देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
सत्ताईसवां प्रवचन
गांधी पर पुनर्विचार
मेरे प्रिय आत्मन्!
डॉ. राममनोहर लोहिया मरणशय्या पर पड़े थे। मृत्यु और जीवन के बीच झूलती
उनकी चेतना जब भी होश में आती तो वह बार-बार एक ही बात दोहराते। बेहोशी में, मरते क्षणों में वे बार-बार यह कहते सुने गए। मेरा देश सड़ गया है, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है। यह कहते हुए उनकी मृत्यु हुई। पता नहीं उस
मरते हुए आदमी की बात आप तक पहुंची है या नहीं पहुंची। लेकिन राममनोहर लोहिया जैसे
विचारशील व्यक्ति को यह कहते हुए मरना पड़े कि मेरा देश सड़ गया, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है, तो कुछ विचारणीय है।
क्यों सड़ गई है देश की आत्मा? किसी देश की आत्मा सड़
कैसे जाती है? जिस देश में विचार बंद हो जाता है उस देश की
आत्मा सड़ जाती है। जीवन का प्रवाह है, विचार का प्रवाह है।
और जीवन का प्रवाह जब रुक जाता है, विचार का प्रवाह जब रुक
जाता है, तो जैसे कोई सरिता रुक जाए और डबरा बन जाए, फिर वह सागर तक तो नहीं जाती, डबरा बन कर सड़ती है,
गंदी होती है, सूखती है। कीचड़ और दलदल पैदा
होता है। इस देश में विचार की सरिता रुक कर डबरा बन गई है। हमने विचार करना बंद कर
दिया है। हम तो विचार से भयभीत हो गए हैं, ऐसा प्रतीत होता
है। ऐसा लगता है कि विचार से हमारे भीतर कोई डर पैदा हो गया है। हम विश्वास की बात
करते हैं, विचार की जरा भी बात नहीं करते।
विचार करने में भय क्या हो सकता है? विचार करने से इतना
डरने की, इतना कंपने की बात क्या है? गांधी
वर्ष-शताब्दी चलती है। मैंने पिछले दो अक्टूबर को कुछ मित्रों को यह कहा कि यह
वर्ष बड़े मौके का है। इस पूरे वर्ष गांधी पर विचार किया जाए तो अच्छा है। क्योंकि
गांधी से बड़ा व्यक्ति संभवतः भारत के इतिहास में खोजना मुश्किल है। संन्यासी हुए
हैं बहुत बड़े, त्यागी हुए हैं बहुत बड़े, धर्मात्मा हुए हैं बहुत बड़े, लेकिन धार्मिक और
आध्यात्मिक व्यक्ति जीवन के बीच खड़े रहे हों, जीवन के संघर्ष
में लड़े हों, राजनीति से भाग न गए हों, ऐसे गांधी अकेले आदमी हैं। ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति पर क्या हम विचार नहीं
करेंगे? मेरे मित्रों ने कहा, विचार तो
बहुत होगा--सभाएं होंगी, प्रवचन होंगे, पुस्तकें छपेंगी, करोड़ों रुपया खर्च किया जाएगा।
मैंने उनसे कहा, उसमें विचार जरा भी नहीं होगा सिवाय प्रशंसा
के।
प्रशंसा विचार नहीं है। न ही निंदा विचार है, न प्रशंसा विचार है। मित्र और भक्त प्रशंसा करते हैं, शत्रु और दुश्मन निंदा करते हैं; लेकिन न शत्रु
विचार करते हैं, न मित्र विचार करते हैं। विचार निंदा और
प्रशंसा से भिन्न बात है। विचार है तटस्थ आलोचना, विचार है
सृजनात्मक आलोचना, विचार है क्रिएटिव क्रिटीसिज्म। निंदा का
तो कोई सवाल ही नहीं है। प्रशंसा चलेगी वर्ष भर तक। प्रशंसा से क्या हित होगा?
हमारा या गांधी का, किसका? गांधी की कितनी ही हम प्रशंसा करें, उन्हें और बड़ा
नहीं बना सकते हैं। गांधी की हम कितनी ही निंदा करें, उन्हें
हम छोटा नहीं बना सकते हैं। गांधी की निंदा से हम बड़े नहीं हो जाएंगे और न गांधी
की प्रशंसा से हमारी आत्मा को कोई लाभ होने वाला है।
लेकिन गांधी पर अगर विचार हो तो इस देश की आत्मा को गति मिल सकती है।
लेकिन विचार करने को राजी नहीं है। मैंने कुछ बातें कहीं कि उन मुद्दों पर गांधी
पर विचार होना चाहिए तो बंबई के पत्रकारों ने उन्हें इस तरह गलत और विकृत करके
छापा कि जब मैं महीने बाद बंबई पहुंचा तो मैं तो हैरान रह गया।
मुझे उन पत्रों को देख कर एक बात याद आई। वेटिकन का पोप अमेरिका गया
था। न्यूयार्क के हवाई अड्डे पर उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहा, और तो सब ठीक है, पत्रकारों से सावधान रहना। अगर वे
कुछ पूछें तो बहुत सोच-समझ कर उत्तर देना। वेटिकन के पोप ने कहा, सोच-समझ कर उत्तर देने का क्या मतलब! तो उनके साथियों ने कहा, जहां तक बने, हां और न में उत्तर मत देना। जहां तक
बन सके प्रश्न से बचने की कोशिश करना--जैसा कि राजनीतिज्ञ हमेशा करते हैं, राजनीतिज्ञ सभी हां और न में उत्तर नहीं देते। क्योंकि हां और न में पीछे
कमिटमेंट होता है, झंझट हो सकती है। राजनीतिज्ञ ऐसा उत्तर
देता है कि जब जैसी जरूरत पड़ जाए वैसा उससे अर्थ निकाला जा सके। वह गोल-मोल उत्तर
देता है।
तो वेटिकन के पोप के मित्रों ने कहा कि आप गोल-मोल उत्तर देना। ऐसा
कुछ उत्तर देना कि जो भी मतलब पीछे चाहे निकाला जा सके। या अगर कुछ समझ न पड़े तो
बचने की कोशिश करना। जैसे ही हवाई अड्डे पर पोप उतरा, पत्रकारों ने उसे घेर लिया। और उन पत्रकारों ने पहला प्रश्न जो पूछा पोप
से, वह यह पूछा कि वुड यू लाइक टू विजिट ए न्यूडिस्ट क्लब इन
न्यूयार्क? क्या आप कोई नंगे लोगों का क्लब देखना पसंद
करेंगे, जब तक आप न्यूयार्क में हैं?
वेटिकन का पोप समझा कि आई झंझट। अगर मैं हां कहूं तो वे कहेंगे वेटिकन
का पोप अमेरिका की नंगी औरतें और नंगे लोगों को देखने आया हुआ है। अगर मैं कहूं कि
नहीं मैं नहीं देखना चाहता, तो कहेंगे, वेटिकन के पोप इतने
डरते हैं नंगी औरत और नंगे आदमी को देखने से, तो जरूर कोई
मामला होना चाहिए। तो वेटिकन के पोप ने कहा कि कुछ ठीक सीधा-सीधा उत्तर देना उचित
नहीं है, घबड़ाहट में उसने दूसरा ही प्रश्न पूछ लिया। उसने यह
पूछा कि इज़ देयर ऐनी न्यूडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क? कोई नंगे
लोगों का क्लब है न्यूयार्क में? ताकि सीधा कुछ कहना न पड़े।
फिर बात टल गई। वह बड़ा खुश हुआ। लेकिन दूसरे दिन अखबारों के मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े
अक्षरों में क्या छपा था? छपा था कि महामहिम, परम पूज्य पोप ने हवाई अड्डे पर उतरते ही जो पहला प्रश्न पत्रकारों से
पूछा वह यह है कि "इज़ देयर ऐनी न्यूडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क?' आते ही अड्डे पर पहली बात वे महापुरुष यही पूछने लगे कि नंगे लोगों का कोई
क्लब है न्यूयार्क में?
पत्रकारों से मैंने गांधी के संबंध में जो बातें कहीं, बंबई लौट कर मुझको पता चला कि वेटिकन के पोप को जैसा अनुभव हुआ होगा। वह
कैसा अनुभव हुआ होगा, मेरी बातों को इतना ही बिगाड़ कर,
तोड़-मरोड़ कर प्रसंग के बाहर उपस्थित किया। उसका जोर से प्रचार किया।
मैं हैरान हुआ कि इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? अभी जब
गुजरात गया तो पता चला। मोरारजी देसाई, ढेबर भाई, काका कालेलकर, स्वामी आनंद जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने
भी मेरे विरोध में वहां भाषण दिए। तब मेरी समझ में आया कि गांधी के संबंध में
विचार करने में गांधीवादी को डर है। गांधी को डर नहीं है, क्योंकि
गांधी पर विचार अंततः गांधीवाद पर विचार बन जाएगा। गांधीवादी घबड़ाता है, उस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि उसके बीस वर्ष का इतिहास बहुत
कालिख से भरा है और अंधेरे से भरा हुआ है। सफेद कपड़ों के भीतर काले आदमी की कहानी
है बीस वर्षों की। और अगर गांधी पर विचार शुरू हुआ तो वह विचार रुकेगा नहीं,
वह गांधीवादी पर पहुंच जाएगा। तब मुझे समझ में आया कि गांधीवादी
पत्र इतने जोर से इस बात को क्यों विरोध में प्रचार किए हैं?
