भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक)
तीसरा-प्रवचन-(ओशो)
भारत की समस्याएं..कारण और निदान
मेरे प्रिय आत्मन्!यह देश शायद अपने इतिहास के सबसे ज्यादा संकटपूर्ण समय से गुजर रहा है। संकट तो आदमी पर हमेशा रहे हैं। ऐसा तो कोई भी क्षण नहीं है जो क्राइसिस का, संकट का क्षण न हो। लेकिन जैसा संकट आज है, ठीक वैसा संकट मनुष्य के इतिहास में कभी भी नहीं था। इस संकट की कुछ नई खूबियां हैं, पहले हम उन्हें समझ लें तो आसानी होगी।
मनुष्य पर अतीत में जितने संकट थे, वे उसके अज्ञान के कारण थे। जिंदगी में बहुत कुछ था जो हमें पता नहीं था और हम परेशानी में थे। वह परेशानी एक तरह की मजबूरी थी, विवशता थी। नये संकट की खूबी यह है कि यह अज्ञान के कारण पैदा नहीं हुआ है, ज्यादा ज्ञान के कारण पैदा हुआ है। जैसे दुनिया में नालेज एक्सप्लोजन हुआ है, ज्ञान का विस्फोट हुआ है। हमेशा आदमी आगे था और ज्ञान बहुत पीछे सरकता था, छाया की तरह। अब ज्ञान आगे हो गया है और आदमी को पीछे सरकना पड़ रहा है, छाया की तरह। अज्ञान से जितनी तकलीफें हुई थीं, उससे बहुत ज्यादा तकलीफें ज्ञान से हो गई हैं।
असल में अज्ञान से जो तकलीफ है, वह मजबूरी की तकलीफ है। क्योंकि अज्ञान एक कमजोरी है। और ज्ञान से जो तकलीफ होती है वह ज्यादा ताकत की तकलीफ है। जैसे बच्चे के हाथ में तलवार दे दी जाए और बच्चा अपने को नुकसान पहुंचा ले। आदमी के पास जितना ज्ञान आज है, वह ज्ञान ही उसे नुकसान पहुंचाने वाला सिद्ध हो रहा है। दो कारणों से। एक तो आदमी उस ज्ञान के साथ आगे नहीं बढ़ पा रहा है। दूसरा, आदमी के पुराने जिंदगी के अनुभव और आदतें उस नये ज्ञान के इंप्लिमेंटेशन में, उसके प्रयोग में बाधा बन रही हैं। दूसरा, इस संकट की एक विशेष खूबी है और वह यह है कि पुराने सारे संकट ऐसे संकट थे कि हम अपने अतीत के अनुभव से उन्हें हल करने के लिए कोई रास्ता खोज सकते थे। हमारे पास एक्सपीरिएंसेज उनके लिए रास्ता बन जाते थे। नये संकट की दूसरी खूबी यह है कि पुराना कोई भी अनुभव काम का नहीं है। क्योंकि जो संकट पैदा हुआ है वह नये ज्ञान से पैदा हुआ है। और पुराने मनुष्य-जाति के अनुभव में उसका मुकाबला करने के लिए कोई उत्तर नहीं है। और हमारी सदा की आदत यह रही है कि जब भी हम नई परिस्थिति से जूझते हैं तो पुराने अनुभव के आधार पर जूझते हैं।
यह हमेशा ठीक था, पुराना अनुभव सदा काम दिया था, अब काम नहीं देगा। क्योंकि जो ज्ञान हमारे सामने है, जिससे संकट उत्पन्न हुआ है वह इतना नया है कि उसका कोई मिसाल, उसका कोई मुकाबला मनुष्य के अतीत में नहीं था। लेकिन मनुष्य के सोचने का ढंग हमेशा पास्ट ओरिएनटेड होता है, वह पीछे से बंधा होता है।
जैसे उदाहरण के लिए दो-तीन बातें मैं कहूं, तो आपके ख्याल में आ सकें। आज भी हम स्कूल में सात साल के बच्चे को भरती करते हैं। कोई भी यह नहीं बता सकता कि सात साल के बच्चे को भरती करने की क्या जरूरत है? सात साल कैसे तय किया गया है स्कूल में बच्चे को भरती करने के लिए? कौन सा वैज्ञानिक कारण है? लेकिन सारी दुनिया सात साल के बच्चे को स्कूल में भरती करे जाती है।
हमें यह ख्याल में ही नहीं है कि जब हमने आज से कोई चार सौ या पांच सौ साल पहले सात साल के बच्चे को स्कूल में भरती किया था, तो जिन कारणों से किया था वे कारण अब कहीं भी नहीं रह गए हैं। असल में स्कूल इतने दूर थे कि सात साल से छोटा कम का बच्चा उतने दूर के स्कूल में नहीं भेजा जा सकता था। उसका बच्चे से कोई भी संबंध नहीं है सात साल की उम्र का। लेकिन अब यह स्कूल बिल्कुल पड़ोस में तो भी सात साल के बच्चे को हम स्कूल भेजे चले जाते हैं।
आज कोई भी जरूरत नहीं है कि हम सात साल तक बच्चे को रोकें स्कूल भेजने से। लेकिन पुरानी आदत काम किए चली जाती है। जब कि समस्त नई खोजें यह कहती हैं कि बच्चा अपनी चार साल की उम्र में जितना सीख लेता है, वह पूरी जिंदगी में जितना सीखेगा उसका आधा है। चार साल की उम्र में बच्चा अपनी जिंदगी का पचास प्रतिशत, फिफ्टी परसेंट ज्ञान पा लेता है। फिर बाकी अगर वह अस्सी साल जीएगा तो बाकी पचास प्रतिशत अस्सी साल में सीखेगा। जिंदगी के पहले चार साल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे शिक्षा के बाहर हैं। क्योंकि हम सात साल के बच्चे को स्कूल भेजने की पुरानी आदत से मजबूर हैं।
दूसरा आपको उदाहरण देना चाहूंगा कि आपने शायद ही कभी सोचा होगा कि हमने सारी दुनिया में, गणित के लिए दस के अंक क्यों तय किए हैं? दस तक के फिगर क्यों तय किए हैं? कोई गणितज्ञ उत्तर नहीं दे सकता कि उसका कारण क्या है। पांच से भी काम चल सकता है, छह से भी काम चल सकता है। हमने दस ही क्यों तय किए हैं? वह दस तय करना हो गया कोई लाखों साल पहले, क्योंकि आदमी ने सबसे पहले गिनती अंगुलियों से शुरू की, और सारी दुनिया में आदमियों के पास दस अंगुलियां थीं, इसलिए दस पर गिनती ठहर गई। फिर सारी संख्या हमने दस के ऊपर ही फैला ली।
लीबनीज नाम के एक बड़े वैज्ञानिक ने तीन के आंकड़े से पूरा काम चला लिया। सारे गणित हल कर लिए। लेकिन कोई राजी ही नहीं। हम दस से ही हिसाब चलाए चले जाएंगे। जब कि जितने कम आंकड़े हों उतना गणित आसान और सरल हो सकता है। लेकिन वह दस अंगुलियों ने हमें उलझा दिया है। अब दस अंगुलियों से कोई संबंध नहीं रहा है। लेकिन दस का आंकड़ा तय हो गया, वह हमको पकड़े हुए है।
एक तीसरा आपको उदाहरण दूं ताकि आपके ख्याल में आ सके। हमने कपास से कपड़े बनाए, कोई आज से छह हजार साल पहले, इजिप्त में। कपास को तो धागा बनाना पड़ता है पहले, फिर कपड़ा बुनना पड़ता है। अब हमने एक तरह के सिंथेटिक मैटीरियल विकसित कर लिए हैं जिनके धागे बनाने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन हम टेरीलीन हो कि नाइलोन हो, उन सबको भी पहले धागा बनाते हैं, फिर धागे को बुनते हैं। यह भी कोई पागलपन की बात है!
