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रविवार, 10 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-02)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)  

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

नये के लिए पुराने को गिराना आवश्यक

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, एक गांव में बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि आज गिरेगा या कल, कहना मुश्किल था। हवाएं जोर से चलती थीं तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल आते थे तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। उस चर्च में प्रार्थना करने वाले लोगों ने प्रार्थना करनी बंद कर दी थी। चर्च के संरक्षक, चर्च के ट्रस्टियों ने एक बैठक बुलाई, क्योंकि चर्च में लोगों ने आना बंद कर दिया था। और तब विचार करना जरूरी हो गया था कि चर्च नया बनाया जाए। वे ट्रस्टी भी चर्च के बाहर ही मिले। उन्होंने अपनी बैठक में चार प्रस्ताव पास किए थे। वे मैं आपसे कहना चाहता हूं।

उन्होंने पहला प्रस्ताव किया कि बहुत दुख की बात है कि पुराना चर्च हमें बदलना पड़ेगा। उन्होंने पहला प्रस्ताव पास किया बहुत दुख के साथ कि पुराना चर्च हमें गिराना पड़ेगा। पुराने को गिराते समय मन को सदा ही दुख होता है। क्योंकि मन पुराना ही है। और पुराने के साथ पुराने मन को भी मरना पड़ता है।

उन्होंने दूसरा प्रस्ताव पास किया कि पुराने चर्च की जगह हम एक नया चर्च बनाने का निर्णय करते हैं। जैसा पुराने को गिराने का दुख से निर्णय किया, वैसे ही नये को बनाने का भी दुख से निर्णय किया। क्योंकि नया बनाने के लिए पहले आदमी को स्वयं भी नया होना पड़ता है। पुराने में जीना सुविधापूर्ण है, कन्वीनियंट है। नये में जीना खतरे से खाली नहीं।
उन्होंने तीसरा प्रस्ताव भी पास किया और वह तीसरा प्रस्ताव यह था कि नया चर्च हम पुराने चर्च की बुनियाद पर ही बनाएंगे। और पुराने चर्च की ईंटों का ही उपयोग करेंगे, और पुराने चर्च के दरवाजे ही नये चर्च में लगाएंगे। और चैथा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि जब तक नया न बन जाए तब तक हम पुराने को गिराएंगे नहीं। और चारों प्रस्ताव सर्व स्वीकृति से पास हो गए। वह चर्च अभी भी नहीं गिरा होगा। क्योंकि जो भी ऐसा सोचता है कि नये को बनाने के पहले पुराने को गिराएंगे नहीं; वह न नये को बना पाता है न पुराने को गिरा पाता है। नये को बनाने की पहली शर्त पुराने को गिराने की हिम्मत। और पुराने के गिराने की हिम्मत से नये को बनाने की क्षमता पैदा होती है।
असल में जो कहते हैं कि हम जब तक नये को न बना लेंगे, तब तक हम पुराने को न गिराएंगे। ऐसे लोग पुराने के साथ जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे नये को बनाने की कल्पना भी खो देते हैं।
इस कहानी से अपनी बात इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि यह हमारा देश भी इसी तरह के प्रस्ताव कर रहा है पांच हजार वर्षों से। पांच हजार वर्षों से हम एक मरी हुई कौम हैं। पांच हजार वर्षों से हम पुराने में ही जी रहे हैं। और नये को निर्माण करने की बात सदा पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और जितना पुराने के साथ रहने की आदत बढ़ती जाती है उतना ही पुराने से मोह बढ़ता जाता है।
भारत का एक ही दुर्भाग्य है कि हम पुराने से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। पुराने का मोह हमारे प्राण लिए लेता है। और जब कभी हम पुराने को थोड़ा-बहुत छोड़ते भी हैं, तो जिसे हम नया कह कर पकड़ते हैं, वह सारी दुनिया के लिए तब तक बहुत पहले पुराना हो चुका होता है। अगर हम कभी कुछ नया भी पकड़ते हैं, तो वह तभी पकड़ते हैं जब वह भी सारी दुनिया में पुराना हो जाता है। जिस देश की आत्मा पुराने के साथ इस भांति बंध गई हो, उस देश की आत्मा जवान नहीं रह जाती, बूढ़ी हो जाती है।
यह हमारा देश एक बूढ़ा देश है और इस देश की सारी तकलीफें इसके बूढ़े होने से पैदा हो रही हैं। सारी दुनिया जवान है। हम बूढ़े हैं। इस जवान दुनिया के साथ हमारे ये बूढ़े पैर नहीं चल पाते। और इस जवान दुनिया के साथ हमारा बूढ़ा मन भी नहीं दौड़ पाता। और इस जवान दुनिया के साथ हमारे बूढ़े मन का कोई तालमेल नहीं बैठता। तब हम एक ही काम करते हैं कि हम सारी दुनिया को गाली देकर अपने मन में तृप्ति पाने की कोशिश करते हैं।
असल में बूढ़े मन का यह लक्षण है कि वह जवान को गाली देकर तृप्ति पा लेता है। हम सारी दुनिया की निंदा किए रहते हैं। हम सारी दुनिया को भौतिकवादी कहते हैं। मैटीरियलिस्ट कहते हैं। और जिनको हम भौतिकवादी कहते हैं, उन्हीं के सामने हाथ जोड़े भीख भी मांगते रहते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उनके गेहूं से हमारी गाली की भी ताकत आती है। जिनको हम गाली देते हैं, उनसे हम ऑलपिन से लेकर बम बनाने तक की सारी कला भी सीखते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उन पर ही हमारा जिंदा रहना निर्भर हो गया है। फिर भी हम गाली दिए जाते हैं। इस गाली के पीछे कारण हैं।
असल में गाली सिर्फ इंपोटेंट माइंड का लक्षण है। जब चित्त बिल्कुल निर्वीर्य हो जाता है तो सिवाय गाली देने के और कुछ भी नहीं कर पाता। और आश्चर्य तो यह है कि जिनको हम गाली देते हैं उनकी ही नकल हमें करनी पड़ती है। लेकिन वह नकल भी हम इतने बेमन से करते हैं, और इतने पीछे करते हैं कि सिर्फ हंसी पैदा कर पाती है और कुछ भी नहीं कर पाती। भारत का पूरा व्यक्तित्व ही हास्यास्पद हो गया, हंसने योग्य हो गया। इस सारी हंसने योग्य स्थिति के पीछे जो बुनियादी कारण हैं उनके संबंध में मैं आपसे बात करना चाहूंगा।
पहला कारण तो पुराने के प्रति हमारा मोह है। और जिनका भी पुराने के प्रति मोह होता है नये के प्रति उनमें भय पैदा हो जाता है। जहां पुराने का मोह है वहां नये का भय है। और जहां पुराने का मोह है वहां भविष्य की तरफ न देखने की इच्छा है। पुराने का मोह पीछे की तरफ देखने का आग्रह पैदा कर देता है। इसलिए हम सदा पीछे की तरफ देखते रहते हैं। हमारी गोल्डन एज हो चुकी, हमारा स्वर्ण युग बीत चुका। हमारे रामराज्य घटित हो चुके। हमारे अवतार, हमारे महापुरुष, हमारे तीर्थंकर, सब पैदा हो चुके। हमारा कोई भविष्य नहीं है, हमारे पास सिर्फ अतीत है। वह जो बीत गया वही हमारी संपदा है। जो होने वाला है वह हमारी संपदा नहीं है। कैसे कोई कौम जी सकती है जिसके पास भविष्य न हो। और अगर हम भविष्य के संबंध में कभी सोचते भी हैं तो हम सदा अंधेरी, दुखद, निराशा की भाषा में सोचते हैं। यह आश्चर्यजनक है। यह आश्चर्यजनक है कि हम जहां सारी दुनिया प्रोग्रेस की छाया में जीती है, विकास की छाया में, हम पतन की छाया में। सारी मनुष्यता प्रगति की छाया में जी रही है और निरंतर भविष्य के सुंदर सपने बना रही है। वहां हम पतन की छाया में जी रहे हैं और निरंतर भविष्य की और काली तस्वीर हम निर्मित करते हैं। हमारा सतयुग हो चुका अब तो कलियुग है। और कलियुग का मतलब है हम रोज पतित हो रहे हैं।
हमने सारी देखने की, जो हमारी व्यवस्था है वही बीमार है। भविष्य सुंदर होना चाहिए, लेकिन हम कहते हैं, हमारा अतीत सुंदर था। और अतीत को सुंदर बनाने के लिए जरूरी हो जाता है कि भविष्य को हम अंधकारपूर्ण चित्रित करें। तो हर बाप कहता है कि उसकी पीढ़ी अच्छी थी और बेटे की पीढ़ी बुरी। और ऐसा नहीं कि आज का बाप कहता है, जो आज कह रहा है उसके पिता ने भी यही कहा था, और उसके पिता ने भी यही कहा था, और उसके पिता ने भी यही कहा था। हर पीढ़ी यह कहती है कि उसकी पीढ़ी बेहतर थी, आने वाली पीढ़ी पतित हो गई है।
