दिनांक 22 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना
प्रश्नसार :
1—आपने संन्यासरूपी प्रसाद
दिया है,
वह पचा सकूंगी या नहीं?
2—मैं वृद्ध हो गया हूं, सोचता था
कि अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं है। लेकिन...भगवान, यह क्या हो
रहा है? मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं?
3—भगवान,
प्रेम की चुनरी ओढ़ा दी है
आपने।
खूब-खूब अनुग्रह से भर गयी
हूं।
बहाने और भी होते जो
जिंदगी के लिए
हम एक बार तेरी आरजू भी खो
देते
4—एक मित्र का अनूठा
बयान...।
पहला प्रश्न:
आपने संन्यासीरूपी प्रसाद
दिया है,
वह पचा सकूंगी या नहीं? उससे जो प्रेम,
खुशी, आनंद दिया है--वह कहीं भी नहीं पाया। और
भी डूबना चाहती हूं, ताकि मैं खो जाऊं। कैसे?
मंजुला, मनुष्य की
क्षमता अपार है। मनुष्य बूंद में पूरा सागर है। समग्र परमात्मा को पचाने के क्षमता
है उसकी। उसने कम में तृप्ति भी हनीं होने वाली उससे पहले जो रुक गए, नासमझ हैं। परमात्मा को ही पीना है, परमात्मा को ही
पचाना है--और पूरा-पूरा। जब तुम्हारे हृदय का एक भी परमात्मा से अछूता रह जाए तब
तक बेचैनी बनी रहेगी। एक भी कण तुम्हारा परमात्मा से पृथक रह जाए, तो संताप भूतरूप से परमात्मा को पचा ले और स्वयं को परमात्मा में डूबा दे।
संन्यास से शुरुआत,मंजुला,
अंत नहीं। यात्रा का पहला कदम हैं। लेकिन हमें अपनी क्षमता का बोध
नहीं है। और हमें हमारी क्षमता का बोध होने भी नहीं दिया जाता। सदियों-सदियों से तुम्हें
समझाया गया है--पापी हो। सदियों-सदियों से तुम्हारी निंदा की गयी है। तुम्हारे
तथाकथित साधु-संत अगर कोई एक काम करते रहे हैं निरंतर, तो वह
है तुम्हारी निंदा का। और तुम उस निंदा को सुनते रहे हो। निंदा की पर्तों पर
पर्तें तुम्हारे भीतर जम गयी हैं। तुम्हें जम गयी है। तुम्हें अपने पर भरोसा खो
गया है। और जिसे अपने पर भरोसा खो जाए, उसकी आत्मा खो गयी।
और जिसके हृदय में अपने प्रति निंदा आ जाए, उसका परमात्मा से
सेतु टूट गया। क्योंकि इसी आत्मा को लेकर तो परमात्मा के द्वार पर जाना है। यही तो
हमारी भेंट है। यही तो हमारी अर्चन है, यहीं हमारी पूजा है।
अगर यह फूल नहीं हैं, तो किस मुंह को लेकर परमात्मा के द्वार
पर जाओ? और साधु-संतों ने मनुष्य की इतनी निंदा की है! उसे
नारकीय कीड़ा कहा है। नारकीय कीड़े कैसे परमात्मा तक पहुंचेंगे? और इतनी तरकीब से निंदा की है, इतना गणित उसमें
बिठाया है कि तुम्हें पता भी नहीं चलता है। और निंदा इतनी प्राचीन है कि करीब-करीब
सनातन धर्म मालूम होती है। इतने दिनों से सुनी है बकवास कि वह बकवास तुम्हारा
संस्कार बन गयी है।
क्यों? क्या होगा इसके पीछे राज?
इसके पीछे राज है, राजनीति
है। राजनीति यह है कि मनुष्य अगर निंदित हो, तो उसका शोषण
आसानी से किया जा सकता है। क्योंकि निंदित मनुष्य भयभीत हो जाता है। और जो भयभीत
है, वह कायर होता है। जो कायर है, उसमें
बगावत मर जाती है। मनुष्य को डरा दो, फिर वह जंजीरें पहनने
को राजी हो जाएगा। उसे कंपित कर दो, फिर वे किन्हीं के भी
चरणों में सिर रखने को राजी हो जाएगा। उसे कंपित कर दो, उसका
आत्मगौरव छीन लो, उसकी गरिमा नष्ट कर दो, फिर वह किसी के भी सामने झुकने को आतुर रहेगा। वह खोजेगा ऐसे लोग जिनके
सामने झुके। उसकी तुमने रीढ़ तोड़ दी। अब वह सीधा खड़ा नहीं हो सकता। अब वह आज्ञाकारी
होगा--आत्मवान नहीं आज्ञाकारी। अब उसके भीतर चेतना नहीं होगी, थोथा चरित्र होगा। अब उसके भीतर धर्म का सूरज नहीं ऊगेगा। नीति का पाखंड,
बस यही उसकी जिंदगी होगी। भीतर कुछ, बाहर कुछ।
मुखौटे ओढ़े हुए जीएगा वह आदमी। और यही राजनेता चाहते हैं, यही
पंडित-पुरोहित चाहते हैं, यही तथाकथित धर्मगुरु चाहते हैं।
आदमी को गुलाम बनाने का बड़ा आयोजन चल रहा है, बड़ा षडयंत्र चल
रहा है। उसमें धर्मगुरु और राजनेता सदा से सम्मिलित रहे हैं। उन दोनों ने आदमी की
गर्दन को पकड़ रखा है।
मैं चाहता हूं, तुम्हारी
आत्मगरिमा वापस दूं। चाहता हूं कि तुम्हें याद दिलाऊं कि तुम परमात्मा को भी पचा
लो, इतनी तुम्हारी क्षमता है इससे कम तुम्हारी क्षमता नहीं
है। सारा आकाश तुम्हारे भीतर समा जाए, इतना तुम्हारा विस्तार
है। आकाश तुमसे छोटा है। अंतर-आकाश बाहर के आकाश से अनंत गुना बड़ा है। अनंत-अनंत
गुना बड़ा है। संन्यास इस बात की उदघोषणा है कि तुमने अपने पापी होने का भाव छोड़
दिया, कि तुमने पंडित-पुरोहितों की बकवास से छुटकारा कर लिया,
कि तुमने वह कूड़ा-कर्कट अपने सिर से झाड़कर फेंक दिया कि तुम
साफ-सुथरे हुए। संन्यास इस बात की घोषणा है कि अब मैं आज्ञाकारी नहीं हूं, आत्मवान हूं।
आत्मवान का अर्थ यह नहीं होता कि वह जरूरी
रूप से आज्ञाएं तोड़ेगा। आत्मावान का इतना ही अर्थ होता है, आज्ञा
विवेकपूर्ण होगी तो स्वीकार करेगा, अविवेकपूर्ण होगी तो
स्वीकार करेगा। आत्मवान का इतना ही अर्थ होता है कि उस पर कुछ थोपा न जा सकेगा। वह
मिट जाएगा, मगर किसी चीज को थोपे जाने के लिए राजी न होगा।
मिट जाएगा। लेकिन बिकेगा नहीं। बाजार में तुम उसे बेच न सकोगे। तुम उसे गुलाब न कर
सकोगे। तुम लाख प्रलोभन दो और लाख भय दो, तुम उसे कारागृहों
में कैद न कर सकोगे। तुम उसे सींकचों में बंद न कर सकोगे। विद्रोह उसके भीतर की
चमक होगी--असली धार्मिक आदमी विद्रोही होता है। असली धार्मिक आदमी इस महिमा के बोध
से आनंदित होता है कि मैं छुद्र नहीं हूं--अहं ब्रह्मास्मि, मैं
ब्रह्म हूं। अनकलहक, मैं हक हूं मैं सत्य हूं। और ध्यान रखना,
इस उदघोषणा में अहंकार नहीं है। जब तक अहंकार हो तब तक तो ऐसी
उदघोषणा हो ही नहीं सकती।
क्यों इस उदघोषणा में अहंकारी नहीं--मालूम
तो होती है! जब कोई कहता है--अहं ब्रह्मास्मि, तो लगता है कि यह तो बड़े अहंकार की
बात हो गयी। नहीं। क्योंकि जब कोई कहता है, अहं ब्रह्मास्मि,
तो उसने यह भी कह दिया--तुम भी ब्रह्म हो। अगर कोई कहे कि मैं
ब्रह्म हूं, तुम भी ब्रह्म हो, पत्थर-पत्थर
ब्रह्म ही का छिपा हुआ रूप है, इस पूरे ब्रह्मांड के भीतर
ब्रह्म छिपा है--इसीलिए तो हम इसे ब्रह्मांड कहते हैं--यह उसका डंडा है जिनसे
ब्रह्मा प्रकट होता है, या प्रकट हो रहा है, यह सारा का सारा अस्तित्व ब्रह्ममय है, ऐसी जिसकी
उदघोषणा है, वही संन्यासी है।
मंजूला; जरा भी सोचना नहीं कि संन्यास का
जो प्रसाद मिला है वह पचा सकूंगी या नहीं? यह तो कुछ भी नहीं
है। यह तो बस शुरुआत है। अभी तो बहुत बड़े डग भरने है! अभी तो सागर पीने हैं! अभी
तो ब्रह्म को पचाना है। और जितना तुम्हारा अपने पर भरोसा होगा, उतना संभावनाओं के द्वार खुलते चले जाते हैं।
पूछा है: और भी डूबना चाहती हूं ताकि मैं खो
जाऊं। कैसे? खोने का एक ही उपाय है--मैं-भाव गिर। अहंभाव गिरे। ब्रह्मभाव बढ़े। अहं
ब्रह्मास्मि में, मैं ब्रह्म हूं में सारे अध्यात्म का सार
सूत्र आ गया। मैं घटता जाए, ब्रह्म बढ़ता जाए। जिस दिन ऐसी
घड़ी आ जाए कि मैं का पता न चले और ब्रह्म ही ब्रह्म का बोध हो, उस दिन जानना मंजिल आ गयी। अभी तो ऐसा है, ब्रह्म का
तो कुछ पता नहीं चलता, ब्रह्मचर्चा चलती है! ब्रह्म का कुछ
पता नहीं चलता। शब्द ही है कोरा, थोथा। इस शब्द में अभी कोई
अर्थ नहीं है। अर्थ तो डालना पड़ता है अहंकार के विसर्जन से। अहंकार का विसर्जन अब
ध्यान में रहे। ऐसा कुछ भी न करो, जिससे अहंकार संपुष्ट हो,
बलिष्ठ हो, अशक्त हो। ऐसा सब कुछ करो, जिससे अहंकार गिरे, विदा हो। बस यही तुम्हारी चर्या
है, यही संन्यास का आदेश है। बस इतनी ही जांच करते रहना कि
जो भी मैं करूंगा मैं करूं, उसे अहंकार भरने के लिए तो नहीं
कर सकता हूं। इतना स्मरण रहे, क्योंकि अहंकार भरने के लिए
किया गया दान पाप हो जाता है, अहंकार भरने के लिए किया गया
पुण्य पाप हो जाता है। और निरअहंकारिता से जो भी होता है, वही
पुण्य है। उठना-बैठना है। श्वास लेना पुण्य है।
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है: गाता गीत जिन्हें फिर और कौन
गाएगा?
पनडुब्बा: ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा: ऐसी आग अठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय: यह मेरा: यह मैं स्वयं
विसर्जित
यह दीप, अकेला स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस का भी पंक्ति को दे दो।
यह मधु है: स्वयं काल की मीना का युग-संचय,
यह गोरस: जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर: फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंयम्भू, ब्रह्म, अयुत:
इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह
भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास, नहीं जो
अपनी लघुता में भी कांपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा
के धुंध आते कडुवे, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापन।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो:
यह दीप, अकेला, स्नेह
भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।
जैसे कोई दिए को छोड़ देता है नहीं की धार
में, इस अंधकार के दिए को भी पंक्ति को दे दो। छोड़ दो इसे भी नदी की धार में।
बह जाने दो इसे, बचाओ मत, सम्हालो मत।
यह दीप, अकेला, स्नेह
भरा,
है गर्व भरा मदताता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।
और प्यारा भी है वह दीप, सदी-सदी
अनंत-अनंत काल में साथ भी रहा है, और इसने थोड़ी बहुत रोशनी
भी दी है, ऐसा भी नहीं है कि इसने कोई रोशनी न दी हो,
इसने अंधेरे में जैसे अंधे के हाथ की लकड़ी होती है ऐसा तुम्हें
सहारा भी दिया है, लेकिन फिर भी अंधे की लकड़ी आंख नहीं है।
और जब आंख मिल रही हो, तो लकड़ी छोड़ देनी होगी। जब चलना जाए,
तो फिर सहारे छोड़ देने होते हैं। धन्यवाद दे दो इस अहंकार को कि खूब
दूर तक तुमने साथ दिया, बंधु, लेकिन जब
विदा, अलविदा!
यह दीप, अकेला, स्नेह
भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।
जाने दो, बह जाने दो इसे। तुम बचो, अहंकार न बचे। अस्तित्व बचे, अस्मिता न बचे। बस फिर
आकाशों के आकाश भी तुम में समा जाएं, इतने तुम बड़े हो,
इतने तुम विराट हो!
