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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-30

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तीसवां प्रवचन
देख कबीरा रोया

एक आदमी को परमात्मा का वरदान था कि जब भी वह चले, उसकी छाया न बने, उसकी छाप न पड़े। वह सूरज की रोशनी में चलता तो उसकी छाया नहीं बनती थी। जिस गांव में वह था, लोगों ने उसका साथ छोड़ दिया। उसके परिवार के लोगों ने उसको घर से बाहर कर दिया। उसके मित्र और प्रियजन उसको देख कर डरने और भयभीत होने लगे। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि उसे गांव के बाहर जाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा। वह बहुत हैरान हुआ, तो उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैंने केवल छाया खो दी है, और लोग मुझसे इतने भयभीत हो गए हैं, लेकिन लोग तो आत्मा भी खो देते हैं, और तब भी उनसे कोई भयभीत नहीं होता है।

पता नहीं, यह कहां तक सच है कि किसी आदमी ने अपनी छाया खो दी हो। यह बात बड़ी काल्पनिक मालूम होती है, लेकिन दूसरी बात सत्य है। बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर, जो अपनी आत्मा ने खो देते हों। अधिकतम लोग आत्मा खो देते हैं और छाया को बचा लेते हैं। सिर्फ छाया बच जाती है और भीतर जो भी महत्वपूर्ण है, वह सब खो जाता है। हमारे देश में यह दुर्भाग्य और भी बहुत घना होकर प्रकट हुआ है। यद्यपि, हम आत्मा की बातें करते रहे हैं हजारों वर्षों से, लेकिन वे बातें केवल बातें ही हैं और हमारे देश ने बहुत बातें करते हैं, ताकि आत्मा खो दी है। शायद हम इसीलिए आत्मा और परमात्मा की बहुत बातें करते हैं, ताकि आत्मा के खो जाने के तथ्य को भूले रहें।
इधर हजारों वर्षों से हम भ्रम में रहे हैं कि हम जगत गुरु हैं। यह बात सरासर झूठी है। हम इस भ्रम में भी रहे हैं कि हम बहुत धार्मिक हैं, यह बात भी सरासर झूठी है। हमसे ज्यादा अधार्मिक जाति जमीन पर खोजनी आज कठिन है। लेकिन अपने अधर्म को, अपनी अनीति को, अपनी जीवन की व्यर्थता और गलत ढंग को हम बहुत अच्छी बातों में छिपाने में कुशल हो गए हैं। हमारे पास सिवाय सिवाय बातों के और कुछ भी नहीं रह गया है, और सिवाय शास्त्रों और ग्रंथों के कुछ भी नहीं रह गया है। हमारा आदमी बहुत पहले खो चुका है और मर गया है। क्या हम इन झूठी बातों को दोहराते रहेंगे? या कि हजारों वर्षों से जो सपना हमने अपने मुल्क में पैदा किया था कि हम मनुष्य को उसके शरीर के ऊपर उठाएंगे, और हम मनुष्य के जीवन को परम जीवन से जोड़ेंगे, और मनुष्य के जीवन को हम इस शांति से भर देंगे, जो इस पृथ्वी पर दुर्लभ है, और हम मनुष्य के जीवन को एक आनंद और अमृत का स्रोत बना देंगे? क्या हम इस सपने को पूरा करेंगे या केवल बातें ही करते रहेंगे?
ये बातें कितनी ही दुखद मालूम होती हों, लेकिन दुनिया के सामने इन बातों की व्यर्थता रोज-रोज स्पष्ट होती चली जाती है। हमने ने केवल आत्मा खो दी हैं, बल्कि आत्मा की बातों में हमने संसार को भी खो दिया है और आज हम उन कौमों के सामने भीख मांगने को खड़े हैं, जिनकी उम्र हमारे सामने न कुछ है। अमेरिका की सभ्यता की कुल उम्र सौ वर्ष है। रूस की सभ्यता की कुल उम्र, जैसा रूस आज है, पचास वर्ष से ज्यादा नहीं है। और हम पांच हजार वर्ष पुरानी कौम और पांच हजार वर्ष पुराना देश, आज बच्चों के सामने भीख मांगने को मजबूर हो गए हैं। हमने आत्मा भी खो दी है और हम शरीर खोने की तैयारी पर भी पहुंच गए हैं!
