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शनिवार, 30 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना-प्रवचन-09

सतगुरु करहु जहाज—(प्रवचन-नौवां)

दिनांक 29 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

पांच तत्त की कोठरी, तामें जाल जंजाल।
जीव तहां बासा करै, निपट नगीचे काल।।
दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं।
जोग-जुगति सौं पाइये, बिना जुगति किछु नाहिं।।
दरिया दिल दरियाव है अगम अपार बेअंत।
सब महं तुम, तुम में सभे, जानि मरम कोइ संत।।
माला टोपी भेष नहिं, नहिं सोना सिंगार।
सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार।।
परआतम के पूजते, निर्मल नाम अधार।
पंडित पत्थल पूजते, भटके जम के द्वार।।
सुमिरन माला भेष नहिं, नाहीं मसि को अंक।
सत्त सुकृत दृढ़ लाइकै, तब तोरै गढ़ बंक।।
दरिया भवजल अगम अति, सतगुरु करहु जहाज।
तेहि पर हंस चढ़ाइकै, जाइ करहु सुखराज।।
कोठा महल अटारियां, सुन उ स्रवन बहु राग।
सतगुरु सबद चीन्हें बिना, ज्यों पंछिन महं काग।।
दरिया कहै सब्द निरबाना!


जीसस ने कहा है: आंखें हों तो देख लो, कान हों तो सुन लो। आंखें तो सभी के पास हैं और कान भी सभी के पास हैं और निश्चित ही जीसस अंधों और बहरों से नहीं बोल रहे थे; ठीक तुम जैसे लोगों से बोल रहे थे--ऐसी ही उनकी आंखों थीं, ऐसे ही उनके कान थे। लेकिन आंख होने से ही देखना सुनिश्चित नहीं है। और कान होने से ही सुनना अनिवार्य नहीं है। आंखें रहते-रहते भी कोई चूक जाता है। कान रहते-रहते भी कोई चूक जाता है। क्योंकि एक और भी सुनने का ढंग है, और भी देखने का ढंग है--वही ढंग सारे धर्मों का सार है।
तुम्हारे घर में आग लग गयी है और बाजार में तुम्हें किसीने कहा हो कि घर में आग लग गयी, तुम यहां क्या कर रहे हो? भागोगे तुम घर की तरफ। राह पर चलते हुए लोग तुम्हें अब भी दिखायी पड़ेंगे, कोई रास्ते में नमस्कार करेगा तो अब भी दिखायी पड़ेगा--तुम अंधे नहीं हो गए हो--लेकिन फिर भी कुछ दिखायी न पड़ेगा। जिसके घर में आग लगी हो, उसे राह पर चलते लोग दिखायी नहीं पड़ते। कोई नमस्कार करेगा, सुनायी नहीं पड़ेगा। और कल अगर कोई याद दिलाएगा कि राह पर मिला था, नमस्कार की थी, आपने उत्तर भी न दिया, तो तुम क्षमा मांगोगे, तुम कहोगे--क्षमा करना, उस क्षण मैं होश में नहीं था।
तो इसका अर्थ हुआ: होश से देखा जाए तो ही दिखाई पड़ता है। बेहोशी से देखा जाए तो दिखायी नहीं पड़ता। होश से सुना जाए तो सुनायी पड़ता है। होश से जीया जाए तो जीवन परमात्मा हो जाता है। और बेहोशी में जीया जाए तो पत्थरों के अतिरिक्त यहां कुछ, हाथ न लगेगा। और हम सब बेहोश जी रहे हैं। हम ऐसे जी रहे हैं जैसे कोई नींद में चले। हम ऐसे जी रहे हैं जैसे कोई शराब पीए हुए चले।
हमारा जीवन जाग्रत जीवन नहीं है। इसीलिए दरिया तो कहते हैं कि मैं शब्द निर्वाण के कह रहा हूं, मगर तुम सुनोगे या नहीं--सब कुछ तुम पर निर्भर है।
चिकित्सक हो, औषधि हो, लेकिन बीमार दवा पीए ही न! निदान हो जाए, औषधि खोज ली जाए, इतने से ही तो कुछ न होगा। निदान तो हो चुका, बहुत बार हो चुका, आदमी की बीमारी जानी-पहचानी है, सदियों-सदियों में एक ही बीमारी से तो आदमी परेशान रहा--मूर्च्छा की बीमारी; प्रमाद की बीमारी; बेहोशी की बीमारी। नाम अलग-अलग सदगुरुओं ने अलग-अलग दिए हों भला, पर बीमारी एक है। और औषधि भी एक है। औषधि की सदियों-सदियों से ज्ञात है: जाओ!
मगर या तो तुम भोगते हो, या भागते हो, जागते कभी नहीं। भोगने वाला भी डूबा रहता और भागने वाला भी डूबा रहता। भोगी और त्यागी में बहुत भेद नहीं है, एक ही तरह के लोग हैं। एक संसार की तरह मुंह करके भाग रहा है, एक संसार की तरफ पीठ करके भाग रहा है--मगर दोनों भाग रहे हैं, जाग कोई भी नहीं रहा है। और जागने वाला सुन पाता है। और जो जाग लेता है, उसके प्राणों में अनाहत का नाद उठता है, उसके प्राणों में कृष्ण की बांसुरी बजती है, उसके प्राणों में कुरान की आयतों का जन्म होता है, उसके शब्द-शब्द भगवदगीता हो जाते है। जो जानता है, वह यह भी जान लेता है कि मैं और परमात्मा दो नहीं--अनलहक का उदघोष होता है।
पश्चिम में नयी-नयी एक खोज है--होलोग्राम। समझने जैसी खोज है। तुम अगर किसी के चार टुकड़े करो, तो तस्वीर चार टुकड़ों में बंट जाएंगी। होलोग्राम एक नयी तस्वीर की कला है। लेसर किरणों से होलोग्राम की तस्वीर उतारी जाती है। जैसे तुमने एक गुलाब के फूल पर लेसर किरणें फेंकीं और उसकी तस्वीर उतार ली। यह तस्वीर बड़ी अनूठी होती है। इसका अनूठापन इतना चमत्कारी है कि अगर तुम इसे समझ लो तो तुम्हें उपनिषदों का महावाक्य--तत्वमसि श्वेतकेतु--समझ में आ जाए। तुम्हें मसूर की वह उदघोषणा--अनलहक, मैं ईश्वर हूं--यह समझ में आ जाए। विज्ञान ने पहली बार तत्वमसि के लिए समर्थन दिया है।
होलोग्राम से उतारी गयी तस्वीर की कई खूबियां हैं।
पहली खूबी। जब लेसर किरणें गुलाब के फूल पर फेंकीं जाती हैं और तस्वीर उतारी जाती है, तो तस्वीर में फिल्म पर गुलाब नहीं आता, सिर्फ गुलाब के आसपास नाचती हुई लेसर किरणों की तरंगें आती है--गुलाब नहीं आता! जैसे तुम झील में पत्थर फेंको और झील में तरंगें उठें और फिर तुम तस्वीर उतारो, तो पत्थर की तो कोई तस्वीर आएगी नहीं, पत्थर तो कभी का जाकर झील की तलहटी में बैठ गया, लेकिन लहरों पर उठती हुई वर्तुलकार तरंगें--उनकी तस्वीर आएगी। ऐसे ही लेसर किरणें जब किसी भी विषय पर फेंकीं जाती हैं, तो विषय की तो पकड़ नहीं आती फिल्म में, लेकिन विषय के चारों तरफ उठती हुई वर्तुलकार तरंगों का चित्र आता है। मगर यह चित्र बड़ा अनूठा है। अगर इस चित्र में से फिर लेसर किरणों को डालों तो परदे पर गुलाब का फूल आता है।
और भी खूबी की बात है, अगर इस फिल्म को तुम दो टुकड़ों में तोड़ दो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, हर टुकड़े के द्वारा पूरा गुलाब का फूल परदे पर आता है। चार टुकड़े में तोड़ दो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता--हर टुकड़े के द्वारा गुलाब का पूरा फूल ही परदे पर आता है। तुम इसे हजार टुकड़ों में तोड़ दो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जितने छोटे खंड कर सको, कर लो--मगर हर छोटे खंड से पूरा गुलाब का फूल परदे पर आता है।
यह तो बड़ी आश्चर्यजनक खोज है। इसका अर्थ हुआ कि अब तक का सारा गणित गलत हो गया। पुराना गणित कहता है: अंश कभी अंशी के बराबर नहीं होता। कैसे होगा? अंश छोटा होगा अंशी से, खंड छोटा होगा अखंड से। मगर होलोग्राम कहता है: खंड अखंड के बराबर होता है। अंश अंशी के बराबर होता है। दिखायी कितना ही छोटा पड़ता हो, लेकिन इसमें पूर्ण समाया होता है। बूंद में सागर समाया है। बीज में वृक्ष समाया है। एक छोटे से अणु में सारा ब्रह्मांड समाया है। यही तो उदघोषणा है उपनिषदों की। तत्वमसि। मैं वही हूं। तुम वही हो।
तुममें और परमात्मा में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। तुम उसकी ही छोटी तस्वीर लेकिन तुममें परमात्मा पूरा का पूरा है, जितना कि पूरे अस्तित्व में है, उसमें जरा भी कम नहीं है।
यह गणित में एक नयी क्रांति है; विज्ञान में एक नया उदघोष है। रहस्यवादियों ने तो इसे सदा जाना था, लेकिन विज्ञान के द्वारा इसे पहली बार समर्थन मिला है। इसे देखने के लिए तुम्हारा नजरिया बदलना होगा। यह इतनी बड़ी घटना है। बूंद में सागर को देखना, तुम्हें अपनी सारी आंखें नयी करनी होगी। तुम्हें अपने भाव के जगत को नए ढांचे, नए रंग, नए ढंग, नयी शैली देनी होगी। तुम्हें गीत गाने के कुछ नए सूत्र सीखने होंगे। तुम्हें पैरों में घूंघर बांधने होंगे। तुम्हें उत्सव की नयी कला में पारंगत होना होगा। इसी कला का नाम धर्म है।
दरिया कहै सब्द निरबाना
दरिया कहते हैं, मैं तो कह रहा हूं तुमसे परम सत्य को, मगर तुम सुनोगे कि नहीं सुनोगे? और सुनने को ही सुनना मत समझ लेना। सुनते तो सभी हैं, जो गुनता है, वही सुनता है। सुन ही लिया तो क्या होगा? समझे नहीं तो सुनना व्यर्थ गया। समझ भी लिया तो क्या होगा? जिए नहीं तो समझना व्यर्थ गया। सुनो, समझो, जीओ, वही हो जाओ--तो ही स्वाद उतरेगा अमृत का तुम्हारे प्राणों में। तब नाचता हुआ परमात्मा तुम्हारे भीतर आता है। या यूं कहो कि सोया था सदा, जाग उठता है और नाच उठता है। आता भी नहीं, था ही मौजूद, जैसे कली में फूल छिपा था और कली खिल गयी और सुगंध लुट गयी। जिस दिन तुम्हारे प्राणों की सुगंध लुटती है, उसी दिन जानना जीवन सार्थक हुआ।
खिली चमेली, चंपा फूली, नव गुलाब हंसता आया;
मेरे पास गजब का भौंरा वन से सुरभि उड़ा लाया।
पर बैरागी बना यहां पर यह भौंरा कुछ साध रहा;
मिली न मंजिल अभी सनम की, पिय का भेद अगाध रहा।
जो कुछ सुना, यही कि जवानी पछताती है, रोती है;
जो कुछ देखा, यही कि काया धूल-सरीखी होती है।
किंतु ज्ञान यह कुछ अटपट है, कुछ अशुद्ध यह लेखा है,
वे कहते कुछ और, जिन्होंने स्वयं सनम को देखा है।
ऊपर-ऊपर से देखोगे तो मिट्टी ही मिट्टी है चारों तरफ--कहां है अमृत की झलक? ऊपर-ऊपर देखोगे तो पदार्थ ही पदार्थ है--कहां है परमात्मा की पहचान? ऊपर-ऊपर देखोगे तो वीणा तो मिल जाएगी, वीणा के स्वर कहां सुनायी पड़ेंगे? बांसुरी भी हाथ में आ जाए तो भी बांसुरी के स्वर तो पैदा नहीं हो जाते।
खिली चमेली, चंपा फूली, नव गुलाब हंसता आया;
मेरे पास गजब का भौंरा वन से सुरभि उड़ा लाया।
पर बैरागी बना यहां पर यह भौंरा कुछ साध रहा;
मिली न मंजिल अभी सनम की, पिय को भेद अगाध रहा।
जो कुछ सुना, यही कि जवानी पछताती है, रोती है;
जो कुछ देखा, यही कि काया धूल-सरीखी होती है।
किंतु ज्ञान यह कुछ अटपट है, कुछ अशुद्ध यह लेखा है,
वे कहते कुछ और, जिन्होंने स्वयं समन को देखा है।
जाग मुसाफिर लग पगडंडी, वे राहें कुछ ऐसी ही;
झुकी हुई पेड़ों की डालें, वे बांहें कुछ ऐसी ही।
रह-रह सुलझ-उलझ पड़ता है, स्नेही का हिय ही तो है;
जान मर्म, दर्द जान ना, प्रेमी का जिय ही तो है।
पंथ निराला, राह अटपटी, घट-घट विविध स्वरूप बने
कौन कहे, हों कहीं न इस क्षण वे जग के अनुरूप बने।
समझ उन्हें न धान की वाली, वे तो सरसों के दाने;
फिर किस दाने में बैठे हैं, कह यह भेद कौन जाने?
