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रविवार, 3 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-25

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पच्चीसवां प्रवचन
समाजवाद: परिपक्व पूंजीवाद का परिणाम

प्रश्न: आपने अभी-अभी ऐसा कहा था कि हमारे यहां अभी सोशलिज्म की जरूरत नहीं है। अभी जो कैपिटलिज्म है, वह यहां फ्लरिश होना चाहिए। उसके बारे में क्या आप कुछ विस्तार से प्रकाश डालेंगे?

हां, मेरी ऐसी दृष्टि है कि समाजवाद पूंजीवाद की परिपक्व अवस्था का फल है। और समाजवाद यदि अहिंसात्मक और लोकतांत्रिक ढंग से लाना हो तो पूंजीवाद परिपक्व हो, इसकी पूरी चेष्टा की जानी चाहिए। पूंजीवाद की परिपक्वता का अर्थ है, एक औद्योगिक क्रांति--कि देश का जीवन भूमि से बंधा न रह जाए, और देश का जीवन आदिम उपकरणों से बंधा न रह जाए। आधुनिकतम यंत्रीकरण हो तो संपत्ति पैदा हो सकती है। और संपत्ति जब अतिरिक्त मात्रा में पैदा होती है, तभी उसका वितरण भी हो सकता है, और विभाजन भी हो सकता है।

अभी हम समाजवाद की कोशिश करेंगे तो सिर्फ गरीबी ही बांट सकते हैं, और गरीबी बांटने का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि खतरनाक भी है। और एकबारगी हम आज समाजवादी ढांचे में समाज को ढालें, तो जिस समाज में उत्पादन की आज कोई प्रेरणा नहीं है, जिसका प्रमाद बहुत पुराना और गहरा है, और जिसे संपत्ति पैदा करने की कोई समझ भी नहीं है, उस समाज को अगर आज समाजवादी ढांचा दिया जाए तो हम सदा के लिए गरीब होने की मुहर अपने ऊपर लगा लेंगे।
इसलिए मैं यह नहीं कहता हूं कि समाजवाद जरूरी नहीं है। मैं मानता हूं कि समाजवाद ही जरूरी है। लेकिन समाजवाद संभव हो सके इसलिए औद्योगीकरण और राष्ट्र का ठीक अर्थों में पूंजीवाद हो जाना जरूरी है। या फिर दूसरा रास्ता यह है कि अगर कच्चे पूंजीवाद से हमें समाजवाद पर जाना हो तो हमें हिंसा के कम से कम पचास वर्षों की तैयारी करनी चाहिए। फिर वह लोकतांत्रिक नहीं होगा। फिर वह वैसा ही होगा जैसा रूस या चीन में हो रहा है। वैसी भी हमारी तैयारी नहीं है कि इतने बड़े पैमाने पर हिंसा कर सकें कि एक करोड़ आदमियों की हत्या कर सकें। और मैं मानता हूं कि एक करोड़ की हत्या करके हम अपने देश में संपत्ति पैदा कर पाएंगे, यह संदिग्ध दिखता है। फिर ऐसी भी मेरी समझ है कि उतनी बड़ी हिंसा करके रूस में जैसी सफलता की आशा थी, वह सफलता उपलब्ध नहीं हो पाई। और आज भी रूस एक गरीब मुल्क ही है, अमीर मुल्क नहीं है। और चीन की हालतें तो और भी बदतर हैं।

प्रश्न: इसके लिए हमारे यहां जो पंचवर्षीय योजनाएं आदि हैं डवलपमेंट प्लान, ये कार्यक्रम हमने जो अपनाए हैं वे प्रोग्राम ठीक हैं या इनके तौरत्तरीकों में परिवर्तन का सुझाव आप देना चाहेंगे। पूंजीवाद को परिपक्व बनाने का आपका जो सुझाव है ये कार्यक्रम ठीक हैं या इनमें कोई परिवर्तन होना चाहिए?

जहां तक प्रोग्राम कागज पर होने की बात है, वहां तक तो ठीक ही है, लेकिन इंप्लीमेंटेशन में वह कुछ हो नहीं पाता है। और उसमें भी जो दृष्टि है हमारी, वह भी हमने रूस के फाइव ईयर प्लान से ली है जो कि भूल भरी बात है। समाजवादी ढांचे के बाद पंचवर्षीय योजनाएं एक अर्थ रखती हैं, क्योंकि वहां जबरदस्ती इंप्लीमेंटेशन करवाया जा सकता है। लेकिन समाजवादी ढांचा न हो तो फाइव ईयर प्लान बहुत और शक्ल के होने चाहिए। वह जापान या अमरीका की शक्ल में, या इजरायल की शक्ल में--रूस की शक्ल में नहीं।
हमारी तकलीफ क्या है, हम दुनिया में, कहीं भी अच्छा हो रहा है उसको अच्छा मान कर फौरन शुरू कर देते हैं, इस बात कि बिना फिकर किए कि उसकी पूरी पृष्ठभूमि हमारे पास तैयार है या नहीं। अगर पृष्ठभूमि तैयार नहीं है तो वह बिलकुल अच्छा हो तो भी बेमानी है। वह ऐसे ही है जैसे कार के इंजन को लाकर बैलगाड़ी में रख लिया है। अब बैठें। वह बहुत अच्छा था कार में, और ठीक चलता था। वह बैलगाड़ी में बिलकुल बेमानी है। वह बैलगाड़ी पर बोझ बन रहा है और बैलगाड़ी को उससे कुछ हित नहीं है, बैल के लिए और परेशानी है। तो हमारी तकलीफ इधर रही है, क्लैक्टिक तकलीफ है हमारी। दुनिया में जो भी अच्छा हो रहा है, वह सब हमें करना है। ठीक है, करना भी है, लेकिन उसकी जो बेसिक फाउंडेशन हैं, वह न होने से सब मुसीबत खड़ी हो जाती है।
हिंदुस्तान को नजर रखनी चाहिए उन मुल्कों की तरफ जिनकी सामान्य पृष्ठभूमि हमारे जैसी है, जिनका बेसिक ह्यूमन मैटीरियल हमारे जैसा है, जिनका बौद्धिक विकास हमारे जैसा है, और वे क्या प्रयोग कर रहे हैं? तो मेरी नजर मेंहिंदुस्तान को इजरायल पर नजर रखनी चाहिए, जापान पर नजर रखनी चाहिए, तो हमारे काम का हो सकता है।
दूसरी तकलीफ हमारी यह है कि बहुत सी व्यवस्थाएं हैं दुनिया में, आज काम कर रही हैं। उन व्यवस्थाओं के प्रत्येक के काम करने का ढंग अलग है और अपने उनके यंत्र की एक व्यवस्था है। अमरीका से कुछ अच्छा लगता है, वह हम कुछ उधार ले लेते हैं, रूस से कुछ अच्छा लगता है, वह हम उधार ले लेते हैं। हमारा पूरा कांस्टिट्यूशन, हमारे सोचने का ढंग ऐसा है कि जहां से जो अच्छा है वह ले लो। वे सब अच्छा इकट्ठा हो जाता है, लेकिन वह ऐसे हो जाता है जैसे की मीठे-मीठे का भोजन हो जाए। उसका कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि वह महंगा ही पड़ता है, पेट को भारी पड़ जाता है। हजम नहीं हो पाता है। तो हमारा विधान भी वैसा है, हमारे पिछले बीस वर्षों का चिंतन भी वैसा है।
तो हमारा फाइव ईयर प्लान भी एक समाजवादी ढांचे में तो अर्थ रखता था, रख सकता था; लेकिन चूंकि वह ढांचा नहीं है इसलिए हमें उसे तरह से सोचना चाहिए। प्लान तो हमें करना ही पड़ेगा। प्लान इकॉनामी तो जरूरी है। लेकिन वह प्लान इकॉनामी पूंजीवाद के अंतर्गत होगी। समाजवाद है नहीं, उसके अंतर्गत वह होने की बात नहीं उठती। और जब वह प्लान इकॉनामी हमें करनी हो पूंजीवाद के अंतर्गत, तो उसका अधिकतम खर्च औद्योगीकरण पर होना चाहिए। और वह भी प्राइवेट सेक्टर में, अधिकतम उसमें से हमें लगाने की फिकर करनी चाहिए। क्योंकि पब्लिक सेक्टर जैसी चीज हमारे पास नहीं है। और अगर है तो सिर्फ नुकसान में ले जाएगी, फायदे में नहीं ले जा सकती।
यानी मेरा मतलब यह है कि व्यक्तिगत रूप से जो अपनी ओर से जो उद्योगपति हाउसेस हैं, वे जो काम में लगे हैं, उनके लिए देश कितनी सहायता पहुंचा सकता है, उनके काम में कितनी सुविधा जुटा सकता है, और उनके व्यक्तिगत इंसेंटिव को कितना फायदा उठा सकता है, उसकी हमें फिकर करनी चाहिए, बजाय इसके कि हम उस सारी संपदा को सरकारी नियंत्रण में चलने वाली व्यवस्था में लगाएं। क्योंकि सरकारी नियंत्रण में चलने वाली व्यवस्था एकदम असफल है। वह बोध ही नहीं है हमारे पास। इसमें कोई कठिनाई की बात नहीं है वह असफल होगी ही। हम उसमें जितना लगाते जाएंगे, वह डूबने वाला है, वह कहीं आने वाला नहीं है।
और बड़े आश्चर्य की बात है कि सरकारी व्यवस्था में जितना हम लगाते हैं उसमें से कोई पचहत्तर प्रतिशत उन लोगों की नौकरी और तनख्वाह, इसमें खर्च हो जाता है। वह इंतजाम में ही खर्च हो जाता है। जो हमें लगाने का सवाल था वह कहीं लग ही नहीं पाता, उसका कोई परिणाम नहीं हो पाता। हिंदुस्तान में तो अभी व्यक्तिगत प्रेरणा के आधार पर यह जो काम चलता है उस पर ही हमें, सारी प्लानिंग उस पर ही खर्च करनी चाहिए। मगर हालतें उलटी हैं, क्योंकि हमारे दिमाग में सोशलिस्टिक पैटर्न है। तो हम हर हालत में व्यक्तिगत प्रेरणा से चलने वाले कार्य में बाधा डाल रहे हैं। और व्यक्तिगत रूप से जो हम कर रहे हैं; उनको हम कितना रोक सकते हैं काम करने से, उस कोशिश में लगे हैं। और सामूहिक तल पर राज्य के द्वारा चलने वाले काम में ताकत लगा रहे हैं, जो कि असफल होना है।
जो सफल हो सकता था उसकी सफलता में बाधा डाल रहे हैं। जो असफल होगा, उसमें संपत्ति लगा रहे हैं। इतना चाहता हूं, इतना चैंज हमारी प्लानिंग में होना चाहिए। अभी हमें प्लान कैपिटलिज्म की जरूरत है, सुनियोजित पूंजीवाद की जरूरत है; क्योंकि समाजवाद का अभी कोई सवाल नहीं उठता।

