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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-28

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

अट्ठाईसवां प्रवचन
अनिवार्य संतति-नियमन

प्रश्न: आप तीसरी बार यहां आए हैं। आपकी दो बातों का हम पर असर रहा--एक तो आप बुद्धिनिष्ठा की हिमायत करते हैं और दूसरी विचारनिष्ठा की बात करते हैं आप। गुरु को मानने के लिए आप मना करते हैं।

मैं तो इतना कह रहा हूं कि जो खबरें मेरे बाबत पहुंचाई जाती हैं, वे इतनी तोड़ते-मरोड़ते हैं, इतनी बिगड़ कर पहुंचाई जाती हैं--जब आप मुझे कहते हैं तो मुझे हैरानी हो जाती है। वह जो पत्रकारों से नारगोल में बात हुई थी, उनसे सिर्फ मजाक में मैंने कहा; उनसे सिर्फ मजाक में मैंने यह कहा कि जिसको तुम लोकतंत्र कह रहे हो, इस लोकतंत्र से तो बेहतर हो कि पचास साल के लिए कोई तानाशाह बैठ जाए। यह सिर्फ मजाक में कहा। और उनकी बेवकूफी की सीमा नहीं है, जिसको उन्होंने कहा कि मैं पचास साल के लिए देश में तानाशाही चाहता हूं। मैं जो कह रहा हूं, उनमें से ही किसी ने कहा कि आज जो बातें कहते हैं, इससे तो आपको कोई गोली मार दे तो क्या हो? मैंने तो सिर्फ मजाक में कहा कि बहुत अच्छा हो जाएगा, फिर गांधी से मेरा मुकाबला हो जाए। उन सबने छाप दिया कि मैं गांधी से मुकाबला करना चाहता हूं।

तो इन सबके लिए क्या किया जाए? ह्यूमर को समझने की क्षमता भी हमारी खोती चली जा रही है। मजाक भी नहीं है। मजाक भी नहीं समझ सकते! और फिर आप सब लोग हैं, जो उनकी खबर पर खंडन-मंडन भी शुरू कर देते हैं! मेरा कहना यह है कि जो लोकतंत्र आर्थिक रूप से समानता नहीं लाता, वह सिर्फ धोखे का लोकतंत्र है, वह लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र सिर्फ राजनीतिक समानता की बात करे तो वह लोकतंत्र धोखे का है। क्योंकि राजनीतिक समानता अंततः आर्थिक समानता पर निर्भर होती है। और अगर आर्थिक असमानता है तो राजनीतिक समानता का कोई मतलब नहीं होता है। वह जिनके पास अर्थ है, उन्हीं के लिए मतलब होता है। बाकी कोई अर्थ नहीं होता।
वहां तो मैं यह कहा था कि अगर सच्चा लोकतंत्र लाना है देश में--अगर सच में ही डेमोक्रेसी पैदा करनी है तो यह जो थोथी डेमोक्रेसी जिसको तुम समझे जा रहे हो डेमोक्रेसी, यह डेमोक्रेसी काम नहीं करेगी। आर्थिक समानता लाए बिना कोई डेमोक्रेसी खड़ी नहीं हो सकती। और आर्थिक समानता लाने के लिए अगर तुम सिर्फ डेमोक्रेटिक बातें करते चले जाते हो तो ये डेमोक्रेसी की बातें आर्थिक समानता लाने में बाधा बनती मालूम पड़ती हैं। वहां जो मैंने कहा, कुल इतना कहा कि यह जो सारी दुनिया में डेमोक्रेसी की जितनी बात चलती है--डेमोक्रेसी सोशलिस्टिक भी हो सकती है और कैपिटलिस्टिक भी हो सकती है।

प्रश्न: आपका जो स्टेटमेंट है, वह आप डिनाई नहीं करेंगे?

नहीं-नहीं, डिनाई का तो कोई सवाल ही नहीं है।

प्रश्न: कम्युनिज्म है तो...?

नहीं, यह जरूरी नहीं है क्योंकि कम्युनिज्म की क्या परिभाषा करूंगा, यह मुझ पर निर्भर है। कोई महापुरुष ठेका नहीं ले लिया है कम्युनिज्म की परिभाषा का। यह तो सवाल ही नहीं है कि कम्युनिज्म मैंने कह दिया तो कोई ठेका है माक्र्स का। यह सवाल नहीं है।

संतति नियमन को आप कंपल्सरी मानते हैं?

बिलकुल कंपल्सरी मानता हूं। मेरी बात समझ लें थोड़ा सा--मैं कंपल्सरी मानता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कंपल्सरी कर दूंगा। कंपल्सरी का मतलब कुल इतना है कि मैं आपके विचार को अपील करता हूं कि कंपल्सरी हो जाने जैसी चीज है। और अगर मुल्क की मेजारिटी तय करती है तो कंपल्सरी होगा। कंपल्सरी का मतलब कोई माइनारिटी थोड़े ही मुल्क के ऊपर तय कर देगी! लेकिन मेरा कहना यह है कि अगर एक आदमी भी इनकार करता है मुल्क में, तो भी कंपल्सरी है वह। अगर हिंदुस्तान के चालीस करोड़ लोगों में से एक आदमी भी कहता है कि मैं संतति नियमन मानने को तैयार नहीं हूं और चालीस करोड़ लोग कहते हैं कि मानना पड़ेगा तो भी कंपल्सरी है।
आप अभी कंपल्सरी एजुकेशन दे रहे हैं बच्चों को, और यह नहीं कहते कि यह तानाशाही हो गई? कि हम कहते हैं कि हर बच्चे को शिक्षा लेनी पड़ेगी, हम किसी बच्चे को अशिक्षित नहीं छोड़ेंगे। और मान लें, दस बच्चे के मां-बाप यह कहते हैं कि हम अपने बच्चे को अशिक्षित रखना चाहते हैं, तो यह तो डेमोक्रेसी की हत्या हो गई। क्योंकि हम अपने बच्चे को शिक्षा नहीं देना चाहते और आप डेमोक्रेसी की बात करते हैं, आप कहते हैं कंपल्सरी एजुकेशन! अगर कंपल्सरी एजुकेशन हो सकता है और डेमोक्रेसी में कोई हर्जा नहीं होता तो कंपल्सरी बर्थ-कंट्रोल क्यों नहीं हो सकता है? सवाल लोकमानस को तैयार करने का है।
मैं यह नहीं कहता हूं कि मैं कह रहा हूं इसलिए कंपल्सरी हो जाए। मैं यह कहता हूं, मुझे यह बात कंपल्सरी होने जैसी लगती है। जैसी कि कंपल्सरी एजुकेशन, मुझे लगती है कि कंपल्सरी एजुकेशन होनी चाहिए। किसी बाप को यह हक नहीं हो सकता कि किसी बच्चे को अशिक्षित रखने का दावा करे। और करेगा तो मुल्क इसकी फिकर कि यह नहीं चलेगा।
आप मेरी बात नहीं समझ पा रहे हैं--अगर एक आदमी इस गांव में हैजा के कीटाणु फैलाए और हम कहें कि कंपल्सरी रुकावट रहेगी इस बात की कि कोई आदमी बीमारी के कीटाणु नहीं फैला सकता, तो आप कहेंगे कि डेमोक्रेसी की हत्या हो गई! एक आदमी कहे कि हम चोरी करेंगे--कंपल्सरी चोरी बंद है मुल्क में। हत्या करना कंपल्सरी बंद है। हत्या करना कोई आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं है कि आपका जब दिल होगा तो हत्या करेंगे, नहीं होगा तो नहीं करेंगे। तो अगर मैं यह कहूं कि हत्या करना कंपल्सरी बंद होना चाहिए...।