हम रोज पतन में जी रहे हैं। बेटा बेहतर होना चाहिए बाप से। बेटे के बेहतर होने की कामना होनी चाहिए। लेकिन बाप के अहंकार को यह प्रीतिकर नहीं लगता कि बेटा बेहतर हो। प्रीतिकर बहुत गहरे में यही लगता है कि बेटा थोड़ा सा नीचे रह जाए। हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ियों को नीचा मानती है। और जब हजारों वर्षों तक यह धारणा मन में हमारे बैठे कि रोज पतन हो रहा है तो पतन निश्चित हो जाता है। पतन और प्रगति हमारे मन की धारणाएं हैं। हम कैसे लेते हैं जीवन को इस पर निर्भर करता है सब कुछ। हमारा मन किस भाषा में सोचता है इस पर निर्भर करता है सब कुछ।
मैंने सुना है, जापान में एक छोटा सा राज्य था। और उस राज्य पर पड़ोस के एक बड़े राजा ने हमला कर दिया। उस छोटे से राज्य के सेनापति के पैर उखड़ गए, वह घबड़ा गया। उसने सम्राट को जाकर कहा कि लड़ना असंभव है, जीत हम न सकेंगे, हार निश्चित है, दुश्मन आठ गुनी ताकत का है। तो मैं अपने सैनिकों को लड़ाने नहीं ले जा सकता। यह तो मौत के मुंह में जाना है। सम्राट भी समझता था बात सच है, लेकिन बिना लड़े हार जाने को भी तैयार न था। लेकिन सेनापति ने कहा, फिर मुझे छुट्टी दे दें। आप लड़ें या लड़वाएं। मैं अपने सैनिकों को मौत के मुंह में मैं न ले जाऊंगा।
गांव में एक फकीर था। सम्राट जब भी मुसीबत में पड़ता था, उस फकीर के पास गया था। अपने सेनापति को लेकर फिर गया। उस फकीर ने कहा कि पहला काम तो यह करें कि इस सेनापति को छुट्टी कर दें और दूसरा काम यह करें कि इसे तत्काल कारागृह में डाल दें जब तक युद्ध समाप्त न हो जाए। यह आदमी खतरनाक है। जब कोई सेनापति कहता है हार निश्चित है, तो हार निश्चित हो जाती है। इसे बंद कर दें, यह खतरनाक है। अगर सैनिकों तक यह खबर पहुंच गई कि हार निश्चित है, तो फिर हार को बदलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन सम्राट ने कहाः इसे मैं बंद कर दूं तो युद्ध का क्या होगा? तो उस फकीर ने कहाः मैं सैनिकों को कल सुबह युद्ध पर लेकर चला जाऊंगा। सम्राट डरा तो बहुत। अनुभवी सेनापति कह रहा था, हार निश्चित है। और फकीर तो तलवार पकड़ना भी नहीं जानता था। यह खतरा है, लेकिन कोई उपाय न था। फकीर के हाथ में फौजें दे देनी पड़ीं। वह फकीर सुबह गीत गाता घोड़े पर सवार होकर फौजों को ले चला। एक-एक आदमी की श्वास, सैनिकों के प्राण डरे हुए। फकीर के साथ मौत निश्चित है, लेकिन कोई उपाय नहीं।
दुश्मन की सीमा जहां थी, नदी के इस पार एक मंदिर के पास वह फकीर रुका और उसने कहा कि मैं युद्ध में जाऊंगा बाद में, जरा इस मंदिर के देवता से पूछ लूं कि जीत होगी या हार? अक्सर मैं पूछ लेता हूं और देवता जो कह देता है वही होता है। उन सैनिकों ने कहाः हमें कैसे पता चलेगा कि देवता क्या कह रहा है? उस फकीर ने कहा, तुम्हारे सामने ही पूछूंगा। सामने ही उसने खीसे से एक सोने का चमकता हुआ रुपया निकाला, आकाश की तरफ फेंका और कहा कि हे मंदिर के देवता, अगर हम जीतते हों तो रुपया सीधा गिरे और अगर हारते हों तो उलटा गिरे। उलटा गिरा हम वापस लौट जाएंगे, सीधा गिरा तब जीत कर ही लौटना है।
रुपया सीधा गिरा! सैनिकों की श्वासें रुक गईं! देखा, रुपया सीधा था। फकीर ने कहाः अब फिकर छोड़ दो। अब युद्ध में जाओ और जीत कर लौटो। वे युद्ध में कूद पड़े। आठ दिन बाद वे जीत कर वापस लौटते थे उसी मंदिर के पास से, सैनिकों ने फकीर को याद दिलाया, मंदिर के देवता को धन्यवाद तो दे दें। उस फकीर ने कहाः छोड़ो, इसमें मंदिर के देवता का कोई हाथ नहीं! उन्होंने कहाः कैसी आप बात करते हैं! मंदिर के देवता से पूछ कर ही हम गए थे। भूल गए आप। उस फकीर ने कहा, अब तुम पूछते हो तो मैं तुम्हें सच बात बता दूं। उसने रुपया निकाल कर उनके हाथ में दे दिया। वह रुपया दोनों तरफ सीधा था। उसमें कोई उलटा पहलू न था।
हमारा मन क्या पकड़ लेता है, वे परिणाम हो जाते हैं। हमारा मन हमारा भविष्य, हमारा मन हमारा जीवन। इस देश का मन सदा से यह पकड़े हुए है कि आगे अंधेरा है, आगे पतन है, आगे बुराई है, आगे विनाश है। यह बड़ी खतरनाक दृष्टि है। इससे खतरनाक और कोई दृष्टि नहीं हो सकती। इसलिए हम पांच हजार साल से पतन कर रहे हैं।
उस फकीर के सिक्के में दोनों तरफ सीधा था। हमने जो सिक्का लिया है वह दोनों तरफ उलटा है। उसे कैसा भी फेंको वह उलटा ही गिरने वाला है। हमने हार अपने हाथ से तय कर रखी है। हमने गुलामी अपने हाथ से तय कर रखी है। हमने दरिद्रता, दीनता, दुख अपने हाथ से तय कर रखा है। हम जिम्मेवार हैं। हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है।
लेकिन यह जिम्मेवारी हमारी फिलासफी में है, हमारे सोचने के ढंग में है, हमारे देखने के ढंग में है। हमारी जिंदगी का जो रवैया है वह रवैया हारने वाले का है, जीतने वाले का नहीं है। इस रवैए में पहली बात है कि हमने जो समय की धारणा की है उसमें अच्छा पीछे हो चुका और बुरा आगे होने को। और यह धारणा बदलनी पड़ेगी, हमें पीछे से आगे की जिंदगी को सुखद, आने वाले भविष्य को सूर्य से भरा हुआ, आने वाले भविष्य के सपने को हमें कुछ अच्छे रंग देने पड़ेंगे। और अगर यह काम हम पूरा न कर पाए, तो इस जमीन पर हमारी कोई जगह रह जाने को नहीं है। आज भी कोई जगह रह नहीं गई है। उटोपिया चाहिए भविष्य में। हर रोज आने वाला दिन बेहतर होने वाला है यह हमारे मन के गहरे में बैठ जाना चाहिए। क्योंकि उस दिन को बनाएगा कौन? उस दिन को हम बनाएंगे।
हर आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से बेहतर होने वाली है, यह हमारी धारणा होनी चाहिए। लेकिन हमारी धारणा बहुत अजीब है। हमारी धारणा है कि पीछे सब अच्छा है। उस धारणा को भी थोड़ा विचार लेना चाहिए, क्योंकि तोड़ना है, तो बिना विचारे तोड़ा नहीं जा सकता। यह धारणा इसलिए भी गलत है कि भविष्य सुंदर न हो तो सुंदर नहीं बन सकेगा, इसलिए भी गलत है कि यह तथ्य भी नहीं, यह यथार्थ भी नहीं। अतीत सुंदर नहीं था। लेकिन अतीत के सुंदर होने का ख्याल हमारे मन में जरूर है। उसके कारण हैं।
हम अतीत में जो सबसे अच्छा आदमी हुआ है उसे आज के सबसे बुरे आदमी से तौलते हैं। बड़ी अजीब बात है! राम को, बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को, क्राइस्ट को हम अपने पड़ोसी से तौलते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि राम उस जमाने का सबसे बेहतर आदमी है और अखबार में जो खबर छपती है वह हमारे जमाने के सबसे रद्दी आदमी की है। हम उन दोनों को तौल लेते हैं। हम अतीत के बेहतर आदमी से आज के आखिरी आदमी को तौलते हैं। इसलिए हमेशा कठिनाई हो जाती है। यह तौल गलत है। यह तौल बिल्कुल ही बेहूदी है। आज का सामान्य आदमी अतीत के किसी भी सामान्य आदमी से बेहतर है। और आज का महापुरुष भी अतीत के किसी महापुरुष से पीछे नहीं हैं।
लेकिन अतीत के महापुरुष से हम सामान्य आदमी को तौलने लगते हैं। और हम सामान्य आदमी को भूल गए हैं पिछले, हमें पता नहीं कि राम के वक्त भी सामान्य आदमी कैसा था। राम का पता है, राम से हम सोचते हैं कि रामराज्य बड़ा सुंदर रहा होगा। राम के आधार से हम सोचते हैं। आज से हजार साल बाद, दो हजार साल बाद आपका नाम किसी को याद नहीं रहेगा, मेरा नाम किसी को याद नहीं रहेगा। गांधी का नाम याद रह जाएगा। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे, गांधी का युग बहुत अच्छा था। गांधी जैसा आदमी पैदा हुआ। यह झूठी बात होगी। गांधी का युग गांधी जैसे आदमियों का युग नहीं था। गांधी का युग गांधी से बिल्कुल उलटे आदमियों का युग था।
