एक्सीडेंट भी बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। उसकी बात करेंगे। कोई एक्सीडेंट बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। हमें लगता है, क्योंकि हमारी व्यवस्था के कुछ भीतर नहीं घटित होता। लेकिन कोई दुर्घटना सिर्फ दुर्घटना नहीं है। दुर्घटना भी सकारण है।
छह महीने पहले मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। तैयारी शुरू हो जाती है। जैसे रात नींद के एक घंटे पहले तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए सोने से पहले जो घंटे भी कर वक्त है, वह बहुत सजेस्टिबल है। उससे ज्यादा सजेस्टिबल कोई वक्त नहीं है। क्योंकि उस वक्त आपको शक होता है कि आप जागे हुए है। लेकिन आप पर नींद की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए सारे दुनिया के धर्मों ने सोने के वक्त घंटे भर और सुबह जागने के बाद घंटे भर प्रार्थना का समय तय किया है—संध्याकाल।
संध्याकाल का मतलब सूरज जब डूबता है, उगता है, तब नहीं। संध्याकाल का मतलब है सोने से जब आप नींद में जाते है, बीच का समय। सुबह जब आप नींद में टूट कर और जागने में आते है। तब बीच की संध्या। वह जो मिडिल पीरियड है, उसका नाम है संध्या। सूरज से कोई लेना देना नहीं है। वह तो बंध गया सूरज के साथ इसलिए कि एक जमाना ऐसा था कि सूरज का डूबना ही हमारा नींद का वक्त था। और सूरज का उगना ही हमारे जागने का वक्त था। तो एसोसिएशन हो गया और ख्याल में आ गया कि सूरज जब डूब रहा है तो संध्या और सुबह जब सूरज उग रहा है तब संध्या।
लेकिन अब संध्या का यह ख्याल छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अब कोई सूरज के डूबने के साथ सोता नहीं और उगने के साथ उठता नहीं। जब आप सोते है उसके घंटे भर पहले संध्या और जब आप उठते है उसके घंटे भर बाद संध्या। संध्या का मतलब धुंधला क्षण—दो स्थितियों के बीच।
कबीर ने अपनी भाषा को संध्या-भाषा कहा है। कबीर कहते है कि न तो हम सोए हुए बोल रहे है, न हम जागे हुए बोल रहे है। हम बीच में है। हम ऐसी मुसीबत में है कि हम तुम्हारे बीच से भी नहीं बोल रहे, हम तुम्हारे बाहर से भी नहीं बोल रहे। हम बीच में खड़े है। वहां, जहां से हमें वह दिखाई पड़ता है जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता और जहां से हमें वह भी दिखाई पड़ रहा है जो आंखों से दिखाई पड़ता है। देहरी पर खड़े है। तो हम जो बोल रहे है उसमे वह भी है जो नहीं बोला जा सकता और वह भी है जो बोला जा सकता है। इसलिए हमारी भाषा संध्या भाषा है। इसके अर्थ तुम जरा सम्हाल कर निकालना।
यह जो सुबह का एक घंटे का वक्त है। और सांझ सोने के पहले जो घंटे भर का वक्त है। यह बहुत मूल्यवान है। ठीक ऐसे ही छह महीने जन्म के बाद का वक्त है और छह महीने मरने के पहले का समय है। लेकिन जो लोग रात के घंटे भर के समय का उपयोग नहीं जानते, वे छह महीने के शुरू का और छह महीने के बाद का भी उपयोग नहीं कर सकते। जब संस्कृतियां बहुत समझदार थी। इस मामले में तो पहले छह महीने बड़े महत्वपूर्ण थे। बच्चे को पहले छह महीने में ही सब कुछ दिया जा सकता है। फिर बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि उस वक्त वह संध्याकाल में है। सजेस्टिबल है। लेकिन हम चूकि बोल कर कुछ नहीं समझा सकते उसको। और चूंकि बोलने के सिवाय हमें और कुछ रास्ता नहीं है, कहने का, इसलिए अड़चन है।