और मैंने कहा क्या था? मैंने यह कहा था कि
जो समाज अपने महापुरुष की आलोचना नहीं करता वह समाज शायद डरता है कि उसके महापुरुष
बहुत छोटे हैं। आलोचना में पिघल जाएंगे, बह जाएंगे। इतनी
घबड़ाहट एक ही बात का सबूत है। अगर हम एक मिट्टी का पुतला पानी में बना कर खड़ा कर
दें तो वर्षा से डरेंगे क्योंकि उसके रंग-रोगन के बह जाने का डर है। लेकिन प्रस्तर
की, संगमरमर की प्रतिमाएं तो वर्षा में खड़ी रहती हैं। उनका
कुछ बहता नहीं। वर्षा आती है तो और उनकी धूल बह जाती है और प्रतिमाएं और स्वच्छ
होकर निखर जाती हैं।
मेरी दृष्टि में महापुरुष पर जब भी आलोचना की वर्षा होती है तो
महापुरुष और निखर कर प्रकट होता है, लेकिन छोटे लोग जरूर
बह जाते हैं। उनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो आलोचना की वर्षा में टिक सके। गांधी को
तो कोई भय नहीं हो सकता है आलोचना से, लेकिन गांधीवादी को
बहुत भय है। गांधीवादी छोटा आदमी है, जो बड़े आदमी की आड़ में
बड़े होने की कोशिश में लगा है। उसे डर है। वह अपने ही ढंग से सोचता है। उसे यह भय
है कि जैसा छोटा मैं आदमी हूं, गांधी की आलोचना गांधी को कोई
नुकसान न पहुंचा दे।
मेरी दृष्टि में गांधी इतने बड़े व्यक्ति हैं कि आलोचना से उनका कोई भी
अहित होने का नहीं है। बल्कि, उनकी स्पष्ट आलोचना गांधी के रूप
को हमारी आंखों के सामने प्रकट करने मैं ज्यादा सफल हो सकेगी। उनकी कोई प्रशंसा
हमारे प्राणों तक उन्हें नहीं पहुंचाएगी, लेकिन उनका
सृजनात्मक विचार हमारे प्राणों में उन्हें पुनरुज्जीवित कर सकता है। और मेरी
दृष्टि में, कोई महापुरुष ऐसा नहीं होता कि उससे भूलें न
होती हों। हां, महापुरुष छोटी भूलें नहीं करते हैं, महापुरुष बड़ी भूलें करते हैं अपने अनुपात से। वे जितने बड़े होते हैं,
उतने ही बड़े काम करते हैं--चाहे भूल करें और चाहे ठीक करें।
महापुरुष छोटी भूलें नहीं करते, छोटे काम ही नहीं करते हैं।
और इसलिए महापुरुष की भूल को देख पाना बड़ा कठिन हो जाता है क्योंकि हम उतनी आंख
खोलें, विचार करें, तभी हमें दिखाई पड़
सकता है। लेकिन अगर हम न देखें तो हम उन भूलों को बार-बार दोहराए जा सकते हैं।
उन्नीस सौ बीस के बाद गांधी के सामने एक सवाल था। सवाल था कि देश एक
कैसे हो, एकता कैसे हो। और गांधी ने देश की एकता के लिए एक
नारा दिया--हिंदू-मुस्लिम एकता का, हिंदू-मुस्लिम यूनिटी का।
बड़ी भूल हो गई। हिंदुस्तान में ईसाई भी रहते हैं, जैन भी
रहते हैं, बौद्ध भी रहते हैं, पारसी भी
रहते हैं, आदिवासी भी रहते हैं, सिक्ख
भी रहते हैं, लेकिन गांधी ने नारा दिया--हिंदू-मुस्लिम एकता,
हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। गांधी से बुनियादी भूल हो गई। जैसे ही गांधी
ने यह कहा, हिंदू-मुस्लिम एकता, वैसे
मुसलमान और हिंदू को अतिरिक्त महत्व मिल गया जो खतरनाक सिद्ध हुआ। और मुसलमान को
भी यह दिखाई पड़ गया कि मेरी एकता ही असली बात है। अगर मैं एक होने को राजी नहीं तो
हिंदुस्तान कुछ भी नहीं कर सकता। अगर गांधी ने कहा होता भारतीय
एकता...हिंदू-मुस्लिम एकता बहुत दुर्भाग्यपूर्ण चुनाव था। वह शब्द बहुत खतरनाक था।
उसी शब्द के बीज ने पाकिस्तान का रूप लिया। वही शब्द विकसित हुआ और पाकिस्तान तक
पहुंच गया। मुसलमान को सेल्फ कांशस कर दिया गांधी ने। हिंदू को भी सेल्फ कांशस कर
दिया। गांधी ने दोनों को यह चेतना दे दी कि हमीं सब कुछ हैं, हिंदू-मुसलमान ही भारत है। हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई; मुसलमान
और हिंदू को लगा कि हम ही हैं, हमारे ऊपर सब कुछ निर्भर है।
और मुसलमान को यह चेतना स्पष्ट यह अनुभव करा गई कि अगर वह साथ खड़ा नहीं होता है तो
भारत की एकता नहीं बन सकती है। आखिर इसी समझौते पर हिंदुस्तान की आत्मा विभाजित
हुई। हिंदुस्तान दो टुकड़ों में टूटा। शायद हजारों वर्ष लग जाएंगे हिंदुस्तान को
अपने शरीर को फिर एक बनाने में--शायद न भी बना पाए।
लेकिन एक छोटी सी भूल--शब्दों का चुनाव। लेकिन गांधी से भूल हुई तो
पीछे कारण था। गांधी यद्यपि मानते थे कि सारे धर्म समान हैं, सारे धर्म बराबर मूल्य के हैं, लेकिन फिर भी गांधी
के मन से यह भ्रम कभी नहीं मिटा कि मैं हिंदू हूं। वह यह हमेशा कहते रहे कि मैं
हिंदू हूं। काश, गांधी इतनी हिम्मत और कर लेते और कह सकते कि
मैं सिर्फ मनुष्य हूं; न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं, तो हिंदुस्तान का विभाजन कभी भी
नहीं हो सकता था। लेकिन गांधी का यह खयाल कि मैं हिंदू हूं, जिन्ना
को मुसलमान, और मुसलमान, और मुसलमान
बनाता चला गया। पता है आपको, गांधी की मृत्यु पर जिन्ना ने
जो ट्रिब्यूट दी, जो संवेदना प्रकट की, उसमें क्या कहा? कहा, गांधी
वाज़ ए ग्रेट हिंदू लीडर। गांधी एक बड़े हिंदू नेता थे। लेकिन हिंदू नेता कहना
जिन्ना नहीं भूला।
गांधी भी मरने के पहले वसीयत किए कि मेरी लाश को न बचाया जाए, क्योंकि लाश को बचाना ईसाइयत का रास्ता है। मैं हिंदू ढंग से संस्कार
चाहता हूं। मरने के बाद भी शरीर को हिंदू ढंग का संस्कार चाहते हैं। गांधी के मन
से हिंदू का भाव नहीं जा सका। गांधी अदभुत व्यक्ति थे, लेकिन
कहीं एक हिंदू की पकड़ एक कोने पर बैठी रह गई और वह कोने की पकड़ सारे हिंदुस्तान के
लिए घातक सिद्ध हुई। कोई छोटा-मोटा आदमी, मेरे जैसा कोई
व्यक्ति अगर अपने को हिंदू और मुसलमान मानता रहता को कोई नुकसान नहीं हो सकता था।
गांधी जैसे व्यक्ति, जो कि सारे मुल्क की आत्मा के प्रतिनिधि
थे, उनको यह खयाल होना कि मैं हिंदू हूं, खतरनाक है। बहुत महंगा पड़ गया। लेकिन इसे सोचना जरूरी है ताकि यह भूल आगे
बार-बार न दोहराई जाए। यह भूल बार-बार दोहराई जा सकती है।
हिंदुस्तान को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो न हिंदू हो, न मुसलमान हो, न जैन हो, न
ईसाई हो। हिंदुस्तान को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जिसका हिंदी से आग्रह न हो,
तमिल पर आग्रह न हो, बंगाली पर आग्रह न हो।
नहीं तो फिर यह भूल दोहरेगी, यह हिंदुस्तान और दस टुकड़ों में
टूट सकता है। जैसे कल हिंदू-मुसलमान ने तोड़ दिया था, आने
वाले दस-पच्चीस वर्षों में हिंदी और गैर-हिंदी टूट सकते हैं। लेकिन गांधी की भूल
पर विचार कर लेने से यह खयाल में आ सकता है कि यह भूल फिर न दोहरा दी जाए।
गांधी ने कहा, हिंदू-मुसलमान भाई-भाई। फिर हम आजाद हुए, और हमने एक नारा लगाया, हिंदी-चीनी भाई-भाई। हम फिर
वही भूल दोहरा रहे हैं। एशिया में बर्मी नहीं रहते? जापानी
नहीं रहते? कोरियन नहीं रहते? एशिया
में सिलोनी नहीं रहते? एशिया में थाई नहीं रहते? एशिया में सिर्फ हिंदी और चीनी रहते हैं? वही
बेवकूफी, जो हिंदू-मुसलमान के साथ हुई थी, वही बेवकूफी हमने फिर दोहराई--हिंदी-चीनी भाई-भाई। चीन समझ गया कि जैसे ये
मुसलमान से डरते थे, अब हमसे डरना इन्होंने शुरू कर दिया। यह
समझने में देर न थी।
हम जिससे डरते हैं उसी को भाई-भाई कहते हैं। जिससे हम नहीं डरते उसकी
हम बात ही नहीं करते। यह हमारे फियर का, हमारे भय का सबूत हो
गया है। हम जिससे डरेंगे उसी को कहेंगे, हम आप तो भाई-भाई
हैं। लेकिन जिसको हम भाई कहते हैं, वह समझ जाता है कि भाई हम
किसको कहते हैं। गलती जो मुसलमान के साथ हुई वही गलती चीन के साथ हुई। एशिया में
हमने दो दुश्मन खड़े किए--एक पाकिस्तान और एक चीन; और दोनों
को हमने भाई-भाई कहा था। यह भाई-भाई कि फिलासफी में कहीं कोई बुनियादी भूल है। और
इस फिलासफी के लिए गांधी जिम्मेवार हैं।
तो मैंने पत्रकारों को कहा था कि हमें सोचना चाहिए। गांधी इतने बड़े
व्यक्ति हैं कि उनकी छोटी सी भूल भी बहुत बड़ी भूल सिद्ध हो सकती है। हजारों साल के
लिए प्रभावित कर सकती है। हिंदुस्तान को एक नेतृत्व चाहिए अब, जो न हिंदू हो, न मुसलमान हो, न
जैन हो, न जो बंगाली हो, न मद्रासी हो,
न उत्तरप्रदेशीय हो। हिंदुस्तान को नेतृत्व चाहिए जो हिंदीभाषी न हो,
जो तमिलभाषी न हो, जो यह दावा न करता हो कि
हिंदी ही, जो यह दावा न करता हो कि अंग्रेजी ही--जो दावा
पूरे मुल्क का विचार करके करता हो, किसी एक हिस्से का विचार
न करता हो। क्योंकि एक हिस्से के विचार ने हिंदुस्तान के दो टुकड़े करवाए। अब और इस
तरह के विचार हिंदुस्तान को सौ टुकड़ों में तोड़ डाल सकते हैं, और हिंदुस्तान करीब-करीब टूट गया है। मुश्किल है इस जोड़ को बिठाना। इस जोड़
को बिठाना बहुत मुश्किल साबित होगा। भाषावार प्रांत तोड़ दिए। पूरे हिंदुस्तान की
हमने कोई फिकर न की, एक-एक भाषावार प्रांत की फिकर की। अब
महंगा हो गया मामला। अब एक-एक भाषावार प्रांत एक-एक पाकिस्तान सिद्ध हो सकता है।
जो हो गया, वह सवाल नहीं है, आगे फिर यह
पुनरुक्ति रोज-रोज होती चली जाएगी। पीछे लौट कर देखना जरूरी है। गांधी के पचास
वर्षों की कहानी इस हिंदुस्तान के लिए हजारों वर्ष तक मूल्यवान रहेगी। उस पचास
वर्ष में हमें गौर करके देख लेना जरूरी है कि हमने क्या भूलें दोहराईं, हमने कौन सी गलतियां कीं जो कि आगे हमसे न हों। फिर यह भी जानना जरूरी है
कि कोई कितना ही बड़ा महापुरुष हो, दुनिया में कोई पूर्ण
पुरुष न हुआ हो, न हो सकता है। सच तो यह है कि जो पूर्ण हो
जाते हैं वे मोक्ष चले जाते हैं, शायद वे दुनिया में वापस
नहीं आते हैं। दुनिया में जो आता है वह अपूर्ण होता है, इसीलिए
आता है। अपूर्ण पुरुष--महान से महान व्यक्ति भी अपूर्ण ही होता है। उसकी अपूर्णता
पर ध्यान न हो, और हम पूर मनुष्य को स्वीकार कर लें तो हम
महंगाइयों में भी पड़ सकते हैं। बहुत महंगा सौदा हो सकता है।
गांधी के कुछ अपने फैक्ट हैं, गांधी के कुछ अपने
रुझान थे। सभी महापुरुषों के होते हैं। माक्र्स जितनी देर किताब लिखता है उतनी देर
मुंह में सिगरेट पीता रहता है। लेकिन माक्र्स कितना ही बड़ा आदमी हो, उसका सिगरेट पीना बड़ा नहीं हो सकता है। और किसी को माक्र्सवादी होना हो तो