और यह भी ध्यान रहे कि अगर गांधी के युग में गांधी जैसे लोग बहुत होते तो गांधी को पूछता कौन? राम को पूछा लोगों ने क्योंकि लोग राम से उलटे थे। राम न्यून रहे होंगे, बहुत कम रहे होंगे, संख्या में बहुत थोड़े रहे होंगे। इसलिए पूजे गए। बहुत ज्यादा लोग पूजे नहीं जा सकते हैं। कृष्ण बहुत अकेले रहे होंगे, बुद्ध और महावीर भी अकेले रहे होंगे। अकेले होने की वजह से उन्हें पूजा मिली। अगर बुद्ध के जमाने में दस-पच्चीस बुद्ध भी होते, तो गौतम बुद्ध कभी के भूल गए होते। पच्चीस बुद्धों को याद रखना बहुत मुश्किल हो जाता है।
लेकिन उस जमाने के अच्छे आदमी से हम सोचते हैं सारा जमाना अच्छा रहा होगा। इससे भ्रांति पैदा होती है। इससे खतरनाक तुलना पैदा होती है, इससे एक गलत कंपेरिजन पैदा होता है। और यह भी ध्यान रहे कि महापुरुष सिर्फ बुरे समाज में दिखाई पड़ते हैं, अच्छे समाज में दिखाई नहीं पड़ते। असल में महापुरुष अगर बनना हो तो बुरा समाज बहुत जरूरी है। इसलिए जितना बुरा समाज होता है उतने महापुरुष पैदा हो सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि अच्छे समाज में महापुरुष पैदा नहीं होते। होते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते।
ऐसा है जैसे स्कूल का शिक्षक ब्लैक-बोर्ड पर लिखता है सफेद खड़िया से, सफेद दीवाल पर भी लिख सकता है, लिख तो जाएगा, लेकिन पढ़ा नहीं जा सकेगा। सफेद खड़िया से लिखे गए अक्षर काले तख्ते पर दिखाई पड़ते हैं। सफेद तख्ते पर दिखाई नहीं पड़ेंगे। समाज का काला तख्ता हो तो महापुरुष दिखाई पड़ते हैं, अन्यथा दिखाई नहीं पड़ते। अगर जिस दिन समाज अच्छा हो जाएगा उस दिन महापुरुषों की कहानी खत्म। उस दिन महापुरुष पैदा नहीं हो सकेंगे। महापुरुषों के लिए बुरा समाज बिल्कुल नेसेसिटी है। उसके बिना महापुरुष नहीं दिखाई पड़ता। होगा पैदा लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर चारों तरफ अच्छे लोग हों, तो अच्छा आदमी अलग से दिखाई नहीं पड़ सकता, काला तख्ता चाहिए समाज का।
हिंदुस्तान ने सबसे ज्यादा महापुरुष पैदा किए, क्योंकि हिंदुस्तान के पास सबसे रद्दी समाज है। दुनिया ने इतने अच्छे महापुरुष पैदा नहीं किए, इतने बड़े महापुरुष पैदा नहीं किए। उसका कारण है। दुनिया ने अच्छा समाज पैदा करने की कोशिश की है। जहां-जहां अच्छा समाज बनता जाता है बड़ा आदमी तिरोहित होने लगता है, खो जाता है, दिखाई नहीं पड़ता, उसका पता नहीं चलता, उसको खोजना बहुत मुश्किल हो जाता है। चोरों के समाज में साधु आदर पाता है। साधुओं के समाज में साधु को कौन पूछे? इसलिए साधु के लिए जरूरी है कि चोर बने रहे, नहीं तो साधु मर जाएगा। साधु के लिए जरूरी है कि बेईमान रहे, साधु के लिए जरूरी है कि बुरा आदमी चारों तरफ मौजूद रहे। हमारा मुल्क बहुत साधु पैदा करता है, क्योंकि उससे हजार गुने बेईमान और चोर पैदा करता है। नहीं तो साधु दिखाई नहीं पड़ेगा।
अतीत के अच्छे आदमी भी इस बात की गवाह हैं कि अतीत का समाज अच्छा नहीं रहा होगा। बड़े मजे की बात, और वह यह है कि हम सोचते हैं कि पहले के लोग सब अच्छे थे, लेकिन अगर हम पहले के बड़े लोगों की शिक्षाएं देखें तो यह भ्रम टूट जाएगा। बुद्ध सुबह से उठ कर सांझ तक एक ही बात लोगों को समझाते हैं, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को बुरे भाव से मत देखो। लोग जरूर देखते रहे होंगे। अन्यथा इन शिक्षाओं की जरूरत नहीं है।
आज मैं स्वर्ण-मंदिर में गया। तो वहां संगमरमर के पत्थर पर एक वचन लिखा हुआ है कि पराई स्त्री को देखना महा पाप है। पराई स्त्री को देखने वाला कुत्ते की मौत मरता है। पराई स्त्री को जरा सा भी बुरा विचार किया कि तुम नरक के गड्ढे में गए। जिन्होंने लिखा है और जिनके लिए कहा गया होगा उनकी दृष्टि पराई स्त्री के संबंध में अच्छी नहीं रही होगी। यह कोई अच्छे समाज में कही गई बात नहीं हो सकती। और इस बात को संगमरमर पर लिखना पड़ता है, यह सबूत है कि समाज बहुत गंदा रहा होगा।
अच्छी दुनिया में ऐसे पत्थर हमें अलग करने पड़ेंगे। कि कोई कहेगा, यह क्या पागलपन की बात है! यह कोई अच्छा लक्षण नहीं है। लेकिन समाज की गवाही देता है। महावीर लोगों को समझा रहे हैं, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, ब्रह्मचर्य साधो। लोग नहीं साधते रहे होंगे। दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब भी लोगों को जो शिक्षाएं देती हैं वे वही हैं जिनकी हमें आज भी जरूरत है। इससे पता चलता है आदमी ऐसा ही रहा होगा। बल्कि इससे भी बदतर रहा होगा।
ये खबरें हैं। वैसे कहानियां तो ये कहती हैं कि एक जमाना था भारत में कि लोगों के घर में ताले नहीं लगते थे। हेनसान ने लिखा है कि भारत में ताले नहीं लगते। जब मैं इसको पढ़ता हूं तो मुझे बड़ी हैरानी होती है! हैरानी मुझे यह होती है, तो हम सोचते हैं कि शायद लोग चोरी नहीं करते होंगे, लेकिन यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती। क्योंकि हेनसान के पहले ही बुद्ध और महावीर बिहार में ही लोगों को समझा रहे हैं कि चोरी महापाप है, चोरी मत करना, नरक में सड़ाए जाओगे, चोरी बहुत बुरी चीज है। बुद्ध और महावीर समझा रहे हैं, चोरी महापाप है। और अगर ताले नहीं लगते तो फिर दो ही कारण हो सकते हैं, या तो चोरी के योग्य सामान न रहा होगा लोगों के पास या फिर ताला बनाने की अकल न रही होगी, और कोई कारण नहीं है।
चोर तो जरूर थे। नहीं तो चोरी के खिलाफ समझाने की कोई जरूरत नहीं थी। या फिर बुद्ध और महावीर का दिमाग खराब रहा होगा कि जो लोग चोरी नहीं करते उनको समझा रहे हैं कि चोरी मत करो! जो लोग बेईमान नहीं हैं उनको समझा रहे हैं कि बेईमानी मत करो!
मैंने सुना है, एक चर्च में एक फकीर को कुछ लोग ले गए और उस चर्च के लोगों ने उस फकीर से कहा कि हमें सत्य के संबंध में कुछ समझाएं। तो उस फकीर ने कहाः चर्च में आए हुए लोगों को सत्य के संबंध में समझाना अपमानजनक है, इनसलिं्टग है। क्योंकि चर्च में जो लोग आए हैं वे सत्य बोलते ही होंगे। लेकिन लोग नहीं माने। उस फकीर ने कहाः तुम नहीं मानते हो तो मुझे समझाना पड़ेगा। लेकिन मैं यह सोचता हूं कि सत्य के संबंध में किसी जेलखाने में समझाना चाहिए, चर्च में नहीं।
उस फकीर को पता नहीं होगा कि जेलखाने के भीतर जो हैं और चर्च के भीतर जो हैं, इनमें सिर्फ दीवालों का फर्क है और कोई बहुत फर्क नहीं है। उसने खड़े होकर समझाना शुरू किया। उसने कहाः इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं। उसने उस चर्च में आए हुए लोगों से पूछा कि आप सारे लोग बाइबिल तो पढ़ते हैं न? तो सारे लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए। उसने पूछा कि आपने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय भी कभी पढ़ा है? सारे लोगों ने हाथ उठा दिए कि हमने पढ़ा है, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर। उस फकीर ने कहा कि अब मुझे बोलना पड़ेगा, क्योंकि ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय बाइबिल में है ही नहीं। और आप सब कहते हैं कि आपने पढ़ा है। तब मैं समझ गया कि मुझे सत्य के संबंध में कुछ बोलना चाहिए।
लेकिन उस फकीर ने कहा कि मैं एक आदमी के लिए हैरान हूं जिसने हाथ नहीं उठाया! उसने उससे जोर से पूछा कि मेरे भाई तुम ईमानदार और सच बोलने वाले आदमी इस चर्च में कैसे आ गए?