प्रश्न: जो इंडिविजुअल इंटरप्राइज है, वह बिजनेस करेगा और सिर्फ अपना प्राफिट देखेगा। सोसाइटी इन लार्ज को जिस चीज की आवश्यकता है जैसे कि प्राइमरी नीड्स ऑफ लाइफ, वह खयाल नहीं करेगा। तो उसके लिए आप क्या सोचते हैं?

ठीक है, यह बात ठीक है। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे जैसे मुल्क में, जहां अभी सोशल कांशसनेस जैसी कोई चीज नहीं है। जहां व्यक्तिगत स्वार्थ पर ही हम पांच हजार सालों से जिंदा है वहां हमें सामाजिक स्वार्थ को पैदा करने की पृष्ठभूमि जब तक न बन जाए, तब तक व्यक्तिगत स्वार्थ का ही हम कितना अवशोषण कर सकते हैं समाज के हित में, उस पर ही ध्यान देना होगा। निश्चित ही व्यक्ति अपने लाभ के लिए ही चेष्टा करेगा।
सरकार इसको इस तरह से उपयोगी कर सकती है कि बेसिक नीड्स को पूरा करने वाले जो लोग उद्योग पैदा करें, उन्हें सरकार ज्यादा सुविधा देती हो और ज्यादा लाभ की व्यवस्था जुटाती हो। जो लोग सिर्फ अपने हित में धन पैदा करने की कोशिश में लगे हुए हैं, उनको उतना लाभ न होता हो तो हमारा व्यक्तिगत रूप से जो इंटरमेनुवर है, वह सामाजिक जरूरत की चीजों को पैदा करने की ओर संलग्न होगा। क्योंकि उसकी नजर सिर्फ लाभ की है। उसे लाभ मिलना चाहिए। अगर बेसिक और एलिमेंट्री नीड्स को पूरा करने वाले उद्योग को ज्यादा लाभ पहुंचाने की व्यवस्था करते हैं, कम टैक्स लगाते हैं, ज्यादा धन पर लोन देते हैं, बेचने की ज्यादा सुविधा देते हैं, कानून का कम बंधन खड़ा करते हैं, हिसाब-किताब के उपद्रव से थोड़ा मुक्त करते हैं, तो हमारा जो उद्योगपति है वह उस दिशा में प्रवाहित होना शुरू हो जाएगा। यानी मेरा मानना यह है कि हमें व्यक्तिगत स्वार्थ का ही पोषण करना पड़ेगा अभी।
सब सवाल यह है, व्यक्तिगत स्वार्थ को सामाजिक हित में नियोजित करने की बात है। तो वह तो किया जा सकता है। उसमें बहुत कठिनाई नहीं है। और अगर यह बहुत बड़े पैमाने पर किया जाए तो धीरे-धीरे...क्योंकि उद्योगपति को या संपत्ति की खोज में निकल गए व्यक्ति को उससे कोई प्रयोजन नहीं कि वह क्या पैदा करता है? वह वही पैदा करता है जहां से लाभ आता है, प्राफिट मोटिव है। तो हम प्राफिट मोटिव क्यों न उसका पूरा करें? और उन दिशाओं में पूरा करें जो देश के हित में हों। हम क्या कर रहे हैं, हम उसके प्राफिट मोटिव को नुकसान पहुंचा रहे हैं और मजा यह है कि हमारे मुल्क में सिवाय प्राफिट मोटिव के कोई मोटिव नहीं है। नया कोई मोटिव नहीं है। उसमें किया नहीं जा सकता कुछ। और उसके कुछ कारण हैं। हमारा पूरा का पूरा चिंतन जो हजारों साल का है, वह व्यक्ति-केंद्रित है। उसमें समाज का कोई बोध नहीं है। पाप है तो मेरे हैं, पुण्य हैं तो मेरे हैं, स्वर्ग मिलेगा तो मुझको मिलेगा, नरक मिलेगा तो मुझको मिलेगा। कर्म हैं तो मेरे हैं, फल हैं तो मेरे हैं। दूसरे से कोई संबंध नहीं हैं कहीं। हम दो कहीं जुड़ते नहीं हैं। सुख है तो मेरा है, दुख है तो मेरा है। दूसरे से कहीं जोड़ नहीं बनता है। हमारी जो फिलासफी है भारत की, उसमें इंटररिलेशनशिप का कोई भाव नहीं है। निपट व्यक्ति केंद्र है सारे चिंतन का, सारे धर्म का, सारे जीवन का।
तो जहां निपट व्यक्ति केंद्र रहा हो दस हजार साल तक, वहां हम एकदम से सोशल मोटिव पैदा नहीं कर सकते। सोशल मोटिव पैदा करने के लिए हमें इंटररिलेशनशिप का बोध बढ़ाना पड़ेगा। और वह जब तक नहीं बढ़ जाता है, तब तक हमें पुराने मोटिव का ही फायदा लेकर समाज को फायदा पहुंचाने की फिकर करनी चाहिए। पर हमारी कठिनाई यह है कि पश्चिम में जो भी सवाल पैदा होता है वह हम पकड़ लेते हैं। वहां एक सोशल मोटिव पैदा हुआ। और उसका कुल कारण इतना है कि उनको कोई तीन सौ वर्ष से यह बात साफ समझ में आ गई कि व्यक्ति का व्यक्ति की तरह न कोई जीवन है, न कोई अर्थ है। अगर कोई भी जीवन है, अर्थ है, सुख है, दुख है, स्वास्थ्य है, बीमारी है तो वह इंटररिलेशनशिप में है। वह हम सब जुड़ कर हैं। यह भाव तीन सौ साल की निरंतर व्यवस्था से पैदा हुआ। इसके बाद सोशलिज्म की बात सार्थक हो सकी वहां। वह हमारे पास नहीं है भाव। इस अगर हम सीधा स्वीकार नहीं करेंगे तो हम दोहरे नुकसान में पड़ेंगे। जिसका हम फायदा उठा सकते हैं उसका फायदा नहीं उठाएंगे और जो है ही नहीं उस पर हम खर्च करेंगे और परेशान हो जाएंगे।
इसलिए हिंदुस्तान में जितने भी सामाजिक हित के लिहाज से सरकार व्यवस्थाएं करती हैं, वे सब नुकसान में पड़ती हैं और सब असफल होती हैं। भिलाई का स्टील का कारखाना हो कि बोकारो हो कि कोई भी हो। यानी रेलवे जैसी निरंतर लाभ देने वाली व्यवस्था इधर नुकसान दे रही हैं। यानी जो कि बिलकुल ही चमत्कारपूर्ण है कि जिससे कभी नुकसान न हुआ था, जो कि सदा ही लाभ की व्यवस्था थी, वह भी नुकसान दे रही है।
अब इधर मैं देखता हूं, मैं प्राइवेट कालेज में भी था तो प्राइवेट कालेज में एक प्रोफेसर सप्ताह में कम से कम बीस लेक्चर देता है, मेहनत करके देता है। फिर मैं गवर्नमेंट कालेज में भी था; गवर्नमेंट कालेज में कोई आठ या दस लेक्चर दे दे तो बड़ी कृपा करता है। बिना तैयारी के देता है, बिना फिक्र देता है नौकरी सिक्योर है, फिर उसे कोई प्रयोजन नहीं है। फिर बात खत्म हो गई। उसको तनख्वाह मिलनी है और एक दफा कंफर्मेशन उसका हो गया तो उसको कोई निकालने वाला नहीं है। वह अपनी आरामकुर्सी पर बैठा रहता है।
इधर मैं जिस कालेज में था उसमें सौ प्रोफेसर थे। और मैं हैरान हुआ यह जानकर कि मैं एक आदमी ने खोज सका कि जिसको पढ़ाने में कोई भी रस हो। तनख्वाह में रस था, वह पूरा हो गया, बात खतम हो गई। प्राइवेट कालेज में तनख्वाह में रस है, पढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो नौकरी जाती है। और सब प्राइवेट कालेज हम धीरे-धीरे गवर्नमेंट के बनाए चले जा रहे हैं और हमारा खयाल है कि गवर्नमेंट का कालेज हो जाने से कुछ फायदा हो जाएगा। और जब कि वे पूरे के पूरे टीचर्स हैं, उनका मोटिव पूरा हो जाता है, बात खतम हो गई, उनको पढ़ाने-लिखाने से कोई मतलब नहीं है। हिंदुस्तान में ऐसा टीचर नहीं है जिसको पढ़ाने में रस है। उसको तनख्वाह में रस है। एक दफा तनख्वाह सुनिश्चित हो गई तो बात खतम हो गई। उसे क्या प्रयोजन है?
तो मैं कालेज में देखा भी, पूछा भी लोगों से, उन्होंने कहा, करना क्या है? हमें कौन अलग कर सकता है? और तनख्वाह जितनी मिलनी है उतनी मिलनी है। हम पढ़ाएं तो ज्यादा नहीं मिल जाएगी, न पढ़ाएं तो कोई कम नहीं हो जाएगी। इसलिए मेहनत किसलिए करनी है? यह प्रोफेसर की बुद्धि हो, तो मजदूर की बुद्धि तो फिर ठीक ही है। यानी मैं यह पूछता हूं, यह हमारा जो टापमोस्ट हो, उसकी जब यह बुद्धि हो तो फिर ठीक है, पीछे हम क्या सोचें इसमें। इसलिए आप क्लैक्टिव फामिंग करें, कोई काम नहीं करेगा। क्लैक्टिव काशंसनेस नहीं है।
तो मेरा मानना है कि इंडिविजुअल कांशसनेस का हमें पचास साल तक शोषण करना चाहिए। और इस शोषण को जारी रख कर क्लैक्टिव कांशसनेस पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। और जब क्लैक्टिव कांशसनेस पैदा हो जाए तो इंडिविजुअल मोटिव को सोशल मोटिव में बदलने का उपाय हो सकता है, उसके पहले नहीं हो सकता है। इसलिए मैं समाजवाद की बात ही एक असंभावना मानता हूं और अगर हमने कोशिश की तो हम उसमें आत्मघात ही करेंगे। हम उससे कहीं भी पहुंच नहीं सकते, हम और दरिद्र और पीड़ित हो जाएंगे।

