चंदाभ की आभा-(एस धम्मो सनंतनो)
राजगृह में चंदाभ नाम का एक ब्राह्मण रहता था। किसी पूर्व जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया करता था।
राजगृह में चंदाभ नाम का एक ब्राह्मण रहता था। किसी पूर्व जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया करता था।
कुछ और बड़ा कृत्य नहीं था पीछे। लेकिन बड़े भाव से चंदन लगाया होगा कश्यप बुद्ध के चैत्य में, उनकी मूर्ति पर। असली सवाल भाव का है। बड़ी श्रद्धा से लगाया होगा। तब से ही उसमें एक तरह की आभा आ गयी थी। जहां श्रद्धा है, वहां आभा है। जहां श्रद्धा है, वहां जादू है।
उस पुण्य के कारण, वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाने का जो पुण्य था, वह जो आनंद से इसने चंदन लगाया था, वह जो आनंद से नाचा होगा। पूजा की होगी, प्रार्थना की होगी। वह इसके भीतर आभा बन गयी थी। ज्योतिर्मय हो कर इसके भीतर जग गयी थी।
कुछ पाखंडी ब्राह्मण उसे साथ लेकर नगर-नगर घूमते थे। क्योंकि वह बड़ा चमत्कारी आदमी था। उसकी नाभि से रोशनी निकलती थी। वे कपड़ा उघाड़ कर लोगों को उसकी नाभि दिखाते थे। नाभि देखकर लोग हैरान हो जाते थे। और उन्होंने इसमें एक धंधा बना रखा था। वे कहते थे। जो इसके शरीर को स्पर्श करता है, वह चाहे जो पाता है। और जब तक लोग बहुत धन दान न करते वह उसका शरीर स्पर्श नहीं करने देते थे। ऐसे वह काफी लोगों को लूट रहे थे।
भगवान जेतवन में विहरते थे। तब वे उसे लिए हुए श्रावस्ती पहुंचे। जेतवन श्रावस्ती में था। संध्या समय था। और सारा नगर भगवान के दर्शन और धर्म श्रवण के लिए जेतवन की और जा रहा था। उन ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चंदाभ का चमत्कार दिखाना चाहा। लेकिन कोई रूकना नहीं चाहता था।
जिसने भगवान को देखा हो, जिसने किसी बुद्ध पुरूष को देखा हो। उसके लिए सारी दुनिया के चमत्कार फीके हो जाते है। जिसने साक्षात प्रकाश को देखा हो, उसके लिए किसी की नाभि से थोड़ी सी रोशनी निकल रही हो। इसका कोई अर्थ नहीं है। इस तरह की बातों में बच्चे ही उत्सुक ही हो सकते है।
कोई रुका नहीं। ये देख कर ब्राह्मण बहुत हैरान हुए। ऐसा तो कभी हुआ नहीं था। उनके अनुभव में न आया था। जहां गए थे। वहीं भीड़ लग जाती थी। तो उन्हें लगा कि जरूर इससे भी बड़ा चमत्कार कहीं बुद्ध में घट रहा होगा। तभी लोग भागे जा रहे है। तो बुद्ध का अनुभाव देखने के लिए—कि कौन है यह बुद्ध। और क्या इसका प्रभाव है। क्या इसके चमत्कार है। वे ब्राह्मण चंदाभ को लेकर बुद्ध के पास पहुँचे। भगवान के सामने जाते ही चंदाभ की आभा लुप्त हो गयी।
हो ही जायेगी, हो ही जानी चाहिए। वह ऐसी ही थी जैसे कोई दीया जलाएं सूरज के सामने आ जाए। सूरज के सामने दीए की रोशनी खो जाए, इसमे आश्चर्य क्या है।
दीए की तो बात और, सुबह सूरज निकलता है, आकाश के तारे खो जाते है। अंधेरे में चमकते है; रोशनी में खो जाते है। सूरज की विराट रोशनी तारों की रोशनी छीन लेती है। तारे कहीं जाते नहीं; जहां है, वहीं है। मगर दिन में दिखायी नहीं पड़ने लगेंगे।
यह चंदाभ की जो आभा थी। मिट्टी का छोटा सा दीया था। बुद्ध की जो आभा थी, जैसे महा सूर्य की आभा।
लेकिन चंदाभ तो बेचारा यही समझा कि जरूर कोई मंत्र जानते होंगे। मेरी आभा को मिटा दिया। वह दुःखी हुआ। चमत्कृत भी। उसने कहा: हे गौतम, मुझे भी आभा को लुप्त करने का मंत्र दीजिए। और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए। तो मैं सदा-सदा के लिए आपका दास हो जाऊँगा। आपकी गुलामी करूंगा।
बुद्ध कभी मौका नहीं चूकते। कोई भी मौका मिले किसी भी बहाने मौका मिले, संन्यास का प्रसाद अगर बांटने का अवसर हो, तो वे जरूर बांटते थे। बुद्ध ने यही मौका पकड़ लिया। इसी निमित चलो।
उन्होंने कहा: देख, मंत्र दूँगा—मंत्र-वंत्र है नहीं कुछ। पर पहले तू सन्यासी हो जा।
