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शुक्रवार, 4 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-04


शिक्षा में क्रांति-ओशो

प्रवचन-चौथा
शिक्षक, समाज ओर क्रांति
मेरे प्रिय आत्मन्!
शिक्षक और समाज के संबंध में कुछ थोड़ी सी बातें जो मुझे दिखाई पड़ती हैं, वह मैं आपसे कहूं। शायद जिस भांति आप सोचते रहे होंगे उससे मेरी बात का कोई मेल न हो। यह भी हो सकता है कि शिक्षाशास्त्री जिस तरह की बातें कहता है उस तरह की बातों से मेरा विरोध भी हो। न तो मैं कोई शिक्षाशास्त्री हूं और न ही समाजशास्त्री। इसलिए सौभाग्य है थोड़ा कि मैं शिक्षा और समाज के संबंध में कुछ बुनियादी बातें कह सकता हूं। क्योंकि जो शास्त्र से बंध जाते हैं उनका चिंतन समाप्त हो जाता है। जो शिक्षाशास्त्री हैं उनसे शिक्षा के संबंध में कोई सत्य प्रकट होगा, इसकी संभावना अब करीब-करीब समाप्त मान लेनी चाहिए। क्योंकि पांच हजार वर्ष से वे चिंतन करते हैं लेकिन शिक्षा की जो स्थिति है, शिक्षा का जो ढांचा है, उस शिक्षा से पैदा होने वाले मनुष्यों की जो रूप-रेखा है वह इतनी गलत, इतनी अस्वस्थ और भ्रांत है कि यह स्वाभाविक है कि शिक्षाशास्त्रियों से निराशा पैदा हो जाए।
समाजशास्त्री भी, जो समाज के संबंध में चिंतन करता है वह भी अत्यंत रुग्ण और अस्वस्थ है। अन्यथा मनुष्य-जाति, उसका जीवन, उसका विचार बहुत अलग और अन्यथा हो सकते थे। मैं दोनों में से कोई भी नहीं हूं इसलिए कुछ ऐसी बातें संभव हैं, आपसे कह सकूं जो सीधी समस्याओं को देखने से पैदा होती हैं।

जिन लोगों के लिए भी शास्त्र महत्वपूर्ण हो जाते हैं उनके लिए समाधान महत्वपूर्ण हो जाते हैं और समस्याएं कम महत्व की हो जाती हैं। मुझे चूंकि कोई भी पता नहीं शिक्षाशास्त्र का इसलिए मैं सीधी समस्याओं पर आपसे बात करना चाहूंगा।
सबसे पहली बात और जिस आधार पर आगे मैं आपसे कुछ कहूं, वह यह है कि शिक्षक का और समाज का संबंध अब तक अत्यंत खतरनाक सिद्ध हुआ है। संबंध क्या है शिक्षक और समाज के बीच आज तक? संबंध यह है शिक्षक गुलाम है, समाज मालिक है। और शिक्षक से काम समाज कौन सा लेता है? शिक्षक से समाज काम यह लेता है कि उसकी पुरानी ईष्र्याएं, उसके पुराने द्वेष, उसके पुराने विचार वह सब जो हजारों वर्ष की लाशें हैं मनुष्य के मन पर, शिक्षक नये बच्चों के मन में उनको प्रविष्ट करा दे। मरे हुए लोग, मरते जाने वाले लोग जो वसीयत छोड़ गए हैं, चाहे वह ठीक हो चाहे गलत, उसे वह नये बच्चों के मन में प्रवेश करा दे। समाज शिक्षक से यह काम लेता रहा है और शिक्षक इस काम को करता रहा है, यह आश्चर्य की बात है! इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षक के ऊपर बहुत बड़ी, बहुत बड़ी लांछना है।
बहुत बड़ी लांछना यह है कि हर सदी जिन बीमारियों से पीड़ित होती है उन बीमारियों को शिक्षक आगे आने वाली सदी में संक्रमित कर देता है। समाज चाहता है यह। इसलिए चाहता है कि समाज का ढांचा, समाज के ढांचे से जुड़ गए स्वार्थ, समाज के ढांचे के साथ जुड़ गए अंधविश्वास, कोई भी मरना नहीं चाहते। कोई भी समाप्त नहीं होना चाहते। इस कारण समाज शिक्षक का आदर भी करता है, आदर करने की प्रवृत्ति दिखलाता है। क्योंकि बिना शिक्षक की खुशामद किए, बिना शिक्षक को आदर दिए शिक्षक से कोई काम लेना असंभव है। इसलिए कहा जाता है कि शिक्षक जो है वह गुरु है, आदरणीय है, उसकी बात मानने योग्य है, उसका सम्मान किया जाने योग्य है। क्यों? क्योंकि जो समाज अपने बच्चों में अपने मन की सारी धारणाओं को छोड़ जाना चाहता है, इसके सिवाय उसे कोई मार्ग नहीं है। जैसे हिंदू बाप अपने बेटे को भी हिंदू बना कर ही मरना चाहता है, मुसलमान बाप अपने बेटे को मुसलमान बना कर मरना चाहता है। हिंदू बाप का मुसलमान से जो झगड़ा था वह भी अपने बच्चे को दे जाना चाहता है। यह कौन देगा? यह कौन संक्रमित करेगा? यह शिक्षक करेगा। पुरानी पीढ़ी की जो-जो अंधश्रद्धाएं हैं वे सारी अंधश्रद्धाएं पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी पर थोप जाना चाहती है। अपने शास्त्र, अपने गुरु सब थोप जाना चाहती है। यह कौन करेगा?...यह काम वह शिक्षक से लेती है और इसका परिणाम क्या होगा?
इसका परिणाम यह होता है कि दुनिया में भौतिक समृद्धि तो विकसित होती जाती है लेकिन मानसिक शक्ति विकसित नहीं हो रही है। मानसिक शक्ति विकसित हो ही नहीं सकती जब तक कि हम अतीत के भार और विचार से बच्चों को मुक्त न करें। एक छोटे से बच्चे के मस्तिष्क पर पांच-दस हजार साल के संस्कारों का भार है। उस भार के नीचे उसके प्राण दबे जाते हैं। उस भार में उसकी चेतना की ज्योति, उसके खुद का व्यक्तित्व, निजी व्यक्तित्व उठना असंभव है।
तो दुनिया में भौतिक समृद्धि बढ़ती है, क्योंकि भौतिक समृद्धि को हम जहां हमारे मां-बाप छोड़ते हैं, उससे आगे ले जाते हैं। लेकिन मानसिक समृद्धि नहीं बढ़ती है क्योंकि मानसिक समृद्धि में हम अपने मां-बाप से आगे जाने को तैयार नहीं। आपके पिता जो मकान बना गए थे, लड़का उसको दो मंजला बनाने में संकोच अनुभव नहीं करता, बल्कि खुश होता है। बल्कि बाप भी खुश होगा कि मेरे लड़के ने मेरे मकान को दो मंजिल किया, तीन मंजल किया। लेकिन महावीर, बुद्ध, राम और कृष्ण जो वसीयत छोड़ गए हैं उनके मानने वाले इस बात से बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे कि किसी व्यक्ति ने गीता के आगे विचार किया, कि गीता के एक मंजिले झोपड़े को दो मंजिल का मकान बनाया है। नहीं, मन के तल पर जो मकान बाप छोड़ गए हैं उसके भीतर ही रहना जरूरी है, उससे बड़ा मकान नहीं बनाया जा सकता है। और इस बात की हजारों साल से चेष्टा चलती है कि कोई बच्चा बाप के आगे न निकल जाए।
इसकी कई तरकीबें हैं, कई व्यवस्थाएं हैं। इसीलिए दुनिया में समृद्धि बढ़ती है--भौतिक, लेकिन मानसिक दीनता बढ़ती चली जाती है। और जब मन छोटा हो और भौतिक समृद्धि ज्यादा हो तो खतरे पैदा हो जाते हैं। जिस भांति हम भौतिक जगत में अपने मां-बाप से आगे बढ़ते हैं, जरूरी है कि बच्चे मानसिक और आध्यात्मिक विकास में भी अपने मां-बाप को पीछे छोड़ दें। इसमें मां-बाप का अपमान नहीं, बल्कि इसी में सम्मान है। ठीक-ठीक पिता वही है, ठीक-ठीक पिता का प्रेम वही है कि वह चाहे कि उसका बच्चा हर दृष्टि से उसे पीछे छोड़ दे।...हर दृष्टि से उसे पीछे छोड़ दे!
