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रविवार, 26 फ़रवरी 2012

एरिस्‍टोटल्‍स थियोरी ऑफ पोएट्री एंड फाइन आर्ट—(055)

एरिस्‍टोटल्‍स थियोरी ऑफ पोएट्री एंड फाइन आर्ट—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

’कविता और कला के संबंध में एरिस्‍टोटल का सिद्धांत।‘’ यह शीर्षक ही विरोधाभासी मालूम होता है। कविता और कला दोनों ही सूक्ष्‍म तत्‍व है। वायवीय है, उनका सिद्धांत कैसे हो सकता है। और वह भी एरिस्‍टोटल जैसे तर्कशास्‍त्री द्वारा।
      काव्‍य का शास्‍त्र लिखने की परंपरा नई नहीं है। और न ही केवल पश्‍चिम की है। भारत में भी कश्मीरी पंडित मम्‍मट ने काव्‍य शास्‍त्र लिखा था। वह संस्‍कृत भाषा में है। और बड़ा रसपूर्ण है, क्‍योंकि संक्षिप्‍त सूत्रों में गूंथा हुआ है। उसका पहला ही सूत्र है: ‘’रसों आत्‍मा काव्यत्व‘’ रस काव्‍य की आत्‍मा। इसकी तुलना में एरिस्‍टोटल का पोएटिक्‍स गंभीर है, लेकिन उसकी बारीक बुद्धि ने काव्‍य और नाटक की गहराई में प्रवेश कर उनके एक-एक पहलुओं को उजागर कर दिया है। उसकी यह कलाकारी अपने आप में एक सुंदर रचना शिल्‍प है। इस संबंध में हमें कुछ बातें ख्‍याल में लेनी चाहिए।

      एक तो एरिस्‍टोटल का समय, दूसरे ग्रीक सभ्‍यता और मानसिकता। तीसरे खुद एरिस्‍टोटल का व्‍यक्‍तित्‍व। यक ग्रंथ आज से 2400 बी. सी. अर्थात क्राइस्‍ट पूर्व समय में लिख गया था। ग्रीक सभ्‍यता उस समय अपने शिखर पर थी। सॉक्रेटिस, प्लेटों, और उसके बाद एरिस्‍टोटल—यह शिष्‍य परंपरा थी। सॉक्रेटिस रहस्यदर्शी था, प्लेटों दार्शनिक था।
और एरिस्‍टोटल तर्कशास्त्री। सॉक्रेटिस के शिखर से निकली हुई सलिला बहते हुए नीचे आई और एरिस्टोटल के रूप में उसने बुद्धि के मैदान में प्रवेश किया। एरिस्टोटल की मजबूत बुनियाद पर पशिचम का पूरा बौद्धिक भवन खड़ा हुआ है। आज मनुष्‍य जाति जिस विश्‍लेषणात्‍मक तर्क प्रणाली का उपयोग करती है वह एरिस्‍टोटल की दी हुई है। एक तरह से हम एरिस्‍टोटल के बौद्धिक वंशज है।
      एरिस्‍टोटल का यह काव्‍य-शास्‍त्र उस समय ग्रीस में जो भी महाकाव्‍य या नाटक प्रचलित थे उनके आधार पर लिखा गया है। जैसे होमर का इलियड, सोफोक्‍लीस का ईडीपस, और अनय कई रचनाएं जो आज काल के गर्भ में विलीन हो गई है। इन रचनाओं के अध्‍यन के बाद एरिस्‍टोटल ने कुछ अपने निष्‍कर्ष निकाले जो इस निबंध के रूप में लिखे। ‘’पोएटिक्‍स’’ एक निबंध है जो एरिस्‍टोटल के विशाल साहित्‍य का हिस्‍सा है। यह एक ही निबंध पश्‍चिम के लेखकों और आलोचकों को इतना महत्‍वपूर्ण लगा कि इसकी अलग किताब बनी और इसके अनेक संस्‍करण प्रकाशित हुए। मूल निबंध ग्रीक भाषा में था। वह जब तक अंग्रेजी में अनुवाद न होता तब तक यूरोप और अमरीका के पाठकों के किसी मतलब का न था। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में अंग्रेजी परिधान पहनकर, ‘’पोएटिक्‍स‘’ पशिचमी क्षितिज पर प्रगट हुआ और तबसे काव्‍य और नाटक के विषय में विचारकों की समझ को गढ़ने का काम करने लगा।