और ऐसे ही मरने के पले का छह महीने का वक्त बहुत कीमती है। लेकिन बच्चे को हम समझा नहीं पाते, छह महीने तो हमें पता होते है कि यह रहे। और बूढ़े के हमें छह महीने पता नहीं होते कि कब छह महीने है। इसलिए दोनों मौके चूक जाते है। लेकिन जो आदमी सुबह के घंटे भर का उपयोग करे और रात के घंटे भर ठीक उपयोग करे। वह अपने इस बार मरने के छह महीने पहले उसे पक्का पता चल जाएगा। कि वह मरने वाला है। क्योंकि जो आदमी रात सोने के पहले घंटे भर प्रार्थना में व्यतीत कर दे उसे स्पष्ट बोध होने लगेगा कि संध्या का काल क्या है। वह इतना बारीक और सूक्ष्म अनुभव है उसकी भिन्नता का, न तो वह जागने जैसा है, न सोने जैसा। वह इतना बारीक और अलग है कि अगर उसकी प्रतीति होने शुरू हो गई तो मरने के छह महीने पहले आपको पता लगेगा कि अब वह प्रतीति रोज दिन भर रहने लगी। वह प्रतीति, जो घंटे भर रात सोते वक्त आपके भीतर आती है। वह मरने के पहले छह महीने स्थिर हो जायेगी।
इस लिए मरने के पहले के छह महीने तो पूरी साधना में डूबा देने है। वही छह महीने बारदो के लिए उपयोग किए जाते है। जिसमे वे ड्रीम ट्रेनिंग देते है कि अब अगली यात्रा में तुम
क्या करोगे। वह कोई ठीक मरते वक्त नहीं दी जा सकती। एकदम। उसके लिए तैयारी छह महीने की चाहिए। और जो आदमी इस छह महीने में तैयार हुआ हो, उसी आदमी को उसके अगले जन्म के पहले छह महीने में ट्रेनिंग दी जा सकती है। अन्यथा नहीं दी जा सकती। क्योंकि इस छह महीने में वे सारे सूत्र उसे सिखा दिए जाते है। जिन सूत्रों के आधार पर उसके अगले छह महीने में उसको ट्रेनिंग दी जा सकेगी।
अब इस सब की पूरी की पूरी अपनी वैज्ञानिकता है। और उस सके अपने सूत्र और राज है। और सारी चीजें तय की जा सकती है। वे जो अनुभव है उस बीच के, जो आदमी सारी प्रक्रिया से गुजरा हो, वह छह महीने के बाद भी याद रख सकता है। लेकिन याददाश्त सपने की रह जाती है, यथार्थ की नहीं होती। स्वर्ग नरक दोनों ही सपने की याददाश्त हो जाते है। विवरण दिए जा सकते है। उन्ही विवरणों के आधार पर सारी दुनिया में स्वर्ग-नरक का लेखा जोखा है। लेकिन विवरण अलग-अलग होंगे। क्योंकि स्वर्ग-नरक कोई स्थान नहीं है। मानिसक दशाएं है। इसलिए जब ईसाई स्वर्ग का वर्णन करते है तो वह और तरह का है। वह और तरह का इसलिए है कि जिन्होंने वर्णन किया है उन पर निर्भर है। भारतीय जब वर्णन करते है तो और तरह का होगा; जैन और तरह का करेंगे; बौद्ध और तरह का करेंगे। असल में हर आदमी और तरह की खबर लाएगा।
करीब-करीब स्थिति ऐसी है जैसे हम सारे लोग इस कमरे में आज सो जाएं और कल सुबह उठ कर अपने-अपने सपनों की चर्चा करें। हम एक ही जगह सोए थे। हम सब यही थे। फिर भी हमारे सपने अलग-अलग है। वे हम पर निर्भर करता है। इसलिए लिए स्वर्ग और नरक बिलकुल वैयक्तिक घटना है। लेकिन मोटे हिसाब बांधे जा सकते है—कि स्वर्ग में सुख होगा, और नरक में दुख होगा। कि दुख का क्या रूप होगा और सूख का क्या रूप होगा। ये मोटे हिसाब बांटे जा सकते है। ये सारे ब्योरे जो भी दिये गए है, अब तक वह सभी सही है चित दशाओं की भांति।
और पूछा है कि जन्म को चुन सकता है व्यक्ति तो क्या अपनी मृत्यु को चुन सकता है? इसमे भी दो तीन बातें ख्याल में लेनी पड़ेगी। एक जन्म को चुन सकने का मतलब यह है कि चाहे तो जन्म ले। यह तो पहली स्वतंत्रता है, ज्ञान को उपल्बध व्यक्ति को—चाहे तो जन्म ले। लेकिन जैसे ही हमने कोई चीज चाही कि चाह के साथ परतंत्रताएं आनी शुरू हो जाती है।
