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शनिवार, 2 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-24

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौबीसवां प्रवचन
राष्ट्रभाषा: अ-लोकतांत्रिक

प्रश्न: परमात्मा तक जाने के लिए क्या विश्वास के द्वारा ही जाया जा सकता है?

मेरी समझ ऐसी है कि परमात्मा और विश्वास का कोई संबंध ही नहीं है। और जो भी विश्वास करता है, उसको मैं आस्तिक नहीं कहता। विश्वास का मतलब है कि जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे मानते हैं। और मेरा कहना है कि जिसे हम नहीं जानते, उसे मानने से बड़ा पाप नहीं हो सकता। अगर कोई ईश्वर को इनकार करता है और कहता है कि मुझे अविश्वास है, तो भी मैं कह रहा हूं कि वह गलत बात कह रहा है। क्योंकि जब तक उसने खोज न लिया हो, समस्त को खोज न लिया हो और ऐसा पा न लिया हो कि ईश्वर नहीं है, तब तक ऐसा कहना ठीक नहीं कि विश्वास है। और एक आदमी कहता है, मुझे विश्वास है, हालांकि मैंने जाना नहीं, देखा नहीं, लेकिन विश्वास करता हूं।

मैं दोनों बातें कहता हूं। मैं कहता हूं, ईश्वर जानने की चीज है; बिलीफ की नहीं, नोइंग की। जब मैं कहता हूं कि ईश्वर है तो यह मेरा विश्वास नहीं है, ऐसी मेरी प्रतीति है। ऐसा मुझे लगता है कि वही है और कुछ भी नहीं है। और ईश्वर को मैं कोई व्यक्तिवाची, पर्सनल तरीके से नहीं सोच पाता। ईश्वर से मेरा मतलब है, दी एग्झिस्टेंशियल। जो है, उसका ही नाम ईश्वर है। जो है, व्हाट इज़--बस उसको ही मैं ईश्वर कह रहा हूं। इसलिए अगर कोई कोई कहे, ईश्वर नहीं भी है तो मुझे दिक्कत नहीं पड़ती। इतना मैं कहता हूं कि जो है, वह है, और उसको नाम देने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

प्रश्न: आपसे पूछना चाहूंगा कि यह जो आधुनिक भाषा है, उसमें ईश्वर शब्द का प्रयोग जिस कनोटेशन से किया जाता है, उसको ध्यान में रखते हुए जब परमात्मा, ईश्वर शब्द का इस्तेमाल अपने पब्लिक फंक्शंस में करते हैं, तो क्या आपको नहीं लगता कि इससे कुछ गैप हो जाएगी?

; गैप की स्थिति भी पैदा हो सकती है। समझदारी से समझदारी की बात कही जाए तो समझ पैदा हो सकती है। यह खतरा तो सदा है। वह तो बोले, कि खतरा है। गैर-समझ हो जाएगी। लेकिन मेरी चेष्टा यह है, परमात्मा शब्द मुझे बहुत प्रीतिकर मालूम होता है। उसके कनोटेशन सही नहीं हैं और जिस अर्थ में हमने उसे ग्रहण किया है, वह अर्थ भी गलत है। तो मैं दोनों काम करता हूं--जिस अर्थ में हमने उसे ग्रहण किया है, उसको गलत भी कहता हूं; और जिस अर्थ में ग्रहण करना चाहिए, उसकी बात भी करता हूं। लेकिन परमात्मा शब्द मुझे बहुत प्रीतिकर लगता है। वह मुझे इसलिए प्रीतिकर लगता है कि समस्त को प्रकट करने के लिए इससे ज्यादा इंटिमेट कोई टर्म नहीं है। सत्य हम कहें, तो सत्य कुछ बड़े फासले का मालूम पड़ता है--दूर, जिससे शायद हमारा संबंध जोड़ना मुश्किल है। अस्तित्व हम कहें तो एक डेड टर्म है, जिसमें जिंदगी नहीं मालूम पड़ती, जीवंतता नहीं मालूम पड़ती।
जब हम कहते हैं, "परमात्मा', तो अस्तित्व में जो बात नहीं थी, वह परमात्मा में है। अस्तित्व से कुछ ज्यादा; एक जीवंतता है; और दूसरी इंटिमेसी है, एक निकटता है। परमात्मा का मतलब--अस्तित्व कुछ ऐसा है जिससे हम किन्हीं अर्थों में संबंधित हो सकते हैं। शब्द तो मुझे प्रीतिकर है। लेकिन उस शब्द से जुड़े हुए जो संयोग हैं, वे बहुत अप्रीतिकर हैं। और उन अप्रीतिकर संयोगों को मैं तोड़ने की कोशिश करता हूं।

प्रश्न: इसका अर्थ यह हुआ कि जहां तक आपको लगता है, वहां तक आदमी की जो लिंग्विस्टिक पासिबिलिटी है, वह "ईश्वर' शब्द के आगे खतम हो जाती है। क्या इससे अच्छा कोई शब्द नहीं हो सकता?

कोई कठिनाई नहीं है। दूसरा शब्द भी खोजा जा सकता है। लेकिन शब्द की खोज भी एक माहौल में होती है। नई दुनिया में जो शब्द खोजे जा रहे हैं, वे वैज्ञानिक हैं। जो नया मीडियम है, उसमें जो शब्दों की खोज है वह वैज्ञानिक है। और यह साइंटिफिक है। जिस दिन इस पृथ्वी पर मिल्यू रिलीजस थी, उस दिन जो श्रेष्ठतम शब्द खोजा था वह परमात्मा था, मिल्यू खो गया है। तो नया शब्द खोजना बहुत मुश्किल है। और अगर हम खोजेंगे तो वह कंस्ट्रक्टेड मालूम होगा, बना-बनाया मालूम होगा। और ऐसा नहीं कि शब्द ने खोजे गए हों, शब्द खोजे गए।
अब जैसे बुद्ध ने "ईश्वर' शब्द का उपयोग नहीं किया; "निर्वाण' शब्द का उपयोग किया, लेकिन फिर भी लगा कि निर्वाण बहुत दूर का शब्द है, और बुद्ध को प्रेम करने वाले बुद्ध को ही भगवान कहने लगे। "निर्वाण' शब्द को खोजने वाले को भी अंततः उनके प्रेम करने वालों ने "भगवान' शब्द दे दिया। "भगवान' कुछ इतना निकट का शब्द है, भगवान में कुछ ऐसा प्रीतिपूर्ण भाव है कि वह छोड़ा नहीं जा सका। जैनों ने भी इनकार कर दिया था। उन्होंने भी आत्मा के ऊपर मानने की स्वीकृति नहीं दी। आत्मा काफी है, और मोक्ष है, और भगवान को हटा दिया। लेकिन तब भी पीछे से फौरन परमात्मा वापस लौट आया, नये अर्थ लेकर वापस लौटा--कि आत्मा जब पूरी तरह से शुद्ध हो जाती है, सरल हो जाती है तो परमात्मा हो जाती है। लेकिन परमात्मा शब्द ने फिर अपनी जगह बना ली।
असल में आदमी के माइंड में कुछ आर्च टाइप हैं। अब तक पूरे इतिहास में परमात्मा से ज्यादा उचित शब्द नहीं खोजा जा सका। नहीं कहता कि नहीं खोजा जा सकेगा, खोजा जा सकता है; अगर पृथ्वी का मिल्यू फिर से रिलीजस हुआ तो शायद हम नया शब्द खोज लें, लेकिन नये शब्द से कोई प्रयोजन नहीं है। मेरा मानना है कि परमात्मा शब्द इतना जीवंत है कि उसे नये अर्थ दिए जा सकते हैं।
असल में शब्द नया तब खोजना पड़ता है, तब पुराना शब्द इतना सीमित हो कि उसमें नये अर्थ जोड़ना मुश्किल हो; तब नया शब्द खोजना पड़ता है। अगर पुराना शब्द रोज नये अर्थ दे सकता है, तो नये शब्द खोजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। परमात्मा मुझे अब भी एक लिविंग एनटिटी वाला शब्द मालूम पड़ता है। अभी उसमें नये अर्थ दिए जा सकते हैं। मैं भी उसमें नये अर्थ ही दे रहा हूं।

प्रश्न: जब आप इतने सारे लोगों के सामने भाषण देते हैं, तो जाहिर है कि आप उनसे कुछ कम्युनिकेट करना चाहते हैं।

निश्चित ही।

प्रश्न: और आप जानते हैं कि इस शब्द के पीछे इतने-इतने कलस्टर...!

मैं उनको तोड़ता हूं। फिर भी मैं उनको तोड़ता हूं। असल में अगर मुझे आपसे कम्युनिकेट करना है, तो दो काम करने पड़ेंगे। एक तो वह भाषा उपयोग करनी पड़ेगी, जो आप समझते हैं। अगर मैं नया शब्द "एक्स वाई जेड' उपयोग करता हूं तो कम्युनिकेशन नहीं होगा। और अगर मैं शब्दों का उपयोग करता हूं, जो आप समझते हैं, और आपको कनविंस नहीं करता हूं तो भी कम्युनिकेशन नहीं होगा। कम्युनिकेशन दोहरे काम से पूरा होगा। शब्द तो मैं वह उपयोग करूं जो आप समझते हैं लेकिन उन अर्थों में उपयोग करूं, जो आप नहीं समझते हैं। तो आप शब्द को समझते हैं, यह आधार बनेगा; और उस अर्थ की तरफ मैं इशारा कर सकूं, जो आप नहीं समझते हैं तो कम्युनिकेशन हो सकता है। अगर मैं ऐसे शब्द का उपयोग करूं जो आप समझते नहीं, कभी नहीं समझते...एक तो अर्थ की कठिनाई है कि अर्थ नहीं समझते हैं, दूसरी शब्द की कठिनाई है, तो बहुत कठिन हो जाएगा। इसलिए शब्द तो मैं पुराने उपयोग करता हूं, और अर्थ उनको नये देने की चेष्टा करता हूं इसमें नासमझी और गलत समझी होने की सदा संभावना है। असल में मिसअंडरस्टैंडिंग की सदा संभावना है। अगर कुछ भी महत्वपूर्ण कहना हो तो मिसअंडरस्टुड होने के लिए तैयार होना ही पड़ेगा। इतनी चेष्टा तो करनी चाहिए कि कम से कम यह हो पाए।

एक जनसाधारण के प्रतिनिधि के रूप में मैं इतना ही कह सकूंगा आपको कि आप अपना काम जान-बूझ कर मुश्किल बना रहे हैं।

ऐसा लग सकता है, ऐसा लग सकता है। असल में, जान-बूझ कर तो मैं उसको सरल बनाने की कोशिश करता हूं, लेकिन आदमी इतना जटिल है कि सब सरलताएं कठिन मालूम पड़ती हैं। मेरी तरफ से तो मैं कोशिश करता हूं कि सरल हो जाए बात। लेकिन आदमी इतना जटिल है कि जो कहना चाहिए, जो मैं कह रहा हूं, वह उस तक नहीं पहुंच पाता है, और पहुंच जाता है कुछ। जटिलता हो जाती है। कम्युनिकेशन हमेशा से जटिल है, आज की ही बात नहीं है। और हमेशा जटिल होगा। स्वाभाविक भी है, क्योंकि जो हम कहना चाहते हैं, वह मेरा अनुभव है और उस अनुभव को मुझे शब्दों से आप तक पहुंचाना है। शब्द पहुंच जाते हैं, अनुभव मेरे पास रह जाता है। इसलिए शब्द ज्यादा से ज्यादा इशारा बन सकते हैं। कठिनाई तब होती है, जब कोई शब्दों को जोर से पकड़ लेता है; तब बहुत मुश्किल हो जाती है।

प्रश्न: आपके खयाल में ह्यूमन लैंग्वेज जो है--आदमी की भाषा के क्या-क्या लिमिटेशंस हैं?