चौबीस घंटे सिगरेट पीने की जरूरत नहीं है। लेकिन कम्युनिस्ट सिगरेट पीते हैं,
शायद इसी खयाल से पीते हों कि माक्र्स बहुत सिगरेट पीता था। कहते
हैं, माक्र्स ने अपनी "कैपिटल' नाम
की किताब लिखी तो जितनी सिगरेट पी डालीं, कैपिटल के बिकने पर
उतने सिगरेट के दाम भी नहीं आए। लेकिन सिगरेट पीना माक्र्स की अपनी व्यक्तिगत
रुझान हो सकती है। इसका कोई अनुकरण करने की जरूरत नहीं है।
गांधी के बहुत से व्यक्तिगत रुझान थे जो गांधीवादी फिलासफी का हिस्सा
बन गया है। जैसे, गांधी को हाथ से काती गई चीजों से बड़ा प्रेम था।
इसमें कोई हर्जा नहीं है। किसी आदमी के हो सकता है। किसी आदमी को हाथ से काती गई
चीज पसंद हो सकती है, इसमें कोई भी हर्जा नहीं है। लेकिन आने
वाली दुनिया में चरखे और तकली को बहुत मूल्य देना आत्मघाती है, स्युसाइडल है। मुल्क मर जाएगा। दुनिया विकसित हो रही है विराट से विराट
टेक्नालाजी की तरफ, तकनीक की तरफ। और हम जो बातें कर रहे हैं
वह पांच हजार साल पिछले जमाने की बातें हैं। पांच हजार साल पहले तकली और चरखा ईजाद
हुए होंगे। तब वे सबसे बड़े यंत्र थे, अब वे सबसे बड़े यंत्र
नहीं हैं। और एक आदमी अगर अपने लिए साल भर का कपड़ा भी बनाना चाहे तो कम से कम दिन
में तीन-चार घंटे चरखा कातना पड़ेगा। तब कहीं अपने लायक पूरा कपड़ा एक आदमी तैयार कर
सकता है।
एक आदमी की जिंदगी का रोज चार घंटे का हिस्सा उसके कपड़े पर खर्च करवा
देना निहायत अन्याय है। क्योंकि हमें शायद पता नहीं, अगर एक आदमी को साठ
साल जीना है तो बीस साल तो सोने में गुजर जाते हैं। रोज आठ घंटे आदमी सो जाता है।
बीस साल तो नींद में चले जाते हैं। खाने में, कमाने में और
बीस साल चले जाते हैं। बीस साल बचते हैं आदमी के पास मुश्किल से। उसमें कुछ बचपन
का हिस्सा निकल जाता है, कुछ बुढ़ापे का हिस्सा निकल जाता है।
अगर हम एक आदमी के पास देखें तो मुश्किल से जीने के लिए जिसको हम कहें--ठीक से
जीने के लिए पूर्ण सुविधा का समय, पूरे जीवन में साठ साल के,
पांच साल से ज्यादा नहीं होता है एक आदमी के पास। इस पांच साल के
लिए उससे कहो कि चप्पल भी तुम अपनी बनाओ, कपड़ा भी तुम अपना
बनाओ, खाना भी तुम अपना बनाओ, गेहूं भी
अपना पैदा कर लो, स्वावलंबी हो जाओ--आदमी की हत्या करने के
सुझाव देना है।
मुझे यह स्वीकार्य नहीं मालूम होता। मेरी समझ यह है कि आज तक जगत में
संस्कृति, धर्म, काव्य, चित्र, म्यूजिक, संगीत जो भी
पैदा हुआ है वह उन लोगों से पैदा हुआ है जो लेजर में थे, जो
विश्राम में थे। जिसका चौबीस घंटे काम में व्यतीत हो जाता है, उससे न संगीत पैदा होता है, न काव्य पैदा होता है,
न संस्कृति पैदा होती है, न धर्म पैदा होता
है। अब तक जगत में जो भी श्रेष्ठतम विकास हुआ है मनुष्य-संस्कृति का, वह विश्राम के क्षणों में हुआ है। वे ही कौमें और वे ही युग संस्कृति को
जन्म देते हैं जो विश्राम में होते हैं। जैसे--एथेंस ने सुकरात को, प्लेटो को, अरस्तू को जन्म दिया, क्योंकि एथेंस बहुत संपन्न था और सारा काम गुलाम कर रहे थे। ऊपर का वर्ग
कोई भी काम नहीं कर रहा था। इसलिए अरस्तू पैदा हुआ, सुकरात
पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। हिंदुस्तान ने बुद्ध महावीर जैसे
लोग पैदा किए, कृष्ण और राम जैसे, ये
सब लेजरली क्लास के लोग थे। ये सब अभिजात्य वर्ग के लोग थे जिनके ऊपर कोई काम नहीं
था।
हिंदुस्तान के इतिहास को अगर उठा कर देखें तो सारे ग्रंथ ब्राह्मणों
ने लिखे जिनके पास कोई काम नहीं था। हिंदुस्तान के सारे धर्मों का जन्म ब्राह्मणों
ने दिया, उनके पास कोई काम नहीं था। हमने काम से उन्हें मुक्त
कर दिया था। हमने कहा था, तुम्हें कोई काम नहीं है, तुम पढ़ो, लिखो, सोचो, विचारो। शूद्रों ने तो एक वेद नहीं लिखा, एक उपनिषद
नहीं लिखा। शूद्र कैसे लिख सकते थे? पूरे हिंदुस्तान के
इतिहास में एक बुद्धिमान शूद्र पैदा हुआ, वह भी अंग्रेजों की
बदौलत--डॉ. अंबेदकर। इसके पहले कोई शूद्र पैदा नहीं हुआ। नहीं हो सकता। कोई कारण
नहीं है। उसको चौबीस घंटे हमने काम में उलझा दिया है।
अगर स्वावलंबी की बात को बहुत ज्यादा खींचा जाए तो एक-एक आदमी की
जिंदगी सुबह से शाम तक फिजूल काम में नष्ट हो जाएगी और उसके व्यक्तित्व में ऊंचे
उठने के कोई उपाय नहीं रह जाते।
अगर व्यक्ति की चेतना को ऊपर उठाना है तो समाज में अधिकतम विश्राम हो
सके, इसकी चिंता करनी चाहिए। वह कैसे होगा? विश्राम होगा, मनुष्य का श्रम यंत्रों के हाथ में
चला जाए। जब तक गुलाम थे दुनिया में तो गुलाम श्रम करते थे, मालिक
विश्राम करता था। वह अन्यायपूर्ण था क्योंकि गुलामों की आत्मा को विकसित होने का
कोई मौका नहीं मिलता था। किसी आदमी को यह हक नहीं है कि किसी आदमी की आत्मा की
कीमत पर अपनी आत्मा को विकसित करे। यह अन्याय है। सह सीधा पाप है। लेकिन विज्ञान
ने एक बड़ा भारी उपकार किया है मनुष्य के ऊपर, आदमी का काम
यंत्र कर सकता है। आदमी को काम में गुलाम बनाने की अब कोई जरूरत नहीं रह गई। नई
टेक्नालाजी सारा काम कर लेगी। आने वाले पचास वर्षों में अमेरिका और रूस में किसी
आदमी के ऊपर किसी तरह का अनिवार्य श्रम नहीं रह जाएगा। जिस दिन पूरा समाज श्रम से
मुक्त हो सकेगा उस दिन हम कितनी बड़ी संस्कृति को, कितने महान
धर्म को, कितने बड़े काव्य को, कितने
बड़े साहित्य को जन्म दे सकेंगे इसकी आज कल्पना करना भी मुश्किल है।
गांधी की स्वावलंबन की बात अवैज्ञानिक है। और यह भी ध्यान रहे कि आदमी
जितना स्वावलंबी होता है उतना ही समाज दरिद्र होता है। आदमी जितना परस्पर आश्रित
होता है, समाज उतना समृद्ध होता है। आप चश्मा पहने हुए हैं,
वह चश्मा कलकत्ते में बना होगा। आप जूते पहने हुए हैं, वह जूता कानपुर में बना होगा। आप कोट पहने हुए हैं, वह
कोट बंबई से कपड़ा तैयार हुआ होगा। आपकी अगर सारी चीजें उठा कर देखी जाएं तो आप
पाएंगे कि पूरे मुल्क का उसमें हाथ है, पूरी दुनिया का भी हो
सकता है। आपकी चीजें सारी दुनिया से आई हैं। आप सब पर निर्भर हैं, सब आप पर निर्भर हैं। इसी से दुनिया में एक यूनिटी खड़ी होती है। जितना
स्वावलंबी व्यक्ति होता है, उतना ही समाज से असंबंधित हो
जाता है।
हिंदुस्तान इतने दिन तक राष्ट्र नहीं बन सका, नेशन नहीं बन सका, उसका बुनयादी कारण मेरी दृष्टि
में यही है कि हिंदुस्तान पांच हजार वर्षों से एक-एक व्यक्ति करीब-करीब स्वावलंबी
होने की चेष्टा में जी रहा है। एक किसान अपनी खेतीबाड़ी से पैदा कर लेता है। एक
गांव, अपना लोहार भी है, अपना चमार भी
है। गांव को दूसरे गांव पर निर्भर होने की कोई भी जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान के
सारे गांव स्वावलंबी थे, इसलिए हिंदुस्तान राष्ट्र नहीं बन
सका क्योंकि जब हम स्वावलंबी हैं। और बगल के गांव पर हमला हुआ तो हमारा गांव सोचता
है, हमें क्या प्रयोजन है! कोई दूसरा लड़ रहा है, लड़ेगा।
अगर हिंदुस्तान एक-दूसरे पर पूरी तरह निर्भर हो जाए तो ही हिंदुस्तान
एक राष्ट्र बनेगा। और जिस दिन दुनिया पूरी निर्भर हो जाएगी एक-दूसरे पर, दुनिया में युद्ध बंद हो जाएंगे। अहिंसा से युद्ध बंद होने वाले नहीं हैं।
जिस दिन टेक्नालाजी सारी दुनिया को एक-दूसरे पर निर्भर कर देगी उस दिन युद्ध बंद
हो जाएंगे। उसके बाद युद्ध की कोई संभावना नहीं।
आज रूस अमेरिका से युद्ध करने में असमर्थ होता जा रहा है। पता है आपको
किसलिए? इसलिए नहीं कि रूस के मन में कोई शांति की बड़ी कामना
पैदा हो गई, बल्कि इसलिए कि आज चार वर्षों से रूस को गेहूं
के लिए अमेरिका और कनाडा के ऊपर निर्भर रहना पड़ रहा है और आने वाले दस वर्षों में
उसको अमेरिका से गेहूं लेना पड़ेगा, इसके बिना कोई रास्ता
नहीं है। और जिनसे गेहूं लेना है, और जिनसे भोजन लेना है
उनसे युद्ध नहीं किया जा सकता।
मेरी कल्पना में यह दुनिया एक हो सकती है अगर दुनिया में तीव्रतम
केंद्रीयकरण हो, सेंट्रलाइजेशन हो। इतना केंद्रीकरण होना चाहिए कि
गांव एक ही चीज पैदा करे। सारे गांव को हजार तरह की चीजें पैदा करने की जरूरत नहीं
है। अगर बंबई में कपड़ा अच्छा बन सकता है तो सारे हिंदुस्तान में अलग-अलग मिलें
बनाने की कोई जरूरत नहीं है। यह साइंटिफिक होगा कि बंबई सिर्फ कपड़े पैदा करे,
और कुछ पैदा न करे। क्योंकि तब सौ वर्षों में बंबई में वह कुशलता
पैदा हो जाएगी, बच्चे जन्म के साथ कपड़ा पैदा करने में समर्थ
पैदा होंगे। बंबई का एक-एक आदमी कुशल हो जाएगा। कपड़े के सारे एक्सपर्ट और विशेषज्ञ
वहां इकट्ठे हो जाएंगे। सारी नई खोज करने वाले, रिसर्च करने
वाले लोग वहां इकट्ठे हो जाएंगे। सारे हिंदुस्तान के पकड़े के जानकार वहां इकट्ठे
हो जाएंगे। हम श्रेष्ठतम कपड़ा पैदा कर सकेंगे और कम से कम श्रम में पैदा कर
सकेंगे। और सारे मुल्क को दे सकेंगे। जो गांव जूते बनाता है, वह सिर्फ जूते बनाए। एक-एक गांव में अलग-अलग जूते बनाना नासमझी की बात है।
सच तो यह है कि अगर सेंट्रलाइजेशन ठीक से हो तो दुनिया की दरिद्रता मिट सकती है और
दुनिया का बहुत सा समय जो व्यर्थ नष्ट होता है, वह मिट सकता
है।
एक-एक घर में चूल्हा चलता है, यह बिलकुल पागलपन की
बात है। अगर वैज्ञानिक दुनिया होगी तो एक मुहल्ले का एक किचन होना चाहिए जहां कि
दस औरतें काम करेंगी, अभी हजार औरतें रोज दिन भर काम कर रही
हैं, समय पूरा व्यर्थ अपव्यय हो रहा है। एक मुहल्ले का एक
किचन होना चाहिए जहां दस औरतें काम करेंगी और नौ सौ औरतें मुक्त हो जाएंगी,
इन नौ सौ औरतों से दूसरे काम लिए जा सकते हैं। इनसे शिक्षा का काम
लिया जा सकता है, इनसे बच्चे पालने की व्यवस्था की जा सकती
है, ये समाज का हजार काम कर सकती हैं। इस वक्त आधा
हिंदुस्तान सिर्फ रोटी बना रहा है, कुछ भी नहीं कर रहा है।
आधा मुल्क सिर्फ रोटी बनाने में व्यतीत हो रहा है। थोड़ी हैरानी की बात मालूम होती
है। हमारे सोचने का अवैज्ञानिक ढंग है वह। आधा हिंदुस्तान सिर्फ रोटी बनाएगा?