जड़-जड़ सींच बराबर पानी, पिया कभी आंखें खोलें;
कहीं किसी दिन इन डालों पर पंछी की बोली बोलें!
जाग मुसाफिर लग पगडंडी, वे राहें कुछ ऐसी हो;
झुकी हुई पेड़ों की डालें, वे बांहें कुछ ऐसी हो।
परमात्मा तुम्हें आलिंगन में लेने को तत्पर है, जैसे वृक्षों की झुकी हुई डालियां; परमात्मा तुम्हारे नासापुटों को अनंत-अनादि गंध से भर देने को आतुर है; परमात्मा तुम्हारे भीतर नाचती हुई किरण की तरह आना चाहता है, पूरे चांद की तरह ऊगना चाहता है, सारे तारों भरी रात की तरह तुम्हारे हृदय-आकाश पर प्रकट होना चाहता है, मगर तुम द्वार तो खोलो, तुम मार्ग तो दो, तुम सिंहासन से तो उतरो! तुम तो स्वयं ही सिंहासन पर बैठ गए हो। उसके लिए तुमने जगह ही नहीं छोड़ी है। और तब अगर तुम्हारे जीवन में सिवाय उदासी के, हताशा के, निराशा के, आंसुओं के और कुछ हाथ न लगता हो, तो याद रखना कसूरवार हो तो तुम हो।
जिन्होंने तुमसे कहा है इस जिंदगी में कुछ नहीं है, गलत कहा है।
किंतु ज्ञान यह कुछ अटपट है, कुछ अशुद्ध यह लेखा है,
वे कहते कुछ और, जिन्होंने स्वयं समन को देखा है।
जिन्होंने उस प्यारे को देखा है, उन्होंने कुछ और कहा है। उन्होंने प्रकृति को उसका घूंघट कहा है। जिन्होंने उस प्यारे को देखा है, उन्होंने उसकी झलक प्रकृति में भी देखी है। फूल-फूल में उसकी गंध, रंग-रंग में उसका रंग, सारे इंद्रधनुष उसके हैं। चांदत्तारों में उसी की रोशनी है, लोगों के हृदयों में उसकी धड़कन है, वही तुम्हारी श्वास है, वही तुम्हारी प्रश्वास है। वही तुम में जाग रहा, वही तुम में जी रहा, वही तुम में सो रहा, वही है तुम्हारा प्रेम, वही है तुम्हारी प्रार्थना, वही है तुम्हारी पूजा--तुम मंदिर हो। तुम कहां जाते हो काबा और कहां जाते हो काशी? तुम मंदिर हो। और अगर तुम उसे अपने भीतर न पा सकोगे तो किसी काबा में कभी भी न पा सकोगे। और जिसने उसे अपने भीतर पा लिया, सारा अस्तित्व काबा हो जाता है, सारा अस्तित्व कैलाश हो जाता है। फिर तुम जहां पैर रखो, वहां तीर्थ पैदा होते हैं। फिर तुम जहां बैठ जाओ, वहीं मंदिर है। मालिक तुम्हारे भीतर है। दरिया शब्द निर्वाण। यह निर्वाण के शब्द इसी बात की याद दिलाने के लिए तुम्हें कहें जा रहे हैं।
पांच तत्त की कोठरी, तामें जाल जंजाल।
जीव तहां बासा करै, निपट नगीचे काल।।
तुम्हारे भीतर जो घट रहा है, जो घट सकता है, उसकी तुम्हें स्मृति भी नहीं है।
मैंने सुना है, एक रात, पूर्णिमा की रात, शरद पूर्णिमा की रात कुछ मित्रो ने जरा सोचा नौका-विहार को चलें। गए झी पर, माझी अपनी नौकाएं बांधकर घर जा चुके थे, उन्होंने एक नौका खोल ली, एक नौका में बैठ गए, चले डांड मारने, लगे पतवार चलाने। आधी रात से चलाना शुरू की नाव, सुबह-सुबह जब होने को हुई और ठंडी हवाएं बहने लगी और नशा थोड़ा उतरा और उन्हें याद आयी घर की तो किसीने कहा कि जरा देख तो लो उतर कर घाट पर, हम कितनी दूर निकल आए हैं? अब लौटना होगा। पूरब आ गए, कि पश्चिम आ गए, होश में तो कुछ पता न था। कितने मील चले आए, यह भी पता नहीं? उनमें से एक घाट पर उतरा और खिलखिलाकर हंसने लगा। बाकी ने पूछा कि हंसते क्यों हो, बात क्या है? वह अपने पेट पकड़े, हंसी उसे इतनी जोर से आ रही! उसने कहा कि पहले मुझे हंस लेने दो, फिर तुमसे कह सकूंगा। और अगर पूरा मजा तुम्हें लेना है, तुम भी कर देख लो। वे सभी उतर और सभी हंसने लगे। क्योंकि रात वे यह भूल ही गए कि नाव की जंजीर किनारे से बंधी है, उसे खोलना भी है। पतवार तो बहुत चलायी, मगर अकेली पतवार चलाने से कोई यात्रा होती है, नाव की जंजीर भी तो खोलनी चाहिए। जहां थे वहीं के वहीं रहे।
तुम जहां जन्में हो, वही के वही रहोगे--और कितनी ही पतवारें चलाओ, और कितना ही धन इकट्ठा करो, कितने ही पद, और कितने ही दौड़ो महत्वाकांक्षा में। यह महत्वाकांक्षा की दौड़ सन्निपात से ज्यादा नहीं है। तुम जहां हो वही हो। यह महत्वाकांक्षाओं की दौड़ सपने से ज्यादा नहीं है, सुबह जब आंख खुलेगी, अपने घर में अपनी खाट पर अपने को पाओगे। रात चाहे चले जाओ टिम्बकटू और चाहे कुस्तुनतुनिया, और जहां जाना हो, लेकिन सुबह जब आंख खुलेगी तो पाओगे: वही घर है, वही झोपड़ा है, वही खाट है अपनी पुरानी! ऐसी ही तुम्हारी जिंदगी है। इसमें जंजीर तोड़ देना पहली जरूरी बात है। और जंजीर है बेहोशी की, ध्यान अभाव की। तुम्हें ठीक-ठीक पता नहीं तुम कौन हो? तुम इसका उत्तर नहीं दे सकते कि मैं कौन हूं। और जिसके पास इस बात का उत्तर नहीं है कि मैं कौन हूं, उसके सब उत्तर दो-कौड़ी के हैं। उसे शास्त्र कंठस्थ हों, उसके शास्त्रों का कोई भी मूल्य नहीं है। दो-कौड़ी भी मूल्य नहीं है। शास्त्र कंठस्थ करने से काम के नहीं होते। शास्त्र तो ऊपर-ऊपर रह जाते हैं, भीतर तो तुम्हारा कचरा जैसा था वैसा का वैसा। शास्त्र तो ऊपर-ऊपर रह जाते हैं, भीतर तो तुम्हारा कचरा जैसा था वैसा का वैसा। शास्त्र तो ऐसे हो जाते हैं जैसे तोते रट लेते हैं राम-राम तो राम-राम दोहराते रहते हैं। भीतर तो राम-राम नहीं होता
मैंने सुना, एक पादरी के पास एक तोता था। बड़ा ज्ञानी तोता था। राम-नामी तोता था। सुबह में सांझ तक प्रार्थना में ही लीन रहता था। उस पादरी के चर्च में एक महिला भी जाती थी। उस महिला ने पादरी से कहा कि मैंने भी एक तोता खरीद लिया और बड़ी झंझट में पड़ गयी। तोता कुछ गलत जगह में रहा है; मालूम होता है किसी वेश्यालय में, या किसी शराबघर में; बड़ी गालियां बकता है! बेहूदी गालियां बकता है! मेहमान घर में आ जाते हैं तो मुझे यही डर रहता है कि तोता कुछ बोल न दे। आप जब कभी मेरे घर आते हैं तो मुझे तोते को ढांक देना पड़ता है कि कहीं आप को देखकर कुछ न कुछ कह दे। तोते को कैसे बदलें? आप तो आदमियों को बदल देते हैं, इस तोते को क्यों नहीं बदल देते? पादरी ने कहा, तू फिकर मत कर, हमारे पास बड़ा धार्मिक तोता है। यह सिर्फ पूजा-पाठ ही जानता है। बस यह तो जीसस-जीसस की याद करता रहता है। यह बड़ा पुण्यात्मा है। तू अपने तोते को यहां ले आ। इन दोनों को साथ रख देंगे...सत्संग से तो लाभ होता है।
वह स्त्री अपने तोते को ले आयी। एक ही पींजड़े में दोनों तोतों को रख दिया। दो दिन बीत गए, पादरी भी थोड़ा हैरान हुआ, न तो इस स्त्री का तोता गाली बके और न पादरी का तोता ईश्वर-स्मरण करे। पादरी ने अपने तोते से पूछा कि तुझे हुआ क्या? तू तो ऐसा भक्त था, तूने ईश्वर-स्मरण क्यों छोड़ दिया? उसने कहा, जिस बात के लिए ईश्वर-स्मरण करता था, वह बात पूरी हो गयी। एक स्त्री चाहता था, वह मिल गयी। इसी के लिए तो चिल्लाता था कि हे प्रभु, हे प्रभु! उस स्त्री के तोते से पूछा, तूने क्यों गालियां बंद कर दीं? तो उसने कहा, जिस पुरुष के लिए मैं मांगती थी और गालियां बकती थी, वह मिल गया।
ऊपर से तोते गालियां बकें, या ऊपर से तोते रामनाम जपें, इससे भेद नहीं पड़ता। असली बात भीतर है। तुम रामनाम की चदरिया ओढ़ लो, इससे क्या होगा? लेकिन यही हो रहा है। इस बात का भी तुम्हें पता नहीं है कि मैं कौन हूं--और रामायण कंठस्थ हो गयी!और गीता के वचन तुम्हें याद हो गए हैं! अभी क्रांति का पहला कदम भी नहीं उठा और क्रांति पूरी हो गयी, ऐसा मालूम होता है।
सच्चा धार्मिक व्यक्ति शुरू से ही शुरू करता है। वह पूछता है, मैं कौन हूं? और इस पूछने में कुछ भी पहले से स्वीकार मत करना। क्योंकि जो भी तुमने स्वीकार कर लिया; वही बाधा हो जाएगा। कोई भी सम्यक, कोई भी सच्ची खोज पक्षपातों से शुरू नहीं होती; निष्पक्ष होकर शुरू होती है। जो आदमी पहले से ही हिंदू है, मुसलमान है, जैन है, ईसाई है, वह कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। उसने तो सत्य को पाने के पहले ही तय कर लिया कि सत्य क्या है! यह तो कोई वैज्ञानिक खोज न हुई। यह बड़ी अंधविश्वास की बात हुई। तुमने पहले ही तय कर लिया कि अभी रात है--चाहे अभी दिन हो--और चले तुम अपनी परिकल्पना को सिद्ध करने। और ध्यान रखना, मन बहुत होशियार है। तुम जो सिद्ध करना चाहो, उसी के पक्ष में दलीलें इकट्ठी कर लेगा। जगत बड़ा है, यहां हर चीज के लिए दलीलें उपलब्ध हो जाती है।
