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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-01)  

भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक)  

पहला-प्रवचन-(ओशो)

भारत को जवान चित्त की आवश्यकता

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरु करना चाहूंगा।
सुना है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा विचारक लाओत्सु पैदा हुआ। लाओत्सु के संबंध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। यह बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। लाओत्सु के संबंध में यह बड़ी हैरानी की बात कही जाती रही है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। इस पर भरोसा आना मुश्किल है। मुझे भी भरोसा नहीं है। और मैं भी नहीं मानता कि कोई आदमी बूढ़ा पैदा हो सकता है। लेकिन जब मैं इस हमारे भारत के लोगों को देखता हूं तो मुझे लाओत्सु की कहानी पर भरोसा आना शुरू हो जाता है। ऐसा मालूम होता है कि हमारे देश में तो सारे लोग बूढ़े ही पैदा होते हैं।

मुझे कहा गया है कि युवक और भारत के भविष्य के संबंध में थोड़ी बातें आपसे कहूं। तो पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा...देख कर लाओत्सु की कहानी सच मालुम पड़ने लगती है। इस देश में जैसे हम सब बूढ़े ही पैदा होते हैं। बूढ़े आदमी से मतलब सिर्फ उस आदमी का नहीं है जिसकी उम्र ज्यादा हो जाए, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि आदमी का शरीर बूढ़ा हो और आत्मा जवान हो।

लेकिन इससे उलटा भी हो सकता है। आदमी का शरीर जवान हो और आत्मा बूढ़ी हो। भारत के पास भी जवानों की कोई कमी नहीं है, लेकिन जवान आत्माओं की बहुत कमी है। और जवान आत्मा को बनाने वाले जो तत्व हैं, उनकी बहुत कमी है। चारों ओर युवक दिखाई पड़ते हैं, लेकिन युवक होने के जो बुनियादी आधार हैं उनका जैसे हमारे पास बिल्कुल अभाव है।
मैं कुछ प्राथमिक बातें आपसे कहूं। पहली तो बात, युवक मैं उसे कहता हूं जिसकी नजर भविष्य की ओर होती है, फ्यूचर की ओर होती है, जो फ्यूचर ओरिएनटेड है। और बूढ़ा मैं उस आदमी को कहता हूं जो पास्ट ओरिएनटेड है, जो पीछे की तरफ देखता रहता है। अगर हम बूढ़े आदमी को पकड़ लें, तो वह सदा अतीत की स्मृतियों में खोया हुआ मिलेगा। वह पीछे की बातें सोचता हुआ, पीछे के सपने देखता हुआ, पीछे की याददाश्त करता हुआ मिलेगा। बूढ़ा आदमी हमेशा पीछे की तरफ ही देखता है। आगे की तरफ देखने में उसे डर भी लगता है, क्योंकि आगे सिवाय मौत के, सिवाय मरने के और कोई दिखाई बात पड़ती भी नहीं।
जवान आदमी भविष्य की तरफ देखता है। और जो कौम भविष्य की तरफ देखती है वह जवान होती है। जो अतीत की तरफ, पीछे की तरफ देखती है वह बूढ़ी हो जाती है। यह हमारा मुल्क सैकड़ों वर्षों से पीछे की तरफ देखने का आदी रहा है। हम सदा ही पीछे की तरफ देखते हैं, जैसे भविष्य है ही नहीं; जैसे कल होने वाला नहीं है। जो बीत गया कल है वही सब कुछ। यह जो हमारी दृष्टि है यह हमें बूढ़ा बना देती है।
अगर हम रूस के बच्चों को पूछें तो वे चांद पर मकान बनाने के संबंध में विचार करते मिलेंगे। अगर अमरीका के बच्चों को पूछें तो वे भी आकाश की यात्रा के लिए उत्सुक हैं। लेकिन अगर हम भारत के बच्चों को पूछें तो भारत के बच्चों के पास भविष्य की कोई भी योजना, भविष्य की कोई कल्पना, भविष्य का कोई भी स्वप्न, भविष्य का कोई उटोपिया नहीं है। और जिस देश के पास भविष्य का कोई उटोपिया न हो वह देश भीतर से सड़ना शुरू हो जाता है और मर जाता है।
भविष्य जिंदा रहने का राज, भविष्य के कारण ही आज हम निर्मित करते हैं। भविष्य के लिए ही आज हम जीते और मरते हैं। जिनके मन में भविष्य की कोई कल्पना खो जाए, उनका भविष्य अंधकारपूर्ण हो जाता है। लेकिन इस मुल्क में न मालूम किस दुर्भाग्य के क्षण में भविष्य की तरफ देखना बंद करके अतीत की तरफ ही देखना तय कर रखा है।
हम अतीत के ग्रंथ पढ़ेंगे, अतीत के महापुरुषों का स्मरण करेंगे। अतीत की सारी बातें हमारे मन में बहुत स्वर्ण की होकर बैठ गई हैं। बुरा नहीं है कि हम अतीत के महापुरुषों को याद करें। लेकिन खतरनाक हो जाता है अगर भविष्य की तरफ देखने में हमारी स्मृति बाधा बन जाए।