अब नई जो वस्तु सामग्री है उससे सीधा ही कपड़ा बनाया जा सकता है। उसको अलग धागे बना कर फिर कपड़ा बनाने की कोई जरूरत नहीं है। पुरानी दुनिया में आदमी को अपने कपड़े काट कर और दर्जी से सिलवाना पड़ते थे। अब हम पूरी की पूरी कमीज ढाल सकते हैं, अब उसको दर्जी से कटवा कर सिलवाने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन छह हजार साल पुरानी आदत दिमाग में बैठी है। तो पहले हम धागे बनाएंगे, फिर धागों को बुनेंगे, फिर उनको काटेंगे, फिर दर्जी उनको सिएगा। अब यह सब निपट नासमझी की बात हो गई है।
लेकिन पुरानी आदत हमें पकड़े हुए है। अब तो कमीज और पैंट को ढाला जा सकता है। यह बड़े मजे की बात है कि आदमी इतना विकसित हो गया है, फिर भी पक्षियों के मुकाबले हमारे पास कपड़े नहीं हैं। असल में, आपने कभी ख्याल किया, एक पक्षी, वर्षा हो जरा से पर फड़फड़ाते और पानी अलग हो गया। आपको अभी भी चैबीस घंटे कपड़ा सुखाने में खर्च करने पड़ रहे हैं। अब कोई जरूरत नहीं है। अब हम ऐसे कपड़े विकसित कर सकते हैं जिनको आप पानी गिरे तो सिर्फ छिड़क दें और पानी अलग हो जाए। लेकिन पुरानी आदत सूती कपड़े की हमारे दिमाग को परेशान किए हुए है। अब सौ-सौ पचास-पचास जोड़ी कपड़े घर में रखने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन फिर भी एक बड़ा सूटकेस लेकर हमको सफर करनी पड़ती है।
हमारी पुरानी आदतें पीछा नहीं छोड़तीं। नया ज्ञान आ जाता है तब भी हम पुरानी आदतों से ही जीए चले जाते हैं। नये संकट की सबसे बड़ी जो खूबी है वह यह है कि नये ज्ञान का संकट है और पुराना आदमी इसके साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा। आदमी पुराना पड़ गया है और ज्ञान बहुत नया है। यह ज्ञान इतना नया है कि इसे समझ लेना थोड़ा जरूरी है।
जीसस के मरने के बाद साढ़े अठारह सौ वर्षों में दुनिया में जितना ज्ञान पैदा हुआ था, उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में पैदा हुआ है। और जितना पिछले डेढ़ सौ वर्षों में ज्ञान पैदा हुआ है, उतना ज्ञान पिछले पंद्रह वर्षों में पैदा हुआ है। और जितना ज्ञान पिछले पंद्रह वर्षों में पैदा हुआ है, उतना पिछले पांच वर्षों में पैदा हुआ है।
अब दुनिया जब पहले साढ़े अठारह सौ वर्ष में जितना ज्ञान पैदा करती थी, उतना पांच वर्ष में पैदा कर रही है। यह भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा, आने वाले दिनों में ढाई वर्ष में उतना ज्ञान पैदा हो जाएगा। असल में दुनिया को साढ़े अठारह सौ वर्ष में जितना ज्ञान मिलता था, अगर पांच वर्ष में मिल जाएगा तो नालेज एक्सप्लोजन हो जाएगा। ज्ञान बहुत आगे निकल जाएगा, आदमी बहुत पीछे छूट जाएगा। अठारह सौ साल में हम एडजेस्ट हो जाते थे उससे। अनेक पीढ़ियां बदल जाती थीं तब ज्ञान बदलता था।
सच्चाई तो यह है कि एक आदमी की जिंदगी में करीब-करीब दुनिया में कुछ भी नहीं बदलता था। जैसी दुनिया थी वैसी होती थी। जैसा आदमी जन्म के वक्त दुनिया को पाता था, करीब-करीब वैसी की वैसी मरते वक्त दुनिया को छोड़ता था। इसलिए उसके लिए एडजेस्टमेंट का सवाल नहीं था, वह एडजेस्टेड ही पैदा होता था और मरता था। अब एक बार आदमी की जिंदगी में पच्चीस बार सब बदल जाता है। असल में हमें पुराना ख्याल छोड़ देना चाहिए एक जन्म का। अब एक आदमी जिंदगी में पच्चीस बार जन्म ले रहा है। क्योंकि उसके आस-पास की दुनिया हर पांच-दस साल में बदल जाती है। उसको फिर से एडजेस्ट होना पड़ता है।
इसलिए जो कौमें नये एडजस्टमेंट नहीं खोज सकती हैं, वे कौमें बहुत मुसीबत में पड़ जाती हैं। भारत के अधिकतम सवाल, भारत की अधिकतम समस्याएं भारत की पुरानी आदत की समस्याएं हैं। हम पुरानी आदत से मजबूर हैं। हम जिंदगी को फिर मानने की आदत लिए बैठे हैं। जब कि जिंदगी अब तालाब नहीं रह गई, नदी हो गई है। वह रोज बदली जा रही है। तालाब को अपने तट का परिचय होता है, सदा एक ही तट होता है। वह उसे जानता है भलीभांति। वे ही दरख्त होते हैं, वे ही पक्षी होते हैं, वे ही लोग स्नान करने आते हैं। नदी रोज तट बदल लेती है, रोज वृक्ष बदल जाते हैं, रोज पक्षी बदल जाते हैं, रोज स्नान करने वाले बदल जाते हैं। नदी को रोज नई दुनिया के साथ राजी होना पड़ता है।
हिंदुस्तान अब तक एक तालाब था। वह पहली दफा एक नदी बना है। उसे बहुत मुसीबत हो रही है। और जब जिंदगी में एक बार नहीं पच्चीस बार सारा ज्ञान बदल जाता हो तो हम बहुत मुश्किल में पड़ जाते हैं। वह मुश्किल कई तरह की है। पहली मुश्किल तो यह है कि पुरानी दुनिया में पिता हमेशा बेटे से ज्यादा जानता था। नई दुनिया में जरूरी नहीं रह गया। लेकिन बाप की पुरानी अकड़ नहीं जाती। पुरानी दुनिया में बाप अनिवार्य रूप से ज्यादा जानता था। इसमें कोई शक की बात ही नहीं थी कभी, इसमें बेटा सवाल ही नहीं उठा सकता था। क्योंकि बाप ज्यादा जीआ था, इसलिए जो थिर जिंदगी थी उससे वह ज्यादा परिचित हो गया था। बेटा कम जीआ था, इसलिए वह कम परिचित था।
असल में पुराना ज्ञान अनुभव से ही आता था, और कोई रास्ता ही नहीं था। बाप अनुभवी था, बेटा गैर-अनुभवी था। गुरु अनुभवी था, शिष्य गैर-अनुभवी था। इसलिए शिष्य अगर गुरु के चरणों में सिर रखता था तो इसमें कोई आश्चर्य न था। आज शिष्य को गुरु के चरणों में सिर रखवाना मुश्किल है। क्योंकि आमतौर से आज गुरु और शिष्य के बीच एक पीरियड से ज्यादा का फासला नहीं होता ज्ञान का। वह एक घंटे पहले जो तैयारी करके शिक्षक आया होता है उतना ही फासला होता है। अब इतने से फासले के लिए पैर नहीं छुआ जा सकता। और अगर विद्यार्थी थोड़ा बुद्धिमान हो तो शिक्षक से ज्यादा जान सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई।
लेकिन पुरानी दुनिया में विद्यार्थी कभी शिक्षक से ज्यादा नहीं जान सकता था। अगर बेटा थोड़ा होशियार हो तो बाप से ज्यादा जान ही लेगा। असल में पिता तीस साल पहले युनिवर्सिटी में पढ़ा था, बेटा तीस साल बाद पढ़ेगा। तीस साल में दुनिया हजारों साल में जितना बदलती है उतना ज्ञान बदल जाएगा। जब बेटा घर लौटेगा तो बेटा ज्यादा जान कर लौटेगा बाप से। लेकिन बाप अपनी पुरानी अकड़ को कायम रखना चाहे तो नुकसानदायक है। सच बात यह है कि स्थिति बदल गई है। जब पहले बेटा सदा बाप से पूछता था। अब ऐसा नहीं है। अब बाप को अक्सर बेटे से पूछने के लिए तैयार होना पड़ेगा। और अगर हम इसके लिए राजी न होंगे तो हम बहुत बेचैन हो जाएंगे, बहुत परेशान हो जाएंगे। जब ज्ञान इतने जोर से बदलता है तो पुराने थिर संबंध बदल जाते हैं। वह जो स्टेटिक रिलेशनशिप होती है वह बदल जाती है।
इस समय भारत के सामने जो समस्याओं की जटिलता है उसमें एक कारण यह भी है कि पिता सोचता है कि वह ज्यादा जानता है, गुरु सोचता है कि वह ज्यादा जानता है, क्योंकि हमारी उम्र ज्यादा है। असल में उम्र पहले ज्यादा होती थी तो ज्यादा ज्ञान होता था। अब यह सच नहीं रहा है। अब उम्र के ज्यादा होने से ज्ञान के ज्यादा होने का कोई भी संबंध नहीं रह गया। क्योंकि आप तीस साल पहले पढ़े थे, तीस साल में इतनी घटनाएं घट गई हैं, चीजें इतनी बदल गई हैं कि आप करीब-करीब आउट ऑफ डेट होंगे। आपका जो ज्ञान है वह करीब-करीब गलत हो चुका होगा। उस ज्ञान को थोपने का आग्रह बेटों में बगावत पैदा करेगा। हिंदुस्तान में बेटे बगावत कर रहे हैं। उस बगावत का आधा जिम्मा हिंदुस्तान के बाप पर है, आधा जिम्मा हिंदुस्तान के शिक्षक पर है। क्योंकि हम बेटों पर पुराने ढंग से चीजों को थोप रहे हैं।
नहीं, बेटे और बाप के बीच का फासला बहुत कम हो गया है। वह दो पीढ़ियों का फासला नहीं रहा है अब, वह ज्यादा से ज्यादा बड़े भाई और छोटे भाई का फासला हो गया है। और उस फासले में भी छोटे भाई के जानने की संभावनाएं बड़े भाई से ज्यादा हो गई हैं। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बाप-बेटे का नाता था, वह बदल गया, अब शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बाप-बेटे का नाता नहीं; क्योंकि बाप-बेटे के बीच भी बाप-बेटे का नाता नहीं रह गया है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अब बड़े और छोटे भाई का संबंध रह गया है। जो दो कदम आगे है, और वह जो दो कदम आगे है उसे दो कदम आगे रहने के लिए निरंतर श्रम करना पड़ेगा। सिर्फ उम्र से आगे नहीं रह सकता। और जरा भी पिछड़ गया तो जो दो कदम पीछे है वह आगे हो जाएगा। इसलिए फासले गिर गए हैं। लेकिन आदतें गिरने में वक्त लेती हैं।