डेमोक्रेटिक तरीके से ही ऐसा होना चाहिए।

मेरा तो सारा डेमोक्रेटिक तरीका है। मेरे पास तो बंदूक तलवार नहीं है, आपको समझा सकता हूं, इसके अलावा क्या कर सकता हूं! मजा यह है कि शब्दों के साथ हमारे प्राण इस तरह जुड़े हुए हैं कि शब्द से कि बेनीवलेंट डिक्टेटरशिप कहने का मतलब होता है कि डिक्टेटरशिप गई! और कम्युनिज्म के साथ गांठ जोड़ने का मतलब होता है कि कम्युनिज्म गया! आप इसको थोड़ा समझने की कोशिश करें। आपकी कोई भी हुकूमत, किसी भी तरह की हुकूमत अंततः डिक्टेटरशिप है। क्योंकि अंततः वह कंपल्सरी है, निश्चित है। हां, स्टेट है जहां तक, वहां तक डिक्टेटरशिप है। उसमें कोई एक्शन रहेगा। स्टेट एज सच डिक्टेटर है। स्टेट तो किसी भी तरह की हो वह डिक्टेटर है। अब सवाल यह है इस जगह कि बेनीवलेंट हो, इतना हम कर सकते हैं स्टेट के होते हुए। नहीं तो पूरी स्टेट जानी चाहिए। ठीक डेमोक्रेसी का मतलब हो होगा नो-स्टेट। और इसलिए जब तक स्टेट है, तब तक स्टेट बेनीवलेंट डिक्टेटरशिप है। वह किस मात्रा में बेनीवलेंट है, यह सवाल है। यानी इसमें मात्रा में भेद होंगे कि एक बिलकुल डिक्टोरियल है, कोई बेनीवलेंट नहीं है वहां। एक बहुत बेनीवलेंट है, डिक्टेटोरियल नहीं है वहां।

प्रश्न: परिभाषा बदल जाती है, आप वही बातें करते हैं?

मैं नहीं बदलता।

प्रश्न: कम्युनिज्म का तो मैं अपनी दृष्टि से अर्थ करता हूं, जैसा आप करते हैं, लेकिन लोग तो माक्र्सवाद जो है उसे ही मानते हैं?

थोड़ा समझिए, लोगों की समझ...कम्युनिज्म के पच्चीस रूप हैं कम से कम। साइमन का भी कम्युनिज्म है, पूरिए का भी है, लेनिन का भी है, माक्र्स का भी है, बर्नार्ड शा का भी है। सारी दुनिया में पच्चीस रूप हैं। और मेरा भी कम्युनिज्म हो सकता है और आपका भी हो सकता है। कम्युनिज्म को कोई ठेका नहीं है किसी का। मैं चाहता हूं, स्पष्ट करना हो, क्वेश्चनिंग पैदा हो, एंक्वायरी हो, मुझसे जवाब मांगे जाएं, मैं जवाब देने को तैयार हूं। मैं तो, मेरा पूरा काम है कि पहले प्रश्न पैदा कर जाता हूं, फिर जवाब देने आना पड़ता है।

प्रश्न: तो गांधी और विनोबा जो कहते हैं, उसको आप पूंजीवाद क्यों कहते हैं?

मैं उसको पूंजीवाद कहूंगा, क्योंकि मैं जिसे कम्युनिज्म कहता हूं, अगर वह उसके विपरीत पड़ता है तो उसको पूंजीवाद कहूंगा। वह गांधी विनोबा का कम्युनिज्म होगा, इससे मुझे क्या लेना-देना! मेरा कम्युनिज्म आपको पूंजीवाद मालूम पड़ सकता है, इसमें क्या फिकर की बात है! यह तो हमारे विचार करने की बात हुई। मैं क्या कह रहा हूं, वह उसको क्या नाम देते हैं, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। नाम देने से कुछ फर्क नहीं पड़ता।

प्रश्न: आप अपना नाम लेते हैं, इससे फर्क पैदा होता है। आप का यह खयाल है कि समाज कैसा होना चाहिए। और कम्युनिज्म का एक खयाल आया है चलता हुआ--माक्र्स से लेकर स्टैलिन तक आया है, माओ तक आया है। तो अभी जब हम यही शब्द इस्तेमाल करते हैं तो...।

शब्द का तो भोगीलाल भाई ऐसा मामला है कि शब्द हम हमेशा बासे उपयोग करते हैं। ईश्वर शब्द का भी उपयोग करिए तो हजार लोग उपयोग कर चुके हैं। हजार तरह से उपयोग कर सकते हैं। और हजार तरह से उपयोग किया गया है। और आज जब आप उसका उपयोग करिएगा, तो उसके पीछे हजारों डेफिनिशंस खड़ी होंगी। आप एक भी शब्द का ऐसा उपयोग नहीं कर सकते जो कि हजार तरह से उपयोग नहीं किया जा चुका है।

प्रश्न: आप जब कोई दूसरी चीज आगे रखना चाहते हैं तो आपको यह स्पष्ट करना चाहिए कि दूसरे लोगों के दिमाग में पहले यह तय हो जाए कि यह जो पुरानी चीज है, यह बासी नहीं है।

मैं वही कर रहा हूं। मेरे साथ कठिनाई तो यह है न, कि मेरे पास न तो कोई स्टाफ है कि जो सारा हिसाब-किताब रखता हो फिलहाल, अभी मैं जो बोलता हूं उसे। अकेला आदमी हूं, जो बोलता हूं उस पर क्वेश्चनिंग खड़ी होती है, तो डिफाइन करता हूं। डेफिनिशन पर क्वेश्चनिंग खड़ी होती है तो उस पर डिफाइन करता हूं। चलेगा, दो-चार, दस साल बातचीत करने के बाद साफ हो सकेगा आपको कि मैं क्या कह रहा हूं।

प्रश्न: मैं पहले भी एकाध दफे सुना आपको। आज और कल भी मैंने सुना। मुझे यह खयाल आया कि आप जो अनिष्ट है समाज में, जो ढोंग चल रहा है, जो ऊपर-ऊपर चल रहा है, उस पर आप आग्रह करते हैं, यह ठीक है। फिर भी क्या होता है कि आप जब एक ही चीज रखते हैं--जैसे आप आज आखिर में कहे कि कल मैं दूसरी बात बताऊंगा। लेकिन कल तो आप क्या बताएंगे, यह मैं नहीं जानता। लेकिन कल और आज आपको सुना तो मेरे मन में जो सवाल पैदा हुआ वह यह हुआ कि आप एक बात करें कि सत्य है, प्रेम है, ब्रह्मचर्य है, उनका बहुत रूप हो सकता है। एक ब्रह्म का भी हो सकता है। एक सत्य का भी हो सकता है। लेकिन आपका तो बोलने का तरीका है और सुनने जो आ जाते हैं और ताली बजाते हैं, वे तो बिलकुल ताली बजाते हैं। वे यह नहीं पकड़ते कि आप क्या चाहते हैं। आप जब प्रकाश डालते हैं तो वे खुश हो जाते हैं और जो व्याख्या आपकी चलती है, वह करीब-करीब इस तरीके से होती है जैसे कि आप पूरे-पूरे सत्य को, अहिंसा को, ब्रह्मचर्य को आप इनकार कर रहे हैं। और आखिर में लोगों को यह लगता है कि यह तो बड़ा क्रांतिकारी आया है। इस तरह के एक इंप्रेशन पैदा होता है।

आप अपनी बात करिए। कौन सोच कर आता है, नहीं आता है, यह आप हिसाब मत लगाइए। कौन झूठी ताली बजा रहा है, कौन खुश होकर बजा रहा है यह आप हिसाब मत लगाइए। यह हिसाब लगाना मुश्किल है। वह तो बिलकुल मुश्किल है कि कौन आदमी क्या कर रहा है।

प्रश्न: कल जो आपने कहा कि बाहर का जो रहता है, वह हम बताने के लिए करते हैं। और जो अंदर की बात है, अंदर क्या है, वह छिपा कर मत रखो, जिसकी आप बात कर रहे हैं। तो जो भक्त हो गए हैं, जो ऋषि हो गए, धर्मात्मा हो गए हैं। सब एक समान नहीं होंगे। कोई क्रोधी होगा, और कोई नहीं भी क्रोधी होगा। और कोई ऐसे होंगे, जो सचमुच अपने जीवन को परिवर्तन करने के लिए कोशिश कर रहे हैं। तो यह दोनों की जो शुभ-अशुभ दृष्टि है, इसको हम कहें कि आसुरी और दैवीय चलती है तो प्रकृति, वह दोनों चलती है। आज आप देखते हैं और मैं देखता हूं और बहुत लोग देखते हैं कि आसुरी ज्यादा, अशुभ ज्यादा है। प्रहार करते हैं, लेकिन दूसरी चीज जो है, वह सच है।