पूछा है--क्या करूं? कैसे यह
घटित होगा? तुम्हारे कुछ करने से यह घटित नहीं हो सकता।
क्योंकि तुम कुछ भी करो मंजुला, मैंने किया है, यह भाव सघन होगा। कुछ भी करो! अहंकार छोड़ने का उपाय करो, तो भी भीतर यह अहंकार घना होगा कि अहह, मैं अहंकार
छोड़ रही, अहंकार गिरा रही! यह नया अहंकार खड़ा हो जाएगा। और
यह अहंकार पहले से ज्यादा सूक्ष्म होगा और ज्यादा घातक होगा। जितनी क्षमा हो कोई
चीज, उतनी प्रबल और शक्तिशाली हो जाती है। क्योंकि जीतनी
सूक्ष्म हो, उतनी ही अदृश्य हो जाती है। दिखायी नहीं पड़ती।
और शत्रु अदृश्य हो तो बहुत खतरनाक हो जाता है। दृश्य हो, तो
बचने का कुछ उपाय करो, ढाल उठा लो जब वह तलवार चलाए, लेकिन दृश्य न हो, फिर ढाल कैसे उठाओगे?
अदृश्य अहंकार खतरनाक हो जाता है। साधारण
लोगों का अहंकार दृश्य अहंकार है। और जिनको तुम त्यागीत्तपस्वी कहते हो मानते हो, उनका
अहंकार अदृश्य अहंकार है।
और उन्होंने अहंकार कैसे पा लिया? अहंकार
छोड़ने की कोशिश में और एक नया अहंकार पा लिया जो पहले से ज्यादा बदतर है। छोड़ने की
कोशिश मत करना। फिर अहंकार कैसे जाएगा? जागने की कोशिश करो।
होशपूर्ण हो जाओ। अहंकार को छोड़ो मत, अहंकार को देखो कहां
है। और तुम चकित, आश्चर्य चकित, आश्चर्य
विमुग्ध हो उठोगे, क्योंकि जैसे ही देखने चलोगे, अहंकार नहीं पाओगे। और तब, तब एक चकित कर देने वाला
होता है, अवाक कर देने वाला अनुभव होता है कि अहंकार था ही
नहीं, बस मेरी मान्यता थी। इसलिए न तो पकड़ा जा सकता था,
न छोड़ा जा सकता था। जाग कर देखा और खो गया।
और अगर बिना कुछ किए चलता ही न हो--क्योंकि
हमारी जन्मों-जन्मों की आदत है, कुछ करने की; हम बिना किए
क्षण भर को नहीं रह सकते। मैं किसी को कहता हूं कि घड़ी भर रोज शांत बैठा लिया करे,
वह कहता है--लेकिन करे क्या? आप कुछ मंत्र
इत्यादि दे दें--जाप करें, माला फेरें; कोई मंत्र दे दें--राम, ओम, अल्लाह--कुछ
रटें, कुछ तो चाहिए। आलंबन के नाम से वह यह कह रहा है कि हम
घड़ी भर भी बिना किए नहीं रह सकते, कुछ करें, तो ही बैठ सकते हैं। तो कुछ भी बकवास दे दो, तो भी
चलेगा। कोई नमोकार मंत्र और गायत्री की ही जरूरत नहीं है, कुछ
भी; अललटप्पू भी दे दो। तो चलेगा, बस
उसको दोहराते रहें तो एक काम रहेगा। कोका कोला, कोका कोला,
कोका कोला कहते रहें, तो भी चलेगा--कोई
राम-राम, राम-राम, राम-राम कहने का ही
कोई सवाल नहीं है! अगर कुछ करने को रहे। माला ही पकड़ा दो तो उसको फेरते रहेंगे,
मगर कृत्य रहना चाहिए।
अगर अड़चन ही हो कि बिना किए जागना बनता ही न
हो--सब से ऊंची बात तो है कि चुप हो जाओ; घड़ी-भर रोज अपने भीतर झांककर देख
लो, जब समय मिले तब आंख बंद करके झांककर देखो, यह अहंकार क्या है? कहां है? खोजो!
घूम आओगे पूरे अपने आंगन में भीतर के, कोने-कोने में,
और कहीं उसे पाओगे नहीं; और उसके न पाने में
ही मुक्ति है--मगर अगर यह न हो सके तो उससे एक कदम नीचे की बात प्रार्थना है। तो
फिर परमात्मा से कहो! तुम्हारे किए तो गड़बड़ हो जाएगी। तो फिर परमात्मा से
प्रार्थना से प्रार्थना करो!
बंधन दिये तो मुक्ति भी दो
बांध शत-शत बंधनों में,
दुख दिया मधुमय क्षणों में,
वेदना को सह सकूं
ऐसी मुझे तुम शक्ति भी दो।
बंधन दिये तो मुक्ति भी दो!
ऊबकर इस निखिल जग में,
डगमगाते पैर मग में,
आज जग के कार्य में
इस हृदय को अनुरक्ति भी दो!
बंधन दिये तो मुक्ति भी दो!
अति सरल विश्वास लेकर
आंसुओं का अर्ध्य दे कर
मांगती वरदान
चरणों की मुझे चिर शक्ति भी दो!
बंधन दिये तो मुक्ति भी दो!
न करो कुछ, तो श्रेष्ठतम। न किए बने ही
नहीं, तो द्वितीय बात है--प्रार्थना करो। कृत्य-शून्यता के
जो निकटतम बात है, वह प्रार्थना है। और प्रार्थना भी शब्दों
में मत करना सिर्फ भाव की हो। बस झुक जाना भाव से। नहीं कि कोई बंधी-बंधायी
औपचारिक प्रार्थना दोहराना--कि जय जगदीश हरे--उससे नहीं होगा कुछ, शब्द-शून्य, भावपूर्ण लेट जाना चरणों में उसके
अज्ञात, बस कह देना एक बार कि बंधन दिए, अब तू ही मुक्ति दे! तूने ही दिया होगा अहंकार, अब
तू ही ले ले! त्वदीयां वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। यह तेरी चीज है, तू सम्हाल।
लेकिन यह नंबर दो की बात है, ध्यान
रखना। बन सके तो नंबर एक! प्रतिभाशाली के लिए नंबर एक। अगर प्रतिभा बिलकुल न हो,
अगर समझ हो ही न, अगर समझ में धार बिलकुल न हो,
बोथली हो समझ, तो नंबर दो।
दूसरा प्रश्न:
मैं वृद्ध हो गया हूं, सोचता था
कि अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं है। लेकिन आपके शब्दों ने फिर उत्साह जगा दिया है।
रोशनी खोती आंखें फिर किसी अज्ञात प्रकाश की किरण से आंदोलित हो उठी है। भगवान,
यह क्या हो रहा है? मैं कोई स्वप्न तो नहीं
देख रहा हूं?
जीवन-भर स्वप्न देखे
और यह प्रश्न न उठाया। ऐसा अदभुत है मनुष्य का मन। दुख हो, तो हम मान
लेते हैं कि सच है। अंधेरा हो तो हम श्रद्धा रखते हैं कि है। प्रकाश की किरण दिखाई
पड़े, तो शक उठता है, संदेह उठता है।
स्वप्न तो नहीं, कोई भ्रांति तो नहीं? ध्यान
में जब साधक उतरते हैं और जब पहली दफा उन्हें आनंद की लहर छूती है--तो यह रोज की
घटना है--वह मुझसे आकर कहते हैं कि हमको भरोसा नहीं आता। यह कोई भ्रम तो नहीं है।
मैं उनसे पूछता हूं, जिंदगी भर इतने दुख उठाए, कभी यह प्रश्न न उठाया कि भ्रम तो नहीं है, आज जरा
सी सुख की पुलक आयी, एक छोटा सा फूल खिला और भरोसा खो दिया!
हम दुख के प्रति इतने श्रद्धावान क्यों है? हम दुख को
क्यों मान लेते हैं? सुख को क्यों नहीं मान पाते?
शायद कारण यही है कि सदियों-सदियों से दुख
तो परिचित है और सुख अपरिचित है। दुख को तो हमने अंगीकार कर लिया है कि दुख है ही
और सुख का तो हम स्वाद ही भूल गए हैं। अब जो जहर ही पीता हो, जहर ही
जीता रहा हो, एकदम एक दिन अचानक अमृत की बूंद उसकी जीभ पर पड़
जाए, वह भरोसा न कर सकेगा। कैसे भरोसा करे? बात भी समझ में आती है। लेकिन जिस पर हम भरोसा करते हैं उसको हम बल देते
हैं, यह भी खयाल रखना। और जिस पर हम श्रद्धा करते हैं,
उसमें हम अपनी ऊर्जा डालते हैं। और जिसमें हमारी श्रद्धा है,
वह बढ़ता जाएगा। और जिस में हमारी अश्रद्धा है, उसके लिए हमने द्वार बंद कर दिए। तुम उसी अतिथि के लिए द्वार खोलते हो
जिसका तुम्हें भरोसा है कि आता होगा। तुम उसी की बाट जोहते हो जिसके आने का भरोसा
है।
दुख की हम राह देखते है, दुख के
लिए द्वार खोले बैठे हैं, बंदनवार सजाए बैठे हैं, सुस्वागतम लिखा हुआ है--दुख के लिए। और सुख अगर द्वार पर दस्तक दे,
हम जल्दी घबड़ाहट में द्वार बंद कर देते हैं। हमें भरोसा ही नहीं आता
कि सुख और मेरे द्वार! ऐसा कभी नहीं हो सकता। भूल-चूक हो गयी होगी। किसी और द्वार
पर जाने वाला अतिथि यहां आ गया होगा। या हो सकता है मैंने कोई स्वप्न देखा--दिवा-स्वप्न,
खुली आंख का स्वप्न। सुख और मुझे!
तुम कहते, मैं वृद्ध हो गया हूं। नहीं,
तुम कभी वृद्ध नहीं हो और न कभी वृद्ध हो सकते हो। जो वृद्ध होता है,
वह तुम नहीं हो। शरीर कभी बच्चा होता है, कभी
जवान होता कभी बूढ़ा होता है, तुम न कभी बच्चे थे, न कभी जवान थे, न कभी बूढ़े। तुम बचपन के भी साक्षी
थे, जवानी के भी साक्षी थे, बुढ़ापे के
भी साक्षी हो। तुम जीवन के भी साक्षी थे और मृत्यु के भी साक्षी रहोगे। तुम साक्षी
हो। कैसा वार्द्धक्य? कैसा जन्म? कैसी
मृत्यु? मगर हमें जीना ही नहीं आया। क्योंकि हमारा साक्षी ही
नहीं जगा। हम तो ऐसे ही धक्के-मुक्के खाते रहे और कहते रहे--जीवन है--बचपन ने
धकाया तो जवान हो गए, जवानी ने धकाया तो बूढ़े हो गए, जिंदगी ने धकाया तो मर गए, कब्र में चले गए। कब्र
धका देगी तो फिर किसी गर्भ में प्रविष्ट हो जाएंगे। ऐसे खाते रहे धक्के। यह जिंदगी
नहीं है।
दुनिया में जो हैं भी तो न होने की तरह।
जागे भी अगर कभी तो सोने की तरह।।
हंसना तो बड़ी बात है, इसका क्या
जिक्र।
रोना है कि रोए भी न रोने की तरह।।
यहां कुछ भी स्वस्थ नहीं है। हंसने की तो
बात ही छोड़ दो,
रोना है कि रोए भी न रोने की तरह।
हमारा कुछ भी सच्चा और प्रामाणिक नहीं है।
तुम कुनकुने-कुनकुने हैं। हमारे जीवन में त्वरा नहीं है। हमने किसी क्षण को उसकी
समग्रता में नहीं जीया है। इसीलिए चूक हो रही है। क्योंकि जो व्यक्ति किसी भी क्षण
को समग्रता में जीता है,
उसे साक्षी का अनुभव होने ही लगता है। समग्रता एक तरफ घटती है,
दूसरी तरफ साक्षी घटता है। समग्रता और साक्षी एक ही घटना के दो पहलू
हैं।
किसी भी घड़ी में समग्ररूपेण जीओ और तुम चकित
होओगे कि तुम्हारे भीतर साक्षी जग गया। नाचो समग्ररूपेण, ऐसे कि
नाच ही बचे, ऐसे कि तुमने अपनी सारी ऊर्जा उंडेल दी, अपनी सारी शक्ति डाल दी, कि कुछ बचाया नहीं, कि कुछ सम्हाल नहीं, कि कोई कृपणता न की, और तम तब बड़े हैरान होओगे--देह नाच रही है और तुम जाग कर देख रहे हो?
जब देह पूरी-पूरी नृत्य में होगी, तभी
तुम्हारे भीतर साक्षी सजग हो जाएगा। परिधि तो पूरी त्वरा से घूमेंगी और केंद्र
परिपूर्ण रूप से जागा हुआ देखेगा घूमती हुई परिधि को।
न हम बच्चों को बच्चे रहने देते, हम बच्चों
को बूढ़ा होने की चेष्टा में लगा देते हैं। बच्चा कूदे तो कहते हैं--बैठो, शांत बैठो! तुम्हें अकल हनीं है? अकल तुम्हें नहीं
है। बच्चा अभी बूढ़े की तरह बैठ नहीं सकता--तुम्हें यह अकल नहीं है। बच्चा नाचे,
कूदे, वृक्षों पर चढ़े तो हम कहते हैं--तुम्हें
बुद्धि है या नहीं? शांति से बैठो, किताब
पढ़ो! स्कूल का काम करो। यह झाड़ पर चढ़ने से क्या होगा? गिर-गिरा
गए तो और टांग टूट जाएगी। हम बच्चों को यह कह रहे हैं कि अभी तुझे बच्चा होना
पूरा-पूरा ठीक नहीं, अभी से बूढ़ा हो जा। अभी से सम्हल कर चल।
फिर गैर-सम्हल कर कब चलेगा? फिर यह अनुभव चूक ही जाएगा। और
जो बच्चा अभी से कुनकुना-कुनकुना जीने लगा, उसकी जवानी भी
कुनकुनी हो जाएगी; क्योंकि एक चीज दूसरे से जड़ी है।
और जवानी को भी हम जवान नहीं होने देते।
इतना काट-पीट कर देते हैं उनकी जिंदगी में, इतना दमन सिखाते हैं, इतने अवरोध डाल देते हैं कि हम उन्हें कभी पूरा जवान नहीं होने देते। और
इसलिए फिर जब बुढ़ापा भी आता है, तो बुढ़ापा भी फिर सुंदर नहीं
होता। क्योंकि समग्र नहीं होता। जो भी समग्र है, वही सुंदर
है। और जो भी समग्र है, उसी के पीछे साक्षी का जागरण होता
है।
तुम कहते हैं, मैं वृद्ध हो गया हूं। नहीं,
कोई कभी वृद्ध हुआ नहीं, तुम कैसे ही जाओगे?