क्या हम उसको चुपचाप देखते रहें? क्या इस आते हुए आसन्न संकट को हम चुपचाप सहते रहें? और क्या उन राजनीतिज्ञों के हाथ में सारी बात छोड़ दें, जो कि हमारी बीमारी के लिए उतने ही अग्रणी हैं, जितनी हमारी राजनीति के। हमारी रुग्णता और हमारे पागलपन और हमारी बीमारी के जो नेता हैं, हम उन पर ही छोड़ दें? क्या उन पर छोड़ देने से इस मुल्क के भविष्य का कोई भी प्रकाशपूर्ण पक्ष प्रकट होता है?
इधर बीस वर्षों में हिंदुस्तान की गति और नीचे गिरी है--हमारी नैतिकता नीचे गई है, हमारा चरित्र नीचे गया है। यह हो सकता है कि हमने कुछ मकान बना लिए हैं, यह भी हो सकता है कि हमने कुछ कारखाने खोल लिए हैं, यह हो भी सकता है कि हमने कुछ रास्ते सुधार लिए हैं। लेकिन रास्तों का क्या होगा और कारखानों का क्या होगा और मकानों का क्या होगा, जब हमने आदमी को ही खो दिया हो!
और आदमी को हम रोज खोते जा रहे हैं। यह बहुत महंगा सौदा है और मुल्क में जो केवल बहुत अंधे हैं, जो केवल बहुत बहरे हैं, केवल वे ही इसको बर्दाश्त कर सकते हैं और देखते रह सकते हैं। जिनके मन में थोड़ी भी करुणा है  और जिनके मन में थोड़ा भी प्रेम है और जिनके हृदय में थोड़ी भी जीवन को बदलने की प्यास और अकुलाहट है, उन्हें कुछ करना है। यह चुनौती इतनी स्पष्ट है कि केवल मुर्दे ही इस चुनौती को बिना लिए रह जाएंगे। जिनके भीतर जीवन है, यह चुनौती स्वीकार करनी ही होगी।
एक छोटी सी घटना मुझे याद आती है। एक बहुत बड़े महल में आग लग गई थी। और उस महल के सामने बहुत लोग इकट्ठे थे। महल का मालिक रोता हुआ, आंसू बहाता हुआ बाहर खड़ा था। उसने सारा होश खो दिया था। उसकी कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या हो गया है। नौकर और पड़ोस के लोग भीतर से सामान, तिजोरियां और बहुमूल्य चीजें निकाल कर ला रहे थे। फिर आखिरी क्षण आ गया मकान के जलने का और लोगों ने उस मकान मालिक को पूछा कि कुछ और भीतर तो नहीं रह गया है? उस मकान मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी याद नहीं है, मेरी कुछ समझ में नहीं पड़ता है। तुम एक बार भीतर जाकर और देख लो। वे भीतर गए और वहां से छाती पीटते और रोते हुए वापस लौटे। मकान मालिक का इकलौता लड़का भीतर ही जल गया था! वे मकान बचाने में लग गए थे और मकान का असली मालिक जल कर समाप्त हो गया था!
मैंने जब यह बात सुनी थी, तो मैंने कहा कि किसी महल में यह घटना घटी हो या न घटी हो, लेकिन हमारा जो देश का महल है वहां यह घटना रोज घट रही है। हम सामान बचाने में लगे हैं और सामान का मालिक रोज मरता जा रहा है। और आने वाले बच्चों के लिए हम जो भविष्य खड़ा कर रहे हैं, वह इतना दुखद है कि बच्चे, आने वाली पीढ़ियां हमें सदा-सदा कि लिए कोसेंगी, हमें सदा के लिए दोषी ठहराएंगी। हम सदा के लिए आने वाले इतिहास की अदालत में बहुत मुजरिम की तरह, बहुत अपराधी की तरह खड़े होने को हैं, यह हमें पता होना चाहिए। मुझे यह दिखाई पड़ता है कि जो लोग अपराध में भाग न भी लेते हों, लेकिन चुपचाप अपराध को होते हुए देखते हों, वह भी अपराधी ही होते हैं, यह भी हमें समझ लेना चाहिए। और हम सारे लोग इस बड़े अपराध में सम्मिलित हैं, जो मुल्क के साथ हो रहा है।