हां, मनुष्य की भाषा की बड़ी सीमाएं हैं; और मनुष्य की भाषा की बड़ी संभावनाएं हैं। पहली सीमा तो यह है कि जब भी हम बोलते हैं तो दूसरे तक शब्द ही पहुंचता है। शब्द के साथ जो मेरा अर्थ था, वह मेरे पास रह जाता है। और आपके पास शब्द पहुंचता है। और शब्द के साथ जो मीनिंग पहुंचता है, वह शब्दकोश का मीनिंग पहुंचता है, मेरा नहीं। और जब मैं एक शब्द का उपयोग कर रहा हूं, तो मैं इनवाल्वड हूं उस शब्द में। उसमें कुछ अर्थ दे रहा हूं, कोई रंग, कोई शेड दे रहा हूं। तो पहली तो सीमा यह है कि शब्द शब्दकोश से निर्धारित होते हैं। और हम सब जब बात करते हैं तो हमारे अपने अर्थ होते हैं, जो इंडिविजुअल होते हैं। उनको डालने की कठिनाई हो जाती है।
दूसरी कठिनाई यह है कि जब भी हम सुन रहे हैं--यह बोलने वाले की तरफ से कठिनाई है--जब हम सुन रहे हैं, तो अक्सर जो हम सुनना चाहते हैं, वह सुन लेते हैं। जो हम नहीं सुनना चाहते हैं, उसे हम छोड़ ही जाते हैं। या, अगर हम पक्ष में हैं तो पक्ष में सुन लेते हैं; विपक्ष में हैं तो विपक्ष में सुन लेते हैं। हम च्वाइस करते हैं पूरे समय। हम पूरा नहीं सुनते--जो कहा गया है, क्योंकि निष्पक्ष होना बड़ा कठिन है। और ओपन होना भी बड़ा कठिन है। एक आदमी पूरी तरह सुने, कोई भाव न ले, कोई पक्ष न ले, प्रिज्युडिस्ड न हो, बहुत कठिन है। माइंड पूरे समय पीछे कर रहा है। जब मैं बोल रहा हूं, जब मैं बोल रहा हूं, तब आपका माइंड कुछ कर रहा है। आप खाली नहीं बैठे हैं, आपका माइंड काम कर रहा है। उसका काम पूरे समय बाधा डाल रहा है। इसलिए सुनने जैसी घटना मुश्किल से ही हो पाती है।
तो भाषा की दो सीमाएं हैं--एक तो बोलने में अर्थ भी छूट जाता है, और सुनने वाला अपना अर्थ भी डालता है। ये सीमाएं हैं, लेकिन अगर ये सीमाएं हमारी समझ में आ जाएं, और हमारे खयाल में हों, और हम इन पर ध्यान रख सकें तो भाषा की संभावना अनंत हो जाती हैं। फिर हम भाषा से वह भी कह सकते हैं जो नहीं कहा जा सकता है। और भाषा से वे अर्थ भी पहुंचा सकते हैं जो बहुत बारीक और महीन है। हम वे बातें भी सुन सकते हैं जिनको कि कहना बहुत कठिन था। लेकिन अगर सुनने और बोलने वाले के बीच एक सिंपैथी हो, एक सहानुभूति हो तो भाषा की संभावना अनंत हो जाती है। एंटिपैथी हो तो भाषा की सीमाएं बहुत छोटी हो जाती हैं। अगर हम दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होकर बात कर रहे हैं, जैसा कि हमारा पुराना हिसाब है--जब भी दो आदमी बात कर रहे हैं तो आमने-सामने बात कर रहे हैं।
अभी नये मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्कूलों में क्लास की व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसमें शिक्षक सामने खड़ा है और लड़के सामने बैठे हुए हैं। यह एनकाउंटरिंग है, यह खतरनाक है। यह एक-दूसरे के अगेंस्ट है। तो नया मनोवैज्ञानिक कहता है, सर्कुलर होना चाहिए लड़कों को, सब तरफ होना चाहिए शिक्षक के, ताकि सीधी लड़ाई न हो जाए खड़ी। तो एक ग्रुप होना चाहिए जिसमें शिक्षक अलग खड़ा नहीं है और आप अलग नहीं हैं। शिक्षक घूम रहा है। कभी वह आपके पीछे भी पड़ता है, कभी बगल में भी पड़ता है।
मेरा मतलब यह है कि माइंड भी एनकाउंटर जब करता है एक-दूसरे को, तब भाषा बहुत सीधी हो जाती है।

प्रश्न: इस संदर्भ में आपसे मैं पूछना चाहूंगा कि आजकल पिछले थोड़े सालों में ब्रिटेन में जो लिंग्विस्टिक एनालिसिस की जो फिलासफी है, वे लोग अपना सारा ध्यान इसी प्रश्न पर--लिंग्विस्टिक एनालिसिस पर ही केंद्रित करते हैं। तो क्या आपको लगता है, यह जो प्रवृत्ति है ब्रिटिश फिलासफर की यह एडमिरेबल है? इसके बारे में क्या खयाल है आपका?

यह काम तो बहुत बढ़िया है और बड़ा कीमती है क्योंकि जब तक लैंग्वेज की ठीक से एनालिसिस न हो, तब तक लैंग्वेज की एनालिसिस ने होने के कारण बहुत सी भूलें होती रहती हैं, जिनमें व्यर्थ विवाद होता रहता है। लेकिन फिलासफी का कुल काम लैंग्वेज की एनालिसिस ने होने के कारण बहुत सी भूलें होती रहती हैं, जिनमें व्यर्थ विवाद होता रहता है। लेकिन फिलासफी और लैंग्वेज एनालिसिस पर्यायवाची हैं, बराबर हैं, ऐसा मैं नहीं कहता। फिलासफी का काम और बड़ा है। लेकिन उसमें एक काम वह भी जरूरी है कि हम भाषा को ठीक से समझने की कोशिश करें, क्योंकि बहुत सी गड़बड़ी सिर्फ भाषा की वजह से है।
अब जैसे कि उदाहरण के लिए बुद्ध और महावीर एक साथ हुए हैं, और उनके बीच जो विवाद है, वह ऐसा लगता है कि भाषा का विवाद है। काश, भाषा की ठीक-ठीक व्याख्या हो सकती, तो शायद महावीर और बुद्ध के बीच विवाद नहीं होना चाहिए। महावीर कहते हैं, आत्मा को जानना ही ज्ञान है। और बुद्ध कहते हैं, जो आत्मा को मानता है उससे बड़ा अज्ञानी नहीं है। बड़ी मुश्किल की बात है, यह तो सीधा-उलटा हो गया। लेकिन जितना समझने की कोशिश मैं करता हूं, मुझे लगता है, बुद्ध आत्मा को हमेशा अहंकार के अर्थों में प्रयोग करते हैं--ईगो के अर्थों में। "मैं'--इस अर्थ में वे आत्मा का प्रयोग करते हैं। और महावीर जब भी आत्मा का प्रयोग करते हैं, तो वे कहते हैं, "मैं' के छूट जाने से जो शेष रह जाएगा, वह आत्मा है। अब यह बिलकुल लिंग्विस्टिक मामला है। दोनों तरह प्रयोग हो सकता है। ईगो जब मिट जाएगा, तो जो शेष रह जाएगा मेरे भीतर, अगर वह आत्मा है तो बुद्ध और महावीर के बीच कोई झगड़ा नहीं है। लेकिन बुद्ध यह कहते हैं कि जब "मैं' नहीं रहेगा, तो कुछ बचेगा ही नहीं। तो वह "मैं' ही सब कुछ है। वही आत्मा है।
अगर हम भाषा को ठीक से समझ पाएं, तो कई बातें खयाल आएंगी। दुनिया में दर्शन का जितना विवाद है, उसमें से नब्बे प्रतिशत लिंग्विस्टिक है। अगर भाषा की, लैंग्वेज की ठीक-ठीक एनालिसिस हो जाए, तो दुनिया में नब्बे प्रतिशत विवाद तो इसी क्षण विदा हो जाएं। इसलिए ब्रिटिश फिलासफी ने इधर बीसत्तीस वर्षों में जो काम किया है, वह बहुत कीमती है। लेकिन दार्शनिक की सदा की एक भूल रही है कि वह जो छोटा सा काम करता है, उसे टोटल बना लेता है। तब झंझट खड़ी हो जाती है।
ब्रिटिश फिलासफी ने जो तीस साल में काम किया है वह प्रशंसनीय है। लेकिन खतरा क्या है? खतरा वही है कि वह जो आदमी के मन की निरंतर भूल है कि धीरे-धीरे उन्होंने कहा कि सारी फिलासफी ही लैंग्वेज है; और इससे ज्यादा कुछ है ही नहीं--फिलासफी में। यह एक लिंग्विस्टिक मामला है, इससे ज्यादा कुछ है ही नहीं। अगर हम लैंग्वेज को पूरा समझ लेते हैं तो फिलासफी विदा हो जाएगी। यह बात गलत है। क्योंकि बहुत कुछ है--बहुत कुछ है...।
सर विटगिंस्टीन का एक वाक्य मुझे पसंद है। उसने एक वाक्य कहा है, "जो न कहा जा सके, उसे कहना चाहिए।' जो न कहा जा सके उसे नहीं कहना चाहिए। जैसा कि पुराने सारे दर्शन कहते हैं ब्रह्म है, लेकिन उसके संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता। तो वह विटगिंस्टीन कहता है कि कृपा करके इतना भी मत कहो कि "ब्रह्म है'। कम से कम इतना तो तुम कहते ही हो, और इतना भी कहते हो कि उसके संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर तुमने काफी कह दिया। इतना भी मत कहो, इससे उपद्रव पैदा होता है। लेकिन विटगिंस्टीन यह जरूर मानता है कि कुछ है, जो नहीं कहा जा सकता। उससे इनकार नहीं। उसे कहो मत, लेकिन उससे इनकार नहीं; वह है।
हम बहुत कुछ अनुभव करते हैं, जो नहीं कहा जा सकता। और बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं, जो नहीं बताया जा सकता। मेरे सिर में दर्द है और जब मैं कहता हूं, "मेरे सिर में दर्द है', तो हालांकि मैं कह रहा हूं। लेकिन जिस आदमी के सिर में दर्द न हुआ हो, उससे मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि मैं क्या कह रहा हूं? वह तो हम सबके सिर में दर्द हुआ है इसलिए कम्युनिकेट हो जाती है बात। और भी ध्यान रहे, वही कम्युनिकेट नहीं होती जो मेरे सिर में दर्द है। आपके सिर का दर्द पता नहीं किस तरह का है। जब मैं कहता हूं, "मेरे सिर में दर्द है' तो आप समझते हैं कि जैसा सिर में दर्द आपको होता है, वही मुझे होगा। इसलिए कम्युनिकेशन फिर भी नहीं हुआ है। आपका सिरदर्द आपका है मेरा सिरदर्द मेरा सिरदर्द है। इन दोनों का कभी तालमेल होगा नहीं, क्योंकि दोनों के सिरदर्द लेबोरेटरी में कभी सामने रख कर तौले नहीं जा सकते कि इसके सिरदर्द में क्या है, इसके सिरदर्द में क्या है। और सिर को खोलो तो दर्द विदा हो जाता है। दर्द का पता नहीं चलता है कि वह कहां है? लेकिन है। अगर दस आदमियों को सिरदर्द न हुआ हो और मैं उनके बीच में पड़ जाऊं और मैं कहूं कि मेरे सिर में दर्द है, तो वे कहेंगे, मैं पागल हूं। सिर दर्द होता ही नहीं। तो मैं लाख उपाय करके भी सिद्ध नहीं कर सकता कि सिरदर्द है।
भाषा के कारण जो भूलें हुई हैं, वह भाषा के विश्लेषण से सुधर जाएंगी। और हम ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से कम्युनिकेट कर सकेंगे।