तम अपवाद नहीं हो सकते। कभी कोई वृद्ध नहीं हुआ--यहां कभी कोई वृद्ध
होता ही नहीं। वृद्ध होना स्वप्न है। क्योंकि शरीर से तादात्म्य बना रखा है। कल
शरीर बीमार था तो तुम बीमार हो गए थे। और आज शरीर स्वस्थ है तो तुम स्वस्थ हो गए।
शरीर जैसे रंग बदलता है, उसके साथ तुम रंग बदल लेते हो। और
तुम शरीर नहीं हो। और अगर यह तुम्हें याद आ जाए तुम बड़े चकित होओगे--शरीर बीमार है
और तुम स्वस्थ! और शरीर बूढ़ा है और तुम पर रंचमात्र इसकी छाया नहीं पड़ती शायद मेरी
बातों को सुनकर यही तुम्हें स्मरण आया, यही तुम्हारे जीवन के
किरण आयी, यही आशा जगी, यही उत्साह
पैदा हुआ।
कहा, तुमने, सोचता
था कि अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं। ऐसा तो कभी नहीं हो सकता। सुबह का भूला सांझ भी
घर आए तो भी भूला नहीं कहाता। आखिरी क्षण तक भी बोध हो सकता है। मरते-मरते भी बोध
हो सकता है। आखिरी क्षण में इधर सांस टूटने को और बोध हो सकता है। क्योंकि बोध में
समय लगता ही नहीं। दो पलो के बीच में जो खाली जगह है, उसमें
बोध होता है। और दो पलो के बीच में। जो खाली जगह है, उसे हम
नाप ही नहीं सकते--वह इतनी छोटी है। इसीलिए तो उसको दो पलो के बीच में रखा है। और
ध्यान रखना, हर दो पल के बीच में थोड़ी सी जगह है। नहीं तो एक
पल दूसरे पल पर चढ़ जाएगा। जैसे मालगाड़ी का एक्सीडेंट हो जाए और एक डिब्बे पर चढ़
जाए। फिर एक पल को तुम दूसरे पल से अलग न कर सकोगे। एक सेकंड गया, दूसरा आया, दूसरा गया, तीसरा
आया; जरूर हर सेकंड के बीच थोड़ा सा विरोम होगा।
यह मेरी दो अंगुलियां देखे हो? ये दो हैं,
क्योंकि बीच में खाली जगह है। अगर बीच में खाली जगह न हो तो अंगुली
एक हो जाएगी। इन दो अंगुलियों को कितने ही पास ले आऊं तो भी इनके बीच में खाली जगह
है ही--कम हो जाए, मगर है। खाली जगह न रहेगी तो दो अंगुलियां
एक हो जाएंगी। हर दो शब्दों के बीच में खाली जगह है। हर दो क्षणों के बीच में खाली
जगह है। बोध की घटना उस रिक्त स्थान में घटती है। इसीलिए तो ज्ञानियों ने कहा है--अगर
शास्त्र पढ़ने हों तो शब्दों में मत पढ़ना, शब्दों के बीच में
जो खाली जगह है उनमें पढ़ना। अगर शास्त्र पढ़ने हों तो पंक्तियों में मत पढ़ना,
दो पंक्तियों के बीच में जो खाली जगह है वहां पढ़ना। यह केवल सूचक
बातें हैं। शब्दों मग नहीं, दो शब्दों के बीच। क्षणों में
नहीं, दो क्षणों के बीच। तो मरते-मरते भी जाग सकता है कोई।
कभी भी इतनी देर नहीं हो गयी। कभी इतनी देर होती ही नहीं। भय न करो!
कहते हो--सोचता था कि अब मेरे लिए कोई उपाय
नहीं। नहीं उपाय सदा है। यह बड़ा आश्वासन है कि उपाय सदा है। और मौत तो हमेशा उतनी
ही दूर है।
कल एक युवती आयी। उसका छोटा सा बच्चा--डेढ़
साल का--गिर गया फव्वारे और समाप्त हो गया। वह मुझसे पूछते लगी कि ऐसा क्यों हुआ? मैंने उसे
कहा--व्यर्थ के सवालों में मत पड़! और मैं तुझे कोई सांत्वना नहीं दूंगा, कि ऐसा क्यों हुआ; कि तुझे ऊंची-ऊंची बातें करूं कि
जो परमात्मा के प्यारे होते हैं, उन्हें परमात्मा जल्दी उठा
लेता है। यह सब बकवास मैं न करूंगा तुझसे। यह तो समझाने की बातें हैं, यह तो मलहम-पट्टियां हैं। अब किसी का बच्चा मर गया है, अब उसको क्या कहो! तो लोग कुछ रास्ते खोज लिए हैं, कि
परमात्मा के जो प्यारे होते हैं, उनको जल्दी उठा लेता है। तो
बाकी जो परमात्मा के प्यारे नहीं हैं, वह ही यहां जी रहे हैं,
तो बुद्ध बयासी साल तक जिए, परमात्मा के
प्यारे नहीं थे! कृष्ण भी अस्सी साल तक जीए, महावीर भी अस्सी
साल जीए, तो परमात्मा के प्यारे नहीं होंगे। तो जो गर्भ में
ही मर जाते हैं, वह बहुत प्यारे हैं! नहीं, यह सांत्वनाएं हैं। और मैं समझाता हूं, आदमी की
मजबूरी भी है। अब किसी के घर ऐसी दुर्घटना घट जाए तो हम करें भी क्या? हमारी भी समझ में नहीं आता कि अब करें क्या? वह
युवती मुझसे पूछती थी--ऐसा क्यों हुआ? मैंने कहा, मौत तो किसी की भी किसी भी क्षण घट सकती है। मौत न जवान देखती, न बूढ़े देखती। मौत तो आ रही है सभी की--देर-अबेर, क्या
फर्क पड़ता है! मौत हमेशा अगले क्षण में है। घट सकती है। बच्चे की घट सकती है,
बूढ़े की घट सकती है।
घर कब्र बने अब वह महल आ पहुंचा।
हुशियार कि पैगामे-अजल आ पहुंचा।।
लेकर खते-शौक चल चुका है कासिद।
पहुंचा न अर आज तो कल आ पहुंचा।।
घर कब्र बने अब वह महल आ पहुंचा।
वह घड़ी आ गयी, जब घर कब्र बनेगा। मगर वह
घड़ी आई ही हुई है। घर कब्र बना ही हुआ है।
हुशियार कि पैगामे-अजल आ पहुंचा।।
मृत्यु का संदेश आ गया।मगर आया ही हुआ है।
जिस दिन से हम पैदा हुए,
उसी दिन से मौत आनी शुरू हो गयी। सच तो यह है, जन्म के दिन दिन को जन्मदिन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि
जन्म के दिन ही तो मौत की यात्रा शुरू होती है। जैसे ही हम पैदा हुए कि हमने मरना
शुरू कर दिया। एक दिन बच्चा जी लिया, मतलब एक दिन मर गया। जो
तुम जन्मदिन मानते हो, जन्मदिन न मानकर मृत्युदिन मनाओ तो
ठीक। क्योंकि इतनी मौत और करीब आ गयी।
लेकर खते-शौके चल चुका है कासिद।
वह हरकारा मौत का पत्र लेकर चल ही चुका है, जिस दिन
तुम पैदा हुए उसी दिन चल चुका है।
पहुंचा न अगर आज तो कल आ पहुंचा।।
अब देर-अबेर है, आज नहीं आ
पाया, कहीं राह में रुक गया होगा, विश्राम
कर लिया होगा, किसी धर्मशाला में नींद लग गयी होगी, तो कल आ जाएगा। मगर मौत तो घटने वाली है। अदभुत बात है कि जीवन में और सब
अनिश्चित है, सिर्फ मौत निश्चित है। यह भी कैसा जीवन! इसको
जीवन कैसे कहें जहां सिर्फ मौत निश्चित है! एकमात्र चीज सुनिश्चित है, वह मौत। एक ही बात की गारंटी दी जा सकती है कि मरोगे। औरतों किसी बात की
गारंटी नहीं दी जा सकती। और तो सब बातें हों, न हों, मगर मौत जरूर होगी। गरीब की होगी, अमीर की होगी;
कुशल की, अकुशल की होगी; बुद्धू की होगी, बुद्धिमान की होगी। इस सारे जगत के
इतने बड़े विस्तार में एक ही बात सुनिश्चित है--मृत्यु। जो इतनी सुनिश्चित है,
वह सात दिन बाद आई तो, सत्तर वर्ष बाद आयी तो,
क्या फर्क पड़ेगा! जो समझदार है, वह तो प्रतिपल
जानता है कि मौत आ रही।
लेकर खते-शौक चल चुका है कसिद।
पहुंचा न अगर आज तो कल आ पहुंचा।।
तुम कहते हो, सोचता था अब मेरे लिए कोई
उपाय नहीं, लेकिन आपके शब्दों ने फिर उत्साह जगा दिया है।
मेरे शब्दों ने उत्साह नहीं जगाया, उत्साह तो तुम्हारे भीतर
है ही, तुम विस्मृत कर बैठे थे, विस्मरण
हो गया था। मैंने तुम्हें कुछ दिया नहीं--कोई किसी को कुछ दे नहीं सकता--जो
तुम्हारे भीतर है, उसकी याद दिलायी जा सकती है।
इसे तुम मुझसे मत बांधना। नहीं तो यहां से
जाओगे और सोचोगे कि अब जिसने जगाया था, वही नहीं, तो
फिर उत्साह सो जाएगा। यह तुम्हारे ही भीतर है। यह तुम्हारी ही भेंट है तुम्हारे
लिए। मैं अगर कुछ था तो निर्मित था। इस निर्मित को कारण मत समझ लेना। नहीं तो
मुझसे दूर गए, फिर उत्साह खो जाएगा। मेरे शब्दों ने तुम्हारे
भीतर उत्साह को जन्माया नहीं है, सिर्फ तुम्हें याद दिला दी
है कि तुम्हारे भीतर इतनी क्षमता है। इसे तुम भूल बैठे थे। तुम्हारी जेब में खजाना
था और तुम्हें याद भूल गयी थी, मैंने सिर्फ तुम्हें याद दिला
दी। अब याद को बनाए रखना।
कहा तुमने, रोशनी खोती आंखें फिर किसी
अज्ञात प्रकाश की किरण से आंदोलित हो गयी हैं। वह प्रकाश की किरण भी सदा से मौजूद
है। मगर तुम उसकी तरफ देखते नहीं, देखते ही नहीं। तुम पीठ
किए हो, तुम विमुख हो। तुम सूरज की तरफ पीठ किए खड़े हो। मेरी
बातों में आकर तुमने जरा पीछे लौटकर देख लिया, बस। सूरज
तुम्हारा है, लौटकर देखना तुम्हारी क्षमता है, आंखें तुम्हारे पास हैं, तुम रोशनी में जी सकते हो,
मगर तुमने अंधेरे में जीने का तय कर लिया था। यह तुम्हारा निर्णय
था।
गिला जलवे को तेरे था कि आलम आश्कारा है,
हमें रोना तो जो कुछ है वोह अपनी कम निगाही
का।
उस परमात्मा की तो शिकायात ही नहीं की जा
सकती, क्योंकि उसने तो चारों तरफ अपने जल्वे को, अपनी
रोशनी को, अपने उत्सव को फैला रखा है। उसने तो कोई दिशा खाली
नहीं रखी। वह तो बस दिशाओं में बरस रहा है। उससे। हम शिकायत नहीं कर सकते, उससे गिला नहीं कर सकते। हमें रोना है तो बस एक बात का रोना हम कर सकते
हैं--अपनी कम निगाही का। हम देखते ही नहीं। आंखें हैं और आंखें बंद किए हैं। रोशनी
मैं तुम्हें नहीं देता, सिर्फ पुकारता हूं कि जरा आंख खोलो।
और अगर तुम सुन लो और आंख खोलो, तो रोशनी भी तुम्हारी है,
आंख भी तुम्हारी है।
और अब तुम्हें विचार उठा है कि भगवान, यह क्या
हो रहा है? मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं? भरोसा नहीं आता हमें कि शुभ हो सकता है। हमें अशुभ पर भरोसा है। बुरा ही
हो सकता है। हमें कांटों के साथ बड़ी श्रद्धा है। फूल अगर खिलते भी हों तो हम सोचते
हैं--सपना होंगे। यह दृष्टि बदलो, यह दर्शन बदलो। इसी गलत
दृष्टि और दर्शन के कारण सत्य पर पर्दा पड़ा हुआ है। सत्य पर पर्दा नहीं है,
तुम्हारी आंख पर पर्दा है।
नाफहमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए।
वर्ना कोई नकाब नहीं यार के लिए।।
उस प्यारे के ऊपर कोई नकाब नहीं है, कोई पर्दा
नहीं है। उसने कोई घूंघट नहीं डाल रखा है। लेकिन तुम्हारी आंख पर तुमने पट्टी बांध
रखी है। तुम कोल्हू के बैल जैसे हो। और बांधने वालों ने बड़ी तरकीब से बांधी है।
आंख पर पट्टी न हो तो तुम कभी के बगावत कर जाते। तुम थे राजनीतिज्ञों, दो कौड़ी के पंडित-पुरोहितों के चक्कर में न पड़ते। कभी के बाहर हो गए होते।
जंजीरें तोड़ दी होती।
देखते हो, तांगे में घोड़े को जोतते
हैं तो आंख पर पट्टियां बांध देते हैं। नहीं तो घोड़ा निकल भागे। अगर उसको ठीक-ठीक
दिखायी पड़ता रहे, तो निकल भागे। उसे कुछ दिखायी ही नहीं पड़ता,
उसे बस सिर्फ आगे चार कदम दिखायी पड़ते हैं। चार कदम दिखायी पड़ते हैं,
इसलिए उसे यह भरोसा भी नहीं आता कि भागूंगा भी तो भागूंगा कहां?