      एरिस्टोटल का सूत्र मय वाक्‍य ‘’The art imitates nature” कला प्रकृति की नकल करती है। बुद्धिजीवियों में प्रसिद्ध हुआ। हालांकि यह कथन ग्रीक चिंतन का अंश था। पूरी तरह से एरिस्‍टोटल का नहीं था। प्राचीन ग्रीस में हर तरह की कला को नकल माना जाता था। लेकिन प्रकृति की नकल। गहरे में देखें तो यह बात बहुत अर्थपूर्ण है। कोई भी कला लें, ‘’चाहे रंग हो या शिल्‍प या नृत्‍य या संगीत या शब्‍द—प्रकृति में पहले से ही सब कुछ मौजूद है। कलाकार उसे ही अलग-अलग माध्‍यमों से प्रगट करता है। क्‍या चित्रकार के पास ऐसा रंग है जो प्रकृति में नहीं है। क्‍या संगीतकार के पास ऐसा कोई सूर है जो अस्‍तित्‍व में नहीं गूंज रहा है। क्‍या कवि के पास ऐसा भाव जो की मनुष्‍य में नहीं है।
      ‘’कला प्रकृति का अनुकरण है’’—यह कथन सिर्फ बौद्धिक नहीं है। इसमें सत्‍य की अनुगूँज है। इसीलिए वह 2400 साल तक लोगों के दिलों दिमाग पर छाया रहा। कलाकार कितना ही महान क्‍यों न हो, वह प्रकृति से बड़ा कलाकार नहीं हो सकता। ‘’पोएटिक्‍स’’ में लिखे गए ऐसे कालजयी वचनों ने एरिस्‍टोटल को इक्कीसवी सदी तक सलामत रखा। और ओशो ने अपनी मनपसंद किताबों में उसे स्‍थान दिया।
      ओशो ने जिस संस्‍करण पर हस्ताक्षर किये है वह चौथी बार 1967 में, न्‍यूयॉर्क में छपी है। एरिस्‍टोटल के मूल निबंध पर तीन गुना लंबी टीकास लिखी है एम. एच. बुचर ने। जो इस पुस्‍तक में शामिल है। यह टीका एरिस्‍टोटल की दुर्बोध भाषा को सुबोध बनाता है। 2400 साल पहले शब्‍दों के जो अर्थ थे, भाषा शैली या सोचने का ढंग था, वह बिलकुल अलग था। आज के मनुष्‍य के लिए उसे समझना मुश्‍किल है। इसीलिए व्‍याख्‍याकार का सेतु आवश्‍यक है। यह काम बुचर ने कुशलता से किया है।
      वह जबाब देते है, ‘’माना के पोएटिक्‍स’’ कविता का सामान्‍य शास्‍त्र है, और महाकाव्‍य और नाटक का विशेष शास्‍त्र है। तथापि यह सौंदर्यशास्‍त्र का बहुत व्यावहारिक उपयोग है। केवल कल्‍पना विलास नहीं। समय कोई भी हो, कला मनुष्‍य जीवन का अभिन्‍न अंग है। इक्कीसवी सदी में तो सभी कलाएं खूब लहलहा रही है। लोगों के पास अधिक धन है, साधन है और कलाओं के प्रति संवेदनशीलता है।
      किताब की शुरूआत में एरिस्‍टोटल काव्‍य के तीन हिस्‍से करता है। महाकाव्‍य, ट्रैजेडी या दुखांत नाटक, और कॉमेडी, सुखांत।
      उन दिनों काव्‍य और नाटक और कॉमेडी अलग-अलग नहीं थी। कला की विभिन्‍न शाखाएं एक दूसरे में धूलि मिली थी। कला की दो कोटिया थी। अनुकरण कला और उपयोगी कला। एरिस्‍टोटल को पढ़ने से पहले एक बात ख्‍याल में लेना जरूरी है। शब्दों के अर्थ उस समय क्‍या थे? एरिस्‍टोटल जब इमिटेशन या ‘’अनुकरण’’ कहता है तो उसके मायने क्‍या है? कलाकारों के फूले हुए अहंकार के लिए यह बड़ी चोट है। कला यदि महज अनुकरण है तो सृजन का महत्‍व क्‍या है?