प्रश्न: बहुत से लोग आते हैं पढ़े-लिखे लोग, जो अपने आपको इंटलेक्चुअल कहना पसंद करते हैं। मार्डन स्थिति में रहते हैं, लेकिन मानते हैं कि हम दूसरों से अलग हैं हमारी कैपेसिटी ज्यादा है। जो लोग करते हैं, वह फिप्टीन पार्ट है उसका जो किया जा सकता है। तो आप जब लोगों के सामने बोलते हैं, तो आप को यह फर्क करना पसंद आता है कि पांच हजार की मीटिंग है, तो मैं एक तरह से बोलूं। कोई पढ़ा-लिखा आदमी इंटरव्यू लेने आए, और वह तरहत्तरह के इंटलेक्चुअल फैशन के वर्ड्स हों; यह आदमी सामान्य लोगों से ज्यादा पढ़ा-लिखा है, तो इससे थोड़ा और ढंग से बात करूं। क्या आप ऐसा फर्क करना उचित समझते हैं?
साथ ही एक दूसरा सवाल--आप जिस उत्साह से सब जगह घूमते-फिरते हैं और लोगों को जिस ढंग से बातें करते हैं, उससे एक बात तो जाहिर है कि आप में कनसर्न तो बहुत है लोगों के लिए। हमारी जो दशा है, हमारे देश की इसके लिए कनसर्नस आप में बहुत है। तो उसके साथ यह भी आप मातने हैं कि जो समाज आपके सामने है, जिसके साथ आपको बात करनी है, कम्युनिकेट करना है, वह बहुत ही स्टैटिक सोसाइटी है। और नीड्स हैं वे बहुत ही एलिमेंट्री हैं--खाना, पीना, घर, मकान, कपड़ा, मेडिकल, ये बहुत एलिमेंट्री है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि एक तरह इसमें चेंज हो सकता है? सब लोगों को रोटी वगैरह का इंतजाम किया जाए, उसके बाद उसको परमात्मा आदि बातों के बारे में कहा जाए, ताकि वह उनके सर पर से चला न आए और वह मुझे एंटरटेनर के रूप में ने लें कि यह कहानी आदमी कहता है, ठीक है, मजा है, आवाज मधुर हैं; लेकिन वह बात कभी-कभी कहता है कि यह झंडा जो है हमारा, यह तो सिर्फ कपड़े का टुकड़ा है। तो हम इंटरेशनल होना डिसाइड कर लें और जब तक सारा जगत इंटरनेशनल न हो तो उससे क्या फायदा? तो आज जब गरीबी पर बात करते हैं, तो लोगों को बहुत जंचती है कि यह हमारे काम की चीज है--कपड़े, खाने-पीने की बात है। हमें यह चाहिए। और दूसरी बात फिर ऐसा भी लगता है कि राष्ट्रध्वज जो है यह तो सिर्फ कपड़े का टुकड़ा है! अब इन दोनों बातों को एक ही गल्प में फालो करन लोगों के लिए मुश्किल होता है।
पहली बात तो यह कि मैं कभी फर्क नहीं करता अपनी तरफ से कि कौन आदमी इंटलेक्चुअल है और कौन नहीं है। मैं नहीं फर्क करता। लेकिन फर्क अपने आप हो जाता है। क्योंकि मैं अपनी तरफ से, आप मुझसे कुछ बात करते हैं, तो आप जिस तल पर बात करते हैं उस तल पर मुझसे कुछ निकलवा लेते हैं। न तो मैं पहले से सोच कर बैठा हूं कि आपसे क्या बात करूं। न पहले से मेरा कोई हिसाब है, न सोचता हूं। आप सामने होते हैं तो बात निकल आती है। उस बात निकलने में मैं जितना जिम्मेदार हूं, उससे ज्यादा जिम्मेदार आप होते हैं। तो अगर एक सोफिस्टिकेटेड माइंड आए, तो वह जिस तरह की बातें करेगा, वह उस तरह की बातें मुझसे निकलवा लेगा। एक सीधा सादा किसान है, तो वह जिस तरह की बातें करेगा, वह मुझसे निकलवा लेगा। मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए कोई फर्क नहीं है, क्योंकि मुझे कुछ अपनी तरफ से कहना ही है, ऐसा नहीं है--डायलाग है। आप मुझसे कुछ बात करते हैं, उससे कुछ निकल आता है, वह निकल आता है, लेकिन मुझे कोई फर्क करने का सवाल खयाल में नहीं आता।
फिर मेरी अपनी समझ यह है कि जिसको हम बहुत सोफिस्टकेटेड कहते हैं, अक्सर जरूरी नहीं है कि वे इंटिलिजेंट ही हों, क्योंकि बहुत गहरे में जैसे-जैसे इंटेलिजेंस बढ़ती है वैसे-वैसे सोफिस्टिकेशन विदा होने लगता है। और चीजें सरल और सीधी और साफ हो जाती हैं। असल में अनसोफिस्टिकेटेड माइंड सरल होता है, ऐसा नहीं है। इंटेलिजेंट माइंड सरल होता है। जितना विचारशील व्यक्ति हो, उतना सरल हो जाता है। और इंटलेक्चुअल होने को जो ढंग है, वह अक्सर इंटलेक्चुअल को नहीं होता, वह अक्सर उसको होता है जो इंटलेक्चुअल नहीं है। इंटलेक्चुअल माइंड को कभी ये सवाल नहीं उठते हैं जो इंटलेक्चुअल हैं।
असल में स्वस्थ आदमी को पता ही नहीं चलता कि स्वस्थ हैं। सिर्फ बीमार को यह खयाल में रहता है स्वस्थ है या नहीं है, या दावा करे या न करे। ये सब बीमार के ही लक्षण हैं। स्वस्थ आदमी को पता ही नहीं चलता। वह होना इतना सरल होता है कि उसका कुछ पता ही नहीं चलता। हमारे मुल्क में जो इंटलेक्चुअल को इतना खयाल रहता है--इंटलेक्चुअल होने का, उसका कुछ कारण इतना है कि इंटलेक्चुअल बहुत कम हैं; जिसको इंटलेक्चुअल को इतना खयाल रहता है--इंटलेक्चुअल होने का, उसका कुल कारण इतना है कि इंटलेक्चुअल बहुत कम हैं; जिसको इंटेलिजेंस कहें, वह न के बराबर है। इसलिए बड़ा रुग्ण बोध एक बीमार खयाल है इंटलेक्ट का। और उसकी वजह इंटलेक्चुअल अकड़ा हुआ है। और व्यर्थ सोफिस्टिकेट कर रहा है। और व्यर्थ सीधी-सीधी चीजों को उलझा रहा है, क्योंकि उलझा कर वह दिखाई पड़ सकता है कि वह इंटलेक्चुअल है। यह हमारे मुल्क की भ्रांति में एक हिस्सा है। लेकिन मैं कोई फर्क नहीं करता।
और जरूरी नहीं है कि आइ. क्यू. ज्यादा हो किसी का तो वह इंटलेक्चुअल हो, यह भी जरूरी नहीं है। क्योंकि जितनी समझ बढ़ती जाती है, उतना पता चलता है, आइ. क्यू. में कोई मेजरमेंट नहीं है। कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। बहुत मुश्किल है मामला।
रवींद्रनाथ परीक्षा में फेल हो सकते हैं, कुछ पक्का पता नहीं चल सकता है। गांधी थर्ड क्लास आ सकते हैं। आठ सौ लड़कों में मैट्रिक में चार सौ चारवां नंबर था गांधी का। वे चार सौ चार लड़के जो गांधी के ऊपर थे, वे हो सकता है हाई स्कूल में गांधी से आगे निकल गए हों, वे कहां हैं? उनका कुछ पता नहीं है। जिंदगी बहुत जटिल है और आइ. क्यू. कोई अभी भी सीधा-सादा मेजरमेंट है, बहुत गहरा नहीं है, पकड़ नहीं पाता। इसलिए उस सबकी मैं कोई फिकर नहीं करता। पांच हजार लोग मुझे सुन रहे हैं, तो उसमें मैं यह फिकर नहीं करता कि कौन बुद्धिमान हैं, कौन गैर-बुद्धिमान हैं। तो पांच हजार लोगों की चेतना से जिस भांति मैं संबंधित हो सकता हूं, हो जाता हूं। वह भी कांशस एफर्ट नहीं है।
दूसरी बात आप जो कहते हैं--दूसरी बात जो कहते हैं कि एलिमेंट्री रीति से--खाना है, कपड़ा है, रोटी है, मकान का छप्पर है, वह पूरा न हुआ हो तो और दूसरी बातों में कोई रस कैसे ले? लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि जिंदगी इतना इकट्ठा जोड़ है कि अगर वह खाना, कपड़ा, मकान का छप्पर पूरा नहीं हुआ है तो उसका कारण भी जिंदगी की पूरी टोटैलिटी को न देखना ही है। और उसके पूरे न होने में भी हमने जो फिलासफी और रिलीजस खयाल बना रखा रखे हैं, वे कारण हैं। और अगर हम उनको नहीं बदलते तो यह भी पूरा होने वाला नहीं है।
हालांकि ऊपर से ऐसे ही दिखाई पड़ता है कि आखिर भारत में रोटी नहीं है, छप्पर नहीं है, तो यह पहले आना चाहिए। लेकिन मेरा मानना यह है कि भारत के पास जो फिलासफी है, वह ऐसी है कि उसमें रोटी, छप्पर हो ही नहीं सकती। तो अगर हम उस फिलासफी से नहीं लड़ते हैं, और उस फिलासफी से रोटी-छप्पर बना कर नहीं लड़ा जा सकता। उस फिलासफी से फिलासफिकली ही लड़ना पड़ेगा। उस फिलासफी से अगर हम नहीं लड़ते हैं तो हम रोटी, छप्पर की स्थिति भी पैदा नहीं कर पाएंगे।
तो यह हो सकता है कि जिसका पेट खाली हो उसे लगे कि क्या बेकार बातें कर रहे हैं। अब जैसे समझ लें, एक आदमी भूखा है और हम उससे कहते हैं कि गेहूं पैदा करने की यह विधि है; और वह कहता है कि यह क्या बेकार की बातें कर रहे हैं? मुझे रोटी चाहिए। आप कहां गेहूं पैदा करने की बातें कर रहे हैं! तो उसकी बात भी हमारे समझ में पड़ती है, क्योंकि भूखे के लिए कनसर्न इतना इमीजिएट है कि आपकी दूर की बात का कोई मतलब नहीं है। लेकिन वह भूखा भी इसीलिए है कि कुछ लोगों ने पहले दूर के कनसर्न की फिकर नहीं की, नहीं तो वह भूखा भी नहीं होता। और अगर हम भी नहीं फिकर करते हैं भूख की, तो बीस साल बाद भी वह भूखा होगा।
मेरी अपनी समझ यह है कि जिंदगी के प्राब्लम दो तरह के हैं। एक तो इमीजिएट प्राब्लम्स हैं; और इमीजिएट प्राब्लम्स को ही अगर हम हल करने में लगे रहें, तो प्राब्लम्स कभी खतम न होंगे। और दूसरे दूर के प्राब्लम्स हैं; और इमीजिएट प्राब्लम्स को ही अगर हम हल कर लें तो बीस साल बाद हमारे बच्चों के लिए इमीजिएट जैसी चीज न रह जाएगी।
तो वह दोहर तल पर हमें लड़ाई लड़नी पड़ेगी। तो मैं दोहरे तल पर ही बात कर रहा हूं। मैं उस रोजी-रोटी की भी बात कर रहा हूं और यह भी फिकर कर रहा हूं कि रोजी-रोटी पैदा क्यों न हो सकी? आखिर बात क्या है? ऐसी कौन सी कठिनाई हमारे साथ है कि रोजी-रोटी पैदा नहीं कर पाए? तो हमारी मानसिक जो कंडीशनिंग है, वह रोजी-रोटी पैदा नहीं होने दे रही है। उसको बदलना पड़ेगा।
मैं एक घटना पढ़ रहा था कि कुछ सोशलाजिस्ट दो कम्युनिटीज का अध्ययन कर रहे थे अमेजान में। तो वे दोनों कम्युनिटी एक ही पहाड़ पर रहती हैं; आदिवासी हैं। दोनों के पास एक सी जमीन है, लेकिन एक गरीब है और एक अमीर है! और दोनों का मौसम एक है, और दोनों का सब एक है। लेकिन एक सदा से गरीब है, और एक सदा से अमीर है। वे बड़े हैरान हुए कि मामला क्या है? क्योंकि जमीन वही है औजार वही हैं, सब कुछ वही है, इसलिए इसमें तो कुछ फर्क करने का कारण ही नहीं है। एक गांव उनका है, बगल में दूसरा गांव है। तो वह अमीर गांव है, यह गरीब गांव है। मामला क्या है? तो वे दोनों बड़े हैरान हुए। दोनों की फिलासफी अलग है। जो कम्युनिटी गरीब है उसकी फिलासफी यह है कि किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है, सब सामूहिक है। एक खेत पर काम करना है, तो पूरा गांव काम करेगा। खेत छोटा सा है। पहाड़ी इलाका है, खेत छोटा सा है, पूरा गांव उसमें काम करने आता है। बजाय काम बढ़ने के काम घटता है, क्योंकि उतने लोगों को उस खेत में खड़े होने का प्राब्लम है। तब तक सब खेतों का काम बंद रहेगा, क्योंकि वे सारे लोग तो एक खेत पर काम करेंगे, फिर दूसरे खेत पर काम करने जाएंगे, फिर तीसरे खेत पर। वे दो-चार खेत पर काम कर पाएंगे कि मौसम निकल जाएगा। दूसरी कम्युनिटी इंडिविजुअल है। छोटे-छोटे खेत के टुकड़े हैं, वे अपना-अपना काम कर रहे हैं। पूरा गांव इकट्ठा काम कर लेता है। वह पहली कम्युनिटी--एक अर्थ में सोशलिस्टिक फिलासफी है उसकी। लेकिन जो ढांचा है पहाड़ का, पहाड़ पर छोटे-छोटे टुकड़ों में, पैसेज में जमीन है, उस पर इतने लोग काम नहीं कर सकते कलेक्टिव में, दो ही आदमी काफी हैं। एक पत्नी और पति काम करने को काफी हैं। उनके बेटे काम कर लें तो बहुत है।
तो वह जो सोशलिस्टिक सोसाइटी है वह गरीब है, और वह जो इंडिविजुअल सोसाइटी है, वह अमीर है। और एक सा सब है, और कोई मामला नहीं है। अब सवाल यह है कि अगर उनको जाकर समझाया जाए कि तुम्हारा यह जो ढांचा है सोचने का, यह गलत है। इतना मजा है। वह कम्युनिटी, जो इकट्ठी काम करती है, उसमें इंडिविजुअल कांशसनेस विकसित नहीं हुई। जब अमरीका में उनको नौकरी पर रखा जाता है तो एक आदमी से आप काम नहीं ले सकते हैं। दो को इकट्ठा रखना पड़ेगा नौकरी पर। अगर एक आदमी को आपने रखा तो वह काम ही नहीं कर सकता। उसने कभी अकेले काम किया ही नहीं है। यानी अकेला काम किया जा सकता है, यह उसकी चेतना में ही नहीं घुसा है। अगर दो को साथ रखो तो वह काम कर लेगा। अकेले को रखो तो वह बैठा रह जाएगा।
मैं जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि हमारी फिलासफी है इस मुल्क की, हमारा जो रिलीजन है, हमारे चिंतन के जो ढंग हैं, वे एंटिमैटीरियलिस्टिक हैं। तो न तो वह छप्पर बनने देगी, न वह रोटी जुटने देगी, न वह कपड़े आने देगी। तो अगर उनको लाना है तो भी यह दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इस मुल्क की फिलासफी को आमूल बदलना पड़ेगा। तो स्वाभाविक है कि भूखे आदमी को लगेगा कि क्या मतलब है कि आप कर्म की और पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं? लेकिन मेरा मानना यह है कि वह कर्म और पुनर्जन्म की बात ने ही तुम्हें छप्पर नहीं मिलने दिया, तो अब अगर छप्पर जुटाना है, तो कर्म और पुनर्जन्म की बात को उखाड़ कर फेंक देना पड़ेगा।
और दूसरी जो आप बात कहते हैं कि गरीबी की बात करता हूं तो समझ में नहीं आता है। वह नहीं आएगी। लेकिन विरोध नहीं है दोनों बातों में। अब मेरा तो मानना है कि दुनिया को गरीब रखने में वे चीथड़े भी काम कर रहे हैं। जो आकाश में आप फहरा रहे हैं; वे भी काम कर रहे हैं दुनिया को गरीब रखने में। और अब अगर दुनिया को हमें समृद्ध बनाना है तो हमें चीथड़े के टुकड़े आकाश से हटा देने पड़ेंगे। अगर यह पृथ्वी एक हो तो आज समृद्ध हो सकती है। इसमें अब कठिनाई नहीं रह गई है। क्योंकि जिन कौमों ने वैज्ञानिक विकास कर लिया है, उनका वैज्ञानिक विकास हमें तभी उपलब्ध हो सकता है, जब हमारे बीच की सीमाएं कम हो जाएं, टूट जाएं, गिर जाएं। जब तक हम हम हैं, और वे वे हैं, तब हर कौम यह फिकर करेगी।