ज्ञान बढ़ जाता है, आदमी बदलने में समय लेता है। आदमी की आदतें बड़ी मुश्किल से बदलती हैं। उन आदतों की न बदलाहट हमारे लिए बहुत तरह की समस्याएं पैदा करती हैं। अब जैसे हिंदुस्तान के सामने एक समस्या बड़ी से बड़ी जो है वह यह है कि हिंदुस्तान की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच संबंध कैसे निर्मित हों? संबंध टूट गए हैं।
मैं हजारों घरों में ठहरता हूं, मैं किसी बाप और बेटे को बोलचाल की स्थिति में नहीं देखता, कोई कम्युनिकेशन नहीं है। बाप और बेटे बैठ कर बातचीत करते हों, एक-दूसरे की समस्याएं समझते हों, ऐसी बात नहीं है। हां, कभी-कभी बात होती है, जब बेटे को बाप से कुछ पैसे हथियाने होते हैं या बाप को बेटे को कुछ उपदेश देना होता है, तब कभी-कभी कुछ बातचीत होती है। लेकिन वह बातचीत एक तरफा होती है, वन वे ट्रैफिक होता है। जब बाप बोल रहा होता है तब बेटा बचने की कोशिश में होता है कि कब निकल भागे और जब बेटा बोल रहा होता है तब बाप बचने की कोशिश में होता है कि कब निकल भागे। उसमें कम्युनिकेशन नहीं है।
हिंदुस्तान की दो पीढ़ियां इस तरह से टूट कर खड़ी हो गई हैं कि उनके बीच एक गैप, एक एबिस हो गई है। हिंदुस्तान की अधिकतम समस्याओं के लिए यह गैप, यह अंतराल, यह खाई जिम्मेवार हो रही है। और यह सब बात इतनी अजीब होती जा रही है कि करीब-करीब बेटे बाप की भाषा नहीं समझ पा रहे हैं, बाप बेटे की भाषा नहीं समझ पा रहे हैं। यह नासमझी मुल्क को बहुत गहरे गड्ढे में गिरा देगी। यह इसलिए गड्ढे में गिरा देगी कि बेटों के पास ताकत बहुत है, बेटों के पास नये ज्ञान का अंबार भी है। लेकिन बेटों के पास वि.जडम जैसी चीज आज भी नहीं है और कभी भी नहीं होगी। वि.जडम और नालेज में थोड़ा सा फर्क है। नालेज तो आज बेटे के पास बाप से ज्यादा है, लेकिन वि.जडम आज भी बेटे के पास बाप से ज्यादा नहीं है। वि.जडम सदा ही अनुभव से आती है। ज्ञान शिक्षण से भी आ जाता है। वि.जडम तो जीवन को जीने से आती है। ज्ञान तो किताब से भी आ जाता है, इनफार्मेशन से भी आ जाता है, ज्ञान तो स्कूल की परीक्षा से भी आ जाता है। पुरानी दुनिया में ज्ञान और प्रज्ञा, नालेज और वि.जडम दोनों ही अनुभव से आते थे। नई दुनिया में ज्ञान शिक्षा से आता है और वि.जडम, प्रज्ञा अनुभव से आती है।
बाप के पास प्रज्ञा तो है, वि.जडम तो है, नालेज में वह बेटे से पिछड़ गया है। बेटे के पास नालेज है और ताकत है। और इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं रह गया है। हालत करीब-करीब ऐसी है जैसे आपने एक कहानी सुनी होगी कि जंगल में आग लग गई और एक अंधा और लंगड़ा उस जंगल में फंस गए हैं। अंधा भागता है, भाग सकता है, उसके पास ताकतवर पैर हैं, लेकिन भागने से भरोसा नहीं है कि जंगल के बाहर निकल जाएगा। डर यही है कि जोर से भागेगा तो और जल्दी आग में गिर जाएगा। चारों तरफ आग बढ़ती जा रही है। लंगड़ा देख सकता है, उसके पास आंखें हैं, उसे दिखाई पड़ रहा है कि कहां से निकल सकता है, लेकिन उसके पास पैर नहीं हैं कि दौड़ सके। उस अंधे और लंगड़े ने जितनी बुद्धिमत्ता दिखाई, अगर हिंदुस्तान के बाप और बेटों ने भी उतनी बुद्धिमत्ता दिखाई तो हम इस देश को बचा लेंगे, अन्यथा यह डूब जाएगा।
उस जंगल में लगी हुई आग के बीच अंधे और लंगड़े ने एक समझौता कर लिया। एक बड़ा कीमती समझौता कर लिया। वह समझौता यह था कि अंधा चले और लंगड़ा चलाए। वह समझौता यह था कि लंगड़ा अंधे के कंधों पर सवार हो जाए। तब वे दो आदमी एक आदमी की तरह काम करने लगें। जिसके पास पैर हैं वह पैर दे दे और जिसके पास आंख हैं वह आंख दे दे। करीब-करीब आज हिंदुस्तान ऐसी हालत में है। नई पीढ़ी के पास पैर हैं, ताकत है, ज्ञान से मिली हुई नई ताकत है, क्योंकि आज तो ज्ञान ही बड़ी से बड़ी ताकत है।
बेकन ने कभी कहा था कि नालेज इ.ज पावर। उस दिन यह बात सच न थी, आज यह बात सच हो गई है। आज तलवार उतनी बड़ी ताकत नहीं है और न मसल्स की ताकत उतनी बड़ी है। और ये सब पिछड़ी हुई ताकतें हैं जिनका कोई अर्थ नहीं रह गया। आज ज्ञान सबसे बड़ी ताकत है। तो बेटों के पास ज्ञान है, ताकत है, लेकिन बेटों के पास आंख नहीं हो सकती। आंख आज भी अनुभव से मिलती है। आंख आज भी जीवन को गुजरने से पता चलती है। वह जो वि.जडम की आंख है वह आज भी बूढ़े के पास है, वह आज भी बाप के पास है, वह आज भी शिक्षक के पास है। लेकिन इन दोनों के बीच तालमेल, हार्मनी टूट गई है।
अगर भारत की दोनों पीढ़ियों ने समझौता नहीं किया और अगर दोनों के बीच कोई संयोग, कोई संवाद, कोई डायलॉग नहीं संभव नहीं हो सका, तो भारत इतने बड़े खतरे में पड़ जाएगा जितने बड़े खतरे में वह कभी भी नहीं पड़ा था। हालांकि बहुत खतरे भारत ने देखे हैं। बहुत तरह की गुलामियां, बहुत तरह की गरीबियां, बहुत तरह की परेशानियां। लेकिन जो भविष्य हमारे सामने आएगा वह सबसे खतरनाक होगा। क्योंकि उसमें सबसे बड़ी जो विघटन, जो डिसइंटिग्रेशन मुल्क में पड़ रहा है, वह यह है कि जिनके पास आंख हैं वे अलग टूट गए हैं और जिनके पास ताकत है वे अलग टूट गए हैं।
तो पहली समस्या तो मुझे, इस समस्या से बहुत सी समस्याएं पैदा हो रही हैं। चाहे उस समस्या का नाम नक्सलाइट हो, चाहे उस समस्या का कोई और नाम हो, यह बाप और बेटे के बीच पैदा हुई खाई का परिणाम है। चाहे स्कूल-कालेजों में पत्थर फेंके जा रहे हों और चाहे स्कूल-कालेजों में बसें जलाई जा रही हों, यह समस्या कोई भी हो, लेकिन इस समस्या की बहुत बुनियाद में एक डायलाग खो गया है। बाप और बेटे के बीच कोई बातचीत, कोई तालमेल नहीं रह गया। बेटे कुछ और भाषाएं बोल रहे हैं, बाप कुछ और भाषाएं बोल रहे हैं और दोनों एक-दूसरे को सुनने में असमर्थ हो गए हैं।
जुंग ने एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मेरे पागलखाने में एक बार दो प्रोफेसर पागल होकर आ गए। ऐसे भी प्रोफेसर पागलखानों में बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि जो प्रोफेसर एकाध दफे पागल न हो वह ठीक अर्थों में प्रोफेसर नहीं है। वे दो प्रोफेसर जुंग के पागलखाने में गए हैं। जुंग उनका अध्ययन करता है। क्योंकि वे दोनों बड़े बुद्धिमान लोग हैं। कभी-कभी बुद्धि की अति भी पागलपन बन जाती है। वे बहुत ज्ञानी हैं। लेकिन कभी-कभी बहुत ज्ञान व्यक्तित्व को तोड़ जाता है।
जैसे ज्यादा भोजन न पच पाए तो नुकसान हो जाता है, वैसे ज्यादा ज्ञान भी न पच पाए तो नुकसान हो जाता है। और करीब-करीब हमारी सदी ज्यादा ज्ञान के अपच से पीड़ित हैं। ज्ञान रोज चला आता है और पचाने का, खून बनाने का, हड्डी-मांस बनाने का मौका ही नहीं मिलता। जब तक पुराना ज्ञान हड्डी-मांस बने तब तक नया ज्ञान भीतर प्रवेश कर जाता है। और इतने जोर से हो रही यह बौछार कि कठिनाई हो गई है। वह दोनों प्रोफेसर का जुंग अध्ययन करता रहा। वह खिड़की में छुप कर उनकी बातें सुनता था। वह बड़ा हैरान हुआ।
हैरानी दो तरह की थी। एक तो हैरानी यह थी कि वे दोनों जो बातें करते थे, वे अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्ण थीं, उनकी बातें सुन कर कोई भी नहीं कह सकता था कि वे पागल हो गए हैं। उनकी बातें तर्कयुक्त थीं। उनकी बातों में बराबर ग्रंथों के उद्धरण होते थे। उनकी बातों में..उसने ग्रंथ भी उठा कर देखे तो पाया कि उनके उद्धरण बिल्कुल सही हैं। वे शब्द-शब्द ठीक बोलते हैं। एक तो हैरानी की बात थी कि पागल होकर वे इतने तर्कपूर्ण हैं। हालांकि हैरान होने की कोई जरूरत नहीं। पागल अक्सर तर्कपूर्ण होते हैं। असल में पागलों के अपने तर्क होते हैं। दे हैव देयर ओन लॉजिक। लेकिन और दूसरी हैरानी की बात यह थी कि वे दोनों पागल इतनी सुव्यवस्थित बात तो करते थे, लेकिन एक-दूसरे की बातचीत में कोई संबंध नहीं होता था। जो एक बोल रहा था वह आकाश की बोलता था, दूसरा पाताल की बोलता था। उन दोनों के बीच कोई संबंध ही नहीं था। लेकिन यह भी स्वाभाविक है कि दो पागलों के बीच बातों में संबंध न हो, यह स्वाभाविक है।
तीसरी बात और भी हैरानी की थी कि जब एक बोलता था तब दूसरा चुप रहता था और जब दूसरा बोलना शुरू करता तो पहला चुप हो जाता। इससे जुंग बहुत हैरान हुआ कि जो पागल एक-दूसरे से असंबंधित बातें बोल रहे हैं, वे भी इतना ख्याल क्यों रखते हैं कि दूसरा चुप हो तब हम बोलें!