मंत्र के लोभ वह आदमी संन्यास ले लेता है। लेकिन बुद्ध ने देखा होगा कि इस आदमी में क्षमता तो पड़ी है। बीज तो पडा है। वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाया था। वह जो भाव दशा इसकी सधन थी। वह आज भी मौजूद है। तड़फती है, मुक्त होने को। उस पर ही दया की होगी।
यह आदमी ऊपर से तो भूल गया है। किस जन्म की बात है। कहां की बात है। किसको याद रहता है। इस आदमी की बुद्धि में तो कुछ भी नहीं है। सब भूल-भाल गया है। इसकी स्मृति नहीं है। लेकिन इसके भीतर ज्योति पड़ी है।
कल एक युवक नार्वे से आया। मैंने लाख उपाय किया कि वह संन्यस्त हो जाए। क्योंकि उसके ह्रदय को देखू तो मुझे लगे कि उसे संन्यस्त हो ही जाना चाहिए। और उसके विचारों को देखू, तो लगे कि उसकी अभी हिम्मत नहीं है। सब तरह समझाया-बुझाया उसे कि वह संन्यस्त हो जाए। तरंग उसमे भी आ जाती थी। बीच-बीच में लगने लगता था कि ठीक। ह्रदय जोर मारने लगता ; बुद्धि थोड़ी क्षीण हो जाती। लेकिन फिर वह चौंक जाता।
दो हिस्सों में बंटा है। सिर कुछ कह रहा है। ह्रदय कुछ कह रहा है। मुश्किल से सुनायी पड़ती है। क्योंकि आवाज धीमी होती है। हमने सदियों से सूनी नहीं है वह आवाज। तो सुनाई कैसे पड़े। आदत चूक गयी है। खोपड़ी में जो चलता है वह हमें साफ दिखाई देता है। हम वहीं सब गए है। हमने ह्रदय में जाना छोड़ दिया है।
तो यह आदमी तो चाहता था मंत्र। मंत्र के लोभ में संन्यस्त हो गया। इसे पता नहीं था कि बुद्ध के हाथों में जरा सी उँगली दी नहीं कि गया हाथ। और वे पकड़ लेंगे पहुंचा। पकड़े गये तो पकड़े गये। फिर छूटना मुश्किल है।
बुद्ध ने उसको समझाया होगा कि तू ध्यान कर। ऐसे धीरे-धीरे कदम-कदम उसे समाधि में पहुंचा दिया। जब वह समाधिस्थ हो गया तो वह तो भूल ही गया मंत्र की बात। कौन न भूल जाएगा। महामंत्र मिल गया था। अब तो उसे खूद ही दिखाई पड़ गया होगा की यह बात मूढ़ता कि थी। कि मैं मंत्र मांग रहा था। न तो उन्होंने काटा था और न ही कोई मंत्र था। बड़ी रोशनी के सामने आकर छोटी रोशनी अपने आप लुप्त हो जाती है। किसी ने कुछ नहीं किया था। बुद्ध कुछ करते भी नहीं। बुद्ध कोई मदारी नहीं होते है।
जब ब्राह्मण उसे लेने के लिए आये। तो वह हंसा और बोला कि तुम लोग जाओ। मैं तो अब नहीं जाने वाला। मैं तो ऐसी जगह ठहर गया हूं, जहां से जाना इत्यादि होता ही नहीं। मैं समाधिस्थ हो गया हूं।
जाना कैसा हो? जाना तो विचारों के घोड़े पर होता है। जाना तो वासनाओं पर होता है। जाना तो तृष्णाओं के सहारे होता है। वे सब तो गए सहारे। अब मेरी कोई दौड़ नहीं है। क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं है? अब मुझे कहीं जाना नहीं है। न कही पहुंचना है, जहां पहुंचना था वहां को दौड़ खत्म हो गई। मैं पहूंच गया आपने घर। मेरा तो अब न कोई आन है, न कोई जाना। सब मिट गया। मेरा आवा गमन मिट गया है। तुम कहां की बातें कर रहे हो। अब तो इस जमीन पर भी लौट कर आने वाला नहीं हूं। मुझे अब महामंत्र मिल गया।
ब्राह्मण तो चोंके ह चोंके कि यह क्या हो गया। लेकिन भिक्षु भी चोंके, जो ज्यादा सोचने जैसी बात है। आदमी इतना राजनैतिक प्राणी है। वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। धार्मिक आदमी भी, भिक्षु भी ईर्ष्या से भर गए होंगे कि यह अभी-अभी तो आया चंदाभ; और अभी-अभी ज्ञान का उपलब्ध हो गया। और हम इतने दिन से बैठे है। हम कपास ही ओट रहे है। और यह आए देर नहीं हुई; अभी नया-नया सिक्खड़ सिद्ध होने का दावा कर रहा है।
उन्होंने जाकर बुद्ध को कहा कि भंते। चंदाभ भिक्षु अर्हत होने का दावा कर रहा है। और इस तरह झूठ बोल रहा है। आप उसे चेतनाएं।