प्रश्न: पूंजीवाद आप परिपक्व करने की बात करते हैं, तो कौन सी स्टेज होगी पूंजीवाद की, जब हम कह सकें कि हमारे यहां पूंजीवाद परिपक्व हो गया है और सोशलिज्म के लिए एक स्टेज तैयार हो गया है?

सच तो यह है कि मेरा मानना है कि आपको कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। पूंजीवाद परिपक्व हो तो सोशलिज्म में रूपांतरण बहुत सहज है, अपने आप हो जाएगा। और मैं मानता हूं, जिस दिन अपने आप होगा उसी दिन ठीक से होगा, उसके पहले नहीं होगा, इसलिए हमें इसकी बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है कि जवान कब आदमी हो जाएगा और बूढ़ा कब होना शुरू करेगा। शायद तारीख तय भी नहीं की जा सकती। और शायद पता भी नहीं चलेगा। मेरा मानना है कि अमेरिका सोशलिज्म की तरफ जाना शुरू हो चुका है।

प्रश्न: आज तो ऐसा है कि पूंजीवाद पूंजी वाला होता जाता है और गरीब और भी गरीब होता जाता है। तब जैसा आप कहते हैं, वैसा कैसे हो जाएगा?

यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। मजा यह है कि हमको खयाल यह है कि गरीब जो है वह बड़ा दया का पात्र है, और हमें यह खयाल है कि गरीब इसलिए गरीब है कि अमीर ने उसकी पूंजी खींच ली है। यह बड़ी ही भ्रांत बात है। अमीर ने पूंजी पैदा की है। उसने गरीब से खींच नहीं ली है। हां, गरीब से उसने पैदा करवाने में सहयोग लिया है। और अगर अमीर को हम बीच से हटा दें तो गरीब कोई अमीर नहीं हो जाता।
मजा तो यह है कि पहली बार गरीब को जितनी सुविधा है उतनी जगत में कभी भी न थी। पूंजीवाद ने पहली दफा गरीब को भी जिंदा रहने का हक दिया है। गरीब का बच्चा अब बच सकता है, मर नहीं जाता। और इतनी जो बड़ी गरीबों की जमात खड़ी दिखाई पड़ रही है, वह पूंजीवाद ने जो संपत्ति पैदा की है वह उसके फल से जिंदा है, नहीं तो जिंदा नहीं रह सकती थी। दुनिया की आबादी पिछले सौ वर्षों में बढ़नी शुरू हुई है। पहले वह थिर थी। क्योंकि गरीब कितने बच्चे पैदा करता! आठ-दस बच्चे पैदा करता था तो नौ मर जाते थे। जो एक बचता वह भी हमेशा मिनिमम लिविंग पर बचता। उससे ज्यादा बच नहीं सकता था।
एक हमें बड़ी भ्रांति का खयाल दे दिया है समाजवादी विचारकों ने कि गरीब इसलिए गरीब है कि अमीर ने उसकी पूंजी शोषण कर ली। अमीर ने पूंजी पैदा की है पहली दफा, और पैदा करने की वजह से अमीर अमीर हुआ है और गरीब गरीब दिखाई पड़ने लगा है। पूंजी जो है वह क्रिएशन है, शोषण नहीं है एकदम। मैं जो फर्क कर रहा हूं, पूंजी एक तरह का सृजन है। अब जैसे कि आप अगर अमेरिका के बारह अमीरों को बाहर कर दें तो अमेरिका गरीब ही रहता पूरा का पूरा, क्योंकि गरीबी का कोई बोध न होता, क्योंकि कोई अमीर भी नहीं था। अगर हम मार्विन को या राकफेलर को या फोर्ड को अलग कर दें अमेरिका से, जिन्होंने कि संपत्ति पैदा करने के हजार-हजार रास्ते खोजे हैं, हजार-हजार उपायों से लोगों को संपत्ति पैदा करने में संलग्न करवाया, अगर उनको अलग कर दें तो अमेरिका का वह जो आज का मजदूर है, वह कोई अमीर हो जाता है। ऐसा नहीं है कि उसके पास संपत्ति होती। उसके पास संपत्ति होती नहीं। हां, एक फर्क पड़ा कि गरीब की जितनी बड़ी संख्या है, वह नहीं होती। और गरीब का जो बोध है, वह नहीं होता।
पहली दफा पूंजीवाद ने संपत्ति पैदा करने के उपाय खोजे हैं। लेकिन हमें पुरानी आदत रह गई है। पुरानी तो सामंतवादी व्यवस्था थी, वह शोषक व्यवस्था थी, वह शोषक व्यवस्था थी। राजा संपत्ति पैदा नहीं करता था, सिर्फ चूसता था। यानी बड़े मजे की बात है कि राजा जो था वह संपत्ति कभी पैदा नहीं करता था, वह चूसता था। पूंजीपति ने पहली दफा संपत्ति पैदा करने का उपाय खोजा। वह चूस नहीं रहा है। हमें ऐसा लगता है कि हमने एक मजदूर से दिन भर काम लिया, उसको दो रुपये दिया। मजदूर को ऐसा लगता है कि मेरा शोषण कर लिया गया। और मजा यह है कि अगर मैं उससे काम न लूं तो वह दो रुपये भी पैदा नहीं कर सकता। वे दो रुपये भी मेरे काम संलग्न होने की वजह से उसको मिल रहा हैं। नहीं तो वे दो रुपये भी मिलने वाले नहीं थे। वह पैदा भी नहीं होता, वह मरता। वह जिंदा भी नहीं रह सकता था।
पूंजीवाद को मैं वह व्यवस्था कहता हूं जिसने पूंजी पैदा करने के उपाय निकाले। लेकिन पूंजी पैदा होने से निश्चित एक विभाजन हुआ कि एक तरफ पूंजी इकट्ठी हो गई और एक तरफ पूंजीहीन लोग इकट्ठे हो गए। ये पूंजीहीन लोग पूंजीपति के शोषण के कारण पूंजीहीन नहीं हैं। पूंजीपति ने पूंजी इकट्ठी करने का उपाय खोजा है इसलिए उसके पास पूंजी है, इनके पास नहीं है। आज अगर हम पूंजी का हिसाब लगाएं, तो सौ साल पहले यह पूंजी कहां थी? अगर शोषण किया तो यह सौ साल पहले भी होनी थी दूसरे लोगों के पास और फिर किसी ने शोषण कर लिया।
अब हम इस कमरे में बैठे हैं। हमारे पास तीस रुपये हैं सबके पास। दो साल बाद मेरे पास हजार रुपये हैं, और आप कहते हैं, आपने शोषण कर लिया। तो मैं यह पूछता हूं, दस साल पहले जब तीस ही रुपये थे तो इस कमरे में हजार रुपये शोषण कर कैसे लेता? यह हजार रुपये का मैंने उपाय भी किया है। और मजा यह है कि आपके पास भी आज तीस की जगह तीन सौ रुपये हैं। लेकिन फिर भी आपको लग रहा है कि आप गरीब हैं और आप शोषित हो गए हैं। क्योंकि मेरे पास हजार हैं और आपके पास तीन सौ हैं। क्योंकि सात सौ का फासला है। यह सात सौ का फासला दस साल पहले नहीं था। आपके पास भी एक रुपया था, मेरे पास भी एक रुपया था। हम दोनों एक जगह खड़े थे। आज मेरे पास हजार हैं, आपके पास तीन सौ हैं। आज तीस की जगह तेरह सौ हैं इस कमरे में, लेकिन यह बाकी तेरह सौ रुपये कहां से आए? ये क्रिएट किए हैं।
पूंजीवाद पूंजी पैदा करने की व्यवस्था है। लेकिन एक दफा जब पूंजी इतनी पैदा हो जाए, इतनी अतिरिक्त पैदा हो जाए कि उस पर व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई अर्थ न रह जाए तो मैं मानता हूं कि समाजवाद में रूपांतरण शुरू हो जाता है।
इसलिए अमेरिका की--मेरी समझ यह है कि--पिछले तीस वर्षों में अमेरिका रोज एक-एक कदम समाजवाद की तरफ रख रहा है। रखने ही पड़ेंगे। क्योंकि पूंजी जब इतनी ज्यादा हो जाती है तो उसकी मालकियत रखने का कोई प्रयोजन ही नहीं। इसलिए मैं मानता हूं कि मालिक को नहीं मिटना है, मालकियत का प्रयोजन मिटाना है। और मालकियत का प्रयोजन तभी मिटेगा जब अतिरेक हो, एफ्लुएंट सोसाइटी हो, तब प्रयोजन मिटेगा। आज आप इस साड़ी पर अपना कब्जा बताना चाहती हैं। यह साड़ी न्यून है। अगर आपने कब्जा नहीं बताया तो कोई और कब्जा कर लेगा। लेकिन साड़ियां अगर इतनी होंगी, कब्जे का कोई मतलब न रह जाए, कि कोई इस साड़ी पर कब्जा कर ले तो दूसरी साड़ी उपलब्ध हो सके तो आपको कब्जे का भाव मिट जाएगा। मकान न्यून हैं, इसलिए हमें कब्जा बताना पड़ रहा है। कार न्यून हैं, इसलिए हमें कब्जा बताना पड़ रहा है कि मेरी गाड़ी है। लेकिन कारें अगर इतनी हो जाएं, जितने आदमी हों, उनसे ज्यादा हो जाएं तो कब्जा बेमानी हो जाता है। बिलकुल ही अर्थहीन हो जाता है। असल में कब्जा तब तक बताना पड़ता है जब तक ऐसे लोग हैं जिनके पास चीजें नहीं हैं।