लेकिन अगर किसी भी तल पर बाप की यह इच्छा है कि बच्चा उसके आगे न निकल जाए तो यह इच्छा खतरनाक है और शिक्षक अब तक इसमें सहयोगी रहा है। अब तक सहयोग रहा है उसका। इसमें हम अपमान समझेंगे कि अगर हम कृष्ण से आगे विचार करें या महावीर से आगे विचार करें या मोहम्मद से आगे विचार करें--इसमें मोहम्मद का अपमान है, महावीर का अपमान है, कितने पागलपन का खयाल है! और इस कारण सारी शिक्षा अतीत की ओर उन्मुख है, जब कि शिक्षा भविष्य की ओर उन्मुख होनी चाहिए। विकासशील कोई भी सृजनात्मक प्रक्रिया भविष्य की ओर उत्सुक होती है, अतीत की ओर नहीं।
हमारी सारी शिक्षा अतीत की ओर उत्सुक है। हमारे सारे सिद्धांत, हमारी सारी धारणाएं, हमारे सारे आदर्श अतीत से लिए जाते हैं। अतीत का मतलब है जो मर गया, जो बीत गया। हजार-हजार वर्ष जिसे बीते हो गए, वह सारी धारणाएं हम उस बच्चे के मन पर थोपना चाहते हैं। न केवल थोपना चाहते हैं, बल्कि उसी बच्चे को हम आदर्श कहेंगे जो उन धारणाओं के अनुकूल अपने को सिद्ध कर लेता है। यह कौन करता रहा है? यह काम शिक्षक से लिया जाता रहा है और इस भांति शिक्षक का शोषण समाज के ठेकेदारों ने भी किया है, धर्म के ठेकेदारों ने भी किया है और राज्य के ठेकेदारों ने भी किया है, और शिक्षक को यह भुलावा दिया गया है कि वह ज्ञान का प्रसारक है।
वह ज्ञान का प्रसारक नहीं है। जैसे उसकी स्थिति है वह उस ज्ञान का स्थापित, स्थायी रखने वाला है। जो उत्पन्न हो चुका है, और जो हो सकता है उसमें बाधा देने वाला है। वह हमेशा अतीत के घेरे से बाहर नहीं उठने देना चाहता है। और इसका परिणाम यह होता है कि हजार-हजार साल तक न मालूम किस-किस प्रकार की नासमझियां, न मालूम किस-किस तरह के अज्ञान चलते चले जाते हैं। उनको मरने नहीं दिया जाता, उनको मरने का मौका नहीं दिया जाता। राजनीतिज्ञ भी यह समझ गया है, इसलिए शिक्षक का शोषण राजनीतिज्ञ भी करता है। और सबसे आश्चर्य की बात है कि इसका शिक्षक को कोई बोध नहीं है कि उसका शोषण होता है सेवा के नाम पर, कि वह समाज की सेवा करता है, उसका शोषण होता है--इसका शिक्षक को कोई बोध नहीं है! किस-किस तरह का शोषण होता है?
अभी मैं गया, अभी कुछ ही दिन पहले शिक्षकों की एक बड़ी विराट सभा में बोलने। शिक्षक-दिवस था। तो मैंने उनसे कहा कि एक शिक्षक यदि राष्ट्रपति हो जाए तो इसमें शिक्षक का सम्मान क्या है? इसमें कौन से शिक्षक का सम्मान है? मेरी समझ में आए, एक राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए तब तो शिक्षक का सम्मान समझ में आता है लेकिन एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए इसमें शिक्षक का सम्मान कौन सा है! एक राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए और कह दे कि यह व्यर्थ है और मैं शिक्षक होना चाहता हूं और शिक्षक होना आनंद है, तब तो हम समझेंगे कि शिक्षक का सम्मान हुआ। लेकिन एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए, इसमें शिक्षक का सम्मान नहीं है, राजनीतिज्ञ का सम्मान है। इसमें राजनेता का सम्मान है। और जब एक शिक्षक सम्मानित होता हो राष्ट्रपति होकर तो फिर बाकी शिक्षक भी अगर हेडमास्टर होना चाहें, स्कूल इंस्पेक्टर होना चाहें, एजुकेशन के मिनिस्टर होना चाहें, तो कोई गलती है?
सम्मान तो वहां है जहां पद है, और पद वहां है जहां राज्य है। लेकिन सारा ढांचा हमारे चिंतन का ऐसा है कि सब पीछे है, और सबके ऊपर राज्य है, सबके ऊपर राजनीति है। राजनीतिज्ञ जाने-अनजाने शिक्षक के द्वारा अपनी विचार-स्थिति को, अपनी धारणाओं को बच्चों में प्रवेश करवाता रहता है। धार्मिक भी करता रहा है--यही! धर्म-शिक्षा के नाम पर यही चलता रहा है...कि हर धर्म यह कोशिश करता है, बच्चों के मन में अपनी धारणाओं को प्रवेश करा दे, चाहे वे सत्य हों, चाहे असत्य हों। और उस उम्र में प्रवेश करवा दे जब कि बच्चे में कोई सोच-विचार नहीं होता है। इससे घातक अपराध मनुष्य-जाति में कोई दूसरा नहीं है और न हो सकता है। एक अबोध और अनजान बालक के मन में यह भाव पैदा कर देना कि कुरान में जो है वह सत्य है या गीता में जो है वह सत्य है या भगवान हैं तो मोहम्मद हैं या भगवान हैं तो महावीर हैं या कृष्ण हैं...ये सारी बातें एक अबोध, अनजान, निर्दोष बच्चे के मन में प्रविष्ट करा देना...! इससे बड़ा कोई घातक अपराध नहीं हो सकता। लेकिन इसी भांति राजनीतिज्ञ भी कोशिश करता है।
अभी हिंदुस्तान का मामला था। आजादी की लड़ाई थी तो हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ कहते थे, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों राजनीति में भाग लें क्योंकि देश की आजादी का सवाल है। फिर वे ही राजनीतिज्ञ हुकूमत में आ गए, सत्ता में आ गए तो वे कहते हैं, शिक्षक और विद्यार्थी राजनीति से दूर रहें। कम्युनिस्ट हैं, सोशलिस्ट हैं, वे विद्यार्थी और शिक्षक से कहते हैं कि नहीं, दूर रहने की कोई जरूरत नहीं है, तुम्हें राजनीति में भाग लेना चाहिए। शिक्षक और विद्यार्थी राजनीति में भाग लें। कल कम्युनिस्ट आ जाएं हुकूमत में, वे कहेंगे कि अब तुम्हें इस राजनीति में भाग लेने की कोई भी जरूरत नहीं! क्यों! जो जिस राजनीतिज्ञ के हित में है वही सत्य हो जाता है, जब जिस मौके पर...और शिक्षक और विद्यार्थी को वही सत्य है, यह समझाने की कोशिश की जाती है।
मेरी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति ठीक अर्थों में शिक्षक तभी हो सकता है जब उसमें विद्रोह की एक अत्यंत ज्वलंत अग्नि हो। जिस शिक्षक के भीतर विद्रोह की अग्नि नहीं है वह केवल किसी न किसी निहित, स्वार्थ का, चाहे समाज, चाहे धर्म, चाहे राजनीति, उसका एजेंट होगा। शिक्षक के भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए विद्रोह की, चिंतन की, सोचने की। लेकिन क्या हममें सोचने की अग्नि है और अगर नहीं है तो आप भी एक दुकानदार हैं।