लेकिन बुद्ध ने चंदाभ को नहीं चेताया। चेताया उन भिक्षुओं को, कि भिक्षुओं, तुम चेतो। तुम ईर्ष्या से भरे हो। तुम देख नहीं रहे हो जो घट रहा है। तुम अहंकार से भरे हो। मेरे पुत्र की तृष्णा क्षीण हो गई है। और वह जा कह रहा है। पूर्णत: सत्य है। वह ब्राह्मणत्व को उपल्बध हो गया है।
उसने मनुष्यों के ही बंधन नहीं छोड़ दिए है, उसने दिव्यता से भी बंधन छोड़ दिए है। आया था मंत्र मांगने, अब वह कुछ नहीं मांगता, मोक्ष भी नहीं मांगता।
सभी बंधनों से जो विमुक्त है, उसे में ब्राह्मण कहता हूं।
और अब उसे याद आ गया है। वह जो आभा उसी नाभि से निकलती थी। क्या थी? उसे याद आ गई। कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया था। वह आनंद, वह श्रद्धा, इतनी छोटी सी बात भी इतना बड़ा फल ला सकती है। उसे याद आ गये पिछले सभी जन्म। क्योंकि उसे याद आ गयी है, इसलिए अब उसके आगे के सब रास्ते बंद हो गये है।
अब उसने देख लिया है कि व्यर्थ भटकता हूं। बहार जो भटकता है, व्यर्थ भटकता है। जन्मों–जन्मों यही वासनाएं, यही कामनाए, यहीं तृष्णाएं, और इन्हीं के सहारे दौड़ता रहा और कहीं नहीं पहुंचा।
अब मेरा पुत्र पहूंच गया है। अब वह वहां पहुंच गया है। जहां जन्म–मरण शांत हो जाते है। उसने स्वर्ग नर्क का सब रहस्य जान लिया है। उसका पूर्व जन्म क्षीण हो गया है। अब वह दुबारा नहीं आयेगा। वह अनागामी हो गया है।
‘’जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है, जिसने अपना सब कुछ पूरा कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।‘’
बुद्ध ने ब्राह्मण की जो परिभाषा की, वहीं भगवत्ता की परिभाषा है। बुद्ध ने ब्राह्मण को जैसी ऊँचाई दी, वैसी किसी ने कभी नहीं दी थी। ब्राह्मणों ने भी नहीं। ब्राह्मणों ने तो ब्राह्मण शब्द को बहुत क्षुद्र कर दिया था। उसे जन्म से जोड़ दिया। बुद्ध ने उसे आत्म अनुभव से जोड़ा।
वह जो मुक्त है। वह जो शुन्य है। वह जो खो गया है बूंद की तरह सागर में। और सागर ही हो गया है। उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
मैंने तुम से कहा की सभी शुद्र की तरह पैदा होते है, और दुर्भाग्य से अधिक लोग शुद्र की तरह ही मर जाते है। ध्यान रखना दोबार दोहराता हूं। सभी लोग शुद्र की तरह पैदा होते है। ब्राह्मण की तरह कोई पैदा नहीं होता। ब्राह्मणत्व साधना का फल है।
शुद्र की तरह सब पैदा होते है, क्योंकि सभी शरीर के साथ तादात्म्य में जुड़े पैदा होते है। शूद्र है। इसीलिए पैदा होते है। नहीं तो पैदा हो ही क्यों। शूद्रता के कारण तो पैदा होते है। क्योंकि अभी शरीर से मोह नहीं गया। इसलिए पुराना शरीर छूट गया, तत्क्षण जल्दी से नया शरीर ले लिया। राग बना है, मोह बना है, तृष्णा बनी है। फिर नये गर्भ में प्रवेश हो गए। फिर से पैदा हो गये।
तुम्हें कोई पैदा नहीं कर रहा। तुम अपनी ही वासना से पैदा होते हो। मरते वक्त जब तुम घबराये होते हो, और जोर से पकड़ते हो अपने शरीर को। और चीखते हो, चिल्लाते हो, कहते हो; बचाओ मुझे। थोड़ी देर बचा लो। तब तुम नये जन्म का इंतजार कर रहे होते हो।
जो मरते वक्त निशिंचत मर जाता है। जो कहता है। धन्य है। यह जीवन समाप्त हुआ। धन्य—कि इस शरीर से मुक्ति हुई। धन्य—कि इस क्षणभंगुर से छूटे। जो इस विश्राम में विदा हो जाता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है।
तुम जन्म का बीज अपनी मृत्यु में बोते हो। जब तुम मरते हो, तब तुम नए जन्म का बीज बोते हो। और तुम जिस तरह की वासना करते हो। उस तरह के जन्म का बीज बोते हो। तुम्हारी वासना ही देह धरती है। तुम्हारी वासना ही गर्भ लेती है।
बुद्ध ने कहा है: तुम नहीं जन्मते, तुम्हारी वासना जन्मती है। तो जब वासना नहीं तब तुम्हारा जन्म समाप्त हो जाता है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो भाग—12
प्रवचन-9, संस्करण—1991
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