तो मैं मानता हूं कि एफ्लुएंट सोसाइटी का अंतिम परिणाम समाजवाद होगा। और यह ही सहज हो सकता है। अगर अहिंसात्मक रूपांतरण का हमें खयाल हो, लोकतांत्रिक रूपांतरण का खयाल है--और अगर यह नहीं हमें खयाल हो तो शोषण जबर्दस्ती हो सकता है। लेकिन जबर्दस्ती में पूंजीवाद जो पूंजी पैदा करता वह नहीं हो पाएगा; क्योंकि पूंजी पैदा करने का जो इनसेंटिव है, वह पूंजीवाद में है। वह सोशलिज्म में नहीं है। यानी मैं मानता हूं कि पूंजीवाद का एक हिस्टारिक रोल है, जो पूंजी पैदा कर जाए। अगर वह पैदा नहीं कर पाया तो सोशलिस्ट सोसाइटी पूंजी पैदा करने में मुश्किल में पड़ जाएगी। एक दफा पूंजी हो गई तो रन करेगी लेकिन सोशलिस्ट सोसाइटी पूंजी पैदा नहीं सकी और अगर करनी है तो फिर लोकतंत्र नहीं रह सकेगा। यानी दो उपाय हैं, या तो प्राफिट मोटिव से आदमी पूंजी पैदा करेगा या फिर बंदूक के कुंदे से पूंजी पैदा करेगा। इन दो के बीच चुनाव करना है कि मेरी छाती के पीछे बंदूक का कुंदा लगा हो तो मैं आठ घंटे मजदूरी कर सकता हूं या मेरे सामने लाभ का, प्राफिट का मोटिव अटका हो तो मैं मेहनत कर सकता हूं।
अब मेरा मानना यह है कि प्राफिट मोटिव जो है, वह ज्यादा लोकतांत्रिक है बजाय बंदूक के कुंदे के। मैं नहीं देख पाता कि बंदूक का कुंदा किस अर्थ में समाजवादी है। और वह व्यक्ति को ही लगाना पड़ेगा हमको; कोई उपाय नहीं है उसका। यह है कि हमको आठ घंटे एक मजदूर को काम करना है। जेल में भी हम काम ले रहे हैं। वह भी एक काम है। उसको हमने कह दिया है कि इतना उसको पीसना है, या इतने पत्थर तोड़ने हैं। नहीं तोड़ता है तो शाम को उसकी हड्डी-पसली टूट जाती है। वह भी एक रास्ता है। वह बिलकुल सोशलिस्ट पैटर्न है। क्योंकि एफ्लुएंट जैसे ही सोसाइटी हुई, प्राफिट मोटिव का कोई मतलब नहीं रह जाता--एक। और आदमी को धक्का देने का भी कारण नहीं रह जाता।
दूसरी बात यह है कि जैसे ही अतिरिक्त रूप से संपन्न समाज होगा वैसे ही श्रम का अर्थ खो जाएगा। क्योंकि हम यंत्र से काम लेने लगेंगे। असल में गरीब समाज श्रम से काम लेता है, अमीर समाज यंत्र से काम लेता है। और एफ्लुएंट सोसाइटी आटोमेटिक यंत्रों से काम लेगी। आने वाले सौ वर्षों में अमेरिका में श्रम का कोई अर्थ ही न रह जाएगा। यानी उलटी हालत भी हो सकती है कि मैं आपसे आकर कहूं कि मुझसे घंटे भर थोड़ा काम लेना और पांच रुपये भी ले लें। यह हालत पैदा हो सकती है। यह बिलकुल पैदा हो जाएगी। क्योंकि मैं चौबीस घंटे खाली, बेकार मुश्किल में पड़ जाऊंगा। मैं किसी से कह सकता हूं कि आपके बगीचे में मैं दो घंटे काम करना चाहता हूं, आप कृपा करके पांच रुपये ले लें और मुझे दो घंटे काम करने दें। यह आज हमें असंभव लगता है, लेकिन यह संभव हो जाएगा।
एफ्लुएंट सोसाइटी का अंतिम परिणाम यह होगा कि काम जो है वह खेल ही हो जाएगा। उसको कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। और हम लोगों को काम से रोकने के पैसे देंगे। यानी जो आदमी काम करने के लिए जिद्द बताएगा उसको कम पैसे मिलेंगे। जो आदमी कहेगा हम नहीं करने को राजी हैं उसको ज्यादा पैसे मिल जाएंगे। एफ्लुएंट सोसाइटी जैसे ही आटोमेटिक यंत्रों पर उतर जाएगी--अगर मैं कहता हूं कि मैं दो घंटे काम मांगूंगा ही मुल्क से तो मुल्क मुझे कहेगा, हम आपको सौ रुपये देते हैं, और आदमी चूंकि काम मांगता ही नहीं, इसको हम दो सौ देते हैं। क्योंकि यह समाज पर बड़ी कृपा कर रहा है। यह काम की झंझट पैदा नहीं करता। क्योंकि काम कम होता चला जाएगा तो काम जो लोग मांगेंगे, उनकी स्थिति बिलकुल उलटी हो जाएगी।
जैसे ही एफ्लुएंट सोसाइटी आती है, श्रम व्यर्थ हो जाएगा, श्रमिक व्यर्थ हो जाएगा। और तब श्रम एक आनंद हो जाएगा, जिसकी हम बहुत दिन से कल्पना करते रहे कि श्रम आनंद हो जाए। आदमी ऐसे श्रम करे जैसे खेल खेलता है। यह हो नहीं सकता था पहले कभी--चाहे गांधी समझाएं, चाहे विनोबा समझाएं कि श्रम को आप आनंद समझो। यह बेहूदी बात है, समझा ही नहीं जा सकता है।
श्रम तभी आनंद हो सकता है जब मेरी जिंदगी की सब जरूरतें बिना श्रम के पूरी होती हों; श्रम करने की कोई भीतरी मजबूरी न रह जाए। तो ऐसा नहीं है कि आदमी बिना श्रम के जिंदा रह जाए, आदमी श्रम तो करेगा ही। और आज भी अगर एक आदमी को कोई श्रम नहीं है तो वह मछली मार रहा है जाकर नदी के किनारे बैठ कर। अब उसको कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है, वह मछली काहे के लिए मार रहा है? शतरंज खेल रहा है, उसमें कोई सेंस नहीं है। लेकिन आदमी बिना काम के नहीं रह सकता।
तो मुझे ऐसा लगता है कि सौ वर्ष में अभी आंतरिक व्यवस्था इतनी विकसित हो गई है कि हमें किसी गैर-लोकतांत्रिक ढंग से समाजवाद लाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। एफ्लुएंस लाने की चेष्टा करनी चाहिए। यानी ऐज ए बाइ-प्रोडक्ट, सोशलिज्म पीछे से आएगा और तब वह बड़ा सहज होगा। और वह मैं जिस तरह से कह रहा हूं उसी तरह से नॉन-वाइलेंटली आ सकता है, डेमोक्रेटिकली आ सकता है। नहीं तो तब वह आ ही नहीं सकता है। फिर लाने के लिए हमें कुंदा लगाना पड़ेगा जब तक प्राफिट मोटिव है तब तक हमें बंदूक, या प्राफिट मोटिव, ऐसी च्वाइस करनी पड़ेगी।
और मैं मानता हूं कि प्राफिट मोटिव बहुत लोकतांत्रिक, भद्र उपाय है। जिसमें अगर एक आदमी चाहे कि मुझे लाभ नहीं चाहिए, उसको कोई मजबूरी भी नहीं है। अगर मैं कहता हूं, मुझे नहीं करोड़ रुपये कमाने हैं तो मैं घर में बैठ कर अपनी किताब पढ़ता रहूं, सौ रुपये कमाऊं, अपने खाने का इंतजाम कर लूं, बाद की फिकर छोड़ दूं। लेकिन बंदूक वाले समाज में मैं यह नहीं कह सकता। यहां व्यक्तिगत चुनाव का उपाय है। बंदूक वाले समाज में उपाय नहीं है।
आज सोवियत रूस में कोई संन्यासी नहीं हो सकता। सबसे बड़ा पाप है। एक-एक आदमी कहे, अगर हम चार आदमियों की रोटी मांग कर ले लेंगे तो यह सवाल नहीं उठता। वह फौरन उठा कर बंद कर दिया जाएगा। क्योंकि वहां तो बंदूक के कुंदे पर श्रम करना पड़ेगा। यह सवाल ही नहीं है कि एक आदमी कहे कि मैं किताब पढ़ कर जिंदगी गुजार लूंगा, मुझे दो वक्त मुझे दो रोटी दे देते। यह एक गैर-कानूनी बात हो जाएगी।
व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करके समाजवाद लाने के पक्ष में मैं नहीं हूं। क्योंकि स्वतंत्रता का समानता से बड़ा मूल्य है। समानता को मैं स्वतंत्रता के ऊपर कभी भी नहीं रख सकता हूं। क्योंकि स्वतंत्रता है तो समानता भी लाई जा सकती है। लेकिन स्वतंत्रता खोकर लाई गई समानता, फिर अगर हम बदलना भी चाहें तो बदल नहीं सकते। आज रूस में कोई बदलाहट नहीं हो सकती, कोई बगावत नहीं हो सकती। कोई विद्रोह नहीं हो सकता। यानी पहले दफे एक ऐसी सोसाइटी पैदा हुई है जो बगावत प्रूफ है, जिसमें आप भीतर से बगावत नहीं कर सकते। क्योंकि बगावत का विचार ही नहीं बो सकते। विचार बोया नहीं, आपने दूसरे से कहा नहीं कि आप गए। आपका पता ही नहीं चलेगा।
यह इतना बड़ा खतरा है कि इस खतरे के मुकाबले में कहता हूं कि गरीब-अमीर का सहा जा सकता है। यह इतना बड़ा खतरा है कि इसका अंतिम परिणाम, अगर रूस जैसी सोसाइटी चलती है तो मेरी अपनी समझ है कि रूस में अब करीब-करीब वर्ण व्यवस्था की स्थिति आ गई है। वर्ग व्यवस्था मिट गई तो वर्ण व्यवस्था आ गई। अब जो आज हुकूमत है जो वर्ग, करीब-करीब लेनिन का जो प्रोलित ब्यूरो था, करीब-करीब उसी प्रोलित ब्यूरो के आदमी पिछले पचास साल से हुकूमत कर रहे हैं। एक छोटा सा क्लास, एक छोटा सा गु्रप हुकूमत कर रहा है। उस "क्लास' में बीस करोड़ लोगों में से एक नया आदमी प्रवेश नहीं कर पाया। स्टैलिन न रहे, ख्रुश्चेव न रहे, फला-ढिकां सब हो, लेकिन एक ग्रुप है पचास-सौ आदमी को जो छाती पर बैठा है, जो काम कर रहा है। उसी में से कोई आदमी हावी होता है। सौ आदमी एकदम से सत्ताधिकारी हो गए हैं। बीस करोड़ लोग कट-ऑफ हो गए हैं। और जो रूस में आज कम्युनिस्ट है, उसकी प्रतिष्ठा ब्राह्मण की है, बाकी सब शूद्र है पूरा मुल्क। बाकी लोगों का कोई अर्थ नहीं है। दो वर्ग हैं आज--वर्ण कहना चाहिए, वर्ग नहीं, क्योंकि वर्ग में एक लिक्विडिटी होती है। वर्ग का मतलब होता है, इसमें बदलाहट संभव है। और वर्ण का मतलब है जिसमें बदलाहट असंभव है; जो जन्मतः तय हो गया। अब वहां एक तो सत्ताधिकारी का वर्ग है, एक गैर-सत्ताधिकारी का वर्ग है। गैर-सत्ताधिकारी को हक है कि वह खाए, पीए, सोए। बोले न, सोचे न!
इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे सोचने--जैसा हिंदुस्तान में हो गया था, शूद्र सोचे न, बोले न, पढ़े न। तो पांच हजार वर्ष से एक शूद्र ने प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा नहीं किया। अंबेदकर पहला शूद्र है जिसमें कोई प्रतिभा है। पांच हजार साल में अंबेदकर अंग्रेजों की कृपा है, हमारे कारण से नहीं। पांच हजार वर्ष में इतने बड़े शूद्रों की जमात में एक प्रतिभा पैदा हो, वह भी अंग्रेजों की सुविधा से पैदा हो पाए तो यह सोचने जैसा है कि इसका हुआ क्या कारण?
रूस में नीचे का जो वर्ग है, समाज जो है, वह अब प्रतिभा पैदा नहीं कर सकेगा। क्योंकि प्रतिभा बिना सोच-विचारे पैदा नहीं होती। और धीरे-धीरे रिफ्ट बड़ी होती जाएगी। आज प्रोलित ब्यूरो के लोग हुकूमत करते हैं, कल इनके बच्चे करेंगे, परसों इनके बच्चे करेंगे, रिश्तेदार करेंगे। यह एक ग्रुप बन जाएगा जो करता रहेगा निरंतर। अब इसके हाथ में इतने साधन किसी सत्ता के हाथ में कभी भी नहीं थे। धन इनके हाथ में है, राज्य इनके हाथ में है, पुलिस इनके हाथ में है, मिलिट्री इनके हाथ में है, विज्ञान इनके हाथ में है, और वह जो नीचे जनता है उसके हाथ में कुछ भी नहीं है।
अभी इस पर बहुत विचार चलता है कि इस तरह के ड्रग्स खोजे गए हैं, जिनका मॉस-एप्लिकेशन हो सकता है, कि आपके गांव के रिजर्वायर में, पानी के झील में एक ड्रग डाल दिया जाए जो गांव भर पीता रहे तो छह महीने के बाद बगावत की वृत्ति न रह जाए। ट्रैंक्वेलाइजिंग हो, तो पूरा का पूरा गांव जो है बगावत कर ही न सके, सोच ही न सके कभी। उसके भीतर से सारी की सारी नर्वस सिस्टम जो है, ट्रैंक्वेलाइज हो जाए। वह बड़ा मुश्किल मामला है, क्योंकि हमें पता ही न चलेगा कभी कि हमारे गांव का जो हम पानी पी रहे हैं उसमें कोई ड्रग भी है। अब हम यह भी कर सकते हैं कि बच्चा पैदा हो, उसमें से कुछ हिस्से काट लें जो अस्पताल में घटित हो जाए, हमें पता न चले। पैदा होते से जैसे हम वैक्सिनेशन लगाते हैं, पैदा होते से हम एक इंजेक्शन उसे दें, जो उसको सदा के लिए चिंतन के बगावत से मुक्त कर दे। वह कभी सोच न पाए विरोध में; क्योंकि विरोध में सोचने के लिए कुछ केमिकल जरूरी हैं बॉडी में। अगर वह केमिकल न रह जाएं तो आप विरोध में नहीं सोच सकते। आप हमेशा हां कह कर ही सोचेंगे।
इतनी बड़ी सत्ता के हाथ में ताकत आ जाए और स्वतंत्रता का कोई उपाय न रहे तो मैं मानता हूं कि गरीबी अमीरी को भी सह लेना बेहतर है, लेकिन इतने बड़े उपद्रव को लेने का अब कोई कारण समझ में नहीं आता है। रूस में अगर यह व्यवस्था चलती है तो सौ वर्ष में शूद्रों का एक वर्ग पैदा हो जाएगा जिसके पास कोई प्रतिभा, कोई बुद्धि, किसी चीज की कोई जरूरत न होगी। वह खाएगा, पीएगा, मोटात्तगड़ा होगा, स्वस्थ होगा, लंबी उम्र का होगा; मगर उसके पास कोई प्रतिभा और बुद्धि, इंटेलिजेंस जैसी चीज नहीं रह जाएगी। या इंटेलिजेंस उसी मात्रा में रह जाएगी जो हां कह सकती है, ना नहीं कह सकती है।
इसलिए मैं मानता हूं कि एफ्लुएंट सोसाइटी के माध्यम से ही--जैसा मैंने परसों कहा कि हिंदुस्तान में समाजवाद लाना हो, मास्को पहुंचना हो तो वाया वाशिंगटन ही पहुंचा जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है। मैं समझता हूं कि अमेरिका में जो घटित हो रहा है वह बिलकुल नेचरल प्रोसेस है। रूस में जो घटित हुआ है वह बिलकुल अननेचरल प्रोसेस से घटित हुआ है, चीन में जो हुआ वह बिलकुल ही अननेचरल प्रोसेस है, अस्वाभाविक प्रक्रिया है। और यह भी मेरी दृष्टि है कि अस्वाभाविक प्रक्रिया में ही हिंसा जरूरी होती है। स्वाभाविक प्रक्रिया ही अहिंसक हो सकती है। अस्वाभाविक प्रक्रिया का मतलब यह है कि जिसमें हमें वाइलेंस करनी पड़ेगी। तो अगर अहिंसात्मक ढंग का--और मैं मानता हूं कि अहिंसात्मक ढंग से ही कुछ भी लड़ने योग्य है तो आने देना चाहिए।
दूसरा भी मेरा कारण है। मेरा यह भी खयाल है कि आर्थिक समानता तो ठीक है लेकिन बहुत गहरे में यह मनोवैज्ञानिक तय है दो व्यक्ति समान नहीं हैं। असमानता एक बहुत वैज्ञानिक सत्य है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को असमान होने की स्वतंत्रता का भी हक है। यह तो इकॉनामिक बात है और मैं मानता हूं कि समान सुविधा सबको मिल जानी चाहिए, लेकिन समान सुविधा भी इसीलिए मिलनी चाहिए कि मैं जो होना चाहूं वह हो सकूंगा, आप जो होना चाहें वह हो सकें। इसका गहरा मतलब यह हुआ कि समानता की सुविधा भी इसलिए मांगता हूं कि प्रत्येक असमान होने को स्वतंत्र हो सके। और अगर हमने जबर्दस्ती समानता थोपी तो हमें वह मनोवैज्ञानिक भेद जो हैं उनके, भी झड़ा देने पड़ेंगे। और हमें एक-एक व्यक्ति को ऐसा बना देना पड़ेगा कि वह टाइट हो। क्योंकि वह जिस मात्रा में असमान होगा, उसी मात्रा में हमारी जो जबर्दस्ती थोपी गई व्यवस्था है, उसमें वह बाधा डालेगा। इसलिए मैं नैसर्गिक विकास के पक्ष में हूं। पूंजीवाद जैसे नैसर्गिक ढंग से आया है, ऐसे नैसर्गिक ढंग से समाजवाद भी आना चाहिए। तो उसमें समानता भी आ जाएगी एफ्लुएंस के द्वारा, और व्यक्ति असमान होने के लिए भी स्वतंत्र होगा। उसमें कोई बाधा न होगी।
अब हमें खयाल में नहीं है कि अगर सारे व्यक्तियों को हम किसी तरह से बिलकुल समान कर दें तो वह समाज इतना उबाने वाला होगा जिसका हिसाब नहीं है। अब माओ ने चीन में करीब-करीब कपड़े समान कर दिए हैं। कोई कपड़े की वैरायटी नहीं है चीन में। दो-चार तरह के कपड़े मिल सकते हैं, वही आपको पहनने होंगे। दफ्तर का एक तरह का कपड़ा है, घर का एक तरह का है। तो करीब-करीब पूरा मुल्क ऐसा लगता है जैसे कि एक मिलिटरी कैंप हो गया है। चेहरे खतम हो गए।
यह आपने की खयाल किया कि अगर सौ जवान मिलिटरी के खाकी ड्रेस में खड़े होते हैं तो आपको चेहरे दिखाई नहीं पड़ते। चेहरा मिट ही जाता है एकदम एक सी ड्रेस में। वह इंडिविजुअलिटी मिट ही जाती है। इसीलिए यूनिफार्मिटी, यूनिफार्म हम इसीलिए पहनाते हैं कि उसका व्यक्तित्व खतम हो जाए। चंडीगढ़ है, नये नगर बस रहे हैं जो बिलकुल यूनिफार्म हैं। तो बड़ी बोरिंग है, मोनोटोनस है। हमें थोड़ी देर देखने के बाद घबड़ाहट और ऊब शुरू हो जाती है। अगर हमने समानता की कोई अस्वाभाविक चेष्टा की तो हम एक मोनोटोनस समाज पैदा करेंगे जिसमें से रस और वैविध्य भी नष्ट हो जाएगा। इसलिए मेरे लिए सवाल सिर्फ आर्थिक ही नहीं है, मेरे लिए सवाल मनोवैज्ञानिक भी है। और मनोवैज्ञानिक अर्थों में समानता बिलकुल ही असत्य है, हो ही नहीं सकती। होना भी नहीं चाहिए।
हां, आर्थिक समानता की सुविधा हमें एक दिन जुटानी चाहिए। वह भी तभी हम जुटा पाएंगे जब हम अतिरिक्त संपत्ति पैदा कर लें।