आधा हिंदुस्तान कुछ और नहीं करेगा? तो यह देश
कभी समृद्ध नहीं हो सकता।
इस देश को समृद्ध बनाना हो तो...यह मामला वैसा ही है जैसे कि पुराने
रईसों के घर थे। रईसों के लड़कों के एक-एक मास्टर लगा दिया जाता था। एक लड़का है, एक मास्टर पढ़ा रहा है। अवैज्ञानिक थी यह बात। इसमें बहुत लोग शिक्षित नहीं
हो सकते थे। आज एक शिक्षक है और तीस लड़के पढ़ रहे हैं। हमको समझ में आता है। यह
केंद्रित अवस्था हो गई। एक रईस के घर में एक टयूटर पढ़ाता है। एक मास्टर है,
एक बच्चा है। ज्यादा बड़ा रईस है तो चार मास्टर हैं और एक बच्चा है।
लेकिन हम समझ गए कि इस भांति तो दुनिया को शिक्षित नहीं किया जा सकता। तीस बच्चे
और एक शिक्षक होना चाहिए। हमने सेंट्रलाइज कर दिया शिक्षक को। स्कूल में एक क्लास
खोल दी। अब घर-घर में क्लास बनाने की जरूरत नहीं है। मुहल्ले में एक स्कूल है,
उस स्कूल में मुहल्ले के सारे बच्चे पढ़ते हैं और चार शिक्षक,
आठ शिक्षक उस काम को निपटा देते हैं। अगर एक-एक बच्चे को एक-एक
शिक्षक निपटाने जाए तो ठीक है, हो गया मुल्क का काम। शिक्षा
ही पूरी हो जाए, वही बहुत मुश्किल हो जाएगा।
आज हम दूसरी चीजों में उतने ही अवैज्ञानिक हैं। एक-एक घर में चौका यह
सबूत देता है कि हमारी बुद्धि में गणित की समझ बिलकुल नहीं है। अगर समझदारी होती
तो ठीक है, दस-पच्चीस घरों के बीच में एक चौका होना चाहिए।
दस-पांच महिलाएं उसमें काम करेंगी। जो श्रेष्ठतम भोजन बना सकती हैं वे बनाएं। अब
हजार औरतें बनाती हैं जिनमें नौ सौ को भोजन बनाने की कोई अक्ल और कोई तमीज नहीं
है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। वह दूसरा काम शायद बेहतर कर सकें। उनको वह काम मिलना
चाहिए। गांधीजी के स्वावलंबन के विचार से मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूं, बिलकुल गैर-साइंटिफिक है। परावलंबन चाहिए। जितने हम परावलंबी होते हैं,
समाज में उतनी एकता बढ़ती है।
शायद आपको पता नहीं, हिंदुस्तान में अगर हिंदू और
मुसलमानों के बीच शादी-विवाह होता, तो पाकिस्तान कभी भी नहीं
बंटता। क्योंकि हम एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते। निर्भर होने पर दंगा होना मुश्किल
हो जाता। चीन में कभी कोई धार्मिक दंगे नहीं हुए आज तक। उसका कुल एक कारण है कि घर
में तीन-चार धर्मों के लोग हैं। दंगा कैसे हो सकता है? पत्नी
मुसलमान है, पति बौद्ध है, बाप
कंफ्यूशियन है, मां लाओत्से को मानती है। चारों चार अलग
मंदिरों में जाते हैं। झगड़ा कैसे होगा? चारों मंदिरों में
झगड़ा होगा तो घर में छुरेबाजी करनी पड़ेगी। चीन में कोई धार्मिक झगड़ा नहीं हो सका
तीन हजार वर्ष के इतिहास में। उसका कुल एक कारण है कि चीन के धर्म परस्पर निर्भर
हैं।
हिंदुस्तान में झगड़ा हो सका। झगड़ा इसलिए हो सका कि हिंदू बिलकुल अलग
हैं, मुसलमान बिलकुल अलग हैं। कोई उनसे नाता नहीं है,
कोई गहरा संबंध नहीं है। अगर हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमानों के
दंगे और बेवकूफियां मिटानी हैं तो यह स्वावलंबन बंद करना पड़ेगा कि हम हिंदू के
भीतर ही शादी करेंगे, कि हम मुसलमान के भीतर ही शादी करेंगे।
आने वाले बच्चों को खयाल रखना चाहिए कि हिंदुस्तान की एकता तुम्हारे विवाह पर
निर्भर करेगी। अगर तुममें थोड़ी भी समझ है तो भूल कर हिंदू कभी हिंदू घर में शादी
मत करना, जैन कभी जैन घर में शादी मत करना। यह हिंदुस्तान मर
जाएगा अगर तुमने--जैन ने जैन के घर में शादी की और मुसलमान ने मुसलमान के घर में
शादी की। हिंदुस्तान नहीं बच सकता आगे। क्योंकि जैसी ही हम एक-दूसरे पर निर्भर
होते हैं वैसे ही एक-दूसरे के शत्रु नहीं रह जाते। निर्भरता, एक-दूसरे के संबंध, गहरे संबंध हमारे भीतर दुश्मनी
और वैमनस्य को समाप्त कर देते हैं। हिंदुस्तान में गांधीजी ने जो बात कही वह हमारी
हजारों साल की परंपरा से अनुमोदित है। हजारों साल तक हमारा यह खयाल रहा है कि
प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए, अपना काम खुद कर
लेना चाहिए, जहां तक बनें किसी पर निर्भर नहीं होना चाहिए।
ये सारी की सारी बातें अहंकार हैं, ईगोइज्म से भरी हुई हैं।
क्यों निर्भर नहीं होना चाहिए किसी पर? दूसरा आदमी दुश्मन है?
और निर्भरता तो म्युचुअल है, पारस्परिक है। जब
मैं दूसरे पर निर्भर होता हूं, दूसरा मुझ पर निर्भर होता है।
जब हम एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं तो जो काम हजार आदमी करते हैं वह सौ आदमी कर
लेते हैं। नौ सौ आदमियों का श्रम मुक्त हो जाता है। अब आप थोड़ा सोचिए। घर में
साबुन बनाएं, टुथ पेस्ट भी बनाएं, जूता
भी सीएं, कपड़े भी बनाएं तो आप दरिद्रतम आदमी होंगे दुनिया
के। रद्दी से रद्दी कपड़े पहनने पड़ेंगे, खराब से खराब जूते
पहनने पड़ेंगे। और जाकर आप देख सकते हैं साबुन खादी भंडार में, कि कैसी साबुन आपको उपयोग करना पड़ेगी। आपको पता नहीं कि लक्स टायलेट आप
खरीदते हैं, उतने बड़े पैमाने पर पैदा होती है लक्स कि एक
लक्स टायलेट करीब-करीब दो पैसे में तैयार हो जाती है। आप लक्स टायलेट घर में बनाएं
तो अगर बाजार में एक रुपये में आपको मिलती है तो आप दो रुपये में भी घर नहीं बना
सकते। स्वावलंबन की बात फिजूल है, चाहे कपड़े का संबंध हो
चाहे साबुन का संबंध हो, चाहे भोजन का संबंध हो।
समाज है परस्पर निर्भरता। समाज का अर्थ ही क्या है? समाज की कांसेप्ट का मतलब क्या है? जिस समाज में
सारे लोग स्वावलंबी हैं वह समाज है ही नहीं। समाज का मतलब क्या होता है? समाज का मतलब होता है, परस्पर निर्भर लोग, परस्पर निर्भरता से बंधे हुए लोग। अगर गांधी के स्वावलंबन की बात मानी
जाती है तो हिंदुस्तान के छोटे-छोटे यूनिट इंडिपेंडेंट हैं। एक गांव था, उसे कोई फिकर नहीं कि दिल्ली किसके हाथ में है। मुसलमान के हाथ में है कि
हिंदू के हाथ में है, मुगल हैं कि तुर्क हैं कि कौन है,
उससे कोई मतलब नहीं। गांव को पता ही नहीं चलता था, हुकूमतें बदल जाती थीं दिल्ली की। क्योंकि गांव का कोई संबंध दिल्ली से
नहीं था। दिल्ली में हुकूमत बदल गई, बीस साल बाद गांव में
पता चलेगा कि मालूम होता है कि दूसरा राजा आ गया।
लाओत्से ने लिखा है--तीन हजार साल पहले चीन के एक गांव का किस्सा लिखा
है--कि मेरे पिता और मेरे बुजुर्ग यह कहते थे कि हमारे गांव के पास एक नदी बहती है, उसके उस तरफ कोई गांव है। शाम को उस गांव का धुआं दिखाई पड़ता है। रात में
उसके कुत्ते भौंकते हुई सुनाई पड़ते हैं लेकिन हमसे उनका कोई संबंध नहीं, इसलिए न कोई नदी के उस पार गया, न कभी कोई नदी के इस
पार आया। सुनाई पड़ता है कि उस तरफ लोग जरूर रहते होंगे, क्योंकि
रात में कुत्ते भौंकते हैं, कभी-कभी सांझ को धुआं दिखाई पड़ता
है। होंगे लोग वहां, लेकिन कोई संबंध नहीं है। क्या जरूरत है
वहां जाने का?
हिंदुस्तान इसीलिए हिंदुस्तान के बाहर नहीं गया। हिंदुस्तान का
हिंदुस्तान के बाहर जाना बहुत महंगा पड़ गया। हम एक कुएं में बंद लोग हो गए। हजारों
साल तक हमें पता ही न था कि बाहर एक बड़ी दुनिया भी है। अब फिर अगर हमें स्वावलंबन
की बात कही जाती है तो हमने जो भूल हजारों साल तक दोहराई है, हम फिर दोहरा लेंगे।
आपको पता है, हिंदुस्तान ने आज से कोई दस हजार साल पहले गाड़ी का
चाक खोज लिया होगा। गाड़ी के चाक की खोज के बाद हवाई जहाज बना लेने में कोई वैज्ञानिक
तकनीकी उपद्रव नहीं है। चाक ही सब कुछ है। एक दफा हमने घूमता हुआ चाक खोज लिया तो
हम फिर बड़ी से बड़ी मशीन खोज सकते हैं क्योंकि आधारभूत नियम वह चाक है। लेकिन हम
गाड़ी पर ही चलते रहे। हमने कुछ और नहीं खोजा? दूसरे मुल्क
अंतरिक्ष यान बना लिए, और हम? हमने क्यों
नहीं खोजा? हमने कहा, जरूरत क्या है?
अपनी जितनी बड़ी चादर है उसके भीतर ही पैर सिकोड़ कर सोए रहना चाहिए।
चादर के बाहर पांव कभी नहीं निकालना चाहिए। बैलगाड़ी है तो बैलगाड़ी से चलो, तकली है तो तकली चलाओ लेकिन फैलाओ मत, क्योंकि
फैलाने में झंझट बढ़ सकती है, जटिलता बढ़ती है। क्या जरूरत है?
जरूरतें कम रखो।
हिंदुस्तान की पूरी फिलासफी एक शब्द में कही जा सकती है--"जरूरतें
कम रखो।' चादर के भीतर पैर रखो। इस फिलासफी ने हिंदुस्तान को
दरिद्र बनाया, दीन बनाया, दुखी बनाया,
दास बनाया। क्योंकि जब हम चादर के बाहर पैर न फैलाएंगे, और पैरों को सर्दी और गर्मी न लगेगी तो चादर को बड़ा करने का सवाल ही कब
उठेगा? चादर को बड़ा करने का सवाल तब उठता है जब जरूरत पैदा
हो जाती है। जरूरत जन्म बनती है आविष्कार की। हम कहते हैं, जरूरतें
कम रखो, इसलिए आविष्कार करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। जरूरत
जब पैदा होती है तो आविष्कार होता है।
हिंदुस्तान ने कोई आविष्कार नहीं किया। उसका कारण, हिंदुस्तान के पास प्रतिभा की कमी है? हिंदुस्तान के
पास इतने प्रतिभाशाली लोग पैदा हुए--बुद्ध, महावीर, कणादि, गौतम। क्या मुकाबला है दुनिया में इनका?
शंकर, नागार्जुन--कौन इनकी चोटी का विचारक है
दुनिया में? लेकिन एक आइंस्टीन पैदा नहीं हुआ। क्यों?