एक आदमी मेरे पास एक किताब लाया है। उसने सिद्ध किया है कि तेरह का आंकड़ा गलत है। उसने तेरह तारीख को जितनी दुर्घटनाएं घटती हैं, सबको लेखा इकट्ठा कर लिया है अखबारों से। अब तेरह तारीख को घटनाएं तो घटती ही हैं। कार भी टकराती हैं ट्रेन भी उलटती हैं, हवाई जहाज भी जलते हैं; हत्याएं भी होती हैं, आत्महत्याएं भी होती है--लोग मरते ही हैं। तेरह तारीख को जितनी दुर्घटनाएं होती हैं, सब इकट्ठी कर लीं। उसने कहा कि यह प्रमाण है। मैंने उससे कहा, तू एक काम और कर। अब तू चौदह तारीख को कितनी होती हैं वह भी इकट्ठी कर। फिर पंद्रह को कितनी होती हैं वह भी इकट्ठी कर। और अब तू चकित होगा कि जितनी तेरह को होती हैं, उससे कम चौदह को नहीं होती; उससे कम पंद्रह को भी नहीं होती। लेकिन अगर यह पहले से ही तय कर लिया कि तेरह तारीख गलत है...अमरीका में तो हालत इतनी बुरी हो गयी है तेरह के साथ कि होटलों में तेरह नंबर का कमरा ही हनीं होता, तेरहवीं मंजिल ही नहीं होती, क्योंकि तेरहवीं मंजिल पर कोई रुकना ही नहीं चाहता। तो बारह के बाद सीधी चौदवीं मंजिल आती है। होती है वह तेरहवीं ही, मगर नंबर चौदहवां होता है। मजे से रुके हैं, कोई दुर्घटना नहीं घटती। और अगर तुम्हें पता हो कि तेरहवीं है, तो रात भर नींद न आए।
सम्यक अन्वेषण विश्वास से शुरू नहीं होता। न ही सम्यक अन्वेषण अविश्वास से शुरू होता है। सम्यक अन्वेषण पक्ष नहीं, विपक्ष नहीं, एक निर्मल भाव से शुरू होता है, जिज्ञासा से शुरू होता है, एक खुले मन से शुरू होता है।
तुमने पूछा, अपने से, मैं कौन हूं? और जल्दी से उत्तर दे दिया कि मैं आत्मा हूं, तो खोज झूठी हो गयी। तुमने पूछा, मैं कौन हूं? और जल्दी से उत्तर दे दिया: मैं कुछ भी नहीं हूं, बस देह मात्र हूं, खोज झूठी हो गयी। इतनी जल्दी उतर नहीं आएगा, खूब गहरे खोदना होगा। जैसे कोई कुआं खोदता है, तो पहले तो कचरा-कूड़ा हाथ लगता है। जल्दी लौट मत आना। और खोदना। फिर कंकड़-पत्थर हाथ लगेंगे; घबड़ा मत जाना। और खोदना। फिर रूखी मिट्टी हाथ लगेगी। घबड़ा मत जाना कि ऐसी रूखी मिट्टी में कहां जलस्रोत होंगे। खोदे जाना। फिर धीरे-धीरे गीली मिट्टी हाथ आने लगेगी। पहले लक्षण शुरू हुए। खोदे जाना। एकदम से जलस्रोत न आ जाएंगे ऐसे कि तुम उन्हें पी लो। कीचड़ आएगी, खोदे जाना; गंदा जल आएगा, खोदे जाना; एक दिन जरूर वह घड़ी आ जाएगी कि निर्मल जलस्रोत तुम्हारे भीतर तुम्हें उपलब्ध हो जाएंगे। और जब अपने भीतर के जलस्रोतों को कोई पीता है, तो तृप्ति, तो संतोष, तो सच्चिदानंद!
पांच तत्त की कोठरी...यह जो पांच तत्वों से बना हुआ तुम्हारा मंदिर है, यह जो तुम्हारा घर है तामें जाल जंजाल...यह बहुत जटिल है। यह कोई छोटी घटना नहीं है। चमड़ी के ऊपर से देखो तो तुम्हें पता ही नहीं चलती कि तुम्हारे भीतर कितनी जटिलता है। तुम एक पूरा संसार हो। एक छोटे से मस्तिष्क में--अब मस्तिष्क कोई बहुत बड़ा नहीं होता; जरा सी खोपड़ी है, उसके भीतर छोटा सा मस्तिष्क है, छोटे से तराजू पर तौला जा सकता है--इस छोटे से मस्तिष्क में इस पृथ्वी पर जितने पुस्तकालय हैं, उन सारे पुस्तकालयों में जितनी सूचनाएं हैं, समायी जा सकती हैं। एक छोटे आदमी के मस्तिष्क में। कोई अल्बर्ट आइंस्टीन का मस्तिष्क नहीं चाहिए। ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे का मस्तिष्क भी काम आ जाएगा। एक छोटे से सामान्य मानवीय मस्तिष्क में अब तक पृथ्वी पर जितने पुस्तकालय है, सभी की सूचनाएं समायी जा सकती है।
तुम्हारी छोटी सी देह में सात अरब जीवाणु हैं। बंबई छोटी नगरी है। कलकत्ता भी बहुत छोटा। कलकत्ता, बंबई, लंदन, न्यूयार्क, सब इकट्ठे कर डालो, तो भी तुम्हारे छोटे से नगर में दे के जितने जीवाणु रहते हैं उतने लोग वहां नहीं रहते। अभी तो पूरी पृथ्वी भी छोटी है। पूरी पृथ्वी पर केवल चार अरब आदमी रहते हैं। तुम्हारी छोटी सी देह में सात अरब जीव कोश रहते हैं। इसीलिए तो पुराने ज्ञानियों ने तुम्हें पुरुष कहा है। पुरुष का अर्थ होता है--पुर का अर्थ होता है, नगर--तुम एक बड़े नगर के भीतर बसे हो, इसलिए तुम्हें पुरुष कहा गया है। यह जो सात अरब निवासी हैं तुम्हारे भीतर, इनके बीच तुम्हारा आवास है। तुम एक महानगर हो। तुम एक महापृथ्वी हो। तुम छोटे नहीं हो, छोटे दिखायी पड़ते हो। तुम्हारे भीतर बड़ा विस्तार है। और बड़ा जटिल विस्तार है। और कितना काम तुम्हारे भीतर चल रहा है।
वैज्ञानिक कहते हैं, जितना काम एक मनुष्य की देह में होता है, अगर उस सारे काम को हमें करना हो तो कम से कम चार वर्गमील के घेरे में हमें फैक्ट्री बनानी पड़े; तो इतना काम हो सकता है। फिर भी अभी सभी काम करने में हम सफल हो सकेंगे, इसकी आशा नहीं है। अभी भी रोटी कैसे खून बने, विज्ञान उपाय नहीं खोज पाया। रोटी कैसे मांस-मज्जा बने, इसका उपाय नहीं खोज पाया। और रोटी कैसे विचार बने, स्वप्न बने, प्रेम बने, शायद अभी तो सदियां लग जाएंगी। जिस दिन हम रोटी को डालेंगे एक तरफ से एंजिल में और दूसरी तरफ से प्रेम की गंगा बहेगी! अभी तो संभावना नहीं दिखायी पड़ती कि एक तरफ से रोटी डालेंगे और दूसरी तरफ से ध्यान निकलता हुआ आएगा। तुम भी रोटी खाते हो, बुद्ध भी रोटी ही खाते हैं। तुम्हारी रोटी क्रोध बन जाती है, बुद्ध की रोटी समाधि बन जाती है। तुम भी वही सांस लेते हो जो बुद्ध लेते हैं। तुम्हारी श्वास ऐसे ही आती-जाती है, नाहक ही, बुद्ध की श्वास-श्वास में अमृत बरसता है।
तुम बड़ी जटिल घटना हो...मनुष्य इस पृथ्वी पर सर्वाधिक जटिल घटना है। तुम अपने को ऐसे ही चुपचाप मान कर मत जी लेना। बड़ी खोज करनी है। चांदत्तारों पर खोजने से जो नहीं मिलेगा, वह मनुष्य के भीतर खोजने से मिलेगा। गौरीशंकर पर चढ़ने से कुछ सार नहीं है, काश तुम अपने भीतर के गौरीशंकर पर चढ़ा जाओ! उसी को ज्ञानियों ने सहस्रार कहा है। तुम्हारी चैतन्य की जो आखिरी ऊंचाई है, आखिरी शिखर है, तुम्हारे चैतन्य की जो परम शुद्धि है, समाधि है, बुद्धत्व है, उसकी ही निर्वाण कहा है। दरिया कहै सब्द निरबाना।
पांच तत्त की कोठरी, तामें जाल जंजाल।
जीव तहां करै, निपट नगीचे काल।।
और इस पांच तत्व की कोठरी में, इस देह के मंदिर में तुम्हारी आत्मा का वास है, पुरुष बसा हुआ है इस नगर में। और एक चमत्कार कि यह पुरुष है शाश्वत जीवन, जिसका न कभी प्रारंभ हुआ और न कभी अंत होगा, फिर भी यह मौत के ही पास बसा हुआ है, मौत के पड़ोस में बसा हुआ है। तुम्हारे पास ही बैठी है तुम्हारी मौत, इंचभर का भी फासला नहीं है, कब तुम्हें पकड़ लेगी पता नहीं है; एक क्षण और बचोगे या नहीं, इसका भी भरोसा हनीं है; कल होगा या नहीं, कोई भी नहीं कह सकता।
मैंने सुना है एक सूफी कहानी:
एक सम्राट ने रात स्वप्न देखा कि एक काली भयंकर छाया ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया है; लौटकर देखा, घबड़ा गया। थर-थर कांपने लगा सपने में भी। ऐसे तो बहादुर आदमी था, युद्धों में लड़ा था, तलवारों से खेला था, तलवारों से खेला था, तलवार की धार ही उसकी जिंदगी थी, मगर थर-थर कांप गया। पूछा, कौन है? वह काली छाया खिलखिला कर हंसी और उसने कहा, मैं तेरी मौत हूं। और तुझे आगाह करने आयी हूं कि कल सूरज डूबने के पहले तैयार रहना, मैं लेने आ रही हूं। इधर सूरज डूबा, उधर तू डूबा। ऐसी बात सुनकर कोई सो सकता था फिर? नींद टूट गयी। आधी रात, पसीने-पसीने था सम्राट। उसी क्षण खतरे के घंटे बजाए गए। सेनापति इकट्ठे हो गए। मगर सेनापति क्या करेगा मौत के सामने? घुड़सवारों ने सारे महल को घेर लिया, नंगी तलवारें चमकने लगी रात के अंधेरे में, लेकिन नंगी तलवारें क्या करेंगी मौत के सामने? घुड़सवार क्या करेंगे? तोपों पर गोले गढ़ा दिए गए। मगर तोपों के गोले क्या करेंगे?