क्या कुछ नहीं किया जा सकता है? क्या हताशा और निराशा इतनी है कि कुछ भी नहीं हो सकता है? मुझे ऐसा मानने का कोई भी कारण दिखाई नहीं पड़ता है। मैं आशा से भरा हुआ हूं और मुझे लगता है कि रास्ते खोजे जा सकते हैं। आदमी के मन को बदलने को, आदमी के चरित्र को बदलने को, उसको प्राण देने को, उसको आत्मा देने को मार्ग खोजे जा सकते हैं। इन मार्गों की खोज में, इन मार्गों की चर्चाओं में दस वर्षों से मैं मुल्क के लाखों लोगों के पास गया हूं और मेरी आशा रोज-रोज घनीभूत होती हुई दिखाई मालूम पड़ी। और मुझे यह भी मालूम पड़ा है कि अगर मुल्क के जो सामान्य जन हैं, अगर मुल्क के नेता उन्हें गलत रास्तों पर न ले जाएं तो मुल्क के सामान्य जन के बदलाहट की बहुत आसान स्थिति है, कोई कठिनाई नहीं पैदा हो गई है। लेकिन राजनीति ने इतने जोर से हमारे ऊपर हमला बोला है कि जीवन के सारे अंग उसके नीचे दब गए हैं। जैसे राजनीतिज्ञ ही सब कुछ है और शेष कुछ भी नहीं है। लेकिन स्मरण रहे, राजनीति ने तो किसी मुल्क के चरित्र को बनाती है, राजनीति ने किसी मुल्क को आत्मा देती है! राजनीति न किसी मुल्क को शांति देती है और न आनंद देती है, और न जीवन को अर्थ और मीनिंग देती है। राजनीति केवल द्वंद्व देती है, संघर्ष देती है और महत्वाकांक्षा देती है। और महत्वाकांक्षा, एंबीशन, जितनी बढ़ती चली जाती है, उतनी मन को वायलेंसहिंसा और एक-दूसरे के प्रति शत्रु के भाव से भरती चली जाती है।
यह जो दशा है, यह बदली जा सकती है! हमें जीवन के सारे सूत्रों को एक बार फिर से पुनर्विचार कर लेना जरूरी होगा और मनुष्य के विज्ञान को निर्मित करना जरूरी होगा। और मनुष्य के विज्ञान का एक ही सूत्र अंत में मैं आपसे कह देना चाहता हूं। लंबी बात करनी तो कठिन नहीं है, लेकिन सबसे पहले एक सूत्र बहुत जरूरी है, और वह यह है, इसके पहले कि हम कुछ भी कर सकें, यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि हम क्या हो गए हैं।
मैंने सुना है, एक छोटे से स्कूल में एक इंस्पेक्टर परीक्षा के लिए आया था, निरीक्षण के लिए। उस स्कूल की बड़ी कक्षा में जाकर उसने बच्चों से कहा कि  तुम्हारी कक्षा में तीन विद्यार्थी सबसे श्रेष्ठ हों, नंबर एक, नंबर दो, नंबर तीन; वे खड़े हो जाएं। और पहले नंबर एक का विद्यार्थी आए और बोर्ड पर आकर सवाल हल करे।
पहले नंबर का विद्यार्थी आया, उसने बोर्ड पर सवाल हल कर दिया और अपनी जगह वापस बैठ गया। फिर नंबर दो का विद्यार्थी आया, उसने भी सवाल हल किया और वह भी अपनी जगह आकर बैठ गया। फिर नंबर तीन का विद्यार्थी आया। लेकिन नंबर तीन का विद्यार्थी बहुत डरता हुआ आया और घबड़ाया आया। बहुत भयभीत आया, और बोर्ड पर वह सवाल करने को था कि इंस्पेक्टर ने उसे गौर से देखा और वह पहचान गया कि यह लड़का धोखा दे रहा है। वह जो नंबर एक आया था, वह लड़का यही था और दुबारा आ गया था।
इंस्पेक्टर ने उसे पकड़ा और कहा, तुम धोखा दे रहे हो! तुम एक दफा आकर सवाल हल कर गए। उस लड़के ने कहा, धोखा मैं नहीं दे रहा हूं। हमारा जो नंबर तीन का विद्यार्थी है, वह क्रिकेट का मैच देखने चला गया है और वह मुझसे कह गया है कि उसकी जगह कोई काम पड़ जाए तो मैं कर दूं। मैं उसकी जगह आया हुआ हूं। उस इंस्पेक्टर ने कहा, पागल, तुझे पता नहीं है कि परीक्षा दूसरों की जगह नहीं दी जा सकती? लेकिन उस लड़के ने कहा कि हमारे मुल्क में तो हर चीज दूसरों की जगह की जा सकती है। इंस्पेक्टर ने उसे बहुत डांटा, उसे अपनी जगह भेजा।