प्रश्न: भारतवर्ष में पूंजीवाद लाना हो तो बहुत वर्ष लगेंगे। इसका प्रचार कैसे किया जाए? पूंजीवाद लाने का प्रचार कैसा होगा?

पूंजीवाद के प्रचार के लिए कुछ भी नहीं करना है। हमारे खयाल में भर एक बात आ जाए तो पूंजीवाद अपनी गति से ग्रोथ कर रहा है। हम सिर्फ बाधा न डालें। और हम इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लें कि इसकी ग्रोथ हमारे हित में है। कुछ और प्रचार करने की जरूरत नहीं है। प्रचार हमें उसका करना पड़ता है जो अपने आप ग्रो कर रहा हो। उसका प्रचार करने की कोई जरूरत ही नहीं है कि जवान आदमी बूढ़ा कैसे होगा। वह तो हो जाएगा। प्रचार की कोई जरूरत नहीं है। वह तो सोसाइटी अपने आप पूंजीवाद के दौर में आ रही है, आएगी। अगर हम बाधा डालेंगे तो रुकेगी।
समाजवाद का प्रचार करना पड़ेगा, पूंजीवाद के प्रचार की कोई जरूरत नहीं। पूंजीवाद कोई सिद्धांत थोड़े ही है! पूंजीवाद समाज का सहज विकास है। समाजवाद एक सिद्धांत है। उसमें हमें थोपना पड़ता है। पूंजीवाद तो बिलकुल ही सहज प्रक्रिया से आया है, किसी ने प्रचार नहीं किया। पूंजीवाद को समझाने के लिए प्राफेट नहीं है। पूंजीवाद को समझाने के लिए कोई पार्टी नहीं है। पूंजीवाद को समझाने के लिए कोई फिलासफी नहीं है। पूंजीवाद तो सहज आया है। वह जिंदगी के रास्तों से आया है। वह ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हमें कुछ नहीं करना है, सिर्फ हम बाधा न डालें और हम सहयोगी हो जाएं और हम पूंजीवाद कैसे फैले शीघ्रता से, उसकी चिंता करें।
यह आप ठीक कहती हैं कि इतनी पुरानी गरीबी है, इतनी पुरानी गरीबी को अगर जल्दी मिटाने की तो मैं नहीं मानता हूं कि मिट जाएगी। इतनी पुरानी गरीबी को मिटाने के लिए बहुत धैर्य की जरूरत है। समाजवादी में वह धैर्य बिलकुल नहीं है। वह कहता है, हम आज ही मिटा देंगे। खतरा यह है कि आज मिटाने में वह और लंबे वक्त न लगवा दे! मैं मानता हूं, लंबे लगवा देगा। क्योंकि उसे पूंजी पैदा करने का कोई खयाल ही नहीं है। आज हिंदुस्तान में जो समाजवादी है, उसका एक ही खयाल है कि पूंजी का वितरण कर देना। अब मजे की बात है कि पूंजी के वितरण से गरीबी नहीं मिटेगी। कितनी पूंजी है हिंदुस्तान के पास जिसका आप वितरण कर लेंगे? एक दस करोड़पतियों को, उनके पास पूंजी है, उसको उठा कर बांट दीजिए। यह पचास करोड़ की गरीबी में वह ऐसे खो जाएगी जैसे एक तालाब में हमने एक मुट्ठी भर रंग डाल दिया हो।

प्रश्न: लेकिन यह पूंजीवादी उनको कैसे पैसा दे देगा?