तब वजीर ने सम्राट को कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? सपना तो सपना है। यहां सच सपने हो जाते हैं, आप सपने को सच मानकर चल रहे हैं? यहां सत्यों का भरोसा नहीं है, आप सपने का भरोसा कर रहे हैं? फिर यह सब इंतजाम व्यर्थ हैं। अगर कुछ इंतजाम ही करना हो तो ज्योतिषियों को बुलाया जाए, जो आप का हाथ देखें, आपकी जन्मकुंडली देखें और तय करें कि सपने में कुछ अर्थ है या नहीं? बड़े-बड़े ज्योतिषी बुलाए गए। बड़े-बड़े मनस्विद बुलाए गए--उस समय के जो होंगे सिग्मंड फ्रायड, जुंग, एडलर--उन सबको बुलाया गया। पंडितों की जैसी आदत होती है। विवाद उनका धंधा है। निष्कर्ष पर तो पंडित कभी पहुंचते ही नहीं। बकवास उनका व्यवसाय है। बड़े-बड़े पंडित बड़ी-बड़ी पोथियां लेकर आ गए और बड़े विवाद मच गए कि स्वप्न का क्या अर्थ है? कोई एक अर्थ करे, कोई दूसरा अर्थ करे, कोई तीसरा अर्थ करे। तुम अगर किसी सिग्मंड फ्रायड को मानने वाले के पास जाओ, तो तुम्हारे स्वप्न का एक अर्थ होगा। अगर तुमने शंकर जी की पिण्डी देखी सपने में, वह कहेगा यह जननेद्रिंय है और कुछ भी नहीं। सावधान, तुम्हारे भीतर कामुकता का भयंकर रूप उठ रहा है! तुम जरा अपने से बचकर रहता है! तुमने कामवासना को दबाया है। अगर वही स्वप्न लेकर तुम किसी एडलर के पास जाओगे तो दूसरी व्याख्या होगी। वह कहेगा, शह शुभ्र संगमरमर की प्रतिमा इस बात की खबर है कि तुम्हारे भीतर शुभ्र होने की महत्वाकांक्षा जगी है। और अगल-अलग लोगों के पास अगल-अलग व्याख्याएं होंगी। जितने मनोवैज्ञानिक, उतनी व्याख्याएं। जितने हाथ देखने वाले, उतनी व्याख्याएं। व्याख्याओं का जाल मच गया। बजाय इसके कि कुछ निष्कर्ष निकलता, सम्राट और उलझन में पड़ गया। होने लगी, सूरज ऊगने लगा, सम्राट ने अपने वजीर को कहा कि यह तो मुसीबत है, यह तो हल नहीं होगा; सूरज निकल गया तो सूरज के डूबने में देर कितनी लगेगी! सूरज निकला कि डूबना शुरू हो जाता है, बच्चा जन्मा कि मरना शुरू हो जाता है। मैं क्या करूं?
उस वजीर ने कहा, इनके विवादों का तो कोई अंत न कभी हुआ है, न कभी होगा; दस हजार साल से पंडितगण कर रहे हैं, किसी एक चीज पर सहमत नहीं हैं। ईश्वर है भी या नहीं, इस पर भी सहमत नहीं हैं! यह किसी चीज पर सहमत नहीं, यह सहमत होंगे नहीं--सहमत होने में तो इनके सारे प्राण ही निकल जाएंगे। इनका व्यवसाय असहमति है। आप इनकी बातों में मत पड़ें। तो सम्राट ने कहा, मैं क्या करूं? उसने कहा, आपके पास इतना तेज अरबी घोड़ा है, आप उस पर बैठकर जितनी दूर निकल सकें निकल जाएं। यह महल खतरनाक है। यहां मौत ने आपको दर्शन दिए हैं। इस महल से जितनी दूर हो जाएं उतना अच्छा है। यह महल अपशगुन है।
बात जंची। सम्राट अपने घोड़े पर सवार हुआ और भागा। बड़ा तेज घोड़ा था। सैकड़ों मील निकल गया सांझ होते-होते। बड़ा खुश था! जब सांझ को सूरज डूबने के करीब, आखिरी किरणें अस्त होती थीं, उसने एक बगीचे में जाकर--दमिश्क के--अपने घोड़े को बांधा, घोड़े को बांधकर बड़े प्रेम से उसे गले लगाया, घोड़े को थपथपाया और कहा कि धन्यवाद है तेरा कि तू सैकड़ों मील दूर ले आया उस अपशुकन के स्थान से। लेकिन तभी फिर खिलखिलाहट की हंसी सुनायी पड़ी। पीछे लौटकर देखा, वही मौत खड़ी थी। वही काला चेहरा। सम्राट ने कहा, क्या तू फिर आ गयी? खिलखिलाहट का कारण? उस मौत ने कहा कि धन्यवाद तुम्हें नहीं देना चाहिए घोड़े को, मुझे देना चाहिए, क्योंकि मैं बड़ी चिंतित थी क्योंकि मौत तुम्हारी इस झाड़ के नीचे घटनी है और मैं डरी थी कि घोड़ा तुम्हें समय पर ले आ पाएगा यहां, पहुंचा पाएगा या नहीं पहुंचा पाएगा? लेकिन तुम ठीक समय पर ठीक जगत आ गए।
भागो कहीं, एक न एक दिन ठीक जगह पर पहुंच जाओगे जहां मौत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। मौत से भागो तो भी मौत में ही पहुंचोगे। मौत में घिरे हो। और फिर भी आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि तुम अमृत धर्म हो। इस जगत का सबसे बड़ा रहस्य न तो ताजमहल है, न बेबीलोनिया का गिर गया मीनार है जिस पर ज्योति सदा जलती रहती थी, बिना तेल के--बिन बाती बिन तेल--न चीन की दीवार है, इस जगत का सबसे बड़ा आश्चर्य एक है कि मनुष्य अमृत है और मृत्यु से घिरा है। मनुष्य है अमृतद्वीप और मृत्यु के महासागर से घिरा है। यह इस जगत का सबसे बड़ा चमत्कार है। और स्वभावतः तुम्हें सागर तो दिखायी पड़ता है मृत्यु का, जो चारों तरफ लहरें लेता रहा है, तुम्हें अपना अमृत स्वभाव दिखायी नहीं पड़ता है। जो स्वभाव को जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है। जो स्वभाव को जान लेता है, उसके जीवन में अमी-रस की वर्षा हो जाती है।
जीव तहां बासा करै, निपट नगीचे काल...और मौत इतने करीब है, वही जीवन बसा हुआ है।
वो दिल नसीब हुआ जिसको दाग भी न मिला
मिला वो गमकदा जिसमें चराग भी न मिला
गई थी कहके मैं लाती हूं जुल्फे-यार की बू
फिरी तो बादे-सबा का दिमाग भी न मिला
असीर करके हमें क्यों रिहा किया सैयाद
वो हम-सफीर भी छूटे वो बाग भी न मिला
बुतों के इश्क में क्या होती हमसे यादे-खुदा
कि दिल भी था न ठिकाने फराग भी न मिला
खबर को यार की भेजा था गुम हुए ऐसे
हवासे-रफ्ता का अब तक सुराग भी न मिला
दिखाए यार को क्या जिस्मे-दागदा की सैर
नजर-फरेब हमें एक बाग भी न मिला
भर आए महफिले-साकी में क्यों न आंख अपनी
वो बेनसीब हैं खाली अयाग भी न मिला
चराग लेके इरादा था बख्त को ढूंढे
शबे-फिराक थी कोई चराग भी न मिला
जलाल बागे-जहां में वो अदलीब हैं हम
चमन को फूल मिले हमको दाग भी न मिला
अगर गलत खोजोगे तो फूल तो मिलें ही नहीं, कांटे भी नहीं मिल सकते हैं।
भर आए महफिले-साकी में क्यों न आंख अपनी...
जहां मधु ढाला जा रहा हो, वहां तुम्हें खाली प्यास भी न मिले तो स्वभाविक है कि क्यों न तुम्हारी आंखें भर आए...
भर आए महफिले-साकी में क्यों न आंख अपनी
वो बेनसीब हैं खाली अयाग भी न मिला
खाली प्याला भी न मिला और जहां शराब ढलती थी!