कार हम चलाते हैं तो पीछे भी लाइट रखने पड़ते हैं, लेकिन अगर किसी गाड़ी में सिर्फ पीछे ही लाइट हो और आगे लाइट हम तोड़ ही डालें, तो फिर दुर्घटना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। गाड़ी में भी रियरव्यू मिरर रखना पड़ता है, एक दर्पण रखना पड़ता है जिसमें से पीछे से दिखाई पड़े। लेकिन ड्राइवर को हम पीछे की तरफ मुंह करके नहीं बिठा सकते।
अतीत का इतना ही उपयोग है जितना रियरव्यू मिरर का एक कार में उपयोग होता है। पीछे का भी हमें दिखाई पड़ता रहे। यह जरूरी है। लेकिन चलना भविष्य में है, बढ़ना आगे है। और अगर भविष्य की तरफ देखने वाली आंखें बंद हो जाएं, तो दुर्घटना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता।
भारत का दो हजार साल का इतिहास, एक्सीडेंट का, दुर्घटनाओं का इतिहास है। इन दो हजार सालों में हम सिवाय गड्ढों में गिरने के किन्हीं ऊंचाइयों पर नहीं उठे। गुलामी देखी है, गरीबी देखी है, बहुत तरह की दीनता और बहुत तरह की परेशानी देखी है। और आज भी हमारे पास भविष्य की कोई ऐसी योजना नहीं है कि हम यह सोच सकें कि आने वाला कल आज से बेहतर हो सकेगा। वरन जवान से जवान आदमी से भी बात की जाए तो वह भी यही कहता हुआ मिलेगा कि कल और स्थिति के बिगड़ जाने का डर है। रोज चीजें बिगड़ती चली जाएंगी ऐसी हमारी धारणा है। इस धारणा के पीछे कुछ कारण हैं।
हमने अपने उटोपिया को पास्ट ओरिएनटेड रखा हुआ है। इस देश में हमने जो समय की धारणा की है, जो हमारा टाइम आर्डर है, वह यह कहता है कि सबसे अच्छा युग हो चुका। अब आने वाला युग बुरा होगा। सतयुग हो चुका, कलियुग हो रहा है और रोज हम अंधकार में उतरते चले जाएंगे। जो भी अच्छा था वह बीत चुका। राम, कृष्ण, नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर, जो भी अच्छे लोग हो सकते थे वे हो चुके। अब भविष्य, भविष्य में जैसे कोई अच्छे होने का हमें उपाय दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन ध्यान रहे, जो भविष्य में अच्छे आदमियों को पैदा हम न कर पाए तो हमारे अतीत के अच्छे आदमी झूठे मालूम पड़ने लगेंगे। अगर हम भविष्य में और श्रेष्ठताएं न छू सके तो हमारे अतीत की सारी श्रेष्ठताएं काल्पनिक और कहानियां मालूम पड़ने लगेंगी। क्योंकि बेटा बाप का सबूत होता है। और अगर बेटे गलत निकल जाएं तो अच्छे बाप की बात सिर्फ मन भुलाने की बात रह जाती है। वह गवाही नहीं रह जाता। भविष्य तय करेगा कि हमने अतीत में राम को पैदा किया या नहीं पैदा किया। अगर हम भविष्य में राम से बेहतर आदमी पैदा कर सकते हैं तो ही हमारे राम सच्चे साबित होंगे। अगर हम राम से बेहतर आदमी पैदा नहीं कर सकते तो दुनिया हमसे कहेगी कि राम सिर्फ कहानी हैं, यह आदमी तुमने कभी पैदा किया नहीं।
अगर हम भविष्य में भीख मांगेंगे तो कोई मानने को राजी न होगा कि हमारे पास स्वर्ण की नगरियां थीं। और अगर भविष्य में हम सिर्फ गुंडे और बदमाशों को पैदा करेंगे तो नानक पर कितने दिन तक भरोसा रह जाएगा कि यह आदमी हुआ था। यह बहुत ज्यादा दिन तक भरोसा नहीं रह जाएगा। इसलिए पीछे के अच्छे आदमियों को याद करना काफी नहीं है। अगर सच में ये अच्छे आदमी हुए हैं, हम ऐसा दुनिया को कहना चाहते हों, तो हमें इनसे भी बेहतर आदमी रोज पैदा करने होंगे। जो रोज ऊंचाइयां चढ़ते हैं, वे ही गवाही दे सकते हैं कि उनके अतीत में भी उन्होंने ऊंचाइयां छुई होंगी।
लेकिन अगर हम रोज गड्ढों में गिरते चले जाएं तो फिर दुनिया हमसे कहेगी कि अक्सर भिखमंगे सपने देखते हैं कि उनके बाप सम्राट थे। लेकिन यह सपनों से कुछ सिद्ध नहीं होता। इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि भिखमंगे कंसोलेशंस खोज रहे हैं, सांत्वनाएं खोज रहे हैं, अपने मन को समझा रहे हैं। भूखा आदमी रात में सपना देखता है राजमहल में निमंत्रण मिलने का। लेकिन रात का सपना यह नहीं बताता कि राजमहल में निमंत्रण मिला। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उससे इतना ही पता चलता है कि वह आदमी दिन में भूखा रहा है। हम जब अतीत की बहुत ज्यादा चर्चा करते हैं तो शक पैदा होता है। और जब हम पीछे के लोगों की बहुत गौरव गरिमा की बात करते हैं तो शक पैदा होता है। क्योंकि दुनिया हमें देखती है। हम दुनिया को कहना चाहते हैं कि हम जगतगुरु थे।