जगह कहां है भागने की? धीरे-धीरे वह यह भरोसा
कर लेता है--इतनी ही तो है, इतनी ही जिंदगी है।
एक दार्शनिक, विचारक तेली के घर तेल लेने
गया था। तेली तेल बेच रहा था, उसके पीछे ही, पीठ के पीछे कोल्हू चल रहा था, तेल पेरा जा रहा था।
एक बैल खींच रहा था कोल्हू को। वह दार्शनिक जरा हैरान हुआ--दार्शनिक आदमी था,
हर चीज में प्रश्न उठाना उसकी आदत थी! उसने कहा कि मैं एक प्रश्न
पूछूं? मेरी जिज्ञासा शांत करोगे? तेली
ने कहा, आपकी जिज्ञासा और मैं शांत करूं? हम तो सुनते आए हैं कि आप लोगों की जिज्ञासा शांत करते हैं। उस दार्शनिक
ने कहा, लेकिन यह जिज्ञासा दर्शन की नहीं है, कोल्हू से संबंधित है। मैं यह पूछना चाहता हूं कि कोई चलाने वाला नहीं है,
बैल खुद खल कैसे रहा है? बैल कोल्हू को चला
रहा है, वजन ढो रहा है, तेल पेर रहा है
और चलाने वाला कोई भी नहीं! मैंने बहुत देखे, बहुत कोल्हू
चलते देखे, मगर यह इतना आज्ञाकारी बैल! इतना धार्मिक बैल!
इतना श्रद्धालु बैल! यह तुम्हें कहां मिल गया? इस जमाने में,
कलियुग में कहां धार्मिक मिलते हैं? खोजे-खोजे
नहीं मिलते। उस तेली ने मुस्कुराकर कहा कि जरा आप गौर से देखें, उसकी आंख पर पट्टियां बंधी हुई हैं। उसे पता ही नहीं चलता कि कोई पीछे
चलाने वाला है या नहीं। वह लौटकर नहीं देख सकता। वह इसी धोखे में है कि कोई चलाने
वाला है। और कभी-कभी यहीं बैठे-बैठे में हांक देता हूं। बस वह समझता है मैं पीछे
हूं।
मगर दार्शनिक ऐसे ही तो राजी नहीं हो जाता, इतनी
जल्दी तो राजी नहीं हो जाता। उसने पूछा कि यह मेरी समझ में आया कि आंख पर पट्टियां
हैं। लेकिन कभी रुक करके जांच भी तो कर सकता है बैल कि जरा रुक कर देख ले कि है भी
कोई पीछे कि नहीं? तो उसने कहा, आपने
क्या मुझे बुद्धू समझ रखा है? मैंने उसके गले में घंटी बांध
रखी है। वह चलता रहता है, घंटी बजती रहती है। जैसे ही रुका
कि घंटी बंद हुई कि मैं उछलकर उसको हांक देता हूं, एक कोड़ा
फटकार देता हूं। उसको यह भ्रांति मैं मिटने ही नहीं देता कि मैं पीछे हूं। मगर
दार्शनिक तो दार्शनिक, उसने कहा बस एक बात और! मैं यह पूछना
चाहता हूं कि बैल खड़े होकर गर्दन हिलाकर घंटी नहीं बजा सकता? उस तेली ने कहा, महाराज जरा धीरे बोलो, कहीं बैल न सुन ले! और आप कृपा कर तेल कहीं और से खरीद लिया करें, इस तरह की बातें, क्या मेरे बैल को बिगाड़ना है?
पंडित-पुरोहितों ने तुम्हारी आंख पर खूब
पट्टियां बांधी हैं,
गले में घंटियां बांधी हैं। तुम चले जा रहे हो। तेल किसी के लिए पेर
रहे हो, तेली के बैल हो गए हो। तो अब जब पहली बार तुम्हें
थोड़ी सी रोशनी की किरण दिखायी पड़ी तो भरोसा नहीं आता। मगर मैं तुमसे कहता हूं--
खिजां में खुश्क शाखों से लिपटकर मुफ्त जी
खोना।
बहार आएगी घबराओ न ऐ उजड़े चमनवालो!
वसंत का तुम्हें भरोसा नहीं, पतझड़ ही
पतझड़ तुमने देखे हैं। मैं तुमसे कहता हूं--वसंत भी आता है। वसंत भी आता है,
वसंत है! पतझड़ है कहीं, तो तुम्हारी कोई
भूल-चूक के कारण। वसंत तो परमात्मा का स्वभाव है। फूल खिलेंगे बहुत!
खिजां में खुश्क शाखों से लिपटकर मुफ्त जी
खोना।
बाहर आयी ही हुई है, जरा आंख खोलो,
जरा पट्टियां सरकाओ, जरा शब्दों के जाल काटो,
जरा सिद्धांतों के ऊपर सिर उठाओ और बहार आयी हुई है। सारा अस्तित्व
बहार में नाच रहा है--सिर्फ तुम्हें छोड़कर। सब तरफ किरणें बरस रही हैं और सब तरफ
परमात्मा का नृत्य है, उसकी बांसुरी बज रही है। परमात्मा न
बच्चे देखता, न जवान, न बूढ़े। उसके
महोत्सव में सभी को निमंत्रण है। तुम जिस दिन अपने को आनंद देने के लिए तत्परता
दिखाओगे, उसी क्षण-घड़ी वह महासौभाग्य फलित हो जाएगा। जिसके
लिए जन्मों-जन्मों से प्रतीक्षा की है।
अब यह जो छोटी सी किरण उतरी है, शक न करो,
संदेह न करो, इसे स्वप्न न कहो। असलियत उल्टी
है--तुमने अब तक जो जाना, वह स्वप्न था, अब पहली बार सत्य की किरण उतरी है। इस किरण का साथ गहरा; इसको पकड़ ही लो, इसे छोड़ना मत। क्योंकि इसी एक छोटी
सी किरण के सहारे चलते रहे तो उस परम परमेश्वर के, परम प्रिय
के महासूर्य तक पहुंच जाओगे। यह पतला सा धागा किरण का उससे जुड़ा है।
मैं समझता हूं तुम्हारी अड़चन, तुम्हारी
तकलीफ।
अति उदास संध्यान पतझर की!
शीध्र लौटते पक्षी घर को,
कलरव से भर कर अंबर को,
शांत सरोवर में सोई है
छाया किस आकुल अंतर की?
अति रदस संध्यान पतझर की!
गोपद-घूलि पंथ में छाई,
किसकी सुधि मन में जग आई,
कांप उठे हैं प्राण विकल हो
लगन लगी राही को घर की!
अति उदास संध्या पतझर की!
सूखे पत्ते झर-झर पड़ते,
नव बसंत का स्वागत करते,
पाती हूं अपने अंतर में
अमर शून्यता ही अंबरकी!
अति उदास संध्यान पतझर की!
मानता हूं बूढ़े हो गए तुम, संध्या है
अब, उदास संध्या है, पत्ते झर-झर कर
गिर रहे हैं!
गोपद-धूलि पंथ में छोई,
किसकी सुधि मन में जग आई,
लेकिन यह गौण है तुम्हारा बुढ़ापा और यह पतझड़
और यह संध्या। महत्वपूर्ण है--
किसकी सुधि मन में जग आई,
गोपद-धूलि पंथ में छाई,
कांट उठे हैं प्राण विकल हो
लगन लगी राही को घर की!
अति उदास संध्या पतझर की!
माना, संध्या है, उदास
है! मगर अगर तुम्हें घर की याद आ जाए तो उदासी मिट जाए--संध्या सुबह हो सकती है।
पतझर मधुमास हो सकता है। यह जो छोटी सी थाप पड़ी है तुम्हारे द्वार पर, इसे चूक मत जाना। यह जो धीमी सी आवाज तुम्हें सुनाई पड़ी है अपने ही अंतर
की, इसको फिर भीड़-भाड़, शोरगुल में खो
मत देना। जिंदगी तो गयी, जाने दो, अगर
यह किरण पकड़ ली तो कुछ भी गया नहीं, कुछ भी खोया नहीं। सब
खोकर भी सब पा लिया जाएगा। एक नया सूत्र-पात्र हुआ है।
बाट किस की जोहते हैं
आज फिर मेरे नयन?
प्यास बढ़ती जा रही है
देख मृग जल का मनोहर।
लक्ष्य मृग जल को मनोहर।
लक्ष्य अपना पा सकूंगी
क्या कभी मैं मुक्त होकर?
हास, रोदन में रमा है
आज मेरा हृदय उन्मन!
कंटकों की सेज पर ही
जब इसे सोना पड़ा।
कब भला अधिकार के हित
जा किसी से यह लड़ा?
मिल गई थी किंतु कैसे
एक आशा की किरण?
मिल गई दो बूंद जल की
तृप्ति क्यों होती नहीं?
प्राण की इच्छा अपूरण
शांति से सोती नहीं।
कह रहा है कौन मुझसे
शीध्र आ मेरी शरण।
बाट किसकी जोहते हैं
आज फिर मेरे नयन?
पुकारा है परमात्मा ने तुम्हें।
कह रहा है कौन मुझसे
शीध्र आ मेरी शरण।
यह घड़ी आ गयी।
बुद्धं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि।
धम्मं शरणं गच्छामि।
कह रहा है कौन मुझसे
शीध्र आ मेरी शरण।
बाट किसकी जोहत हैं
आज फिर मेरे नयन?
यह जो किरण आयी है, यह
मुमुक्षा की किरण है। और ठीक समय पर आ गयी। मौत के पहले आ गयी। अभी जीवन है,
अभी जागने का अवसर है। इस किरण के लिए परमात्मा को धन्यवाद दो! इस
किरण के लिए अनुगृहीत अनुभव करो, इस स्वप्न मत कहो! स्वप्न
कहा तो यह स्वप्न हो जाएगी। स्वप्न कहा तो यह हाथ से खो जाएगी। क्योंकि जिसे हम
स्वप्न कहते हैं, उसे हम हाथ से छोड़ देते हैं। जिसे हम सत्य
कहते हैं, उसे हम पकड़ लेते हैं। और अक्सर ऐसा हो जाता
है--सपनों को भी पकड़ लो तो सत्य हो जाते हैं और सत्यों को भी छोड़ दो तो स्वप्न हो
जाते हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, प्रेम की
चुनरी ओढ़ा दी है आपने।
खूब-खूब अनुग्रह से भर गयी
हूं।
उर्मिला,मैं तो बस
निमित्त हूं। मेरे हाथ उसके ही हाथों का काम कर रहे हैं: यह जो चुनरी मैंने
तुम्हें ओढ़ा दी है प्रेम की, यह उसने ही ओढ़ा दी है, उसे ही धन्यवाद देना। मुझे बीच में मत लेना। मुझे मत अटकना। मुझे तो
संदेशवाहक समझो। जैसे पत्रवाहक आता है और चिट्ठी दे जाता है। जिसका पत्र है उसको
तुम उत्तर देते हो, पत्रवाहक आता है और चिट्ठी दे जाता है।
जिसका पत्र है उसको तुम उत्तर देते हो, पत्रवाहक को नहीं।
मैंने तो केवल उसकी चुनरी तुम्हें सौंप दी, उसकी ही याद करना,
उसको ही धन्यवाद देना, उसका ही गीत गाना। अभी
और बहुत कुछ होने को है। यह तो चुनरी जुड़ गयी थी, थोड़ा संबंध
बना। अभी बहुत कुछ मिलने को, अभी बहुत कुछ बरसने को है।
पंछी बोले भोर हो गई!
कलियां फूल बनी कुछ हंसकर,
भौंरे मुग्ध हुए रस पीकर,
रजनी अपने आंसू से प्रिय चरण धो गई!
पंछी बोले भोर हो गई!
ऊषा ने खोला जब घूंघट,
गूंज उठा कलरव से पनघट,
नक्षत्रों की पांति न जाने कहां खो गई?
पंछी बोले भोर हो गई!
रोई रात ओस बिखरकर,
चांद छिपा पल भर मुस्काकर,
प्राणों में सिहरन भर कर जब व्यथा रो गई!
पंछी बोले भोर हो गई!