यह मैं कहता नहीं हूं कि दे देगा, यह मैं कह नहीं रहा हूं। मैं तो कहता नहीं कि पूंजीवादी पैसा दे। मैं कहता नहीं हूं। आज अगर हम ले भी लें जबरदस्ती बंदूक के कुंदे पर, तो कोई हित नहीं है। हिंदुस्तान के समाजवादी मेरे खयाल से बहुत बचकानी बुद्धि के हैं। एक तो उनको यह लगता है, उनके लिए बड़ा सवाल जो है वह क्रिएशन ऑफ वेल्थ का नहीं है, डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ वेल्थ का है--बड़ा सवाल जो है। मजा यह है, पूंजी हो तो विवरण भी हो। पूंजी है कहां जिसका वितरण आप करने को लगे हैं? दिख रही है आज दिल्ली में, अहमदाबाद में, बंबई में, तो हमें मुल्क का कोई खयाल नहीं है। मुल्क का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि मुल्क इतनी बड़ी गरीबी से भरा है कि इतना ही हो सकता है कि दस-पांच जिनके पास पूंजी दिखाई पड़ रही है, उनको भी हम गरीब बना लें, बस। इससे ज्यादा कोई परिणाम नहीं होगा बांटने का। और बांटने की प्रक्रिया में पैदा करने का जो यंत्र है वह नष्ट हो जाएगा।
आपका यह कहना ठीक है कि हम पूंजीपति से कैसे ले लेंगे? मैं कहता नहीं लेने की जरूरत है। असल में पूंजीपति पूंजी ले कहां जाता है? यह जो हमको खयाल है, यह हमको अभी बड़ा अजीब खयाल है। अब बिड़ला कोई सोना थोड़े ही खाता है! अगर बहुत गौर से देखा जाए तो बिड़ला के पास जो अतिरिक्त संपत्ति आती है वह और संपत्ति को पैदा करने में लगती है। कोई खा तो सकते नहीं हैं, करिएगा क्या?
आज बिड़ला के पास कोई साढ़े तीन सौ करोड़ रुपया है। इतनी संपत्ति की मालकियत है आज। यह संपत्ति का करिएगा क्या? बिड़लाजी क्या करेंगे? कोई भी क्या करेगा? यह संपत्ति अंततः समाज को ही उपलब्ध होती चली जाती है। यह कहीं जाती नहीं। उत्पादन में लगती है, मंदिर बनता है, धर्मशाला बनती है, कालेज खुलता है, स्कूल खुलता है, कि अस्पताल बनता है। हां, फर्क इतना पड़ता है कि उस अस्पताल का सरकार का नाम न होकर बिड़ला का नाम होता है। और कोई फर्क होता नहीं। और बिड़ला जितना खाता है, जितना पीता है, उससे तीन सौ करोड़ का कोई लेना-देना नहीं है। वह तो एक करोड़ वाला क्या, पचास लाख वाला भी, पांच लाख वाला भी उतना खा-पी सकता है। उसका कोई सवाल नहीं है। पूंजीपति संपत्ति पैदा करता है। लगता हमें ऐसा है कि शोषण कर रहा है। अंततः वह समाज को देगा, करेगा क्या? मेरी अपनी समझ यह है कि वह करता क्या है?
और एक व्यवस्था है जो हमें खयाल में नहीं आती है। कोई परिवार तीन-चार पीढ़ियों से ज्यादा से ज्यादा अमीर नहीं रहता। रह नहीं सकता। अगर में गरीब हूं तो संपत्ति इकट्ठा करने में लगता हूं। मेरा बेटा अमीर का बेटा होगा। वह संपत्ति को बांटने में लग जाता है। गरीब संपत्ति इकट्ठी करता है, अमीर बांटता है।
फोर्ड एक दफा इंग्लैंड आया तो वह उतरा लंदन के स्टेशन पर और उसने जाकर इंक्वायरी में पूछा कि यहां सबसे सस्ता होटल कौन सा है? तो उस इंक्वायरी वाले ने कहा, मैं समझता हूं, आप एच.जी. फोर्ड हैं। आपका फोटो, अखबार में फोटो देखा हूं कल, और आप सस्ता होटल पूछते हैं? और आपका लड़ता आता है, वह तो पूछता है, सबसे अच्छा होटल कहां है? तो उसने कहा, वह हेनरी फोर्ड का लड़का है। मैं गरीब आदमी का लड़ता हूं। हमने इकट्ठी की है, वह बांटेगा। वह करेगा क्या? यह बड़े मजे की बात है कि चार पीढ़ियों से ज्यादा कोई परिवार अमीर नहीं रहता। तीसरी-चौथी पीढ़ी बांट जाती है। वह जाएगी कहां संपत्ति?
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि पूंजीपति पैदा भर कर पाता है। आखिर में बंट तो वह समाज में जाती है। फिर पूंजीपति, जिसको हम कहते हैं विलास कर रहा है, वह भी समाज में वितरित होता है। एक पूंजीपति एक कार खरीदता है, दो कार खरीदता है, तो हमें लगता है कि पूंजीपति ने दो कार खरीद ली हैं। लेकिन दो कार बनती हैं, कारखाने चलते हैं, तो कारखाने में इतने मजदूर काम करते हैं। वह पूंजीपति कार न खरीदे?
अगर हम गांधीजी की बात मान लें और सब सादगी से रहने लगें तो पचास करोड़ लोगों में से कम से कम करोड़ लोगों को मरना पड़े...इसी वक्त। क्योंकि हमारी गैर-सादगी से रहना ही हमारे सारे उत्पादन की व्यवस्था है। आज अगर गांधीजी की बात मान ली जाए तो मेरी अपनी समझ यह है कि चंगीज ने, तैमूर ने, हिटलर ने जितनी हत्या नहीं की, उतनी हत्या गांधीजी के सिर पड़ जाएगी। अगर हम उनकी ही मान कर राजी हो जाएं, सब सादगी से रहने लगें। इस समय तो कोई पचास प्रतिशत उत्पादन तो स्त्रियों के उपकरण बनाने में लगा रहता है। आधी मनुष्यता उससे पलती है। अगर गांधी की बात मान ली जाए और स्त्रियां चूड़ी और, स्नो-पाउडर, फला-ढिकां सब छोड़ दें और बिलकुल सादी खड़ी हो जाएं तो यह जमीन आज मरने की हालत में पहुंच जाए। क्योंकि सारा उत्पादन का जो चक्र है, वह उत्पादन का चक्र एकदम ठहर जाए...पचास प्रतिशत तो उन्हीं चीजों को पैदा करना पड़ रहा है। इसलिए समझ तो यह कहेगी कि आप अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाएं ताकि आवश्यकताओं का उत्पादन बढ़े, ताकि उत्पादन में ज्यादा लोग संलग्न हों। ताकि ज्यादा लोग जी सकें और ज्यादा लोग भोजन पा सकें।
हमें ऊपर से दिखता है। उसका कारण यह है कि हम वैज्ञानिक ढंग से कम सोचते हैं, अमीर के प्रतिर् ईष्या और क्रोध का भाव ज्यादा है। वह बहुत सरलता से हो जाता है। एक आदमी सुख में और हम तकलीफ में हैं, लगता है कि मिटा दो इसको। इसकी फिकर कम होती है कि इसके सुख मिटाने से हमें सुख मिलेगा, कि सिर्फ इतना होगा कि इसका सुख विदा हो जाएगा? और यह भी हमें खयाल नहीं आता कि यह इतने सुख से रह रहा है तो इसके सुख के रहने में आस-पास भी सुख के वर्तुल इसको पैदा करने पड़ते हैं, नहीं तो रह नहीं सकता इतने सुख में।
एक आदमी बड़ा मकान बनाता है, तो हमारा खयाल यह है आमतौर से कि बड़ा मकान तब बनता है जब कि कुछ मकान छोटे हो जाते हैं। ऐसा नहीं है। बड़ा मकान बनता है तो कुछ छोटे मकान भी बनते होंगे। अगर हम ठीक वैज्ञानिक ढंग से सोचें तो बड़ा मकान बनता है तो एक इंजीनियर को भी पैसा मिलता है, एक आर्किटेक्ट को भी मिलता है और एक मजदूर को भी मिलता है, राज को भी मिलता है। एक बड़ा मकान न बनाओ तो ये दस आदमियों के छोटे-छोटे मकान चल रहे थे, इसी वक्त ठप्प हो जाएंगे।
तो मेरी अपनी दृष्टि यह है कि पूंजीवाद का एक ऐतिहासिक रोल है, वह पूरा कर रहा है। उसको क्रोध से लेने की जरूरत नहीं है, उसको समझ से लेने की जरूरत है, सांइटिफिकली सोचने की जरूरत है। अमेरिका ने इतनी पूंजी पैदा की है...इसका परिणाम...इसका परिणाम यह हुआ है कि जिसको हम गरीब कहते हैं, ऐसा गरीब अमेरिका में नहीं रह गया। गरीब तो अमेरिका में है, पर वह गरीब बहुत और तरह का है। अमीर गरीब है हमारे लिहाज से तो।
अभी मेरे एक मित्र एक घर में ठहरे थे तो जिस टैक्सी को उन्होंने किया था, जो ड्राइवर उन्हें घुमाता था, पंद्रह दिन उनके साथ था वह ड्राइवर। उसने कहा जाने के पहले एक दफा मेरे घर आप चाय लेंगे तो मुझे खुशी होगी। उन्होंने कहा, मैं जरूर चलूंगा। तो जब उनको लेने आया तो वह दूसरी गाड़ी लेकर आया। उन्होंने पूछा कि आपने गाड़ी बदल ली? उसने कहा कि वह तो मालिक की गाड़ी थी, टैक्सी थी। यह मेरी गाड़ी है। वह हैरान हुए कि यह गाड़ी उसकी टैक्सी से बेहतर है। जब उसके घर गए तो वे दंग रह गए। उसकी पत्नी थी और वह था। दोनों ही हैं, नौ कमरे थे। उसका मार्बल फ्लोर था। उसका बाथरूम देख कर लगा...वे तो इंदौर के एक करोड़पति हैं, एक बड़ी मिल के मालिक हैं। वे मुझसे कहने लगे कि उसका बाथरूम देख कर मुझेर् ईष्या होती है। ऐसा बाथरूम मेरे पास भी नहीं है। पूरा मार्बल का था। वह ड्राइवर था, टैक्सी ड्राइवर। टैक्सी ड्राइवर अब भी गरीब है अमेरिका में। वह तुलना में गरीब है लेकिन हमारे लिहाज से वह बहुत अमीर है। गरीबी विदा हो गई है। उन्हें सड़क पर चलते देख कर आप नहीं कह सकते हैं कि यह भंगिन है। आज कोई एलिजाबेथ भी उसके साथ खड़ी हो जाए तो कोई खास फर्क नहीं है। कोई फर्क नहीं है--बल्कि एलिजाबेथ उतनी शायद शानदार न मालूम पड़े।
पूंजीवाद सहज विकसित होता चला जाए, तो अपने आप इतनी संपत्ति पैदा कर लेगा और भी कई कारण हैं जिनकी वजह से मेरे खयाल में है कि अधिक संपत्ति पैदा हो जाती है। एक तो संपत्ति, संपत्ति को पैदा करती है, और यह बिलकुल चक्रबुद्धि की तरह चलता है। यह ऐसा नहीं है, एक दफा संपत्ति पैदा होना शुरू होती है तो संपत्ति के नये वर्तुल संपत्ति शुरू कर देती है। फिर संपत्ति संपत्ति को पैदा करती चली जाती है--एक।
दूसरी बात यह है कि जैसे ही संपत्ति पैदा होती है, लोग बच्चों में कम उत्सुक होते हैं और कम बच्चे पैदा करते हैं। सिर्फ गरीब ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। तो संपत्तिशाली समाज की जनसंख्या कम होने लगती है और संपत्ति फैलने लगती है। और इसके दोहरे परिणाम होते हैं क्योंकि अंततः अतिरेक हो जाता है। जनसंख्या कम होने लगती है और संपत्ति फैलने लगती है, संपत्तिशाली आदमी कम बच्चे पैदा करता है, दोत्तीन कारणों से। एक तो सेक्स उसका अकेला एंजायमेंट नहीं रह जाता। उसकी जिंदगी में और भी सुख आ जाते हैं। गरीब की जिंदगी में कोई सुख नहीं है। और एक ही सुख है जो मुफ्त मिलता है उसे। तो वह ज्यादा बच्चे इकट्ठे कर लेता है। उसको कोई उपाय ही नहीं दिखता।
गरीब को यह भी आशा रहती है कि जितने ज्यादा बच्चे होते हैं, गरीब के लिए उपयोगी हैं। अमीर के जितने ज्यादा बच्चे होते हैं, अमीर के लिए दुश्मन हैं, क्योंकि अमीरी कम होती है। बच्चों के पैदा होने से अमीरी कटती है। अगर मेरे पास करोड़ रुपये हैं, चार बच्चे हो गए तो पच्चीस लाख के आदमी हो गए। चार बच्चे पच्चीस-पच्चीस लाख बांट लेने वाले हैं। गरीब के चार बच्चे पैदा हो जाते हैं तो एक बच्चा बर्तन मांजता है, एक बच्चा गाय चरा आता है, एक बच्चा गांव में काम कर आता है। गरीब अमीर होता है। तो गरीब बच्चों में उत्सुक है, जनसंख्या में उत्सुक है। उसकी समझ में नहीं आ सकता कि जनसंख्या कम होनी चाहिए। अमीर जनसंख्या में बिलकुल उत्सुक नहीं रह जाता, बच्चों में उत्सुक नहीं रह जाता। और उसके सुख के साधन बढ़ जाते हैं। इसका आखिरी जो टोटल इफैक्ट होता है, वह होता है कि संपत्ति ज्यादा हो जाएगी और जनसंख्या कम हो जाएगी। और इससे एक समाजवादी व्यवस्था अपने से निकलेगी जो सहज होगी।
तो मैं कहता हूं, दो सौ वर्ष--सौ वर्ष की हमें फिकर नहीं करनी चाहिए। सौ वर्ष कोई बहुत वक्त नहीं है। जब पांच हजार साल से हम गरीब हैं तो सौ वर्ष की हमें फिकर नहीं करनी चाहिए, वह बहुत बड़ा वक्त नहीं है, बल्कि बहुत जल्दी ही हो जाएगा। और अगर हमने पांच वर्ष में समाजवाद लाने की कोशिश की तो मैं मानता हूं कि हम पांच हजार साल कहीं और गरीब न रह जाएं। महंगा सौदा हो जाएगा। इसमें बहुत धैर्य की जरूरत है। धैर्य कठिन है, यह भी मैं जानता हूं। मैं नहीं समझता कि मेरी बात सुनी जा सकेगी। धैर्य बहुत कठिन है।