      एरिस्‍टोटल के अनुसार दुखांत नाटक एक रेचन , कैथार्सिस है। वह दर्शकों में दया और भय जगाता है। मंच पर भीषण दुःख देखकर उसके भीतर के भावों की निर्जरा हो जाती है। वह नाटक के पात्रों के संग अपना जीवन जी लेता है।
      नाटक के विभिन्‍न अंगों के संबंध में एरिस्‍टोटल ने इतनी गहराई से लिखा है कि उसके सुझाव आज भी अच्‍छे नाटक के लिए मापदंड बन सकते है। जैसे: ‘’नाटक के प्रसंग इतने प्रभावशाली होने चाहिए कि उनकी व्‍याख्‍या करने के लिए शब्‍दों की जरूरत महसूस न हो।‘’
      नाटक जीवन का चित्रण है। जीवन में घटनाएं सिर्फ घटती है। जीवन उनकी व्‍याख्‍या नहीं करता।
      एरिस्‍टोटल के समय महाकाव्‍य और दुखांत नाटक के दायरे एक ही थे। बस अलग होने शुरू ही हुए थे। इसीलिए नाटक के लेखक के लिए एरिस्‍टोटल जो शब्‍द प्रयोग करता है वह है: कवि। दुखांत नाटक के लिए आवश्‍यक अंग है: कथा वस्‍तु, विचार, भाषा, उच्‍चारण, शब्‍दों की लय। पात्रों का अभिनय, चरित्र-चित्रण। इन सबका बहुत बारीक वर्णन पढ़ते हुए मन में एरिस्‍टोटल की प्रतिभा की प्रशंसा उमगने लगती है।
      नाटक में शब्‍द और विचार की चर्चा एरिस्‍टोटल ने इस प्रकार की है: विचार के अंतर्गत बोलने के वे सभी उतार-चढ़ाव आते है। जो बोलने से पैदा किये जाते है। भावनाओं की उतैजना जैसे दया, भय, क्रोध इत्यादि। अभिनेता के जो विचार है वे ही उसके भाषण में प्रगट होने चाहिए। इसके लिए उसके शब्‍द भावों से ओतप्रोत होने जरूरी है।
      भाषा क्‍या है? इसका विश्‍लेषण करते हुए एरिस्‍टोटल भाषा के सारे पेच खोलकर उसके पुर्ज़े अलग कर देता है। ‘’जिन चीजों से भाषा बनती है, अक्षर, व्‍यंजन, जोड़ने वाला शब्‍द संज्ञा, क्रिया, विभक्‍ति या मुहावरा।‘’ इसके बाद वह एक-एक शब्‍द को लेकिर उसके और टुकड़े करता है।
      किसी भी बात की गहराई में उतरने की अद्भुत क्षमता है उसमें। यह समीक्षा की ग्रीक पद्धति है—तथ्‍यों को जुटना, और जब सारे तथ्‍य इकट्ठे हो जाएं तब उनको देखकर एक सामान्‍य नियम बनाना।
      एरिस्‍टोटल के सामने ग्रीक कला और साहित्‍य का भंडार पडा था। उसमें से अधिकांश साहित्‍य आज हमारे लिए उपलब्‍ध नहीं है। अपनी प्रतिभा के उतंग शिखर पर खड़ा एरिस्‍टोटल पीछे मुड़कर मानों ग्रीक संस्‍कृति का जायज़ा ले रहा है। लेकिन काव्‍य और नाटक के मूल तत्‍वों की उसने जो समीक्षा की है, वह न केवल ग्रीक साहित्‍य की अपितु किसी भी कला के मूल सिद्धांत बन गये है। इसलिए ‘’पोएटिक्‍स’’ ग्रीक कला से जुदा होकर विश्‍व काव्‍य और नाटक के लिए मार्गदर्शक बना हुआ है। इसे पढ़कर एक तथ्‍य बड़ी बुलंदी से उभरता है। आज ढाई हजार साल बाद, मनुष्‍य का बह्या जीवन कितना ही बदला हो, उसका अंतस उसकी भावनाएं, वहीं है जो किसी भी युग में रही होंगी। यही सेतु है हमारे और एरिस्‍टोटल के बीच।