यह हमेशा से ज्यादा है, आज ज्यादा नहीं हो गई है। और आज शायद कम है। सतयुग-वतयुग कभी रहा नहीं है। और जिन ऋषियों-मुनियों की आप बहुत बातें करते हैं, उनमें सौ में निन्यानबे प्रतिशत सरासर धोखा है। मेरा मतलब यह है कि ऋषि-मुनि का भी ढांचा तैयार है, और ढांचे में जो फिट हो जाता है, वह ऋषि-मुनि हो जाता है। और कोई ऋषि जैन के ढांचे में ऋषि मालूम पड़ेगा। और वही हिंदू के ढांचे का ऋषि जैन के ढांचे में ऋषि नहीं मालूम नहीं पड़ेगा। कृष्ण को जैन नरक भेज देते हैं कि यह आदमी हिंसा करवाता है, महायुद्ध करवाता है, महाभारत करवाता है। और हिंदू उसको भगवान, परम अवतार मानते हैं। मेरा मतलब समझ रहे हैं आप? मेरा कहने का मतलब यह है कि किसको आप ऋषि कहते हैं, किसको आप मुनि कहते हैं, यह आपकी परिभाषा की बातें हैं। इनमें कोई बहुत सार नहीं है। इनमें कोई बहुत अर्थ नहीं है।
मेरा जोर इस बात पर है कि अब तक ऋषि-मुनि को भी तौलने का आपका ढंग बाहर से है। और सच तो यह है कि भीतर से तो तौला नहीं जा सकता। इसलिए मेरी दृष्टि यह है कि जो ऋषि-मुनि तुल जाते हैं आपकी परिभाषाओं में, वे अक्सर इसलिए तुल जाते हैं कि वे नहीं हैं। अगर आज वे हों तो आपकी तौल में आना बहुत मुश्किल है। मेरा कहता यह है कि हमारी जो सोसाइटी है, जो पूरी की पूरी धारा है हमारी तौलने की, हमारे तो क्राइटेरियन बंधे हुए हैं और क्राइटेरियन में जो बैठ जाता है, सो ऋषि हो जाता है हमारे लिए।
और मेरी समझ अपनी यह है कि जो भी क्राइटेरियन में आपके बैठने को राजी होता है। आपके क्राइटेरियन में बैठने के लिए जो राजी होता है या आपके क्राइटेरियन में बैठने की चेष्टा करता है, उस आदमी के पास आथेंटिक व्यक्तित्व ही नहीं है। नहीं तो आपके क्राइटेरियन में बैठेगा नहीं वह। और अगर बैठेगा भी तो मरने के बाद हजार दो हजार साल लग जाएंगे, तब आपके क्राइटेरियन में बैठेगा, जब तक कि आप उसके योग्य क्राइटेरियन खड़ा न कर लेंगे। जीसस अगर जिंदा है तो ऋषि मालूम नहीं पड़ेगा, आवारा मालूम पड़ेगा जिंदा में तो। सुकरात जिंदा में आवारा और अपराधी मालूम पड़ेगा और लगेगा कि चरित्र बिगाड़ रहा है, लोगों को खराब कर रहा है। मरने के बाद ऋषि-मुनि बन पाएगा।

प्रश्न: मरने के बाद समझ में आया।

समझ में नहीं आया। समझ में आ जाता तो दुनिया आज तक सुकरात हो गई होती। समझ में नहीं आया। समझ में कुछ नहीं आया। मरे हुए आदमी पर ढांचा बिठालने में आपको सुविधा है। क्या समझ गए आप सुकरात को? समाज क्या समझ गया? मैं तो यह कह रहा हूं कि सुकरात अभी भी पैदा हो तो वही अड़चन आप खड़ी करेंगे जो उस दिन खड़ी की थी। जरा भी फर्क नहीं पड़ेगा। मैं आपसे यह पूछता हूं कि सुकरात--समझ लीजिए आप, उदाहरण के लिए कहता हूं--सुकरात अभी खड़ा हो जाए तो सोसाइटी एग्जेक्ट वही अड़चन खड़ी करेगी, जो उस दिन खड़ी की थी। इसमें जरा भी फर्क नहीं पड़ेगा।
इसको जरा समझिए। दंभी होता तो आपको सूली लगाने की जरूरत न पड़ती। आप तो ऋषि-मुनि मान कर पूजा शुरू कर देते दंभी होता तो। जिस दिन से आपने पूजा शुरू की है, उस दिन से जीसस की आपने दूसरी शक्ल बना ली, जो कभी थी नहीं। उस शक्ल को तो आप सूली ही लगाते हैं। जिस शक्ल को आप पूज रहे हैं, वह बिलकुल झूठी है और आपकी खड़ी की हुई है। मेरा मतलब आप समझे न! मैं यह कह रहा हूं कि जीसस जैसा आदमी था, उसकी तो कभी आपने पूजा की नहीं। और जीसस अभी खड़ा हो जाए तो वह जीसस का तो तगमा लगाए घूम रहा है, वह भी उसकी पूजा करने अभी भी राजी नहीं है।
सारा का सारा एस्टेब्लिशमेंट पाजिटिव के केंद्र पर खड़ा होता है। सारा इंस्टीट्यूशन, आर्गनाइजेशन, संस्था, संप्रदाय पाजिटिव पर खड़ा होता है। मेरी अपनी दृष्टि यह है कि आदमी में जो क्रांति आती है, वह पाजिटिव से कभी नहीं आती, वह हमेशा वाया निगेटिव से आती है। पाजिटिव शेष रह जाता है, पाजिटिव में परिवर्तन नहीं होता है। वह तो जो गलत है, उसको हम काट डालते हैं। जो नहीं कट सकता है, वह शेष रह जाता है। जैसे हमने सोने को डाल दिया आग में तो जो कचरा है वह जल जाता है, जो नहीं जलता है वह सोना है, वह बच जाता है।
मेरी बातचीत में क्या तकलीफ होती है कि जब भी मैं खंडन कर रहा हूं तो आखिर शब्दों का ही उपयोग तो करूंगा! और हम सबके माइंड पाजिटिव के साथ इस बुरी तरह से बंधे हैं कि फौरन पाजिटिव को निकाल लेते हैं, निगेटिव की फिकर छोड़ देते हैं। पाजिटिव को फौरन निकाल लेते हैं। एकदम हमारा माइंड जो है न, माइंड की आम वघकग जो है, वह पाजिटिव के लिए है और मेरा कहना यह है कि वही माइंड ऊपर जाता है, जिसकी वघकग निगेटिव हो जाती है। पाजिटिव जो है, वह तो जो रिमेनिंग है, वह पाजिटिव है। आपको जो जरूरत है, वह जरूरत है कि आप कितने माइंड को निगेटिव बना सकते हैं। माइंड का कितना निगेशन आप कर सकते हैं ताकि वही रह जाए, दैट कैन नाट बी निगेटिव, दैट इज़ पाजिटिव। दैट विच कैन नाट बी निगेटिव।
और फर्क क्या है? हम समझते हैं पाजिटिव निगेटिव का विपरीत है। निगेटिव पाजिटिव नहीं है। पाजिटिव जो है, वह निगेशन का विपरीत नहीं है, नाट निगेशन ऑफ द निगेटिव। पाजिटिव का वह मतलब नहीं होता है। पाजिटिव का मतलब है, दैट व्हिच रिमेन आफटर द निगेटिव। वह विपरीत नहीं है। मेरा मतलब समझे न! लेकिन जो निगेटिव हो जाएगा तो जो शेष रह जाएगा वह पाजिटिव है। इसलिए दो रास्ते हैं। उस शेष का अंदाजा बिलकुल मिलता है--अंदाजा बिलकुल मिलता है। वह पाजिटिव इशारा नहीं कर सकते। ना, ना, वह सब निगेटिव इशारा करेंगे। वह कहेंगे, "नाट दिस, नाट दैट' और तब तो शेष रह जाएगा, उस इशारे में आप चलेंगे न साथ। तो शेष रह जाएगा कुछ। उस शेष की तरफ आपको ही इशारा होगा। वह इशारा कोई नहीं करेगा। क्योंकि जैसे हमने इशारा किया, वह फाल्स हुआ। हमारा मन कहता है कि इशारा कोई जल्दी से शुरू कर दे। निगेटिव बात मत करो।