उर्मिला, सुबह हो रही है! पंछी जो गीत गा
रहे हैं सुबह का, उनके कारण सुबह नहीं हो रही है, सुबह होने के कारण पंछी गीत गा रहे हैं। मैं जो तुम्हें पुकार रहा हूं,
मेरे पुकारने के कारण परमात्मा नहीं है, परमात्मा
के कारण मैं पुकार रहा हूं। तुम तो इतना ही समझना मुझे जैसे के पंछी गीत गाते हैं।
सुबह के पंछियों का गीत गाना सिर्फ भोर होने की खबर है। और बुद्धपुरुषों ने जो गीत
गाए हैं, वह सब सुबह के पंछियों के गीत हैं। जिनने सुन लिए
वह धन्यभागी हैं! अभागे बहुत हैं। वह और करवट लेकर कंबल को और सिर पर फैलाकर और
गहरी नींद मग सो जाते हैं। शायद उन्हें नाराजगी भी आती है कि यह पंछियों ने बकवास
क्यों लगा रखी है! यह पंछी शोरगुल क्यों कर रहे हैं, सोने भी
नहीं देते! अधिक लोग तो नाराज होते हैं अगर उन्हें जगाओ तो।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। मेरे
एक अध्यापक थे। मैं रोज सुबह चार बजे घूमने जाता। उन्होंने भी जिंदगी भर बड़ी कोशिश
की थी कि सुबह चार बजे उठकर कभी घूमे। मगर कोशिश कभी सफल नहीं हो पायी थी। मुझसे
उन्होंने कहा कि तुम रोज घूमने जाते हो, मेरी जिंदगी भर से आशा है कि
ब्रह्ममुहूर्त में कभी मैं भी उठूं, मगर यह हो ही नहीं पाता।
मैं तो नौ बजे के पहले, पाठ-नौ के पहले उठ ही नहीं पाता।
मैंने कभी सुबह का सौंदर्य और सुबह की ताजगी अनुभव नहीं की। अगर तुम मुझे उठाओ तो
शायद बात बन जाए। मैंने कहा, मैं उठाऊंगा। उन्होंने कहा
लेकिन मैं एक प्रार्थना करता हूं, जब तुम उठाओगे तो मैं
आसानी से राजी नहीं होऊंगा। क्योंकि मेरे पिता भी मुझे उठाते थे, खींचते थे तो भी मैं उठ नहीं पाता था; बस सुबह तो
मैं बिलकुल बेहोश हालत में होता हूं। अलार्म बजता है तो घड़ी को पटक देता हूं। और
मैं ही अलार्म भर कर सोता हूं राम। मैंने कई घड़ियां तोड़ डाली हैं, कि यह दुष्ट घड़ी सुबह-सुबह फिर बजने लगी। धीरे-धीरे मेरे परिवार के लोगों
ने यह बात ही छोड़ दी। सब से मैं कह चुका हूं कि उठाओ। जो भी मुझे उठाता है,
उससे ही झगड़ा हो जाता है सुबह। तो यह मैं तुम्हें बता देता हूं।
मैंने कहा, आप उसकी फिकर छोड़ो। आप अपनी सम्हाल रखना!
उन्होंने कहा, मतलब? मैंने कहा कि मैं
भी जिस काम में लग जाता हूं, फिर लग ही जाता हूं। अगर तुम
जिंदा मिले, तो उठाऊंगा ही! अब मर ही जाओ तो बात अलग है।
तो मैं तीन-चार लोगों को लेकर पहुंचा। मैंने
कहा कि अब पता नहीं,
अकेले से सम्हलें कि न सम्हलें! उठा-उठाकर खींचा उनको, चांटे भी लगाए। मेरे अध्यापक थे, बड़े गुस्से होने
लगे, आंखें तरेरने लगे कि तुम मेरे विद्यार्थी होकर मुझे मार
रहे हो, मैंने कहा इस वक्त कोई विद्यार्थी नहीं और कोई
अध्यापक नहीं। इस वक्त जगानेवाला और सोने वाला। यह बकवास नहीं चलेगी। आज
ब्रह्ममुहूर्त का दर्शन करवाएंगे। खींच-खींचकर, बाल्टी भर
पानी उनके ऊपर डालकर--वे गाल देते जाएं; उन्हें मैंने कभी
गालियां देते नहीं देखा था, एकदम गालियां देने लगे, कि बदतमीज हो तुम लोग, ऐसे हो, वैसे हो; हमने कहा इस सब से कोई सार नहीं है,
आप बकते रहो--जबर्दस्ती उनको कपड़े पहना दिए। उनको लेकर बाहर घुमाने
चले--चार आदमी उनको पकड़े हुए। जब सुबह की ताजगी ने थोड़ा उन्हें शांत किया और जब
ऊगते सूरज के आनंद को उन्होंने देखा, बहुत माफी मांगने लगे
कि क्षमा करना हमने जो गालियां दीं। हमने कहा, आपको क्षमा
मांगना ठीक नहीं, हमें क्षमा मांगनी चाहिए कि हमने जो आपको
इतना सताया; और मारा भी आपको! विद्यार्थी होने के नाते हमें
आपको मारना नहीं चाहिए। क्षमा हम मांगते हैं! मगर इसके सिवाय और कोई उपाय न था।
तुम्हें जिन्होंने भी जगाया है, उनसे तुम
नाराज हुए। नींद प्यारी लगती है। क्योंकि नींद की छाया में प्यारे सपने चल रहे
हैं। कैसे-कैसे सपने हैं तुम्हारे! यह कर लूं, वह कर लूं;
यह हो जाऊं, वह हो जाऊं। बड़े-बड़े साम्राज्य
तुम बना रहे हो। बड़े सोने के महल खड़ेकर रहे हो। और ऐसे में कोई आकर जगा दे,
और ऐसे में कोई जगाने के पीछे पड़ जाए, और तुम
लाख उपाय करो और छोड़े न--तो बुद्धों पर लोग नाराज रहे। उनकी नाराजगी बिलकुल
स्वभाविक है। इसे बुद्धों ने बड़े प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है।
जीसस ने मरते वकत परमात्मा से प्रार्थना की
कि है प्रभु,
इन सबको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं
है यह क्या कर रहे हैं! जो इन्हें जगा रहा था, उसको मार रहे
हैं। जो इनके सपने तोड़ रहा था, उसको फांसी लगा रहे हैं। और
इन्हें माफ कर देना, क्योंकि यह बेचारे सब सोए हुए लोग हैं।
यह अपने बचाए कि मुझे बचाएं? दो में से एक ही बच सकता है।
अगर मैं रहूंगा तो इनकी नींद में दखल डालता रहूंगा। अगर मैं न रहूं, तो यह निश्चित सो सकते हैं।
उर्मिला, मेरा काम तो इतना है जो सुबह के
पक्षियों का, भोर की खबर दे रहा हूं। और भोर सदा से ही है।
सुबह के पक्षी कभी-कभी होते हैं, यह मुश्किल है। इसलिए जो
सुन ले, वह धन्यभागी है! और तुमने मेरी बात सुनी, तुम्हारे हृदय तक बात पहुंच गयी है--इसलिए तुम कह रही हो कि खूब-खूब
अनुग्रह से भर गयी हूं। इस अनुग्रह को अपने ही भीतर संभालकर मत रख लेना। इसे
बांटो। क्योंकि यही एक उपाय अनुग्रह प्रकट करने का--जो मिला, उसे बांटो। और एक ही रास्ते पर, एक ही अधिक से अधिक
लोगों तक इस अमृत की खबर पहुंच सके। और जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है--मकानों की
मुंडेरों पर चढ़ा जाओ और वहां से चिल्लाओ। क्योंकि जब तक तुम चिल्लाओगे न, लोग इतनी गहरी नींद मग सोए हैं कि जाग न सकेंगे। तो जिसको भी मेरे पास
थोड़ा स्वाद मिले, थोड़ी भोर की भनक मिले, थोड़े सूरज की किरण हाथ आए, उसके पास धन्यवाद का एक
ही उपाय है कि वह बांटे लुटाए।
उर्मिला, लुटाओ! कहो! गाओ-गुनगुनाओ!
तुम्हारे व्यक्तित्व से प्रकट होने दो!
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता!
मूक ही जलते तृषा से दग्ध मरु-पाषाण व्याकुल
मूक ही जलते सितारे--मूक जलते दीप घुल-घुल
काश! मैं भी मूक रहता--सोख तृष्णा की अमावस
हो न पाता यह मुखर आराधना का सिंधु--पावस
और खामोशी न पूछो! बीत जाता मौन जीवन
शेष गीतों में कहां यों भी हुआ जाता निवेदन
तो कदाचित कुछ जलन में तृप्ति का आभास होता
मूक रह पाता वियोगिनी! मूक भी मैं रह न
पाता!
प्राण जलते, होंठ जलते, मूक निश्चल डोलता मैं
दर्द की रानाइयों में पर न अंतर खोलता मैं
देखता दिन-रात लगते आग मधुबन में निरंतर
देखता जलती जवानी एक खोया स्वप्न पाकर
देखता तूफान घिरते किंतु घुट जाते जिगर में,
वस्त्रहीन से बंधे चीत्कार चलते बंद घर में
प्यास का अवसाद मेरा पाप यह वरदान होता
मृत्यु बंदी कर न सकती जन्म का
निर्मूल्य-नाता
पर तुम्हारी प्रीति पा ली मैं इसे कैसे
छिपाता?
दर्प संचित मर्म में जो--मैं उसे कब तक न
गाता
भूल कब इस जन्म की यह युग-युगों की प्यास
आली
तृप्ति सूनी ही न जब जीवन-मरण के द्वार खाली
तृप्ति--हां! चिर तृप्ति ही! जब कल्पना की
आंच में जल
दग्ध होते प्राण मेरे इन अभावों में अंचल
भस्म होता किंतु जितना--भीगती यह साध मेरी
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता!
हो रही अनुभूति--जैसे प्रतिध्वनित तुम
व्याप्त प्रतिपल
विश्वव्यापी स्वर विरह का बस तुम्हारा दाह
उज्ज्वल
आज तो तुम स्वप्न पर चिर सत्य यह मेरी
मुखरता
शेष फिर भी लालसा--जैसे न क्षण-भर मर्म भरता
यह तुम्हारी व्याप्ति जीवन में न जब तक
शांति लाती
बस समझ लो है अधूरी प्राण! तेरी ज्योति-बाती
आग वह कैसी न जिससे हों तरंगित नीर-निर्झर
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता!
चाहिए फिर आज मुझको साधना की ज्योतिधारा
प्रज्वलित दीखे सदा आलोक मंगलमय तुम्हारा
अस्त रवि की तमत्तृषा से हों निविड़ जब सांझ
के पट
मुक्त हो--निर्बंध होत मेरी किरण के रूप का
घट
और देखूं--शेष सीमा पर विकल तेरी दीपाली
मस्त रजनी गा उठे--मैंने तुम्हारी प्रीति
पाली
गूंजती मेरी तरंगें--यह विसर्जन सुख अनोखा
आज व्याकुल बाहुओं से मैं तुम्हारा पथ सजाता
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता
उस प्रभु के प्रेम की थोड़ी सी झलक मिले तो
मूक तुम रहना भी चाहो तो न रह सकोगे। कहना ही होगा! और जानते हुए कि कह कर भी कहा
नहीं जा सकता। वह गीत कभी गाया नहीं जा सकता, फिर भी गुनगुनाता तो होगा। वह
नृत्य की नाचा नहीं जा सकता, फिर भी घूंघर तो पैर में बांधने
होंगे। फिर भी मृदंग तो बजानी होगी, फिर भी वीणा के तार तो
छूने होंगे। वह अव्यस्त व्यक्ति नहीं होता। लेकिन फिर भी जब उसकी बाढ़ जाएगी भीतर,
तो बांटे बिना कोई चारा नहीं।
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता!
चाहो तो भी चुप नहीं रह सकते। चाहना भी मत!
चुप रहने की जरूरत भी नहीं है। जिस दिन तुम्हारे मन में ऐसा हो कि मुझे धन्यवाद
देना है, उस दिन जान लेना कि घड़ी आ गयी बांटने की। जो मिला है, लुटाओ!
पर तुम्हारी प्रीति पा ली मैं इसे कैसे
छिपाता?
मूक रह पाता सजनि! मैं मूक भी तो रह न पाता!
और जानते है--
शेष गीतों में कहां यों भी हुआ जाना निवेदन
कहना जो है, कहा न जा सकेगा। फिर भी
कहना तो होगा। क्योंकि तुम्हारे कहने के प्रयास में ही बहुतों की प्यास प्रज्वलित
हो उठेगी। तुम्हारे कहने की असफल चेष्टा में ही बहुतों के भीतर उस पर स्वाद को
पाने की तड़फ जग उठेगी। तुम बहुतों के तार छू दोगे, गीत गा
सको कि न गा सको, लेकिन बहुत हृदयों के तार झंकृत हो सकेंगे।
फैलाओ प्रेम के गीत को, गाओ परमात्मा के गीत को, वही एकमात्र धन्यवाद है।
उर्मिला, तूने पूछा: प्रेम की चुनरी ओढ़ा दी
है आपने। अब इस प्रेम की चुनरी को औरों पर भी ओढ़ाओ। और ध्यान रखना एक शाश्वत नियम,
प्रेम ऐसी संपदा है, बांटो तो बढ़ती है,
न बांटो तो घटती है। साधारण अर्थशास्त्र लागू नहीं होता प्रेम की
संपदा पर। साधारण अर्थशास्त्र का नियम है--बांटो तो कम होगी, बचाओ तो बढ़ेगी। भीतर के अर्थशास्त्र का नियम है--बांटो तो बढ़ेगी संपदा,
न बांटा तो जो है वह भी खो जाएंगी।
जिन्होंने भीतर का सत्य जाना है, उन्होंने
दान को धर्म कहा है। दान का मतलब इतना हनीं है कि तुम किसी को दो पैसे दे दो। वह
कोई दान है! तुम कुछ लेकर तो आए न थे, किसी से दो पैसे छीन
लिए थे, फिर किसी को दे दिए--वह कोई दान है! तुम कुछ ले तो न
जाओगे; जो यहां छूट ही जाएगी वह अगर दे भी गए तो दान क्या!