शिक्षक होना बड़ी और बात है। शिक्षक होने का मतलब क्या है? क्या हम सोचते हैं--आप बच्चों को सिखाते होंगे, सारी दुनिया में सिखाया जाता है बच्चों को, बच्चों को सिखाया जाता है, प्रेम करो! लेकिन कभी आपने विचार किया है कि आपकी पूरी शिक्षा की व्यवस्था प्रेम पर नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। किताब में सिखाते हैं प्रेम करो और आप की पूरी व्यवस्था, पूरा इंतजाम प्रतियोगिता का है।
जहां प्रतियोगिता है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। जहां काम्पिटीशन है, प्रतिस्पर्धा है, वहां प्रेम कैसे हो सकता है। प्रतिस्पर्धा तो ईष्र्या का रूप है, जलन का रूप है। पूरी व्यवस्था तो जलन सिखाती है। एक बच्चा प्रथम आ जाता है तो दूसरे बच्चों से कहते हैं कि देखो तुम पीछे रह गए और यह पहले आ गया। आप क्या सिखा रहे हैं? आप सिखा रहे हैं कि इससे ईष्र्या करो, प्रतिस्पर्धा करो, इसको पीछे करो, तुम आगे आओ। आप क्या सिखा रहे हैं? आप अहंकार सिखा रहे हैं कि जो आगे है वह बड़ा है जो पीछे है वह छोटा है। लेकिन किताबों में आप कह रहे हैं कि विनीत बनो और किताबों में आप समझा रहे हैं कि प्रेम करो; और आपकी पूरी व्यवस्था सिखा रही है कि घृणा करो, ईष्र्या करो, आगे निकलो, दूसरे को पीछे हटाओ और आपकी पूरी व्यवस्था उनको पुरस्कृत कर रही है। जो आगे आ रहे हैं उनको गोल्ड मेडल दे रही है, उनको सर्टिफिकेट दे रही है, उनके गलों में मालाएं पहना रही है, उनके फोटो छाप रही है; और जो पीछे खड़े हैं उनको अपमानित कर रही है।
तो जब आप पीछे खड़े आदमी को अपमानित करते हैं तो क्या आप उसके अहंकार को चोट नहीं पहुंचाते कि वह आगे हो जाए? और जब आगे खड़े आदमी को आप सम्मानित करते हैं तो क्या आप उसके अहंकार को प्रबल नहीं करते हैं? क्या आप उसके अहंकार को नहीं फुसलाते और बड़ा करते हैं? और जब ये बच्चे इस भांति अहंकार में, ईष्र्या में, प्रतिस्पर्धा में पाले जाते हैं तो यह कैसे प्रेम कर सकते हैं। प्रेम का हमेशा मतलब होता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं उसे आगे जाने दें। प्रेम का हमेशा मतलब है, पीछे खड़े हो जाना।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे खयाल में आए।
तीन सूफी फकीरों को फांसी दी जा रही थी और दुनिया में हमेशा धार्मिक आदमी संतों के खिलाफ रहे हैं। तो धार्मिक लोग उन फकीरों को फांसी दे रहे थे। तीन फकीर बैठे हुए थे कतार में। जल्लाद एक-एक का नाम बुलाएगा और उनको काट देगा। उसने चिल्लाया कि नूरी कौन है, उठ कर आ जाए। लेकिन नूरी नाम का आदमी तो नहीं उठा, एक दूसरा युवक उठा और वह बोला कि मैं तैयार हूं, मुझे काट दें। उसने कहाः लेकिन तेरा तो नाम यह नहीं है। इतनी मरने की क्या जल्दी है? उसने कहाः मैंने प्रेम किया और जाना कि जब मरना हो तो आगे हो जाओ और जब जीना हो तो पीछे हो जाओ। मेरा मित्र मरे, उसके पहले मुझे मर जाना चाहिए। और अगर जीने का सवाल हो तो मेरा मित्र जीए, उसके पीछे मुझे जीना चाहिए।
प्रेम तो यही कहता है, लेकिन प्रतियोगिता क्या कहती है? प्रतियोगिता कहती है, मरने वाले के पीछे हो जाना और जीने वाले के आगे हो जाना। और हमारी शिक्षा क्या सिखाती है? प्रेम सिखाती है या प्रतियोगिता सिखाती है? और जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और बच्चों के दिमाग में काम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो तो क्या दुनिया अच्छी हो सकती है? जब हर बच्चा हर दूसरे बच्चे से आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील हो, और जब हर बच्चा हर बच्चे को पीछे छोड़ने के लिए उत्सुक हो, बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह क्या करेगा? यही करेगा, जो सीखेगा वही करेगा।
हर आदमी हर दूसरे आदमी को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। नीचे के चपरासी से लेकर ऊपर के राष्ट्रपति तक हर आदमी एक-दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। और जब कोई खींचते-खींचते चपरासी राष्ट्रपति हो जाता है तो हम कहते हैं, बड़ी गौरव की बात हो गई। हालांकि किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हीनता का, हिंसा का कोई काम नहीं है। लेकिन यह वायलेंस हम सिखा रहे हैं, यह हिंसा हम सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं, यह शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में युद्ध होते हों तो आश्चर्य कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती हो, रोज हत्या होती हो तो आश्चर्य कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में झोपड़ों के करीब बड़े महल खड़े होते हों और उन झोपड़ों में मरते लोगों के करीब भी लोग अपने महलों में खुश रहते हों तो आश्चर्य कैसा! इस दुनिया में भूखे लोग हों और ऐसे लोग हों जिनके पास इतना है कि क्या करें, उनकी समझ में नहीं आता। यह इस शिक्षा की बदौलत है, यह इस शिक्षा का परिणाम है। यह दुनिया इस शिक्षा से पैदा हो रही है और शिक्षक इसके लिए जिम्मेवार है, और शिक्षक की नासमझी इसके लिए जिम्मेवार है। वह शोषण का हथियार बना हुआ है। वह हजार तरह के स्वार्थों का हथियार बना हुआ है, इस नाम पर कि वह शिक्षा दे रहा है, बच्चों को शिक्षा दे रहा है!
अगर यही शिक्षा है तो भगवान करे कि सारी शिक्षा बंद हो जाए तो भी आदमी इससे बेहतर हो सकता है। जंगली आदमी शिक्षित आदमी से बेहतर है। उसमें ज्यादा प्रेम है और कम प्रतिस्पर्धा है, उसमें ज्यादा हृदय है और कम मस्तिष्क है; लेकिन इससे बेहतर वह आदमी है। लेकिन हम इसको शिक्षा कह रहे हैं! और हम करीब-करीब जिन-जिन बातों को कहते हैं कि तुम यह करना, उनसे उलटी बातें हम, पूरा सरंजाम हमारा, उलटी बातें सिखाता है!