उसने जाकर उनसे पूछा कि मैं और सब तो समझ गया, यह बात मैं नहीं समझ पा रहा कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप क्यों रहता है? वे दोनों हंसने लगे। उन्होंने कहाः आप भी बड़े पागल हैं। क्या आप समझते हैं हमें कनवरसेशन का नियम नहीं मालूम? हमें कनवरसेशन का नियम मालूम है। जब एक बोल रहा है तब दूसरे को चुप रहना चाहिए।
जुंग ने कहा, जब तुम्हें इतना पता है तो तुम्हें इतना पता नहीं कि जो एक बोल रहा है उसी संबंध में दूसरे को बोलना चाहिए। वे दोनों बहुत खिलखिला कर हंसने लगे। उन दोनों ने कहा कि खैर हम तो पागल हैं, लेकिन हमने दुनिया में दो गैर-पागल लोगों को भी ऐसी बात करते नहीं देखा जिसमें कोई संबंध हो।
पता नहीं यह जुंग को कहां तक बात जंची या नहीं जंची, लेकिन इस मुल्क में ऐसी घटना घट रही है। यहां दो आदमी की बातचीत में कोई संबंध नहीं रह गया। और दो पीढ़ियों के बीच में तो कोई संबंध नहीं रह गया है। और अगर दो ही पीढ़ियां होतीं तब भी ठीक था, कई पीढ़ियां हो गई हैं, क्योंकि एक पीढ़ी बीस साल में बदल जाती है। तो तीन-चार पीढ़ियां हैं। जो अस्सी साल का है वह कुछ और भाषा बोल रहा है, उसका बेटा जो साठ साल का है वह भी वह भाषा नहीं बोलता, उसका जो बेटा चालीस साल का है वह कुछ और बोल रहा है, उसका जो बेटा बीस साल का है वह कुछ और बोल रहा है। और जो बेटे दस-पंद्र्रह साल के हो रहे हैं वे कोई और भाषा बोल रहे हैं जिनका अस्सी साल के बाप से कहीं कोई संबंध नहीं रह गया। इनके बीच के सब ब्रिज गिर गए हैं।
मुल्क करीब-करीब एक मैड-हाउस, एक पागलखाना मालूम पड़ता है। जब शिक्षक कुछ विद्यार्थियों से कहता है तो विद्यार्थियों की समझ के बाहर होता है कि कौन सी फिजूल बातें कही जा रही हैं। अब तो शिक्षक को भी शक होने लगा है कि वह शायद फिजूल की बातें कह रहा है। क्योंकि चारों तरफ की आंखें उसे दिखाई पड़ती हैं जिनसे उसे पता लगता है। नेता जनता को समझा रहा है और पूरे वक्त जान रहा है कि कोई नहीं समझ रहा और जनता भी पूरे वक्त सुन रही है और समझ रही है कि नेता जो कह रहा है इसका इसकी जिंदगी से कोई संबंध नहीं है। बाप बेटे को समझा रहा है, बेटे समझ रहे हैं कि बेईमान है, पाखंडी है। बेटे बाप को आश्वासन दे रहे हैं, बाप जान रहा है यह सब धोखे की बात है, यह पीछे जाकर अभी आश्वासन तोड़ देगा।
जब किसी मुल्क की जिंदगी में ऐसी घटना घट जाए, जहां कि हमें किसी एक-दूसरे की भाषा पर भी भरोसा न रह जाए, तो उस मुल्क को हमें सेन नहीं मानना चाहिए, वह इनसेन हो गया, एक पागलपन पकड़ गया है। इस पागलपन को तोड़ना जरूरी है। अन्यथा हम बड़ी अजीब हालतों में रोज उलझते चले जाएंगे। समस्याएं जिनको दिखाई पड़ती हैं उन्हें समाधान नहीं दिखाई पड़ता, जिन्हें समाधान दिखाई पड़ता है उन्हें कोई समस्याएं दिखाई नहीं पड़तीं। बूढ़ों के पास समाधान हैं लेकिन उन्हें समस्याएं दिखाई नहीं पड़तीं। बच्चों के पास समस्याएं हैं लेकिन उन्हें समाधान दिखाई नहीं पड़ते। किन्हीं के पास पैर हैं, किन्हीं के पास आंखें हैं, दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है।
इससे हम अनेक तलों पर मल्टी-डाइमेन्शनल न मालूम कितने आयामों में कितनी दिशाओं में कितने सवाल खड़े कर लिए हैं। इन सारे सवालों को मिटाने के लिए एक तो सुझाव मैं देना चाहता हूं वह यह है और मैं समझता हूं कि वह युवकों को ही सुझाव शुरू करना पड़ेगा। क्योंकि बढ़े कई अर्थों में रिजिड हो जाते हैं। स्वभावतः जब हम भी बूढ़े हो जाएंगे तो हम भी रिजिड हो जाएंगे। आज जो बच्चे हैं कल जब बूढ़े हो होंगे वे भी रिजिड हो जाएंगे। बुढ़ापा रिजिडिटी लाता है। असल में बुढ़ापे का मतलब ही रिजिडिटी है। हड्डियां ही सख्त नहीं होतीं दिमाग की नसें भी सख्त हो जाती हैं। हाथ-पैर ही कड़े नहीं हो जाते, विचार भी कड़े हो जाते हैं। शरीर ही मरने के करीब नहीं पहुंच जाता, भीतर का सारा व्यक्तित्व भी सख्त हो कर सूख जाता है और मरने के करीब पहुंच जाता है। इसलिए बूढ़े आदमी से बहुत ज्यादा आशा नहीं की जा सकती है।
अगर जिस डायलॉग की मैं बात कर रहा हूं उसको अगर पैदा करना है तो हिंदुस्तान के युवकों को ही उसको फेस करना पड़ेगा। हिंदुस्तान के युवक को ही कोशिश करके हिंदुस्तान के बूढ़े से संबंध स्थापित करना पड़ेगा। और एक बात तो यह भी ठीक है कि बूढ़े को चिंता भी ज्यादा नहीं हो सकती, क्योंकि भविष्य बूढ़े का नहीं है, भविष्य जवानों का है। अगर चिंता भी होनी चाहिए तो जवानों को होनी चाहिए, क्योंकि कल उनको जीना होगा इस मुल्क में, कल इस मुल्क में बूढ़ों को नहीं जीना होगा। वे अपने कब्रिस्तानों में और अपने कब्रगाहों में चले गए होंगे। उनके लिए बहुत चिंता का कारण भी नहीं है।
चिंता का कारण होना चाहिए युवकों के लिए। लेकिन बड़े मजे की बात है कि युवक बिल्कुल चिंतित मालूम नहीं पड़ते, बूढ़े बहुत चिंतित मालूम पड़ते हैं। युवक ऐसे निशिं्चत जी रहे हैं जैसे कि बूढ़ों का कोई भविष्य है, उनको परेशान होने की कोई जरूरत है। विद्यार्थी इस तरह जी रहे हैं जैसे कि शिक्षकों की सारी मुसीबत है।
नहीं, पिछली पीढ़ी की कोई भी मुसीबत नहीं है, पिछली पीढ़ी विदा हो जाएगी। आने वाली सारी मुसीबतें नई पीढ़ी पर होंगी। और अगर नक्सलाइट ढंग से सोचने वाले युवक सोचते हों कि हम बूढ़ों से लड़ रहे हैं, तो वे गलती में हैं। वे अपने ही भविष्य को नष्ट करने के लिए लड़ रहे हैं। क्योंकि बूढ़ों से लड़ने का क्या मतलब है? वे तो मरने के करीब हैं वे विदा हो जाएंगे। उनकी जिंदगी गई, उनकी समाज की व्यवस्था भी गई। जिनको जीना होगा इस मुल्क में उनके लिए सवाल उठेगा।
लेकिन कुछ ऐसी भूल हो रही है कि ऐसा लगता है कि हम पिछली पीढ़ी से लड़ कर कुछ बड़ी कामयाबी हासिल कर रहे हैं। लड़के सोचते हैं कि शिक्षकों से लड़ कर कामयाबी हासिल कर रहे हैं। उन्हें पता नहीं कि शिक्षकों से लड़ कर कामयाबी हासिल करने का कोई मतलब नहीं है।
असल में हम जो भी लड़ रहे हैं, उपद्रव कर रहे हैं, उसमें हम अपने ही पैरों को पंगु कर रहे हैं। कल जिसको इस देश में जीना होगा उसी के लिए यह सवाल है। लेकिन शायद जवान को इतनी समझ नहीं होती कि इतनी दूर तक देख सके। शायद वह बहुत दूर तक नहीं देख पाता। भविष्य उसका है, लेकिन भविष्य में देखने की क्षमता जवान के पास नहीं होती। असल में जवान वर्तमान में जीता है। आज काफी मालूम पड़ता है। लेकिन अगर आज हम गलत जीएं तो कल हमारा गलत हो जाएगा। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि यह जो सवाल है, यह जो समस्या है कि हम दोनों पीढ़ियों के बीच भारत के अतीत और भारत के भविष्य के बीच अगर कोई सेतु, कोई ब्रिज बनाना चाहते हैं, तो यह काम भारत के जवानों को अपने हाथ में उठाना पड़ेगा। यह सवाल उन्हीं का है। और हिंदुस्तान की पुरानी पीढ़ियों को साफ जवानों से कह देना चाहिए कि सवाल तुम्हारे हैं, सवाल हमारे नहीं हैं। और अगर तुम आत्महत्या करने पर उतारू हो तो तुम आत्महत्या कर लो, हमें चिंता नहीं है। क्योंकि हम तो मर जाएंगे।
हिंदुस्तान के जवान को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि वह जो भी कर रहा है उसका अच्छा या बुरा परिणाम उसके ही ऊपर होने वाला है। यह बहुत साफ बात मालूम नहीं दिखाई पड़ती। ऐसा मालूम पड़ता है कि सब सवाल बूढ़ों के हैं। परेशानी बूढ़ों को हो रही है और जवान उनको परेशान करने में आनंदित मालूम हो रहा है। उसका आनंद बहुत महंगा पड़ेगा। और उसका आनंद बहुत अज्ञानपूर्ण है। उसके आनंद में बहुत प्रज्ञा नहीं है, उसके आनंद में बहुत वि.जडम नहीं है। वह अपने हाथ से अपने आगे के रास्ते तोड़ रहा है और खराब कर रहा है। और ध्यान रहे कि जो वह अपने बूढ़ों के साथ कर रहा है वह अपने बच्चों से अपेक्षा कर ले कि उससे भी ज्यादा उनके साथ किया जाएगा। क्योंकि बच्चे वही सीखते हैं जो किया जाता है।
मैं एक घर में मेहमान था, और मैं हैरान हुआ उस घर में एक घटना को देख कर। उस घर में तीन पीढ़ियां थीं, जैसे कि आमतौर में परिवारों में होती हैं। मैं दूसरे नंबर की पीढ़ी का मेहमान था। उस पीढ़ी के बेटे भी थे, उस पीढ़ी के बाप भी थे। उस पीढ़ी के सज्जन अपने बाप के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करते थे जिसका कोई हिसाब नहीं। तीन दिन देख कर मैं तो हैरान हो गया। मैं तो अपरिचित मेहमान था, लेकिन तीन दिन देख कर मैं तो हैरान हो गया। लेकिन वे सज्जन अपने बेटे से बहुत अच्छे व्यवहार की अपेक्षा भी करते थे।