प्रश्न: इंदिरा जी अभी कांग्रेस से अलग होकर देश को सोशलिज्म की राह पर जो ले जा रही हैं, वह गलत ले जा रही हैं?

एकदम ही गलत ले जा रही हैं। लगभग एकदम ही गलत ले जा रही हैं। लेकिन इंदिराजी तो बड़े फायदे में हैं और उनके साथी जो हैं वे भी फायदे में हैं। देश का कोई उससे हित नहीं है। सच बात यह है कि बीस साल में इंदिराजी और उनके पिताजी दोनों के पास एक ही टेक्टिक्स थी। कांग्रेस को मर जाना चाहिए था। उसका कोई अर्थ नहीं था आजादी के बाद, क्योंकि उसका काम पूरा हो गया था। नेहरूजी को भी जब भी दिक्कत दिखती कांग्रेस को बचाने की तो वे समाजवाद की बात शुरू कर देते थे। जब परेशानी आती तब समाजवाद बचाता। उनकी बेटी उसी ट्रिक को और लंबा रही है। और लंबाना उसे पड़ेगा क्योंकि बीस साल का फासला हो गया। अब बहुत शोरगुल मचाना पड़ेगा तभी ट्रिक काम करेगी, इससे जल्दी काम नहीं करेगी। नेहरूजी कहते थे, समाजवाद की ट्रिक काम कर जाती थी। उसको थोड़ा बहुत समाजवाद लाकर भी दिखलाना पड़ेगा--नेशनलाइजेशन कर दे, कुछ यह कर दे, वह कर दे। तो यह अगला इलेक्शन कांग्रेस और जीत लेती है। लेकिन इसके बाद वह ट्रिक भी काम नहीं करेगी। पर मेरा मानना यह है कि पोलिटिकल स्टंट मुल्क के भविष्य के लिए महंगा है। इसमें इंदिराजी को फायदा है, उनके कलीग को फायदा है और उनकी पूरी कंपनी को फायदा है, लेकिन इससे मुल्क को कोई फायदा नहीं है। और जनता आकर्षित हो जाएगी, यह भी ठीक है। जनता दुख में है, परेशानी में है और उसको तत्काल कोई लाभ मिले इसकी आशा है। पर मुझे लगता है कि मुल्क का कोई फायदा होने वाला नहीं है।

आज इतना ही।



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