क्योंकि हमारी बुनियादी धारणा यह है कि आवश्यकताएं कम, नीड कम होनी चाहिए तो ही आदमी सुखी रह सकता है। और देख रहे हैं हम
भलीभांति कि पांच हजार साल से आवश्यकताएं कम हैं, कौन सा
आदमी सुखी है हिंदुस्तान में? पांच हजार साल के अभ्यास के
बाद कौन सा आदमी सुखी है हिंदुस्तान में जो, हम कहते हैं कि
आवश्यकताएं कम हों तो आदमी सुखी हो सकता है। नहीं, न
आवश्यकताओं के ज्यादा होने से सुख का संबंध है, न कम होने
का। सुख एक बात ही अलग है। उसकी खोज आवश्यकता कम हो तो भी करनी पड़ती है, आवश्यकता ज्यादा हो तो भी करनी पड़ती है। लेकिन आवश्यकताएं ज्यादा होने से
संपदा बढ़ती है, आवश्यकताएं ज्यादा होने से तकनीक बढ़ती है।
आवश्यकताएं ज्यादा होने से मनुष्य को कम श्रम करना पड़ता है, ज्यादा
विश्राम मिलता है। आवश्यकताएं ज्यादा होने से ज्यादा आविष्कार होते हैं, विज्ञान होता है, शक्ति बढ़ती है, सामर्थ्य बढ़ती है। हिंदुस्तान की सामर्थ्य नहीं बढ़ सकी। और गांधीजी फिर
वही कहते हैं कि आवश्यकताएं कम। वह हमें बात बिलकुल समझ में आती है क्योंकि गांधी
हमारे पांच हजार साल के प्रतिनिधि हैं। जो हमने पांच हजार साल में बार-बार सुना है
उसे वे फिर से कह रहे हैं इसलिए बिलकुल समझ में बात आती है।
लेकिन वह बात महंगी पड़ी है और अगर हम आगे भी उसको दोहराते हैं तो अब
तक तो हम जी भी लिए, आगे हम जी भी नहीं सकेंगे। क्योंकि हिंदुस्तान की
आबादी बुद्ध के जमाने में दो करोड़ थी, आज हिंदुस्तान की
आबादी बावन करोड़ है। पचास करोड़ लोग बढ़ गए हैं, और हिंदुस्तान
की बुद्धि बुद्ध के जमाने की है, उसमें कोई वृद्धि नहीं हुई।
यह बड़ी घबड़ाने वाली बात है। हमारे उपकरण, हमारे साधन,
खेती-बाड़ी का हमारा ढंग बुद्ध के जमाने का है। उसमें कोई फर्क नहीं
हुआ है। किसान जैसा आज खेत पर काम कर रहा है, ठीक ऐसा ही
बुद्ध के जमाने में कर रहा था। उसके उपकरणों में कोई वृद्धि नहीं है, और पचास करोड़ की संख्या बढ़ गई है। और आने वाले बीस वर्षों में यह संख्या
रोज बढ़ती चली जाएगी, रोज बढ़ती चली जाएगी। इस सदी के पूरे
होते-होते हिंदुस्तान में एक अरब आदमियों के होने की संभावना हो गई है।
और विचारक कहते हैं कि उन्नीस सौ अठहत्तर में इतने बड़े अकाल की
संभावना है हिंदुस्तान में कि जिसमें दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ लोगों को मरना पड़
सकता है। लेकिन हम कहते हैं, हम इंडस्ट्रिलाइज नहीं करेंगे।
हम कहते हैं, हम औद्योगीकरण नहीं करेंगे। तो फिर मरेंगे बीस
करोड़ लोग उन्नीस सौ अठहत्तर तक। और जब बीस करोड़ लोगों को किसी मुल्क में मरना पड़े
तो बाकी जो जिंदा रह जाएंगे, वे जिंदा हालत में रहेंगे?
अगर बीस करोड़ आदमी मुल्क में मरना पड़े, हर तीन
आदमी में एक आदमी मर जाए, तो आप सोचते हैं, जो दो आदमी बचेंगे, उनकी हालत क्या हो जाएगी?
उनकी हालत मरों से बदतर हो जाएगी, और बीस करोड़
लोग अगर तीव्रता से मरें मुल्क में तो लाश का फेंकना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन गांधीजी का विचार हिंदुस्तान को समृद्ध नहीं बना सकता क्योंकि
वह कहते हैं कि छोटे उपकरण चाहिए। हाथ से चलने वाले उपकरण चाहिए, ग्रामोद्योग चाहिए, घर-घर का धंधा चाहिए। इससे काम
नहीं चलेगा। खेती को भी इंडस्ट्रिलाइज करना होगा। इंडस्ट्रियल एग्रिकल्चर चाहिए।
अब खेती छोटे-छोटे टुकड़ों में और एक-एक किसान अपने-अपने टुकड़ों में करे, यह नहीं चल सकता है। एक गांव का एक ही खेत चाहिए और एक गांव के पूरे खेत
पर नये से नये उपकरण, नये यंत्र, नई
मशीनें चाहिए। और मजा यह है कि एक गांव में एक हजार किसान हैं, अगर इन किसानों के हल-बक्खर सब बेच दिए जाएं तो एक टे्रक्टर उससे आ सकता
है और एक ट्रेक्टर से सारा काम हो सकता है। ये हजार हल-बक्खर और दो हजार बैल,
इन सबका खर्च, इन सबकी परेशानी यह सब हमें खाए
जा रही है। इसके आगे हम नहीं जा सकते हैं। हिंदुस्तान को चाहिए केंद्रित औद्योगिक
व्यवस्था--सेंट्रेलाइज्ड। हिंदुस्तान को चाहिए इंडस्ट्रियल एग्रिकल्चर, औद्योगिक कृषि। एक-एक आदमी के हाथ में अब नहीं दिया जा सकता मामला। उससे
कुछ होने वाला नहीं है अब। अब हम मर जाएंगे, अब हम जी नहीं
सकते।
हम देख रहे हैं कि आजादी के बाद हमको रोज भीख मांग कर जीना पड़ रहा है।
अगर अमेरिका हमें गेहूं न दे तो हम आज मर जाएं, इसी वक्त। हमारी जीने
की हैसियत क्या है? हम मांग कर खा रहे हैं और भूल गए हैं,
मजे से जी रहे हैं, जैसे कि कोई असुविधा नहीं
है। अमेरिका में चार किसान जो काम कर रहे हैं उनमें एक किसान का उत्पादन हम खा रहे
हैं। अमेरिका का विचारक कह रहा है कि हम और दस साल ज्यादा से ज्यादा खींच सकते
हैं। इसके बाद तो हमारी अर्थ-व्यवस्था टूट जाएगी हिंदुस्तान को पालने में। यह नहीं
चल सकता। लेकिन हम निश्चिंत हैं, हमें कोई खयाल नहीं है। हम
बैठ कर क्या बातें कर रहे हैं? हम बैठ कर बातें कर रहे हैं
कि तकली चलाने से बड़ी आध्यात्मिकता आती है, कि चरखा चलाने से
आदमी बड़ा सात्विक और पवित्र हो जाता है। हम जय-जय गान कर रहे हैं किन बातों का?
गांधी को फैड था, गांधी को झुकाव था, लगाव था इस बात का। ठीक है, गांधी की मौज है। उन्हें
जो ठीक लगे वह करें, और जिसको भी ठीक लगता है वह करे लेकिन
पूरे मुल्क को सोचना पड़ेगा कि हम इन बातों से राजी होते हैं तो उसका परिणाम क्या
होगा?
फिर शायद आपको पता नहीं कि जितना मनुष्य का तकनीक विकसित होता है उतनी
मनुष्य की चेतना विकसित होती है। आदिवासियों में जाइए, एकाध बर्ट्रेंड रसेल, एकाध नेहरू मिल सकता है
आदिवासियों में खोजने से? क्यों, आदिवासियों
के पास बुद्धि नहीं है, आत्मा नहीं है? आदिवासियों के पास एकाध गौतम बुद्ध पैदा नहीं होता है। आदिवासियों के पास
कोई थियरी ऑफ रिलेटिविटी पैदा करने वाला आइंस्टीन पैदा नहीं होता है। कोई तानसेन,
कोई निराला, कोई रवींद्रनाथ, कोई पैदा होता है? क्यों नहीं पैदा होता? बात क्या है? बात कुल इतनी है कि जितना उत्पादन का
साधन विकसित होता है उतना मनुष्य की चेतना को चुनौती मिलती है। उस चुनौती से चेतना
विकसित होती है। एक आदमी बैलगाड़ी चला रहा है, बैलगाड़ी चलाने
में कितनी चेतना की जरूरत पड़ती है? एक आदमी हवाई जहाज चला
रहा है, हवाई जहाज चलाने के लिए बहुत सचेतना होना जरूरी है।
हवाई जहाज की जटिल मशीनरी के साथ व्यवहार करने के लिए बहुत बुद्धिमानी होनी जरूरी
है। हवाई जहाज चलाने के लिए आदमी में परिवर्तन हो जाएगा। उसकी चेतना को चुनौती
मिलेगी। उसकी चेतना को बदलना पड़ेगा। तो जटिल यंत्र होता है उतनी श्रेष्ठतर चेतना
को जन्म मिलता है। जितना सरल यंत्र होता है उतनी ही सामान्य चेतना को जन्म मिलता
है।
अभी अंतरिक्ष यान में जो यात्री गए, उन्होंने जो वापस लौट
कर कहा--उन्होंने यह कहा कि अंतरिक्ष यान में जैसे ही हम प्रवेश करते हैं शून्य
आकाश में, इतना सन्नाटा है वहां, इतना
साइलेंस है, इतना टोटल साइलेंस है, इतनी
शांति है कि वहां कोई ध्वनि नहीं, कोई आवाज नहीं कि सिर फटने
लगता है शांति से। आपने सुना होगा, आवाज से फिर फटने लगता है,
यह मुहावरा, लेकिन शांति से सिर फटने लगता है,
यह मुहावरा सुना है आपने कभी? लेकिन अंतरिक्ष
से जो लौटे हैं लोग वे यह कहते हैं कि शांति से सिर फटने लगता है, नसें जवाब देने लगती हैं, क्योंकि इतनी शांति का कोई
अभ्यास नहीं है।
तो आज अमेरिका में और रूस में कमरे बनाए हैं कृत्रिम, जिनके भीतर अंतरिक्ष के जितनी शांति पैदा की है। वहां उनको, यात्रियों को ट्रेंड करते हैं। पंद्रह-बीस मिनट में यात्री बाहर आ जाता है
घबड़ा कर कि नहीं, बहुत घबड़ाहट लगती है।
अब आप समझते है, अमेरिका और रूस दोनों मुल्कों के
वैज्ञानिक ध्यान में उत्सुक हुए हैं कि वे कहते हैं कि अब ध्यान सिखाना पड़ेगा
यात्रियों को, ताकि वे अंतरिक्ष में सामना कर सकें सन्नाटे
का, शून्य का। अब इसको सोचना जरूरी है कि जब पंद्रह मिनट में
आदमी बाहर निकल आता है घबड़ा कर तो धीरे-धीरे
उसका अभ्यास चलेगा उसे चौबीस-चौबीस घंटे, फिर दो-दो
तीनत्तीन, फिर महीने-महीने इस शून्य में रहना पड़ेगा। क्या
आपके योगियों को तीस-चालीस वर्ष की मेहनत से उपलब्ध हुआ था वह अंतरिक्ष यान के
यात्री को दो दिन में भी उपलब्ध हो सकता है। इतने शून्य का साक्षात्कार करने से
चेतना में बुनियादी क्रांति हो जाएगी।
और हम? हम कहते हैं, हमें बहुत जटिल
यंत्र नहीं चाहिए। हमें जटिल यंत्रों को विकसित नहीं करना है। डर इस बात का पैदा
हो गया है कि आने वाले पचास वर्षों में अमेरिका और रूस में बिलकुल नये तरह के
मनुष्य के पैदा होने की संभावना है। लेकिन हमें कोई खयाल नहीं। हम अपनी दकियानूसी,
पुराणपंथी बातों को लिए बैठे रहेंगे। और अगर कोई कुछ कहेगा तो उसको
गाली देंगे, नाराज होंगे। साठिया कुआं जबलपुर से लेकर
सफदरजंग दिल्ली तक सब नाराज हो जाएंगे। कोई सोचने-विचारने को राजी नहीं होगा। अब
साठिया कुआं के लोग नाराज हो जाएं तो ठीक भी है, क्योंकि
कुआं में रहने वालों की कितनी सामर्थ्य और समझ हो सकती है! लेकिन दिल्ली के लोग भी
नाराज हो जाते हैं।
अभी सौराष्ट्र में था, मेरे खिलाफ मोरारजी
भाई ने वहां वक्तव्य दिए, और मोरारजी भाई ने कहा कि मैं ऐसी
बातें कह रहा हूं जो मुझे नहीं कहनी चाहिए। एक आध्यात्मिक व्यक्ति को, गांधीजी की आलोचना ही नहीं करनी चाहिए। मैंने कहा, आध्यात्मिक
व्यक्ति होना क्या कोई पाप है? मोरारजी भाई कहते हैं,
आध्यात्मिक व्यक्ति को आलोचना ही नहीं करनी चाहिए गांधीजी की। अब तक
तो राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री ही आलोचना करते थे, अब
आध्यात्मिक लोग आलोचना करते हैं। मैं मोरारजी भाई को कहना चाहता हूं कि गांधीजी को
आध्यात्मिक लोग ही समझ सकते हैं, राजनीतिक और आर्थिक लोग तो
समझ भी नहीं सकते। क्योंकि गांधीजी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति हैं--न तो राजनीतिज्ञ
हैं और न अर्थशास्त्री। दोनों नहीं हैं। राजनीति आपद-धर्म भी उनके लिए। एक मुसीबत थी,
जरूरत आ गई थी इसलिए खड़े थे। लेकिन मूलतः तो वे आध्यात्मिक व्यक्ति
हैं। उनको आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा? और
अगर आध्यात्मिक व्यक्ति गांधी की आलोचना नहीं करते हैं तो फिर कौन करेगा?