तो उस आदमी ने कहा कि असल में मुझे कम सुनाई पड़ता है, आप क्या कह रहे हैं मुझे सुनाई नहीं पड़ा। क्या उनहत्तरवां अध्याय पूछ रहे हैं आप? मैं भी पढ़ता हूं। लेकिन जरा सुनाई कम पड़ता है इसलिए मैंने हाथ नहीं उठाया।
सत्य के संबंध में चर्चों में चर्चा चलती है, क्योंकि चर्चों में असत्य बोलने वाले लोगों की भीड़ है। असल में पापियों को छोड़ कर मंदिर की तरफ बहुत कम लोग आकर्षित होते हैं, बहुत कम लोग। तीर्थों की तरफ आकर्षित होने वाला भीतर से गुनाह से भरा होता है। असल में गिल्टी कांशियंस तीर्थ की तरफ ले जाती है। वह जो अपराध से भरा हुआ चित्त है वह कहता है चलो तीर्थ, वह कहता है चलो मंदिर, वह कहता है चलो साधु के पास। यह जो हमारी धार्मिकता है जिसके लिए हम सारी दुनिया में ढिंढोरा पीटते हैं कि हम धार्मिक हैं, वह हमारी धार्मिकता नहीं है। हमारे भीतर अपराध का प्रकटन है। वह जो गिल्ट है हमारे भीतर उसकी वजह से हम धार्मिक होने के हजार उपाय करते हैं। धार्मिक हम बिल्कुल नहीं हैं। अब तक दुनिया में कोई समाज धार्मिक नहीं बन सका। कुछ व्यक्ति धार्मिक हुए हैं इंडिविजुअल, सोसाइटी कोई धार्मिक पैदा नहीं हो सकी है।
लेकिन हिंदुस्तान के समाज को यह ख्याल है कि हमारा धार्मिक समाज है। क्यों? क्योंकि हम एक कृष्ण को पैदा कर लेते हैं, एक नानक को पैदा कर लेते हैं, एक कबीर को पैदा कर लेते हैं। ये व्यक्ति हैं, और हम इन सबका मजा लेते हैं कि हमारा पूरा समाज धार्मिक हो गया। हम धार्मिक नहीं हैं। लेकिन यह भ्रम हमारा न टूटे तो हम धार्मिक कभी हो भी न सकेंगे। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन समाजों को हम कहते हैं अधार्मिक, वे हमसे ज्यादा धार्मिक सिद्ध हो रहे हैं। और हम अपने को कहते हैं धार्मिक, और हमसे ज्यादा इस समय अनैतिक समाज पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। हमसे ज्यादा करप्टेड आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। और हमारे करप्शन का, हमारे व्यभिचार का, हमारी अनीति का पहला आधार यह है कि हम सबने मान रखा है कि हम धार्मिक हैं। इसलिए हमें अधार्मिक होने की जितनी सुविधा मिल गई उतनी किसी को भी नहीं मिली। अगर कोई बीमार आदमी समझ ले कि मैं स्वस्थ हूं तो वह इलाज भी बंद कर देगा। बीमार के इलाज के लिए यह जरूरी है कि वह समझे कि मैं बीमार हूं, और जितनी तीव्रता से समझे कि गहरी बीमारी है, उतने जल्दी इलाज का इंतजाम करेगा।
हम ऐसे बीमार हैं जो अपने को स्वस्थ मान कर बैठे हुए हैं। इसलिए इलाज की भी कोई जरूरत नहीं है। जब भी हम इलाज की बात करते हैं तो हम ऐसा करते हैं कि दुनिया को सिखाना है। हिंदुस्तान भर का यह ख्याल है कि हमें दुनिया को सिखाना है, सारी दुनिया हमारी तरफ देख रही है। और हमारे पास देखने को क्या है यह हम कभी सोचते भी नहीं है। सारी दुनिया हमसे उपदेश लेने को तैयार मालूम पड़ती है हमको। और हम कहां खड़े हैं हमें कोई ख्याल भी नहीं। लेकिन ये सारी की सारी बातें हमारी बीमारी को बचाने का कारण बन जाती हैं।
तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं वह यह, अतीत के लोग हमसे बेहतर थे भी नहीं। और अगर बेहतर होते तो हम उनसे ही पैदा हुए हैं। हम उनकी गवाहियां हैं। किताबें गवाहियां नहीं हैं, हम गवाहियां हैं। आदमी गवाह होता है, किताबें गवाह नहीं होती हैं। हम गवाही देते हैं, हर बेटा अपने बाप की गवाही देता है। और हर बेटा अपने बाप के ऊपर प्रमाण बन जाता है कि बाप कैसा रहा होगा।
जब हम किसी फल को देखते हैं वृक्ष के, तो बीज के संबंध में पता चल जाता है। जानते हैं फल को देख कर कि बीज कैसा रहा होगा। और फल हो सड़ा हुआ और कहे कि हम बहुत स्वस्थ बीज से पैदा हुए हैं, तो कौन उसका भरोसा करेगा। हम बताते हैं कि पीछे का समाज कैसा रहा होगा..हम उससे ही पैदा हुए हैं, हम उससे ही आए हैं। हम अपने को देख कर भी समझ सकते हैं कि पीछे का समाज बेहतर नहीं रहा होगा।
यह एक बार हमें साफ हो जाए तो हम बेहतर समाज को पैदा करने की कोशिश में लग जाएं। लेकिन अगर हमने यह मान रखा है कि बेहतर समाज हो चुका, तो अब पैदा करने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ पुराने समाज का गुणगान करना काफी है। अतीत का यश हम गाते रहें। अतीत के इतिहास की हम बातें करते रहें और मरते जाएं। भविष्य में हो मौत और अतीत की हो कहानी यह हमारी स्थिति हो गई है।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं, अतीत के यथार्थ को समझ लेना जरूरी है। वह इतना सुंदर नहीं था जैसा हम सोचते हैं। लेकिन हमारे मन के अहंकार को तृप्ति मिलती है। भिखमंगे को यह मान कर बहुत आनंद मिलता है, उसके बापदादे सम्राट थे। इससे उसके बापदादे सम्राट थे या नहीं यह सिद्ध नहीं होता, इतना जरूर सिद्ध होता है कि वह भिखमंगा है। भिखमंगे के मन को बड़ी राहत मिलती है कि कोई फिकर नहीं, अगर हम भीख भी मांग रहे हैं तो कोई बात नहीं, बापदादे हमारे सम्राट थे। बापदादे सम्राट थे या नहीं, इससे भिखमंगेपन में कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, एक फर्क पड़ता है वह यह कि भिखमंगा अपने भिखमंगेपन में भी अकड़ जाता है।
आज हम जमीन पर भिखारी की हालत में हैं। लेकिन हमारी अकड़ का कोई हिसाब नहीं। आज सारी जमीन से हम भीख मांग रहे हैं। लेकिन हमारी अकड़ का कोई हिसाब नहीं। यह अकड़ हमें कहां ले जाएगी, कहना बहुत मुश्किल है। इस अकड़ ने हमें अतीत में भी बहुत मुसीबतों में डाला। हजार साल हम गुलाम न रहते अगर हम अकड़े हुए लोग न होते। लेकिन हम इतने अकड़े हुए लोग थे कि हमें कभी पता ही नहीं चला कि हमारे पास ताकत कितनी है। अकड़ बहुत ताकत बताती है। लेकिन जब मौका आता है तो अकड़ की असलियत खुल जाती है। हमें ख्याल था हम महा शक्तिशाली हैं, वह हमारी अकड़ टूट गई। हमें ख्याल था कि हम सोने की चिड़िया हैं, वह अकड़ भी हमारी टूट गई। अब भी हमको न मालूम क्या-क्या ख्याल हैं कि हम आध्यात्मिक हैं, धार्मिक हैं, वह हमारी अकड़ बहुत महंगी और खतरनाक है।
मैंने सुना है, सोमनाथ के ऊपर जब हमला हुआ, तो सोमनाथ में पांच सौ पुजारी हैं। बड़ा मंदिर था वह, करोड़ों की संपत्ति थी उसके पास। राजस्थान के बहुत से राजपूत सरदारों ने पत्र लिखे कि हम मंदिर की रक्षा के लिए आएं। तो मंदिर के पुजारियों ने जवाब दिया, जवाब दिया कि जो भगवान सबकी रक्षा करता है, उसकी रक्षा तुम करोगे! जवाब बिल्कुल ठीक था, तर्कयुक्त था, समझ में पड़ता था, क्योंकि हमारी पुरानी बुद्धि से मेल खाता था। जो भगवान सबकी रक्षा करता है, उसकी रक्षा तुम करोगे! राजपूत भी डर गए, उन्होंने माफी मांग ली। उन्होंने कहा कि हमसे भूल हो गई। भगवान की रक्षा हम कैसे कर सकते हैं, जो सबकी रक्षा करने वाला है। फिर वह गजनी उस मूर्ति को तोड़ सका जो सबकी रक्षा करती थी। और जब वह मूर्ति चारों खाने टूट कर पड़ गई तब हमें पता चला। लेकिन तब बहुत देर हो गई थी। अकड़ टूट जाए तब पता चले तो बहुत देर हो जाती है। वह टूटने के पहले पता चलनी चाहिए तो बदली जा सकती है।
अभी हिंदुस्तान इसी तरह की अकड़ में जी रहा है कि हम आध्यात्मिक हैं, हम फलां हैं, हम ढिकां हैं। सारी दुनिया हमसे बेहतर नैतिक हो गई। लेकिन हम अपनी अकड़ में जिंदा हैं। और हमारी बेईमानी का कोई हिसाब नहीं।
मेरे एक मित्र हैं, प्रोफेसर हैं पटना युनिवर्सिटी में। गए हुए थे स्वीडन, जिस होटल में ठहरे हुए थे, वेजिटेरियन हैं, शाकाहारी हैं। उन्होंने सुबह ही उठ कर कहा कि मुझे दूध चाहिए और बैरा को बुला कर उन्होंने कहा कि शुद्ध दूध चाहिए, प्योर मिल्क चाहिए। उस बैरा ने कहा कि हम सुना नहीं कभी प्योर मिल्क क्या होता है? प्योर मिल्क क्या बला है? कंडेंस्ड मिल्क सुना है, पैश्चुराइज्ड मिल्क सुना है, प्योर मिल्क क्या बला है? मैं मैनेजर को बुला लाता हूं।
वे बड़े हैरान हुए! मैनेजर आया उसने पूछा कि यह शुद्ध दूध क्या है?