चराग लेके इरादा था बख्त को ढूंढें...
सोचते थे चिराग लेकर समय को ढूंढेंगे, अपनी विधि को ढूंढेंगे, भगवान को ढूंढेंगे।
चराग लेके इरादा था बख्ते को ढूंढें
शबे-फिराक थी कोई चराग भी न मिला
और हम ऐसे हतभाग कि हमें एक छोटा सा भी न मिला।
जलाल बागे जहां में वो अंदलीब हैं हम
चमन को फूल मिले हमको दाग भी न मिला
और सोर फूल तुम्हारे थे, सारी बगिया तुम्हारी थी। सारे चांदत्तारे तुम्हारे हैं और तुम्हारे चिराग नहीं मिल रहा! सागर सारे तुम्हारे हैं और तुम खाली प्याले को भी नहीं खोज पा रहे हो! कहीं दृष्टि गलत हो रही है। तुम वहां देख रहे हो जहां नहीं देखना चाहिए। और तुम वहां नहीं देखना चाहते जहां राजों का राज छिपा है।
एक भिखमंगा मरा एक शहर में। भीख मांगता रहा तीस साल तब, एक ही जमीन पर बैठा हुआ। और जब मर गया तो गांव के लोगों ने सोचा कि तीस साल बैठा रहा, जमीन पर गंदे कपड़े लिए, इस जमीन को भी थोड़ा खोद कर सफाई कर दो। तो लोगों ने थोड़ी जमीन भी खोदी। खोदी तो हैरान हो गए। वहां खजाने गड़े थे; वहां स्वर्ण की अशर्फियों के ढेर लग गए। सारा गांव हंसने लगा कि यह फकीर भी, यह भिखमंगा भी कैसा भिखमंगा था; जिस जमीन पर बैठा था, वहां सम्राट हो सकता था, मगर इसने कभी तलाश ही न की। यह अपना भिक्षापात्र लिए मांगता रहा। और मैं तुमसे कहता हूं, उस गांव के लोगों ने फिर भी कुछ न सीखा।
उस भिखमंगे की कहानी तुम्हारी कहानी भी है--हर गांव वालों की कहानी है। तुम जहां बैठे हो, वही स्वर्ग का साम्राज्य भी छिपा है। मगर तुम भीख मांग रहे हो! कौड़ी-कौड़ी की भीख मांग रहे हो!
वासना भिक्षा का पात्र है। प्रार्थना अंतर की खोज है। वहां तुम्हें ऐसा चिराग मिलेगा जो बुझता नहीं। और ऐसे अमृत के दर्शन होंगे जो जन्म के भी पहले था और मृत्यु के भी बाद होगा।
दरिया तन से नहिं जुदा,सब किछु तन माहिं...
याद रखना, वह परमात्मा तन से जुदा नहीं है। इसलिए जिन्होंने तुमसे कहा है कि शरीर के दुश्मन हो जाओ, वे धार्मिक लोग नहीं थे।
दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं।
जोग-जुगति सों पाइये, बिना जुगति किछु नाहि।।
वह तन में ही छिपा है। वह तन से जुदा नहीं है। इसलिए जो लोग शरीर के दुश्मन हो जाते हैं धर्म के नाम पर, वे परमात्मा के भी दुश्मन हो जाते हैं। जिसने मंदिर को गिर दिया, उसने मंदिर के देवता को भी गिरा दिया। अगर मंदिर का देवता बचाना हो तो मंदिर का भी सत्कार करना, सम्मान करना। मैं तुम्हारे यही सिखाता हूं: अपने शरीर को मंदिर समझो, उसको सम्मान करो, सत्कार करो; अपने शरीर से प्रेम करो; शरीर परमात्मा की भेंट है, उसे तोड़ो मत, उसे सताओ मत, उसे जाओ मत। जो भी शरीर को तोड़ते हैं, जलाते हैं, परेशान करते हैं, वे सब मेसोचिस्ट हैं, रुग्ण हैं, बीमार हैं; उनकी मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों में निन्यानबे प्रतिशत को मानसिक चिकित्सक की जरूरत है। उनमें शायद ही कोई एकाध व्यक्ति कभी ठीक-ठीक अर्थों में समझ पाया है।
कोई शरीर को कांटों पर लिटाए पड़ा है। कोई भरी दुपहरी में चारों तरफ धूनी रमाए बैठा है; कोई ठंड में, बर्फ गिर रही है, खुले आकाश के नीचे खड़ा है; कोई उपवास कर रहा है; किसी ने मुंह में भाले छेद रखे हैं। इन पागलों से सावधान! यह अस्वस्थ लोग हैं। यह रुग्ण हैं। इन्हें मनोचिकित्सा की जरूरत है।
जानने वाले कुछ और कहते हैं, सनम को पहचानने वाले कुछ और कहते हैं।
दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं...
तुम जिसे भी खोजना चाहते हो, वह तुम्हारे तन में छिपा है। इसलिए तन को तोड़ना मत, तन को सम्हालना, तन की सेवा करना। तन की सेवा उसके ही चरणों में पहुंच जाती है। इसलिए मैं त्याग और तपश्चर्या  का विरोधी हूं। भोग का पक्षपाती नहीं हूं, त्याग और तपश्चर्या का विरोधी जरूर हूं। भोग एक अति है, त्याग दूसरी अति है। समझदार व्यक्ति मध्य में ठहर जाता है। वह स्वर्ण-सूत्र पकड़ लेता है। न तो ज्यादा खाने की जरूरत है, न उपवास की जरूरत है। न तो चौबीस घंटे वस्त्रों की ही चिंता करने की जरूरत है और नग्न खड़े होने की जरूरत है। न तो बाजार में ही नष्ट हो जाना है और न जंगलों में भाग कर किन्हीं गुफाओं में छिपा जाना है। यह दोनों विकृतियां हैं। यह स्वस्थ चैतन्य के लक्षण नहीं। स्वस्थ चैतन्य का लक्षण तो यह है: रहो बाजार से और ऐसे रहो कि बाजार तुम्हें छुए न। कमलवत और कमलवत होने की कला का नाम ही जोग-जुगति है। जोग-जुगति सौं पाइए, बिना जुगति किछु नाहिं।
थोड़ी कला सीखनी पड़ेगी। कोई तुम्हें वीणा हाथ में दे दे तो तुम यह मत समझ लेना कि तुम वीणावादक हो जाओगे। जीवन तो परमात्मा ने तुम्हें दे दिया हाथ में जब तुम जन्मे, मगर इससे तुम यह मत समझ लेना कि तुम जीवन की वीणा पर संगीत उठा सकते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में, मुल्ला नसरुद्दीन को परेशान करने के लिए किसी ने एक बच्चे को उसके जन्मदिन पर एक ढोल भेंट कर दिया। अब बच्चे के ढोल मिल गया तो दिन भर ढोल ठोंके। दिन देखे न रात। मुल्ला की छाती फटने लगी। दिन-भर ढोल ठुंक रहा है! घर के लोग भी परेशान, लेकिन लोग जितने परेशान, बच्चा उतना प्रसन्न। मुहल्ले भर में वही प्रमुख हो गया। मुहल्ले भर में नेता की हैसियत हो गयी उसकी। जहां से निकल जाए लोग उससे प्रार्थना करें कि भाई, आज जरा घर मेहमान आ रहे हैं, ढोल न बजाना। लोग बड़ी-बड़ी उम्र के उसको नमस्कार करने लगे कि भैया,तेरा ढोल कहां है! आज जरा सो जाने देना, हम थके-मांदे हैं, आज रात ढोल मत बजाना! लेकिन एक दिन उसका नहीं बजा तो उसके बाप ने पूछा कि बेटा, ढोल का क्या हुआ? उसने कहा कि ढोल का क्या हुआ, क्या बताएं, मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे एक छुरा भेंट दे दिया और कहा, इसको ढोल में भोंक कर देख, ढोल में भोंकने से बड़ा मजा आएगा! तो वह छुरा ढोल में भोंक दिया है, तब से आवाज नहीं हो रही है।
ढोल मिल जाने से ढोल बजाना नहीं आता। न बांसुरी हाथा आ जाने से बांसुरी बजानी आती है। सच तो यह है कि बांसुरी हाथ आ जाए तो तुम जो भी करोगे, गलत होगा। तुत्तुत्तुत्तु में-में करोगे। मुहल्ले-पड़ोस के
मुल्ला नसरुद्दीन को एक दफा धुन सवार हुई सितार बजाने की। सारा मुहल्ला परेशान हो गया। क्योंकि बस वह एक ही तार को ठोंकता रहे--रें-रें, रें-रें, रें-रें, रें-रें...मुहल्ला पागल होने लगा। उसकी पत्नी भी उसके हाथ जोड़े--जिसने उसके कभी हाथ नहीं जोड़े थे। जिसके सामने मुल्ला सदा हाथ जोड़े खड़ा रहता था, वह पत्नी भी हाथ जोड़े कि तुम अब क्षमा करो, अब यह रें-रें कब तक चलेगी? शास्त्रीय संगीत हमने बहुत सुना, मगर रें-रें, रें-रें, एकदम चलती रहे! घर में जीना मुश्किल हो गया है। पड़ोस के लोग मुझसे कहते हैं, तेरे पति को क्या हो गया है? और अगर बजाना ही है तो कुछ और राग भी बजाओ! मुल्ला ने कहा, और राग क्यों बजाऊं? पत्नी ने कहा, लेकिन और भी बजने वाले देखे हैं, कोई एक ही राग नहीं बजाता। तो मुल्ला ने कहा, वे राग खोज रहे हैं, मुझे मेरा राग मिल गया। तो वे खोज रहे हैं इधर-उधर, यह बजाते, वह बजाते, मैं क्यों बजाऊं?
जिंदगी तुम्हें मिली है, एक वीणा है जिंदगी, और बड़ी सूक्ष्म, बहुत नाजुक। लेकिन अधिक लोग सिर्फ रें-रें, रें-रें कर रहे हैं। सोच रहे हैं उन्हें मिल गया उनका राग। जिंदगी कला है। उस कला का नाम ही धर्म है। जन्म सिर्फ जीवन की शुरुआत है; एक अवसर है, अंत नहीं है। बीज है। और बीज को वृक्ष बनाना, वृक्ष को फूल तक ले जाना--लंबी यात्रा है। इस लंबी यात्रा में बहुत कुछ समर्पित करना पड़ेगा है, बहुत कुछ अर्पित करना पड़ता है। इस लंबी यात्रा में बड़ी साधना करनी होती है। और इस जिंदगी की वीणा की रें-रें से घबड़ा कर वीणा तोड़ मत देना, कसम मत खा लेना कि अब कभी इसे बजाएंगे नहीं क्योंकि सिर्फ इससे बेसुरे राग उठते हैं। क्योंकि अगर वीणा न बजायी, तो याद रखना, परमात्मा के मंदिर में कभी प्रवेश भी न पा सकोगे।
हमने कल ही कसम यह खायी थी
अब न सहबा को मुंह लगाएंगे
काश! पहले से यह खबर होती
आज वह खुद हमें पिलाएंगे
कल ही कसम खा ली थी कि अब कभी शराब न पीएंगे। मगर क्या पता था कि परमात्मा स्वयं साकी बनकर ढालेगा हमारी प्याली में।
हमने कल ही कसम यह खायी थी
अब न सहबा को मुंह लगाएंगे
काश! पहले से यह खबर होती
आज वह खुद हमें पिलाएंगे
एक दिन जरूर परमात्मा तुम्हारे प्राणों की प्याली में शराब को ढालेगा, मधुरस ढालेगा। प्याली मत तोड़ देना! एक दिन परमात्मा तुम्हारी वीणा को बजाएगा। वीणा को तोड़ मत डालना!