प्रश्न: आपके साथ भी जो लोग हमेशा रहते हैं, आपके प्रोग्राम वगैरह अरेंज करते हैं, वे भी आपको एक दिन अगर कहें कि हम आपको बुलाते हैं, भाषण करवाते हैं, लेकिन लगता है कि कुछ और काम करना पड़ेगा--"एक्शन' जिसे बोलते हैं क्रूड मीनिंग में, वैसा कुछ करना पड़ेगा, तो आपका भी यही जवाब होगा कि भई देखो, मैं तो भाषण करता हूं, लोग सुनते हैं, लोग सुनते हैं, चर्चा भी अखबारों में होती है और बहुत से लोग इससे डिस्टर्ब हो गए हैं, काफी है। अगर उनको संतोष न हुआ?

मैं नहीं कहता काफी है। मैं नहीं कहता कि काफी है। काफी इस अर्थ में है कि वह एक्शन में ले जाए। प्राइमेसी ऑफ आइडिया का सिर्फ मतलब इतना होता है, वह अल्टिमेसी ऑफ आइडिया नहीं है। प्राइमेसी ऑफ आइडिया का मतलब ही यही है कि वह बिलकुल प्राइमेसी है। उसके बाद एक्शन ही अल्टिमेट होगा। और आइडिया पर इतना जोर है, विचार है, तो इसलिए है कि वह कर्म में रूपांतरित हो जाए।
मैं नहीं कहता ऐसा। मैं तो यह कहता हूं कि यह कितना दुर्भाग्य है हमारा कि आइडिया ही नहीं है, तो एक्शन कैसे होगा? होगा तो गलत होगा, क्योंकि अंधेरे में होगा, और अनजाना होगा, और क्रोध से भरा होगा। इसमें कुछ समझ नहीं होगी। तो मैं तो नहीं मानता कि दिन-रात निरंतर अंत तक कोई विचार ही करते रहना है। विचार है सार्थक इसी अर्थ में कि वह एक्शन में ले जाए।
तो लोग मेरे पास आ रहे हैं, मेरी बात समझ रहे हैं, अगर उन्हें जिस दिन भी लगता है यह ठीक है, विचार समझ में आ गए, तो मैं तो उन्हें कहता हूं, एक्शन में जाना है। एक्शन में जाना ही पड़ेगा। क्योंकि हम कब तक बैठ कर बात करते रहेंगे कि रोटी चाहिए, रोटी चाहिए? रोटी बनानी पड़ेगी। लेकिन रोटी बन ही तब सकती है, जब रोटी चाहिए का खयाल बहुत साफ और स्पष्ट हो जाए। और कैसे रोटी बनेगी उसके सारे एलिमेंट्स का बोध हो जाए और उन सबको लाने का खयाल आ जाए कि किस दिशा से क्या मिलेगा?
तो मैं एक्शन विरोधी नहीं हूं, लेकिन इतना मैं मानता हूं कि आइडिया प्राइमरी है और एक्शन उसका दूसरा स्टैप है। वह आएगा ही; आना ही चाहिए। अगर कोई आइडिया एक्शन में नहीं ले जाता, तो वह इंपोटेंट आइडिया है। उस आइडिया का कोई मतलब ही नहीं है। यानी उसने समय खराब करवाया हमारा। उससे तो बेहतर था कि हम एक्शन ही कर लेते। गलत होता, फिर भी कुछ तो होता! और वह आइडिया अगर कहीं भी नहीं ले गया तो हम कहेंगे इंपोटेंट है।
पोटेंट आइडिया हमेशा एक्शन में ले ही जाएगा, ले ही जाना चाहिए। तो मैं तो नहीं कहता। मैं नहीं ऐसा कहता। लेकिन अब जरूरत जरूर है कि एक बीस साल मुल्क के दिमाग में एक वैचारिक क्रांति की हवा खड़ी हो जाए, ताकि क्रांतिकारी कृत्य करने की संभावना बढ़ जाए। मेरे मन में दोनों में विरोध नहीं है। मेरे मन में जब भी विचार परिपक्व होगा, तो एक्शन बनेगा। बनना ही चाहिए। अगर विचार ठीक था, पोटेंशियली उसमें कुछ फोर्स थी, तो वह एक्शन बनेगा, वह रुक नहीं सकता।

प्रश्न: कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि यह जो सब गड़बड़ हुई हमारी कल्चर में यह कहीं आठवीं-नवीं सदी के आसपास, हर्ष के साम्राज्य के टूट जाने के बाद हमारा कल्चर डाइनैमिक होना बंद हो गया। उसके बाद जो कुछ हुआ वह सिर्फ पिष्टपेषण कमेंट्री के रूप में हुआ, और भक्ति संप्रदाय जो है उसने हमारी जो थिंकिंग थी वह सर्टिफाई कर दी। इस वजह से भक्ति संप्रदाय में भक्त और भगवान का तो नाता है, वह प्रेम वगैरह कुछ फीलिंग्स के आधार पर है। इसके लिए थियोलाजिकल विवेक करना कोई जरूरी नहीं है। अब यह भक्ति संप्रदाय क्यों आया, यह एक और अलग सवाल है, लेकिन फिर भी कुछ लोग मानते हैं, यह भक्ति संप्रदाय का जो कंट्रीब्यूशन है वह काफी है और उसी के शायद हमारे यहां रेनेसां कभी आया नहीं। और उस रेनेसां की वजह से साइंस नहीं आई। तो क्या आपको ऐसा कुछ लगता है कि यह बात सही हो सकती है?