(बीच में एक आदमी का हस्तक्षेप और शांत रहने का आग्रह)
उनकी बात मैंने सुन ली। वह यह कह रहे हैं कि मैं गांधीजी के संबंध में
कुछ अच्छी बात भी कहूं। वह मैं कहूंगा, इतने घबड़ा मत जाइए।
इतने परेशान मत हो जाइए। जाते-जाते एकाध अच्छी बात जरूर उनके बाबत कहूंगा जो आपके
मन को बहुत अच्छी लगे।
यह जो मोरारजी भाई कहते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को आलोचना नहीं
करनी चाहिए, यह बड़ी नासमझी की बात मालूम पड़ती है। शायद उनका खयाल
है कि आध्यात्मिक व्यक्ति आलोचना करते ही नहीं। तो उन्हें पता नहीं है कि
शंकराचार्य ने कितनी आलोचना की है। उन्हें पता नहीं है कि बुद्ध ने कितनी आलोचना
की है। उन्हें पता नहीं है कि सारे अध्यात्म का विकास आलोचना से हुआ है। फिर,
गांधी तो एक आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। गांधी के ऊपर हिंदुस्तान के
आध्यात्मिक व्यक्ति को गंभीरता से सोचना और विचार करना जरूरी है। और मेरा कहना है
कि गांधी चूंकि आध्यात्मिक व्यक्ति हैं इसलिए ही अर्थ के जगत में, राजनीति के जगत में बहुत सी भूलें कर सकते हैं; जो
कि शायद कौटिल्य या मेकियाविली कभी भी न करता।
काका कालेलकर ने अहमदाबाद में मेरे खिलाफ अभी एक व्यक्तव्य दिया और
कहा, मेरी उम्र कम है इसलिए मैं गड़बड़ बातें कह देता हूं;
उम्र थोड़ी ज्यादा होगी तो फिर मैं ठीक बातें कहने लगूंगा। मुझे वे
जवाब कोई भी नहीं देते हैं। यह जवाब हुआ! मैं जो कहता हूं उसका यह जवाब हुआ!
शंकराचार्य की उम्र--तैंतीस वर्ष में वह खतम वह खतम हो गए। उनकी उपनिषदों पर लिखी
टीकाएं व्यर्थ हैं, अस्सी साल के आदमी की ठीक होती हैं?
विवेकानंद की मृत्यु छत्तीस साल में हो गई, तो
विवेकानंद ने जो कहा, वह नासमझी से भरा होगा? जीसस क्राइस्ट तैंतीस साल में सूली पर लटक गए, बड़ी
गलती की जीसस क्राइस्ट ने। अगर काका कालेलकर से वह सलाह लेते तो वह कहते कि अस्सी
साल जीयो। यह उम्र का सवाल है? उम्र से बुद्धिमत्ता आ जाती
है? अगर उम्र से बुद्धिमत्ता आती होती तब तो बड़ी आसान बात थी,
हम सब लोग उम्र की प्रतीक्षा करते और बुद्धिमत्ता आ जाती। उम्र से
तो बुद्धिमत्ता आती दिखाई नहीं पड़ती, चालाकी और कनिंगनेस
जरूरी आती दिखाई पड़ती है।
गुजरात सरकार मुझे छह सौ एकड़ जमीन देती थी। जिस दिन मैंने पहली दफा
अहमदाबाद में गांधी के लिए व्यक्तव्य दिया, तो मेरे मित्र मेरे
पास आए और उन्होंने कहा, यह आप क्या करते हैं? थोड़ा ठहर जाइए, वह जमीन मिल जाने दीजिए। फिर
व्यक्तव्य देना चाहिए। मैंने उनसे कहा, आप अनुभवी लोग हो,
आपके लिए जमीन का ज्यादा मूल्य है। मैं गैर-अनुभवी हूं, मुझे जीवन का कोई भी मूल्य नहीं है। जो मुझे ठीक लगता है वह मैं कहूंगा।
जमीन आती हो या जाती हो, इसका अर्थ और कोई हिसाब रखने की
जरूरत नहीं है। मैंने काका को खबर भेजी कि ठीक कहते हैं, वह
अगर मैं अनुभवी होता तो चार दिन बाद कह सकता था, जमीन मिल
जाती। और हर्ज क्या था? न भी कहता, क्या
हर्ज था? न भी कहता तो मुझे प्रशंसा ज्यादा मिलती। अभी तो
निंदा मिल सकती है, गाली मिल रही हैं। क्या जरूरत थी कहने की?
समझदार आदमी, अनुभवी आदमी ऐसी बातें नहीं
कहते। वे ऐसी ही बातें कहते हैं जो सबको अच्छी लगे, सबकी प्रशंसा
के पात्र बने। लेकिन ऐसे लोग जगत में कोई बुनियादी क्रांति करने में कभी भी समर्थ
नहीं होते।
मुझे गांधी से विरोध नहीं है। वह मित्र शायद घबड़ा गए। हम इतने पतले
टीन के बने हुए लोग हैं कि जरा सी गर्मी में बस उबाल आ जाता है। वह घबड़ा गए। गांधी
से मुझे विरोध नहीं है। शायद उन्होंने सुना नहीं, मैंने कहा कि गांधी
जैसा आदमी इस मुल्क के इतिहास में दूसरा खोजना मुश्किल है। मेरे सिवाय शायद ही
किसी आदमी ने गांधी की इतनी प्रशंसा की हो। लेकिन हमारा छोटा सा दिमाग है।
(पुनः हस्तक्षेप)
यह हमारा दिमाग है, यह छोटा सा हमारा दिमाग है वह
इतना जल्दी परेशान हो जाता है कि गांधी की
जैसे कोई आलोचना की गई तो गांधी का कोई अहित हुआ जा सकता है।
(उनसे कुछ भी मत कहिए, उनसे कुछ
भी मत कहिए। एक ही आदमी का गड़बड़ होना काफी है, उनको समझाइए
मत। उनको बिलकुल मत समझाइए)
यह जो हमारी मानसिक दशा है कि हम प्रशंसा सुनने का आतुर होते हैं, हमें अच्छा लगता है कि हमारे महापुरुष को बड़ा कहा जा रहा है। हमारे अहंकार
की बड़ी तृप्ति होती है। लेकिन, उस तृप्ति से मुल्क का क्या
हित होता है? यह भी मैं नहीं कह रहा हूं कि गांधी ने जो किया
यह सभी बुरा किया। कह मैं यह रहा हूं कि सारा मुल्क तो प्रशंसा करेगा, कम से कम एक आदमी को आलोचना करने दो। एक वर्ष चलेगी यह प्रशंसा तो।
हिंदुस्तान पूरी प्रशंसा करेगा, सारे लोग प्रशंसा करेंगे।
खोज-खोज कर लाएंगे कि क्या-क्या अच्छा किया? कोई नहीं कहेगा
कि क्या मुल्क पर, आने वाले मुल्क पर उस सबका क्या परिणाम हो
सकता है? एक आदमी को कहने दो।
और मैं यह जानता हूं कि गांधी अगर स्वयं हों तो आलोचना के लिए स्वागत
करेंगे। जीवन भर उनकी आदत यह थी। न केवल आलोचना का स्वागत करेंगे, बल्कि खुद निरंतर अपनी आलोचना करते रहे। प्रति वर्ष कहते रहे, यह भूल हो गई। मरने के बाद ही उनसे कोई भूल नहीं हुई। जीते थे तो रोज
बताते थे कि यह भूल हो गई, यह भूल हो गई।
एक अमरीकी पत्रकार ने गांधी के खिलाफ बहुत सी ऐसी बातें लिखीं, जो सरासर झूठ थीं। लिखा की गांधी औरतों के कंधों पर हार रख कर सैर-सपाटा
करते हैं। कुछ ऐसे बुद्धिमान लोग हैं कि उन्हें औरतों के सिवाय कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। अब वह गांधी की अपने लड़कों की लड़कियां हैं, अपनी
भतीजियां हैं, ये हैं छोटी लड़कियां जिनके कंधों पर वे हाथ
रखते हैं। उनकी तस्वीरें छापीं कि गांधी बड़े अश्लील आदमी हैं। अंग्रेज सरकार ने
लाखों रुपये उस सबके प्रचार के लिए दिए। वह अमरीकी पत्रकार हिंदुस्तान आया तो वह
डरा हुआ था। वह सारे के सारे जवाब तैयार करके लाया था कि हिंदुस्तान में पूछताछ
होगी। गांधीजी को खबर मिली तो उन्होंने अपने सेक्रेटरी को दिल्ली भेजा और उस
पत्रकार को निमंत्रण दिया कि वर्धा आए बिना मत चले जाना। मुझे बहुत दुख होगा।
अमेरिका में बहुत ही कम लोग मुझे जानते हैं जितना तुम जानते हो। वह आदमी बहुत डरा।
वह आदमी घबड़ाया कि यह कुछ फांसने की चाल तो नहीं है? लेकिन
उसे पता नहीं कि गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे, फंसाना वह जानते
ही नहीं थे। उनको कल्पना भी नहीं थी। वह डरा हुआ वर्धा आया। वह इतना घबड़ाया हुआ है
कि जाते से ही दिखता है कि वही बात पूछी जाएगी कि तुमने यह लिखा, तुमने यह लिखा, तुमने यह लिखा। लेकिन दिन बीत गया,
गांधी ने बहुत बातें पूछीं, उसका स्वास्थ्य
कैसा है, उसकी तबीयत कैसी है, उसकी
पत्नी कैसी है, उसके बच्चे कैसे हैं, अमेरिका
में और सब क्या हाल है? सब पूछा, रात आ
गई, वह बात नहीं हुई। दूसरा दिन हो गया, और सब बातें हुईं--गीता, कुरान सब आए।
दूसरे दिन विदा का वक्त आ गया। उस आदमी से यह पूछा कि तुमने मेरे बाबत
यह क्या लिखा है? चलते वक्त वह आदमी रोने लगा, और
उसने कहा, क्या बापू आप मुझसे वह पूछेंगे नहीं? गांधी ने कहा, तुमने लिखा है तो सोच कर ही लिखा
होगा। तुमने लिखा है, तुम इतने बुद्धिमान आदमी हो, विचार करके ही लिखा होगा। और फिर जब से मैंने पढ़ा, मैं
खुद ही सोचने लगा कि मेरे भीतर कहीं कोई वासना शेष तो नहीं है? अन्यथा यह आदमी लिखता कैसे! कहीं मेरे भीतर कोई वासना जरूर शेष होनी चाहिए,
इस आदमी को पकड़ में आई है बात। तो कहीं न कहीं कोई किसी कोने में
वासना शेष होगी। ठीक ही तो है, मुझे विचार का तुमने मौका
दिया। और तुमसे मेरी प्रार्थना है, वहां जाकर मेरी प्रशंसा
मत करने लगना। मेरी प्रशंसा करने वाले बहुत लोग हैं। थोड़े ही आलोचक हैं, उनके ही आधार से मैं विकसित होता हूं। जो थोड़े से आलोचक हैं उनके ही आधार
से मैं विकसित होता हूं। क्योंकि वे मुझे कहते हैं कि यहां गलत है। मेरे प्रशंसक
तो जयजयकार करते हैं। उनसे मुझे पता भी नहीं चलता कि मैं गलत भी हो सकता हूं। और
अगर मैं उनकी मैं उनकी ही बातों में पड़ा रहूं तो मुझे गङ्ढे में ले जाएंगे वे। सब
अनुयायी अपने नेताओं को गङ्ढे में ले जाने वाले सिद्ध हुए हैं। क्योंकि अनुयायी
जयजयकार करते हैं। और अनुयायी बहुत घबड़ाता है, जयजयकार में
कोई कमी न हो जाए। लेकिन गांधी जैसे लोगों को जयजयकार से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