प्रश्न: दो एक्सट्रीम हैं--एक स्कूल में रीडिंग करते हैं एजुकेशन में। एक-एक चीज बताते हैं बच्चे को कि यह करो यह न करो। और दूसरी एक्सट्रीम यह रहती है कि बच्चे को छोड़ देते हैं कि उसको कुछ करना है, कुछ ऊपर लाना है, कुछ सिखाना है, वह मां-बाप नहीं करते। दो एक्सट्रीम रहते हैं। आप तीसरी एक्सट्रीम पर पहुंच गए।

नहीं, मैं एक्सट्रीम की बातें नहीं कर रहा हूं। मैं तो यह कह रहा हूं...मैं एक्सट्रीम की बात नहीं कर रहा। मैं यह नहीं कह रहा कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। मैं तो बहुत कर रहा हूं। लेकिन जो भी कर रहा हूं, वह समझने की बात है। मैं आपकी बात नहीं कर रहा। मैं यह कह रहा हूं कि सत्य की तरफ, उसकी तरफ जितने भी इशारे निगेटिव हैं, इशारे कभी पाजिटिव नहीं हो सकते हैं। वह कभी हो ही नहीं सकते पाजिटिव।
आज तक जगत में जिसने भी उस तरफ कोई भी श्रम किया है, वे सब निगेटिव हैं--चाहे उपनिषद का हो, चाहे बुद्ध का हो, चाहे लाओत्से का हो, चाहे झेन फकीरों का हो, शून्य से आगे नहीं जाता, वह जा ही नहीं सकता। वह आपको नथिंगनेस तक ले जाकर छोड़ा जा सकता है। उसके बाद, उस तक आपको यात्रा करनी पड़ेगी। वह एक्झिस्टेंस से आती होगी, इससे मुझे मतलब नहीं है। वहां नहीं आएगी, अगर नागार्जुन के साथ चलने की हिम्मत है तो नहीं आएगी। नागार्जुन के साथ चलने की तो बड़ी हिम्मत चाहिए, क्योंकि वह तो खंडन ही खंडन करता चला जाएगा। यानी आखिर में आप उससे पूछोगे, आप खंडन तो कर रहे हो, तो वह कहेगा कि मैं खंडन ही नहीं कर रहा हूं। वह एक आखिरी खंडन यह करेगा, मैं हूं भी नहीं। आप उससे कहो, आपसे इतना तो कहा कि शून्य है, वह कहेगा मैं नहीं कहता। मैंने यह भी नहीं कहा।
लाओत्से से जिंदगी भर कुछ भी नहीं लिखा। फिर बूढ़ा हो गया अस्सी साल का तो चीन छोड़ कर भाग रहा था। उसको पकड़ लिया एक पोस्ट पर। और चीन के राजा ने खबर भेजी कि लाओत्से जा रहा है चीन छोड़ कर, तो वह हमारा सब ज्ञान लिए जा रहा है, जो उसने पाया है। उसे वापस रखवा लो। तो लाओत्से ने किताब लिखी। इस किताब की भूमिका में जो शब्द लिखे हैं, वे बहुत ही अदभुत हैं। दुनिया की किसी भूमिका में नहीं है। लाओत्से ने लिखा है कि मैं मजबूरी में लिख रहा हूं और यह पहले कह देना चाहता हूं कि जो भी कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता। जो भी लिखा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता। तुमने लिखा की असत्य हुआ, तुमने कहा कि असत्य हुआ। अब तुम मुझे मजबूर कर रहे हो, अब मैं लिखता हूं। लेकिन इसको समझ कर किताब को पढ़ता। जो भी कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता। वह कह रहा है, अब जो तुम पढ़ो इस समझ कर पढ़ना।

प्रश्न: यह तो यूक्युलिट की व्याख्या हैं?

यूक्युलिट की व्याख्या का सवाल नहीं है यहां। यूक्युलिट का मामला नहीं है यह बिलकुल। बिलकुल उलटा मामला है। यूक्युलिट तो परिभाषाएं कर रहा है उनकी, जिनकी परिभाषाएं नहीं हो सकती हैं। और यहां तो मामला यह है कि उनकी बात की जा रही है, जिनकी परिभाषा कभी हुई नहीं और कभी हो भी नहीं सकती। और उनकी बात करना जरूरी है, जिनकी बात नहीं नहीं की जा सकती। तो फिर रास्ता क्या है? तो रास्ता तो सिर्फ यह है कि जिनकी बात की जा सकती है, उनको कहा जाए कि यह नहीं है, यह नहीं है। और अल्टीमेटली उसे जगह ले जाया जाए, जहां माइंड की सारी क्लिंगिंग छूट जाती है, क्योंकि एक-एक चीज हम छीनते चले जाते हैं वहां, कि यह भी नहीं है। छीनते चले जाते हैं। आखिर छीनना उस जगह पहुंच जाता है कि हाथ में कुछ भी नहीं बच जाता। फिर छोड़ देते हैं उस आदमी को कि यह है। और अब अगर यह आदमी इतने निगेशन में चलने की हिम्मत रखता हो तो जरूर वहां पहुंच जाता है, जहां है। नहीं तो नहीं पहुंच पाता।
और हमारी जो सारी ट्रेनिंग है, इफिकल माइंड, पाजिटिव, वह कहता है कि ब्रह्मचर्य की साधना बताइए। मैं कहता हूं सेक्स नहीं है, वहां ब्रह्मचर्य है। लेकिन ब्रह्मचर्य की कोई सीधी परिभाषा आपने बताई कि आदमी उसे साधना शुरू करता है। और साधना का कुल परिणाम होता है कि वह सेक्स को दबाना शुरू करता है। सेक्स को समझिए और सेक्स को निगेट करने की स्थिति तक माइंड को ले जाइए। और जहां सेक्स निगेट हो जाएगा, वहां जो शेष रह जाएगा, वह ब्रह्मचर्य है। और उसकी कोई बात नहीं की जा सकती। मैं निरंतर सारी चेष्टा कर रहा हूं, किसी कैंप में आप थोड़ा वक्त निकालिए।

प्रश्न: गांधी के अंदर जो सत्व है, उनके अंदर जो सत्य है, वह जो चीज है वह तो रहती है?

इसको आप पूरा सुन लें। मैंने यह नहीं कहा कि ब्रह्मचर्य नहीं साधा जा सकता। मैंने कहा ब्रह्मचर्य साधा जा सकता है। लेकिन ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले अगर संतति-नियमन के विरोध की बातें करते हैं, तो नासमझी की बात करते हैं। मैंने जो कहा, उसको आपने समझ लिया न पूरा? अगर मैं यह कहूं कि अंतदृष्टि साधी जा सकती है, तो अंतदृष्टि साध ली, फिर संतति-नियमन की कोई जरूरत नहीं। तो फिर मैं झंझट की बातें कर रहा हूं। फिर मुझसे पूछा जा सकता है कि कितने लोग अंतदृष्टि साध कर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होंगे? और ये बच्चे पैदा होते जाएंगे, इनका जिम्मा कौन लेगा? लेकिन मैं यह कह नहीं रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जिनको अंतदृष्टि साधनी हो, वे साधें, साधी जा सकती है। जिनको ब्रह्मचर्य साधना है, साधें, वह भी साधा जा सकता है, वह भी सत्य है। लेकिन मैं कह रहा हूं कि इसके इंप्लीकेशन में आप संतति-नियमन के रोक की बातें मत करिए, यह बिलकुल ही एब्सर्ड बात है। इसका इंप्लीकेशन भी नहीं हो सकता। संतति-नियमन का अलग प्रयोजन और अर्थ है और बृहत्तर समूह के लिए वही सार्थक और अर्थपूर्ण है। और गांधीजी की बातचीत या इस तरह की ब्रह्मचर्य की कोई बातचीत वहां लागू करना समाज को गङ्ढे में ले जाना और खतरे में ले जाना है। कोई मना नहीं करता, ब्रह्मचर्य आप साधिए। यह सवाल नहीं है। जो मैं कह रहा हूं, वह यह नहीं कह रहा कि ब्रह्मचर्य नहीं साधा जा सकता, और यह मैं नहीं कह रहा कि हजारों साल में किसी ने भी ब्रह्मचर्य नहीं साधा। मैं कह यह रहा हूं कि यह ब्रह्मचर्य की साधना संतति को रोकने के लिए सार्थक अभी पांच हजार साल में नहीं हो सकी, पचास हजार साल में भी नहीं हो सकती। संतति रोकनी हो तो संतति-नियमन का ही उपयोग करना पड़ेगा। ब्रह्मचर्य से यह होने वाला नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि ब्रह्मचर्य नहीं साधा जा सकता, लेकिन मेरा कहना यह है कि ब्रह्मचर्य की साधना के आधार पर संतति-नियमन की बातें हल नहीं हो सकतीं।

प्रश्न: उनको जो सच्चा लगता है और उनके अंदर का जो सत्य है, वह तो ठीक है ही।

वह हो तभी न!