मैंने एक दिन रात चलते वक्त उनसे कहा कि आप बड़े गलत ख्यालों में पड़े हैं। आपका बेटा भलीभांति देख रहा है कि आप अपने बाप के साथ क्या कर रहे हैं। तो आप यह भूल कर भी मत सोचें कि आपका बेटा आपसे कमजोर निकलेगा। आपका बेटा आपसे भी मजबूत निकलेगा। और जो आप अपने बाप के साथ कर रहे हैं वह बेटा आपको ठीक से उत्तर दे जाएगा। आप बड़ी गलत अपेक्षा कर रहे हैं कि आप अपने बाप के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं और अपने बेटे से सदव्यवहार की अपेक्षा कर रहे हैं।
अधिक लोग दुनिया में यह भूल करते हैं। चाहे उनके लोगों की कोई भी व्यवस्था हो। हम सब अपने से पिछली पीढ़ी के साथ दुव्र्यवहार करते हैं और अपने से आने वाली पीढ़ी के साथ अच्छे व्यवहार की आशा रखते हैं। यह असंभावना है।
असल में अगली पीढ़ी हमारे व्यवहार को देख कर ही सीखती है कि हम क्या कर रहे हैं। अगर हिंदुस्तान के आज के जवानों को अपनी पुरानी पीढ़ी से सेतु बनाने से असमर्थता है, तो वे ध्यान रखें, यह खाई उनके बच्चों और उनके बीच और भी बड़ी हो जाएगी। अभी तो हम भाषा ही नहीं समझ रहे हैं, फिर हम बोलचाल भी नहीं कर सकेंगे। अभी तो हम बोलते हैं कम से कम, भाषा समझ में नहीं आती। फिर हम बोलना भी बंद कर देंगे। क्योंकि बोलना भी फिजूल है, बेकार है। बोलने का कोई मतलब न रह जाएगा।
हिंदुस्तान में दोनों पीढ़ियों से मैं संबंधित हूं और बहुत हैरानी से देखता हूं कि वे दोनों एक-दूसरे को समझने में असमर्थ मालूम पड़ते हैं। कौन सी कठिनाइयां हैं? पहली कठिनाई तो यह है कि जवान आदमी कभी भी यह नहीं समझ पाता कि बूढ़ा रिजिड हो जाता है। यह स्वभाव है। वह ठहर जाता है, जम जाता है, फ्रोजन हो जाता है। उसने जिंदगी में जो भी जाना है वह धीरे-धीरे ठहर कर सख्त हो जाता है। और बूढ़े को बदलना बहुत असंभव है। असल में बूढ़े का मतलब ही यह है कि जो बदलने की सीमा के पार चला गया, जिसको अब नहीं बदला जा सकता। इसलिए बूढ़े को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई भी मार्ग नहीं होता। सुसंस्कृत कौम उसे कहा जाता है, जो इस सत्य को स्वीकार करके अपने बूढ़ों के प्रति उनकी इस असमर्थता को जान कर भी सदभाव रख पाती है वह सुसंस्कृत कौम है। सुसंस्कृति का एक ही अर्थ है कि हम स्थितियों को देख कर उनकी फैक्टिसिटी को, उनके तथ्यों को समझ कर वैसा जीने की कोशिश करें।
लेकिन सारे बच्चे अपने मां-बाप के प्रति क्रोध से भरे हुए हैं। एंग्री जेनरेशन, हम कह रहे हैं, क्रोध से भरी हुई पीढ़ी है। सब बच्चे अपने मां-बाप के प्रति क्रोध से भरे हुए हैं। विद्यार्थी शिक्षक के प्रति क्रोध से भरे हुए हैं। छोटे भाई बड़े भाई के प्रति क्रोध से भरे हुए हैं। यह क्रोध बहुत असंगत है, अमानवीय है, इनह्यूमन है, असंस्कृत है, अनकल्चर्ड है। और यह क्रोध जवान आदमी के योग्य, शोभा के योग्य नहीं है। यह बताता है कि जवान आदमी नहीं समझ पा रहा कि बुढ़ापे की अपनी परेशानियां हैं, अपनी मजबूरियां हैं। अगर जवान को यह साफ दिखाई पड़ जाए तो बुढ़ापा दया योग्य मालूम पड़ेगा। और यह भी उसे ख्याल रखना चाहिए कि वह भी रोज बूढ़ा होता जा रहा है। और कल इसी दया की अपेक्षा उसे दूसरी पीढ़ी से हो जाएगी।
दूसरी बात ख्याल रखनी जरूरी है कि जवान को ही हाथ बढ़ाना पड़ेगा। अभी उसके हाथ बढ़ने योग्य हैं, बड़े हो सकते हैं, अभी ठहर नहीं गए। और जवान को ही समझदारी दिखानी पड़ेगी, क्योंकि उसकी समझ लोचपूर्ण है, फ्लेक्जिबल है, अभी वह बदल सकती है और नई हो सकती है। और ध्यान रहे कि बूढ़े ने जो भी जाना है, बूढ़े ने जो भी जीआ है, अतीत की पीढ़ी ने जो भी अनुभव किया है, वह अगर जवान उसे समझ ले तो निश्चित ही उसे उसके जिंदगी में रिचनेस और समृद्धि में बढ़ावा मिलेगा। अगर वह उसे नासमझी से तोड़ दे तो हो सकता है उसकी जिंदगी की जड़ें कट जाएं, वह अपरूटेड हो जाए और भविष्य में फूल आने असंभव हो जाएं।
इसलिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि हिंदुस्तान के जवान को हिंदुस्तान की समस्याओं के संबंध में अपने ताकत और अपने ज्ञान का उपयोग करना है, लेकिन पुरानी पीढ़ी की समझ, प्रज्ञा और वि.जडम का सहयोग अत्यंत आवश्यक है। वह सहयोग टूट जाए तो हमारी शक्ति आत्मघातक हो जाएगी। अगर समझ न हो तो शक्ति अक्सर सुसाइडल हो जाती है। उसे फिर अपने को ही विनाश करने में काम में ले आते हैं। ऐसा हो रहा है, ऐसा रोज फैलता जा रहा है और चीजें रोज विकृत होती जा रही हैं।
दूसरी बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूं वह मैं यह कहना चाहता हूं कि हिंदुस्तान के सवाल हमारे हजारों साल के पैदा किए हुए सवाल हैं। उन्हें हम एक दिन में नहीं तोड़ सकते हैं। कोई उपाय नहीं है उन्हें एक दिन में तोड़ देने का। और उन्हें एक दिन में तोड़ने की कोशिश में सिर्फ यही हो सकता है कि हम और सवाल पैदा कर लें।
हिंदुस्तान की कठिनाइयां एक दिन की नहीं हैं, पांच हजार साल का पूरा इतिहास हिंदुस्तान की कठिनाइयों का इतिहास है। हिंदुस्तान की जड़ें पांच हजार साल से पीड़ित, रुग्ण और विकृत हो गई हैं। अगर कोई आदमी चाहे कि इन्हें एक दिन में बदलने की जल्दबाजी दिखाए तो वह जल्दबाज आदमी जड़ों को सुधार पाए इसकी संभावना कम है, जड़ों को मिटा डाले, तोड़ डाले इसकी संभावना ज्यादा है।
हिंदुस्तान की आने वाली युवा पीढ़ी को यह भी समझ लेना चाहिए कि सवाल जितने पुराने होते हैं उतने धीरज से उनके साथ मुकाबला करना पड़ता है। लेकिन क्रांतिकारी कभी भी धैर्यवान नहीं होता। क्रांतिकारी अधैर्यवान होता है। वह बहुत शीघ्रता से कुछ करना चाहता है इसकी बिना फिकर किए कि कुछ चीजें शीघ्रता से की ही नहीं जा सकतीं।
एक बच्चा मां के पेट में नौ महीने लेता है तब मैच्योर होता है, तब वह जन्म लेता है। जल्दी की और अगर पांच महीने में गर्भपात कर लिया, तो बच्चा तो मरेगा ही, मां भी मर सकती है। हिंदुस्तान में मुझे ऐसा लगता है कि हमारी समस्याएं पुरानी हैं और हमारे हल करने की जल्दी बहुत अधैर्यपूर्ण है। हम प्रत्येक चीज को आज हल करना चाहते हैं, जो कि नहीं हल हो सकती। अगर हिंदुस्तान को ठीक से प्रौढ़ता पानी हो, और बुद्धिमत्ता पानी हो तो अपनी समस्याओं की गहराई...और यह भी समझ लेनी चाहिए कि वह वक्त लंबा लेंगी, वह जल्दी नहीं तोड़ी जा सकती हैं।
न तो गरीबी आज मिटाई जा सकती है। चाहे हम जमीन छीन कर बांट दें, और चाहे हम सारी फैक्ट्री.ज पर कब्जा कर लें, और चाहे हम सारे मुल्क की संपत्ति को वितरित कर दें। गरीबी आज नहीं मिट सकती। क्योंकि गरीबी के पीछे पांच हजार साल की लंबी कहानी है। यह गरीबी पांच हजार साल की गरीबी है। इस गरीबी को जो आज मिटाने की कोशिश करेगा, मैं मानता हूं वह मुल्क को और भी गरीब हालत में छोड़ जाएगा। क्योंकि इस गरीबी को जल्दी में मिटाने की कोशिश उस इंतजाम को भी तोड़ सकती है जो इंतजाम इस मुल्क को थोड़ी-बहुत संपत्ति दे रहा है।
लेकिन हम बहुत जल्दी में भरे हैं। हमारा जवान चाहता है, सब आज हल हो जाए, हर आदमी को आज नौकरी मिल जाए। यह नहीं हो सकता। नेता मुल्क के बेईमान हैं वे झूठे आश्वासन दिए चले जाते हैं। वे आश्वासन दिए चले जाते हैं कि नहीं, यह हो जाएगा, यह जल्दी हो जाएगा। यह जल्दी हो सकेगा कि सबको नौकरी मिल जाए।
यह नहीं हो सकेगा। इस मुल्क में सबको नौकरी नहीं मिल सकती। नहीं मिल सकती इसलिए कि इस मुल्क के पास उतना काम नहीं है जितने लोग हैं; नहीं मिल सकती इसलिए कि इस मुल्क के पास जितने लोगों को हमने शिक्षित कर लिया है उतना भी काम नहीं है और जितने लोगों को हम शिक्षित कर रहे हैं उनके लिए भविष्य में कोई काम नहीं होगा। लेकिन यह मजबूरी है और यह हम सबकी मजबूरी है। अगर इसको हमने जल्दबाजी की तो शायद जितना काम मिल सकता है वह भी न मिल पाए। और अगर हम धैर्य से प्रयोग करें तो शायद हम मार्ग नये कामों की दिशाओं को खोजने में समर्थ हो सकते हैं।