इतने घबड़ाने की जरूरत नहीं है। इतने बेचैन होने की जरूरत नहीं है।
मैं जो कह रहा हूं वह गांधी के खिलाफ नहीं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा
हूं वह गांधी की जो धारणाएं हैं, गांधी का जो विचार है वह इस
मुल्क के लिए लागू हो सकता है, इस संबंध में कह रहा हूं।
गांधी तो अनूठे व्यक्ति हैं, उनके विचार चाहे कितने ही गलत
सिद्ध हों। विचार उनके खतम हो जाएंगे, लेकिन गांधी की महानता
खतम होने वाली नहीं है।
कराची में एक कांग्रेस में गांधी थे। कुछ लोगों ने काले झंडे दिखाए गांधी
को। और नारा लगाया, "गांधीवाद मुर्दाबाद'।
गांधी ने माइक से बोलते हुए कहा, गांधी मर जाएगा लेकिन
गांधीवाद जीएगा। मैं गांधी से कहना चाहता हूं, थोड़ी भूल हो
गई शब्दों में। उनसे कहना चाहता हूं, गांधीवाद मर सकता है,
गांधी जीएगा। गांधी नहीं मर सकता है। गांधी का व्यक्तित्व ऐसा अनूठा
है कि वाद वाद का कोई सवाल नहीं है। वह सब चला जाएगा लेकिन गांधी की सच्चाई,
गांधी की करुणा, गांधी की अहिंसा, गांधी का प्रेम, गांधी की ईमानदारी, गांधी की सरलता, वह जीएगी। गांधीवाद में कोई भूल
नहीं है बहुत, लेकिन गांधी में बहुत मूल्य है।
और यह मैं उदाहरण के लिए कहना चाहता हूं। जैसे माक्र्स को अगर हम उठा
कर देखें तो माक्र्स के व्यक्तित्व में कुछ भी नहीं है। दो कौड़ी का व्यक्तित्व है
लेकिन विचार बहुत कीमती है। माक्र्स के व्यक्तित्व में कुछ भी नहीं है। कोई कीमत
की बात नहीं है, लेकिन विचार उसका अनूठा है। माक्र्स का विचार जीएगा।
गांधी का विचार अनूठा नहीं है। गांधी के व्यक्तित्व में बड़ी अनूठी खूबियां हैं।
गांधी का व्यक्तित्व जीएगा।
मैं जिस समाज की कल्पना करता हूं उस समाज में गांधी जैसे व्यक्ति
चाहता हूं और माक्र्स जैसा समाज चाहता हूं। अब यह मेरी मजबूरी है कि गांधी के
विचार से मैं राजी नहीं हूं, लेकिन इससे मैं यह भी नहीं कहता
हूं कि आप मुझसे राजी हो जाएं। मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि मेरी जो गैर राजी होने
की स्थिति है, उसे आप समझें, सोचें,
विचार करें। हो सकता है, मैं गलत सिद्ध हो
जाऊं। मैं गलत सिद्ध हो जाऊं तो मेरी बातों को फेंक दें कचरे में। लेकिन यह भी हो
सकता है कि मेरी कोई बात सही सिद्ध हो सकती है। और अगर कोई बात सही सिद्ध हो सकती
है तो सिर्फ इस भय से कि कहीं गांधी की आलोचना हो जाए उसको न कहना, सारे मुल्क को गङ्ढे में ले जाना होगा।
इस मुल्क की तरफ देखें, गांधी की जयजयकार की
तरफ देखें। क्या करें? इस बड़े मुल्क का भविष्य देखें या बस
चुपचाप बैठ कर प्रशंसा करते रहें? बहुत हमने प्रशंसा की है
हजारों साल से। हम अपने किसी महापुरुष की आलोचना कभी किए ही नहीं हैं, और इसलिए यह मुल्क इतना छोटा का छोटा रह गया है। महापुरुषों की आलोचना से
मुल्क ऊपर उठते हैं। महावीर की आलोचना की कभी इस देश ने? कभी
हमने बुद्ध की आलोचना की? अब हम गांधी के साथ वही
दर्ुव्यवहार कर रहे हैं। वह दर्ुव्यवहार यह है कि गांधी को भी भगवान बना कर बिठा
देना है--एक मंदिर में। बस उनकी पूजा करो, फूल चढ़ाओ, लेकिन उनका उपयोग मत करना देश के जीवन के लिए। और देश के लिए, जीवन के लिए उपयोग करना है तो सोचना पड़ेगा, तो गांधी
को घसीटना पड़ेगा आग में। लेकिन मैं जानता हूं कि उनके भीतर बहुत कुछ सोना है। वह
आग में भी बच जाएगा और जो कचरा है वह तो जल ही जाना चाहिए। वह गांधी का है इसलिए
उस कचरे को आदर देने का कोई सवाल नहीं उठता है।
कुछ गांधी से मेरा विरोध है, ऐसी धारणा लोगों के
मन में पैदा हो जाती है। गांधीवाद से मेरा विरोध है। और गांधीवादियों से तो बहुत
ज्यादा विरोध है क्योंकि बीस साल में गांधीवादियों ने मुल्क को नरक की यात्रा करवा
दी और उनसे इस मुल्क को बचाना एकदम जरूरी है। लेकिन वे सारे गांधी की आड़ में
गांधीवाद को और गांधीवादियों को बचाए रखना चाहते हैं। गांधी का जोर से शोरगुल मचा
कर यह भ्रांति मुल्क में जारी रखना चाहते हैं कि गांधीवाद ठीक है। आदमी के तर्क
बड़े अनूठे हैं। आदमी बहुत होशियारी से तर्क खोजता है। वह उसे पता भी नहीं चलता है
कि वह कैसे तर्क खोज रहा है। एक आदमी कहता है हिंदू धर्म महान है, और भीतर से वह यह कहना चाहता है कि मैं हिंदू हूं। मैं महान हूं इसलिए
हिंदू धर्म महान है।
मैं हमेशा एक कहानी कहता रहा हूं--पेरिस यूनिवर्सिटी में एक प्रोफेसर
था दर्शन का। उसने एक दिन आकर अपनी कक्षा में कहा कि मुझसे महान व्यक्ति दुनिया
में कोई भी नहीं है। उसके शिष्यों ने पूछा, आप! आप एक गरीब से
शिक्षक, फटा कोट पहने हुए हैं। आप! सबसे महान! कैसे आपको पता
चला? मन में हैं, पागल हो गए होंगे।
दार्शनिकों के पागल हो जाने में देर नहीं लगती। वे किनारे पर खड़े रहते हैं,
कभी भी पागल हो सकते हैं। एक विद्यार्थी ने पूछा, लेकिन आप, महान कैसे? वह आदमी
उठ कर गया, उसने नक्शे पर जाकर कहा कि मैं सिद्ध कर दूंगा।
तुम तो जानते हो, मैं तर्कशास्त्री हूं। उसने जाकर नक्शे पर
हाथ रखा और पूछा कि पूछता हूं, दुनिया में सबसे महान देश
कौनसा है? उन्होंने कहा, फ्रांस। वे
सभी फ्रांस के रहने वाले हैं--फ्रांस। हिंदुस्तान के रहने वाले होते तो हिंदुस्तान,
तिब्बत के होते तो तिब्बत। क्योंकि जहां हम पैदा होते हैं वही देश
महान हो जाता है क्योंकि हम जो महान हैं भीतर! उन्होंने कहा, फ्रांस। उसने कहा, तब सारी दुनिया खतम हो गई। अब रह
गया फ्रांस। अब मुझे सिद्ध करना है कि फ्रांस में मैं सर्वश्रेष्ठ आदमी हूं। तब भी
उसके बच्चे नहीं समझे कि वह कहां ले जा रहा है। उसने कहा कि फ्रांस में सबसे
श्रेष्ठ नगर? तब बच्चों को शक हुआ कि मामला गड़बड़ हुआ जाता
है। वे सब पेरिस के रहने वाले हैं। उन्होंने कहा, पेरिस।
उसने कहा, तब फ्रांस खतम, अब रह गया
पेरिस। अब पेरिस में सिद्ध करना है कि मैं बड़ा हूं या नहीं। और पेरिस में सबसे
श्रेष्ठ स्थान? निश्चित ही विद्या का मंदिर विश्वविद्यालय है,
यूनिवर्सिटी। उसने कहा, तब ठीक, अब रह गई यूनिवर्सिटी। और यूनिवर्सिटी में श्रेष्ठतम विषय? फिलासफी। और मैं फिलासफी विभाग का हेड ऑफ द डिपार्टमेंट हूं।
आदमी इतना चालाक है। भीतर बहुत गहराई में एक ही बात है कि "मैं'।
गांधी महान है, गांधीवाद महान है, फिर
धीरे से वह कहता है मैं तो गांधीवाद का एक सेवक हूं। पीछे वह आदमी खड़ा है। पीछे वह
छोटा सा सेवक है जिसका सारा जाल है। वह सेवक घबड़ाया हुआ है। वह गांधीवादी घबड़ाया
हुआ है। गांधी को कोई डर नहीं है आलोचना का, लेकिन गांधीवादी
को डर है। वह बहुत भयभीत है। उसका भय क्या है? उसका भय यह है
कि अगर गांधी पर तीव्र आलोचना इस मुल्क में चली और लोगों ने सोचा और समझा, और अगर गांधी में कुछ गलतियां दिखाई पड़ीं तो गांधीवादी की जड़ कट जाने वाली
है। वह इस मुल्क में जी नहीं सकेगा। उसके शोषण का सारा उपाय नष्ट हो जाएगा। गांधीजी
ने कहा कि मैं ट्रस्टीशिप चाहता हूं। मैं चाहता हूं एक ऐसा देश, जहां धनी अपने धन का मालिक न हो। लेकिन चालीस वर्ष की निरंतर मेहनत के बाद
गांधी एक भी धनी आदमी को ट्रस्टी बनने को राजी कर पाए? एक भी
आदमी को? यह असफलता नहीं है? और अगर
खुद गांधी जैसा महान व्यक्ति एक धनपति को राजी नहीं कर पाया ट्रस्टी बनने के लिए
तो गांधीवादी राजी कर लेंगे, ये छुट भय्ये राजी कर
लेंगे--गांधी के पीछे जो कतार खड़ी है? गांधी हार गए, एक करोड़पति राजी नहीं हुआ। बल्कि मामला उलटा हो गया। गांधी के एक करोड़पति
शिष्य ने जब हिंदुस्तान आजाद हुआ तो उसके पास तीस करोड़ की संपत्ति थी। बीस साल के
बाद उनके पास तीन सौ तीस करोड़ की संपत्ति है। तीन, तीन सौ
तीस करोड़ हो गया।
कहते हैं दुनिया के इतिहास में किसी करोड़पति ने एक परिवार के लिए इतने
कम समय में इतनी संपत्ति इकट्ठी नहीं की। तो गांधीवाद को कैसे गिरने देना करोड़पति? कैसे गिरने देगा अमीर गांधीवाद को? उसके ऊपर ही आज
उसकी जिंदगी ठहरी हुई है। इधर गांधीवादी की आवाज है, लेकिन
पीछे से पूंजीवादी के स्वर हैं। लगाम उसके हाथ में है। वह कहता है कि सब
हृदय-परिवर्तन से ठीक हो जाएगा। गांधीजी एक आदमी का हृदय-परिवर्तन नहीं कर पाए। एक
आदमी का हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ कि वह अपनी संपत्ति छोड़ दे। अब कौन हृदय-परिवर्तन
करेगा? गांधी नहीं कर पाए तो कौन करेगा हृदय-परिवर्तन?