आप क्या कहते हैं? आप सिखाते हैं उदारता, सहानुभूति। लेकिन प्रतियोगी मन, काम्पिटिटिव माइंड कैसे उदार हो सकता है? कैसे सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है? अगर प्रतियोगी मन सहानुभूतिपूर्ण हो तो प्रतियोगिता कैसे चलेगी? प्रतियोगी मन कठोर होगा, हिंसक होगा, अनुदार होगा--होना ही पड़ेगा उसे। और हमारी व्यवस्था ऐसी है कि हमें पता भी नहीं चलेगा, हमें खयाल में भी नहीं आएगा कि यह हिंसक आदमी है , जो सारी भीड़ को हटा कर आगे जा रहा है। यह क्या है? यह हिंसक आदमी है और हम इसे सिखाए जा रहे हैं, हम इसे तैयार किए जा रहे हैं।
फैक्ट्रियां बढ़ती जा रही हैं इस तरह की शिक्षा की, उनको हम स्कूल कहते हैं, विद्यालय कहते हैं; यह सरासर झूठ है। ये सब फैक्ट्रियां हैं जिनमें एक बीमार आदमी तैयार किया जा रहा है और वह बीमार आदमी सारी दुनिया को गड्ढे में लिए जा रहा है। हिंसा बढ़ती जाती है, प्रतिस्पर्धा बढ़ती जाती है। एक-दूसरे के गले पर एक-दूसरे का हाथ है। आप यहां बैठे हैं, कहेंगे कि हमारा किसके गले पर हाथ है। लेकिन जरा गौर से देखें, हर आदमी का हाथ हर दूसरे आदमी के गले पर है और एक-एक गले पर हजार-हजार हाथ हैं और हर आदमी का हाथ दूसरे की जेब में है और एक-एक जेब में हजार-हजार हाथ हैं और यह बढ़ता जा रहा है। यह कहां जाएगा, यह कहां टूटेगा, यह कब तक चल सकता है, यह एटम और हाइड्रोजन बम कहां से पैदा हो रहे हैं?--प्रतियोगिता से, प्रतिस्पर्धा से! वह चाहे प्रतिस्पर्धा दो आदमियों की हो, चाहे दो राष्ट्रों की, कोई फर्क थोड़े ही है। वह रूस की हो या अमरीका की, कोई फर्क थोड़े ही है।
प्रतिस्पर्धा है, आगे होना है। अगर तुम एटम बम बनाते हो तो हम हाइड्रोजन बम बनाते हैं, तुम हाइड्रोजन बनाते हो तो हम कुछ और बनाएंगे, सुपर हाइड्रोजन बम बनाएंगे। लेकिन पीछे हम नहीं रह सकते। पीछे रहना हमें कभी सिखाया नहीं गया है। हमें आगे होना है। अगर तुम दस मारते होे हम बीस मारेंगे। अगर तुम एक मुल्क मिटाते हो तो हम दो मिटा देंगे। यानी हम इस तक के लिए राजी हो सकते हैं कि हम सबको मिटाने के लिए राजी हो सकते हैं, क्योंकि हम पीछे नहीं रह सकते। यह है और यह कौन पैदा कर रहा है! यह कहां से सारी बात आ रही है! यह शिक्षा से सारी बात आ रही है।
लेकिन हम अंधे हैं और हम यह देखते नहीं कि मामला क्या है। बच्चों को हम क्या सिखाते हैं? उनको सिखाते हैं, लोभी मत बनो, भयभीत मत बनो, लेकिन करते क्या हैं? हम पूरे वक्त लोभ सिखाते हैं, पूरे वक्त भय सिखाते हैं। पुराने जमाने में नरक के भय थे, स्वर्ग के पुरस्कार का प्रलोभन था। वह हजारों साल तक सिखाया गया। पूरे प्राण ढीले कर दिए गए आदमी के। भय और लोभ के सिवाय उसमें कुछ भी नहीं बचा। भय है कि कहीं नरक न चला जाऊं और लोभ लगा है कि किसी भांति स्वर्ग पहुंच जाऊं। हम क्या करते हैं? जहां भी दंड और पुरस्कार है, वहां भय है और वहां लोभ है। लेकिन बच्चों को हम कैसे सिखाते हैं, सिखाने का रास्ता क्या है? सिखाने का रास्ता है या तो भय या लोभ। या तो मारो और सिखाओ, या फिर प्रलोभन दो कि हम यह-यह देंगे, गोल्ड मेडल देंगे, इज्जत देंगे, नौकरी देंगे, समाज में स्थान मिलेगा, ऊंचा पद देंगे, नवाब बना देंगेे।
 मैं जब पढ़ता था तो वे कहते थे कि पढ़ोगे लिखोगे होगे नवाब, तुमको नवाब बना देंगे, तुमको तहसीलदार बनाएंगे। तुम राष्ट्रपति हो जाओगे। ये प्रलोभन हैं और ये प्रलोभन हम छोटे-छोटे बच्चों के मन में जगाते हैं। हमने कभी उनको सिखाया क्या कि तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम शांत रहो, आनंदित रहो! नहीं। हमने सिखाया, तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम ऊंची से ऊंची कुर्सी पर पहुंच जाओ। तुम्हारी तनख्वाह बड़ी से बड़ी हो जाए, तुम्हारे कपड़े अच्छे से अच्छे हो जाएं, तुम्हारा मकान ऊंचे से ऊंचा हो जाए, हमने यह सिखाया है। हमने हमेशा यह सिखाया है कि तुम लोभ को आगे से आगे खींचना, क्योंकि लोभ ही सफलता है। और जो असफल है उसके लिए कोई स्थान है?
इस पूरी शिक्षा में असफल के लिए जब कोई स्थान नहीं है, असफल के प्रति कोई जगह नहीं है और केवल सफलता की धुन और ज्वर हम पैदा करते हैं तो फिर स्वाभाविक है कि सारी दुनिया में जो सफल होना चाहता है वह जो बन सकता है, करता है। क्योंकि सफलता आखिर में सब छिपा देती है। एक आदमी किस भांति चपरासी से राष्ट्रपति बनता है! एक दफा राष्ट्रपति बन जाए तो फिर कुछ पता नहीं चलता कि वह कैसे राष्ट्रपति बना, कौन सी तिकड़म से, कौन सी शरारत से, कौन सी बेईमानी से, कौन से झूठ से? किस भांति से राष्ट्रपति बना, कोई जरूरत अब पूछने की नहीं है! न दुनिया में कभी कोई पूछेगा, न पूछने का कोई सवाल उठेगा। एक दफा सफलता आ जाए तो सब पाप छिप जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। सफलता एकमात्र सूत्र है। तो जब सफलता एकमात्र सूत्र है तो मैं झूठ बोल कर क्यों न सफल हो जाऊं, बेईमानी करके क्यों न सफल हो जाऊं! अगर सत्य बोलता हूं, असफल होता हूं, तो क्या करूं?
तो हम एक तरफ सफलता को केंद्र बनाए हैं और जब झूठ बढ़ता है, बेईमानी बढ़ती है तो हम परेशान होते हैं कि यह क्या मामला है। जब तक सफलता, सक्सेस एकमात्र केंद्र है, सारी कसौटी का एकमात्र मापदंड है, तब तक दुनिया में झूठ रहेगा, बेईमानी रहेगी, चोरी रहेगी। यह नहीं हट सकती, क्योंकि अगर चोरी से सफलता मिलती है तो क्या किया जाए? अगर बेईमानी से सफलता मिलती है तो क्या किया जाए? बेईमानी से बचा जाए कि सफलता छोड़ी जाए, क्या किया जाए? जब सफलता एकमात्र माप है, एकमात्र मूल्य है, एकमात्र वैल्यू है कि वह आदमी महान है जो सफल हो गया तो फिर बाकी सब बातें अपने आप गौण हो जाती हैं। रोते हैं हम, चिल्लाते हैं कि बेईमानी बढ़ रही है, यह हो रहा है। यह सब बढ़ेगी, यह बढ़नी चाहिए। आप जो सिखा रहे हैं उसका फल है यह, और पांच हजार साल से जो सिखा रहे हैं उसका फल है।
सफलता की वैल्यू जानी चाहिए, सफलता कोई वैल्यू नहीं है, सफलता कोई मूल्य नहीं है। सफल आदमी कोई बड़े सम्मान की बात नहीं है। सफल नहीं सुफल होना चाहिए आदमी--सफल नहीं सुफल! एक आदमी बुरे काम में सफल हो जाए, इससे बेहतर है कि एक आदमी भले काम में असफल हो जाए। सम्मान काम से होना चाहिए, सफलता से नहीं। लेकिन सफलता मूल्य है और सारा सारा, इंतजाम उसके केंद्र पर घूम रहा है। सिखा रहे हैं, कुछ सत्य सिखा रहे हैं?