असल में हिंदुस्तान के जवान को पुराने किस्म के काम मांगने की बात छोड़ देनी चाहिए, अगर हिंदुस्तान की समस्याओं को हल करना हो। हिंदुस्तान के जवान को अपनी जवानी का बड़े से बड़ा प्रयोग हिंदुस्तान में नये काम पैदा करने में दिखाना चाहिए। उसे पुराने ढंग के काम मांगना बंद कर देना चाहिए। जैसे कि हम एक कवि को ओरिजिनल कहते हैं अगर वह नई कविता लिखे। अगर वह कालिदास जैसी कविता लिखे तो उसको कोई कवि नहीं मानता। और अगर वह शेक्सपियर जैसी कविता कितनी ही अच्छी लिख ले तब भी हम कहेंगे चोर है। कोई मौलिक नहीं, कोई ओरिजिनल नहीं। जैसे कविता भी नई करता है आदमी, जैसे लेख भी नया लिखता है, विज्ञान में नई खोज करता है, वैसे हिंदुस्तान के जवान को नये काम की खोज पर निकलना पड़ेगा।
हजार तरह के नये काम खोजे जा सकते हैं। लेकिन हिंदुस्तान के सब जवान पुराने दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं। उन पुराने दरवाजों के काम चुक गए हैं। सच तो यह है कि पुराने दफ्तरों में जरूरत से ज्यादा आदमी हैं। और ध्यान रहे, जहां दो आदमी काम कर सकते हैं अगर वहां छह आदमी हो गए, तो जो काम दो आदमी करते थे वे छह आदमी और बिगाड़ देंगे, वे छह नहीं कर पाएंगे।
हिंदुस्तान में मजबूरी यह है कि हर जगह ज्यादा आदमी हैं। और जहां भी जरूरत से ज्यादा आदमी होते हैं वहां इफिशिएंसी कम हो जाती है, वहां कुशलता कम हो जाती है। अंग्रेज जिन दफ्तरों में एक क्लर्क से काम चला रहे थे वहां आज दस क्लर्क हैं। और अंग्रेज का एक क्लर्क जितना काम कर रहा था उतने दस क्लर्क नहीं कर रहे हैं। असल में दस क्लर्क कर ही नहीं सकते उतना काम। एक जितना काम कर सकता है वह दस नहीं कर सकते। अगर एक के लायक ही काम है तो दस सिर्फ उसको बिगाड़ने वाले सिद्ध होंगे और इस तरह काम को फैलाएंगे कि वह दस के योग्य मालूम होने लगेगा। और काम इस भांति फैलता हुआ दिखाई पड़ेगा, लेकिन होता हुआ दिखाई नहीं पड़ेगा।
हिंदुस्तान की पूरी नौकरशाही काम को फैलाने का काम कर रही है, काम को हल करने का काम नहीं कर रही। क्योंकि काम जितना फैलता है उतनी जगह बनती है। लेकिन यह जगह बोगस, इनसे कोई मुल्क को उत्पादन और मुल्क को नई दिशाएं नहीं मिलतीं। लेकिन क्या वजह है कि हिंदुस्तान में हम नये काम न खोज सकें? कितने नये काम अधूरे पड़े हैं जो हमें पुकारते हैं। लेकिन जैसा मैंने कहा, हमारी पुरानी आदतें दिक्कत देती हैं।
अब हिंदुस्तान में कितने इंजीनियर हैं जो बेकार हैं। लेकिन कोई इंजीनियर इसकी फिकर नहीं करता कि जमीन के नीचे मकान बनाने के लिए नई योजनाएं दें। कोई इंजीनियर इस बात की फिकर नहीं करता कि समुद्र पर मकान बनाएं। अब यह जान कर आपको हैरानी होगी कि अभी एक अमेरिकन इंजीनियर सुलर ने समुद्र पर मकान बनाने का बहुत सस्ता सुझाव दिया है। योजना भी दी है, मकान का माडल भी दिया है।
सीमेंट-कांक्रीट के मकान, जिनमें एक मकान में बीस हजार आदमी रह सकें, समुद्र पर तैर सकते हैं, डूबेंगे नहीं, क्योंकि वे चारों तरफ से बंद होंगे। उनके भीतर हवा का जितना वाल्यूम होगा वही उनको समुद्र के ऊपर तैराने का कारण बन जाएगा। वे जमीन पर बनने वाले मकानों से सस्ते होंगे और जमीन को घेरेंगे नहीं। और हिंदुस्तान को तो जमीन की जरूरत है।
हिंदुस्तान पर जमीन जितनी घिर जाएगी उतना भोजन मुश्किल में पड़ जाएगा। हिंदुस्तान के इंजीनियर को फिकर करनी चाहिए कि पानी पर मकान बनाए। हवा में भी मकान बनाए जा सकते हैं। एक दूसरे ब्रिटिश इंजीनियर ने हवा में मकान बनाने का मॉडल दिया। लेकिन हिंदुस्तान के बच्चे कब इस दिशाओं में सोचेंगे? सीमेंट-कांक्रीट का मकान हवा में भी हवा के वाल्यूम के आधार पर तैर सकता है, उड़ सकता है। और वह जमीन पर बनाए हुए मकान से सस्ता मकान सिद्ध होगा। लेकिन हिंदुस्तान का इंजीनियर जमीन पर ही मकान बनाता चला जाएगा।
मकान भी वह उस ढंग से बना रहा है जिस ढंग से पांच हजार साल पहले हमारे बापदादा ही बनाते थे। अब किसी को ईंट बनाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। ईंट तब बनती थी जब हम पूरी दीवाल सीधी नहीं बना सकते थे। अब हम पहले ईंट बनाएंगे, फिर ईंट को हम जोड़ेंगे, फिर आखिर दीवाल बनाएंगे। अब तो दीवाल सीधी बन सकती है। अब इतनी मोटी दीवालों की भी जरूरत नहीं है। अब हम बहुत और ढंग से जिंदगी को जीने की व्यवस्था करने की खोज कर सकते हैं।
अब जो इंजीनियर जमीन पर छोड़ कर हवा में या पानी में मकान बनाएगा उसके लिए काम नहीं होगा? उसके लिए खुद तो काम होगा, वह अपने जैसे हजारों इंजीनियरों के लिए नये काम की दिशा खोल देगा। लेकिन नहीं, वह इंजीनियर अपनी दरख्वास्त लिए खड़ा हुआ है पीड़ब्लयूड़ी. के दफ्तर के सामने कि हमको नौकरी चाहिए।
नहीं, हिंदुस्तान का जवान अपने को जवान सिद्ध नहीं कर रहा। जवानी का पहला लक्षण यह है कि वह मौलिक खोजें करें। उसे जानना चाहिए कि उसके माता-पिताओं ने उसे जहां पहुंचा दिया है वहां उनकी सामथ्र्य चुक गई है। सैचुरेशन आ गया है, चीजें चुक गई हैं, उसके आगे अब चीजें नहीं जा सकती हैं। हमेशा जिंदगी में जवानों को नई चीजें खोजनी पड़ती हैं।
हिंदुस्तान के सामने बड़ी से बड़ी समस्या यह है कि हम नई दिशाएं कैसे तोड़ें?
नई दिशाएं तोड़ी जा सकती हैं। कोई कारण नहीं है। जमीन के नीचे मकान बन सकते हैं। और जब से एअरकंडीशनिंग की सुविधा हो गई, तब से हम जमीन के नीचे बहुत मकान फैला सकते हैं।
असल में हिंदुस्तान में अब कोई फैक्ट्री जमीन के ऊपर नहीं बननी चाहिए। क्योंकि उतनी जमीन छिन जाएगी पैदावार से। अब तो हमें सारी फैक्ट्रियां जमीन के नीचे डाल देनी चाहिए। हिंदुस्तान में कोई रेल का मार्ग अब जमीन के ऊपर नहीं होना चाहिए। क्योंकि उतनी जमीन हम नहीं खो सकते, वह जमीन हमें पैदावार के लिए चाहिए।
लेकिन नहीं, हम जमीन खोए चले जा रहे हैं। जमीन के नीचे हमारी कोई दिशा नहीं कि हम जमीन के नीचे प्रवेश कर जाएं। हवा में उठ जाएं, समुद्र पर चले जाएं। अब हिंदुस्तान में कितने लड़के केमेस्ट्री पढ़ रहे हैं, कितने लड़के केमेस्ट्री में पीएचड़ी. कर रहे हैं। लेकिन बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि हिंदुस्तान की केमेस्ट्री का पीएचड़ी. भी आखिर एक कालेज में नौकरी के लिए खड़ा हो जाता है।
हिंदुस्तान को तो बहुत बड़े रसायनज्ञों की जरूरत है, जो हिंदुस्तान को ऐसा भोजन दे सकें जो जमीन में पैदा नहीं होता। सिंथेटिक फूड की जरूरत है। रोज संख्या बढ़ती चली जाएगी। अब आपको पुराने भोजन करने की आदतें छोड़नी पड़ेंगी कि आप रोज एक किलो भोजन पेट में डालें। यह पागलपन अब आगे नहीं चल सकता। अब आपको एक गोली पर राजी होना पड़ेगा। लेकिन मैं मानता हूं कि एक गोली स्वास्थ्यपूर्ण हो सकती है एक किलो भोजन की बजाय। क्योंकि एक किलो भोजन करना बहुत ही अनुत्पादक पुराना ढंग है। एक किलो भोजन करके पचाते तो एक गोली के लायक ही हैं। बाकी फिर शरीर को बाहर भी फेंकना पड़ता है। वह फिजूल की मेहनत है। उस मेहनत से मुल्क को बचाने की जरूरत है। लेकिन हिंदुस्तान के लड़के उस दिशा में कोई फिकर नहीं करेंगे। वह पुराना ढंग जारी रहेगा।
हिंदुस्तान का लड़का भी पुराने ढंग से ही खाने की मांग करता रहेगा। यह अब नहीं चल सकता है। हिंदुस्तान के लड़के को नये ढंग के खाने खोजने चाहिए। समुद्र के पानी को हम खाना बना सकते हैं। सूरज की किरणों को भी खाना बना सकते हैं। हवा से भी खाना खींचा जा सकता है। लेकिन हिंदुस्तान के लड़के जब इन दिशाओं में मेहनत करेंगे।
हम हमेशा जमीन से खाना नहीं पाते थे। आज से पांच हजार साल पहले आदमी जंगल में जानवर को मारता था और खाना पाता था। एक दिन जानवर कम हो गए और लोग बढ़ गए, तब उन लोगों में से कुछ जवानों ने जमीन के फल खाने शुरू किए। लेकिन फिर फल भी कम पड़ गए, तब फिर फलों को बोना शुरू किया। अब बोना भी बेकार हो गया, अब जमीन ही कम पड़ गई। अब हमें नई दिशा में खोज करनी चाहिए। अब हमें आकाश में, पाताल में, पानी में, हवा में, सूरज की किरणों में भोजन की फिकर करनी चाहिए। वह सारी फिकर की जा सकती है।
लेकिन हिंदुस्तान के लड़के पुराने ढांचे में ही अपने दरवाजे खटखटाए चले जाते हैं। अगर हिंदुस्तान में कोई भी लड़का यह कहता है कि मैं अनएंप्लाइड हूं और एंप्लाइमेंट नहीं खोज पाता है, तो हमें मानना चाहिए कि उसकी शिक्षा ठीक से नहीं हुई। क्योंकि हिंदुस्तान जैसे मुल्क में जिसकी इतनी आवश्यकताएं हैं, अगर एंप्लाइमेंट न खोजा जा सके तो और एंप्लाइमेंट कहां खोजा जा सकेगा?