नहीं, हृदय-परिवर्तन की बातचीत के पीछे
हिंदुस्तान में शोषण का जाल जारी रहे इसकी चेष्टा चल रही है।
ये सारी बातें सोचने जैसी हो गई हैं कि इन बातों को चलने देना है या
हिंदुस्तान में एक समाजवादी समाज निर्मित करना है? एक शोषणविहीन समाज
निर्मित करना है या कि हिंदुस्तान में जो गरीबी-अमीरी के फासले हैं वे बड़े से बड़े
होते जाने देना है! एक तरफ गरीबों का ढेर इकट्ठा होता जाए, जिसके
पास जिंदगी की सांस लेने की सामर्थ्य भी नहीं रह गई, और एक
तरफ धन इकट्ठा होता चला जाए। यह चलने देना है? यह नहीं चलने
देना है तो हमें विचार करना पड़ेगा कि गांधी जो हृदय-परिवर्तन की बात कहते तो उससे
कुछ होगा, या कुछ और करना जरूरी है।
विनोबा ने मेहनत की, गांधी की बात मान कर उन्होंने
श्रम कर लिया बीस साल। उनकी मेहनत में, उनकी नीयत में कोई शक
नहीं हो सकता। उन जैसे साफ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उन जैसे सच्चे और देश के लिए
प्राण लगाने वाले आदमी खोजने मुश्किल हैं। लेकिन असफल हो गई सारी यात्रा। असफल
इसलिए हो गई कि आप चाहे कितना ही दान लेकर गरीबों में बांट दो, कितनी ही जमीन बांट दो, शोषण का यंत्र बरकरार है,
उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं एक लाख रुपया दान कर दूं तो मैं
नहीं बदलता हूं। मैं फिर जिस तरह मैंने पिछला एक लाख कमाया था, दुगुनी ताकत से उस एक लाख को कमाने में फिर लग जाता हूं। शोषण का यंत्र
जारी है। मैं जमीन दान कर दूं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
दान-दक्षिणा से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि शोषण का यंत्र दान-दक्षिणा से
नहीं बदलता, बल्कि दान-दक्षिणा कर ही वे पाते हैं जो शोषण से
पहले इकट्ठा कर लें, तब दान-दक्षिणा करें। नहीं तो
दान-दक्षिणा करेंगे कहां से? पहले एक आदमी अमीर हो जाता है,
फिर दान करता है। और अमीर होने का जो यंत्र है वह जारी रहता है। दान
करता जाता है और यंत्र भी जारी रखता है। इससे कोई मुल्क की सामाजिक व्यवस्था नहीं
बदल सकती। समाजवाद आए इस देश में तो सर्वोदय हो सकता है, लेकिन
सर्वोदय से समाजवाद कभी नहीं आ सकता।
इस सब पर सोचना जरूरी है। इस सब पर विचार करना जरूरी है। यह विचार
करने के लिए मैं पूरे मुल्क में एक-एक गांव में जाने की मेरी योजना है इस पूरे
वर्ष में कि गांधी पर हम पुनर्विचार करें। लेकिन गांधी पर ही क्यों? क्योंकि गांधी को मैं इस सदी का श्रेष्ठतम मनुष्य मानता हूं, इसलिए गांधी पर विचार किया जाना जरूरी है। जो श्रेष्ठतम है, उसके बाबत हमें बहुत सजग और होशपर्वक विचार कर लेना चाहिए। साधारणजनों के
बाबत विचार करने की कोई भी जरूरत भी नहीं है। गांधी के बाबत विचार करने की जरूरत
है। और आने वाले पचास-पच्चीस वर्षों में हिंदुस्तान में जो कुछ हो सकता है इस पर
निर्भर होगा कि हम गांधी के बाबत क्या निर्णय लेते हैं? अगर
हमें यह निर्णय लेना है कि गांधी ठीक हैं तो फिर सौ प्रतिशत यही निर्णय लो। फिर
छोड़ो सारी यांत्रिकता, फिर छोड़ो सारा केंद्रीयकरण। फिर लौट
जाओ, बड़े शहरों को तोड़ दो, लौट जाओ
गांव में, और गांधी का प्रयोग पूरा कर दो। ईमानदारी से यही
निर्णय ले लो, एक आनेस्टी तो हो! सिंसिएरिटी तो हो!
लेकिन अभी मामला ऐसा है कि एक आदमी मैंने देखा, एक कार्टून मैंने देखा, एक आदमी जा रहा है। अपना
सूटकेस लिए हवाई जहाज पर चढ़ रहा है। जो उसे छोड़ने आए हैं वे उससे पूछते हैं,
आप कहां जा रहे हैं? वह आदमी कहता है, मैं लंदन जा रहा हूं हिंदी पर रिसर्च करने। "हिंदी पर रिसर्च करने
लंदन जा रहे हैं?' एक आदमी हिंदी के पक्ष में भाषण देता है
और अंग्रेजी में भाषण देता है कि हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, अंग्रेजी में बोलता है। यह पागलपन छोड़ो।
एक तरफ हम गांधी का विचार करें और गांधी को सही मानें और जयजयकार करें, और दूसरी तरफ केंद्रीयकरण करें, तो गलत है। फिर
यंत्रीकरण मत करो। फिर तोड़ दो सारे बड़े यंत्रों को। फिर पश्चिम से सहायता मत लो।
फिर मत बनाओ भिलाई, फिर मत खड़ा करो भाखरा और नंगल। छोड़ो इनको,
इनकी जरूरत नहीं है, लौट चलो गांव को। तो भी
मैं तैयार हूं। गांधी पर विचार करके इतनी हिम्मत भी मुल्क करे तो भी समझ में आता
है। लेकिन यह बेईमानी, यह कांइयांपन ठीक नहीं है। गांधी की
जयजयकार करो, और जो कर रहे हो वह बिलकुल उलटा है वह भी किए
चले जाते हैं। एक तरफ बड़ी मिल खड़ी करते हैं तो दूसरी तरफ खादी को प्रोत्साहन देते
हैं।
अगर मैं एक खादी की धोती पहनूं--दस रुपये में मिल सकती है बाजार में
साधारण धोती--तो यह साठ रुपये की होगी। साठ रुपये पर पंद्रह रुपये सरकार देगी।
सरकार किसके पास से दे रही है? सरकार उनके पास से दे रही है जो
खादी नहीं पहनते हैं। उनसे टैक्स ले रही है, और जो खादी
पहनते हैं उनको पंद्रह रुपये का कंसेशन दे रही है। करोड़ों रुपये इस बीस वर्षों में
खादी को कंसेशन देने में खर्च किया गया है। इन करोड़ों रुपये से मिलें बन सकती थीं,
मशीनें बन सकती थीं। और नहीं बनाना है मिलें और मशीनें तो तोड़ दो,
फिर पूरी खादी ही बनाओ। लेकिन मुल्क को एक स्पष्ट निर्णय चाहिए कि
हम जो करेंगे वह साफ हो, स्पष्ट हो। हम ऐसा न करें कि एक कदम
आगे रखेंगे और दूसरा पीछे रखेंगे। बाएं हाथ से ईंट रखेंगे और दाएं हाथ से खींच
लेंगे। तो इस मुल्क का भवन फिर निर्मित नहीं हो सकता है। एक स्पष्ट निर्णय चाहिए
मुल्क के सामने गांधी के पक्ष में, तो गांधी के पक्ष में
हिम्मत से जुट जाना चाहिए।
मुझे लगता है, गांधी के पक्ष में जुटना आत्मघात है, स्युसाइडल है। यह मुझे कहने का हक है। मुझे लगता है कि गांधी से पूरी तरह
मुक्त हो जाना चाहिए, गांधीवाद से। गांधीवाद नहीं मुल्क के
हित में सिद्ध होने वाला है। मुल्क को चाहिए नवीनतम वैज्ञानिक उपकरण, श्रेष्ठतम टेक्नालाजी, केंद्रीयकरण, नई से नई शोध, नया विज्ञान ताकि मुल्क की दरिद्रता
मिट सके, मुल्क संपन्न हो सके। और मैं यह मानता हूं कि
गांधीवाद से मुक्त होने का मतलब गांधी के आदर से मुक्त हो जाना होता है।
सच तो यह है कि अभी जो लोग समझते हैं कि वे गांधी को आदर दे रहे हैं, उन्होंने कुल आदर इतना दिया है कि हवालात में एक फोटो लटका दी है गांधी की,
अदालत में एक फोटो लटका दी है। उन्हीं के नीचे बैठ कर मजिस्टे्रट
रिश्वत ले रहा है। गांधी ऊपर लटके हुए हैं। हवलदार के पीछे फोटो लटकी है, मां-बहन की गाली दे रहा है हवलदार उसको, जिसके लिए
गांधी जिंदगी भर लड़े, वह फोटो लटक रही है। यह सम्मान बढ़ाया
है!
मैं आपको कहता हूं, गांधीवादियों के चक्कर में अगर
गांधी रह गए तो बीस साल में गांधी की कोई इज्जत नहीं बचेगी। इस मुल्क में इनकी वजह
से इज्जत नष्ट हो जाएगी। इनसे गांधी का छुटकारा चाहिए। गोडसे तो गांधी की हत्या
करने में सफल नहीं हो पाया, शरीर को मार पाया। गांधीवादी
गांधी की आत्मा मार डाल सकते हैं। इनसे बचाना जरूरी है गांधी को। यह कोई समझ की
बात है, गांधी कोई पंचम जार्ज हैं। हवालात में लटकाए हो उनको
काहे के लिए? ऐसे कोई आदर बढ़ जाएगा? तुम
मूर्तियां गांव-गांव में खड़ी कर दोगे तो आदर बढ़ जाएगा? आदर
इस तरह नहीं बढ़ता है, बल्कि सरकार, जिस
संत को सरकारी बना लेती है, वह संत नष्ट हो जाता है क्योंकि
लोकमानस से उसकी प्रतिष्ठा चली जाती है। गांधी की जय वह भी थी जो उन्नीस सौ
सैंतालीस के पहले लोग बोलते थे और अब भी बोलते हैं, लेकिन अब
बोलने वालों में सिर्फ प्राइमरी स्कूल के बच्चे सुनाई पड़ते हैं और कोई भी नहीं है।
और ये बेचारे प्राइमरी स्कूल के मास्टर, बच्चे, इनका सदा से यही काम रहा है--चाहे पंचम जार्ज की जय बुलवाओ, चाहे गांधी की जय बुलवाओ।
इन जयजयकारों से कोई प्रयोजन नहीं है। मेरी दृष्टि में भारत को गांधी
के संबंध में पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है। नहीं मैं कहता हूं कि मुझसे राजी हो
जाएं, नहीं मैं कहता हूं कि मैं जो कहता हूं वही सच है।
नहीं, यह दावा मेरा नहीं है लेकिन जो मुझे सच दिखाई पड़ता है
वह कहने का मुझे हक है। और मैं समझता हूं, जो थोड़े भी
बुद्धिमान हैं उन्हें सुनने का भी कर्तव्य दिखाना चाहिए। सुन लें, सोचें, गलत हो, फेंक दें। कुछ
ठीक लगे, मुझसे कोई संबंध न रहा। जो आपके विवेक को ठीक लगता
है वह आपका हो जाता है। लेकिन विचार का प्रवाह खुलना चाहिए। और परमात्मा को
धन्यवाद दे सकते हैं हम कि गांधी जैसा बड़ा आदमी अभी-अभी हुआ हमारे बीच। उस पर अगर
हम विचार कर लें तो शायद आने वाले देश के लिए सीधा और साफ रास्ता निर्मित करने में
सफल हो सकें। इस धारणा से उन पर निर्विचार करने के लिए मैं सारे मित्रों को देश भर
में आमंत्रित करना चाहता हूं। लेकिन वे घबड़ाए हुए हैं। कहते हैं, विचार नहीं, आप आइए, स्तुति
करिए, जयजयकार करिए। मैं कहता हूं, वह
कोई भी कर रहा है। आलोचना करने के लिए सोचना जरूरी है। प्रशंसा करने के लिए सोचना
जरूरी नहीं होता। सच तो यह है, जो सोच नहीं सकते वे बेचारे
प्रशंसा करके निपट जाते हैं। एक कुत्ता भी पूंछ हिला कर प्रशंसा जाहिर कर देता है।
कोई सोचने की बहुत जरूरत नहीं होती। लेकिन आलोचना करना हो तो सोचना जरूरी है,
विचारना जरूरी है, और हिम्मत और साहस से विचार
करना जरूरी है।
मेरी ये थोड़ी सी बातें आपने सुनीं। संभव हुआ तो अगले महीने तीन या चार
इकट्ठा...यह तो मैंने गांधी पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, इस संबंध में बोला हूं, गांधी पर मैं क्या
पुनर्विचार करता हूं यह तीन दिन में या छह लेक्चर में इकट्ठा बोलना चाहूंगा। यह तो
पुनर्विचार होना चाहिए, इस संबंध में मैंने प्रस्तावना की
है। पुनर्विचार क्या होना चाहिए गांधी के इंच-इंच, रत्ती-रत्ती
पर विचार करना जरूरी है। वह संभव हुआ तो अगले महीने मैं बोलूंगा और आपसे करूंगा कि
आप भी तब तक सोचेंगे, विचार करेंगे और तीन दिनों में मैं
चाहूंगा कि आप लिख कर देंगे ताकि आपके प्रश्नों की बात भी हो सके।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना--और उन मित्रों को भी बहुत
धन्यवाद देता हूं, क्रोध में भी वे इतनी देर शांत रहे। थोड़ी देर क्रोधित
हुए, इतनी देर शांत रहे, यह भी कोई कम
है! आप सबने मेरी बात को इतनी शांति से सुना इससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके
भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार
करें।
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