नहीं, उस दान का अर्थ नहीं है। दान बड़ा अदभुत शब्द है। दान
का अर्थ है, तुम्हारे भीतर जो है, तुम
जो हो, उसे बांटो। स्वयं को बांटो। और उस बांटने में ही
तुम्हारी आत्मा बड़ी होती जाएगी, विराट होती जाएगी।
बांटते-बांटते ही आत्मा परमात्मा हो जाती
है।
चौथा प्रश्न:
भगवान,
बहाने और भी होते जो
जिंदगी के लिए
हम एक बार तेरी आरजू भी खो
देते।
कृष्ण भारती, बहाने और
भी होते, तो भी तुम उसकी आरजू खो नहीं सकते थे। कोई बहाना
उसकी आरजू खोने का बहाना नहीं बन सकता। क्योंकि कोई पाना बिना उसे पाए पाना नहीं
है। परमात्मा को पाए बिना आदमी भिखमंगा ही रहता है। कुछ भी पा ले। बड़े साम्राज्य
बना ले।
याज्ञवल्क्य, भार का एक प्राचीन ऋषि,
घर छोड़कर जाने लगा वन की ओर। उसकी दो पत्नियां थी। उसके पास अपार
संपदा थी। उसने कहा, मैं तो अब जाता हूं, यह संपत्ति आधी-आधी तुम दोनों को बांट देता हूं। एक पत्नी तो बहुत
आह्लादित हुई--पत्नि जैसी पत्नी रही होगी। शायद इसी संपत्ति के लिए याज्ञवल्क्य से
विवाह किया होगा। यह अच्छा ही हुआ, कि यह झंझट मिटी, यह सज्जन चले भी और अपार संपदा छोड़ जाते हैं! अब मौज मजा होगा।
लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा, जब आप
छोड़कर जा रहे हैं इस संपदा को, तो एक बात तो तय है कि यह
संपदा संपदा नहीं। नहीं तो आप क्यों छोड़ते? और जिसे आप छोड़
रहे हैं, उसे मुझे क्यों उलझाते हैं? मुझे
क्यों दे जाते हैं? अगर आपने छोड़ने योग्य पाया, तो इस कूड़ा-कर्कट को मुझे क्यों दे जाते हैं? फिर
मुझे भी वही बताइए जो असली संपदा हो, जिसकी तलाश में आप जाते
हैं। मैं इस संपदा का क्या करूंगी?
ठीक बात उसने कही। सीधी सी बात है, साफ-साफ
बात है, कि अगर इस संपदा से आपको कुछ नहीं मिला, तो मुझे क्या मिल जाएगा?
मगर इतने बुद्धिमान बहुत कम लोग होते हैं, जो दूसरे
के अनुभव से सीख लें। तुम जरा धनियों की आंखों में तो झांककर देखो, निर्धनता पाओगे वहां! तुम बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों के भीतर तो झांको,
वहां बड़ी हीनता पाओगे। मनोवैज्ञानिक तो कहते ही हैं, सिर्फ हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोग ही पदाकांक्षी होते हैं, महत्वाकांक्षी होते हैं। हीनता की ग्रंथि से जो पीड़ित हैं, वे ही राजनीति में प्रवेश करते हैं। राजनीति में प्रतिभाशाली लोग नहीं
जाते। संयोगवशात कभी कोई प्रतिभाशाली आदमी राजनीति में मिल जाए, बात और। अपवाद स्वरूप। लेकिन सामान्यता राजनीति में जाता ही है रुग्णचित्त
व्यक्ति, जो इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स, हीनता
की गहन ग्रंथि से भरा हुआ है। जो जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं और बताना चाहता है
कि मैं कुछ हूं, और एक ही उपाय दिखायी पड़ता है कि हाथ में
शक्ति हो, पद हो, सत्ता हो। फिर अगर
सत्ता सेवा करने से मिलती हो तो सेवा भी करता है। मगर लक्ष्य सत्ता का है। किसी
तरह पद पर बैठ जाए!
लेकिन जरा पद जिनके पास हैं, उनके भीतर
झांकना। वहां न विश्राम है, न आनंद है, न प्रेम है। हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रेम ही होता तो पद के लिए जो
संघर्ष करना पड़ता है वह करना मुश्किल हो जाता। उसमें तो कई गर्दनें काटनी पड़ती
हैं। कई लोगों को सीढ़ियां बनाना पड़ता है, उनकी लाशों पर पैर
रखकर चढ़ना पड़ता है। दिल्ली कोई ऐसे ही नहीं पहुंच जाता! पीछे बड़ा मरघट छोड़ जाना
पड़ता है, तक कोई दिल्ली पहुंच पाता है। न मालूम कितने लोगों
को दुखी और पीड़ित करना होता है, तब कोई दिल्ली पहुंच पाता
है। अगर प्रेम होता तो यह संभव ही नहीं था। और इतने लोगों को दुखी और पीड़ित और
पराजित करके जो पहुंच जाएगा पद पर, वह चैन से कैसे रह सकता
है? क्योंकि वे सब लोग बदला लेने को आतुर रहेंगे। और जो पद
पर पहुंच जाएगा--कोई अकेला ही तो पदाकांक्षी नहीं है, सारा
मनुष्यों का जगत तो पदाकांक्षी है, सारी पृथ्वी तो रोग से
भरी है महत्वाकांक्षा के, हर बच्चे में तो हमने जहर घोल दिया
है महत्वाकांक्षा--तो तुम अकेले ही पद पर थोड़े ही पहुंचते हो, सारे लोग पहुंच रहे हैं उसी पद पर, तो बड़ी
धक्का-धुक्की है, बड़ी मारामारी है। चैन कहां? विश्राम कहां?
कितना ही पा लो इस जगत में, कुछ मिलता
नहीं। लेकिन इतने बुद्धिमान कम लोग होते हैं, जितनी
याज्ञवल्क्य की पत्नी थी, जिसने कहा कि जब आपको कुछ नहीं
मिला, तो मुझे दे जाते हैं? मुझे भी
वही मार्ग दिखाए।
तुम जरा गौर से अपने चारों तरफ देखो, अगर तुम
में जरा भी बुद्धि है तो एक बात समझ में आ जाएगी कि संसार में पाने योग्य कुछ भी
नहीं है। और इस बोध की घड़ी का नाम ही संन्यास है।
तुम कहते हो,
बहाने और भी होते जो जिंदगी के लिए,
हम एक बार तेरी आरजू भी खो देते।
नहीं, कृष्ण भारती, कोई बहाना उसके पाने के लिए रुकावट नहीं बन सकता। सब बहाने आज नहीं कल टूट
जाते हैं। भ्रामक सिद्ध होते हैं,मृगमारीचिकाएं सिद्ध होते
हैं। पाना तो उसी को होगा, बाकी बहाने तो सिर्फ भुलाने के
बहाने होते हैं। हां, थोड़ी देर अटका लो, उलझा लो, भरमा लो; थोड़ी देर
खिलौना हैं, खेल लो।
इसलिए खिलौने बदलने पड़ते हैं रोज-रोज। आज के
खिलौने कल बासे हो जाते हैं, कल फिर ताजे खिलौने खोजने पड़ते हैं। फिर थोड़ी
देर उलझे रहो, फिर ताजे खिलौने खोजने पड़ेंगे। जिंदगी में हम
खिलौने बदलते रहते हैं और मर जाते हैं। लेकिन याद रखना, कितने
ही खिलौने बदलो और कितने ही रास्ते बदलो और कितने ही उपाय खोजो उससे बचने के,
उसकी याद से नहीं बच सकते। आज नहीं कल उसकी याद उभर-उभर कर आएगी।
क्योंकि वह हमारा स्वभाव है। वह हमारी अंतरात्मा है। उसे न पाया तो हमने अपने को
गंवाया।
तुम्हें भुला देने को मैंने
कितने अलग रास्ते बदले,
किंतु तुम्हारे पांव जहां भी
जाता हूं अंकित मिलते हैं।
वह बांसुरी तोड़ दी मैंने जिसमें बंद
तुम्हारे स्वर थे,
वे सब जगह खुरच दी मैंने जहां तुम्हारे
हस्ताक्षर थे,
तुम्हें भूला देने को मैंने
रोपे फूल, लताएं सींचीं,
किंतु तुम्हारी देह-गंध ही
देते हुए सुमन खिलते हैं।
खोले द्वार सभी वे जो खुद तुमने बंद किए थे,
वे सब काम किए गिन-गिन कर बेहद तुमको नापसंद
थे,
तुम्हें भूल देने को मैंने
महलों से संबंध बनाए:
उनकी छायादार गली में
चलते मगर पांव जलते हैं।
इतनी भीड़ जुटाई मैंने चारों ओर खड़े अपने हैं,
लगता है लेकिन सबके सब सिर्फ अपरिचित हैं, सपने हैं,
तुम्हें भुला देने को तुमसे
कितनी दूर चला आया हूं;
किंतु तुम्हारी तरह यहां भी
वृक्ष मुझे पंखा झलते हैं।
नहीं भागा नहीं जा सकता। भागने का कोई उपाय
नहीं, क्योंकि परमात्मा सब जगह है, जहां जाओगे, उसीको पाओगे।
तुम्हें भूला देने को तुमसे
कितनी दूर चला आया हूं;
किंतु तुम्हारी तरह यहां भी
वृक्ष मुझे पंखा झलते हैं।
कहां जाओगे? उसके वृक्ष, उसके चांदत्तारे, उसका सूरज, उसके
पक्षी उसके पहाड़, उसके नदी-नद, उसके
झरने, उसे सागर--कहां बचोगे? कैसे
बचोगे? और तुम भी तो वही हो, तुम्हारी
श्वास में भी तो वही आता-जाता और तुम्हारे हृदय में वही धड़कता है।
तुम्हें भुला देने को मैंने
कितने अलग रास्ते बदले,
किंतु तुम्हारे पांव जहां भी
जाता हूं अंकित मिलते हैं।
कहां जाओगे? कैसे बचोगे उससे? उसका मंदिर फैला है, अनंत। उसके मंदिर में ही हम
हैं। जहां भी तुम हो, पवित्र भूमि पर खड़े हो। जहां भी तुम हो,
तीर्थ है। आदमी चेष्टा तो सब करता है।
वह बांसुरी तोड़ दी मैंने जिसमें बंद
तुम्हारे स्वर थे,
वह सब जगह खुरच दी मैंने जहां तुम्हारे
हस्ताक्षर थे,
तुम्हें भुला देने को मैंने
रोपे फूल, लताएं सींचीं,
किंतु तुम्हारी देह-गंध ही
देते हुए सुमन खिलते हैं।
गुलाब में उसी की गंध है, और कमल
में भी और जूही में भी और केवड़े में भी--उसी की गंध है। गंध ही उसकी है। रंग ही
उसका है। इंद्रधनुष देखो, तो उसी के सात रंग। और कोई चरवाहा,
अलगोजा बजाने लगे, तो उसी के स्वर। और कहीं
मृदंग पर थाप पड़े, तो वही बज रहा है, वही
बजा रहा है। नहीं, भागने का कोई उपाय नहीं है। जागो। भागो
मत। उससे बचना संसार, उसमें डुबकी मारना संन्यास। और कहीं
हाथ फैलाने से होगा भी क्या! जब मालिकों का मालिक देने को राजी है, तुम झोली उसके सामने क्यों नहीं फैलाते? तुम भिखमंगे
से मांग रहे हो, जो खुद ही मांग रहे हैं!
मैंने सुना है, दो
ज्योतिषी रोज-सुबह बाजार जाने से पहले रास्ते पर मिलते थे। एक-दूसरे का हाथ देखते
थे। अच्छा रंग था, अच्छा ढंग था। एक-दूसरे का हाथ देखते थे
कि आज धंधा कैसा चलेगा? अगर तुम उसको हाथ दिखा रहे हो जो खुद
ही तुम्हें हाथ दिखा रहा है, तो जरा सोचो तो, जो अपना हाथ नहीं देख सकता!...
मैं जयपुर में था, राजस्थान
के एक बड़े ज्योतिषी को कोई मेरे पास ले आया। उन ज्योतिषी ने कहा, मेरी फीस तो एक हजार एक रुपया है। मैंने कहा, देंगे।
पहले आप हाथ तो देखो! हाथ देखो। फिजूल की बातें जैसे ज्योतिषी करते हैं, की। जब बात खतम हो गयी, तो मैंने कहा, ठीक नमस्कार! उन्होंने कहा, और एक हजार एक रुपया!
मैंने कहा, आज आपके भाग्य में एक हजार एक हैं ही नहीं।
उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं? मैंने
आपसे पहले ही कहा था कि एक हजार एक फीस। मैंने कहा, अपने कहा
होगा लेकिन भाग्य में भी तो होने चाहिए! मुझे हाथ दिखाइए! मैंने कहा, उसमें है ही नहीं। मैं भी क्या कर सकता हूं? मैं तो
देने को राजी हूं, मगर भाग्य के खिलाफ नहीं जा सकता। मैंने
उनसे कहा, कम से कम अपना हाथ तो घर से देखकर चला करो कि आज
कैसे आदमी से मिलना होगा! इतना भी नहीं कर पाए, मेरा हाथ
देखने चले हो, अपना हाथ नहीं देख पाए।
मगर यहां भिखमंगों के सामने लोग भीख मांग
रहे हैं। तुम जिससे भीखमांग रहे हो, वह तुमसे भीखमांग रहा है। यहां
कैसा मजा है! तुम जिससे प्रेम मांग रहे हो, वह तुमसे प्रेम
मांग रहा है? अगर उसके पास ही प्रेम होता, तो तुमसे क्यों मांगता? और अगर तुम्हारे पास प्रेम
होता, तो तुम उससे क्यों मांगते? प्रेमी
नहीं मांगते, प्रेम देते हैं। जिनके पास है, वे देते हैं, जिनके पास नहीं है, वह मांगते हैं। फिर मांगना ही जब हो, तो क्या छोटों
से मांगना!
मैं अब किसी विटप के आगे
फैलाऊंगा नहीं हथेली,
तुम चंदन, जब नहीं तुम्हीं से,
मेरा ताप हरा जाता है।
अगर परमात्मा ही ताप नहीं हर रहा है तो उसकी
मर्जी! मगर अब किसी और से क्या मांगना?