जहां इतनी आवश्यकताएं हैं जो पूरी नहीं हो रही, वहां तो हम हजार दिशाएं खोज सकते हैं। लेकिन हमारे मन में खोज का भाव नहीं है। हम जिसे वैज्ञानिक कहते हैं अपने मुल्क में, वह भी ज्यादा से ज्यादा विज्ञान का विद्यार्थी होता है, वैज्ञानिक नहीं होता। वैज्ञानिक होने का मतलब ही यह है कि हम जिंदगी को नये रास्ते दें, हम जिंदगी को नई दिशाएं दें, हम जिंदगी को नये पहलू दिखाएं, हम जिंदगी को समृद्धि के नये उपाय सुझाएं। लेकिन हिंदुस्तान में बच्चे यह नहीं करेंगे। बच्चे क्या कर रहे हैं? वे बसें तोड़ रहे हैं, युनिवर्सिटीज के कांच फोड़ रहे हैं, वे शिक्षकों पर पत्थर फेंक रहे हैं, वे हड़ताल कर रहे हैं, वे घेराव कर रहे हैं। ये सब आप करते रहें। ये सब अनुत्पादक काम ही नहीं हैं, विध्वंसक काम हैं, इससे मुल्क की जिंदगी अच्छी नहीं हो सकेगी। और मुल्क का जो पुराना आदमी है वह क्रोध से भर गया है इन हरकतों को देख कर। और इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं रह गया।
मैं हिंदुस्तान के जवान को कहना चाहता हूं कि चुनौती है तुम्हारे लिए। और ऐसी चुनौती बहुत मुश्किल से आती है। और जिनकी जिंदगी में आती है उनको सौभाग्यशाली मानना चाहिए अपने को कि परमात्मा ने उन्हें मौका दिया है जहां वे नई जमीन तोड़ें। लेकिन शायद हम बैलगाड़ी में बैठे रहने के आदी हैं। हमने कहीं भी नई जमीन नहीं तोड़ी बहुत सैकड़ों वर्षों से, इसलिए हमारी आदत टूट गई है नई जमीन तोड़ने की।
लेकिन सारी दुनिया नई जमीन तोड़ रही है। सारी दुनिया में बहुत कुछ नया हो रहा है, जो कभी नहीं हुआ था। ऐसे फल पैदा किए गए हैं जो कभी पैदा नहीं किए गए थे। ऐसा गेहूं पैदा कर लिया गया है जो कभी पैदा नहीं किया गया था। तो हमारे बच्चे क्या करेंगे? वे एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी में पढ़ कर सिर्फ परीक्षाएं देते रहेंगे और परीक्षाएं देकर ज्यादा से ज्यादा एग्रीकल्चर दफ्तर में क्लर्क बन कर बैठ जाएंगे। क्या करेंगे?
एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी अगर ऐसे बच्चों को नहीं निकाल पाती है जो मुल्क को नये भोजन दे सकें, अगर ऐसे बच्चे नहीं निकाल पाती है जो गेहूं के ऐसे वृक्ष दे सकें जो हर साल फसल दे और हर साल उनको काटना न पड़े और साल में दो बार फसल दे, तो हम बहुत...
इस बड़ी दुनिया में जहां आदमी चांद पर उतर गया है, अगर हम आदमी को जमीन पर पेट भरने के योग्य नहीं बना सकते, तो हमारा सारा ज्ञान और हमारी सारी खोजें नासमझी से हैं और बेकार हैं। मैं नहीं मान सकता हूं कि आदमी को भूखे मरने की अब कोई जरूरत है, और मैं नहीं मान सकता हूं कि आदमी को नंगे रहने की कोई जरूरत है, और मैं नहीं मान सकता हूं कि कोई भी आदमी अब बिना मकान के रहे। लेकिन हमारी जवानी कमजोर है, और हमारी जवानी साइंटिफिक नहीं है, और हमारे जवान के पास नई दिशाओं का ख्याल नहीं है।
मैं तो चाहूंगा, प्रत्येक युनिवर्सिटी को, सच में ही अगर वह युनिवर्सिटी है, तो उसे इस बात की दिशा में ही सर्वाधिक चेष्टा में लग जाना चाहिए कि उसके बच्चे पुराने किस्म के काम न मांगें।
जिस युनिवर्सिटी के बच्चे हिंदुस्तान में वापस लौट कर गांव में, शहर में पुराना काम मांगते हैं, वह युनिवर्सिटी ने अपना काम पूरा नहीं किया, वह युनिवर्सिटी बेकार है। वहां सिर्फ हम थोथा काम कर रहे हैं। विश्वविद्यालय से निकला हुआ लड़का भी वही काम मांगे जो पुराने लोग मांग रहे थे, जो इस विश्वविद्यालय से कभी नहीं निकले थे, तो इस विश्वविद्यालय ने किया क्या? छह साल हमने क्या किया? लेकिन नहीं, हम यहां दूसरे तरह के कामों में लगे हैं।
विद्यार्थी पढ़ने में उत्सुक नहीं हैं, शिक्षक पढ़ाने में उत्सुक नहीं हैं। शिक्षक अपनी सिनियारिटी में उत्सुक है, वह अपनी पॉलिटिक्स में उत्सुक है, वह अपनी यात्रा में लगा हुआ है। कई मौके-बे-मौके थोड़ी-बहुत फुरसत मिल जाती है तो वह लड़कों की तरफ देख लेता है। अन्यथा उसकी आंखें आगे लगी हैं कि कौन वाइसचांसलर हो गया है, कौन डीन हो गया है। वह अपनी यात्रा पर लगा हुआ है।
विद्यार्थी अपनी यात्रा पर लगे हुए हैं कि वे कितना तोड़ रहे हैं, कितना मिटा रहे हैं। वे किस तरह बिना पढ़े पास हो जाएं, वे किस तरह चोरी से पास हो जाएं, वे किस तरह, उन्हें कोई मेहनत न करनी पड़े और सर्टिफिकेट मिल जाएं। इसके लिए हड़ताल कर रहे हैं, इसके लिए उपद्रव कर रहे हैं। यह मुल्क मर जाएगा। अगर यही हाल है तो यह मुल्क बच नहीं सकता। क्योंकि ध्यान रहे, मुल्क के बचने की सारी संभावनाएं उसकी इंटेलिजेंसिआ पर निर्भर होती हैं।
इस मुल्क को हिंदुस्तान के ग्रामीण से कोई आशा नहीं है। हालांकि ग्रामीण ही पेट भर रहा है। इस मुल्क को हिंदुस्तान के अशिक्षित से कोई आशा बांधनी उचित नहीं है, क्योंकि वह बेचारा बहुत पुरानी दुनिया में जीया है, नई दुनिया की खोज उसे मुश्किल है। लेकिन हमारे बच्चे तो सारी नई दुनिया में जी रहे हैं। वे क्या नया कर रहे हैं? वे कुछ नया करते हैं थोड़ा-बहुत। वे कमीज का ढंग बदल लेते हैं, वे पतलून की थोड़ी सी चैड़ाई कम कर लेते हैं, वे जूते पर ज्यादा पालिश करने लगते हैं। इन सब बातों से जवान आदमी का कोई भी पता नहीं चलता। इन सब बातों से कोई पता नहीं चलता कि आप जिंदगी को नया करने की कोशिश में लगे हैं। न तो नये कपड़े बदल लेने से, न जूते की रौनक बदल लेने से, न थोड़ा ढंग से बोलना सीख लेने से कोई आदमी जवान होता है।
जवानी का एक लक्षण है कि जहां पुरानी पीढ़ी ने छोड़ा था दुनिया को, हम उसे आगे ले जाएं। जहां पुरानी समस्याएं थीं वे वहीं न रह जाएं, हम उन्हें हल करें। लेकिन हम समस्याओं को हल करने में उत्सुक नहीं हैं। पूरे मुल्क का जवान यह कहता है, हमारी समस्याएं हल करो। कौन हल करे? कौन जिम्मेवार है? सारे हिंदुस्तान के लड़के यह कहते हैं हमारी समस्याएं हल करो। जैसे कि पुरानी पीढ़ी का कोई जिम्मा है सारी समस्याएं हल करने का।
पुरानी पीढ़ी आपकी समस्याएं हल नहीं करेगी। नहीं कर सकती है। अगर बोले और आश्वासन दे तो झूठे आश्वासन है। आपकी समस्याएं आपको हल करनी पड़ेंगी। जिम्मेवारी आपकी है। यह शिकायत किसी और से नहीं हो सकती। अगर नहीं हल कर पाएंगे तो हम भूखे मरेंगे, परेशान होंगे, दुखी होंगे। और अगर हल करेंगे तो हम सुखी हो सकेंगे, हम मुल्क को समृद्ध कर सकेंगे, संपन्न कर सकेंगे, शक्ति दे सकेंगे। सारी दुनिया संपन्न होती जा रही है, हम क्यों गरीब होते चले जा रहे हैं?
आज अमरीका, या स्वीडन, या स्विटजरलैंड, या नार्वे में सवाल यह है कि उनके पास इतनी संपत्ति है उसका वे क्या करें? और हमारे सामने सवाल यह है कि हमारे पास इतने आदमी हैं इनके लिए हम कहां से संपत्ति दें? आखिर उनके पास भी हमारे जैसे ही मन हैं, बुद्धियां हैं। हमारे पास कोई कम बुद्धि नहीं है किसी से। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है हमारी बुद्धि लड़ने-झगड़ने में व्यय हो जाती है। हमारी सारी बुद्धि लड़ने-झगड़ने में व्यय हो जाती है। हम इतने लोग यहां बैठे हुए हैं, अगर हम सब आपस में लड़ने लगें, तो इस हाल की सारी ताकत नष्ट हो जाएगी। लेकिन अगर हम सारे संयुक्त होकर किसी सृजन में लग जाएं तो हम शायद कुछ बना पाएंगे। और जिन चीजों के लिए हम लड़ रहे थे, वे सहयोग से निर्मित हो सकती हैं। और जिन चीजों के लिए हम लड़ रहे थे अगर लड़ते ही रहे तो वे कभी भी निर्मित न होंगी और जो निर्मित है वह भी टूट जाएगा।
इस समय हिंदुस्तान को सहयोग की एक फिलासफी चाहिए, एक कोआपरेशन की फिलासफी चाहिए। लेकिन हिंदुस्तान में जितनी फिलासफीज आज प्रचलित हैं..चाहे कम्युनिज्म, चाहे सोशलिज्म और चाहे जनसंघ और चाहे कांग्रेस और चाहे कोई भी..वे सभी कांफ्लिक्ट की फिलासफी हैं। वे सब यह सिखा रही हैं कि लड़ो! वे सब यह सिखा रही हैं कि दूसरा जिम्मेवार है। हिंदुस्तान में आज कोई भी इतनी कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि तुम जिम्मेवार हो, दूसरा जिम्मेवार नहीं है। और कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि लड़ने से कुछ हल न होगा।
इस समय जरूरत है कि हिंदुस्तान की सारी शक्तियां पूल्ड हो जाएं। हिंदुस्तान की सारी शक्तियां इकट्ठे होकर अगर श्रम करें, तो कोई कारण नहीं कि बीस साल में इस मुल्क में भी समृद्धि का सूरज निकल सके। और कोई कारण नहीं कि हम भी आदमी की जैसी जिंदगी बसर करने के योग्य हो सकें। और कोई कारण नहीं कि हम जानवर की तरह भूखे और प्यासे और नंगे और जमीन पर भिखारी की तरह हाथ फैलाए हुए फिरते रहें।
हमारे देश के नेता सारी दुनिया में भीख मांगने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। वे भीख मांग कर इस मुल्क को कब तक बचा सकते हैं? और हमें जो थोड़ी सी रौनक दिखाई पड़ती है, ख्याल रखना, वह रौनक हमारी नहीं है, वह अमरीकन गेहूं की है। वह ज्यादा देर नहीं चलने वाली। आज अमरीका में चार किसान जितना काम कर रहे हैं उनमें से एक किसान की मेहनत हिंदुस्तान को मिल रही है। लेकिन अमरीकन के इकोनॉमिस्ट परेशान हो गए हैं। अभी वहां के बहुत विचारशील लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि अब हिंदुस्तान को और सहायता देनी गलत है। क्योंकि यह सहायता हम कब तक देंगे? और जिस दिन यह सहायता बंद होगी उस दिन हिंदुस्तान में इतना भयंकर अकाल पड़ेगा कि सब जिम्मेवारी हम पर आएगी कि इन्होंने सहायता देनी बंद कर दी इसलिए ये ही जिम्मेवार हैं। इसलिए अमरीका का वैज्ञानिक तो सलाह दे रहा है, अर्थशास्त्री सलाह दे रहा है कि अब सहायता बंद कर दो, अब यह सहायता आगे खींचनी उचित नहीं है।
तो ठीक भी नहीं है। मैं भी मानता हूं, हिंदुस्तान को सहायता अब नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि सहायता की बहुत आदत भी शायद नुकसान पहुंचा सकती है। हम अपनी मुसीबतों में छोड़ दिए जाने चाहिए। अगर हम अपनी मुसीबतों में संघर्ष कर सकते हैं मुसीबतों से। लेकिन हम अपने से संघर्ष करने से बचें, तो हम मुसीबतों से संघर्ष करें। दो ही रास्ते हैंः या तो हम लड़ें या हम मुसीबतों से लड़ें। लेकिन हम आपस में लड़ेंगे, तो हम संघर्ष मुसीबतों से नहीं कर सकते हैं। लेकिन पूरा मुल्क आपस में लड़ने में बड़ा आतुर है। और हम अपने को लड़ कर नष्ट करते रहे हजारों साल तक, आगे भी हम अपने को लड़ कर नष्ट करते रहेंगे। और हम ऐसी फिजूल की बातों पर लड़ते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है। कहीं भाषा पर लड़ेंगे, कहीं धर्म पर लड़ेंगे, कहीं मंदिर-मस्जिद पर लड़ेंगे, कहीं हजरत मोहम्मद का बाल चोरी चला जाएगा तो लड़ेंगे, कहीं किसी शंकर जी की पिंडी टूट जाएगी तो लड़ेंगे।
हम इतनी फिजूल की बातों पर लड़ रहे हैं कि सारी दुनिया भविष्य में हम पर हंसेगी कि हमारे सामने बड़े-बड़े सवाल थे, उनको छोड़ कर हम इन पर लड़ते रहते हैं। बड़े सवाल हैं मुल्क के सामने! शायद मरने और जिंदा होने का सवाल है! शायद जिंदगी और मौत का सवाल है!