प्रश्न: आप अपनी मान्यता कह रहे हैं।

मैं अपनी ही मान्यता कहूंगा, उनकी मान्यता तो नहीं बोलूंगा। मैं तो अपनी ही मान्यता बोलूंगा। जहां है, सत्य है,। जहां है, उसकी तो मैं बात ही कर रहा हूं। और जहां वह नहीं दिखाई पड़ रहा है, वहां भी इसलिए बात कर रहा हूं कि वहां आपको दिखाई पड़ जाए कि वहां नहीं है, तो आप खोज सकें, जहां वह है।

प्रश्न: हमारे मन में इतने प्रश्न नहीं उठते।

आपको प्रश्न उठ रहे हैं मेरी बात के कारण ही या आप कुछ बात पकड़े बैठी हैं, उसके कारण? मेरे पास ही थोड़े आती हैं, मेरे पास दूसरे लोग भी आते हैं, जिनके मन में यह प्रश्न नहीं उठता। तो मैं जानता हूं। एक जगह मैं बोलता हूं तो आप ही नहीं आई हैं मुझसे मिलने, बच्चू भाई भी मिलने बैठे हुए हैं, डाक्टर भी मिलने बैठे हुए हैं, लेकिन आप जो प्रश्न लेकर आई हैं, वह डाक्टर प्रश्न लेकर नहीं आते। उसका मतलब है, प्रश्न मेरे बोलने से नहीं उठता है, आपकी पकड़ से उठता है। डाक्टर का दूसरा उठता है, आपका तीसरा उठता है। मैं तो एक ही बात बोलता हूं, लेकिन तीन आदमी तीन प्रश्न लेकर आए हैं। वह आपकी पकड़ से आते हैं। उलझन जो आती है, वह आपकी पकड़ से आ रही है। और आपकी कोई पकड़ न हो तो कोई उलझन नहीं है। और आपकी कोई पकड़ न हो तो समझना एकदम आसान और सीधा है। हो सकता है मेरी बात गलत हो तो वह भी समझना आसान पड़ेगा। उलझन नहीं पैदा होगी। अगर मेरी बात गलत है और आपकी कोई पकड़ नहीं है तो आपको इतना साफ दिखाई पड़ जाएगा कि यह बात गलत है! उलझन फिर पैदा नहीं होगी, बात खतम हो जाएगी।

प्रश्न: जो कुछ भी पढ़ा है, सोचा है दिमाग से उसका पिंड है। वह पिंड अगल-अलग है, इसलिए अगल-अलग रिएक्शन करता है। लेकिन उस पिंड से जांचा जाता है कि यह ठीक है कि नहीं।

उस पिंड से अगर आप जांचते हैं तो आप कभी नहीं जांच पाते हैं। इसको थोड़ा समझ लीजिए। पिंड है। समझने के दो रास्ते हैं। एक तो वाया पिंड। पिंड का क्या मतलब होता है? सामाजिक नहीं, आपके ऊपर जितने भी संस्कार हैं, आपके माइंड पर जितने भी संस्कार हैं, सब कंडीशनिंग हैं। यह जो आविर्भाव है, इससे आविर्भाव नहीं होता है, इससे आविर्भाव ढंकता है। यह तो सारा झगड़ा है। इसको थोड़ा समझ लें कि वह जो हमारी कंडीशनिंग है, वह हमने सुना है, पढ़ा है, सोचा है, समझा है, वह हमारे दिमाग की कंडीशनिंग है। अब अगर मेरी बात आप सुन रहे हैं तो दो तरह से सुन सकते हैं। वैक्यूम तो आप नहीं होते हैं, मैं जानता हूं। वह तो अल्टीमेट बात है कि वैक्यूम हो जाएं तो मुझे सुनने आने की जरूरत नहीं है।