एजुकेशन कमीशन बैठा था अभी। उसके चेयरमैन ने मुझसे कहा कि हम अपने बच्चों को कहते हैं कि तुम सत्य बोलो। सब तरह समझाते हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी झूठ बोलते हैं! मैंने उनसे कहा कि क्या आप पसंद करेंगे कि आपका लड़का सड़क पर भंगी हो जाए, बुहारी लगाए, या एक स्कूल में चपरासी हो जाए? पसंद करेंगे? या कि आपका दिल है कि लड़का भी आपकी भांति एजुकेशन कमीशन का चेयरमैन हो। हिंदुस्तान के बाहर एंबेसेडर हो, धीरे-धीरे चढ़े सीढ़ियां!...और ऊपर आकाश में बैठ जाए, आखिर में भगवान हो जाए! क्या चाहते हैं? क्या आप राजी हैं इस बात के लिए कि आपका लड़का सड़क पर बुहारी लगाए? तो आपको कोई तकलीफ न हो...! उन्होंने कहा कि नहीं, तकलीफ तो होगी! तो मैंने कहा अगर तकलीफ होगी तो फिर आप लड़के से चाहते नहीं हैं कि वह सत्य हो, ईमानदार हो।
जब तक चपरासी अपमानित है और राष्ट्रपति सम्मानित है तब तक दुनिया में ईमानदारी नहीं हो सकती क्योंकि चपरासी कैसे बैठा रहे चपरासी की जगह पर, और जिंदगी इतनी बड़ी नहीं है कि सत्य का सहारा लिए बैठा रहे। और जब असत्य सफलता लाता हो तो कौन पागल होगा उसे छोड़ दे! और न केवल आप मानते हैं बल्कि मामला कुछ ऐसा है कि आपने जिस भगवान को बनाया हुआ है, जिस स्वर्ग को, वह भी इन सफल लोगों को मानता है। चपरासी मरता है तो नरक ही जाने की संभावना है। राष्ट्रपति कभी नरक नहीं जाते, वे सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। वहां भी सिक्के यही लगा कर रखे हुए हैं, वहां भी जो सफल है वही!--तो फिर क्या होगा?
सफलता का केंद्र खत्म करना होगा। अगर बच्चों से आपको प्रेम है और मनुष्य-जाति के लिए आप कुछ करना चाहते हैं तो बच्चों के लिए सफलता के केंद्र को हटाइए, सुफलता के केंद्र को पैदा करिए। अगर मनुष्य-जाति के लिए कोई भी आपके हृदय में प्रेम है और आप सच में चाहते हैं कि एक नई दुनिया, एक नई संस्कृति और नया आदमी पैदा हो जाए तो यह सारी पुरानी बेवकूफी छोड़नी पड़ेगी, जलानी पड़ेगी, नष्ट करनी पड़ेगी और विचार करना पड़ेगा कि क्या विद्रोह हो, कैसे हो सकता है इसके भीतर से। यह सब गलत है इसलिए गलत आदमी पैदा होता है।
शिक्षक बुनियादी रूप से इस जगत में सबसे बड़ा विद्रोही व्यक्ति होना चाहिए। तो वह, तो वह पीढ़ियों को आगे ले जाएगा। और शिक्षक सबसे बड़ा दकियानूस है, सबसे बड़ा ट्रेडिशनलिस्ट वही है, वही दोहराए जाता है पुराने कचरे को। क्रांति शिक्षक में होती नहीं है। आपने कोई सुना है कि शिक्षक कोई क्रांतिपूर्ण हो। शिक्षक सबसे ज्यादा दकियानूस, सबसे ज्यादा आर्थाडाक्स है, और इसलिए शिक्षक सबसे खतरनाक है। समाज उससे हित नहीं पाता, अहित पाता है। शिक्षक को होना चाहिए विद्रोही--कौन सा विद्रोह है? मकान में आग लगा दें आप, या कुछ और कर दें या जाकर ट्रेनें उलट दें या बसों में आग लगा दें। उसको नहीं कह रहा हूं, कोई गलती से वैसा न समझ ले। मैं यह कह रहा हूं कि हमारे जो मूल्य हैं, हमारी जो वैल्यूज हैं--उनके बाबत विद्रोह का रुख, विचार का रुख होना चाहिए कि हम विचार करें कि यह मामला क्या है!
जब आप एक बच्चे को कहते हैं कि तुम गधे हो, तुम नासमझ हो, तुम बुद्धिहीन हो, देखो उस दूसरे को, वह कितना आगे है! तब आप विचार करें, तब आप विचार करें कि यह कितने दूर तक ठीक है और कितने दूर तक सच है! क्या दुनिया में दो आदमी एक जैसे हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि जिसको आप गधा कह रहे हैं कि वैसा हो जाए जैसा कि जो आगे खड़ा है। क्या यह आज तक संभव हुआ है? हर आदमी जैसा है, अपने जैसा है, दूसरे आदमी से कंपेरिजन का कोई सवाल ही नहीं। किसी दूसरे आदमी से उसकी कोई कंपेरिजन नहीं, कोई तुलना नहीं है।
एक छोटा कंकड़ है, वह छोटा कंकड़ है; एक बड़ा कंकड़ है वह बड़ा कंकड़ है! एक छोटा पौधा है, वह छोटा है; एक बड़ा पौधा है, वह बड़ा पौधा है! एक घास का फूल है, वह घास का फूल है; एक गुलाब का फूल है, वह गुलाब का फूल है! प्रकृति का जहां तक संबंध है, घास के फूल पर प्रकृति नाराज नहीं है और गुलाब के फूल पर प्रसन्न नहीं है। घास के फूल को भी प्राण देती है उतनी ही खुशी से जितने गुलाब के फूल को देती है। और मनुष्य को हटा दें तो घास के फूल और गुलाब के फूल में कौन छोटा है, कौन बड़ा है--है कोई छोटा और बड़ा! घास का तिनका और बड़ा भारी चीड़ का दरख्त...तो यह महान है और यह घास का तिनका छोटा है? तो परमात्मा कभी का घास के तिनके को समाप्त कर देता, चीड़-चीड़ के दरख्त रह जाते दुनिया में। नहीं, लेकिन आदमी की वैल्यूज गलत हैं।
यह आप स्मरण रखें कि इस संबंध में मैं आपसे कुछ गहरी बात कहने का विचार रखता हूं। वह यह कि जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कम्पेयर करेंगे, तुलना करेंगे तब तक हम एक गलत रास्ते पर चले जाएंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने की इच्छा पैदा करते हैं; जब कि कोई आदमी किसी दूसरे जैसा न बना है और न बन सकता है।
राम को मरे कितने दिन हो गए, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गए? दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता और हजारों-हजारों क्रिश्चिएन कोशिश में तो चैबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जाएं। और हजारों हिंदु राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन, बुद्ध, महावीर बनने की कोशिश में लगे हैं, बनते क्यों नहीं एकाध? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर पैदा क्यों नहीं होता? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी? मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं, जो रामलीला में बनते हैं राम। न आप समझ लें कि उनकी चर्चा कर रहा हूं, कई लोग राम बन जाते हैं। वैसे तो कई लोग बन जाते हैं, कई लोग बुद्ध जैसे कपड़े लपेट लेते हैं और बुद्ध बन जाते हैं। कोई महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेता है या नंगा हो जाता है और महावीर बन जाता है। उनकी बात नहीं कर रहा। वे सब रामलीला के राम हैं, उनको छोड़ दें। लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है?