तो उन्होंने कहाः आप समझे नहीं, मेरा मतलब यह है कि दूध में पानी न मिलाया गया हो। उन्होंने कहा, वह तो मिलाएंगे ही हम क्यों? यह सवाल ही क्यों उठा आपके मन में? कोई ऐसी जगह भी है जहां कोई दूध में पानी मिलाता हो?
तो उन्होंने कहा कि मेरा देश है!
मैं उनके घर में मेहमान था, वे मुझे कहने लगे तो मैंने कहा कि आपने गलत कहा, वह जमाना गया जब हमारा देश दूध में पानी मिलाता, अब हम पानी में दूध मिला रहे हैं। वह वक्त गए, अब कोई दूध में पानी नहीं मिलाता। अब तो पानी में हम दूध मिला लेते हैं। आपने गलत कहा। मैंने कहा, वापस लिख दो एक पत्र क्षमायाचना का कि थोड़ी गलती हो गई।
जिन्हें हम भौतिकवादी कहें उन्हें समझना मुश्किल है कि शुद्ध दूध क्या होता है? शुद्ध घी क्या होता है? और हमारी दुकान पर लगा हुआ है कि यहां शुद्ध घी मिलता है। और जहां अशुद्ध मिलता हो वहां हमें बोर्ड लगाना पड़ता है शुद्ध का। नहीं तो कभी लगाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
हमारी यह मनो-दशा! हमारी यह चित्त-स्थिति! अभी मेरे एक डाक्टर मित्र कह रहे थे कि दूध में पानी मिलाओ वह ठीक है, इंजेक्शन में भी पानी मिल रहा है। मरीज को इस भरोसे पर इंजेक्शन दिया जा रहा है कि वह बच जाएगा। न मरीज को पता है, न डाक्टर को पता है कि इंजेक्शन में कुछ भी नहीं है, सिर्फ पानी है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इतना करप्टेड माइंड हो सकता है कि एक मरते हुए मरीज को..जिसकी जिंदगी इंजेक्शन पर निर्भर होगी..उसको पानी दिया जा रहा है।
हम आध्यात्मिक लोग हैं। हम जो न करें वह थोड़ा है। हमारी यह अकड़ कैसे टूटेगी? यह अकड़ तोड़नी पड़ेगी। और जो जिंदगी के सीधे तथ्य हैं उनको समझना पड़ेगा। हम धीरे-धीरे ऐसी अकड़ से भर गए हैं कि जिंदगी का जो नग्न सत्य है, उसको देखते ही नहीं। उससे आंख चुराए चले जाते हैं, आंख बंद किए चले जाते हैं, और ऊंची बातें करते रहते हैं।
कई बार मुझे लगता है कि ऊंची बातें करना कहीं जिंदगी के नीचे तथ्यों से एस्केप करने की तरकीब तो नहीं है? अक्सर ऐसा होता है। अक्सर ऐसा हो जाता है। अक्सर आदमी जब मरने लगता है, मौत के करीब पहुंचने लगता है तो आत्मा की अमरता की बात करने लगता है। उसका कारण यह नहीं होता कि उसे पता चल गया आत्मा अमर है, वह मौत को झुठलाना चाहता है। अब वह जो मौत सामने दिखाई पड़ रही है वह उससे बचना चाहता है।
तो अब किताब पढ़ने लगता है, जहां लिखा हैः न हन्यते न हन्यमाने शरीरे। वह गीता पढ़ने लगता है कि आत्मा अमर है, कोई मरता नहीं। इसलिए नहीं कि गीता से कोई मतलब है, इसलिए भी नहीं कि आत्मा से कोई मतलब है। मतलब एक है कि यह मौत सामने खड़ी है अब इससे कैसे बचें? इसको कैसे झुठलाएं? तो अपने मन में कहता है, आत्मा अमर है, आत्मा अमर है और भीतर जानता है कि मरना करीब आ रहा है। अब वह मरने को झुठला रहा है। हम ठीक उलटी तरकीबों से अपने को झुठलाने की कोशिश करते हैं। दिखाई पड़ता है कि अनैतिक है, दिखाई पड़ता है पाप से भरे हैं, लेकिन भीतर कहते हैं आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। आत्मा न कोई पाप करती, न कोई बुरा करती, आत्मा ने कभी कोई विकार किया ही नहीं। इसलिए जो साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं आत्मा ब्रह्म है, परम पवित्र है, उनके आस-पास सब तरह के पापी इकट्ठे हो जाते हैं। वे कहते हैं, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, आत्मा बिल्कुल शुद्ध है। क्योंकि वे भी यह मानना चाहते हैं कि आत्मा बिल्कुल शुद्ध होना चाहिए। क्योंकि उनकी अशुद्धियों का फिर क्या होगा?
एक दफे जब साधु समझाता है सब संसार माया है। तब चोर समझता है कि चोरी भी माया है। कोई हर्जा नहीं है। माया में क्या हर्जा है? सपने में चोरी करने में और सपने में साधु होने में कोई फर्क हो सकता है। जिंदगी सब सपना है। इसलिए हम चोर होने की सुविधा पा जाते हैं। जिंदगी के सपने होने से, जिंदगी के माया होने से। हमने अजीब गोरखधंधा पैदा किया हुआ है। हम अपने चारों तरफ एक ऐसा जाल बुन लिए हैं, जो हमारे व्यक्तित्व को निखरने नहीं देता, ईमानदार नहीं होने देता, आनेस्ट नहीं होने देता। हमने सामने के सब दरवाजे बंद कर दिए हैं। और सब तरफ से हमें पीछे के दरवाजे खोलने पड़े हैं।
अभी जॉन डिवी ने पश्चिम में एक वक्तव्य दिया और उसने कहा कि पश्चिम की जो सयता है वह सेंसेट है, सेंसुअल है, पश्चिम की सयता जो है वह ऐंद्रिक है। तो हिंदुस्तान भर के साधु-संन्यासियों का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। एक बड़े संन्यासी मुझे मिल रहे थे, उन्होंने कहाः आपने सुना, जॉन डिवी कहता है कि पश्चिम की सयता ऐंद्रिक है। तो मैंने कहा कि वह सुन कर आप बहुत खुश न हों, ऐंद्रिक होना फिर भी एक सच्चाई है। अगर पश्चिम की सयता सेंसेट है तो हमारी सयता हिपोक्रेट है। वह उससे भी बदतर है। अगर पश्चिम की सयता ऐंद्रिक है तो हमारी सयता पाखंडी है। और पाखंडी होना ऐंद्रिक होने से बुरा है। क्योंकि इंद्रियां तो परमात्मा ने हमें दी हैं, पाखंड हमारी ईजाद है।
पश्चिम की सयता एक तरह की सिनसिअरिटी को उपलब्ध हो रही है, एक तरह की ईमानदारी को। चीजें जैसी हैं, उनको वैसा देखने की एक वृत्ति पैदा हो रही है। और चीजें जैसी हैं, उनको वैसा देख कर बदला जा सकता है। लेकिन चीजें जैसी नहीं हैं, वैसी कल्पना कर लेने से बदलाहट बहुत मुश्किल हो जाती है। और एक अजीब स्थिति पैदा होती है जो पीछे के दरवाजे वाली है।
मैंने सुना है कि एक नगर में एक नाटक चल रहा था। नाटक की बड़ी प्रशंसा थी। उस गांव का जो बड़ा पादरी था उसे भी प्रशंसा सुनाई पड़ी। शेक्सपियर का नाटक है। बड़ी प्रशंसा है। लेकिन पादरी देखने कैसे जाए? उसके मित्रों ने भी कहा कि बहुत सुंदर है। पादरी ने कहा, नरक जाओगे। जितना लोगों ने कहा, बहुत अच्छा है, उतना पादरी ने कहा कि नरक में भटकोगे। नाटक में मत पड़ो, नाटक में कुछ भी नहीं है।
लेकिन रात उसको भी नींद न आती, उसे भी लगता कि पता नहीं नाटक में क्या हो रहा है? और लोगों को कहता है, नरक जाओगे। तब भी लोग नहीं डरते और नाटक जाते हैं और नरक की फिकर नहीं करते। जरूर नाटक में कुछ होगा जो नरक के भय से भी ज्यादा आनंदपूर्ण मालूम पड़ता होगा, मन में भरता गया। आखिर उसने एक दिन मैनेजर को एक चिट्ठी लिखी, आखिरी दिन था नाटक का, उसने चिट्ठी लिखी कि मैं भी नाटक को देखने आना चाहता हूं। लेकिन मैं चाहता हूं कि नाटक देखने वाले मुझे न देख सकें। पीछे का कोई दरवाजा आपके थियेटर में है या नहीं?