मैं अब किसी विटप के आगे
फैलाऊंगा नहीं हथेली,
तुम चंदन, जब नहीं तुम्हीं से,
मेरा ताप हरा जाता है।
जितनी गंध मुझे दी तुमने,
उससे अधिक महकता हूं मैं।
खाली पात्र दिया जो तुमने,
छूकर उसे बहकता हूं मैं।
मैं अब किसी चरक से अपनी,
पीड़ा जाकर नहीं कहूंगा,
तुम मरहम जब नहीं, तुम्हीं
से,
मेरा घाव भरा जाता है।
मेरा दान-पात्र जर्जर था,
यह तो थी सुपात्रता मेरी,
कंचन-पात्र दिखाकर लेकिन
कस्तूरी ले गए अहेरी।
प्रतिभा है निर्धन की बेटी,
इस शापित को कौन वरेगा,
तुम हो हृदय, न जब तुमसे ही,
उसका प्रणय वरा जाता है।
जब-जब मन ऊबा है घर से
बहलाया है चौराहों ने,
सूरज फिर जन्मेगा कल को,
धैर्य बंधाया चरवाहों ने,
अब मैं बहते हुए तृणों से,
संबल कभी नहीं मांगूंगा,
तुम हो पोत न तुमसे ही
लेकर मुझे तरा जाता है।
अब मैं बहते हुए तृणों से,
संबल कभी नहीं मांगूंगा,
क्या तिनकों से सहारे मांगने?
तुम हो पोत न तुमसे ही
लेकर मुझे तरा जाता है।
अगर परमात्मा का पोत तुम्हें नहीं लेकर तर
सकता, तो कौन तुम्हें लेकर तरेगा? अगर उसका चंदन तुम्हें
शीतल नहीं कर सकता, तो कौन तुम्हें शीतल करेगा? नहीं, छोड़ो और सब जगह मांगना, छोड़ो
सब और द्वार, उसके ही द्वार पर जमा दो अड्डा। हटना ही मत।
उसके द्वार पर दस्तक दिए ही चले जाना।
जीसस ने कहा है: खटखटाओ, खटखटाओ और
द्वार खुलेंगे; मांगो, मांगते ही रहो
और मांग पूरी होगी। पूछो और उत्तर मिलेगा। खोजो, खोजते ही
रहो, पाना सुनिश्चित है। हां, देर-अबेर
हो सकती है। मगर देर-अबेर उसकी तरफ से नहीं होती, तुम्हारे
मांगने में ही कुनकुनापन होता है, इसलिए होती है। तुम्हारे
मांगने में त्वरा नहीं होती, समग्रता नहीं होती। तुम्हारी
मांग तुम्हारे प्राणपण से नहीं होती, ऐसी ही होती है कि देखे,
शायद मिल जाए! ऐसे नहीं मिलेगा।
विवेकानंद अमरीका में बोलते थे; एक दिन
उन्होंने बाइबिल का उद्धरण दिया और कहा कि श्रद्धा है, अगर
पहाड़ों से भी कहो तो पहाड़ हट जाएं। एक बूढ़ी स्त्री उसी क्षण ताली बजाने लगी--बड़ी
प्रसन्न हो गया! उसके घर के पीछे ही पहाड़ था। और पहाड़ की वजह से वह बड़ी अड़चन में
थी। पहाड़ की वजह से न रोशनी आती थी घर में, न हवाएं, आती थी घर में। पहाड़ की छाया में पड़ गया था घर। और बूढ़ी, उसे सर्दी भी ज्यादा सताती थी। अगर रोशनी आ सके सूरज की! तो उसने कहा,
यह अच्छा हुआ, मैंने बाइबिल तो पढ़ी, कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। ठीक है, बाइबिल कहती तो
यही है। कि श्रद्धा पहाड़ों को हटा सकती है। उसने कहा, अभी
जाकर पहला काम यही करना है।
घर गयी, खिड़की पर पहाड़ देखा--कि अब आखिरी
बार देख लेना है--खिड़की बंद की, वहीं नीचे बैठकर उसने
कहा--है प्रभु, श्रद्धा से कहती हूं, हटा
दे इस पहाड़ को! बिलकुल हटा दे! ऐसी तीन-चार बार कहा, थोड़ी
देर आंख बंद किए बैठी रही, फिर उठी, फिर
खिड़की खोली। पहाड़ जहां था वहां ही था। उसने कहा, मुझे मालूम
ही था, ऐसे कहीं पहाड़ हटते हैं
मगर मालूम ही था कि ऐसे कहीं पहाड़ हटते हैं, तो कहने
में बल कैसे हो सकता है? मगर यह मालूम ही था कि पहाड़ नहीं
हटते, तो श्रद्धा कहां? वह तो वचन पूरा
ही नहीं हुआ! वचन वह है कि श्रद्धा पहाड़ हटा सकती है। मगर श्रद्धा हटा सकती है,
कहना नहीं। श्रद्धा ही नहीं है, तो पहाड़ क्या
तिनके भी नहीं हट सकते। और हमारी मुसीबत यही है। हम मांगते तो है, हम पुकारते तो हैं, लेकिन हमारी पुकार में जान ही
नहीं होती। जान चाहिए पुकार में तब तो उस तक पहुंच सकेगी! तब ही तो पहुंच सकेगी!
कुछ प्राण होने चाहिए पुकार में; कुछ बल, ऊर्जा होना चाहिए खुमार में। हम ऐसे ही बेमन से कि शायद हो जाए तो हो जाए,
हर्ज भी क्या है, बिगड़ता भी क्या है! हमारी
प्रार्थना नपुंसक है, इसलिए व्यर्थ जाती है।
मांगों, पूरे हृदय से मांगों और मिलेगा। और
जब मांगो तो छुद्र चीजें मत मांगना। क्योंकि छुद्र चीजें कभी पूरे हृदय से नहीं
मांगी जा सकती। चीजें ही छुद्र हैं, उनकी मांग कैसे समग्र हो
सकती हैं, उनकी मांग कैसे विराट हो सकती है? मांग तो एक ही विराट हो सकती है, उस परमात्मा की
मांग। उसको ही मांग लो। और जिसने मालिक को पा लिया, उसने सब
पा लिया।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, चरण तले
हृदय! दस वर्ष से अभी तीस वर्ष की उम्र तक गांव के, हरिद्वार-ऋषिकेश,
मथुरा-वृंदावन, नासिक-बंबई, कुंभ की साधु-महात्माओं की मंडलियों के साथ रहने और अनेकों बार करीब के
रिश्तेदारों की चिंताओं में आग लगाने तक के अवसर पर भी मुझे रोने का कभी अनुभव
नहीं हुआ। परमेश्वर की अनुभूति होने की आपकी कार्य-प्रणाली से घृणा होने के बावजूद
भी यहां आया। आपकी पुस्त अज्ञात सागर का आमंत्रण की एक ही पंक्ति--ज्ञान बाहर से
उपलब्ध नहीं होता--बस उसने ही संन्यास दे दिया। प्रवचन में चौंका देने वाले गणितः
याद रखना, सभी नाम परमेश्वर के हैं, और
सभी नाम झूठे हैं; प्रकृति की सभी वस्तुओं पर परमेश्वर के
हस्ताक्षर हैं, तुम हमेशा उससे घिरे हो--यह सुनकर प्रेमाश्रु
बहना तो दूर, इन्हें रोकने तक का उपाय भी नहीं मालूम!
भगवान, अब मैं
क्या करूं?
रामावतार, अब हृदय
भर कर रोओ! अब यह अपूर्व क्षण आ गया रोने का! आंसुओं से ज्यादा गहरी तो कोई और
प्रार्थना नहीं है। आंसुओं से ज्यादा प्रगाढ़ तो और कोई निवेदन नहीं है। आंसू ही
जोड़ते हैं। आंसू ही सेतु बनते हैं तुम्हारे परमात्मा के बीच। और आंसू ही, प्रेम के आंसू ही तुम्हारी आंखों को निर्मल करेंगे, स्वच्छ
करेंगे। और आंसू ही तुम्हारी आंख की धूल को बहा ले जाएंगे, और
आंख के पर्दे कट जाएंगे, आंख की जाली कट जाएगी। दृष्टि
उपलब्ध होगी। और आंसू न केवल आंख को साफ करते हैं, शुद्ध
करते हैं, हृदय को भी निर्मल कर जाते हैं और निर्दोष कर देते
हैं।
तुम कहते हो, साधु-संतों की मंडली में
रहा और आंसू कभी आए नहीं। साधु-संतों की मंडली ही न रही होगी। अहंकारियों की जमाते
हैं, वहां आंसू कहां? आंसू तो
निरअहंकारी के होते हैं। इसलिए तुम देखते हो, पुरुष कम रोते
हैं--पुरुष ज्यादा अहंकारी है अगर कोई पुरुष रोता हो तो लोग कहते हैं, क्या नामर्द, क्या रो रहे हो, क्या
स्त्रियों जैसा व्यवहार कर रहे? पुरुष की अकड़ और अहंकार
पुरुष को रोने नहीं देता। और फिर पुरुषों में भी जो त्यागी इत्यादि होता हैं,
उनका अहंकार तो और भी प्रगाढ़ हो जाता है। और जिन्होंने धूनी इत्यादि
रमा ली, और जिनको दस-पांच मूढ़ शिष्य मिल गए, उनका तो कहना ही क्या? वे तो भयंकर अहंकार से भर जो
हैं। वहां आंसू कहां? वहां तो हृदय सूख जाता है। वहां तो
रसधार बिलकुल सूख जाती है। वहां तो त्यागत्तपश्चर्या की अकड़ आ जाती है। वहां तो
व्रत-उपवास की अस्मिता आ जाती है। वहां तो मैंने संसार छोड़ दिया है, इसका भयंकर अहंकार प्रबल होने लगता है। तुम उन्हीं अहंकारियों के साथ रहे,इसलिए आंसू नहीं आए। तुम्हें भक्तों का साथ ही हनीं मिला। तुम्हें
प्रेमियों का साथ नहीं मिला।
और कोई साधु-संत कुंभ के मेलों में मिलेंगे!
कुंभ के मेलों में तो सर्कस पहुंचती हैं। तरहत्तरह के सर्कस--ग्रेट बाम्बे सर्कस
और ग्रेट रेमन सर्कस और ग्रेट राशियन सर्कस, सब तरह के सर्कस वहां पहुंचते हैं।
नागाओं का सर्कस देखो! और साधु-संतों की मंडलियां--अखाड़े! उन्हीं के पास तुम बैठे
रहे, इसलिए वहां आंसू नहीं आ सके।
यह कोई कुंभ का मेला नहीं है, यह तो
मधुशाला है। यह कोई मंदिर भी नहीं है, यहां तो प्रेमियों का
मिलन हो रहा है। यह तो दीवानों की एक जमात है। यहां तो हृदय को खिलाने का आयोजन
किया जा रहा है। बुद्धि को भरमने का नहीं, भाव को खिलाने का।
यहां अगर आंसू न आएं तो तुम पत्थर थे।
व्यर्थ गया सब स्नेह-समर्पण
व्यर्थ गया सब पूजन-अर्चन
वे न हिले-डोले मुसकाए, हम अपना
हिय हारे,
पत्थर के थे देव हमारे।
मुख पर ममता की माया थी
तन पर जड़ता की छाया थी
भिगो न पाए उनका आंचल, मेरे
निर्झर खारे,
पत्थर के थे देव हमारे।
जगमग-जगमग ज्योतित पातें
जिनको गिन-गिन काटी रातें
उनसे तो अच्छे ही निकले सूने नभ के तारे,
पत्थर के थे देव हमारे।
और तुम जिन मंदिरों में, जिन
तीर्थों में जाते रहे, उन पत्थरों पर तुम फूल चढ़ाते रहे!
पत्थरों के देवताओं के सामने बैठोगे, आंसू आएंगे भी कैसे?
होंगे भी तो सूख जाएंगे। तुम भी पथरीले हो जाओगे। जरा देवताओं को
गौर से चुनना! क्योंकि देवताओं को चुनने का अर्थ होता है, तुमने
अपना भविष्य चुन लिया। पत्थर मत पूजना, नहीं तो पत्थर हो
जाओगे। मुर्दे मत पूजना, अन्यथा मुर्दे हो जाओगे। भगोड़े मत
पूजना, अन्यथा भगोड़े हो जाओगे। तुम पूजा उसकी ही करोगे,
न जो तुम होना चाहते हो!