हर कली मस्ते-ख्याब हो जाती
पत्ती-पत्ती गुलाब हो जाती
तूने डाली न मैं-फशां नजरें
वर्ना शबनम शराब हो जाती
जिंदगी को जीने की एक कला है। देखना आता हो, तो शबनम शराब हो सकती है। पीना आता हो, तो पानी भी कोई ऐसे पी सकता है कि मस्त हो जाए; और पानी न आता हो तो शराब भी पानी है। जीना आता हो, तो जिंदगी एक उत्सव है, एक महोत्सव है; और जीना न आता हो, तो जिंदगी एक बोझ है, जिसको हम किसी तरह ढोए चले जाते हैं।
देख ली है चांदनी, कैसा लगा संसार, बोलो;
धूल के इस फूल को अब कर रहे हो प्यार, बोलो।
उस दिन जरा बरसात थी,
यों ही अंधेरी रात थी,
रोक ली मृदु सोहिनी सी चीज यों मन मार, बोलो।
प्रिय, यह नदी का तीर है,
यमुना यहां गंभीर है,
दर्द के मारे रहो तो हो चुके बस पार, बोलो।
कंकड़ बहुत हैं, खेल लो,
दुख-दर्द, बाधा झेल लो,
मिल गए पिय राह में, तो क्या रहा उपहार, बोली।
इस भेद से अनज जान था,
कुछ और ही अनुमान था,
ध्यान था ब्रज की गली का, बज उठे यह तार, बोलो।
चमका करेगी दामिनी,
आया करेगी यामिनी,
प्रेम से फूल करेगा बावला कचनार, बोला।
कुछ काट हीरे की कनी
दोगे बना तुम चांदनी;
किंतु लाओगे कहां से यह गले का हार, बोलो।
प्रेम किसी का नाम है,
अनुराग भी कुछ का है,
तीन दिन की जिंदगी, जगते गए दिन चार बोलो।
जिंदगी बीती जाती है। तीन दिन की जिंदगी है और चार दिन बीत जा रहे हैं। जितनी है उससे ज्यादा बीतती जा रही है और व्यर्थ बीती जा रही है।
देख ली है चांदनी, कैसा लगा संसार, बोला;
धूल के इस फूल को अब कर रहे हो प्यार, बोलो।
लेकिन चांदनी को देखने के दो ढंग हैं। एक ढंग है अंधी आंखों का ढंग। चांदनी देख लेते और कुछ दिखायी नहीं पड़ता। और एक है आंख वाले का ढंग। चांदनी में असली चांद दिखायी पड़ जाता है। और एक है आंख वाले का ढंग। चांदनी में असली चांद दिखायी पड़ जाता है।
एक ढंग है: धूल के इस फूल को अब कर रहे हो प्यार, बोलो: जिसमें फूल धूल मालूम पड़ता है; और एक और ढंग है, जिसमें धूल भी फूल हो जाती है। सब तुम्हारी नजर पर निर्भर है। सब तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर है। दृष्टि सृष्टि है।
दरिया दिल दरियाव है, अगम अपार बेअंत।
सब महं तुम, तुम में सभे, जानि मरम कोइ संत।।
दरिया कहते हैं, यह महासागर है। अगम अपार बेअंत...न शुरुआत न अंत, न कोई इसकी सीमा, न कोई इसकी परिभाषा। सब महं तुम...तुम सबमें हो; तुम में सभे...और तुम में सब समाए हुए; जानि मरम कोइ संत...लेकिन यह मरम की बात, यह गहरी बात कोई कभार कोई बिरला कभी जान पाता है। जो जान पाता है, वही संत है।
संत का अर्थ होता है, जिसने सत्य को जान लिया। सत्य क्या है? कि परमात्मा के अतिरिक्त और सब असत्य है। और असत्य क्या है? कि परमात्मा असत्य है। और सब सत्य है। सत्य है: परमात्मा--और शेष सब उसकी छाया। और असत्य है: संसार--और परमात्मा सिर्फ एक कल्पना। दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में। एक जो स्थूल को मानते हैं। वे स्थूल ही रह जाते हैं। और एक जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म को मानते हैं। वे उसके साथ ही सूक्ष्म हो जाते हैं।
अगर उड़ान भरनी हो दूर आवाज, विराट के आकाश में, तो पंख चाहिए--
सूक्ष्म के पंख चाहिए। और अगर यही जमीन पर सरकते रहना हो कीड़े-मकोड़ों की तरह, तो फिर पंखों की कोई जरूरत नहीं है।
जब कभी मुझको तेरा खयाल आ गया
मेरे चेहरे की सारी थकन धुल गयी
मेरे दिल में खुशी के कंवल खिल गए
मेरे एहसास में चांदनी धुल गयी
और फिर इक मचलते हुए जोश से
चल पड़ा मैं तेरी जुस्तजू के लिए
अपनी वामान्द: आंखों की महराब में
कितनी गुलरंग शमए फरोजां किए
जाने कब तक तेरे रंगे-रुखसार को
आर्जूओं के खाकों में भरता रहा
लेके तखयील के बाजुओं में तुझे
गीत गाता रहा, रक्स करता रहा
यूं ही गाते हुए, रक्स रहते हुए,
मैं भटकता रहा, कितने सेहराओं में
रूह में तो उमंगें महकती रहीं
और कांटे खटकते रहे पांव में
मुद्दतों तक तुझे ढूंढते-ढूंढते
आ ही पहुंचा बिलाखिर मैं तेरे की
आंख उठाकर जो देखा तेरी शक्ल को
मुझको डसने लगा मेरा खवाबे-हसी
क्या यही वे भयानक खदो-खाल थे
जो मेरे अज्म को गुदगुदाते रहे
जिनकी खातिर मेरे नौजवां वलवले
जिंदगी भर मसाइब उठाते रहे
यह जो स्थूल जिंदगी है, इसको तुम कितना ही खोजो, इसकी सतह पर तुम कितनी ही लंबी यात्राएं करो, एक न एक दिन तुम पराजित होकर गिरोगे, बड़े विषाद में, क्योंकि यह दूर के ढोल है जो सुहावने मालूम पड़ते हैं। परिधि पर नहीं है परमात्मा, केंद्र पर है। ऊपर-ऊपर मत दौड़ते रहो, भीतर उतरो। और भीतर उतरने की सीढ़ी तुम्हारे पास है। किसी से सीढ़ी उधार भी नहीं लेनी है। सीढ़ी तुम अपने साथ ही लाए हो। लेकिन तुम अपने भीतर देखते ही हनीं। तुम्हारी आंखें बाहर की तरह जड़ हो गयी हैं, वे भीतर मुड़ना भूल गयी हैं। पक्षाघात लग गया है। तुम्हें याद नहीं रही कि भीतर भी कुछ है। और जो जानते हैं, जिन्होंने समन को जाना, वे कहते हैं: बाहर का आकाश बहुत छोटा है भीतर के आकाश के मुकाबले। और बाहर की रोशनी भीतर की रोशनी के मुकाबले अंधेरे जैसी है। और बाहर की जिंदगी भीतर की जिंदगी के सामने मौत जैसी है। और बाहर का धन, भीतर के धन से उसकी तुलना ही नहीं की जा सकती।
माला टोपी भेष नहिं, नहिं सोना सिंगार।
सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार।।
ऊपर-ऊपर की चीजों से कुछ भी न होगा। कितने ही औपचारिक क्रियाकांड करो--हवन, पूजन, यज्ञ--कितने ही ऊपर के आवरण बना लो--रामनाम की चदरिया ओढ़ लो-- माला टोपी भेष नहिं, नहिं सोना सिंगार। सदा भाव सतसंग है...बस एक ही चीज काम आ सकती है, वह है भाव। ऊपर के रंग-ढंग नहीं, भीतर की भावदशा। सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार...अगर परमात्मा को खोजने का संकल्प किया हो, करार किया हो, अगर जीवन को सार्थक बनाने की अभीप्सा जगी हो, अगर यह तय किया हो कि यूं ही न मर जाएंगे, जान कर जाएंगे; अगर यह निर्णय तुम्हारे भीतर सघन हुआ हो कि यह भी कोई जिंदगी है कि ठीकरे इकट्ठे करते रहें और एक दिन भर जाएं; यह भी कोई जिंदगी है कि व्यर्थ इकट्ठा करते रहें और मौत सब छीन ले; यह भी कोई जिंदगी है कि नाम के पीछे दीवाने रहें और जब जाएं तो चार दिन बाद नाम का कोई पता भी न रहें।
जैन शास्त्रों में उल्लेख है, एक चक्रवर्ती सम्राट मरा। चक्रवर्ती सम्राट का अर्थ होता है, जो सारे जगत का सम्राट है, छहों महाद्वीपों का सम्राट है। जैन शास्त्र कहते हैं कि चक्रवर्ती सम्राट जब करता है तो उसके लिए एक विशेष आयोजन है। स्वर्ग में हिमालय का जो समानांतर पर्वत कैलाश है, चक्रवर्ती सम्राट को कैलाश के ऊपर अपने हस्ताक्षर करने का मौका मिलता है। सिर्फ चक्रवर्ती सम्राट को। तो स्वभावतः जब यह चक्रवर्ती सम्राट को अवसर आया कि यह जाए स्वर्ग और कैलाश पर्वत पर अपने हस्ताक्षर खोद दे, तो इसके आनंद की कोई सीमा न थी। बड़े फौज-फांटे लेकर चला। लेकिन सब फौज-फांटे द्वार पर रोक दिए गए। द्वारपाल ने कहा, आप अकेले जाएं, नियम यही है। आप जाएं, अपना नाम खोद दें, वापिस लौट आएं। बाकी सब लोग बाहर रुकें।
मजा वैसे ही कम हो गया। इस दुनिया का मजा ही यह है कि दूसरे लोग देखें। अकेले कमरे में बैठ कर तुम्हें कोई प्रधानमंत्री बना दे और किसी को खबर ही न दे, तो सार भी क्या है? ऐसा लगेगा जैसे किसी नौटंकी में, या रामलीला में! और देखने वाला कोई न हो, तो मजा तो सारा चला गया। इतना फौज-फांटा लाया था, मित्रो को निमंत्रण करके लाया था, यह सब द्वार पर रुक गए! यह अपूर्व घटना है, सदियों में घटती है। सदियों-सदियों में कभी कोई एक चक्रवर्ती होता है।
लेकिन फिर गया भीतर--छेनी-हथौड़ा लेकर--और जब उसने विराट कैलाश देखा, तो दंग रह गया! हमारा हिमालय तो कुछ भी नहीं। जैसे हिमालय के सामने एक रेत का कण है, ऐसा हमारा हिमालय कैलाश के सामने एक रेत का कण। इतना विराट था, ऐसे उत्तुंग शिखर थे, क्षणभर तो अभिभूत हो गया! फिर खोजने लगा जगह कि कहां नाम खोदूं, तब और मुसीबत हो गयी! सारा कैलाश नामों से भरा पड़ा था। पहले तो सम्राट हो चुके हैं, इतने चक्रवर्ती हो चुके हैं कि जगह ही नहीं थी! कि कहां दस्तखत करे! यह तो सोचता था कि शायद दो-चार दस्तखत होंगे वहां--हों दस-पांच--लेकिन यह विराट पर्वत शृंखला सारी दस्तखतों से भरी थीं। यहां इंचभर जगह नहीं थी। तो वह लौटा। उसने पहरेदार को पूछा कि क्षमा करें, मेरी तो सारी आशा पर पानी फिर गया। पहले तो लोग भीतर न जा सके। मगर अब मैं जानता हूं कि अच्छा ही हुआ लोग भीतर न गए, यह नियम ठीक है, नहीं तो बड़ी भद्द हो जाती। मैं तो सोचता था कि मैं कुछ, चुने, इने-गिने लोगों में, उंगलियों पर गिने लोगे में हूं। यहां तो न मालूम अनंत चक्रवर्ती हो चुके हैं। मैं तुमसे पूछता हूं, जगह कहां है? उसने कहा: अब तुम क्षमा करो, किसी का भी नाम मिटा कर अपना लिख दो, क्योंकि पहले भी यही होता रहा है। लोग मिटा-मिटा कर नाम लिख जाते हैं।
अब तो मजा और भी चला गया! अगर मैं मिटाकर लिख रहा हूं, कल कोई आएगा और मेरा मिटाकर लिख जाएगा।
मगर यह दशा है। हम दौड़ रहे नाम के पीछे, धन के पीछे, पद-प्रतिष्ठा के पीछे, हाथ क्या लगेगा? यह कमाना नहीं है, यह गंवाना है।
एक ही चीज संकल्प करने जैसी है कि प्रभु को जान लूं, क्योंकि वही शाश्वत, वही सनातन।। जिनके भीतर थोड़ा भी पौरुष है, साहस है, वे अपने सारे संकल्प को एक ही दिशा में गतिमान कर देते हैं कि स्वयं को जाने बिना न जाऊंगा। यह भीतर का दीया जलाऊंगा ही, जलाऊंगा ही! सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार।
और तो पास मेरे हिज्र में क्या रक्खा है।
इक तेरे दर्द का पहलू में छुपा रक्खा है।
आह वह याद कि उस याद को होकर मजबूर!