उस मैनेजर ने छपा हुआ उत्तर वापस भेजा। जिसमें छपा हुआ था कि आप आएं, हर गांव में जहां भी हमारा थियेटर जाता है हमें पीछे का दरवाजा रखना ही पड़ता है, क्योंकि सज्जन सामने के दरवाजे से आने को राजी नहीं होते, सज्जन पीछे का दरवाजा मांगते हैं। उनके लिए भी सुविधा बनानी पड़ती है। पीछे दरवाजा है, आप बिल्कुल आ जाएं। यह छपा हुआ कार्ड था, क्योंकि हर जगह जरूरत पड़ती है, लिखने की जरूरत नहीं थी। नीचे लाल स्याही से हाथ से उसने लिखा था कि इतना तो हम भरोसा देते हैं कि कोई आपको देख न सकेगा, लेकिन यह भरोसा हम नहीं दे सकते कि परमात्मा आपको देख सकेगा या नहीं देख सकेगा।
हम सब पीछे का दरवाजा खोज लिए हैं। जहां सामने के दरवाजे बंद हो जाते हैं, अवरुद्ध हो जाते हैं, वहां आदमी पीछे का दरवाजा खोजना शुरू कर देता है। हमने धन को गाली दी, इसलिए हमसे ज्यादा कंजूस आज जमीन पर कोई भी नहीं है। हमने धन को हजारों साल गाली दी, लेकिन धन पर जैसी हमारी पकड़ है, ऐसी आज किसी की भी नहीं। यह बड़ा चमत्कार है! यह बड़ा मिरेकल है! यह सोचने जैसा मामला है जो कौम हजारों साल से धन को गाली दे रही है, वह कौम धन से इतने जोर से क्यों चिपटती है? जिस कौम ने सदा कहा कि धन मिट्टी है, वह कौम धन को मिट्टी की तरह छोड़ नहीं पाती। एक पैसा नहीं छोड़ पाती। एक पैसे पर हमारी पकड़ इतनी गहरी है जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। तो मुझे लगता है कि हम धोखा दे रहे हैं। धन को गाली दे रहे हैं, पीछे के रास्ते से धन को पकड़ते चले जा रहे हैं।
मैं एक घर में ठहरता था। उस घर के ऊपर दो पश्चिमी परिवार, दो इंजीनियर, वहां कुछ दिन के लिए रुके हुए थे। जिनका मकान था उनके घर में मैं रुकता था। वे जब भी मैं वहां जाता था, तो जरूर उनके बाबत कुछ न कुछ कहते थे कि खाने-पीने में ही लगे रहते हैं, नाचने-गाने में ही लगे रहते हैं। कुछ धर्म नहीं है इनके जीवन में। रात बारह बजे तक नाचते हैं, खाते हैं, पीते हैं, बस यही जिंदगी समझ रखी है इन लोगों ने। जब भी जाता था, वे कोई निंदा करते थे।
मैंने उनसे कहा कि मालूम होता है आपके खाने-पीने की वृत्ति तृप्त नहीं हो पाई। पर उनकी समझ में नहीं पड़ा। जब भी जाता था, वे कहते थे, बस पैसा उड़ाते रहते हैं। तो मैंने कहा कि वे अपना पैसा उड़ाते हैं, आपका पैसा नहीं उड़ाते। लेकिन हम इस हालत तक पैसे के पकड़ने वाले हो गए हैं कि दूसरे को पैसा उड़ाता देख कर भी हमको कष्ट होता है। हमारा पैसा भी कोई नहीं उड़ा रहा है। फिर वे चले गए।
जब मैं तीसरी बार उनके घर मेहमान था तो मैंने देखा कि वे ऊपर के अतिथि चले गए हैं।
मैंने उनसे पूछा कि क्या वे लोग चले गए?
उन्होंने कहा कि हां, वे लोग चले गए। लेकिन बड़े अजीब लोग थे। जाते वक्त वे अपनी सब चीजें यहीं बांट गए। जो नौकरानी उनके घर में बर्तन साफ करती थी उसको सारे स्टेनलेस स्टील के बर्तन दे गए। बड़े अजीब लोग थे। स्टेनलेस स्टील बहुत अच्छा था उनके पास, वे सारे बर्तनों को दे गए हैं उन्हीं को।
मैंने उनसे कहाः लोभ आपके मन में भी उन बर्तनों को पाने का रहा होगा। लेकिन बड़े भौतिकवादी लोग थे, बर्तन कैसे दे गए?
उन्होंने कहाः आप कहते हैं कि बर्तन, रेडियो और अपना सामान भी यहां उनके जो मित्र थे सब बांट गए हैं, यहां से कोई सामान नहीं ले गए।
मैंने कहाः भौतिकवादी लोग थे और आप अध्यात्मवादी लोग हैं। आपको कुछ दे गए हैं?
उन्होंने कहाः नहीं, हमें क्या जरूरत है, हमारे पास सब है। तभी उनके छोटे लड़के ने कहा कि नहीं, एक चीज हमारे पास भी है। रस्सी छोड़ गए हैं, कपड़ा सुखाने के लिए रस्सी थी ऊपर, वह मम्मी छोड़ लाई है। क्योंकि वह रस्सी बहुत प्लास्टिक की अच्छी बनी हुई रस्सी यहां मिल भी नहीं सकती। वह हमारे पास है।
आध्यात्मिक आदमी रस्सी छोड़ लाया है। वह रस्सी भी उन्होंने बांधी नहीं है, क्योंकि रस्सी कीमती है। उसे उन्होंने सम्हाल कर रख लिया है।
यह हमारा चित्त ऐसा विकृत, ऐसा परवरटेड, ऐसा कुरूप क्यों हो गया? इसके होने का क्या कारण है? इसके होने के कारण हैं। वह मैं तीसरी बात मैं आपसे कहूं, हमने जिंदगी के तथ्यों को स्वीकार नहीं किया। जिंदगी में धन की जरूरत है। धन मिट्टी नहीं है। और अगर धन मिट्टी होता, तो हम मिट्टी से ही काम चला लेते, फिर धन की कोई जरूरत न होती।
नहीं, हम झूठ बोल रहे हैं, धन मिट्टी नहीं है। और जिन मंदिरों में यह समझाया जाता है कि धन मिट्टी है, वे मंदिर भी धन की ही कामना किए चले जाते हैं। जो साधु-संन्यासी समझा रहे हैं कि धन मिट्टी है, वे भी धन की ही कामना किए जाता है।
अभी मैं एक संन्यासी के आश्रम में रुका हुआ था। वे समझा रहे हैं लोगों को कि सब असार है और लोग उनके पास पैसे लाकर रखते हैं तो वे असार होने की बात छोड़ कर पहले पैसे पैर के नीचे सरका लेते हैं, फिर बैठ कर शुरू कर देते हैं कि सब असार है। मैं बहुत हैरान हुआ कि ये असार को पैर के नीचे क्यों सरका रहे हैं?