अगर हम बीस साल में मुल्क की सारी शक्तियों को क्रिएटिव मोड़ नहीं दे सकते, तो हम बीस साल में जमीन पर रहने के योग्य नहीं रह जाएंगे। उन्नीस सौ अठहत्तर और उन्नीस सौ पचासी के बीच हिंदुस्तान में इतने बड़े अकाल की संभावना है जिसमें दस करोड़ लोगों से लेकर बीस करोड़ लोग तक मर सकते हैं। लेकिन हम बैठ कर सुन लेंगे। शायद हम कहेंगे, भगवान की मरजी होगी तो बचा लेगा और मरजी नहीं होगी, तो भगवान की मरजी के खिलाफ पत्ता नहीं हिलता, हम क्या करेंगे? ऐसे नहीं चलेगा। हमने भगवान की मरजी बहुत जगह से तोड़ दी है। हमने जन्म दर कम कर ली है, हमने बीमारियों का इलाज कर लिया है, हमने मृत्यु दर तोड़ डाली है और उधर हम बच्चे पैदा किए जा रहे हैं।
अभी हैलसिआसी ने इथोपिया में एक अमरीकन कमीशन बुलाया। क्योंकि इथोपिया में बहुत बीमारियां हैं और बहुत मृत्यु दर है। तो एक अमरीकन मेडिकल कमीशन को बुला कर उसने जांच-पड़ताल करवाई। और फिर हैलसिआसी को उन्होंने अपनी रिपोर्ट दी और अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि आपके मुल्क में जो पानी है वह रुग्ण है और आपके मुल्क में जो पानी पीने का जो ढंग है वह बीमारी फैलाने वाला है और आप गंदा पानी पीते हैं। इथोपिया में सड़कों के किनारे जो पानी भर जाता है और जानवर जिसमें घूमते रहते हैं, उस पानी को भी लोग पीने के काम में ले आते हैं। तो उस कमीशन ने कहा कि आप यह गंदगी और पानी को बदलने की कोशिश करें और शुद्ध पानी लोगों को पीने का इंतजाम कर दें, तो आपके मुल्क में बड़े पैमाने पर मृत्यु दर कम हो जाएगी। हैलसिआसी हंसा और उसने कहा कि मैंने आपकी बात सुन ली और समझ गया। लेकिन यह मैं कभी करूंगा नहीं। उस कमीशन के लोगों ने कहा, आप पागल हो गए हैं! आप कहते हैं यह आप कभी करेंगे नहीं! हैलसिलासी ने कहा कि अगर मैं उनकी मृत्यु दर कम कर दूंगा तो फिर मुझे दीवालों पर लिखना पड़ेगा कि दो बच्चे होते हैं अच्छे! और वे कोई मानेंगे नहीं।
हैलसिलासी की बात कठोर मालूम पड़ती है। लेकिन हिंदुस्तान में यही हो गया है। मैं आपसे यही कहना चाहता हूं कि या तो हिंदुस्तान के जवान तय करें कि हम पचास साल, आने वाले पचास सालों में हिंदुस्तान की संख्या को वापस ले जाएंगे। और या फिर हमें हिंदुस्तान में बीमारियों को मुक्त छोड़ने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाएगा। फिर हमें महामारियां बुलानी पड़ेंगी, भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी कि हैजा भेजो, प्लेग भेजो। हमें अस्पताल बंद करने पड़ेंगे। और हो सकता है कि हमें कंपलसरी बूढ़े आदमियों को मरने के लिए मजबूर करना पड़े। यह बात आज अजीब लगती है। लेकिन यह बीस साल में मजबूरी बन सकती है कि हमें तय करना पड़े। जैसे हम तय करते हैं कि अट्ठावन साल में हम रिटायर करेंगे, वैसे हमें तय करना पड़े कि साठ साल में हम बिल्कुल रिटायर करेंगे। क्योंकि अब कोई उपाय नहीं है।
या तो बच्चे कम करिए या बूढ़े कम करने पड़ेंगे। या तो बर्थ-कंट्रोल को कंप्लसरी करिए, या तो हिंदुस्तान के जवानों को तय कर लेना चाहिए कि हम देर से शादी करेंगे, तय कर लेना चाहिए शादी के बाद जितने दूर तक बच्चे से बच सकेंगे बचेंगे, तय कर लेना चाहिए कि बच्चा नहीं होगा तो सबसे बेहतर। और यह भी हमें तय कर लेना चाहिए मुल्क को चिंतनपूर्वक कि हम बच्चों को जबरदस्ती नहीं रोकेंगे तो रुक नहीं सकते, हमें सख्ती से, कंप्लसरी। कंप्लसरी एजुकेशन नहीं होगी तो चल सकता है, लेकिन कंप्लसरी बर्थ-कंट्रोल नहीं होगा तो नहीं चल सकता है।
लेकिन हिंदुस्तान के बच्चों को इनसे कोई मतलब नहीं है। अभी भी बैंडबाजा बज जाता है, घर में दसवां बच्चा हो रहा है और बैंडबाजा बज रहा है। अजीब बातें हैं! अब तो कोई आदमी मरे तो चाहे बैंडबाजा बजाइए, लेकिन कोई आदमी पैदा हो तो बैंडबाजा मत बजाइए। हालतें बदल गई हैं। जिंदगी बहुत और दूसरी मुसीबत में है।
अब मैं एक आदमी को अपने गांव में लिखते देखता था, वह यह बर्थ-कंट्रोल का नारा लिखता फिरता है। वह लिखता रहता है दीवालों पर। बहुत अच्छे अक्षर हैं। एक दिन मैं गाड़ी रोक कर उसके पास रुका और मैंने कहाः तेरे अक्षर बहुत अच्छे हैं। तेरे खुद के कितने बच्चे हैं? उसने कहाः आपकी कृपा से सात बच्चे हैं, दो लड़कियां हैं और पांच लड़के हैं और अभी आठवां होने वाला है। और मैंने कहाः तू यह सब लिखता फिर रहा है दीवालों पर कि सुखी परिवार का रहस्य दो या तीन बच्चे! उसने कहाः साहिब, यह तो मेरी नौकरी है, मुझे इससे क्या मतलब! इसलिए मैं लिख रहा हूं।
नेता की नेतागिरी है, वह समझा रहा है। दीवाल पर लिखने वाले की नौकरी है, वह लिख रहा है। न कोई सुन रहा है, न कोई समझ रहा है। मुल्क रोज बड़ा होता जा रहा है। समस्याएं रोज बड़ी होती जाएंगी। और हम सिर्फ नारेबाजी करेंगे, हड़तालें करेंगे, घेराव करेंगे। नहीं, अगर हिंदुस्तान के बच्चे समझदार हैं तो हड़ताल नहीं होनी चाहिए, पचास साल तक अब घेराव की जरूरत नहीं है। अब पचास साल तक हिंदुस्तान की सारी शक्ति सृजनात्मक हो, सारी शक्ति क्रिएटिव हो, हम कुछ निर्माण करने में लग जाएं, तो शायद पचास साल में हम इस मुल्क को सौभाग्य के दिन दे सकते हैं। इस मुल्क ने बहुत लंबी कठिनाइयां देखी हैं..गुलामी, गरीबी, दीनता। क्या हम भविष्य में भी इस मुल्क को कोई स्वर्ण-दिन नहीं दिखाएंगे?
आप सबको देख कर आशा नहीं बंधती। क्योंकि जो हम कर रहे हैं उससे कोई आशा नहीं बंधती। और जब मैं ये सारी बातें कहता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि शायद यह सब अरण्य-रोदन हो सकता है।
लेकिन फिर भी एक आशा है कि जब आपसे मैं कुछ कह रहा हूं तो आप सोचेंगे, हो सकता है सोचना आपके भीतर कोई दिशा का परिवर्तन बन जाए। मेरी बात मानने की जरूरत नहीं है। मैं न कोई नेता हूं, न कोई गुरु; न मैं किसी को अनुयायी बनाता हूं, न किसी से मुझे कोई वोट की जरूरत है। मेरी सिर्फ एक ही आकांक्षा है कि इस मुल्क के नौजवान सोचने लगें और अगर वे सोच कर कोई कदम उठाएं तो मैं मानता हूं कि खतरा नहीं रहेगा और मुल्क के हित में और मंगल में कुछ हो सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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