दिले-मायूस ने मुद्दत से भुला रक्खा है।।
हमारे पास देने को भी क्या है परमात्मा को?
और तो पास मेरे हिज्र में क्या रक्खा है...
इस विरह की अंधेरी रात में हमारे पास देने को है भी क्या? हम कीमत कैसे चुकाए?
और तो पास मेरे हिज्र में क्या रक्खा है।
इक तेरे दर्द को पहलू में छुपा रक्खा है।।
मगर वही काफी है। बस उसे पाने का एक दर्द तुम्हारे पहलू में आ जाए कि स्वाति की बूंद पड़ गयी सीप में, मोती बनेगी। और वही मोती आत्मा है।
साल-हा साल की तलाश के बाद
जिंदगी के चमन से छापे हैं
आपको चाहिए तो पेश करूं
मेरे दामन में चंद कांटे हैं
और तो परमात्मा को हम क्या दे सकते हैं?
साल-हा साल की तलाश के बाद
जिंदगी के चमन से छांटे हैं
आपको चाहिए तो पेश करूं
मेरे दामन में चंद कांटे हैं
अपने सारे दुख को, अपने सब कांटों को उसके चरणों पर उड़ेल दो। और मैं तुमसे कहता हूं यह तुमने कांटे उंडेले, कि उंडेलते ही फूल हो जाते हैं। तुमने पत्थर उसे चरणों में डाले, कि डालते ही कोहनूर हो जाते हैं। तुमने चढ़ाया भाव से--इसी मग कामिया है, इसी में जादू है।
गम की रातों के ख्वाब लाया हूं
हद यह इज्तिराब लाया हूं
शोख लफ्जों के आबगीनों में
आंसुओं की शराब लाया हूं
और तो कुछ है नहीं हमारे पास। लेकिन आतुरता के पात्रों में अपने आंसुओं की शराब तो चढ़ाने ले जा सकते हो!
गम की रातों के ख्वाब लाया हूं...
अब तक की हमारी जिंदगियां थी क्या? गम की रातें थीं, दुख-भरी, विरह की।
हद यह इज्तिराब लाया हूं...
बस एक आतुरता है, पाने की एक अभीप्सा है, एक प्यास है।
शोख लफ्जों के आबगीनों मग
आंसुओं की शराब लाया हूं
तुम्हारे शब्द क्या है? तुम्हारी प्रार्थनाएं क्या हैं? तुम्हारे आंसुओं की अभिव्यक्तियां हैं।
नहीं तो शब्दों से कहा जा सकता, उसे आंसुओं से कहो। नहीं जो निवेदन किया जा सकता, नाचकर कहो। जो बोला जा सकता, झुककर कहो। कठिनाई है। प्रभु की प्रार्थना कैसे हो? यह करार कैसे हो?
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं
दे दिए अरमान अगणित
पर न उनकी पूर्ति दी,
कह दिया मंदिर बनाओ
पर न स्थापित मूर्ति की।
शह बताया शून्य की आराधना करते रहो,
चिर-पिपासित को दिया मरुस्थल, मगर निर्झर नहीं।
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं?
स्नेह का दीपक जला कर
आह और कराह दी,
रूप मृन्मय दे, हृदय में
अमरता की चाह दी।
कहदिया बस मौन होकर साधना करते रहो,
पा जिसे तू जी सको, खोकर उसे तू मर नहीं।
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं?
गगन सीमा हीन, दुस्तर सिंधु
परिधि अथाह दी,
आदि-अंत-विहीन, मुझको
विषम-बीहड़ राह दी।
कह दिया, अविराम जग में भटकते फिरते रहो,
कर प्रवासी दे दिया परदेश, लेकिन घर नहीं।
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं?
नहीं, प्रार्थना को शब्दों में बांधने का कोई उपाय नहीं है। मगर आंसुओं में उतरती है प्रार्थना। नाचो! झुको! गाओ! और उसी करार में, उसी संकल्प में परमात्मा की पहली झलकें आनी शुरू होती हैं। झरोखे खुलते हैं, उसकी छवि उतरती है, उसकी झंकार सुनायी पड़ती है।
परआतम के पूजते, निर्मल नाम अधार।
पंडित पत्थल पूजते, भटके जम के द्वार।।
और पूज चुके हो तुम पत्थरों को बहुत--फिर वे पत्थर मंदिरों के हों कि मस्जिदों के हों--पूज चुके हो पत्थर तुम बहुत। उन पत्थरों से तुम कहीं भी पहुंच न सकोगे। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पत्थरों में परमात्मा नहीं है। लेकिन परमात्मा अगर तुम्हें प्राणों नहीं दिखायी पड़ रहा तो पत्थरों में क्या खाक दिखायी पड़ेगा! पहले प्राणों में पहचान हो जाए तो फिर पत्थरों में भी दिखायी पड़ता है। फिर मंदिर के पत्थरों में भी वही है, फिर काबा के पत्थर में भी वही है, मगर पहले प्राणों में पहचान होनी चाहिए। प्राणों में दिख जाए तो सब जगह दिखायी पड़ता है।
लेकिन लोग पत्थर क्यों पूजते हैं? पत्थर पूजने में आसानी है; खतरा नहीं है, चुनौती नहीं है। पत्थर कुछ मांगता नहीं। चढ़ा आए दो फूल तो भी ठीक, न चढ़ा आए तो भी ठीक। लेकिन अगर तुम जीवंत सदगुरु को खोजोगे तो सस्ता सौदा नहीं है। फूल चढ़ाने से न होगा, प्राणों के फूल चढ़ाने होंगे। अगर तुम जीवंत सदगुरु खोजोगे, अगर तुम किसी कृष्ण, कबीर, दरिया, नानक, मोहम्मद, मंसूर, ऐसे किसी आदमी के चरणों में बैठोगे, तो सस्ता सौदा नहीं है। फिर वहां कायरता से न चलेगा। वहां जोखम उठानी होगी। इसलिए लोग बड़े होशियार हैं, लोग बड़े चालबाज हैं। उन्होंने जिंदा मंसूरों को तो सूली चढ़ा दिया, जिंदा जीसस को तो मार डाला और फिर चर्च बना लिए, और उनमें पत्थरों की मूर्तियां रख लीं, और पत्थरों की मूर्तियों की पूजा चल रही है। यह पूजा बड़ी आसान है। यह खिलौने हैं तुम्हारे हाथ के। इन खिलौनों के साथ तुम खेलते रहो, तुम्हारी जिंदगी न बदलेगी। जिंदगी बदलती है जब कोई जोखम लेता है।
पंडित पत्थल, पूजते, भटके जम के द्वारा।। पूजते रहो और पांडित्य को सम्हालते रहो, मौत के दरवाजों पर भटकते रहोगे। एक मौत से दूसरी मौत, दूसरी से तीसरी मौत, मौत ही मौत की सीमाओं में तुम अटकते रहोगे। अनंत सीमाएं हैं मृत्यु की। अमृत से तुम्हारा संबंध न हो सकेगा। संबंध का एक ही उपाय है: परआतम के पूजते; जहां तुम्हें परमात्मा की साक्षात प्रतीति हो, वहां झुकना, वहां अपने अहंकार को तोड़ देना; वहां गिर पड़ना; वहां रोकना मत, पुरानी आदतों के कारण अपने को सम्हालना मत! और एक बार किन्हीं आंखों में जिंदा परमात्मा की थोड़ी सी झलक मिल जाए। एक बार सदगुरु से संग हो जाए, फिर क्रांति हो गयी, फिर बुझा दीया जल गया।
रहने लगी उनकी याद हरदम।
अब और हमें रहेगा क्या याद?