यह आपको जिंदगी में भी पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कहीं हो सकता है? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है, एक जड़ कंकड़ जैसा--यहां हर चीज यूनिक है, हर चीज अद्वितीय है। और जब तक हम प्रत्येक की अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं देंगे तब तक दुनिया में प्रतियोगिता रहेगी, प्रतिस्पर्धा रहेगी, तब तक दुनिया में मार-काट रहेगी, तब तक दुनिया में हिंसा रहेगी, तब तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय करके आदमी आगे होना चाहेगा, दूसरे जैसा होना चाहेगा। और जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है तो क्या फल होता है? फल यह होता है--अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाए या बड़े-बड़े आदर्शवादी नेता वहां पहुंच जाएं या बड़े-बड़े शिक्षक वहां पहुंच जाएं और उनको समझाएं कि देखो, चमेली का फूल चंपा जैसा हो जाए, चमेली का फूल चंपा जैसा, चंपा का फूल जुही जैसा, क्योंकि देखो, जुही कितनी सुंदर है...और सब फूलों को अगर पागलपन आ जाए, हालांकि आ नहीं सकता! क्योंकि आदमी से पागल फूल नहीं है।
 आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें नहीं है कि वे चक्कर में पड़ जाएं। शिक्षकों के, उपदेशकों के, संन्यासियों के, साधुओं के, आदर्शवादियों केचक्कर में कोई फूल नहीं पड़ेगा। लेकिन फिर भी समझ लें, कल्पना कर लें कि कोई आदमी पहुंच जाए और समझाए उनको और वे चक्कर में आ जाएं और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे तो क्या होगा उस बगिया में। उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं होंगे, उस बगिया में फिर फूल पैदा ही नहीं हो सकते। उस बगिया में फिर पौधे मुरझा जाएंगे, मर जाएंगे। क्यों? क्योंकि चंपा लाख उपाय करे तो चमेली नहीं हो सकती, वह उसके स्वभाव में नहीं है, वह उसके व्यक्तित्व में नहीं है, वह उसकी प्रकृति में नहीं है। चमेली तो चंपा हो ही नहीं सकती। लेकिन क्या होगा? चमेली होने की कोशिश में वह चंपा भी नहीं हो पाएगी। वह जो हो सकती थी, उससे भी वंचित रह जाएगी।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य हुआ है। यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, अभिशाप है जो मनुष्य के साथ हुआ है कि हर आदमी किसी और जैसा होना चाह रहा है और कौन सिखा रहा है यह? यह षडयंत्र कौन कर रहा है? यह हजार-हजार साल से शिक्षा कर रही है। वह कह रही राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। या अगर पुरानी तस्वीरें जरा फीकी पड़ गईं, तो गांधी जैसे बनो, विनोबा जैसे बनो। किसी न किसी जैसे बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी मत करना, किसी जैसे बनना, किसी दूसरे जैसे बनो क्योंकि तुम तो बेकार पैदा हुए हो। असल में तो गांधी मतलब से पैदा हुए। तुम्हारा तो बिलकुल बेकार है, भगवान ने भूल की जो आपकोे पैदा किया। क्योंकि अगर भगवान समझदार होता तो राम और गांधी और बुद्ध ऐसे कोई दस पंद्रह आदमी के टाइप पैदा कर देता दुनिया में। या अगरबहुत ही समझदार होता, जैसा कि सभी धर्मों के लोग बहुत समझदार हैं, तो फिर एक ही तरह के टाइपपैदा कर देता। फिर क्या होता?
अगर दुनिया में समझ लें कि तीन अरब राम ही राम हों तो कितनी देर दुनिया चलेगी? पंद्रह मिनट में सुसाइड हो जाएगा। टोटल, यूनिवर्सल सुसाइड हो जाएगा। सारी दुनिया आत्मघात कर लेगी। इतनी बोर्डम पैदा होगी राम ही राम को देखने से। सब मर जाएगा एक दम, कभी सोचा? सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जाएं और सब पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें, क्या होगा? फूल देखने लायक भी नहीं रह जाएंगे। उनकी तरफ आंख करने की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। नहीं, यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और यह कंपेरिजन कि कोई ऊंचा है और आप नीचे हो, नासमझी का है। कोई ऊंचा और नीचा नही है! प्रत्येक व्यक्ति अपनी जगह है और प्रत्येक व्यक्ति दूसरा अपनी जगह है। नीचे-ऊंचे की बात गलत है। सब तरह का वैल्युएशन गलत है। लेकिन हम यह सिखाते रहे हैं।
विद्रोह का मेरा मतलब है, इस तरह की सारी बातों पर विचार, इस तरह की सारी बातों पर विवेक, इस तरह की एक-एक बात को देखना कि मैं क्या सिखा रहा हूं इस बच्चे को। जहर तो नहीं पिला रहा हूं? बड़े प्रेम से भी जहर पिलाया जा सकता है और बड़े प्रेम से शिक्षक, मां-बाप जहर पिलाते रहे हैं, लेकिन यह टूटना चाहिए।
दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोग हो गए। कभी समझाने-बुझाने से हुए, कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। हिंदू मुसलमान हो जाए तो वैसे का वैसा आदमी रहता है, मुसलमान ईसाई हो जाए तो वैसा का वैसा आदमी रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से।
 राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं। एक सत्ताधारी बदल गया, दूसरा बैठ गया। कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है, वह बदल गया, तो जो पास की जमीन पर रहता है, वह बैठ गया। किसी की चमड़ी गोरी थी वह हट गया तो किसी की चमड़ी काली थी वह बैठ गया, लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है।
आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं दुनिया में। मजदूर बैठ गए, पूंजीपति हट गए। लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया। पूंजीवाद चला गया तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए। वे उतने ही दुष्ट, उतने ही खतरनाक! कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ग बने रहे। पहले वर्ग था, जिसके पास धन है--वह, और जिसके पास धन नहीं है--वह। अब वर्ग हो गया--जिसमें धन वितरित किया जाता है--वह और जो धन वितरित करता है--वह। जिसके पास ताकत है, स्टेट में जो है वह, राज्य में जो है वह, और राज्यहीन जो है वह। नया वर्ग बन गया, लेकिन वर्ग कायम रहा।
अब तक इन पांच-छह हजार वर्षों में जितने प्रयोग हुए हैं मनुष्य के लिए, कल्याण के लिए, सब असफल हो गए। अभी तक एक प्रयोग नहीं हुआ है, वह है शिक्षा में क्रांति। वह प्रयोग शिक्षक के ऊपर है कि वह करे। और मुझे लगता है, यह सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है। शिक्षा में क्रांति सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है। राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक कोई क्रांति का इतना मूल्य नहीं है जितना शिक्षा में क्रांति का मूल्य है। लेकिन शिक्षा में क्रांति कौन करेगा? वे विद्रोही लोग कर सकते हैं जो सोचें, विचार करें--हम यह क्या कर रहे हैं! और इतना तय समझ लें कि जो भी आप कर रहे हैं वह जरूर गलत है क्योंकि उसका परिणाम गलत है। यह जो मनुष्य पैदा हो रहा है, यह जो समाज बन रहा है, यह जो युद्ध हो रहे हैं, यह जो सारी हिंसा चल रही है, यह जो सफरिंग इतनी दुनिया में है, इतनी पीड़ा, इतनी दीनता, दरिद्रता है, यह कहां से आ रही है। यह जरूर हम जो शिक्षा दे रहे हैं उसमें कुछ बुनियादी भूलें हैं। तो यह विचार करें, जागें। लेकिन आप तो कुछ और हिसाब में पड़े रहते होंगे।
शिक्षकों के सम्मेलन होते हैं तो वे विचार करते हैं, विद्यार्थी बड़े अनुशासनहीन हो गए, इनको डिसिप्लिन में कैसे लाया जाए! कृपा करें, इनको पूरा अनुशासनहीन हो जाने दें, क्योंकि आपके डिसिप्लिन का परिणाम क्या हुआ है, पांच हजार साल से--डिसिप्लिन में तो थे, क्या हुआ? और डिसिप्लिन सिखाने का मतलब क्या है? डिसिप्लिन सिखाने का मतलब है कि हम जो कहें उसको ठीक मानो। हम ऊपर बैठें, तुम नीचे बैठो, हम जब निकलें तो दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करो या और ज्यादा डिसिप्लिन हो तो पैर छुओ और हम जो कहें उस पर शक मत करो, हम जिधर कहें उधर जाओ, हम कहें बैठो तो बैठो, हम कहें उठो तो उठो। यह डिसिप्लिन है? डिसिप्लिन के नाम पर आदमी को मारने की करतूतें हैं, उसके भीतर कोई चैतन्य न रह जाए, उसके भीतर कोई होश न रह जाए, उसके भीतर कोई विवेक और विचार न रह जाए।
मिलिटरी में क्या करते हैं? एक आदमी को तीन-चार साल तक कवायद करवाते हैं--लेफ्ट टर्न, राइट टर्न। कितनी बेवकूफी की बातें हैं कि आदमी से कहो कि बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो तीन-चार साल तक, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाएगी। एक आदमी को बाएं-दाएं घुमाओगे, क्या होगा? कितनी देर तक उसकी बुद्धि स्थिर रहेगी। उससे कहो बैठो, उससे कहो खड़े होओ, उससे कहो दौड़ो और जरा इनकार करे तो मारो। तीन-चार वर्ष में उसकी बुद्धि क्षीण हो जाएगी, उसकी मनुष्यता मर जाएगी। फिर उससे कहो, राइट टर्न, तो वह मशीन की तरह घूमता है। फिर उससे कहो, बंदूक चलाओ, तो वह मशीन की तरह बंदूक चलाता है। आदमी को मारो, तो वह आदमी को मारता है। वह मशीन हो गया, वह आदमी नहीं रह गया--यह डिसिप्लिन है? और यह है डिसिप्लिन, हम चाहते हैं कि बच्चों में भी हो। बच्चों में मिलिट्राइजेशन हो...उनको भी एन.सी.सी. सिखाओ, मार डालो दुनिया को, एन.सी.सी. सिखाओ, सैनिक शिक्षा दो, बंदूक पकड़वाओ, लेफ्ट-राइट टर्न करवाओ, मारो दुनिया को। पांच हजार साल में आदमी को...मैं नहीं समझता कि कोई समझ भी आई हो कि चीजों के क्या मतलब है? डिसिप्लिनड आदमी डेड होता है। जितना अनुशासित आदमी होगा उतना मुर्दा होगा।
तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि लड़कों को कहो कि विद्रोह करो, भागो, दौड़ो, कूदो क्लास में, पढ़ने मत दो। यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि आप प्रेम करो बच्चों को। बच्चों के हित, भविष्य की मंगलकामना करो। उस प्रेम और मंगलकामना से एक डिसिप्लिन आनी शुरू होती है जो थोपी हुई नहीं है, जो बच्चे के विवेक से पैदा होती है। एक बच्चे को प्रेम करो और देखो कि वह प्रेम उसमें एक अनुशासन लाता है। वह अनुशासन लेफ्ट-राइट टर्न करने वाला अनुशासन नहीं है। वह उसकी आत्मा से जगता है, प्रेम की ध्वनि से जगता है, थोपा नहीं जाता है, उसके भीतर से आता है। उसके विवेक को जगाओ, उसके विचार को जगाओ, उसको बुद्धिहीन मत बनाओ। उससे यह मत कहो कि हम जो कहते हैं वही सत्य है।
सत्य का पता है आपको? लेकिन दंभ कहता है कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप तीस साल पैदा पहले हो गए, वह तीस साल पीछे हो गया तो आप सत्य के जानकार हो गए और वह सत्य का जानकार नहीं रहा। जितने अज्ञान में आप हो उससे शायद हो सकता है वह कम अज्ञान में हो क्योंकि अभी वह कुछ भी नहीं जानता है, और आप न मालूम कौन-कौन सी नासमझियां, न मालूम क्या-क्या नाॅनसेंस जानते होंगे, लेकिन आप ज्ञानी हैं क्योंकि आपकी तीस साल उम्र ज्यादा है। क्योंकि आप ज्ञानी हैं, आपके हाथ में डंडा है इसलिए आप उसको डिसिप्लिनड करना चाहते हैं। नहीं, डिसिप्लिनड कोई किसी को नहीं करना चाहिए, न कोई किसी को करे तो दुनिया बेहतर हो सकती है। प्रेम करें, प्रेम आपका हक है। आप प्रेमपूर्ण जीवन जीयें। आप मंगल कामना करें उसकी, सोचें उसके हित के लिए कि क्या हो सकता है, वैसा करें। और वह प्रेम, वह मंगल कामना असंभव है कि उसके भीतर अनुशासन न ला दे, आदर न ला दे!