प्रश्न: और आपको कहने की भी जरूरत नहीं है।

नहीं, मुझे कहने की जरूरत हो सकती है। वह दूसरी बात है। मुझे कहने की जरूरत हो सकती है, नहीं तो बुद्ध को, महावीर को, किसी को कहने की कोई जरूरत नहीं है। अभी वैक्यूम को समझ लीजिए थोड़ा। यह जो कंडीशनिंग है, इसको दो तरह से आप सुन सकते हैं। एक तो रास्ता यह है कि कंडीशनिंग मेरे बोलते वक्त, आपके सुनते वक्त, बीच में हो; कंडीशनिंग एक कोने में, मेमोरी में पड़ी हो और आप स्ट्रेट और इमीजिएट, सीधा कांटेक्ट कर रहे हो तो समझना आसान होगा। वैक्यूम का अभी तो इतना ही मतलब हो सकता है अभी, कि कंडीशनिंग जो है, वह बीच में बैरियर की तरह खड़ी है, लेकिन वह खड़ी होती है आमतौर से। बहुत कठिन है उसको भी एक तरह हटाना, क्योंकि अगर मैंने गांधीजी के लिए कुछ भी कहा तो आप उसको ऐसा नहीं सुन रहे हैं, जैसा मैं क्राइस्ट के संबंध में कुछ कहूंगा तो सुनेंगे।
अगर मैं महावीर के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो जैन वैसे नहीं सुनता है, जैसा कि अजैन सुन लेता है। अजैन के लिए कोई कंडीशन नहीं है। वह चुपचाप देखता है कि ठीक है , महावीर के लिए कुछ कहते हैं, सुनता है वह। यह उसकी डायरेक्ट लिसनिंग हो जाती है। जैन तो बेचैन हो गया है कि महावीर के लिए, मेरे भगवान के लिए! अब यह मामला महावीर का नहीं रहा, यह इसका भी हो गया। अब यह बीच में खड़ा हो गया। यह जो बीच में खड़ा हो जाना है, यह तो नब्बे प्रतिशत कंफ्यूजन तो यह पैदा करता है। फिर हम कुछ जो नहीं कहा गया है, वह भी सुन लेते हैं। कुछ जो नहीं कहा गया है, वह अर्थ भी निकाल लेते हैं और वह हमें इतना सही मालूम पड़ता है कि हमने सुना। और हमें कल्पना में भी नहीं हो सकता कि यह नहीं कहा गया है और यह नहीं सुना गया। कुछ छूट जाता है, कुछ जुड़ जाता है, यह सब पैदा होता है। इस माइंड को मैं कहता हूं कि यह माइंड लिसनिंग नहीं करता है। यह नुकसान पहुंचाता है और इससे नुकसान की सारी ताकत पैदा होती है। यह तो मेमोरी है हमारी, वह मेमोरी में होनी चाहिए। वह रहेगी, वह जाएगी नहीं। लेकिन जब मैं सुन रहा हूं, जब भी मैं सुन रहा हूं, तब वह बीच-बीच में खड़ी नहीं हो जानी चाहिए--एक बात। और वह जो आप कहते हैं न, वैक्यूम जो है, एक घटना आपको कहूं, उससे खयाल में आ जाए।
फकीर था मुसलमान फरीद। वह गया यात्रा पर। कबीर के एक गांव के पास से निकला मगहर से। तो फरीद के साथ कोई सौ लोग थे। उन्होंने कहा कि कबीर का आश्रम आता है, अगर यहां रुक जाएं और कबीर से थोड़ी आपकी बातचीत होगी तो हमें बड़ा आनंद होगा कि क्या बात होती है। फरीद ने कहा कि रुक तो जरूर जाएंगे, लेकिन बात होनी मुश्किल है। उधर कबीर के भी मित्रों को भी पता चला आश्रम के कि फरीद गुजरने वाला है। तो आप रोक लें फरीद को। फरीद को साथ बड़ा आनंद आ जाएगा, दो दिन चर्चा हो जाएगी। कबीर ने कहा, चर्चा होनी मुश्किल है। रोक लो, तो जरूर रोक लो। बैठेंगे, हंसेंगे, चर्चा बहुत मुश्किल है। चर्चा क्यों होगी मुझसे? उन्होंने कहा कि वह तो फरीद आएगा तो समझ में आ जाएगा।
फरीद आया, कबीर लेने गए, गले मिले वे आकर बैठे वहां, वे गले मिले, दो दिन रहे साथ। चलते वक्त आंसू बह गए दोनों के, लेकिन बात नहीं हुई। शिष्य सब घबड़ा गए। दो दिन में बोर्डम हो गई, यह क्या पागलपन हो गया। बैठे हैं बैठे, और उन दोनों की वजह से दूसरे भी न बोल पाए कि वे क्या सोचेंगे।
जैसी ही छूटे तो फरीद से मित्रों ने पूछा कि क्या पागलपन किया कि तुम चुप ही रह गए, बोले नहीं? फरीद ने कहा जो बोलता, वह नासमझ सिद्ध हो जाता। मैं बोलता तो मैं बुद्धू हो जाता। क्योंकि वह आदमी शून्य हो गया है। तो कबीर क्यों नहीं बोला? तो फरीद ने कहा कि कबीर जानता है कि मैं शून्य हो गया हूं। दो शून्य क्या बोल सकते हैं! बोलने को कुछ भी नहीं बचता। और फरीद से मित्र पूछने लगे कि हमसे तो आप बोलते हैं। हमसे तो आप बोलते हैं! फरीद ने कहा, जरूर बोलता हूं, क्योंकि तुम शून्य नहीं हो। और तुम तभी तक सुन रहे हो, जब तक तुम शून्य नहीं हो। जिस दिन तुम शून्य हो जाओगे, न तुम सुनोगे।
तो शून्य खड़े हों तो बोलना, सुनना बंद हो जाएगा, लेकिन एक शून्य का बोलना चल सकता है। एक शून्य का बोलना चल सकता है। वह एक अंतर्व्यथा है उसकी। जो उसे दिखाई पड़ गया है, जो उसने जान लिया है, जो उसे हो गया है, उसकी सारी तड़प है कि वह कैसे हो जाए किसी को। उसकी सारी तड़प में वह कई दफा आपको बहुत ज्यादा बुजदिल मालूम पड़ेगा। उसकी सारी तड़प में कई दफा ऐसा लगेगा कि हमारी बहुत मान्यताओं को तोड़ दिया है, हमारे दिल को दुख पहुंचा दिया है, हमें चोट कर दी है। पर उसकी पीड़ा को तुम नहीं समझ सकते हो कि वह जान ही रहा है कि जितनी तुम्हारी पकड़ टूट जाए, जितना तुम खाली हाथ हो जाओ उतनी ही वह घटना घट जाए, वह हैपनिंग हो जाए, जिसकी कि चिंता है।
यह बिलकुल ठीक है कि हम एकदम शून्य होकर नहीं सुन सकते हैं, लेकिन हम करीब-करीब शून्य होकर सुन सकते हैं। और करीब-करीब शून्य होने का मतलब यह है कि कोई बीच में नहीं होना चाहिए। वह जो आप कहती हैं, बिलकुल ठीक कहती हैं। मेरी बात से बहुत सी चिंता, बहुत सा विचार, बहुत से प्रश्न खड़े हो जाते हैं। जरूर मेरी बात कुछ ऐसी है, जिससे ऐसा होगा। लेकिन वह उतना ही नहीं है कारण, उससे भी ज्यादा कारण यह है कि हमारी सबके मन की अपनी पकड़ पर कहीं भी भेद पड़ता है, चोट पड़ती है तो स्वाभाविक है कि खड़ा हो जाए। और मैं चाहता हूं कि खड़ा हो जाए। मैं चाहता भी हूं कि खड़ा हो जाए, क्योंकि खड़ा हो जाए तो डायलाग शुरू होता है। तो हम सोचते हैं, विचार करते हैं, बात करते हैं। आज नहीं, कल लड़ेंगे, झगड़ेंगे, कुछ होगा, लेकिन उससे कुछ रास्ता बनेगा। अगर कुछ रास्ता उससे बनता है। और अगर लड़ने-झगड़ने, सोचने-विचारने के बाद अगर हम थोड़ी भी ज्यादा अंडरस्टैंडिंग में छूटते हैं--जरूरी नहीं है कि मेरी बात सही हो जाए, लेकिन मेरा मानना यह है कि प्रोसेस से गुजरने पर अंडरस्टैंडिंग बढ़ती है। चाहे मेरी बात गलत सिद्ध हो, चाहे सही सिद्ध हो, इससे फर्क नहीं पड़ता है। हरिवल्लभ और मैं दो घंटे बातचीत करूं और लड़ भी लें बातचीत में, तो हम दो आदमी दो घंटे के बाद ज्यादा समझदार लौटते हैं। मेरा मतलब यह है कि अगर उस प्रोसेस से गुजरने की थोड़ी भी इच्छा हो तो हम उससे समझदार लौटते हैं।
और ऐसा हो गया है कि हिंदुस्तान में भोगीलाल जी, कि डायलाग जैसी चीज ही नहीं रह गई। इसलिए ऐसी हैरानी मालूम पड़ती है कि डायलाग तो नहीं है, ज्यादा से ज्यादा गाली-गलौज फौरन हो जाएगी। डायलाग वगैरह नहीं हो पाता। यानी ऐसा संभव ही नहीं रह गया है कि हम बैठें, हम चर्चा करें, मुल्क में हवा चले बात करने की, गांव-गांव में अड्डे हों, जहां लोग जिंदगी के बड़े मसलों पर कुछ बात करते हों, लड़ते-झगड़ते हों, पक्ष-विपक्ष करते हों, वह सब खतम हो गया। और ऐसी पिटी-पिटाई हालत हो गई कि जो हमने पकड़ लिया वह दोहराए चले जाते हैं, रोज-रोज उसको! न उसको कोई इनकार करता है। यानी मुझे तो कई दफे ऐसा लगता है कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह ठीक कहा हुआ कहीं सिर्फ पकड़े हुए तो नहीं हैं? अगर पकड़ा हुआ है तो बकवास में गिर जाएगा और नहीं पकड़ा हुआ है तो टिक जाएगा, हर्जा क्या है? मुझे तो लगता यह है कि इस वक्त एक-एक चीज पर हमला कर देने जैसी हालत है।

प्रश्न: आप जिस तरह से अपनी बात रखते हैं, उसमें ओवरफ्लो पड़ते हैं। जो चीज इतनी कांप्लीकेटेड है उसको, जो कथानक, एनक्डोट होते हैं, वह इतना देते हैं, और इस तरह से देते हैं कि उसका एक दूसरा ही रूप प्रकट होता है और जो सीमित चीज है, उसे समझने के लिए लोगों को अंतर ढूंढना पड़ेगा।

आप ऐसा सोचते हैं भोगीलाल जी, लेकिन मेरी समझ यह है कि जो एनक्डोट मैं कहता हूं, उसको आप सिंपल भी समझ सकते हैं और बहुत कांप्लेक्स भी। जो भी एनक्डोट या जो भी छोटी कहानी कहता हूं; वह तो आएंगे। एनक्डोट जो है, वह इतना कहता है--एक-दो मिनट का एनक्डोट, जितनी दो घंटे की बात नहीं कहती है, और दो घंटे कोई फिलासफी की ट्रिटाइज नहीं कह सकती। और यह भी आपका खयाल ठीक नहीं है कि उसकी गंभीरता कम करता है। वह तो आदमी गंभीर है तो उसकी गंभीरता बढ़ाता है और आदमी गंभीर नहीं है तो उसकी गंभीरता कम करता है। यानी मेरा कहना यह है कि वह तो अगर आदमी गंभीर है तो एक एनक्डोट पर सोचने के लिए घंटों लगा दे। और अगर आदमी गंभीर नहीं है तो आप उसको गीता के वचन सुनाइए तो वह समझेगा फिल्मी गाने गा रहा है। यह सवाल नहीं है। वह तो आदमी के ऊपर निर्भर है। मैं तो कहता हूं कि सत्य इतना कठिन है कि...इसलिए किस तरह अधिकतम लोगों के लिए सोचना संभव हो जाए, वह मेरी दृष्टि है। और मेरी दृष्टि यह भी रहती है कि जो अंतिम है वहां, उसके लिए खयाल में आ सके, जो प्रथम है उसके लिए नहीं। वह जो पच्चीस लोग बैठे हैं, उसमें जो अंतिम है, उसके भी खयाल में आ सके। वह भी बिलकुल खाली हाथ वहां से नहीं जाना चाहिए। फिर तो प्रथम के खयाल के लिए तो बहुत किताबें हैं, आप उनको पढ़िए। और मेरी यह दृष्टि है कि दुनिया में अब तक जितनी भी कठिन से कठिन बात कही गई है, वह सरल से सरल कहानियों में कही गई है। चाहे जीसस ने, चाहे बुद्ध ने, चाहे कृष्ण ने कही हो।