लेकिन आज दुनिया में एक भी ऐसी चीज नहीं है जो हम किसी को सिखा सकें। सारी चीजें हमें दूसरों से सीखनी पड़ रही हैं। यह जगतगुरु की नासमझी की बात बहुत दिन तक टिक नहीं सकेगी। और आज नहीं कल अगर दुनिया हमारा मजाक उड़ाने लगे और हमसे कहने लगे कि हम जगतगुरु होने का ख्याल इसीलिए मन में पैदा कर लिए हैं क्योंकि हम सारे जगत के शिष्य हो गए हैं। और इस बात को भुलाने के लिए, अपने अहंकार को बचाने के लिए हम इस तरह की बातें कर रहे हैं, तो इसमें बहुत आश्चर्य न होगा।
आज सूई से लेकर हवाई जहाज तक भी हमको बनाना हो तो सारी दुनिया में कहीं और हमें सीखने जाना पड़ता है। आज हमारे पास सिखाने योग्य कुछ भी नहीं बचा है। आज हम दुनिया को कुछ भी सिखा नहीं सकते। लेकिन हम यह बात कहे चले जाएंगे कि हम कभी दुनिया के गुरु थे। ध्यान रहे, जब कोई कौम यह बात करने लगती है, पास्ट टेंस में जब कोई कौम बोलने लगती है, तो समझ लेना कि वह दीन हो गई। जब कोई कहने लगे कि मैं अमीर था, तब समझ लेना कि वह गरीब हो गया है। और जब कोई कहने लगे कि मैं ज्ञानी था, तब समझ लेना कि वह अज्ञान में गिर गया है। और जब कोई कहने लगे कि कभी हमारी शान थी, तो समझ लेना कि शान मिट्टी में मिल चुकी है। ये सारी बातें जो हम गौरव की करते हैं हमारे धूलि में गिर जाने के अतिरिक्त और किसी बात का प्रमाण नहीं है।
अतीत को देखना उपयोगी हो सकता है, लेकिन अतीत को आंख में रखना खतरनाक है। आंख में तो भविष्य होना चाहिए, आने वाला कल होना चाहिए। जो बीत गया कल वह बीत गया। उसकी धूल उड़ चुकी है। अब जमीन पर कहीं खोजने से उसे खोजा नहीं जा सकता। अब जिस रास्ते पर हम चल चुके वह रास्ता समाप्त हो गया है। और उस रास्ते पर बने हुए चरण-चिह्न अब कहीं भी नहीं खोजे जा सकते हैं।
जिंदगी की कहानी आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की कहानी है। अगर हम किसी पक्षी का पीछा करें तो उसके पैरों के कोई चिह्न नहीं छूटते हैं कहीं भी, पक्षी उड़ जाता है पीछे आकाश खाली हो जाता है। जिंदगी में कहीं कोई चिह्न नहीं छूटते। जिंदगी में सब विस्मृत हो जाता है।
जिंदगी तो प्रमाण मानती है आज को। आज हम क्या हैं? यही प्रमाण होता है। आज हम क्या हैं? अगर इसे सोचें तो दो-तीन बातें ख्याल में आएंगी। हमसे ज्यादा गरीब आदमी आज पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। हमसे ज्यादा अशिक्षित कोई कौम नहीं है। हमसे ज्यादा अवैज्ञानिक कोई जाति नहीं है। हमसे ज्यादा कमजोर, हमसे ज्यादा हीन, हमसे कम उम्र, हमसे ज्यादा बीमार आज जमीन पर कोई भी नहीं है। दूसरे मुल्कों की औसत उम्र अस्सी वर्ष को छू रही है। दूसरे मुल्कों में, आज रूस में सौ वर्ष के ऊपर हजारों बूढ़े, और डेढ़ सौ वर्ष के ऊपर भी कुछ बूढ़े हैं। सारी दुनिया में गरीबी विदा होने के करीब है और हमारी गरीबी रोज बढ़ती चली जाती है। जब पिछले बार बिहार में अकाल पड़ा, तो मेरे एक स्वीडिश मित्र ने मुझे एक पत्र लिखा और उसने लिखा कि हम अपने बच्चों को समझाने में बहुत असमर्थ हैं कि हिंदुस्तान में लोग भूखे मर रहे हैं। उसने मुझे लिखा कि जब मैं अपने छोटे बच्चे को कहा कि हिंदुस्तान में लोग भूखे मर रहे हैं और करोड़ों लोग भूखे मर जाएंगे। तो उस छोटे बच्चे ने कहा कि क्या उनके पास, अगर रोटी नहीं है तो फल भी नहीं हैं? तो उन्होंने कहाः नहीं, उनके पास फल भी नहीं हैं। तो उस छोटे बच्चे ने कहाः उनके रेफ्रिजिरेटर में कुछ तो बचा होगा? तो उसके बाप ने कहा कि रेफ्रिजिरेटर उनके पास है ही नहीं। उसमें बचने का कोई सवाल नहीं है।
उस बच्चे को समझना मुश्किल हुआ कि कोई कौम ऐसी हो सकती है जहां खाने को भी न हो। सच में ही स्वीडन के बच्चे को समझना मुश्किल पड़ेगा। उसको मुश्किल इसलिए पड़ जाएगा क्योंकि बच्चा जो देखता है चारों तरफ, न किसी को भीख मांगते देखता है, न किसी को गरीबी में मरते देखता है। तो उसके लिए भरोसा करना मुश्किल है कि जमीन पर ऐसे लोग भी हैं जो करोड़ों की संख्या में भूखे मरने की हालत में आ सकते हैं।
अभी एक अमरीकी अर्थशास्त्री ने किताब लिखी है। उन्नीस सौ सत्तासी और उस किताब में उसने यह घोषणा की है कि उन्नीस सौ सत्तासी में, आज से केवल सात साल बाद, हिंदुस्तान में इतना बड़ा अकाल पड़ सकता है जिसमें कोई दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ लोगों के मरने की संभावना है।