इसमें थोड़ा सोचना चाहिए, लेकिन कारण दूसरे हैं रेनेसां जैसी चीज भारत में नहीं आई उसके कारण बहुत दूसरे हैं। पहला कारण तो यह है कि हमारा टाइम कांसेप्ट बाधा बन गया। पश्चिम का टाइम कांसेप्ट ही रेनेसां ला सका। पश्चिम की जो समय की धारणा है, वह एक रेखा में है, लीनियर है। हमारी जो समय की धारणा है, वह सर्कुलर है; वह चक्र में है। हमारी समय की धारणा ऐसी है कि फिर सब चीजें वापस लौट आती हैं। तो हमारी समय की जो धारणा है, उसमें ऐसा है कि जो आज है वह फिर लौट आएगा। जो कल था, वह फिर लौट आएगा। एक व्हील की तरह घूम रहा है।
जो अशोक चक्र है, वह असल में टाइम की ही हमारी धारणा है। समय घूम रहा है चाक की तरह। चूंकि चाक की तरह हमारी धारणा है इसलिए हममें हिस्टारिक सेंस नहीं है, क्योंकि जब चीजें बार-बार लौट ही आनी हैं तो कोई ईवेंट हिस्टारिक नहीं है। हिस्टारिक ईवेंट तभी होता है, जब वह अनरिपीटेबल हो। जैसे जीसस क्राइस्ट अब अनरिपीटेबल हों, तो हिस्टारिक पर्सनैलिटी हैं। लेकिन महावीर पहले भी हुए हैं अनेक बार चौबीस तीर्थंकर जैनों के; आगे भी अनेक बार होंगे। हर कल्प में चौबीस तीर्थंकर होते रहेंगे। हर कल्प में राम और रावण होते रहेंगे।
तो हमारी जो धारणा है समय की, चक्रीय होने के कारण इतिहास का बोध पैदा नहीं हुआ--एक बात। इसलिए हमने इतिहास लिखा भी नहीं। हमने पुराण लिखा। पुराण का मतलब है तो सदा होता है, सनातन है। वह बार-बार होता रहा है, होता रहेगा। लेकिन हमने इतिहास नहीं लिखा। इतिहास का मतलब है कि एक-एक ईवेंट यूनीक है।
हिंदुस्तान में कोई ईवेंट यूनीक नहीं है। इसलिए हमने कभी इतिहास नहीं लिखा। इतिहास का बोध पैदा नहीं हुआ। और क्रांति का कोई अर्थ ही नहीं है। क्रांति का अर्थ तभी है जब क्रांति ईवेंट बन सके। जब सब चीजें लौट कर आ जानी हैं, तो बदलने से फिर क्या मतलब है? तो जो बदलने का खयाल है कि चीजों को बदल डालो, अगर मुझे ऐसा पता लगे कि मैं कितना ही बदलूं, फिर चीजें वैसी हो जाएंगी, तो बदलने की क्षमता क्षीण हो जाती है। रेनेसां न आने का एक कारण तो हमारा टाइम कांसेप्ट है, जो बहुत गहरा है। और अभी भी हमारा टाइम कांसेप्ट वही है। उसके बहुत कारण हैं कि वह टाइम कांसेप्ट क्यों बना।
पश्चिम का वेदर जो है, वह अनिश्चित है। पूरब का वेदर बिलकुल सुनिश्चित है। और भारत की जो मौसम की व्यवस्था है, वह बिलकुल सुनिश्चित है, अभी धीरे-धीरे अनिश्चित हुई है, अन्यथा वह बिलकुल सुनिश्चित थी। कब वर्षा आएगी, कब गर्मी आएगी, कब सर्दी आएगी, एक सर्किल में सब घूमता रहेगा। बच्चा जवान होगा, बूढ़ा होगा; एक सर्किल में सब घूमता रहेगा। सारी ऋतुएं सर्किल में घूम रही हैं। जीवन की उम्र ऋतुओं में घूम रही है। इधर जन्म के बाद जवानी है, फिर मृत्यु है, फिर जन्म है और फिर जवानी है, फिर मृत्यु है, और ऐसा सब घूम रहा है। पश्चिम के वेदर अनसर्टेन वेदर ने उन्हें सर्किल का खयाल नहीं दिया है और हमारा वेदर बिलकुल सर्टेन था। उसमें सब सुनिश्चित था। तारीखें तय थीं और वह सब तारीखों पर घूम रहा था। उस सुनिश्चित मौसम की ऋतुओं की व्यवस्था ने हमें एक खयाल दिया घूमने का। पश्चिम में सब अनिश्चित था और सब अनिश्चित होने की वजह से यह खयाल में आया कि घटना जो आज घट गई, जरूरी नहीं कि कल घटे। अनिश्चित हो तो ऐसा भाव पैदा होगा। इस भाव ने उन्हें टाइम की एक धारणा दी जो कि लाइन में, रेखा में सीधा जा रहा है। और हर घटना यूनीक हो गई।
इसने बड़ा कीमती काम किया। एक--इसने इतना बड़ा काम किया कि परिवर्तन की आकांक्षा ही हममें न रही, क्योंकि परिवर्तन हमें दिखता ही न था। सब चीजें स्थिर थीं। स्टेंग्नेंट सोसाइटी पैदा होने का बहुत गहरे में कारण है कि परिवर्तन दिखे तो हम परिवर्तन की आकांक्षा करें। जब परिवर्तन दिखता ही न हो कभी! सूरज पूरब उगता हो, सांझ ढल जाता हो, रोज सब ऐसा ही होता हो, और सदियों तक वैसा ही रहता हो तो फिर स्टेगनेंसी पैदा होगी। उससे रेनेसां असंभव हो गया एक।
दूसरा एक कारण और हुआ। इसी सर्कुलर व्हील ने हमें एक और खयाल दिया, और वह खयाल था अनंत जन्मों का, कि एक आदमी में एक जन्म नहीं, पिछले भी जन्म थे, आगे भी जन्म हैं। वह सर्किल की वजह से हुआ, क्योंकि सर्किल का आरा अभी ऊपर है, वह लौट कर फिर ऊपर आ जाएगा। तो अभी अगर मैं पैदा हुआ हूं और मर गया हूं, अगर जन्म के बाद मौत है तो मौत के बाद जन्म होना चाहिए। वह सर्कुलर खयाल से पैदा हुआ।
पश्चिम में खयाल है एक ही जिंदगी का। वह क्रिश्चियन जो कांसेप्ट है, मोहम्मडन या क्रिश्चियन, वह एक जन्म का है। एक जन्म की वजह से इंटेंसिटी पश्चिम में जीने की आई, जो हममें कभी भी नहीं आ सकी। एक शिथिलता रही है जिंदगी की कि जब फिर जन्म लेना है तो कोई हर्जा नहीं है। अगर आज गरीब हैं तो अगले जन्म में अमीर हो सकते हैं। अगर आज तकलीफ है तो फिर अगले जन्म में तकलीफ मिट सकती है। लेकिन पश्चिम में एक इंटेंसिटी आ गई लाइफ में और ऐसा लगा कि यह तो अल्टिमेट जिंदगी है। अगर इस बार अमीर नहीं हो पाए तो फिर कभी नहीं होना है, क्योंकि मौत यानी एंड। उसके बाद कुछ उपाय नहीं है। तो अमीर होना है तो अभी होना है। प्रेम करना है तो अभी करना है। मकान बनाना है तो अभी बनाना है। एक-एक मोमेंट कीमती हो गया और इसलिए जिंदगी अगर कहीं भी अग्ली दिखाई पड़े तो उसे बदल डालना है, क्योंकि दुबारा तो जिंदगी मिलेगी नहीं।
इधर एक रिलैक्स्ड माइंड है इस मुल्क का। वह यह कह रहा है कि कोई फिकर नहीं। इतनी बार हम पैदा हुए हैं, इतनी बार प्रेम किया है कि अगर यह औरत इस बार न मिली तो अगली बार खोज लेंगे। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? मैं यह कह रहा हूं...यह नहीं कह रहा हूं कि कांसेप्ट गलत है। मैं यह कह रहा हूं कि इसकी वजह से--यह मत समझ लेना आप कि मैं यह कह रहा हूं कि अनंत जन्मों का कांसेप्ट गलत है, यह मैं नहीं कह रहा हूं।
अनंत जन्मों का कांसेप्ट होने की वजह से रेनेसां असंभव हो गया। परिवर्तन, रिवोल्यूशन का खयाल असंभव हो गया। रेवोल्यूशन वे लोग करते हैं जिनकी जिंदगी में त्वरा है, इंटेंसिटी है। हम रेवोल्यूशन के विश्वासी बन गए, क्योंकि त्वरा का कोई सवाल नहीं है। एक ग्रेजुअल डवलपमेंट है, जो हो रहा है। और इतना लंबा है कि उसमें कोई जल्दी का कारण नहीं है। इसलिए जिसको हम स्पीड कहें, वह हम पैदा न कर पाए। बैलगाड़ी चल रही है, तो कोई कठिनाई नहीं है इससे। उसका कारण है कि हमारे माइंड में स्पीड के लिए जगह नहीं है। ग्रेजुअल ग्रोथ के लिए हम तैयार नहीं है। हम बेफिक्र हैं। जैसे हम यहां बैठे हैं और मुझे पता है, कल भी है, कल भी बात कर लेंगे आपसे। लेकिन मुझे पता है कि यह रात आखिरी है, शाम आखिरी है, बात की ही लेनी है, तो एक इंटेंसिटी आएगी। सोचेंगे कल भी, कल भी बात कर लेंगे आपसे...। मुझे पता है कि यह रात आखिरी है, शाम आखिरी है तो बात कर ही लेनी है, एक इंटेंसिटी आएगी।
पश्चिम में क्रिश्चियन जो खयाल पैदा हुआ एक ही जन्म का, उसने एक इंटेंसिटी दी पश्चिम को और लिविंग को एक अर्थ दिया, जो हमारी लाइफ को कभी भी नहीं हो सकता। इसलिए स्पीड पैदा हुई और टेक्नालाजी आई। और सब चीजें अगर गलत हैं तो अभी बदल डालो, इसकी जल्दी आई। यानी ऐसा नहीं है कि कल बदल लेंगे। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं है। कल मैं नहीं रहूं, यह हो सकता है। तो पश्चिम में इन बातों के जोर के प्रभाव में रेनेसां संभव हो गया। वह पूरब में संभव नहीं हो सका।

प्रश्न: विकास भले ही यूरोप में हुआ हो, लेकिन उसका जन्म जो है, वह मिडिल ईस्ट है।

वह कहीं भी हो, मैं यह नहीं कह रहा हूं। वह कहीं भी हो, उसका जो प्रभाव-क्षेत्र है, उस प्रभाव-क्षेत्र के माइंड को एक दूसरा मौका मिला। वह प्रभाव-क्षेत्र भारत नहीं है। भारत एक दूसरे प्रभाव-क्षेत्र में है, जहां अंतहीन शृंखला का खयाल है। वह गलत है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। वह खयाल सही हो सकता है। और क्रिश्चियन खयाल गलत है। और मैं निकल कर बाहर चला जाऊं और बाहर मैं देखूं सूरज निकला है, फूल खिले हैं और मैं उसी कमरे में बैठा गुजार देता, हालांकि वह खयाल का कोई मतलब न था, लेकिन बाहर तो फूल खिले थे, वे मुझे मिल गए। कई दफा जरूरी नहीं है कि सत्य सिद्धांत ही जिंदगी को गति में ले जाएं। असत्य सिद्धांत भी जिंदगी को गति में ले जा सकते हैं।

प्रश्न: इसका मतलब यह हुआ कि आपका जो सारा आर्ग्युमेंट है यह सापेक्ष है। जैसे क्लाइमेटिक कंडिशन।

बहुत सी बातों पर है। उतने पर भी नहीं। उतने पर ही नहीं, बहुत सी बातों पर, बहुत सी बातों पर। अगर हमें यह बोध आ जाए और हम समझ लें कि हमारी धारणाओं को बनने में इन चीजों ने हाथ बंटाया, तो हम नई धारणाएं विकसित कर सकते हैं। अगर हमें यह खयाल में आए तो रिटन ऑफ हो जाते हैं। और यह हमें खयाल अब तक नहीं आया। और हर्ष इत्यादि से कुछ लेना-देना नहीं है। और वह अगर हमको खयाल आते भी रहे तो कुछ फर्क न पड़ेगा।
इसलिए मैं यह कह रहा हूं कि अगर हमारा टाइम कांसेप्ट हम बदलने को तैयार हों तो आज रेनेसां आ जाए। तो टाइम कांसेप्ट बदलने में कोई कठिनाई नहीं। इस वजह से हमें एक तरह से टाइम कांसेप्ट मिला। यह बिलकुल इंसिडेंटल बात है। पश्चिम को वह टाइम कांसेप्ट नहीं मिला। इसलिए पश्चिम ने एक तरह की जिंदगी जीयी, हमने एक तरह की जिंदगी जीयी। और कुछ न पूछो, क्योंकि इतने लंबे मामले हैं...! जैसे आज है हालत--आज हालत यह है कि अगर दुनिया में एटामिक वार हो तो संभावना इस बात की है कि सिर्फ एशिया और अफ्रीका के लोग ही बच पाएंगे। यानी मैं यह कह रहा हूं कि यह मामला इतना जटिल है, अगर आज एटामिक वार हो तो सिर्फ विलेजेस बच पाएंगे। यानी मैं यह कह रहा हूं कि यह मामला इतना जटिल है, अगर आज एटामिक वार हो तो सिर्फ विलेजेस बच पाएंगे, सिटीज तो नष्ट हो जाएंगे। लंदन तो नहीं बच सकता, न्यूयार्क तो नहीं बच सकता; अमरीका की कोई सिटी नहीं बच सकती। अगर एटामिक वार हो जाए तो यह मजे की बात है कि हो सकता है, बस्तर के निवासी बच जाएं।
अगर एटामिक वार हो जाए दस साल के भीतर, तो सिर्फ पूरब के एकदम अविकसित लोग ही बचेंगे। और हो सकता है: वे कहें, यह तो बहुत अच्छा हुआ; हम बचे और सब मर गए! उसका कारण यह होगा कि पश्चिम ने जो विकास किया साइंस का, उसने सब सिटिज बना ली; विलेजेस विदा हो गए। तब पीछे इतिहास लिखने वाला यह कह सकता है कि भारतीयों की धारणा बड़ी अच्छी थी...छोटे-छोटे गांव में रहना, बड़ी मशीन न लाना। ये देखो बच गए, और पश्चिम पूरा मर गया। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जिंदगी इतनी इंटररिलेटेड है कि कुछ नहीं कहा जा सकता। हम सिर्फ तथ्य की बात कर सकते हैं। तथ्य यह है। मैं इसमें जजमेंट नहीं दे रहा। तथ्य यह है कि भारत में ऐसा हुआ, टाइम कांसेप्ट सर्कुलर बना। पश्चिम में लीनियर बना!

प्रश्न: और यह क्लाइमेट होते हुए भी विचार की मदद से हम बहुत कुछ कर सकते हैं।

हां-हां, क्लाइमेट अब कुछ बाधा नहीं है। क्लाइमेट तभी तक बाधा थी, जब तक हम दूसरे विचारों से अपरिचित थे। तक कोई उपाय ही न था। करते भी क्या हम? भारत एक कुएं में बंद था। भारत का विचारक वही कर सकता था, जो उसे दिखाई पड़ रहा था। लेकिन आज जब हम सारी दुनिया के कल्चर्स के करीब आए तो पहली दफे पता चला कि और ढंग के विचार भी हो सकते हैं। यह भी सारी दुनिया से संपर्क-बोध का परिणाम है। वह नहीं था पहले, आज संभव हो गया।
आज अगर हमें टेक्नालाजी विकसित करनी है तो हमें पश्चिम से टेक्नालाजी उधार नहीं लेनी पड़ेगी, उनका टाइम कांसेप्ट भी लेना पड़ेगा। और अभी हम क्या कर रहे हैं? अभी हम एक बेईमानी में लगे हैं। अभी हम यह कहते हैं कल्चर तो हम हमारा रखेंगे, और टेक्नालाजी तुम्हारी ले लेंगे। और हमें पता नहीं है कि हमारा जो कल्चर है, उसमें वह टेक्नालाजी फिट होने वाली नहीं है। हम यह कहते हैं कि हम अपना अध्यात्म तो अपना रखेंगे, हम तुमसे साइंस ले लेंगे। केमिस्ट्री तुम्हारी पढ़ लेंगे, फिजिक्स तुम्हारी पढ़ लेंगे, लेकिन आत्मा-परमात्मा की हमारी जो धारणा है, वह हम अपनी रखेंगे। मेरा अपना मानना है, इन दोनों के बीच इनकांसिस्टेंसी है, क्योंकि हमारी जो धारणाएं हैं, या तो उन धारणाओं का टूटना हो जाएगा साइंस के आते ही, और या फिर हम साइंटिफिक न हो पाएंगे, उन धारणाओं को बचाना है तो।

प्रश्न: प्रोफेसर गैलब्रेथ जो हैं उन्होंने एक रिव्यू लिखते हुए "एनकाउंटर' पत्रिका में कुछ वर्ष पहले ऐसा लिखा था कि जापान में क्या हुआ कि वे लोग गुलाम नहीं थे पालिटिकली, और पश्चिम का जब आक्रमण आया, पश्चिम की हवा जब आई तो उन लोगों के पास अवसर था चूज करने को--टु पिक एंड चूज। तो उन लोगों ने ऐसा पसंद किया कि कल्चर और भाषा तो हम अपनी रखेंगे, इनकी टेक्नालाजी की कापी हम कर लें और वह मास्टर कर लें। जब कि हिंदुस्तान के बारे में ऐसा हुआ कि जब मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश आए तो हिंदुस्तान के लोगों को ऐसा लगा कि यह भी लाजिकल कांसिक्वेंस हो सकता है कि मुगल साम्राज्य खतम हुआ, दूसरा इससे भी बड़ा साम्राज्य जो पालिटिकली, कल्चरली ज्यादा सुखी रहे, वह आया। और उन्हें सबमिट कर दिया और उनके पास वह सोच-विचार कर कोई समय ही न रहा। इसी वजह से हमारी बिहेवियर हॉफ-हॉफ है, किसी भी बात में क्लेरिटी नहीं है।