प्रश्न: आपके कहने की जो पद्धति है, जो कथा है, उस पद्धति का यह दोष मालूम होता है। उसमें गंभीरता नहीं रहती है, मैं यह कह रहा हूं।

मैं तो गंभीरता चाहता नहीं। गंभीरता की मुझे इच्छा भी नहीं है। गंभीरता मैं चाहता नहीं। गंभीरता मैं रोग मानता हूं, वह रोते हुए आदमियों का लक्षण है। वह चाहता भी नहीं। मेरी तो समझ यह है कि कितना सरल और कितना सहज आदमी के हृदय में प्रवेश करता है किसी द्वार से...।

प्रश्न: क्या गांधीजी को आप पूंजीवाद मानते हैं?

नहीं, गांधी को मैं पूंजीवादी नहीं मानता, लेकिन गांधीजी की पूरी चिंतना की विधि पूंजीवाद की समर्थक है। गांधी को पूंजीवादी नहीं मानता। और गांधी पूंजीवादी चित्त से हैं भी नहीं। उनका भाव भी नहीं है पूंजीवादी होने का। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गांधी के जीवन की विधि, गांधी के सोचने का ढंग पूंजीवादी है, बुर्जुवा है।

प्रश्न: तो फर्क क्या है?

फर्क बहुत है। गांधीजी कांशस नहीं हैं इस बात के लिए, इसलिए गांधी की नीयत को मैं कभी दोष नहीं देता। मैं एक बात कह सकता हूं, जिसमें मेरी कोई नियत किसी को नुकसान पहुंचाने की नहीं, और नुकसान पहुंच सकता है। आपको नुकसान पहुंचाने की मेरी कोई नीयत नहीं है, आपको फायदा ही पहुंचाने की मेरी नीयत है, और नुकसान आपको पहुंच सकता है। मेरा कहना है कि गांधी की नीयत के बाबत कोई शक करने का सवाल नहीं उठता। लेकिन गांधी को ठीक नीयत भी जो कर रही है, वह पूंजीवाद की समर्थक है।

प्रश्न: तीस साल पहले जो कम्युनिस्ट कह रहे थे, वह आप कह रहे हैं?

मुझे पता नहीं कम्युनिस्ट क्या कहते थे कब, कब नहीं कहते थे, मुझे पता नहीं। वह तो आप बदल गए होंगे तो दुनिया बदल गई लगती होगी।

प्रश्न: सुबह आपने कहा था कि गांधी पूंजीवादी थे। वह तीस करोड़ से एक सौ तीस करोड़ वाली बात आपने कही थी...।

मैंने यह नहीं कहा, मैंने यह कहा कि गांधी के सत्संग से फायदा मिला उसको। गांधी को फायदा नहीं मिल गया। वह तो कठिनाई नहीं है। वह तो दूसरे वक्तव्य ऐसे रखे जा सकते हैं, जैसा आप रख रहे हैं। उत्तरप्रदेश के जमींदारों की कमेटी उनसे मिली और उन्होंने उनसे कहा कि तुम्हारे ऊपर अन्याय होगा, अगर जमींदारी छीन ली तुमसे। मैं लडूंगा तुम्हारे लिए। गांधी की जिंदगी में तो इतने कंट्राडिक्ट्री। वक्तव्य हैं कि कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं, इसलिए किताब नहीं लाना चाहिए, उनमें कोई मतलब नहीं है। यह झगड़ा नहीं है मेरा, क्योंकि आपको पक्का होगा कि आप सही ढंग से समझ गए हैं तो बात अलग है। यह झगड़ा नहीं है मेरा।

प्रश्न: वह जो गांधी नहीं थे, वह आप बता रहे थे?

मैं तो अभी भी वही कह रहा हूं, बता नहीं रहा था। लेकिन गांधी का व्यक्तित्व, गांधी की चर्या, गांधी का पूरा चालीस साल का जो कुछ हिसाब है, गांधी का आंदोलन, वह सब पूंजीवाद के समर्थन में गया है। यह दूसरी बात है। यह आप नतीजा निकाल रहे हैं, यह मैं नहीं कहता। आप उनकी नीयत पर भी शक कर रहे हैं। आप नीयत पर भी शक कर रहे हैं, मैं नीयत पर शक नहीं कर रहा हूं। यह आपका नतीजा है, मेरा नहीं। यह भोगीलाल भाई नहीं निकाल रहे हैं, यह आप निकाल रहे हैं। ये दोनों बातें एक नहीं हैं। यही कठिनाई हो रही है। लोग समझते हैं कि मैं कुछ गांधी को कह दिया हूं। मैं क्यों कहूंगा?

प्रश्न: गांधी को तोड़ने के लिए कुछ बोलते थे?

मैं तो सभी को तोड़ने के लिए कहता हूं।
मगर यह कौन तय करेगा कि गांधी क्या कहते हैं। आप तय करेंगी कि मैं तय करूंगा? यह तो बच्चों जैसी बातें कर रही हैं आप। यह इसलिए बच्चों जैसी बात कर रही हैं--भोगीलाल भाई बैठे हैं, उसको समझ सकते हैं; यह कौन तय करेगा कि गांधी क्या कहते थे! यह आप तय करेंगी कि मैं तय करूंगा? मेरे लिए मैं ही तय करूंगा।
हां तर्क रहेगा, भोगीलाल भाई, और इसमें विवाद रहेगा। इसमें कोई तय नहीं कर सकता। आज भी मजा यह है कि बुद्ध क्या कहते थे यह बुद्ध के छह संप्रदाय उन्हें तय करते हैं।
ये दलीलें इतनी नासमझी की भरी हुई हैं। एक और एक अनिवार्य रूप से दो नहीं होते। यह आपको पता नहीं गणित। कितने लोगों को पता नहीं! एक और एक अनिवार्य रूप से दो नहीं होते। और एक और एक सिर्फ इसलिए दो होते हैं कि उन्होंने दो के डिजिट बना रखे हैं। दस डिजिट बना लें, नहीं होंगे, पांच डिजिट बना लें, नहीं होंगे। उसी तरह सारी बातें हैं। एक चीज ऐसी नहीं होती है।

प्रश्न: आप कह रहे हैं कि आप नहीं पकड़ेंगे, क्योंकि आपने कुछ पकड़ा हुआ है।

वही कोशिश चलती है। कोई छोड़ता भी है, कोई नहीं छोड़ता है। कोई जल्दी छोड़ता है, कोई लंबे छोड़ता है। अब उसका हिसाब भी नहीं रखना पड़ता है कि कौन छोड़ता है, कौन नहीं छोड़ता है।

प्रश्न: सब लोग पंडित हैं, ऐसा आप मानते हैं। फिर डायलाग कैसे होगा?

पंडित हैं ही। मामला क्या है, बहुत मुश्किल से हम कोशिश में होते हैं कि दूसरा क्या है, इसे समझें। अंदरूनी कोशिश यह होती है कि क्या हम हैं, यह दूसरे को समझाएं। डायलाग तो हमेशा ही चल सकता है और चलता है, लेकिन वह हमारी कोशिश होती है बहुत दूसरी। वह अगर समझने की हो, तब तो बहुत आसान हो जाए। समझाने की हो, तब बहुत मुश्किल हो जाती है।

प्रश्न: गांधीजी ने कहा था कि मैं जमींदारों की तरफ से लडूंगा और सत्याग्रह करूंगा। उसी गांधी ने सन पैंतालीस में आगाखां पैलेस से निकलने के बाद यह कहा कि मैं मानता हूं कि अब जमींदारों को कंपंशेसन न दिया जाए, और जमींदारी खतम की जाए!