वही जीवंत देवता हो, तो झुकना।
और जहां भी जीवित कोई मंदिर होता है, तो उसका ढंग मधुशाला का
होता है। वहां तो भीतर की शराब ली-दी जाती है। वहां तो शराब पी पिलाई जाती है। वह
तो पियक्कड़ों का जमघट होता है।
रामावतार, भूल से तुम ठीक जगह आ गए।
धक्के खाते-खाते तुम इस किनारे भी लग गए। आश्चर्य की घटना है! क्योंकि तुम कहते हो,
परमेश्वर की अनुभूति होने की आपकी कार्य-प्रणाली से घृणा होने के
बावजूद भी यहां आया, आश्चर्य की घटना है! लेकिन अगर समझो
भीतर के गणित को, तो बहुत आश्चर्य की नहीं।
यहां दो तरह के लोग आते हैं--दो ही तरह के
लोग आ सकते हैं। और मैं चाहता हूं, सारी दुनिया को दो तरह के लोगों
में बांट दूं। इसी का उपाय कर रहा हूं। या तो मुझे प्रेम करो या घृणा करो। बीच के
आदमी मैं पसंद नहीं करता। और इसी काम में लगा हूं। या तो तुम्हें प्रेम करना पड़गा,
या घृणा करनी पड़ेगी। तटस्थ, तटस्थता मेरे साथ
चल नहीं सकती। तुम देखोगे दस-बीस साल के बीच कि या तो कोई आदमी मुझे घृणा करता है,
या कोई मुझे प्रेम करता है। बस दो में बंट जाएगी स्थिति। बढ़ती जा
रही, रोज बंटती जा रही है।
घृणा करनेवाले से मुझे बेचैनी नहीं है।
क्योंकि जो घृणा करता है,
वह आज नहीं कल प्रेम करेगा। क्योंकि घृणा प्रेम का ही उल्टा रूप
है--शीर्षासन करता हुआ प्रेम, सिर के बल खड़ा प्रेम। घृणा
बहुत दूर नहीं है प्रेम से। घृणा प्रेम की ही उल्टी दशा है। और जो शीर्षासन कर रहा
है, उसको पैर के बल खड़ाकर देना बहुत दिक्कत नहीं है, रामावतार, इसीलिए बात घट गयी! तुम आए, सिर के बल खड़े होगे, ज्यादा कुछ, अड़चन हमें करनी नहीं पड़ी, बस इतना तुम्हें बताना पड़ा
कि क्यों नाहक सिर को कष्ट दे रहे हो, परमात्मा ने तुम्हें
पैर के बल खड़ा होने के लिए बनाया है! अगर सिर के बल ही खड़ा करना था, तो सिर के बल ही खड़ा करना। तुम क्यों शीर्षासन कर रहे हो? और तुम्हें बात समझ में आ गया--इतनी सी बात है, सीधी-साफ
बात है। और तुम जल्दी से छलांग लगाकर पैर के बल खड़े हो गए--यही संन्यास है। उल्टे
को सीधा कर लेना, यही संन्यास है।
जो प्रेम करता है, वह भी
रूपांतरित हो जाएगा। और जो घृणा करता है, वह भी रूपांतरित हो
सकता है। लेकिन जो तटस्थ है, उदासीन है; जिसको न घृणा है, न प्रेम, उसके
साथ कोई संबंध न जुड़ सकेगा। क्योंकि उससे भावात्मक कोई नाता ही नहीं। जिससे घृणा
का नाता है, उससे भाव का नाता जो हो ही गया। मुझे घृणा करने
वाला भी रात-दिन मेरे संबंध में सोचता है--सोचना ही पड़ेगा उसे! प्रेम करने वाला
शायद कभी-कभी भूल भी जाए--और भी हजार काम हैं--मगर घृणा करने वाला तो सोचता ही है।
उसे तो सोचना ही पड़ेगा। और घृणा करनेवाला भी कभी न कभी आएगा--सोचेगा कि एक बार
जाकर देखना भी चाहिए, जिस आदमी को घृणा कर-करके हम अपनी
जिंदगी गंवा रहे हैं, इसको देख तो आना चाहिए कि मामला क्या
है? तुम यहां कभी आए नहीं थे और घृणा से भर गए थे? और ऐसे अनंत लोग हैं जो घृणा से भरे हैं, और यहां
कभी आए नहीं। उन्हें आना पड़ेगा, उनकी घृणा ही ले आएगी। और एक
बार तुम यहां आ गए, फिर तो तुम जानते ही हो...यहां सम्मोहन
चलता है! आदमी सम्मोहित हो जाते हैं! भले-चंगे आते हैं और बिलकुल गड़बड़ हो जाते
हैं! सब सूझ-बूझ खो देते! बड़ी बुद्धिमानी लेकर आते, आर सब
बुद्धिमानी रफूचक्कर हो जाती है। वही हालत तुम्हारी हो गयी। अब साधु-संतों के
सत्संगी रहे, विरागियों के साथ रहे, उदासीनों
के साथ रहे--बड़ा कचरा लाए होओगे! मगर कचरा कचरा ही है--एक चिंगारी पड़ जाए जरा सी
और राख हो जाता है।
ऐसी ही चिंगारी तुम्हारे भीतर पड़ गयी एक
छोटे से वचन से--ज्ञान बाहर से उपलब्ध नहीं होता।
छोटी-छोटी बातें हज--मैं कोई बड़ी बात कह ही
नहीं रहा हूं;
सीधी साफ बात कह रहा हूं, दो चार ऐसी बातें कह
रहा हूं। जिसके भीतर थोड़ी भी बुद्धि है, उसे उन बातों को
अंगीकार करना ही होगा। सुन भर ले, समझ भर ले! हां, कान मैं ही उंगलियां डालकर बैठ जाए तो बात अलग। बहरा ही हो जाए तो बात
अलग। आंखें ही न खोले तो बात अलग। नहीं तो यह सीधी-सीधी बातें हैं कि सभी नाम
परमेश्वर के हैं, और सभी नाम झूठे हैं। प्रकृति की सभी
वस्तुओं परमात्मा के हस्ताक्षर हैं। और किसके होंगे? नाम सभी
इसके हैं; और किसके होंगे? क्योंकि वही
सबके भीतर है। और नाम सब झूठे हज, काम-चलाऊं हैं, क्योंकि कोई बच्चा नाम लेकर आता नहीं। सर्टिफिकेट लिए नहीं चला आता,
अपने बगल में दबाए, कि यह मेरा नाम-पता
ठिकाना! बच्चा जब पैदा होता है तो बिना नाम के होता है। तुम्हें मालूम है, गुलाब को पता है उसका नाम गुलाब? अगर उसको मालूम
होता और तुम किसी दिन कहते कि रोज, एकदम नाराज हो जाता कि
बकवास बंद करो, मेरा नाम गुलाब है। रोज, मेरा नाम नहीं। लेकिन गुलाब को पता ही नहीं कि रोज नाम है, कि गुलाब नाम है, कि क्या नाम है--नाम है ही नहीं
उसका कुछ। नाम तुम्हारे दिए हैं, कल्पित हैं। नीम को नीम कहो
तो नीम है और आम कहो तो नीम है। कुछ भी नाम दे दो। नीम को कुछ पता ही नहीं चलता,
फर्क ही नहीं पड़ता। नाम से कुछ फर्क पड़ता है? लेबिल
कुछ भी लगा दो।
हमें लेबिल लगाने पड़ते हैं। नहीं तो यह
व्यवहार का जगत कैसे चले?
पहचान के लिए हमें नाम देने पड़ते हैं कि इनका नाम राम, इनका नाम रहीम। और मूढ़ता तो तब है जब राम धीरे-धीरे सोचने लगता है कि यही
मैं हूं। लेबल के साथ तादात्म्य हो गया। न तुम राम हो, न तुम
रहीम हो। कोई नाम सच्चा नहीं है; कल्पित है, कृत्रिम है--उपयोगी है जरूर, लेकिन यथार्थ से उसका
कोई संबंध नहीं है। और फिर भी मैं कहता हूं कि सभी नाम उसके हैं। क्योंकि नीम भी
उसी का नाम, आम भी उसी का नाम, गुलाब
भी उसी का नाम, राम उसी का नाम, रहीम
भी उसी का नाम। क्योंकि वही है और कुछ भी नहीं। सीधे-सीधे गणित हैं।
इन छोटी-छोटी, सीधी-सीधी बातों को सुनकर
तुम कहते हो--प्रेमाश्रु बहना तो दूर, इन्हें रोकने तक का
उपाय नहीं मालूम। रोकना मत! सौभाग्यशाली हो कि आंसू बहने लगे। पहली दफा सत्संग में
आए हो। पहली बार तीर्थ से जुड़े हो। जहां आंसू बहें वहां तीर्थ। जहां हृदय उमंग से
भर जाएं, उल्लास से भर जाए, आनंदमग्न
हो जाए; जहां भीतर गुनगुन होने लगे, जहां
पैर फड़कने लगें नाचने को, वहीं मंदिर। अब इन आंसुओं को
पुकारने दो परमात्मा को, यह आंसू तुम्हारी पुकार
बनेंगे--रोकना मत। अब तुम मुझसे पूछते--अब तो मैं क्या करूं? अब तुम कुछ न करना, इनको बहने दो, कृपा करके कुछ न करना! कहीं रोक न लेना, पुरानी
आदतवश सम्हाल न लेना कि यह मैं क्या कर रहा हूं? कहो मन कि
रामावतार, तुम जैसा पुरुष, सत्संगी,
साधु-महात्माओं के साथ रहा, बच्चों जैसा रो
रहा है! तुम जैसा ब्रह्मज्ञानी और बच्चों जैसा रो रहा है! रोक मत लेना। नहीं तो
चूक जाओगे! द्वार आते-आते कही ऐसा न हो कि छिटक जाओ! और कभी-कभी छोटी सी भूल भटका
देती है।
एक बौद्ध कथा है। एक आदमी एक महल में खो गया
है--बड़ा महल है। उस महल में एक हजार दरवाजे हैं, मगर नौ सौ निन्यानबे झूठे
हैं, सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, है दीवाल।
दीवाल पर चित्रित दरवाजे! जाओगे पास तो कुछ न मिलेगा, दीवाल
मिलेगी। दूर से देखोगे तो दरवाजा दिखाई पड़ेगा। एक दरवाजा सच है हजार दरवाजों में।
और वह आदमी खो गया है, वह भटक रहा है असली दरवाजे की तलाश
में। और वह नौ सौ निन्यानबे दरवाजों को पार करके, घंटों-घंटों
भटककर, थका-मांदा हजारवें दरवाजे के पास आता है--जो कि असली
है। मगर नौ सौ निन्यानबे जो नकली देखे हों, उसको असली पर भी
भरोसा नहीं आता। नौ सौ निन्यानबे भी बिलकुल ऐसे ही लगते थे, जरा
भी भेद न था, और गलत साबित हुए। अब यह हजारवां! इसके पास भी
वह वैसे ही आता है--उदास, थका-मांदा, घिसटता।
और तभी एक मक्खी उसके कान पर बैठ जाती है तो वह मक्खी को उड़ाने में आगे निकल जाता
है! वह हजारवां दरवाजा चूक गया। वह हजारवें दरवाजे को टटोल कर नहीं देखता। तुम उस
आदमी पर नाराज भी मत होना। जिसने नौ सौ निन्यानबे टटोलकर देखे हों और झूठे पाए हों,
हजारवें में उसकी क्या उत्सुकता हो सकती है? और
जरा सा कारण मिल गया कि मक्खी कान पर बैठ गयी आकर। वह मक्खी उड़ाने में लग गया और
आगे बढ़ गया। फिर निन्यानबे का चक्कर शुरू हुआ।
ठीक दरवाजा भी कभी-कभी मिलते-मिलते चूक जाता
है।
आंसुओं को रोकना मत। दबाना मत, यह
संन्यास जो मैंने तुम्हें दिया है, रामावतार, पुराने ढंग का सड़ा-गला संन्यास नहीं है। यह जीवंत संन्यास है। यह भगोड़ों
का संन्यास नहीं है, यह जीवन का प्रेम करने वालों का संन्यास
है। यह जीवन-विरोधी नहीं है, यह जीवन का सम्मान है, यह जीवन का समादर है। यह संसार में परमात्मा को छिपा मानता है। इसलिए
संसार को छोड़कर नहीं जाता। संसार को गौर से देखता है, खोजता
है--यही कहीं परमात्मा है। यह संन्यास जीने की क्षमता और साहस रखता है। तुम अपने
आंसुओं को प्रार्थना बनने दो।
मैंने तुम्हें पुकारा!
आते-जाते सांझ सवेरे,
संध्या को नभ के आंचल में
चमक उठा है तारा!
मैंने तुम्हें पुकारा!
अंधकार में दीप दिखाओ,
मुझको मेरी राह बताओ,
निर्बल हूं मैं, हे
करुणामय!
मुझको मिले सहारा!
मैंने तुम्हें पुकारा!
पथ के शूल मुझे हैं चुभते,
फूल डाल में हंसकर झुकते,
ढूंढ़ रही कण-कण में तुमको
मेरा मन अब हारा!
मैंने तुम्हें पुकारा!
गाकर मैंने दुख भुलाया
मधुऋतु में ही पतझड़ पाया।
भटक गया मेरा मन पागल
अब तो मिले किनारा!
मैंने तुम्हें पुकारा!
इहन आंसुओं को पुकार बनने दो! प्रार्थना
बनने दो! इन्हें रोकना मत,
इन्हें झर-झर झरने दो! इन्हें निर्झर बनने दो! इन्हें बहने दो,
यही उसके चरणों में पहुंच जाएंगे। यही उसके चरणों को पखारेंगे! यही
तुम्हारे आंखों के फूल तुम्हारे अर्चना के फूल हैं! और इसी मार्ग से वह अनूठी घटना
घटेगी, जिसका स्पर्श मात्र अमृत से जोड़ जाता है।
महकी-महकी बेला उग आएगी:
आंगन को सिर्फ चरन से छू भर दो।
हर दुख के समय उपस्थित राहत है
आंसू कोई ऐसा संबंधी है!
गीतों का तुम तक आना-जाना है,
मुझ पर लेकिन यह भी पाबंदी है।
अंधी किस्मत को दृग मिल जाएंगे,
माथे को सिर्फ नयन से छू भर दो।
कुछ मस्ती उनसे मिली विरासत में
जिन लावारिस गलियों ने पाला था!
रीत घट बांध कतारें आगे थे
मैंने जब घर से पांव निकाला था।
देखो, यह अश्रु सुमन बन जाएंगे:
लोचन को सिर्फ वसन से छू भर दो।
जिसका ग्राहक मिलना ही मुश्किल है
ऐसी माला में गूंथ दिया मुझको!
जो कलियां मुझसे अब तक सहमत हैं,
उन कलियों ने बदनाम किया मुझको।
जिसमें अपना प्रतिबिंब निहारा हो:
मुझको बस उस दर्पण से छू भर दो।
महकी-महकी बेला उग आएगी:
आंगन को सिर्फ चरन से छू भर दो।
जरा सी पुलक, जरा सा स्पर्श उस परमात्मा
का और क्रांति घट जाती है! लोहा सोना हो जाता है! कंकड़ हीरे हो जाते हैं!
देखो, यह अश्रु सुमन बन जाएंगे:
लोचन को सिर्फ वसन से छू भर दो।
महकी-महकी बेला उग आएगी:
आंगन को सिर्फ चरण से छू भर दो।
आज इतना ही।
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