जिंदगी के सहज तथ्यों की अस्वीकृति आदमी को बेईमान कर देती है। हमारे यहां एक-एक आदमी अलग-अलग बेईमान नहीं है, हमारा संस्कृति बेईमान है। अगर एक-एक आदमी अलग-अलग बेईमान होता तो हम एक-एक आदमी को जिम्मेवार ठहराते। नहीं, हमारा समाज बेईमान है। इसलिए इस समाज में जीना तक मुश्किल है ईमानदार होकर।
यानी जिस समाज में हजारों साल तक ईमान की बात की, उस समाज में ईमानदार आदमी का जीना असंभव है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। और एक बेईमान समाज में ईमानदार आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। उसका जिंदा रहना असंभव हो जाता है। सब तरफ बेईमानी है। और सबसे बड़ी बेईमानी जो मैं आपसे कहना चाहूं वह यह है कि हमने जिंदगी को ही झुठला दिया है। जिंदगी की सारी सच्चाइयों को ही इनकार कर दिया है। हम किसी जिंदगी के सत्य को स्वीकार नहीं करते। हम सत्यों की जगह सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं।
सिद्धांत, अजीब से सिद्धांत जो हमने आदमी के ऊपर बिठा दिए हैं बिना आदमी की फिक्र किए। हमने भौतिकवाद को स्वीकार नहीं किया। वह हमारे अनाचार में उतर जाने का कारण बन गया। भौतिकवाद जिंदगी का आधार है, अध्यात्म जीवन का शिखर है। लेकिन भौतिकवाद जीवन की बुनियाद है। और अगर कोई मकान बनाना हो, या कोई मंदिर बनाना हो और कोई कहता है कि हम बिना बुनियाद के मंदिर बनाएंगे, और हम सिर्फ सोने का शिखर चढ़ाएंगे, पत्थर की बुनियाद न रखेंगे। तो वह पागल है, मंदिर कभी नहीं बनेगा। यह बड़े मजे की बात है, शिखर बिना बुनियाद के नहीं हो सकता, लेकिन बुनियाद बिना शिखर के भी हो सकती है।
बिना जड़ के फूल नहीं हो सकता, लेकिन बिना फूलों के भी जड़ हो सकती है। जिंदगी का जो निम्न है वह बिना ऊंचे के हो सकता है, लेकिन ऊंचा बिना नीचे के नहीं हो सकता। हम इस भूल में पड़ गए हैं। हम कहते हैं, हम सिर्फ ऊंचे को बचाएंगे। हम कहते हैं, हम सिर्फ आत्मा को बचाएंगे, शरीर से हमें कोई प्रयोजन नहीं। इसलिए आत्मा तो बची ही नहीं, शरीर भी नहीं बचा है। शरीर आधार है, उसे बचाना पड़ेगा। वह बचे तो आत्मा के बचने की संभावना शुरू होती है। जगत आधार है, वह बचे तो परमात्मा की खोज भी हो सकती है। लेकिन इस सारे जीवन को, जगत को, पदार्थ को, शरीर को, इस सबके हम दुश्मन हैं। इस दुश्मनी ने हमें मुश्किल में डाल दिया। क्योंकि जिस शरीर में जीना है उसकी दुश्मनी अगर आप करेंगे तो आप बेईमान हो जाएंगे।
जीना पड़ेगा शरीर में, श्वास लेनी पड़ेगी, भोजन करना पड़ेगा, कपड़े पहनने पड़ेंगे, और चैबीस घंटे इन्हीं की निंदा भी करनी पड़ेगी। जीवन की निंदा एक तरह की रिक्त पैदा कर देती, और एक तरह का आदमी पैदा करती है जो स्किजोफ्रेनिक हो जाता है, जिसके मन में दोहरे हिस्से हो जाते हैं, जिसके भीतर स्प्लिट हो जाते हैं, टुकड़े टूट जाते हैं, खंड-खंड हो जाते हैं। एक हिस्सा एक तरफ जीने लगता है, दूसरा हिस्सा उसके विरोध में बोलता चला जाता है।
जब आप खाना खा रहे हैं तब भी आपके मन में खाने की निंदा है, जब आप अपनी पत्नी को प्रेम कर रहे हैं तब भी आप जानते हैं कि पाप कर रहे हैं, जब आप अपने बेटे को आप खिला रहे हैं तब भी आप जानते हैं कि यह माया-मोह है, आसक्ति है, बहुत बुरा है। अजीब बात है! बेटे का प्रेम भी विषाक्त हो जाएगा। पति और पत्नी के बीच का संबंध भी पाय.जनस हो जाएगा। सारी जिंदगी जहरीली हो जाएगी, क्योंकि जहां जीना है उसकी ही निंदा है, उसका ही कंडमनेशन है।
ऐसे नहीं हो सकता। अगर कोई माली फूलों को गाली देता हो तो उसके हाथ खाद डालने में कमजोर हो जाएंगे। अगर कोई माली फूलों की निंदा करता हो तो फूलों को सम्हालने में उसकी हिम्मत अधूरी हो जाएगी। अगर फूल में खाद देनी है और पानी देना है तो फूल को प्रेम ही करना पड़ेगा, अनकंडीशनल, बेशर्त प्रेम करना पड़ेगा। और मेरी अपनी समझ यह है कि परमात्मा जगत का विरोध नहीं है जैसा हमने समझा, परमात्मा का अगर जगत से विरोध होता जैसा महात्माओं का है, तो जगत को वह कभी का मिटा सकता था, जरूरत क्या है?
मेरी समझ में तो महात्मा परमात्मा के पक्के दुश्मन हैं। क्योंकि वे कहते हैं, जगत को मिटाओ। वे कहते हैं, आवागमन से मुक्ति चाहिए, जन्म-मरण से छुटकारा चाहिए। वह परमात्मा भेजे ही चला जा रहा है, वह इन महात्माओं की सुनता नहीं, वह जगत को बनाए ही चला जा रहा है। और महात्मा जगत को उजाड़ने के लिए लगे हुए हैं। पता नहीं शैतान इनके दिमाग में ख्याल देता है, या कौन इनके दिमाग में ख्याल देता है।
नहीं, परमात्मा जब इस प्रकृति को बनाता है, और परमात्मा के बिना सहारे के तो यह जीवन नहीं टिकेगा, तो इस प्रकृति को प्रेम करना पड़ेगा, इस शरीर को भी प्रेम करना पड़ेगा, इस जीवन को भी प्रेम करना पड़ेगा। यही प्रेम इतना गहरा हो जाए कि परमात्मा तक उठ सके। यही प्रेम इतना ऊंचा उठ जाए कि जड़ों में न रह जाए, फूलों तक पहुंच सके। यह प्रेम इतना बड़ा हो जाए कि बुनियाद ही नहीं, शिखर भी इससे आ सकें। लेकिन वह हमसे नहीं हो सका, क्योंकि हमने बुनियादी रूप से जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया। भौतिक और आध्यात्मिक, ऐसे दो जीवन नहीं हैं। शरीर और आत्मा, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व इकट्ठा है। और मनुष्य का जो व्यक्तित्व है वह साइकोसोमेटिक है, वह शरीर भी है और आत्मा भी है। बल्कि अच्छा होगा यह कहना कि मनुष्य का व्यक्तित्व एक्स है। जिसका एक रूप शरीर में प्रकट होता है और एक रूप आत्मा में प्रकट होता है। मनुष्य दोनों का जोड़ है यह कहना भी गलत है। क्योंकि इसमें हम दो को मान लेते हैं। ये मनुष्य के दो अभिव्यक्तियां हैं, ये दो रूप हैं मनुष्य के, जो एक तरफ शरीर बनता है और एक तरफ आत्मा की तरफ प्रकट होता है।
यह जगत और परमात्मा दो नहीं, यह जगत और परमात्मा एक है। जिस दिन हम ऐसा देख पाएंगे, और जिस दिन हम ऐसा देख कर एक स्वस्थ, बीमार संस्कृति नहीं, स्वस्थ, ऐसी संस्कृति जो जीवन को स्वीकार करती है, उसके आधार रख पाएंगे। जो भौतिकवाद को स्वीकार करती है और अध्यात्म को भी। जो शरीर को स्वीकार करती है और आत्मा को भी। और जो धन को स्वीकार करती है और धर्म को भी। जो निंदा नहीं करती, इनकार नहीं करती, जिसकी धारा में सभी कुछ आत्मसात हो जाता है, ऐसी सर्वग्राही, टोटल एक्सेप्टबिलिटी वाली संस्कृति को अगर हम जन्म न दे पाए तो इस पृथ्वी पर हमारे चरण बहुत दिन तक टिके नहीं रहेंगे। अभी भी टिके नहीं हैं, हजारों साल से भटक रहे हैं। हमारे पैर मजबूती से जमीन पर खड़े नहीं हैं। खड़े हम हो नहीं पा रहे हैं। गिरते हैं रोज। इतने गिरे हैं कि धीरे-धीरे हमने मान लिया कि हमारा भाग्य है, इसलिए हमने प्रयास भी छोड़ दिया है अब कुछ करने का। यह हमारा भाग्य है। गुलाम होते हैं तो भाग्य है, गरीब होते हैं तो भाग्य है। सारी दुनिया बदली जा रही है, हम भाग्य को पकड़ कर बैठे हुए हैं।
अभी पिछले दिनों बिहार में अकाल पड़ा था। अंदाज था कि उस अकाल में एक करोड़ से लेकर दो करोड़ तक लोग मर सकते थे। लेकिन मरे भूख में केवल चालीस लोग। क्योंकि सारी दुनिया सहायता के लिए दौड़ पड़ी। अगर दुनिया न आती तो एक करोड़ आदमी मरते। हम कहते, भाग्य। चालीस मरे तो हमने यह न कहा कि एक करोड़ लोग सारी दुनिया ने बचाए। हमने दुनिया को कोई धन्यवाद भी नहीं दिया। हमने कहा, भाग्य। बच गए तो भाग्य है, मर जाते तो भाग्य है। असल में जब कोई कौम सारी तरह की हिम्मत खो देती है तो भाग्यवादी हो जाती है, फैटेलिस्ट हो जाती है।