इसमें उनके विचारों का विकास हुआ है?
ऐसा मामला है कि गांधी को अगर हम पूरा उठा कर देखने चलें तो ऐसा मुझे मालूम पड़ता है कि गांधी में कोई गहरा व्यक्तित्व विकसित हो रहा है, यह भी मुझे नहीं दिखाई पड़ता। गांधी में मुझे बहुत व्यक्तित्व दिखाई पड़ते हैं। गांधी में मुझे एक व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता। मुझे मल्टी साइकिक मालूम पड़ते हैं और कई धाराएं उनमें विकसित हो रही हैं, और कई मामलों में वे पीछे भी गिरते हैं, आगे भी बढ़ते हैं। बहुत सा मामला है। यह जो बहुत सा मामला है, इसको जितनी समझदारी से हम समझने की कोशिश करें, उस कोशिश में गांधी की पूजा और निंदा का कोई सवाल नहीं है। सवाल कुल इतना है कि गांधी के व्यक्तित्व का अगर हम आधार बना कर समझने की कोशिश करें, तो मुल्क को आने वाले व्यक्तित्व को बनाने के लिए कुछ रास्ते निकल सकते हैं।
लेकिन दो तरह की बातें हैं। या तो कोई आदमी गांधी को गाली देने की दृष्टि में पड़ जाता है, तब बहुत मुश्किल हो जाता है। और या तो फिर पूजा करने की, तब भी बहुत मुश्किल हो जाता है। और अगर कोई आदमी दोनों के बीच में, जिसको कहें क्रिटिकल थिंकिंग कर रहा हो, तो दोनों तरह के आदमी उसको धक्के देकर कहते हैं कि तुम किसी कोने पर खड़े हो जाओ। जैसा कि आप कहते हैं मुझसे कि या तो आप यह भी कहो कि गांधी की नीयत गलत है, तो हमें समझ में आती है बात। वह दूसरा जो आदमी आता है, वह मुझसे कहता है कि तुम अगर कहते हो कि उनकी नीयत गलत है, तो हमें समझ में आती है बात। वह दूसरा जो आदमी आता है, वह मुझसे कहता है कि तुम अगर कहते हो कि उनकी नीयत ठीक है, तो यह भी कहो कि उनका विचार भी ठीक है!
मेरी तकलीफ यह है कि न मैं पक्ष में हूं किसी के और न किसी विपक्ष में हूं। मुझे पक्ष-विपक्ष का अर्थ ही मालूम नहीं पड़ता। मुझे तो मालूम पड़ता है कि गांधी जैसा महत्वपूर्ण आदमी, उसको सोचा जाना चाहिए। कंपलैक्स हैं बहुत और इसलिए बहुत पहलू हैं और बहुत पहलुओं पर सोचने की जरूरत है, कोई जिद्द की जरूरत नहीं है। यह जितना हम समझें--लेकिन समझने में क्या तकलीफ होती है, पक्ष वाला चाहता है कि समझो तो पूजा की बात करो। विपक्ष वाला आदमी चाहता है कि समझो तो विरोध की बात करो। मैं दोनों बात नहीं करना चाहता, इसलिए मैं दोनों के साथ दिक्कत में हूं।
इधर मेरी जो कठिनाई हो गई है--नास्तिक मेरे पास आता है तो वह समझता है, यह आदमी आस्तिक है। आस्तिक आता है तो वह समझता है कि यह आदमी नास्तिकता की बातें करता है। और मुझे न कोई आस्तिक से प्रयोजन है और न कोई नास्तिक से कोई प्रयोजन है। कम्युनिस्ट मेरे पास आता है तो वह समझता है कि एंटी कम्युनिस्ट बातें करता हूं। गांधीवादी आता है तो वह समझता है कि मैं एंटी गांधीवादी बातें करता हूं। और मेरी हालत यह हो गई है कि चूंकि मैं प्रत्येक पर विचार करने का आग्रह करना चाहता हूं। और विचार का मतलब यह होता है कि वहां आलोचना शुरू होती है। अगर आप गांधीवादी होकर मेरे पास आए हैं तो मुझसे आपकी जो बात होगी, उसमें गांधी की आलोचना शुरू हो जाएगी। अगर आप माक्र्सवादी होकर आए हैं तो माक्र्स की आलोचना हो जाएगी। वह माक्र्सवादी यह खयाल लेकर जाएगा कि मैं माक्र्स का दुश्मन हूं। वह गांधीवादी यह खयाल लेकर जाएगा कि मैं गांधी का दुश्मन हूं मुझे किसी की दुश्मनी से कुछ लेना-देना नहीं है। तो मेरी जो पोजीशन है उसको तो वक्त लग जाएगा कि मैं उसको साफ कर सकूं। क्योंकि वह पोजीशन वैसी जगह पर आ जाए तो साफ होने में थोड़ा समय लग जाएगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

उन्होंने मुझसे पूछा। किसी ने प्रेस कांफ्रेंस में, राजकोट या सुरेंद्रनगर में, क्या आप ऐसा मानते हैं, साम्यवाद, धन, ईश्वर ऐसी आपकी मान्यता है? मैंने कहा, इसमें मैं हां भर सकता हूं। मेरी दृष्टि यह है कि साम्यवादी समाज की व्यवस्था ने एक अंतर्दृष्टि दी है। लेकिन वह अंतर्दृष्टि अधूरी है। क्योंकि वह मनुष्य का जो आंतरिक है, उसको कहीं भी स्पर्श नहीं करती। या मनुष्य के जो अतीत है, उसको भी कहीं स्पर्श नहीं करती। अत्यंत आंशिक है। और आंशिक बात को पूर्ण सत्य कहना बड़ा ही खतरनाक हो जाता है। यानी वह असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है। क्योंकि उसमें अंश सत्य तो होते ही हैं इसलिए ऐसा भी लगता है कि सत्य है, और फिर मन होता है कि इसको पूरा सत्य कह दें।
साम्यवाद पूरा सत्य नहीं है। वह मनुष्य के जीवन के अत्यंत बाहरी तल को, अत्यंत पदार्थ के तल को छूता है। और यही उसकी कमी है और यही उसका बल भी है। उसका बल भी यही है, क्योंकि वह जिस बात को छूता है, उसे पूरी तरह छूता है और पूरी गणित की तरह छूता है और पूरे विज्ञान की तरह छूता है। यह उसका बल भी है, क्योंकि उसने जिस बात को भी छुआ है, पूरी पहुंच है उसकी और यही उसकी कमजोरी भी है, क्योंकि बहुत बड़ा अछूता रह गया। और उस अछूते को बिलकुल इनकार करता है।
वह जो मैंने हां भर दिया है, तो वह जो गॉड है मेरे लिए, वह जो सब शेष रह गया है कम्युनिज्म में, उस सबका इकट्ठा मतलब है गॉड से मेरा। वह आदमी का आंतरिक और आदमी के अतीत जो भी है, वह जो भी छूट जाता है, उसको मैं गॉड कह रहा हूं। मेरे लिए गॉड को जो मतलब है तो उसको हम जोड़ दें, तो वह जो अगर जुड़ जाए, तो कम्युनिज्म की जो अधूरी दृष्टि है, वह अत्यंत पूरी हो जाती है। लेकिन उस पूरे में वह जो कम्युनिज्म है माक्र्स का वह विलीन हो जाता है। क्योंकि यह इतना बड़ा हमला है गॉड का कि इस हमले में वह जो टुच्चापन है, वह गया। वह सारी वायलेंस गई। इसलिए मैंने कहा, वह तो गॉड को जोड़ना, पूरे कम्युनिज्म को, पूरा का पूरा, यहां से वहां बदल देना है। कम्युनिज्म पूरा बदल जाएगा गॉड के जोड़ने से। और यह भी ध्यान रहे, गॉड भी बदल जाएगा कम्युनिज्म के जुड़ने से वह गॉड नहीं रह जाएगा जो हिंदू का है, ईसाई का है, मुसलमान का है। यह गॉड की अब स्थिति बहुत और हो जाएगी, क्योंकि जो-जो गॉड था अब तक, वह एक अर्थ में बुर्जुवा गॉड है, वह एक समाजवादी दृष्टि की उसमें कोई पहुंच नहीं है। इसलिए मेरी अपनी दृष्टि है कि साम्यवाद भी बदलता है ईश्वर के जुड़ने से, ईश्वर भी बदलता है साम्यवाद के जुड़ने से। और जो एक नई स्थिति बनती है, वह बहुत मूल्यवान है। इसलिए मैंने हां भर दी।



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