      हमारी विश्‍लेषक बुद्धि analytical mind, कहां से पैदा हुआ, हमारी बुद्धि जिसकी विरासत है उसका मस्‍तिष्‍क कैसा होगा इसका अध्‍यन करने के लिए ही सही। एरिस्‍टोटल को पढ़ना रोचक होगा। हो सकता है इसीलिए ओशो यह किताब अपनी प्रिय किताबों की सूची में शामिल करते है।
      एरिस्‍टोटल तो अपने आपमें श्रेष्‍ठ है ही, लेकिन एस. एच. बुचर की समझदार समीक्षा ‘’पोएटिक्‍स’’ के शब्‍दों को खोलने में बहुत मदद करती है।
     
किताब की एक झलक:
      ऐसा मालूम होता है कविता दो स्रोतों से निकली है, और वे दोनों ही स्‍त्रोत हमारी प्रकृति में गहरे छिपे है। एक, तो नकल करने की वृति मनुष्‍य में बचपन से ही होती है। उसमें और अन्‍य जानवरों में जो फर्क है वह है: वह सारे प्राणियों में सबसे अधिक नकलची, अनुकरणशील प्राणी है। जीवन के पहले पाठ वह दूसरों की नकल करके ही सीखता है। और नकल करके उसे जो सुख मिलता है वह सुख भी कम नहीं है।
      अनुभव की प्रक्रिया में हमें इसका प्रमाण मिलता है। जिन चीजों को देखकर हमें दुःख होता है उन्‍हें जब हम याद करते है तो छोटी से छोटी तफसील भी हम भूलते नहीं। जैसे घृणित जानवर या मुर्दा शरीर हमारी आंखों के आगे घूमते रहते है। इसका कारण यह है कि कोई भी बात सीखने से हमें बड़ी खुशी मिलती है। इसमें दार्शनिक और साधारण जन, सभी शामिल है। बहरहाल, सामान्य जनों की सीखने की क्षमता कम होती है। इसलिए लोग एक जैसी चीजें देखना पसंद करते है। ताकि उसके बारे में सोचते हुए वे सीखते है। या अनुमान करते है। और फिर कहते है, ‘’ओह यही वह है।‘’
      तो अनुकरण हमारे स्‍वभाव की एक वृति है। उसके बाद समस्‍वरता और लय भी हमारी एक वृति है। छंद उसी लय की हिस्‍सा है। अंत: इस प्राकृतिक भेंट को लोगों ने विकसित किया, अपनी विशेष क्षमता के द्वारा वे तुकबंदी करने लगे, जिससे कविता का जन्‍म हुआ।
      यहां पर कविता दो दिशाओं में बंट गई है। लेखकों के व्‍यक्‍तिगत स्‍वभाव से प्रभावित हुई। उनमें से जो गंभीर आत्‍माएं थी उन्‍होंने उदात्‍त कृति तथा भद्र पुरूषों के कृत्यों की नकल की—उन्‍होंने व्‍यंग लिखा। जो पहली कोटि के लोग थे उन्‍होंने देवताओं की स्‍तुति-गान और प्रसिद्ध आदमियों की प्रशंसा में गीत लिखें। व्‍यंग कविता लिखने वाले कवि होमर से पहले पाये नहीं जाते। हालांकि ऐसे कई लेखक रहे होंगे। होमर के बाद ऐसे उदाहरण दिये जा सकते है। जैसे, उनका अपना काव्‍य ‘’मार्गाइट्स’’ और इस प्रकार की अनय रचनाएं। यहां उचित छंद का प्रयोग भी किया गया है। इसलिए इस छंद को व्‍यंग्‍य करने का छंद भी कहा जाता है। इस तरह पुराने कवि दो कोटि के थे: वीर रस के या व्यंग्यात्मक।
      गंभीर काव्‍य शैली में होमर सबसे प्रमुख है। वह अकेला था जिसने नाटक शैली को उत्‍कृष्‍ठ अनुकरण के साथ जोड़ा। तो उसने भी कॉमेडी, सुखांत, नाटक की नींव रखी। व्‍यक्‍तिगत व्‍यंग्‍य लिखने की बजाय व्‍यंग्‍य के भाव को नाटकीय ढंग से पेश किया। उसके काव्‍य ‘’मार्गाइट्स’’ का कॉमेडी के साथ वही संबंध है जो इलियड और ओडिसी का दुखांत, ट्रैजेडी के साथ है।
