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बुधवार, 13 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-04)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक) 

चौथा-प्रवचन-(ओशो)

खोज की दृष्टि
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं)
यह सवाल एकदम जरूरी और महत्वपूर्ण है। यह बात ठीक है कि एक इंजीनियर के पास रोटी न हो, कपड़ा न हो, खोज की सुविधा न हो, काम न हो, तो वह क्या करे? लेकिन अगर पूरे देश के पास ही रोटी न हो, रोजी न हो, कपड़ा न हो, तो देश क्या करे? और इंजीनियर को कहां से रोटी, रोजी और कपड़ा दे?
जब हम यह बात कहते हैं कि अगर मेरे पास रोटी-रोजी-कपड़ा नहीं तो मैं कैसे कुछ करूं। तो हमें यह भी जानना चाहिए, इस पूरे मुल्क के पास भी रोजी-रोटी-कपड़ा नहीं है। ये आपको कहां से दे? यह हल कहां होगी बात? इसको कहां से हम तोड़ें? अगर मुल्क का हर आदमी यह कहता हो कि जब मेरे पास रोटी-रोजी-कपड़ा होगा तब मैं कुछ करूंगा, तो यह रोटी-रोजी-कपड़ा आएगा कहां से? क्योंकि मुल्क का पूरा आदमी कहता है कि जब कुछ होगा तब मैं करूंगा। और पूरा मुल्क ऐसा कहता है तो यह आएगा कहां से?

यह मामला ऐसा है कि पूरा मुल्क कोई आसमान में बैठी हुई चीज नहीं, हम सब हैं। और जब हम यह कहते हैं कि पहले हमें रोटी-रोजी-कपड़ा चाहिए तो हम यह कह रहे हैं जैसे हमें रोटी-रोजी-कपड़ा देने के लिए कोई आसमान से उतरेगा। नहीं।
हिंदुस्तान के इंजीनियर को समझ लेना चाहिए कि उसको बिना रोटी-रोजी-कपड़े के रोटी-रोजी-कपड़ा खोजने की कोशिश करनी है। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। और यह इंजीनियर का ही सवाल नहीं है, डाक्टर का भी यही है, शिक्षक का भी यही है, मजदूर का भी यही है। लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर बुद्धिमत्ता है आदमी के पास तो बुद्धिमत्ता का एक ही मतलब होता है कि जब जिंदगी चीजें नहीं दे पाती तो बुद्धि चीजों को पैदा करने की दिशा में फिर भी मार्ग खोज लेती है।
हम सबकी आदत यह हो गई है जैसे किसी और की जिम्मेवारी है, जो पूरा करे। लेकिन कौन जिम्मेवारी पूरा करेगा? और जब एक इंजीनियर को हम पढ़ाते हैं, लिखाते हैं, बीस या चैबीस साल की उम्र का उसे मुल्क कर देता है, तो ऐसा नहीं है कि उसे रोटी नहीं दी गई, कपड़े नहीं दिए गए, शिक्षा नहीं दी गई। उसको सब दिया गया है। चैबीस साल कुछ कम नहीं होते। उसको सारी शिक्षा दे दी गई है। अब हम उससे आशा करते हैं कि जहां कुछ भी नहीं है वहां वह कुछ पैदा करने की फिकर करे।
यह मैं जानता हूं कि समुद्र्र पर मकान बनाना हो तो नंगे खाली हाथ से नहीं बन जाएगा। लेकिन समुद्र्र पर मकान बनाने की योजना नंगे खाली हाथ भी बना सकते हैं। और अगर एक बार योजना बन जाए तो वे हाथ भी खोजे जा सकते हैं जो श्रम कर सकें और वे लोग भी खोजे जा सकते हैं जो पैसा दे सकें। जिस आदमी ने पहली दफा मोटर की डिजाइन बनाई उसके पास एक पैसा नहीं था और खाने को रोटी भी नहीं थी। और वह जिन लोगों के पास मोटर की डिजाइन लेकर गया, उन सबने कहा, तुम पागल हो। क्योंकि मोटर उसके पहले दुनिया में कभी थी नहीं, कार कभी थी नहीं। जब उसने लोगों से कहा कि बिना घोड़े के और बिना बैल के यह गाड़ी चलेगी, तो उन्होंने कहा, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।