फर्क होगा। अभी जो जितना चैतन्य बच्चा है वह उतना ही ज्यादा इनडिसिप्लिन में होगा और जो जितना ईडियट है, जो जितना जड़बुद्धि है वह उतना डिसिप्लिन में होगा। जिस बात को में कह रहा हूं अगर प्रेम के माध्यम से अनुशासन आए तो जो जितना ईडियट है उसमें कोई अनुशासन पैदा न होगा; जो जितना चैतन्य है उसमें उतना ज्यादा अनुशासन पैदा होगा। अभी अनुशासन में वह है जो डल है, जिसमें कोई जीवन नहीं है, स्फुरणा नहीं है। अभी वह अनुशासनहीन है--जिसमें चैतन्य है, विचार है, अगर प्रेम हो तो वह अनुशासनबद्ध होगा, जिसमें विचार है और चैतन्य है, और वह अनुशासनहीन होगा जो जड़ है।
जड़ता के अनुशासन का कोई मूल्य है? नहीं, चैतन्यपूर्वक जो अनुशासन है उसका मूल्य है क्योंकि चैतन्यपूर्वक अनुशासन का अर्थ यह होता है कि वह विचारपूर्वक अनुशासन में है और अगर आप गलत अनुशासन की मांग करेंगे तो वह इनकार कर देगा। अगर पाकिस्तान-हिंदुस्तान के युवक विवेकपूर्वक अनुशासन में हों तो क्या यह संभव है कि पाकिस्तान की हुकूमत उनसे कहे कि जाओ, और हिंदुस्तान के लोगों को मारो या हिंदुस्तान के युवक, अगर अनुशासन में विवेकपूर्वक हों तो क्या यह संभव है कि कोई राजनीतिज्ञ उनसे कहे कि जाओ और पाकिस्तान के लोगों को मारो!...तो वह कहेंगे कि यह बेवकूफी की बातें बंद करो। हम समझते हैं कि क्या विवेकपूर्ण है, यह हम नहीं कर सकते, लेकिन अभी तो जड़बुद्धियों को अनुशासन सिखाया गया है, उनसे कहा है जाए--मारो, फिर वे बिलकुल नहीं देखते, क्योंकि अनुशासन ही सत्य है, उसको ही मानना है।
दुनिया में राजनीतिज्ञों ने, धर्म पुरोहितों ने खूब शिक्षा दी है कि अनुशासित होना चाहिए। क्यों? क्योंकि अनुशासित आदमी में कोई विद्रोह नहीं होता, कोई विवेक नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। उनकी तो पूरी कोशिश है, सारी दुनिया मिलिटरी कैंप हो जाए। कोई आदमी कोई गड़बड़ न करे, उनकी कोशिश चल रही है हजार-हजार ढंग से।
शायद आपको पता हो या न पता हो, अब तक बहुत से रास्ते अख्तियार किए गए हैं। अब रूस में उन्होंने माइंड-वाॅश निकाल लिया है, एक मशीन बना ली है। जिस आदमी के दिमाग में विद्रोह होगा, विचार होगा उसके दिमाग को वह मशीन के द्वारा साफ कर देंगे, उसके विचार को खत्म कर देगें। क्योंकि विद्रोही आदमी खतरनाक है, वह हुकूमत के खिलाफ बोल सकता है, लड़ सकता है, लोगों को भड़का सकता है कि यह गलत है, यह जो व्यवस्था है, इसलिए उसके दिमाग को ठंडा कर दो। पहले अनुशासन की तरकीब लगाते थे, वह पूरी कारगर नहीं हुई। फिर भी कुछ विद्रोही पैदा हो जाते हैं। बहुत कम होते हैं, लेकिन फिर भी कुछ हो ही जाते हैं। अब उन्होंने नई से नई तरकीब निकाली है कि जिस बच्चे के दिमाग में ऐसा लगे कि शक-शुबहा है इसके दिमाग को ही ठीक कर दो। बिजली की जोरदार करंट इसके दिमाग में पहुंचाओ, इसके दिमाग को शिथिल कर दो। ये बड़े खतरनाक मामले हैं जो सारी दुनिया में चल रहे हैं। एटम बम, हाइड्रोजन बम से भी ज्यादा खतरनाक ईजाद यह है।
लेकिन क्या शिक्षक इसमें सहयोगी होगा? मैं इस प्रश्न पर ही अपनी चर्चा को आप पर छोड़ना चाहूंगा कि क्या आप इस दुनिया से सहमत हैं? क्या इस मनुष्य से सहमत हैं जैसा आज आदमी है? क्या इस इंतजाम से सहमत हैं आप, इन युद्धों से, हिंसा से, बेईमानी से सहमत हैं? अगर सहमत नहीं हैं तो पुनर्विचार करिए, आपकी शिक्षा में कहीं बुनियादी भूल है। आप जो दे रहे हैं, वह गलत है।
शिक्षक एक विद्रोही हो, विवेक और विचारपूर्ण उसकी जीवन दृष्टि हो तो वह समाज के लिए हितकर है, भविष्य में नये से नये समाज के पैदा होने में सहयोगी है। और अगर यह नहीं है तो वह केवल पुराने मुर्दों को नये बच्चों के दिमाग में भरने के अतिरिक्त उसका और कोई काम नहीं है। इस काम को करता चला जाए।
एक क्रांति होनी चाहिए, एक बड़ी क्रांति होनी चाहिए कि शिक्षा का आमूल ढांचा तोड़ दिया जाए और एक नया ढांचा पैदा किया जाए और उस नये ढांचे के मूल्य अलग हों। सफलता उसका मूल्य न हो, महत्वाकांक्षा उसका मूल्य न हो, आगे और पीछे होना सम्मान-अपमान की बातें न हों। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की कोई तुलना न हो। प्रेम हो, प्रेम से बच्चों के विकास की चेष्टा हो। तो एक नई, बिलकुल एक अदभुत सुवास से भरी हुई दुनिया पैदा की जा सकती है।
यह थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं, इस खयाल से कहीं कि कोई नींद में हो तो थोड़ा-बहुत तो जागे। लेकिन कई की नींद इतनी गहरी होती है कि वह सिर्फ यही समझ रहे होंगे कि क्या गड़बड़ चल रहा है, नींद सब खराब किए दे रहे हैं। लेकिन अगर थोड़ा-बहुत भी जागें, थोड़ा-बहुत आंख खोल कर देखें तो जो मैंने कहा है, शायद उसमें से कोई बात उपयोगी लगे, ठीक लगे।
यह मैं नहीं कहता हूं कि मैंने जो कहा है वह सच है और ठीक है। क्योंकि यह तो पुराना शिक्षक कहता था। यह तो आप कहते हैं। मैं तो यह कह रहा हूं कि मैंने अपनी दृष्टि आपको बताई, वह बिलकुल ही गलत हो सकती है। हो सकता है, उसमें कणमात्र भी सत्य न हो इसलिए मैं यह नहीं कहता कि मैंने जो कहा है उसको आप विश्वास कर लें। मैं कहता हूं, उस पर विचार करना। थोड़ा सा विचार करना और अगर कुछ उसमें से ठीक लगे तो वह मेरी बात नहीं होगी। वह आपका अपना विचार होगा, उस कारण आप मेरे अनुयायी नहीं बन जाएंगे। उस कारण आपने मेरी बात स्वीकार की ऐसा समझने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह आपने अपने विवेक से जानी और पहचानी, वह आपकी बन गई है। यह थोड़ी सी बातें कहीं ताकि आप कुछ विचार करें। दुनिया में इस वक्त बहुत धक्के देने की जरूरत है ताकि कुछ विचार पैदा हो। लोग करीब-करीब सो गए हैं, करीब-करीब मर ही गए हैं और सब चला जा रहा है। भगवान करे थोड़ा-बहुत धक्का कई तरफ से लगे और आंखें खुलें और थोड़ा सोचें।
और शिक्षक की सबसे बड़ी जिम्मेवारी है, राजनीतिज्ञों से बचे, राष्ट्रपतियों से, प्रधानमंत्रियों से बचे। इन्हीं नासमझों की वजह से तो दुनिया में परेशानी है सारी, इसी पाॅलिटिशियन की वजह से तो सारा उपद्रव है। इनसे बचे। और बच्चों में पाॅलिटिशियंस पैदा न होने दें, लेकिन वह पैदा कर रहा है एम्बिशन। नंबर एक आओ, तो फिर आगे क्या होगा। फिर आगे कहां जाएंगे। फिर नंबर एक तो केवल पाॅलिटिक्स में ही आ सकते हैं, और तो कोई आता नहीं। और किसी की अखबार में फोटो नहीं छपती, नाम नहीं छपता। फिर तो वहीं आ सकते हैं, फिर तो वह वहीं जाएगा।।
बच्चों में प्रतिस्पर्धा पैदा न होने दें। प्रेम जगाएं, जीवन के प्रति आनंद जगाएं, जीवन के प्रति उल्लास जगाएं--प्रतियोगिता नहीं, प्रतिस्पर्धा नहीं। क्योंकि जो दूसरों से जूझता है, वह धीरे-धीरे जूझने में समाप्त हो जाता है। और जो अपने आनंद को खोजता है, अपने आनंद को, दूसरे से प्रतियोगिता को नहीं, उसका जीवन एक अदभुत फूल की भांति हो जाता है--जिसमें सुवास होती है, सौंदर्य होता है।
परमात्मा करे, यह बुद्धि आप में आए। परमात्मा करे, यह विद्रोह आपमें आए, इसकी कामना करता हूं।

मेरी बातों को आपने इतनी शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।





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