मैं दिल्ली में एक बहुत बड़े नेता से बात कर रहा था। तो उन्होंने कहाः उन्नीस सौ सत्तासी अभी बहुत दूर है। अभी तो हमें उन्नीस सौ बहत्तर की फिकर है। उसके बाद देखा जाएगा। अभी सिर्फ उन्नीस सौ बहत्तर में जो इलेक्शन होगा उसकी नेता को फिकर है। सात साल बाद हिंदुस्तान में दस करोड़ लोग मर सकते हैं। इसकी सारी दुनिया के अर्थशास्त्री राजी हैं इस बात के लिए कि यह होकर रहेगा। क्योंकि अमरीका जितना हमें भोजन दे रहा है उतना अब आगे नहीं दे पाएगा। उसकी ताकत रोज कम होती जा रही है। अमरीका में चार किसान जितना काम करते हैं उनमें से एक किसान की सारी ताकत हमें मिल रही है।
और अमरीका की ताकत देने की रोज कम होती चली जाती है। उन्नीस सौ पिचासी के बाद अमेरिका हिंदुस्तान को किसी तरह का अन्न देने में समर्थ नहीं होगा। और हम रोज बच्चे पैदा करते चले जाते हैं। हम सिर्फ एक चीज में बहुत प्रोडक्टिव हैं, हम बच्चे पैदा करने में बहुत उत्पादक हैं। हम बच्चे पैदा करते चले जाते हैं। अगर किसी दिन इस मुल्क में दस करोड़ लोगों को किसी अकाल में मरना पड़ा, तो बाकी जो लोग बचेंगे वे भी जिंदा हालत में नहीं बचेंगे। वे भी मरने की हालत में ही बचेंगे। उनका बचना बचने से भी बदतर होगा। उनका बचना शायद मरे हुए लोगों से भी ज्यादा कठिन और दूभर हो जाएगा।
लेकिन क्या कारण हैं कि सारी जमीन पर धन बरस रहा है और हम गरीब होते चले जा रहे हैं? आज अमेरिका में धन बरस रहा है, और अमरीका की कुल उम्र तीन सौ साल की है। अमरीका में जो समाज है आज वह तीन सौ साल पुराना है और हमारी उम्र कम से कम दस हजार साल पुरानी है। हम दस हजार साल पुरानी सयता और तीन सौ साल पुरानी सयता के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांगते हुए खड़े हैं। न हमें शर्म आती, न हमें चिंता पैदा होती, न हमें घबड़ाहट होती, न हमें ऐसा लगता कि हम ये क्या कर रहे हैं! दुनिया में भिखारी तो सदा रहे हैं, लेकिन कोई पूरा देश भिखारी हो सकता है इसका उदाहरण हमने पहली बार उपस्थित किया है।
आज हर चीज की हमें भीख चाहिए। इस भीख के बिना हम जी नहीं सकते। यह कब तक चलेगा? यह कैसे चल सकता है? यह तब तक चलता ही रहेगा जब तक भविष्य को निर्मित करने की हमारे पास कोई दृष्टि नहीं है, कोई फिलासफी नहीं है। जिसमें हम भविष्य को बनाने के लिए आतुर हो जाएं। हम सिर्फ पीछे की बातें करते रहेंगे तो भविष्य को निर्मित कौन करेगा? हम सिर्फ गुणगान करते रहेंगे अतीत का, तो भविष्य के लिए श्रम कौन करेगा?
तो मैं युवा आदमी का पहला लक्षण मानता हूं भविष्य के लिए उन्मुखता और बूढ़े आदमी का लक्षण मानता हूं अतीत के प्रति लगाव। जिस आदमी के मन में भी भविष्य के प्रति लगाव है उसकी उम्र कुछ भी हो, वह जवान है और जिस आदमी के मन में भविष्य की कोई कल्पना ही नहीं है और सिर्फ अतीत का गुणगान है उसकी उम्र कुछ भी हो वह बूढ़ा है। तो मैं यह आपसे कहना चाहूंगा कि भारत में अभी भी जवान आदमी बहुत कम हैं।
एक दूसरी बात भी आपसे कहना चाहूंगा, बूढ़ा आदमी मृत्यु से भयभीत होता है। स्वभावतः मौत करीब आती है तो बूढ़ा आदमी मृत्यु से डरने लगता है। जवान आदमी का लक्षण एक ही है कि वह मौत से घबड़ाता न हो। अगर जवान आदमी भी मौत से घबड़ाता हो तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि वह बहुत पहले ही बूढ़ा हो गया। हिंदुस्तान में मृत्यु का इतना भय है जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है। होना सबसे कम चाहिए, क्योंकि हम अकेली कौम हैं सारी दुनिया में, जिनका ऐसा मानना है कि आत्मा अमर है और मरती नहीं है। हम सारी दुनिया में यह कहते रहे हैं कि आत्मा अमर है और मरती नहीं है।
यह बात सच है, आत्मा अमर है और मरती नहीं है। लेकिन कहने से यह बात सच नहीं होती। और जरूरी नहीं है कि जो लोग कहते हों वे ऐसा मानते भी हों। आदमी का मन बहुत उलटा है। असल में जो आदमी मरने से डरता है वह भी कह सकता है कि आत्मा अमर है। और अपने मन को समझाने के लिए आत्मा की अमरता के सिद्धांत का उपयोग कर सकता है। हिंदुस्तान को देख कर ऐसा लगता है कि हम मरने से तो बहुत डरते हैं और साथ ही आत्मा के अमरता की बात भी किए चले जाते हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि बूढ़ा आदमी मंदिर में बैठ कर आत्मा की अमरता के शास्त्र पढ़ने लगता है। आत्मा अमर है ऐसा पढ़ कर उसके मन को अच्छा लगता है कि मैं मरूंगा नहीं। लेकिन अगर यह भय के कारण ही वह पढ़ रहा है तो इस कारण कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं हो जाएगा। और अगर इस बात का ज्ञान उत्पन्न हो जाए कि मैं अमर हूं और मरूंगा नहीं, तो हमारे इस मुल्क को गुलाम बनाना असंभव हो जाता। हम एक हजार साल गुलाम रहे हैं और हम कल भविष्य में किसी भी दिन गुलाम फिर हो सकते हैं। हमारे सारे उपाय ऐसे हैं कि हम किसी भी दिन गुलाम हो सकते हैं।