लेकिन वह आदमी घूमता रहा नंगा, भूखा और प्यासा। आखिर उसे एक आदमी मिल गया, जो तैयार हो गया, उसने कहा कि एक प्रयोग कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। तुम आदमी बुद्धिमान मालूम पड़ते हो, हालांकि काल्पनिक हो। सभी बुद्धिमान आदमी काल्पनिक होते हैं। लेकिन दुनिया से कल्पना में ही सृजन होता है। एक आदमी मिल गया जिसने पैसा लगाया।
जिसने पैसा लगाया उसके घर के लोगों ने भी कहा कि तुम पागल तो नहीं हो! कहीं दुनिया में कभी कोई गाड़ी चली जिसमें हाथी, घोड़ा, बैल कोई भी न जुता हो! उसने कहा, अब तक तो नहीं चली है, लेकिन दुनिया में बहुत सी चीजें कल हो सकती हैं जो कल तक नहीं हुईं।
पैसे वाला भी मिल जाता है, हाथ से मजदूरी करने वाला भी मिल जाता है। एक बार हमारे सोचने का ढंग और एप्रोच बदलनी चाहिए।
हम निरंतर यह सोचते हैं कि कोई हमें पहले दे। फिर मैं आपसे यह पूछता हूं, अगर यह सच है कि इंजीनियर को काम मिल जाए तो वह बहुत-कुछ करेगा, जिनको काम मिल गया है वे क्या कर रहे हैं? जिनको नौकरी मिल गई है, वे क्या कर रहे हैं? ऐसा तो नहीं है कि सभी इंजीनियर नौकरी के बाहर हैं। लाखों इंजीनियर नौकरी के भीतर हैं, वे क्या कर रहे हैं? लाखों डाक्टर नौकरी के भीतर हैं, वे क्या कर रहे हैं? बाहर जो खड़ा है वह कहता है कि मुझे भीतर ले लो, फिर मैं कुछ करूंगा। लेकिन भीतर जो हैं वे कोई सबूत नहीं देते करने का।
नहीं, हमारी एप्रोच गलत है, हमारे सोचने का ढंग गलत है। और फिर सवाल यह है कि काम नहीं है मुल्क के पास। तो मुल्क आसमान से काम पैदा नहीं कर सकता। यह हमें समझ लेना चाहिए कि जितने लोग हैं हमारे पास, उतना काम नहीं है हमारे पास। और यह भी हमें समझ लेना चाहिए कि जितने लोगों को हमने शिक्षित कर दिया है, उतने लोगों को हम काम नहीं दे सकते हैं। यह है नहीं। इसलिए इसमें जो बहुत हिम्मतवर हों, उन्हें काम लेने से इनकार कर देना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे हिम्मत का प्रयोग करें और नंगे हाथों दिशाएं खोजें। यह तो कमजोरों के लिए दफ्तर छोड़ देने चाहिए। इंप्लाइमेंट जो है वह हिंदुस्तान में बुद्धिहीनों के लिए छोड़ देना चाहिए। बुद्धिमानों को इंप्लाइमेंट के बाहर हो जाना चाहिए।
जो इंप्लाइमेंट के बिना कुछ नहीं कर सकते और उनके लिए इंप्लाइमेंट छोड़ देना चाहिए। जिनकी थोड़ी भी हिम्मत है, और जिनमें थोड़ी भी ताकत है, उन लोगों को इंप्लाइमेंट का मोह छोड़ कर बाहर हो जाना चाहिए। और मैं मानता हूं कि अगर मुल्क में, यह ध्यान रहे कि सारा मुल्क दुनिया में नई चीजें नहीं खोज लेता, थोड़े से लोग खोजते हैं।
आज यह बिजली आपको हवा दे रही है, रोशनी दे रही है। यह कोई सारी दुनिया की खोज नहीं है। मॉसेज ने दुनिया में कुछ नहीं खोजा है। लेकिन एक आदमी बिजली खोज लेता है, सारी दुनिया के काम आ जाती है। लेकिन जो आदमी बिजली खोज लेता है, वह अगर पहले से ही मान कर चलता हो कि उसे ये-ये शर्तें पूरी होंगी तब वह खोज पाएगा, तो शायद दुनिया में कभी खोज न हो।
यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में आमतौर से अब तक जितनी खोजें की हैं ये उन लोगों ने की हैं जो खोजों की दुनिया के बिल्कुल बाहर थे। दुनिया के सत्तर परसेंट वैज्ञानिक नॉन-प्रोफेशनल हैं। जो आदमी केमेस्ट्री का प्रोफेसर है वह केमेस्ट्री में कभी खोज नहीं करता देखा जाता। कोई और आदमी, जो केमेस्ट्री की दुनिया से संबंधित नहीं, केमेस्ट्री की खोज करता है। जो आदमी फिजिक्स का प्रोफेसर है, वह फिजिक्स में खोज नहीं करता। जितनी नोबल प्राइज है वह आमतौर से उस विषय के प्रोफेशनल प्रोफेसर्स को नहीं मिलती, वह किन्हीं और को मिलती है।
इसका कारण क्या है? अगर इंप्लाइमेंट से कुछ काम बन जाता हो तब तो बात और होती है। नहीं, ऐसा नहीं है। और आमतौर से युनिवर्सिटी जो है वह मोस्ट ऑर्थाडाक्स जगह होती है..जहां कि हमें सोचना चाहिए ज्ञान की नई खोज होगी, वहां कुछ नहीं होता। ज्ञान की सारी नई खोजें युनिवर्सिटी के बाहर होती हैं। और अक्सर युनिवर्सिटीज इनकार करती हैं खोजों को स्वीकार करने से।
दुनिया में बहुत सी खोजें हैं जो तीस-तीस, चालीस-चालीस साल रुक कर पड़ी रहीं। क्योंकि बुद्धिमान वर्गों ने उनको स्वीकार नहीं किया। उनको किन्हीं ऐसे लोगों ने खोजा जिनके पास कोई पदवी नहीं थी, कोई उपाधि नहीं थी। जिंदगी में जो खोज है वह एक दिशा और एक एप्रोच और एक ढंग की बात है। शर्त से कोई खोज नहीं होती। शर्त सदा न खोजने वाले की होती है। खोज सदा बेशर्त और अनकंडीशनल है। जिन लोगों को खोजना है उन्हें अनकंडीशनली खोजने में लगना चाहिए। और बड़े हैरानी की बात है यह कि अक्सर दुनिया में बहुत बड़ी खोजें भूखे लोगों ने की हैं। और जैसे ही उनके पेट भर दिए जाते हैं, करीब-करीब उनकी खोजें भी मर जाती हैं। क्योंकि जैसे ही वे आराम में हो जाते हैं वैसे ही खोज की दिशा भी खो जाती है।
मैं नहीं मानता हूं कि हिंदुस्तान को खोज में कोई कमी है क्योंकि हिंदुस्तान बहुत भूखा है। अगर इतनी भूख और इतनी परेशानी भी खोज की प्रेरणा नहीं बनती है, तो मैं नहीं मानता हूं कि अमरीका जैसे हम संपन्न हो जाएं तो हम कुछ भी खोज करेंगे। जब घर में आग लगी हो तब भी कोई बाहर निकलने को तैयार नहीं है, तो जब घर में आग नहीं लगी होगी तो आप घर के भीतर सोए होंगे, इसकी आशा की जा सकती है, बाहर आप कभी भी नहीं निकलेंगे। इतनी परेशानियों के दबाव में भी हिंदुस्तान के युवक के मन में नई दिशा का ख्याल नहीं है। लेकिन यह ख्याल आ सकता है।
मैं ठीक ऐसी ही बात एक कालेज में बोल रहा था। साल भर बाद दुबारा उस कालेज में गया, तो एक युवक ने मुझे लाकर एक साइकिल के चक्के का नक्शा बताया। उसने कहाः पिछली बार आप बोले थे, तो मेरे मन में आया कि मैं कुछ खोजूं। मेरे पास कुछ भी नहीं, लेकिन एक टूटी-फूटी साइकिल तो है ही मेरे पास, जिस पर मैं कालेज आता हूं। तो मैंने कहा कि मैं साइकिल के संबंध में कुछ खोज करूं। इसमें तो कोई बहुत बड़ा काम नहीं। इस पर रोज सवार भी होता हूं, इसको ठोक-पीट कर रोज ठीक भी करता हूं, पुरानी टूटी-फूटी साइकिल है। इसमें कि मैं क्या कर सकता हूं? आपने मुझे ख्याल दिया तो मैं अपनी साइकिल के बाबत सोचने लगा। और मुझे एक ख्याल आया कि आदमी साइकिल पर बैठता है तो उसका वजन पड़ता है, इसके वजन का उपयोग साइकिल के चलाने में किया जा सकता है या नहीं किया जा सकता?