      जब कॉमेडी और ट्रैजेडी स्‍थापित हुई तब कवियों के दोनों वर्गों ने अपने-अपने रुझान के अनुसार अपनी स्‍वाभाविक वृति को अपनाया। जो व्‍यंग्‍यात्‍मक थे उन्‍होंने कॉमेडी लिखी, और महाकाव्‍य के लेखन ट्रैजेडी, दुखांत नाटक लिखने लगे। क्‍योंकि नाटक, कला का श्रेष्‍ठतर और अधिक विशाल रूप था। ट्रैजेडी आहिस्‍ता-आहिस्‍ता विकसित हुई। उसमे नए तत्‍व जुड़ते गए। कई परिवर्तनों से गुजरने के बाद उसे अपनी नैसर्गिक रूपरेखा मिली और वही वह रूक गई।
      एस्‍किलस मंच पर पहली बार दूसरे अभिनेता को ले आया। उसने कोरस, समूह गान का महत्‍व कम किया और  मुख्‍य अंश को संवाद का रूप दिया। सोफोक्‍लीस ने अभिनेताओं की संख्‍या तीन की और नेपथ्‍य को जोड़ा। एक लंबे अरसे के बाद नाटक की कहानी का क्षेत्र विस्‍तीर्ण होता चला गया। और ट्रैजेडी की भव्‍यता आई।
      महाकाव्‍य और दुखांत नाटक में एक समानता है: वह श्रेष्‍कोटि के चरित्रों का काव्‍य में किया गया अनुकरण है। उनमें फर्क यह है कि महाकाव्‍य में एक ही छंद होता है और वह वर्णनात्‍मक होती है। उनकी लंबाई भी अलग-अलग होती है। दुखांत नाटक की कोशिश यह रहती है कि सूर्य की एक परिक्रमा में जितना समय लगता है वही उसकी कथा वस्‍तु की सीमा हो। जबकि महाकाव्‍य में जो घटनाएं घटती है उनमें समय की कोई सीमा नहीं होती। यह एक और फर्क है। लेकिन शुरू-शुरू में ट्रैजेडी और महाकाव्‍य, दोनों को एक जैसी स्‍वतंत्रता थी।
ओशो का नज़रिया--
      तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा कि (आज का) मेरा चौथा चुनाव है: एरिस्‍टोटल की ‘’पोएटिक्‍स’’
      एरिस्‍टोटल को पश्‍चिमी दर्शन और तर्कशास्‍त्र का जन्‍मदाता कहा जाता है। निश्‍चय ही वह है; लेकिन केवल दर्शन और तर्कशास्‍त्र का, असली तत्‍व का नहीं। असली बात आती है सॉक्रेटिस से। पाइथागोरस और डायोजिनिस से। डायोजिनिस से, लेकिन एरिस्‍टोटल से नहीं।
      आश्‍चर्य है कि उसने यह खूबसूरत किताब लिखी। और एरिस्‍टोटल को पढ़नेवाले विद्वान इस किताब को नहीं पढ़ते। उसके ग्रंथों में मुझे इस किताब को ढूंढना पड़़ा। मैं खोज रहा था कि मुझे इस व्‍यक्‍ति में कोई सौंदर्य मिलेगा या नहीं। जब मेरी निगाह ‘’पोएटिक्‍स’’ पर पड़ी—बस कुछ पन्‍नों की छोटी सी किताब—तो मैं रोमांचित हुआ। तो इस आदमी में दिल भी था। बाकी सब किताबें उसने दिमाग से लिखीं, लेकिन यह किताब दिल से पैदा हुई।
      हां, यह कविता के सार-सूत्र के संबंध में है। काव्‍य शस्‍त्र के विषय में है—और काव्‍य का सार सूत्र प्रेम के सार सूत्र के अलावा और कुछ हो सकता है। यह बुद्धि की नहीं, अंत: प्रज्ञा की सुवास है।
      मैं इस किताब का समर्थन करता हूं।
ओशो
बुक्‍स आय हैव लव्‍ड
    
  


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