लेनिन ने उन्नीस सौ बीस में एक घोषणा की थी मास्को में कि कम्युनिज्म मास्को से यात्रा करके पेकिंग होता हुआ कलकत्ते से गुजरता हुआ लंदन पहुंच जाएगा, पेकिंग तो पहुंच गया और कलकत्ते में भी पैरों की आवाज सुनाई पड़ने लगी। आज कलकत्ते की सड़कों पर जगह-जगह पोस्टर लगे हुए हैं कि चीन के अध्यक्ष माओ हमारे भी अध्यक्ष हैं, चीन के चेयरमैन माओत्सु तुंग भारत के भी चेयरमैन हैं। ये कलकत्ते की सड़कों पर जगह-जगह पोस्टर लगे हैं। हम गुलामी को फिर बुलाने की चेष्टा में लग गए। और इसके पहले भी हिंदुस्तान में जितनी बार गुलामी आई हमने बुलाया।
एक हजार साल गुलाम रहने के बाद भी हमें कुछ अंदाज नहीं है, हम फिर गुलामी बुला सकते हैं। हम नये नामों से गुलामी बुला लेंगे। कम्युनिज्म हिंदुस्तान के लिए गुलामी सिद्ध होगी। और आज बंगाल में जो दिखाई पड़ रहा है कल पूरे हिंदुस्तान में दिखाई पड़ेगा। आज बंगाल में जो है वह कल पूरे हिंदुस्तान में फैल जाएगा इसमें बहुत आश्चर्य नहीं है। क्योंकि हम डरे हुए लोग, हम मरने से भयभीत लोग, हम बिना किसी चीज से कुछ भी आए उसे झेलने को सदा तत्पर और उसमें ही संतुष्ट हो जाने के लिए राजी लोग हैं। बूढ़ा आदमी भय के कारण हर चीज से राजी हो जाता है।
जवान आदमी लड़ता है, जवान आदमी जिंदगी को बदलने की कोशिश करता है, बूढ़ा आदमी जिंदगी जैसी होती है उसके लिए राजी हो जाता है। बूढ़ा आदमी कहता है, सब भाग्य है। जवान आदमी कहता है, भाग्य हमारे श्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बूढ़ा आदमी कहता है, जो भी कर रहा है भगवान कर रहा है। जवान आदमी कहता है, जो भी हम करेंगे भगवान का आशीर्वाद उसे उपलब्ध होगा।
जवान आदमी एक संघर्ष है और बूढ़ा आदमी एक संतोष है, एक सेटिसफेक्शन है। अगर गुलामी आ जाए तो उससे भी संतोष कर लेंगे, गरीबी आ जाए उससे भी संतोष कर लेंगे, जो भी हो जाए उससे हम संतुष्ट हो जाएंगे। संतुष्ट अगर हमने होने की आदत नहीं बदली तो इस मुल्क को भविष्य में फिर और भी महा अंधकार देखने के क्षण आ सकते हैं।
मैं अभी बंगाल में था। तो बंगाल में जो मुझे दिखाई पड़ा, चाहता हूं, पूरे मुल्क के एक-एक युवक को कह दूं कि वह गुलामी को निमंत्रण है। और बंगाल राजी हो जाएगा। बंगाल में दस-पच्चीस आदमी अगर एक सड़क पर एक पुलिसवाले की हत्या कर रहे हैं, तो पूरे लोग अपने दरवाजे बंद करके बैठ रहेंगे। वे भीतर बैठ कर इस बात की निंदा करेंगे कि बहुत बुरा हो रहा है। लेकिन उस बुरे के खिलाफ लड़ने बाहर नहीं निकलेंगे। अगर एक बस में आग लगाई जा रही है, तो यात्री बस में चलने वाले उतर कर नीचे खड़े हो जाएंगे और खड़े होकर चर्चा करेंगे बहुत बुरा हो रहा है। लेकिन कोई उन आग लगाने वाले पांच आदमियों को रोकने की हिम्मत नहीं जुटाएगा।
इतनी कायर कौम कैसे जवान हो सकती है! इतना कमजोर चित्त कैसे जवान हो सकता है! पूरा बंगाल देखता रहेगा, थोड़े से लोग बेवकूफियां करेंगे और पूरा बंगाल झुक जाएगा और आज नहीं कल पूरा हिंदुस्तान झुक जाएगा। दो लाख आदमियों की बस्ती में दो सौ आदमी कुछ भी करना चाहें, तो दो लाख की बस्ती झुक जाएगी और राजी हो जाएगी।
हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ, तो सारा हिंदुस्तान कविता करने लगा था, आपको भी पता होगा। सारा हिंदुस्तान कहने लगा था कि हम सोए हुए शेर हैं, हमें छेड़ो मत! तो मैंने कई कवियों से पूछा कि शेरों ने कभी भी नहीं कहा है कि हम सोए हुए शेर हैं, हमें छेड़ो मत! छेड़ो और पता चल जाता है कि शेर है या नहीं! कविताएं करने की जरूरत नहीं होतीं। लेकिन पूरे हिंदुस्तान ने कविताएं कीं। जगह-जगह कवि सम्मेलन हुए, लोगों ने तालियां बजाईं। और जिन लोगों ने कविताएं कीं..कोई को पद्मश्री की उपाधि मिल गई, कोई राष्ट्रकवि हो गया, किसी को राष्ट्रपति ने स्वर्ण-पदक भेंट कर दिए। और चीन हिंदुस्तान की जमीन दबा कर बैठ गया। और वे सोए हुए शेर सब वापस कविता करके सो गए। उनका कुछ भी पता नहीं चला कि वह कहां चले गए!