वह उस खोज के पीछे पड़ गया। अब जब मैं दुबारा गया तो उसने मुझे चक्का लाकर बतलाया जो कि आदमी के वजन का उपयोग करेगा साइकिल की गति में। अभी जितना मोटा आदमी हो उतना साइकिल चलाने में मुश्किल होती है। उसकी साइकिल पर जितना मोटा आदमी हो उतनी सुविधा होगी।
उसने साइकिल के टायर में कई हिस्से कर दिए हैं और साइकिल के ट्यूब को आठ-दस हिस्सों में तोड़ दिया है। तो जब एक आदमी साइकिल पर सवार होता है तो नीचे का जो टुकड़ा है रबड़ का, हवा का जो दबाव है वह पड़ता है उस पर। उस दबाव के, हवा के दबाव की वजह से दूसरी हवा उसमें प्रवेश करना चाहती है और साइकिल की गति बढ़ जाती है। जितना वजनी आदमी उतनी साइकिल गतिमान हो जाएगी। और साधारणतया जितनी हम साइकिल चलाते हैं उसमें आधी ताकत की जरूरत रहेगी, आधी ताकत शरीर से लग जाएगी, वजन से...।
अब इस लड़के के पास कुछ भी नहीं है, कोई इंप्लाइमेंट नहीं है। मैंने उस लड़के को कहा कि तू और भी फिकर कर, तेरे पास जो भी हो उसमें फिकर कर। अभी वह मेरे पास एक माचिस लेकर आया था। जो माचिस उसने और ढंग से बनाई है। माचिस की काड़ी हमें जलानी पड़ती है। अब यह गरीब लड़का है। लेकिन माचिस किसके घर में नहीं है! लेकिन अकल चाहिए, थोड़ी बुद्धि चाहिए, थोड़ी खोज की वृत्ति चाहिए। वह एक नई माचिस बना कर लाया था जो कि बहुत कीमती है। वह माचिस ऐसी है कि उसमें काड़ी को अलग से जलाने की जरूरत नहीं। आप काड़ी को खींचिए, वह जली हुई बाहर निकलती है। क्योंकि काड़ी की माचिस के भीतर उसने रोगन लगा दिया है और काड़ी बीच में दबी है। माचिस खींचिए, वह जली हुई बाहर निकलती है। यह माचिस वर्षा में खराब नहीं होगी, क्योंकि उसका रोगन भीतर है। और इस माचिस को अलग से जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। माचिस जली हुई बाहर निकलेगी। निश्चित ही इसकी माचिस को जल्दी ही कोई बड़ा ग्राहक मिल जाएगा।
उस लड़के को मैंने कहा कि तू फिकर में लगा रहे, जो तेरे घर में है उसी का तू उपयोग कर। अभी उसने एक स्टोव बना कर ले आया है। अब घर में सबके स्टोव है। यह सवाल नहीं है कि इंप्लाइमेंट हो, यह सवाल नहीं कि नौकरी हो, यह सवाल है बुद्धि का, यह सवाल है प्रतिभा का। अगर आपके पास प्रतिभा है तो आप रेत से तेल निकाल सकेंगे। अगर आप के पास प्रतिभा है तो पत्थर सोना हो जाएगा। और अगर आप के पास प्रतिभा नहीं है तो सोना भी मिट्टी हो जाता है।
एप्रोच बदलने के लिए कह रहा हूं मैं। यह नहीं कह रहा हूं कि आपको इंप्लाइमेंट न मिले। मैं यह नहीं कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं इंप्लाइमेंट तो मिलना ही चाहिए। लेकिन सबको मिल सकता नहीं। उसका कोई उपाय नहीं है।
एप्रोच आपकी बदलनी चाहिए जिंदगी को सोचने के संबंध में। आप कपड़ा तो पहने हुए हैं, अभी जो युवक आए वे कपड़ा तो पहने हुए हैं, कपड़े के संबंध में कुछ फिकर कर सकते हैं। खाना तो खाते हैं, खाने के संबंध में कुछ फिकर कर सकते हैं। पेशाब तो करते हैं, इस पेशाब का कोई उपयोग खोज सकते हैं। बाल तो कटवाते हैं जाकर नाई से, कटे हुए बालों की खाद बन सकती है। कुछ उपाय खोज सकते हैं। जिंदगी में आप कुछ तो कर ही रहे होंगे, वहां कुछ और क्या हो सकता है इसकी दिशा में अगर आंखें गड़ी रहें तो आदमी जरूर बहुत कुछ खोज लेता है। लेकिन आंखें गड़ी न हों तो कुछ भी नहीं खोज पाता। और जिन मुल्कों में खोज की दृष्टि...
