक्षक को उपदेश छोड़ कर विद्यार्थी की
मनोदशा को समझने के लिए नीचे उतरना पड़ेगा और समझना पड़ेगा, उसकी
मनोदशा क्या है? उसकी आंतरिक पीड़ा और तकलीफ क्या है? उसकी अतिरिक्त शक्ति के बहाव का यह उपद्रव क्या है? यह
उसे समझना पड़ेगा। लेकिन वह अपने मंच पर खड़े होकर पुराने उपदेश दिए जाता है कि
अनुशासन होना चाहिए, गुरु का आदर होना चाहिए। ये उपदेश अब
कोई भी नहीं सुन रहा है। न सुने जा सकते हैं, क्योंकि एक नई
घटना, एक यंगर जनरेशन पैदा हुई है जो कभी पहले थी ही नहीं।
इस नये फिनामिना को, इस नई घटना को पूरा समझ कर इसकी
अतिरिक्त शक्ति के सब्लिमेशन के उपाय खोज कर, और इस नई शक्ति
को भविष्य उन्मुख बना कर एक क्रांति घटित हो सकती है। वह क्रांति बहुत जरूरी है।
बहुत तरह की क्रांतियां हो रही हैं--आर्थिक क्रांति
होगी, सामाजिक क्रांति होगी, राजनीतिक क्रांति होगी। लेकिन
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि बुनियादी क्रांति सदा शिक्षा की क्रांति है, बाकी सब क्रांतियां परिधि पर हैं। केंद्रीय क्रांति शिक्षा की क्रांति है।
और अगर यह क्रांति का मिशन शिक्षक के खयाल में आ जाए तो शायद हमारा भी अस्त हुआ
सूर्य फिर उदय हो सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं इस आशा में कि शायद
इससे थोड़ा धक्का लगे और आप सोचने की यात्रा पर निकल जाएं। उससे ज्यादा प्रयोजन
नहीं है। मैं जो कहता हूं वह सही है, ऐसा नहीं है। मैं जो कहता हूं वह आपको सोचने में
संलग्न कर दे तो मेरा काम पूरा हो जाता है। कई बार मुझे लगता है कि चाहे मेरी बात
गलत ही क्यों न हो, अगर आपको सोचने की दिशा में ले जाती है
तो मैं उसे कहता रहूंगा। और बात सही ही क्यों न हो, अगर आपको
सोचने की दिशा में नहीं ले जाती है और मुर्दा हां भरवा देती है तो मैं उसे नहीं
कहूंगा। देश में एक चिंतन की जरूरत है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे
बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे
प्रणाम स्वीकार करें।
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