लाखों मील की जमीन में चीन ने कब्जा कर लिया। तो हिंदुस्तान के नेताओं ने बाद में कहना शुरू किया कि वह जमीन बेकार थी। वह जमीन किसी काम की ही न थी। उसमें घास भी पैदा नहीं होता था। अगर वह जमीन बेकार थी तो फिर जवानों को लड़ाना बेकार था। पहले ही जमीन छोड़ देनी थी। और अगर जमीन पर घास भी नहीं उगती थी तो उसके लिए लड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। तो मैं उन नेताओं से कहता हूं कि अभी भी देश में जितनी जमीन और बेकार हो उसे चुपचाप दूसरों को दे देना चाहिए, ताकि कोई झंझट न हो, कोई झगड़ा न हो।
यह जो हमारा चित्त है इस चित्त को मैं बूढ़ा, ओल्ड माइंड, बूढ़ा चित्त कहता हूं। यह बूढ़ा चित्त हर चीज में संतोष खोज लेता है। इस बूढ़े चित्त को तोड़ना पड़ेगा। अतीत की तरफ देखना बंद करना पड़ेगा, भविष्य की योजना बनानी होगी, संतोष छोड़ना पड़ेगा, एक। एक निर्माण की असंतोषकारी ज्वाला चाहिए, एक सृजन की आग चाहिए। और वह आग तभी होती है जब हम हर कुछ के लिए राजी नहीं हो जाते। जब हम दुख को मिटाने का संकल्प करते हैं, अज्ञान को मिटाने का संकल्प करते हैं, जब हम बीमारी को तोड़ने का संकल्प करते हैं, जब हम दीनता, दरिद्रता और दासता को मिटाने की कसम खाते है, तब भविष्य निर्मित होना शुरू होता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने सुना है, जापान में एक छोटे से राज्य पर हमला हो गया। बहुत छोटा राज्य और बड़े राज्य ने हमला किया था। उसका सेनापति घबड़ा गया और उसने अपने सम्राट को जाकर कहा कि मैं लड़ने पर नहीं जा सकूंगा। सेनाएं कम हैं, साधन कम हैं, हार निश्चित है। इसलिए व्यर्थ अपने सैनिकों को कटवाने की कोई जरूरत नहीं हैं। हार स्वीकार कर लें। उस सम्राट ने कहा कि मैं तो तुम्हें समझता था कि तुम एक बहादुर आदमी हो, जवान हो, तुम इतने बूढ़े साबित हुए! लेकिन जब सेनापति ने तलवार नीचे रख दी तो सम्राट भी बहुत घबड़ाया।
गांव में एक फकीर था। सम्राट उसके पास गया। जब भी कभी मुसीबत पड़ी थी उस फकीर से सलाह लेने वह गया था। उस फकीर ने कहा कि इस सेनापति को फौरन कारागृह में डाल दो। क्योंकि इसकी यह बात, कि हार निश्चित है, हार को निश्चित कर देगी। आदमी जो सोच लेता है, वह हो जाता है। और जब सेनापति कहेगा हार निश्चित है तो सैनिक क्या करेंगे! उनकी हार तो बिल्कुल निश्चित हो जाएगी। इसे कारागृह में डाल दो और कल सुबह मैं सेनापति बन कर आपकी सेनाओं को युद्ध के मैदान पर ले जाऊंगा।
राजा बहुत घबड़ाया! क्योंकि सेनापति योग्य था, युद्धों का अनुभवी था, वह डर गया और फकीर जिसे तलवार पकड़ने का भी कोई पता नहीं था, जो कभी घोड़े पर भी नहीं बैठा था, वह युद्ध के मैदान पर क्या करेगा! लेकिन कोई उपाय न था। और राजा को राजी होना पड़ा।
वह फकीर सेनाओं को लेकर युद्ध के मैदान पर चल पड़ा। राज्य की सीमा पर, नदी को पार करने के पहले, उस पार दुश्मन के पड़ाव थे, उस सेनापति ने मंदिर के निकट रुक कर अपने सिपाहियों को कहा कि मैं जरा मंदिर के देवता को पूछ लूं कि हमारी हार होगी कि जीत?