मैं एक सफर में था और एक जापानी बुढ़िया मेरे साथ बैठी हुई थी। मूंगफली उसने खरीदी हुई थी। वह मूंगफली खाती जा रही थी और छिलके अपने बैग में रखती जा रही थी। मैं थोड़ी देर में हैरान हो गया! क्योंकि मूंगफली के छिलके बैग में किसलिए रख रही? शायद, मैंने सोचा कि वह गंदगी नहीं करना चाहती। लेकिन वह छिलकों को इतने साफ करके बैग में रख रही थी कि मुझे शक हुआ। मैंने उससे पूछाः ये छिलके किसलिए रख रही? उसने कहा कि इनको रंग कर खिलौने बनाए जा सकते हैं।
अब जापान में हर आदमी हर चीज का उपयोग करने की फिकर करेगा। जापान में कचरे में बहुत कम चीजें फेंकी जाएंगी। क्योंकि कचरा भी बहुत काम में आ सकता है। हिंदुस्तान की सड़कें कचरे से भरी हुई हैं। अगर बुद्धि हो तो तो यह सारा कचरा सोना बन जाए। हम इतनी चीजें फेंक रहे हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। ये सारी चीजें रूपांतरित हो सकती हैं। सवाल दृष्टि का है। लेकिन हमारी दृष्टि तो एक है कि कोई और इंप्लाइमेंट दे। पहले हम भगवान से मांगते थे कि भगवान दे, अब हम सरकार से मांगते हैं कि सरकार दे। भगवान तो फिर भी ताकतवर है, सरकार तो बहुत नपुंसक है, इंपोटेंट है, वह तो कुछ भी नहीं कर सकती। भगवान से ही मांगते रहते वह भी ठीक था। लेकिन यह सरकार से मांगने से नहीं चलेगा।
सारा मुल्क मांग रहा है कि हमें मिलना चाहिए। लेकिन देने वाला कौन है? नहीं, मुल्क में कुछ जवानों को हिम्मत करनी चाहिए कि हम देंगे और अनकंडीशनल देंगे, कोई शर्त नहीं रखते। भूखे पेट होंगे तो भी खोजेंगे।
अगर हम थोड़ी सी फिकर करें तो किसी भी दिशा में अनंत दिशाएं खुलती चली जाती हैं। आदमी को जानने को बहुत कुछ शेष है, और आदमी को खोजने को बहुत कुछ शेष है, और आदमी हर रद्दी चीज को भी क्रियात्मक सक्रिय रूप से महत्वपूर्ण बना सकता है। लेकिन हमें ख्याल में आ जाए तब, अन्यथा नहीं। सिर्फ आपकी दिशा बदले इसलिए मैंने ये बात कही हैं। आप इस दिशा में सोचें इसलिए ये बात कही हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

यह सवाल तो बड़ा है और दो-तीन मिनट में जवाब देना बहुत मुश्किल पड़े, लेकिन दो-चार बातें मैं कहूं और सांझ को उस सवाल को फिर उठा लूंगा ताकि पूरी बात हो सके।