एक ही याद रह जाती है फिर चौबीस घंटे, सतत, श्वास-श्वास में पिरो जाती है, समो जाती है।
यह भी आदाबे-मोहब्बत ने गवारा न किया।
उनकी तस्वीर भी आंखों से निकाली न गई।।
एक बार ही दो आंख चार आंखें हो जो; किसी ऐसे से मिलन हो जाए जिसने उस सनम को जाना हो, उस प्यारे को जाना हो, उस प्रीतम की बांहों में जिसकी बांहें हों; फिर वह तस्वीर तुम्हारी आंख से निकलेगी नहीं। निकालना भी चाहोगे तो निकलेगी नहीं। फिर यह अदब के बाहर की बात है कि उस तस्वीर को तुम आंखों से निकालो। यह अदब बर्दाश्त न करेगा।
पर्दे से इक झलक जो वोह दिखला के रह गए।
मश्ताके-दीद और भी ललचा के रह गए।
और एक बार किसी सदगुरु से पहचान हो जाए, जरा सा घूंघट उठे, जरा सी झलक मिल जाए उस प्यारे की, कि फिर दीवानगी पैदा होती है। उसी दीवानगी का नाम संन्यास है। उसी पागलपन का नाम संन्यास है।
पर्दे से इक झलक जो वोह दिखला के रह गए।
मुश्ताके-दीद और भी ललचा के रह गए।।
फिर तो मन करता एक बात को कि कैसे डूब जाऊं, कैसे पूरा-पूरा डूब जाऊं?
हुस्ने-फितरत में जज्ब हो जाऊं
सीमगूं रौशनी में खो जाऊं
काश मैं आज रात-भर के लिए
चांदनी से लिपट के सो जाऊं
इतनी ही शुद्ध है वह प्रतीति, जैसे क्वारी चांदनी। हुस्ने-फितरत में जज्ब हो जाऊं...वह जो यथार्थ का सौंदर्य है, सत्य का सौंदर्य है, उसमें कौन न खो जाना चाहेगा--एक बार झलक मिले बस!
मंदिर जो असली गया, वह लौटता नहीं। लौट सकता नहीं। प्रार्थना असली जगी तो उसी प्रार्थना में प्रार्थी खो जाता है। फिर लौटना कहां?
हुस्ने-फितरत में जज्ब हो जाऊं
सीमगं रौशनी में खो जाऊं
काश मैं आज रात-भर के लिए
चांदनी से लिपट के सो जाऊं
उठने दो ऐसी याद। दरिया कहै सब्द निरबाना। सुनो!
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आयी रंगोनूर लिए
जैसे इक सीमपोश दोशीजा
मकबरे में जला रही हो दिए
जैसे कोई क्वांरी लड़की, शुभ्र-शुभ्र वस्त्र पहने जाकर मंदिर में दीया जलाती हो, ऐसी ही उसकी याद आ जाती है--एक बार सदगुरु से मिलना हो जाए।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में...
दिल के अंधेरे में ऐसी कौंध जाती याद...
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आयी रंगोनूर लिए
इस तरह आयी रंगोनूर लिए
खूब रंग लिए, खूब प्रकाश लिए, खूब बहार लिए वसंत की भांति, मधुमास की भांति...
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आयी रंगोनूर लिए
जैसे इक सीमपोश दोशीजा
मकबरे में जला रही हो दिए
और यह याद असली जन्म है। एक जन्म है जो मां-बाप से मिला, वह केवल देह का जन्म है। और एक और जन्म है जो सदगुरु से मिलता है--दरिया से, नानक से, बहाऊद्दीन से, बुद्ध से, लाओत्सू से, जरथुस्त्र से--एक और जन्म है, सदगुरु से मिलता है। उस जन्म का जब तक तुम्हें अनुभव न हो जाए, तब तक जानना अभी बाहर ही भटक रहे, मंदिर में प्रवेश नहीं हुआ। उस जन्म को ही बताने के लिए इस देश ने एक अदभुत शब्द खोजा--द्विज।
साधारणतः ब्राह्मण को द्विज कहते हैं; वह बात ठीक नहीं। सभी ब्राह्मण द्विज नहीं होते, यद्यपि सभी द्विज ब्राह्मण होते हैं। द्विज का अर्थ है, दुबारा जो जन्मा; सदगुरु से जो जन्मा। जो दुबारा जन्मा, वह ब्राह्मण। लेकिन सभी ब्राह्मण द्विज नहीं होते, याद रखना। शूद्र भी द्विज हो सकता है। और ब्राह्मण की भी द्विज होने की कोई अनिवार्यता नहीं है।
रैदास द्विज हो गए, चमार थे। और गोरा द्विज हो गया, कुम्हार था। द्विज होने में तुम्हारे जन्म का कोई संबंध नहीं है। जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं।
मेरे हिसाब में दुनिया में दो वर्ण हैं--शूद्र और ब्राह्मण। जन्म से सभी शूद्र होते हैं। फिर सौ में से कभी एकाध श्रम से ब्राह्मण होता है। दुबारा जो जन्म को उपलब्ध होता है, समाधि में जो जन्म लेता है, ध्यान में जो जन्म लेता है।
सुमिरन माला भेष नहिं, नाहीं, नाहीं मसि को अंक...
यह लिखे-पढ़े की बात नहीं है, यह शास्त्रों और किताबों की बात नहीं है। नाहीं मसि को अंक। कबीर का वचन तुम्हें याद है न: मसि कागद छूयो नहिं, कि न तो स्याही छुई कभी और न कभी कागज छुआ। और कबीर ने यह भी कहा है: लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। यह देखने की बातें हैं, दर्शन की, अनुभव की।
सुमिरन माला भेष नहिं, नाहीं मसि को अंक।
सत्त सुकृत दृढ़ लाइकै, तब तोरै गढ़ बंक।।
यह जो अंधेरे का विकट जाल है; यह जो माया-मोह का, भ्रांतियों का, स्वप्नों को, वासनाओं का विकट जाल है, यह किताबें पढ़ने से नहीं टूटेगा--बढ़ भला जाए टूटेगा नहीं। यह टूटता है सब सत्य की प्रतीति होती है, सत्य में सुदृढ़ता होती है। मगर कौन करवाए सत्य में सुदृढ़ता? जिसने जाना हो, वह जनाए; जो पहुंचा हो, वह पहुंचाए।
दरिया भवजल अगम अति, सतगुरु करहु जहाज...
इसलिए दरिया कहते हैं कि यह सागर बहुत बड़ा है, सदगुरु को जहाज बनाओ।
दरिया भवजल अगम अति, सतगुरु करहु जहाज।
तेहि पर हंस चढ़ाइकै, जाड़ करहु सुखराज।।
और अगर चढ़ जाओ तुम किसी सदगुरु की नाव पर, तो पहुंच जाओ उस पर।
कोठा महल अटारिया, सुनेऊ स्रवन बहुराग।
बड़ा प्यारा वचन है, खूब सम्हाल कर हृदय में रख लेना! कोठा महल अटारिया...सुने होंगे तुमने कोठियों पर, महलों में, अटारियों में...सुनेऊ स्रवन बहु राग...बहुत राग सुने होंगे, बहुत गीत सुने होंगे, बहुत संगीत सुने होंगे। मगर वे सब ऐसे हैं जैसे कौओं की कांव-कांव। तुमने अभी कोयल का राग सुनी ही नहीं।
कोठा महल अटारिया, सुनेऊ स्रवन बहु राग।
सतगुरु सबद चीन्हें बिना, ज्यों पंछिन महं काग।।
जब तक तुमने सदगुरु का वचन नहीं सुना तब तक कोयल तुम्हारे भीतर कूकी नहीं। पपीहा तुम्हारे भीतर पुकारा नहीं। तब तक तुम कौओं की ही आवाज सुनते रहे, कांव-कांव ही सुनते रहे।
निगाहे-यार जिसे आश्नाए-राज करे।
वोह अपनी खूबिए-किस्मत पै क्यों न नाज करें।
धन्यभागी हैं वे, जो सुन लेते हैं! दरिया कहै सब्द निरबाना! धन्यभाग हैं वे, जो देख लेते हैं, सुन लेते हैं, पहचान लेते हैं! धन्यभाग हैं वे, जो अपने हृदय को उघाड़ देते हैं!
निगाहे-यार जिसे आश्नाए-राज करे...
और उस प्यारे की आंख जिसे अपने पास बुलाती हो...परिचय देने को...
वोह अपनी खूबिए-किस्मत पै क्यों न नाज करे।
अगर नाज करने योग्य बात है कहीं दुनिया में कोई एक, तो बस वह यही है कि परमात्मा तुम्हारी तरफ देख ले। और परमात्मा पहली बार तुम्हारी तरफ किसी सदगुरु की आंख से ही देख सकता है। सीधा-सीधा तुम उससे संबंधित न हो सकोगे। तुम उससे बहुत दूर, तुम्हारी जान-पहचान नहीं, कोई चाहिए, जो तुम्हारा परिचय करा दे।
इतना मुझे विश्वास है!
कितना मधुर प्याला पीए,
कितनी सरल हाला पीए,
पर सुप्ति हो या जागरण,
उन्माद हो या चेतना,
उर में धधकती जो विरकी
दाह जा सकती नहीं!
इतना मुझे विश्वास है!
घर द्वार कोई छोड़ दे,
संबंध सारे तोड़ दे,
विचरण अकेला ही करे
निर्जन वनों में, किंतु यह
उलझी हुई तन से, कभी
परवाह जा सकती नहीं!
इतना मुझे विश्वास है!
कोई हृदय खोकर मिले,
परिरंभ-लय होकर मिले,
पर प्यार के संचार में
दो एक क्या शत बार भी
मिलकर भी फिर से मिलन की
चाह जा सकती हनीं!
इतना मुझे विश्वास है!
खोज लो कुछ इस जगत में, परमात्मा की खोज तुम्हारे भीतर बार-बार सिर उठाती रहेगी। पा लो कुछ भी इस जगत में, लेकिन परमात्मा बीच-बीच में व्यवधान डालता रहेगा। कितना ही प्रेम घटे इस जगत में, जब तक प्रार्थना न घटेगी तब तक कुछ भी न घटेगा।
मगर यह सौभाग्य की बात है कि लाख हम उपाय करें, कितने ही हम दूर निकल जाएं, मगर परमात्मा की खोज सदा के लिए समाप्त नहीं हो सकती--बीज दग्ध नहीं हो सकता है! कितना ही दबाएं और पत्थरों में कितना ही छिपाएं, एक न एक दिन अंकुरित होता है बीज।
इतना मुझे विश्वास है!
कितना मधुर प्याला पीए,
कितनी सरस हाला पीए,
पर सुप्ति हो या जागरण,
उन्माद हो या चेतना,
उर में धधकती जो विरह की
दाह जा सकती नहीं!
इतना मुझे विश्वास है!
उसी विश्वास के सहारे, उसी विश्वास के पतले से धागे के सहारे लोग परमात्मा तक पहुंचते रहते हैं। तुम भी ऐसे ही पहुंचोगे। करार करो; संकल्प करो; जागने का निर्णय लो। सुनो, सुन सको तो; देखो, देख सको तो; दरिया कहै सब्द निरबाना...!
आज इतना ही।




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