आखिरी बात आपसे कह रहा हूं, अतीत से मुक्त हों, भविष्य के निर्माण के लिए अतीत से स्वर्ण-युग को हटाएं। स्वर्ण-युग आगे है, बीत नहीं गया, आएगा, आएगा नहीं लाना पड़ेगा। जिंदगी को पूरा का पूरा स्वीकार करें, अधूरा नहीं। अधूरी जिंदगी जैसी कोई चीज नहीं होती, जिंदगी है तो पूरी है, अपने सब रूपों में ग्रहण करनी पड़ेगी। ऐसा न करें कि संगीत को स्वीकार करें और वीणा को इनकार करें। कहें कि वीणा तो भौतिक है, संगीत आध्यात्मिक है। तो संगीत तो हम स्वीकार करते हैं, वीणा का इनकार करते हैं। वीणा के बिना संगीत पैदा नहीं होगा।
वीणा ही संगीत पैदा कर सकेगी। वह जो भौतिक है अध्यात्म को पैदा होने की पासिबिलिटी है। वह जो शरीर है वह आत्मा के फूल के खिलने की भूमि है। वह जो प्रकृति है वह परमात्मा के प्रकट होने का अवसर है। समग्र जीवन को स्वीकार करें और भाग्य शब्द को भारत के शब्दकोश से अलग करने की कोशिश करें। उसने हमें डुबाया है, उसने हमें मारा है, उसने हमें नष्ट किया है। भाग्य नहीं, हम, और हम का मतलब हमारे भीतर छिपा परमात्मा। कोई निर्णायक नहीं है हमसे बाहर, हम ही निर्णायक हैं। हम जो करते हैं वही हमारा निर्णय हमारा भाग्य बन जाता है।
लेकिन हमारा पढ़ा-लिखा आदमी भी, इंजीनियर भी, डाक्टर भी, सड़क के किनारे बैठे चार आने की फीस में हाथ देखने वाले आदमी को हाथ दिखा रहा है। पूछ रहा है भविष्य क्या है? भविष्य पूछना नहीं पड़ता कि क्या है भविष्य बनाना पड़ता है। यह कौम सदा से पूछ रही है भविष्य क्या है? जैसे भविष्य कोई रेडीमेड चीज है, जिसको हम पा लेंगे। मिल जाएगा, बस आ जाएगा, भविष्य कुछ रेडीमेड नहीं है, भविष्य निर्माण करना होता है।
अमरीका आज तीन सौ वर्षों की कौम है केवल। तीन सौ वर्ष किसी कौम के इतिहास में बहुत ज्यादा नहीं होते। लेकिन तीन सौ वर्ष में अमरीका ने सारी दुनिया की सर्वाधिक संपत्ति और समृद्धि पैदा की है। और हम कोई दस हजार वर्ष पुरानी कौम हैं और भूखे मर रहे हैं। सोचने जैसा है कि बात क्या है? हमारे पास जमीन अमरीका से बुरी नहीं। और अमेरिका में भी तीन सौ वर्ष पहले जो लोग रह रहे थे, अमरीकी, असली अमरीकी, रेड इंडियन वे तो गरीब ही थे, वे आज भी गरीब हैं। उसी जमीन पर गरीब थे, उसी जमीन पर दूसरे लोगों ने आकर इतनी संपत्ति पैदा कर ली।
काउंट कैसरलिंग हिंदुस्तान आया। एक जर्मन विचारक था। लौट कर उसने एक किताब लिखी और उस किताब में उसने एक वाक्य लिखा। वह मैं पढ़ता था तो मैं बहुत हैरान हुआ। उसने लिखाः इंडिया इ.ज ए रिच लैंड, वेअर पुअर पिपुल लिव। हिंदुस्तान एक अमीर देश है, जहां गरीब लोग रहते हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा, अगर देश अमीर है तो गरीब लोग कैसे रहते होंगे? और अगर गरीब लोग रहते हैं तो अमीर कहने का क्या मतलब है? क्या मजाक है? लेकिन बात उसने ठीक ही कही है। देश तो अमीर है लेकिन रहने वाले भाग्यवादी हैं। और भाग्यवादी कभी अमीर नहीं हो सकते।
देश के पास तो अनंत संभावना है। उसके साथ नदियां हैं, पहाड़ हैं, आकाश है, जमीन है, समुद्र है, सब है। इतनी विविध रूप से प्रकृति जमीन में किसी देश को उपलब्ध नहीं है। इतने विस्तार में इतने गहरे स्रोत वाला संभावना किसी के पास नहीं। लेकिन इतना गरीब आदमी जैसा हमारे पास है ऐसा भी किसी को उपलब्ध नहीं। भगवान ने खूब मजाक किया है। इतनी समृद्ध संभावनाएं दी थीं, तो इतना भाग्यवादी आदमी क्यों दिया? लेकिन वह भाग्यवादी आदमी अनंत संभावनाओं को ऐसा ही रिक्त छोड़ देता है और भूखा मर रहा है।
अभी घोषणाएं कर रहे हैं समझदार लोग कि उन्नीस सौ अठहत्तर तक हिंदुस्तान में एक बड़ा अकाल पड़ सकता है। अगर सारी दुनिया ने गेहूं नहीं दिया तो उन्नीस सौ अठहत्तर में हिंदुस्तान में इतना बड़ा अकाल पड़ सकता है जितना मनुष्य के इतिहास में कभी भी कहीं नहीं पड़ा। उस अकाल में जो लोग सोचते हैं, समझते हैं, उनका अंदाज है कि बीस करोड़ लोग भी मर सकते हैं।
दिल्ली में मैं एक बड़े नेता से कह रहा था, उन्होंने कहाः उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है। अभी तो उन्नीस सौ बहत्तर पड़ा है। अभी तो इलेक्शन उन्नीस सौ बहत्तर का हो जाए फिर सोचेंगे। उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है, और फिर उन्होंने कहाः जो भाग्य में होना होगा।
भाग्य को भारत के शब्दकोश से उखाड़ कर फेंक देना है। वह भारत के शब्दकोश में नहीं रह जाना चाहिए। तो हम एक नया समाज, एक नई दुनिया, और एक नया आदमी, जो संपन्न हो, सुखी हो, शांत हो और प्रभु को प्रेम भी दे सके, पैदा कर सकते हैं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, ये पुराने चर्च को गिराने के लिए कहीं। और नये चर्च को बनाना हो तो पहले पुराने को गिरा देना पड़े। और पुराना गिर जाए तो फिर नया बनाना ही पड़ता है। और पुराना न गिरे तो हम सोचते हैं एक रात और गुजार दो, एक सांझ और गुजार दो, थोड़ा कहीं टीम-टाम कर लो, कोई दीवाल टूट गई है तो सुधार लो, कोई दरवाजा खराब हो गया है तो रंग पोत लो, कुछ थोड़ा सा बदल लो और इसी में जीए चले जाओ। यह पूरा का पूरा समाज का हमारा ढांचा सड़ गया है, पूरा ढांचा सड़ गया है। और यह आज नहीं सड़ गया, यह बहुत दिनों से सड़ा हुआ है। यह हमें सड़ा हुआ ही मिलता रहा है। इसलिए चूंकि हमें सड़ा हुआ ही मिलता है इसलिए ख्याल भी नहीं आता कि यह सड़ गया।
अगर यह हमको अच्छा मिले और फिर सड़ जाए तो हमें ख्याल भी आए। वह तो हम बूढ़े अगर पैदा हों तो हमको कभी पता भी न चले कि हम बूढ़े कब हो गए। पता कैसे चले? वह तो हम बच्चे पैदा होते हैं इसलिए पता चलता है कि बुढ़ापा आ गया है। यह समाज पांच हजार साल से बूढ़ा है। इसलिए अब हमें यह भी पता चलना बंद हो गया है कि हम बूढ़े हो गए, कि हम मर गए, कि हम सड़ गए हैं। यह बोध आ सके इसलिए सोचने के लिए कुछ सूत्र मैंने आपसे कहे।
जरूरी नहीं कि मेरी बातें मान लें। किसी की बातें माननी जरूरी नहीं हैं। वह भी भारत की एक बीमारी है कि वह किसी की भी बातें मान लेता है। नहीं, मेरी बात मानने की जरूरत नहीं। सोचें, मैंने कहा उस पर संदेह करें, विचार करें। हो सकता है कि सब गलत हो, हो सकता है कुछ ठीक हो। अगर आपके सोचने से कुछ उसमें ठीक आपको दिखाई पड़े तो फिर वह मेरा नहीं रह जाता, वह आपका अपना सत्य हो जाता है। और वे ही सत्य काम में आते हैं जो हमारे अपने विचार का फल हैं। और कोई सत्य काम में नहीं आते हैं।
उधार सत्य असत्य से भी बदतर होते हैं। और हमारे पास सिवाय उधार सत्यों के और कुछ भी नहीं हैं। बारोड, हजारों साल से उधार है। हमें अपने सत्य खोजने पड़ेंगे। हर युग को, हर समाज को, हर व्यक्ति को, अपना सत्य खोजना पड़ता है। सत्य की खोज के साथ ही जीवन की ऊर्जा जगती है और सृजन की संभावना खुलती है।

मेरी इन बातों को इतने शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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