पहली तो बात यह है कि अगर युवक ज्यादा देर तक अविवाहित रहें तो मैं यह नहीं कहता हूं कि वे ज्यादा देर तक वे बिना प्रेम के भी रहें। अविवाहित रह कर भी प्रेम किया जा सकता है। और मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो यह कहूं कि वे ब्रह्मचर्य धारण करके रहें। क्योंकि वह नासमझी की बात है। कभी लाख में एकाध आदमी उसे उपलब्ध हो सकता है। लेकिन आज तो साइंस ने इतने आर्टिफिशियल साधन उपलब्ध कर दिए हैं कि बिना बच्चे पैदा किए प्रेम किया जा सकता है। इसलिए उसमें बहुत घबड़ाने की जरूरत नहीं है, उसमें बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है।

दूसरी बात एक मित्र ने पूछी है कि करप्शन बढ़ गया है।

करप्शन बढ़ेगा। स्वाभाविक है। जहां लोग ज्यादा होंगे और जरूरत की चीजें कम होंगी, वहां करप्शन बढ़ेगा। इस करप्शन को मिटाने का उपाय करप्शन को मिटाना नहीं है, इस करप्शन को मिटाने का उपाय लोगों की जिंदगी में समृद्धि लाना है। और कोई रास्ता नहीं है। कोई दुनिया में आदमी बुरा नहीं होना चाहता, बुरा होना सिर्फ मजबूरी से संभव होता है। बुरा से बुरा आदमी भी मजबूरी का फल होता है।
अगर लोग चोर हैं, बेईमान हैं, रिश्वतखोर हैं, तो मजबूरियां उन्हें इन सब चीजों के लिए मजबूर कर रही हैं। इसलिए अगर हमने सोचा कि हम भ्रष्टाचार मिटाएंगे, करप्शन मिटाएंगे, तो सिर्फ बकवास चलेगी, कुछ मिटने वाला नहीं है।
अगर हम जिंदगी की असली बात को समझ लें कि चीजें कम हैं और लोग ज्यादा हैं। इसलिए भ्रष्टाचार स्वाभाविक है। तो भ्रष्टाचार को तो एक तरफ छोड़ो, चीजें बढ़ाने में लग जाओ। भ्रष्टाचार मिट जाएगा।

और उन मित्र ने कहा है कि इतने ज्यादा महात्मा हैं।

जहां भ्रष्टाचार ज्यादा होता है, महात्मा ज्यादा हो जाते हैं। असल में भ्रष्टाचारी समाज में महात्मा बढ़ जाते हैं। उसका कारण है। क्योंकि जहां बीमार ज्यादा होते हैं वहां डाक्टर बढ़ जाते हैं, जहां चोर-बेईमान ज्यादा होते हैं वहां उपदेशक बढ़ जाते हैं। ये प्रोफेशनल संबंध हैं इनके। अगर गांव में बीमार ज्यादा होंगे तो डाक्टर बढ़ जाएंगे। तो आप यह नहीं कह सकते कि गांव में इतने डाक्टर हैं तो बीमार ज्यादा क्यों हैं? बात उलटी है, गांव में इतने बीमार हैं इसलिए इतने डाक्टर हैं। इतने महात्मा हैं दुनिया में, इस मुल्क में इतने महात्मा हैं तो इतना करप्शन क्यों है? मैं कहता हूं बात उलटी है, इतना करप्शन है इसलिए इतने महात्मा हैं। नहीं तो इनको सुनेगा कौन?