इसका कारण गैलब्रेथ जो कहते हैं वह नहीं है। इसका कारण वह नहीं है। असल में अगर हिंदुस्तान में बुद्ध सफल हो गए होते तो जो जापान में संभव हुआ वह हिंदुस्तान में भी हो जाता। उसका कारण ग्रैलब्रेथ जो कहते हैं वह नहीं है। उसका कारण यह है कि बुद्ध ने एक नया खयाल दिया। हिंदुस्तान का खयाल है बीइंग का। बीइंग हमेशा स्टैटिक, ब्रह्म का खयाल है। जो हमेशा ठहरा हुआ है, उसमें कोई विकास नहीं होता; उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। वह जैसा है, वैसा है। हमारा जो खयाल है, हमारा जो सेंट्रल आइडिया है पूरे भारतीय दर्शन का, वह एक स्थिर सत्य है। सत्य--सनातन सत्य है।
बुद्ध ने एक खयाल दिया बिकमिंग का। बुद्ध ने कहा, सनातन और शाश्वत कुछ भी नहीं है। परिवर्तन ही एकमात्र शाश्वत सत्य है, कांसटेंट चेंज ही सत्य है। और बुद्ध टिक न सके। उनको तो हमने उखाड़ फेंका इस मुल्क में, क्योंकि हमारी पूरी धारणा के खिलाफ पड़ा था यह। यह परिवर्तन का खयाल था। चीन और जापान में बुद्ध को स्वीकार कर लिया। बुद्ध की स्वीकृति के साथ ही परिवर्तन स्वीकृत हो गया। और जब पश्चिम से आई हवा तो जापान परिवर्तन के लिए तैयार था।
परिवर्तन की फिलासफी हो गई, क्योंकि बुद्ध ने कहा, "एवरीथिंग इज़ इन कांसटेंट फ्लक्स।' सब चीजें परिवर्तित हो रही हैं। जो पकड़ने की कोशिश करेगा कि कुछ रुक जाए, वह मर जाएगा। रुक कुछ सकता ही नहीं। गंगा बह रही है, बही जा रही है। कल जो गंगा थी वह आज नहीं है। तो जापान के माइंड में बिकमिंग का खयाल था और हिंदुस्तान के माइंड में बीइंग का खयाल था। तो जापान तो फौरन एब्जार्ब कर गया। उसने कहा, परिवर्तन तो जीवन है। वह बदलने के लिए तैयार था।
हमारा जीवन तो सनातन और शाश्वत सत्य है। हम उसे बदल नहीं सकते। हम तो वही रहेंगे, जो हम थे। हमने पूरी कोशिश की कि हम वही रहें, जो हम हैं। मुगलों के आने पर भी हमने कोशिश की कि हम वही रहें जो हमें हैं। हमने इस्लाम से कुछ भी नहीं सिखा। सीखा ही नहीं। इस्लाम से बहुत कुछ सीखा  जा सकता था। लेकिन हमने कहा, हम जो हैं वही रहेंगे। परिवर्तन हम मानते नहीं। तो हमने इस्लाम को बाहर रखा। उसको म्लेच्छ कह करके दरवाजे के बाहर खड़ा कर दिया। उसे हमने भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। उससे हम कुछ सीख सकते थे क्योंकि वह जूडो-क्रिश्चियन ट्रेडीशन ला रहा था इस मुल्क में, और इस मुल्क के जन को बहुत कुछ कीमती चीजें दे सकता था जो हमने बंद कर दीं।
कठिनाई यह थी कि इस्लाम जब इस मुल्क में आया तो जिनके हाथ से आया, वे हमसे बहुत गरीब और पिछड़े हुए लोग थे। भगोड़े थे, खानाबदोश थे, हमसे पिछड़े हुए थे; तो कल्चरली हमारा अहंकार भारी था। हमने उनसे सीखने का सवाल ही नहीं उठाया। इस्लाम ने हमसे बहुत कुछ सीखा हिंदुस्तान से, हमने उनसे कुछ नहीं सीखा। हमने दरवाजा बंद कर दिया था। क्योंकि हमसे पिछड़े हुए लोग अगर जीत भी गए थे तो कोई बात नहीं। हमारा भाग्य है कि हम गुलाम हो गए, लेकिन कल्चरली तो हम ऊपर थे। हमने मुसलमान से कुछ न सीखा।
फिर अंग्रेज आए। अंग्रेज के साथ भी सीखने में हमने बहुत जद्दोजहद की। हमने सीखना नहीं चाहा, हमने सब तरफ से उपाय किए। वह तो अंग्रेज की जबरदस्ती थी कि हमें सिखाने की। मुसलमान ने कभी हमें सिखाने की भी फिकर नहीं की; इसलिए मुसलमान का एम्पायर भी ज्यादा दिन टिका। और अंग्रेज अपनी ही भूल से मरा, क्योंकि जो उसने सिखाया, वही उससे लड़ने का कारण बना। नहीं तो हम उनसे लड़ते भी नहीं कभी।
अंग्रेज यहां हजार साल तक हम पर हुकूमत कर सकता था, अगर उसने हमें कुछ सिखाने की कोशिश न की होती। तो हम उससे भी दूर खड़े रहते। हम अपने में जीते रहते, वह हुकूमत करता रहता। अंग्रेज ने हमें सिखाने की कोशिश की और उसका कारण यह था...। और मुसलमान ने हमें सिखाने की कोशिश नहीं की थी क्योंकि वह पिछड़ा हुआ कल्चर था।
अंग्रेज जब आया तो वह हमसे सुप्रीम कल्चर था। सब हालतों में वह हमसे आगे था--धन में, ताकत में, सौंदर्य में, स्वास्थ्य में, सबमें आगे था, ऊंचाई में, सब में आगे था। वह जब आया तो वह गौरवांवित था। उसने हमें, ने केवल हुकूमत करना चाही, बल्कि हमें कुछ शिक्षित भी करना चाहा। शिक्षित होने का मतलब था कि वह टीचर होने की हैसियत रखता था। वह सोचता था, इनको सिखाना है, इनको कल्चर्ड करना है, सिविलाइज करना है। उसने हमें सिखाने की कोशिश की।
उसकी सिखाने को हमने रेसिस्ट किया। हमने सब तरह से विरोध किया कि हम सीखने से बच जाएं। अगर हमने सीखा भी तो मजबूरी में सीखा, इसलिए हॉफ-हार्टेट हो गए। क्योंकि हम सीखने को तैयार कभी भी न थे, हमें जबरदस्ती सिखाने की कोशिश की थी। हम सीखना न चाहते थे, लेकिन स्थितियों ने मजबूर किया कि नौकरी नहीं मिलेगी, वह नहीं मिलेगा, वह न मिलेगा। हमको सीखना पड़ा। हॉफ-हार्टेट हमने सीखा। तो हम भीतर से वही बने रहे।
हमने ऊपर से टाई लगा ली और भीतर जनेऊ डाले रहे! इधर हमने टाई भी दिखला दी कि हम बिलकुल सीख गए हैं, हम साहब हैं। भीतर हमने जनेऊ भी रखा है। बाथरूम में हमने कान पर जनेऊ चढ़ा कर एकांत में, अपनी पेशाब भी कर ली। हमने दोनों काम सम्हाल लिए। हम भीतर से पक्के वही रहे, जो हम थे। तुम हमको क्या बदलोगे? और बाहर से हमको बदलना भी पड़ा, क्योंकि बिना बदले जीना मुश्किल हो गया। इसलिए एक डिवाइडेड माइंड हिंदुस्तान में पैदा हो गया। वह जापान में नहीं हुआ। जापान परिवर्तन के लिए तैयार हो गया।

प्रश्न: क्या आप कोई वैल्यू जजमेंट करते को तैयार होंगे, जो कि हिंदू ट्रेडीशन या इस्लामिक से इनहेरेंटली इनफीरियर है?

यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जूडो-क्रिश्चियन कल्चर से टेक्नालाजी विकसित हो सकती है--अभी। लेकिन पच्चीस साल बाद क्या होगा, कहना मुश्किल है। क्योंकि जितनी टेक्नालाजी विकसित हुई है, उतना मेंटल टेंशन विकसित हो गया है साथ। और उनका आदमी आज यहां गुरु खोजने आ रहा है पूरब में। मैं आपसे यह कह रहा हूं, ये दोनों कल्चर अलग हैं। इन दोनों की इनहेरेंट पोटेंशियलिटी अलग है। मैं वैल्यू जजमेंट नहीं देता। मैं यह कहता हूं कि पश्चिम के कल्चर से टेक्नालाजी विकसित हो सकती है, लेकिन मेंटल पीस नहीं। पूरब के कल्चर से मेंटल पीस विकसित हो सकती है, लेकिन टेक्नालाजी नहीं। और इसलिए हालत ऐसी है कि अभी हम पीड़ित हैं। लेकिन पचास वर्ष में सारा पश्चिम पूरब की तरफ देखने लगेगा कि योग क्या है? मेडिटेशन क्या है? ध्यान क्या है? क्योंकि हम सारे जा रहे हैं, क्योंकि अकेले टेक्नालाजी को क्या करिएगा? मैं यह कह रहा हूं, ये दोनों कल्चर बेसिकली अधूरे हैं। उससे सिर्फ टेक्नालाजी विकसित हो सकती है, इससे सिर्फ स्प्रिचुअलिटी विकसित होती है। और इसलिए भविष्य का कल्चर कुछ ऐसा होगा कि जो पश्चिम के कल्चर से टेक्नालाजी ले लेगा और पूरब के कल्चर से स्प्रिचुअलिटी ले लेगा। तो भविष्य एक अर्थ में यूनिवर्सल और टोटल हो सकेगा। मैं कोई तौल नहीं सकता।

प्रश्न: आपने यह जो मिश्रण किया है बातों का, वह तो बहुत अच्छा है, लेकिन इसमें मेंटलिटी ऐसी लगती है शायद कि हैविंग द बेस्ट ऑफ दी वर्ल्ड।

नहीं, यह सवाल नहीं है असल में उसके सिवाय कोई उपाय नहीं है; उसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। आज पश्चिम का जो श्रेष्ठतम मस्तिष्क है उसकी एक ही चिंता है कि टेक्नालाजी ने जो दुनिया पैदा कर दी है, उससे आदमी को कैसे बजाएं? सारे श्रेष्ठतम मस्तिष्क की इस वक्त एक ही चिंता है कि एंटी-टेक्नालाजी ने जो दुनिया बनाई है उसमें कहीं आदमी मर न जाए! न रोटी है, न खाना है--कहीं आदमी खतम न हो जाए।
दोनों ट्रेडीशंस उस जगह पहुंच गई हैं, जहां आदमी खतम हो सकता है विभिन्न मार्गों से। डेड एंड आ गया है? और अब इसलिए इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि हम सोचें कि एक कांप्लिमेंटरी कल्चर कैसे विकसित हो सकता है, जिसमें हम दोनों बातों की फिकर रख सकें कि टेक्नालाजी बाहर के जगत को सम्हाल सकें--इसके सिवाय कोई सम्हाल नहीं सकता--और भीतर के जगत को सम्हालने के लिए भी एक रिलीजस माइंड पैदा कर सकें। अब तक यह संभव नहीं था कि दोनों मिलें। अब ये मिल सकते हैं। क्योंकि दोनों का इनहेरेंट अधूरापन सिद्ध हो गया है। अब तक यह कभी सिद्ध ही नहीं हुआ था।
दोनों का खयाल था कि हम पूरे हैं। पश्चिम तीन सौ साल में बड़े गर्व से भरा हुआ था कि साइंस जो है वह लास्ट वर्ड है, अब इसके आगे कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन वह गर्व एकदम खंडित हो गया। वह एकदम गर्व नीचे गिर गया। हिंदुस्तान भी तीन हजार साल से इस गर्व से भरा हुआ था कि स्प्रिचुअल इज़ द लास्ट वर्ड, लेकिन हमको भीख मांगनी पड़ गई; वह गर्व एकदम खंडित हो गया। दोनों कल्चर का अधूरा जो अहंकार था, वह खंडित हो गया। इससे एक उपाय बनता है अब कि कम्युनिकेशन हो सकती है दोनों के बीच। पूरब को सीखना ही पड़ेगा पश्चिम से सारा विज्ञान और अपने भीतर उन धारणाओं को जगह देनी पड़ेगी जिससे विज्ञान विकसित हो सके। और पश्चिम को पूरब से सीखना ही पड़ेगा अध्यात्म।

प्रश्न: शांति जो है मन की, उसके लिए ईश्वर का खयाल जरूरी है?