उन सैनिकों ने कहाः देवता कैसे बताएगा और देवता की भाषा हम कैसे समझेंगे?
उस फकीर ने कहाः भाषा समझने का उपाय मेरे पास है। उसने खीसे से एक चमकता हुआ सोने का रुपया निकाला, आकाश की तरफ फेंका और मंदिर के देवता से कहा कि अगर हमारी जीत होती हो तो सिक्का सीधा गिरे और अगर हार होती हो तो उलटा गिरे।
सैनिकों की श्वासें रुक गईं! जीवन-मरण का सवाल था! वह रुपया नीचे गिरा, वह सीधा गिरा!
उस फकीर ने कहाः अब तुम फिकर छोड़ दो, हार का अब कोई उपाय नहीं है, हम हारना भी चाहें तो अब हार नहीं सकते, परमात्मा साथ है। सिक्के को खीसे में रख कर वे युद्ध में कूद पड़े।
आठ दिन बाद, अपने से बहुत बड़ी फौजों को जीत कर वे वापस लौटे। उस मंदिर के पास से गुजरते थे, तो सैनिकों ने फकीर को याद दिलाई कि परमात्मा को कम से कम धन्यवाद तो दे दें, जिस परमात्मा ने हमें जिताया।
उस फकीर ने कहाः परमात्मा का इससे कोई भी संबंध नहीं है आगे बढ़ो।
उन सैनिकों ने कहाः आप भूल गए मालूम होता है। युद्ध की विजय के नशे में मालूम होता है धन्यवाद का भी ख्याल नहीं। तो उस फकीर ने कहा, अब तुम पूछते ही हो तो मैं तुम्हें राज बताए देता हूं। उसने रुपया निकाल कर दे दिया। वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा नहीं था। वे सैनिक जीते, क्योंकि जीत का ख्याल निश्चित हो गया।
विचार अंततः वस्तुएं बन जाते हैं, विचार अंततः घटनाएं बन जाते हैं। एडिंग्टन का एक बहुत प्रसिद्ध वचन हैः थिंग्स आर थाट्स एण्ड थाट्स आर थिंग्स। जिसे हम वस्तु कहते हैं, वह भी विचार है। और जिसे हम विचार कहते हैं, वह भी कल वस्तु बन सकता है। जिसे हम जिंदगी कहते हैं, वह कल किए गए विचारों का परिणाम है। जिसे हम आज कहते हैं, वह कल के विचारों का निष्कर्ष है। और कल जो होगा वह आज के विचारों का परिणाम होगा।
मैं भारत को जवान देखना चाहता हूं। लेकिन भारत के मन को बदलना पड़ेगा, तो ही भारत जवान हो सकता है। मैं भारत को बूढ़ा नहीं देखना चाहता हूं। हम बहुत दिन बूढ़े रह चुके। हम बूढ़े हैं हजारों साल से। यह भारत का बुढ़ापा तोड़ना पड़ेगा, इस भारत के बुढ़ापे को मिटाना पड़ेगा। इस भारत के बुढ़ापे को अगर हम नहीं मिटा पाए तो अब तक हमने जो गुलामियां देखी थीं वे बहुत छोटी थीं। न तो मुसलमान इतनी बड़ी गुलामी ला सकते थे, न अंग्रेज इतनी बड़ी गुलामी ला सकते थे। जितनी बड़ी गुलामी कम्युनिज्म हिंदुस्तान में ला सकता है। और कम्युनिज्म की गुलामी और भी खतरनाक इसलिए है कि अब तक जो भी गुलामियां थीं वे गुलामियां वैज्ञानिक नहीं थीं। कम्युनिज्म पहली दफा टेक्नालॉजिकली, वैज्ञानिक ढंग से आदमी को गुलाम बनाने में समर्थ है।
आज चीन में आदमियों का माइंड-वॉश किया जा रहा है। आदमी को मारने की जरूरत भी नहीं है, उसके दिमाग को पूरा धोकर साफ किया जा सकता है..जैसे सिलेट-पट्टी को धोकर साफ किया जाता है। ये गुरुद्वारे, ये मंदिर, ये मस्जिद ज्यादा दिन नहीं बचेंगे, अगर हिंदुस्तान पर कम्युनिज्म आता है तो हमारे दिमाग ज्यादा दिन तक नहीं बचेंगे जो थे, वे पोंछ डाले जाएंगे।
आज रूस में कहां है गुरुद्वारा, कहां है मस्जिद, कहां है मंदिर? आज चीन में कहां है? वह सब विदा हो गया। मनुष्य के धर्म पर सबसे बड़ा खतरा कम्युनिज्म है।
अभी मैं आ रहा था, तो आपके पिं्रसिपल ने मुझे कहा कि आप धर्म के खिलाफ कुछ मत बोल देना। मैं बहुत हैरान हुआ! मैं बहुत हैरान हुआ कि अगर एक धार्मिक व्यक्ति धर्म के खिलाफ कुछ बोलेगा, तो फिर धर्म के पक्ष में कौन बोलेगा? पर उनके भय से मुझे लगा कि धर्म कहीं इतना कमजोर हो गया है कि अपने खिलाफ बोली गई बातों का जवाब देने में भी ताकतवर नहीं मालूम पड़ता है, इसलिए इतना डर है भीतर। लेकिन इतना डर कर धर्म बचेगा नहीं। डरा हुआ धर्म कैसे बचेगा? डरा हुआ धर्म नहीं बच सकता।