जब मुल्क में अनैतिकता बढ़ती है, इम्मॉरेलिटी बढ़ती है तो प्रीचर्स बढ़ जाते हैं। स्वभावतः, क्योंकि वे समझाने लगते हैं कि नैतिक बनो! और नैतिक बनना आसान तो नहीं है, समझाने से तो होता नहीं। इसलिए महात्मा समझाए चला जाता है। और महात्मा अच्छी बातें समझाता है तो हम उसके पैर भी पड़ते हैं। हालांकि अच्छी बातों और पैर पड़ने से मुल्क नहीं बदलता।
इस मुल्क को महात्माओं की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। इस मुल्क में महात्मा न हों तो कुछ हर्जा न हो जाएगा। सिर्फ इतना फर्क पड़ेगा कि करप्शन के खिलाफ बोलने वाले लोग न होंगे। करप्शन तो इतना ही रहेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बोलने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। और ध्यान रहे, हमारे सब महात्मा एक अर्थ में आउट ऑफ डेट हैं। वह तीन-चार हजार साल पुरानी व्यवस्था उनके दिमाग में है। सारी दुनिया बदल गई है। वे जो समझा रहे हैं वह तीन-चार हजार साल पहले ठीक था, अब ठीक नहीं है। इसलिए हमारे महात्माओं का जवान से तो कोई संबंध नहीं रह गया। बूढ़े मरे हुए लोग उनके सुनते हैं, जिनका एक पैर कब्र में चला गया वे महात्माओं के पास होते हैं या बेपढ़ी-लिखी औरतें होती हैं।
हिंदुस्तान के जवान का तो महात्माओं से कोई संबंध नहीं है। हिंदुस्तान के जवान को तो कुछ नई तरह की व्यवस्था और चिंतन पैदा करना पड़ेगा और नये विचारक पैदा करना पड़ेंगे। हिंदुस्तान के जवान के योग्य महात्मा हिंदुस्तान के पास नहीं हैं। हिंदुस्तान के जवान के लिए वैज्ञानिक ढंग से सोचने वाले महात्मा चाहिए।
अब जैसे कि मैं यह बात कह रहा हूं, यह हिंदुस्तान में कोई साधु आपसे नहीं कह सकेगा। क्योंकि मैं जानता हूं कि ब्रह्मचर्य कभी लाख दो लाख में एक आदमी के लिए संभव है। और ज्यादा लोग अगर कोशिश करेंगे तो सिर्फ बीमार पड़ेंगे और व्यभिचारी हो जाएंगे, और कुछ भी नहीं हो सकता। या यह हो सकता है कि मेंटल सेक्सुअलिटी शुरू हो जाए, बॉडिली बंद हो जाए और दिमाग में शुरू हो जाए। जो और खतरनाक है।
तो मैं आपसे कहता हूं, शादी देर से करें, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आपका सेक्स स्टार्व हो। आपके सेक्स को भूखा रखने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वह पुराने जमाने की बातें हो गईं कि सेक्स से बच्चा पैदा हो जाता था। अब तो कोई जरूरत नहीं। अब तो हमने सेक्स को री-प्रोडक्शन को अलग कर लिया है। सेक्स अलग चीज है, री-प्रोडक्शन अलग चीज है। और बहुत जल्दी, अभी तो हम बिना री-प्रोडक्शन के सेक्स में संबंधित हो सकते हैं, कल बिल्कुल ऐसी स्थिति आ जाएगी कि री-प्रोडक्शन के लिए सेक्स की बिल्कुल ही जरूरत नहीं रह जाएगी। करीब-करीब आ गई है। हम टेस्ट-ट्यूब में बच्चे को पैदा कर सकेंगे। बहुत दिन स्त्रियों को बच्चे को पेट में रखने की तकलीफ आगे नहीं झेलनी पड़ेगी।
इसलिए अब जो हमारी पुरानी सेक्सुअल मॉरेलिटी है, उसके बचाए रखने की कोई जरूरत नहीं, वह बिल्कुल बेकार है। अब तो भविष्य में जो मॉरेलिटी होगी हाइजनिक होगी, सेक्सुअल नहीं होगी। सेक्स का बड़ा सवाल नहीं है, हाइजिन का बड़ा सवाल है। यह बड़ा सवाल नहीं है कि आपका किस स्त्री से संबंध है, बड़ा सवाल यह है कि उस स्त्री से आपका प्रेम है या नहीं। पुरानी दुनिया बहुत प्रेमहीन दुनिया थी। नई दुनिया बहुत प्रेमपूर्ण हो सकेगी। और इसीलिए प्रेमपूर्ण हो सकेगी कि अब सेक्स को हमने बहुत से विभाजन कर दिए हैं।
दुबारा जब आता हूं तो चाहूंगा कि इसी संबंध में आपसे पूरी बात करूं। क्योंकि यह बात लंबी है, कम से कम साठ मिनट मैं आपसे बात करूं तब सेक्स के संबंध में आपको वैज्ञानिक दृष्टि ख्याल में आ सकती है।

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