नहीं; बिलकुल नहीं। असल में मन शांत हो तो ईश्वर का खयाल आना शुरू होता है। ईश्वर के खयाल के लिए शांति जरूरी है।

प्रश्न: लेकिन सहारा ढूंढने की जरूरत होती है।

वह अशांत चित्त की अवस्था है--वह अशांत चित्त की है। और अशांत चित्त ईश्वर को कभी नहीं जान सकता।

प्रश्न: आप जिस धर्म की बात करते हैं, उस धर्म में रिचुअल, मिथ आदि बातें उसमें नहीं होती हैं?

नहीं, बिलकुल नहीं होती हैं।

प्रश्न: कुछ प्राब्लम आजकल ऐसा है कि क्या हम रिचुअल के बिना, सिंबल के बिना, मिथ के बिना जी सकेंगे? और कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि यह सब पोएटिक नानसेंस है!

नहीं, यह पोएटिक नानसेंस जरा भी नहीं है, और हम सिंबल और रिचुअल के बिना जी भी नहीं सकते, लेकिन अतीत के रिचुअल और सिंबल हमारे भविष्य के काम नहीं पड़ने वाले हैं। भविष्य नये सिंबल और नये रिचुअल खोजेगा। लेकिन मेरी दृष्टि है कि रिलीजस माइंड का रिचुअल से कोई संबंध नहीं है। रिलीजस माइंड रिचुअल से बिलकुल मुक्त हो जाता है। रिलीजस माइंड का कोई संबंध नहीं है रिचुअल से। लेकिन साधारण मन का रिचुअल से बड़ा संबंध है; बड़ा संबंध है।
साधारण माइंड बिना रिचुअल के नहीं जी सकता। साधारण का मेरा मतलब यह है कि जो रिलीजस नहीं है। और किसी अर्थ में साधारण नहीं कह रहा हूं। साधारण इस अर्थ में कि जो अभी रिलीजस नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ मैं लोअर कर रहा हूं उसको। बहुत इंटेलेक्चुअल आदमी हो सकता है, रिलीजस नहीं है।
रिलीजस मैं उस आदमी को कह रहा हूं जो टोटल लिविंग जी रहा है--न शरीर को इनकार करता है, न मन को इनकार करता है, न आत्मा को इनकार करता है; इनकार करता ही नहीं। जो सब तलों पर इकट्ठा जीने का संयोग खोज रहा है। रिचुअल जरूरी रहेगा, सिंबल जरूरी रहेगा, लेकिन भविष्य के सिंबल--स्कल्पचर, आर्ट, पेंटिंग और काव्य के सिंबल होंगे, रिलीजन के नहीं। जैसे कि आदमी को मूर्ति बनाना है, मैं मानता हूं कि कुछ लोग बिना मूर्ति बनाए तृप्त नहीं होते और कुछ लोग बिना मूर्ति देखे तृप्त नहीं हो सकते हैं। लेकिन मूर्ति राम की हो या हनुमान की, यह जरूरी नहीं है। और भविष्य की मूर्ति राम और हनुमान की नहीं होगी, लेकिन मूर्ति तो बनती रहेगी। लेकिन अब रिलीजन से हट कर वह आर्ट्स का सिंबल होगा।
और मेरा मानना है कि खजुराहो या अजंता या एलोरा में जिन्होंने मूर्तियां खोदी हैं, उन्होंने सिर्फ रिलीजन के नाम पर आर्ट का काम किया है, और कोई उपाय न था पिछले दिनों में, कोई मार्ग नहीं था। एक मंदिर पर ही मूर्ति खुद सकती थी, क्योंकि मंदिर पर ही लोग खर्च कर सकते थे! एक आर्टिस्ट के लिए मुसीबत थी कि वह क्या करे? तो मजबूरी उसको यहां तक थी, उसको सेक्स की तो, मैथुन की तो प्रतिमा खोदनी है, लेकिन मंदिर पर ही खोदी जा सकती है, क्योंकि और कोई उपाय न था। और कोई पैसे देने को राजी नहीं था, कोई खर्च करने को नहीं था। उसने मंदिर पर मैथुन की प्रतिमा भी खोद दी।
लेकिन जैसे-जैसे हमारा मन आगे बढ़ेगा, विकसित होगा, वैसे-वैसे आर्ट्स, पोएट्री उसमें सिंबल्स जगह लेना शुरू करेंगे। फिल्म है, वह भी सिंबल है। नये ड्रामा होंगे नई कविताएं होंगी, और शायद नये डायमेंशंस में हम और नई चीजें खोज लेंगे जो कि काम करेंगे। जैसे कि समझ लीजिए, जंगली जाति है, वे भगवान को बीच में रख कर चारों तरफ नाच रहे हैं। अब उस भगवान को व्यर्थ रखना है, लेकिन उसके लिए बिना उसके नाचना मुश्किल है। अगर हम बिना उसके नाच सकते हैं, तो उसको विदा कर सकते हैं। नाच जारी रहेगा।

प्रश्न: क्या आपको लगता है कि पिछले सौ दो सौ साल में पश्चिम ने अपने नये सिंबल ढूंढ लिए हैं?

ढूंढ रहे हैं, बिलकुल ढूंढ रहे हैं। पिकासो नये सिंबल्स ही खोज रहा है। सारी पश्चिम की पेंटिंग नये सिंबल्स खोज रही है, पोएट्री नये सिंबल्स खोज रही है। और इतने नये खोज रही है, जितने हमने कभी भी न खोजे थे। और इसलिए पुरानी सोसाइटी के आदमी की समझ के बाहर है कि यह क्या मामला है? यह कैसा चित्र खड़ा है? वह नई इंडस्ट्रियल सोसाइटी नये सिंबल्स खोज रही है। टेक्नालाजीकल सोसाइटी नये सिंबल्स खोज रही है। सिंबल्स तो हम खोजते रहेंगे। यह तो जारी रहेगा।
लेकिन धर्म का सिंबल्स से कुछ लेना-देना नहीं है, रिचुअल से कुछ लेना-देना नहीं है। रिचुअल तो हम खोजते रहेंगे। जब आप रास्ते पर मुझे मिलते हैं तो मैं खड़े होकर नमस्कार करता हूं, वह भी रिचुअल है। रात जब आप बिस्तर पर जाते हैं और एक सिगरेट पीते हैं और बिस्तर पर लेटते हैं, वह भी रिचुअल है। बिना सिगरेट पीए आप न सो सकेंगे। एक छोटा बच्चा है, वह अपना अंगूठा मुंह में देकर सो जाता है, तो नींद आ जाती है। अंगूठा बाहर खींच लो तो नींद टूट जाती है। वह भी एक रिचुअल है उसका। वह अपना रिचुअल रोज पूर कर लेता है। अंगूठा मुंह में दिया कि रिचुअल से एसोसिएशन--नींद आ गई। आपने सिगरेट पी ली, नींद आ गई। एक आदमी ने एक भजन कर लिया नींद आ गई। किसी ने एक माला फेर ली और नींद आ गई। ये सब रिचुअल हैं।

प्रश्न: क्या ऐसा मानना जरूरी होगा कि हम लोग अभी पच्चीस-पचास साल इंटेंसली पहले राष्ट्रीय होना सीखें, इसके बाद इंटरनेशनलिज्म की बात करेंगे? साथ में दूसरी बात भी--पश्चिम में रिअलिस्टिक जो आर्ट है, उसमें एक हद तक लोग पहुंचे हैं। वहां के आर्टिस्टों को और वाचक को ऐसा लगता है कि अब बहुत हो गया यह रिअलिस्टिक! रिप्रेजेंटेंशनल आर्ट तो गई अब, रिअलिज्म भी गया। अब कुछ ज्यादा एब्सटे्रक्ट होना चाहिए। हमारे यहां के भी लेखक, कलाकार और चित्रकार वैसा ही मानते हैं कि रिअलिज्म तो पुरानी बात हो गई। लेकिन कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कुछ फोनी है, इंपोर्टेड है, इमिटेशन है। तो क्या इस तरह विचार करना राष्ट्रीयता के बारे में या कला के बारे में या इकॉनामिक डवलपमेंट के बारे में क्या सही होगा?

हां; सही होगा। दो बातें खयाल लेनी चाहिए। एक तो यह, कि अगर सच में ही पिछली स्टेज पूरी नहीं की गई है, तो अगली स्टेज फोनी मालूम पड़ेगी; फोनी होगी ही। उसमें प्राण नहीं हो सकते, क्योंकि उसमें जो प्राण आते हैं, वह पिछले स्टेज से ही आते हैं। अगर रिअलिज्म से लोग ऊब गए हैं तो ही एब्सट्रेक्ट आर्ट में रस लेने के लिए रिअलिल्म से ऊब जाना पहली शर्त है और रिअलिज्म को आउट कर जाना जरूरी शर्त है।
यह भी सच है कि जो लोग अभी राष्ट्रीय ही नहीं है, उनका अंतर्राष्ट्रीय होना बहुत कठिन है। क्योंकि जो तेलंगाना में उलझे हैं, मध्य प्रदेश में उलझे हैं, गुजरात में, महाराष्ट्र में उलझे हैं, उनको अभी भारत का भी विजन नहीं है। इतना भी विजन नहीं है कि भारत को इकट्ठा देख पाएं। वे सारी पृथ्वी को एक देख पाएंगे, असंभव है। यह बात भी सच है, एक राष्ट्रीयता का युग पार करना ही पड़ेगा, अंतर्राष्ट्रीयता होने के पहले, यह भी सच है।
लेकिन मेरा मानना है, दूसरी बात जो कहता हूं वह यह कि जब हम पूरे राष्ट्र की बात सोचते हैं, तब हम व्यक्ति को बिलकुल भूल जाते हैं। कुछ व्यक्ति हो सकते हैं जो रिअलिज्म से ऊब गए हैं। उनसे हम हक नहीं छीन सकते कि वे एब्सट्रेक्ट आर्ट में न जाएं। और उनके लिए वह फोनी भी नहीं है, आपके लिए फोनी होगा--दर्शक के लिए। लेकिन अगर मैं भी रिअलिज्म से ऊब गया हूं--मैं ऊब सकता हूं--भला मॉसेस न ऊबी हों--तो मेरे लिए तो फोनी नहीं है, सारे जगत के लिए फोनी हो, हो; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे लोग हो सकते हैं मुल्क में, जिनको राष्ट्रीयता भी उबाने वाली मालूम पड़ रही है। तो उनको तो अंतर्राष्ट्रीयता की बात करनी ही चाहिए।
असल में जब हम इकट्ठे मुल्क की बात करते हैं तो हम स्वभावतः छोड़ देते हैं व्यक्तियों को, लेकिन व्यक्तियों को भी नजर में लेना पड़ेगा। आज जो लोग भी थोड़े से सोच-विचार से भरे हुए हैं, वे तेलंगाना से बंधे हुए हैं। उनका भारत से बंधना भी मुश्किल है। और मेरा मानना है कि उनका भीतर से बंधना मुश्किल है, इसलिए तेलंगाना से बंधने में कौन सी दिक्कत है? जरा वह और सिकुड़ कर बंधने की बात होती है। उधर भी बंध सकते हैं।
बहुत तरह के व्यक्ति मुल्क में होंगे। बहुत तलों पर काम जारी रहेगा, लेकिन स्टेजेज मुल्क को तो पार करनी पड़ती हैं। एज एक मॉस, तो स्टेजेज पार करनी पड़ती हैं। मॉस के लिए बेमानी है। आज एब्सट्रेक्ट आर्ट का कोई मतलब नहीं है। अगर हम पिकासो की पेंटिंग एक गांव में जाकर रख दें, तो एकदम बेमानी है। इसमें गांव वालों का कोई कसूर नहीं है। बीस की स्टेजेज नहीं हुई हैं पार। इसलिए गांव का आदमी कहां से पिकासो को समझ पाएगा? लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कुछ लोग पिकासो को नहीं समझ पाएंगे। कुछ लोग समझ पा सकते हैं। इसलिए मुल्क में बहुत तलों पर एक साथ ग्रोथ चलती है।
अब मेरी समझ यह है कि लोग कैपिटलिज्म से आउट-ग्रो कर गए हैं, उनको छोटे-छोटे एक्सपेरिमेंट करने चाहिए; पूरे मुल्क में नहीं। अगर हम दस मित्र हैं और उनको लगता है कि कैपिटलिज्म बेवकूफी है, तो एक छोटा कम्यून बना कर एक्सपेरिमेंट करें। मुल्क में दस-पचास कम्यून हों। जो लोग सोशलिज्म का प्रयोग कर सकते हैं, वे करें। और वह प्रयोग भी महत्वपूर्ण होगा। चारों तरफ के लोगों के खयाल में आ सके कि यह हो सकेगा, यह संभव है। लेकिन पूरे मुल्क को सोशलिस्ट पैटर्न में ढालने का मतलब खतरनाक होगा। खतरनाक इसलिए होगा कि हम कैपिटलिज्म को आउट-ग्रो नहीं किए, बहुत मामलों में तो हम फ्यूडलिज्म को भी आउट-ग्रो नहीं किए। इधर हमारी बड़ी झंझटें हैं। बहुत सी सदियां एक साथ चल रही हैं, इसलिए कठिनाई है।

प्रश्न: अगर यूरोप में बल्गेरिया जैसा या फिनलैंड जैसा छोटा सा मुल्क हो सकता है और अपना अस्तित्व अपने आप टिका रख सकता है तो क्या यह अच्छा नहीं होगा कि अगर हमारे यहां सत्रह जो भाषाएं हैं, उसके मुताबिक सत्रह स्वतंत्र स्टेट बना दें तो ज्यादा एक्सपेरिमेंटेशन हो सके और सामान्य आदमी का कारोबार अपनी ही भाषा में चलने से ज्यादा अच्छा हो सके?