उन्होंने मुझसे कहा कि आप किन्हीं शास्त्रों के खिलाफ कुछ मत बोल देना। जिसके खिलाफ बोला जा सकता है वह शास्त्र ही नहीं है। जिसके खिलाफ नहीं बोला जा सकता वही शास्त्र है। और जिसके खिलाफ बोले जाने में डर मालूम पड़ता है, वह कमजोर है, वह सत्य नहीं हो सकता। जिसके खिलाफ सारी दुनिया बोलती हो तो भी जिसका रत्ती भर न टूटता हो वही सत्य है। उतना ही बच जाए तो काफी है, बाकी कचरे को बचाने की कोई जरूरत भी नहीं है। लेकिन हम भयभीत हैं, हम बहुत डरे हुए हैं। और इतने डरे हुए लोग धर्म को और शास्त्र को बचा सकेंगे यह मुझे संभव नहीं दिखाई पड़ता।
भारत का बूढ़ा मन धर्म की पूजा कर सकता है, धर्म को बचा नहीं सकता। भारत को जवान चित्त पैदा करना पड़ेगा वही धर्म को बचा सकेगा। एक और अंतिम बात आपसे कह दूं। अगर हमने सिक्ख धर्म को बचाना चाहा तो धर्म नहीं बचेगा, अगर हमने हिंदू धर्म को बचाना चाहा तो धर्म नहीं बचेगा, अगर हमने जैन धर्म को बचाना चाहा तो धर्म नहीं बचेगा, अगर हमने मुसलमान धर्म को बचाना चाहा तो धर्म नहीं बचेगा, अगर हमने धर्म को बचाना चाहा तो धर्म बच सकता है।
असल में जब हम धर्मों को पचास हिस्सों में तोड़ देते हैं तो अधर्म से लड़ने की ताकत कम हो जाती है। अधर्म से लड़ेगा कौन? धर्म आपस में लड़ते हैं! मंदिर-मस्जिद लड़ते हैं। कम्युनिज्म से कौन लड़ेगा? हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं, हिंदू-सिक्ख लड़ते हैं, हिंदू-जैन लड़ते हैं।
आज भी चीन में बौद्धों का मठ गिराया जा रहा है, मुसलमानों की मस्जिद गिराई जा रही है, ईसाइयों का चर्च तोड़ा जा रहा है। फिर भी बौद्ध ईसाई के खिलाफ बोले चले जाते हैं, ईसाई मुसलमान के खिलाफ बोले चले जाते हैं, मुसलमान बौद्धों के खिलाफ बोला चला जाता है। ये धार्मिक आदमी हैं या पागल हो गए लोग हैं!
अगर धर्म को दुनिया में बचाना है, तो धर्म को बचाने की तैयारी करनी पड़ेगी। छोटे-छोटे मोह छोड़ने पड़ेंगे। मेरा धर्म नहीं बचेगा अब, अब धर्म बच सकता है। और धर्म तभी बच सकता है जब धर्म आपस में लड़ने का पागलपन बंद कर दे। अन्यथा धर्म आपस में लड़ते हैं और अधर्म की तो कोई लड़ाई अधर्म से नहीं होती। यह कितने मजे की बात कि दुनिया में धर्म तीन सौ पचास हैं और अधर्म एक है। अधर्म का कोई विभाजन नहीं है और धर्म के इतने विभाजन हैं। विभाजित धर्म बच नहीं सकेगा। अविभाजित धर्म बच सकता है। चाहे हिंदू हो, चाहे सिक्ख, चाहे मुसलमान, चाहे जैन, अगर हम धर्म को बचाना चाहते हों तो कम्युनिज्म से टक्कर ली जा सकती है। और अगर हमने अपने छोटे-छोटे धर्मों को बचाने की कोशिश की तो ये सब डूब जाएंगे और अधर्म जीतेगा।
अगर हम सत्य को बचाना चाहते हों, तो हमें मेरे का आग्रह छोड़ देना चाहिए। अगर हम सत्य को बचाना चाहते हों, तो हमें छोटी-छोटी दीवालों का मोह छोड़ देना चाहिए। लेकिन वह मोह हमारा नहीं छूटता। बूढ़े मन के मोह बड़ी मुश्किल से छूटते हैं। इसलिए मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं, भारत का चित्त यदि जवान हो सके तो भारत के लिए एक स्वर्णमय भविष्य पैदा किया जा सकता है। अगर भारत का चित्त बूढ़ा रहा तो भविष्य एक मरघट होगा, एक कब्रिस्तान होगा, भविष्य एक जीवित, जीवंत नहीं हो सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं, मेरी बातों को मान लेना जरूरी नहीं हैं। क्योंकि केवल वे ही लोग अपनी बातों को मानने पर जोर देते हैं जिनकी बातें कमजोर होती हैं। मैं आपको सिर्फ इतना ही कहूंगा कि मेरी बातों को सोचना, अगर उनमें कोई सच्चाई होगी तो वह सच्चाई आपको मनवा लेगी और अगर वे असत्य होंगी तो अपने आप गिर जाएंगी।
मेरी बातों को मानने की कोई भी जरूरत नहीं हैं। मेरी बातों को सोच लेना काफी है। अगर आप सोचेंगे, विचारेंगे तो जो सत्य होगा वह आपको दिखाई पड़ सकता है और सत्य दिखाई पड़े तो जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है और युवा चित्त का जन्म प्रारंभ हो जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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