और फिर वह शिक्षक की तरफ मुड़ा, जो चुपचाप बोर्ड के पास खड़ा था। उसने उस शिक्षक को कहा कि मेरे मित्र, विद्यार्थी धोखा देता था, यह तो ठीक है, लेकिन तुम खड़े क्या देखते थे, तुम क्यों चुप रहे? क्या तुम भी इस धोखे में सम्मिलित हो? उस शिक्षक ने कहा, माफ करें, मैं इस क्लास का शिक्षक नहीं, मैं विद्यार्थियों को पहचानता नहीं। मैं पड़ोस की क्लास का शिक्षक हूं। इस क्लास का शिक्षक क्रिकेट का मैच देखने चला गया है। वह मुझसे कह गया है कि कोई जरूरत पड़ जाए तो मैं उसकी जगह आकर खड़ा हो जाऊं।
फिर तो इंस्पेक्टर के लिए नाराज होने को काफी मौका था, वह बहुत चिल्लाया। उसने बहुत उपदेश दिए, जैसे कि हमारे मुल्क में उपदेश देने की एक बहुत बीमारी है। जिसको भी मौका मिल जाए, वह उपदेश दिए बिना नहीं रहता है। उसने बहुत उपदेश दिए। इंस्पेक्टर बहुत नाराज हुआ और कहा कि तुम्हारी नौकरी छूट सकती है, इस बेईमानी के लिए। शिक्षक घबड़ाया, गरीब शिक्षक, उसकी आंखों में आंसू आ गए। वह माफी मांगने लगा। इंस्पेक्टर को दया आ गई, उसने कहा घबड़ाओ मत। यह तुम्हारा भाग्य है कि मैं असली इंस्पेक्टर नहीं हूं। असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का खेल देखने चला गया है। मैं उसका मित्र हूं, वह मुझसे कह गया है कि जरा मैं आज निरीक्षण कर दूं!
हम सब एक नाव पर सवार हैं--धोखे का, बेईमानी का, चरित्रहीनता की। पहली तो बात यह जान लेनी जरूरी है कि हम सब इस पर सवार हैं। इसमें कोई एक आदमी जिम्मेवार नहीं है, हम सब जिम्मेवार हैं--चाहे शिक्षक हो, चाहे संन्यासी हो, चाहे साधु हो, चाहे राजनीतिज्ञ हो, चाहे पत्रकार हो, चाहे कोई भी हो, हम सब सम्मिलित हैं। इस मुल्क के दुर्भाग्य में हम सबका हाथ है। एक तो मैं सारे मुल्क में जाकर लोगों को यह समझा देना चाहता हूं, क्योंकि इसके बिना कोई परिवर्तन की संभावना पैदा नहीं हो सकती है।
और फिर हम क्या करें? अगर यह ज्ञात भी हो जाए कि हम सब सम्मिलित हैं तो दूसरी बात यह समझा देना चाहता हूं कि कम से कम हम अपना हाथ तो खींच लें इस दुर्भाग्य से। इस मुल्क की दुर्घटना में कम से कम मैं सहयोगी तो न रह जाऊं। कम से कम मैं तो अपने को अलग कर लूं। और अगर एक-एक व्यक्ति भी अलग करने का साहस प्रकट करे--और यही धार्मिक मनुष्य का लक्षण है कि वह अपने को अलग करने का साहस प्रकट करता है। वह इतना करेज जाहिर करता है कि अगर सारा मुल्क भी एक बेईमानी में सम्मिलित है, तो वह अपना हाथ दूर करने की कोशिश करता है। और जो आदमी, थोड़े से लोग भी अगर मुल्क में अपने हाथ दुर्भाग्य से दूर कर लें तो देश की किस्मत को बदल देना बहुत कठिन नहीं है।
अंधकार कितना ही ज्यादा हो, एक छोटा सा मिट्टी का दीया जल जाए, तो अंधकार दूर हो जाता है। अगर एक-एक गांव में एक-एक आदमी का जीवन भी जलता हुआ दीया हो, तो हम एक-एक गांव के अंधकार को दूर कर सकते हैं।
ज्यादा बात मुझे आपसे नहीं कहनी है, लेकिन, मनुष्य के भीतर का दीया कैसे जल सकता है, उसके लिए एक पूरा विश्वविद्यालय, एक पूरा विद्यापीठ बनाने की योजना है, ताकि हम आने वाले बच्चों के मन में ज्योति का कोई दीया उनको दान में दे जाएं। हो सकता है, मुल्क को गरीब छोड़ जाएं, हो सकता है, बहुत बड़े कारखाने न दे जाएं, हो सकता है बहुत बड़े रास्ते और बड़े मकान न दे जाएं, हो सकता है पूरे मुल्क को हम बंबई न बना पाएं, लेकिन वे बच्चे हमारे अनुगृहीत रहेंगे, अगर उनके भीतर प्रेम का, शांति का एक छोटा सा दीया जलाने में समर्थ हो जाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। इनको इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं।



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