असल में बल्गेरिया या यूरोप में फिनलैंड जैसे छोटे-छोटे मुल्क यूरोप के मुल्क हैं, एशिया के नहीं। और होता क्या है, जैसे-जैसे कोई समाज समृद्ध होता है, वैसे-वैसे इंडिविजुअलिटी विकसित होती है। और छोटे ग्रुप में इंटेंसली जीने की जो बात है वह बहुत विकसित समाज में संभव है, अविकसित समाज में संभव नहीं है। अविकसित समाज तो जितना बड़ा समाज हो, उतना सिक्योर अनुभव करता है। जितना विकसित माइंड हो उतना अकेला हो सकता है। जितना अविकसित माइंड हो, वह चार का हाथ पकड़ कर ही खड़ा हो तो उसको लगता है कि सुरक्षा है, नहीं तो खतरा हो जाएगा।
भारत अभी उस हालत में नहीं है कि अगर हम इसको टुकड़ों में तोड़ें तो कोई फायदा हो। टुकड़ों में तोड़ने से भारत को नुकसान ही होगा। भारत वैसे ही शक्तिहीनता अनुभव करता है और इंफीरिअरिटी अनुभव करता है। छोटे टुकड़े और इंफीरिअर हो जाएंगे। चीन जैसे मुल्क के सामने उनकी जान और भी निकल जाएगी, कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। इतना बड़ा मुल्क भी शक्तिशाली अनुभव नहीं करता। छोटे टुकड़े और शक्तिहीन हो जाएंगे। और इतना बड़ा मुल्क भी इंडस्ट्रलाइज नहीं हो पा रहा है, तो छोटे-छोटे टुकड़े तो बिलकुल ही विलेजेज हो जाएंगे और एकदम प्रिमिटिव हो जाएंगे। उनकी तो ताकत ही नहीं रह जाएगी, दुनिया के साथ खड़े होने की।
भारत में यह संभव नहीं हो सकता है। लेकिन अगर भारत टेक्नालाजी विकसित हो तो मेरा मानना है, इतने बड़े मुल्क की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन टेक्नालाजिकल विकास हो तो ही! और इतनी चेतना, इतनी कल्चर और इतना एजुकेशन विकसित हो कि हम छोटे टुकड़ों में रहने का मजा ले सकें और भयभीत न हों। उसके लिए बहुत बड़ी, और इस तरह की स्थिति चाहिए।
इधर मेरी समझ यह है, जैसे-जैसे व्यक्ति ज्यादा समझदार होता है, कांशस होता है, उतना छोटे टुकड़े में रहना चाहता है, क्योंकि छोटे टुकड़े में इंटिमेसि है, संबंध है, डायलाग है। बड़े टुकड़ों में भीड़ है, और मॉस है; व्यक्ति खो जाते हैं। तो जैसा विकसित आदमी होगा उतना भीड़ से बचना चाहेगा, क्योंकि भीड़ में कोई मतलब नहीं है उसके लिए। वह जब भी भीड़ से लौटेगा, तब लगेगा कि कुछ खोकर लौटा है। और जब थोड़े से लोगों के पास होगा तब लगेगा कि रिच हुआ, समृद्ध हुआ। पर यह बहुत विकसित होने की बात है।
और दुनिया विकसित होगी तो बड़े मुल्क विदा हो जाएंगे, अपने आप विदा हो जाएंगे। बड़े मुल्कों का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जहां हम छोटे-छोटे टुकड़ों में निकट हो सकेंगे, इंटिमेट हो सकेंगे, वे टुकड़े बन जाएंगे। बड़े टुकड़े भी इसलिए हैं दुनिया में कि दुनिया अभी भी प्रिमिटिव है। तो ताकत इतनी है कि कितनी बड़ी भीड़ हमारे साथ है, इतनी बड़ी ताकत है। नहीं तो काश्मीर पाकिस्तान में जाए, झगड़ा क्या है? मगर कश्मीर इतना बड़ा टुकड़ा हमारा चला जाए तो हम कमजोर हो जाते हैं। कश्मीर अकेला रहे तो झगड़ा क्या है? लेकिन हम कमजोर हो जाते हैं। वह भी हमारा प्रिमिटिव माइंड है, लेकिन इस मुल्क में संभव नहीं हो पाता।
मेरा कहना यह है कि जिस मुल्क में छोटे-छोटे टुकड़े का आग्रह इतना ज्यादा है, उस मुल्क में छोटे टुकड़े संभव नहीं हो सकते। जिस दिन छोटे टुकड़े का आग्रह न रह जाएगा, उस दिन छोटे टुकड़े संभव हो सकते हैं। यह बात उलटी लगती है, लेकिन मामला ऐसा ही है जैसा हम बैंक की बाबत कहते हैं कि बैंक उस आदमी को पैसा देती है जिसको जरूरत नहीं है। जिसको जरूरत है, बैंक उससे बचती है, क्योंकि उसको देना खतरनाक है।
यह मुल्क अगर छोटे टुकड़ों का आग्रह छोड़ दे तो फिर छोटे टुकड़ों में भी जी सकता है। अन्यथा तब तक तो नहीं जी सकता। तब तक तो हमको बड़ी एंटाएटी का बोध चाहिए। मगर हमारी चेतना नहीं पकड़ पा रही है बड़ी एंटाएटी के बोध को। नहीं पकड़ पाएगी अभी, क्योंकि उसको पकड़ने के जो भी आधार होने चाहिए, वे नहीं है।
और जो राजनीतिक नेता बातें करते हैं, मुल्क के इंटिग्रेशन की, और एकता की, वे ही राजनीतिक नेता छोटे टुकड़ों के नेता हैं। और छोटे टुकड़ों के टुकड़े होने की कांशसनेस पर उनका नेतृत्व निर्भर है। तो वे छोटे टुकड़ों के लिए शोरगुल मचाए रखते हैं--जब वे कहते हैं कि यह जिला मैसूर में हो कि महाराष्ट्र में हो। उधर दिल्ली में बैठ कर वे विचार करते हैं कि इस पर इंटिग्रेशन कैसे हो? असल में हिंदुस्तान की पूरी पालिटिक्स खंडों की पालिटिक्स है। मेरी दृष्टि में तो हिंदुस्तान से सब प्रांत विदा कर देने चाहिए। उसे जोनल कर देना चाहिए। तो ही नेशनल इंटिग्रेशन हो सकता है। क्योंकि पालिटिक्स जोनल हो जाएगी।
जब तक हिंदुस्तान की पालिटिक्स लोकल होगी, तब तक आप इंटिग्रेशन नहीं ला सकते। अब महाराष्ट्र की पालिटिक्स महाराष्ट्र होने पर निर्भर है और मराठी के अहंकार को बढ़ाने पर निर्भर है। और वह मराठी नेता, जिनको महाराष्ट्रीयन की ताकत है, वह बड़ा है। वह कैसे मान ले कि सारा मुल्क एक है? और जिला मैसूर में रहे कि महाराष्ट्र में, क्या फर्क पड़ता है? अब मध्यप्रदेश का नेता मध्यप्रदेश की ताकत पर निर्भर है। वह कहता है, नर्मदा का पानी हमारा है; गुजरात का कैसे हो सकता है? उसकी ताकत इस पर है। उसका वोटर उसको इसलिए वोट दे रहा है कि नर्मदा का पानी हमारा है। वह इस पर तो बेचारा खड़ा हुआ है, फिर वह मंच पर बात कर रहा है कि नेशनल इंटिग्रेशन होना चाहिए।
मेरे हिसाब में, भारत इतना प्रिमिटिव है कि अभी स्टेट में बांधने योग्य नहीं है। अभी जोनल होना चाहिए। एकमिनिस्ट्रेटिव--जोनल; और सीधी एक सेंट्रल गवर्नमेंट होनी चाहिए, तो ही इंटिग्रेशन हो पाएगा। यहां पचास गवर्नमेंट की जरूरत ही नहीं है--स्टेट की। गवर्नमेंट एक ही होनी चाहिए; राजधानी एक ही होनी चाहिए। और उस एक राजधानी और उस एक गवर्नमेंट को ध्यान में रख कर जब नेता पालिटिक्स करेगा तो इंटिग्रेशन आ जाएगा, नहीं तो नहीं आ सकता है।

प्रश्न: क्या राष्ट्रभाषा का सवाल है?

भाषा का सवाल है। मेरा मानना है कि भारत को राष्ट्रभाषा के लिए जोर नहीं देना चाहिए। वह उपद्रव का कारण है। जहां इतनी भाषाएं हों, वहां राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। यह बेहूदी है बात, क्योंकि वह किसी न किसी भाषा की मालकियत होगी, इम्पीरियलिज्म होगा, और किसी भाषा का दबाना होगा। इसलिए भारत में राष्ट्रभाषा की बात ही नहीं करनी चाहिए। भारत में जो जिस रीजन की जो भाषा है वह भाषा उपयोग में आए, और सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा की हैसियत मिल जानी चाहिए। और संसद भर का प्राब्लम है, तो संसद में आज तो मैकेनिकल डिवाइस हो सकती है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। नेशनल लैंग्वेज की बात ही बंद कर देनी चाहिए। और हम बंद कर दें तो शायद बीस साल में नेशनल लैंग्वेज विकसित हो जाए। अगर हम बंद न करें, तो विकसित हो ही नहीं सकती।
इस मुल्क में नेशनल लैंग्वेज कभी नहीं बन सकेगी, अगर हमने बातचीत जारी रखी। और अगर हमने कहा, हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, फलानी भाषा होनी चाहिए, तो हिंदी कभी राष्ट्रभाषा नहीं हो पाएगी। वह बात बंद कर देनी चाहिए। सबकी भाषाएं हैं, वह ठीक है। सब नेशनल लैंग्वेजेज हैं। और हम रूस के पैटर्न पर सबको स्वीकार कर लेना चाहिए और केंद्र में मैकेनिकल डिवाइस कर लेनी चाहिए जिससे बात चल जाए। इसमें कोई ऐसी झंझट की बात नहीं है। तो शायद सहज पीने से ही एक भाषा धीरे-धीरे विकसित हो जाए। फिर शायद वह हिंदी नहीं होगी, हिंदुस्तानी होगी, जिसमें तमिल के शब्द भी घुस जाएंगे, गुजराती के शब्द भी घुस जाएंगे, उर्दू के शब्द भी घुस जाएंगे, अंग्रेजी के शब्द भी रहेंगे। वह एक भाषा शायद धीरे-धीरे विकसित हो जाए।
और मेरा मानना है भाषाएं थोपी नहीं जा सकतीं, विकसित होती हैं। और जब भाषाएं थोपी जाएंगी, तो उनके खिलाफ रिएक्शन होगा।
तो गांधीजी कुछ रोग इस हिंदुस्तान को दे गए, उसमें एक राष्ट्रभाषा का रोग भी है। वह हिंदी को राष्ट्रभाषा कह कर उन्होंने झंझट खड़ी कर दी। हिंदी राष्ट्रभाषा बन सकती थी। उसमें कोई झंझट न थी। वह धीरे-धीरे फैलती चली जाती थी, लेकिन जैसे वह कांशस हो गई, तो वह जो हिंदी लीडरशिप है, वह जो कांशस हो गई हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की; अब नहीं बनेगी। हिंदी के राष्ट्रभाषा की अब कोई उम्मीद नहीं है। अब हमें पचास साल राष्ट्रभाषा की बात ही नहीं करनी चाहिए, उसको विदा कर देना है। अगर डवलप हो जाए तो ठीक; न डवलप हो, तो कोई हर्जा नहीं। कुछ बाधा नहीं बनती।

आज इतना ही।



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