मैं मकान के बहार खड़ा था मुझे स्वतंत्रता थी कि चाहूं तो मकान के भीतर जाऊं। मकान के भीतर में आया। लेकिन मकान के भीतर आते ही से मकान की सीमाएं और मकान की परतंत्रताएं तत्काल शुरू हो जाती है। तो जन्म लेने की स्वतंत्रता जितनी बड़ी है। उतनी मरने की स्वतंत्रता उतनी बड़ी नहीं है। उतनी बड़ी नहीं है। रहेगी। साधारण आदमी को तो मरने की कोई स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि उसने जन्म को ही कभी नहीं चुना। लेकिन फिर भी जन्म को स्वतंत्रता बहुत बड़ी है। टोटल है एक अर्थ में, कि वह चाहे तो इनकार भी कर दे, न चुने। लेकिन चुनने के साथ ही बहुत सी परतंत्रताएं शुरू हो जाती है। क्योंकि अब वह सीमाएं चुनता है। वह विराट जगह को छोड़ कर संकरी जगह में प्रवेश करता है। अब संकरी जगह की अपनी सीमाएं होंगी।
अब वह एक गर्भ चुनता है। साधारणत: तो हम गर्भ नहीं चुनते। इसलिए कोई बात नहीं है। लेकिन वैसा आदमी गर्भ चुनता है। उसके सामने लाखों गर्भ होते है। उनमें से वह एक गर्भ चुनता है। हर गर्भ के चुनाव के साथ वह परतंत्रता की दुनिया में प्रवेश कर रहा है। क्योंकि गर्भ की अपनी सीमाएं है। उसने एक मां चूनी, एक पिता चूना। उन मां और पिता के वीर्याणुओं की जितनी आयु हो सकती है वह उसने चुन ली। यह चुनाव हो गया। अब इस शरीर का उसे उपयोग करना पड़ेगा। अब बाजार में एक मशीन खरीदने गए है, एक दस साल की गारंटी की मशीन आपने चुन ली। अब सीमा आ गई एक। पर यह वह जान कर ही चुन रहा है। इसलिए परतंत्रता उसे नहीं मालूम पड़ेगी। परतंत्रता हो जाएगी, लेकिन वह जान कर ही चुन रहा है। आप यह नहीं कह सकते की मैने यह मशीन खरीदी। तो अब मैं गुलाम हो गया। आपने ही चूनी थी। दस साल चलेगी यह जान कर चुनी थी। बात खत्म हो गई। इसमे कही कोई पीड़ा नहीं है। इसमें कहीं कोई दंश नहीं है। यद्यपि वह जानता है कि यह शरीर कब समाप्त हो जाएगा। और इसलिए इस शरीर के समाप्त होने का जो बोध है, वह उसे होगा। वह जानता है, कब समाप्त हो जाएगा। इसलिए इस तरह के आदमी में एक तरह की व्यग्रता होगी, जो साधारण आदमी में नहीं होगी।
अगर हम जीसस की बातें पढ़ें तो ऐस लगता है वे बहुत व्यग्र है। अभी कुछ होने वाला है, अभी कुछ हो जाने वाला हे। उनकी तकलीफ वे लोग नहीं समझ सकते। क्योंकि उनके लिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं है और जीसस आपसे कह रहे है कि यह काम कर लो, आप कहते है कल कर लेंगे। अब जीसस की कठिनाई है कि वह जानता है कि कल वह कहने को नहीं होगा।
तो चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हो, चाहे जीसस हो, इनकी व्यग्रता बहुत ज्यादा है। बहुत तीव्रता से भाग रहे है। क्योंकि वे सारे मुर्दों के बीच में ऐसे व्यक्ति है जिन्हें पता है। बाकी सब तो बिलकुल निशिंचत है; कोई जल्दी नहीं है। ओर कितनी ही उम्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सौ साल जाएगा कि दो सौ साल जिएगा। सारा समय ही छोटा है, वह तो हमे समय छोटा नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि वह कब खत्म होगा, यह हमे कुछ पता नहीं है। खत्म भी होगा यह भी हम भुलाए रखते है।
तो जन्म की स्वतंत्रता तो बहुत ज्यादा है। लेकिन जन्म कारागृह में प्रवेश है, तो कारागृह की अपनी परतंत्रताएं है, वे स्वीकार कर लेनी पड़ेगी।
और ऐसा व्यक्ति सहजता से स्वीकार करता है, क्योंकि वह चुन रहा है। अगर वह कारागृह में आया है तो वह लाया नहीं गया है। वह आया है। इसलिए वह हाथ बढ़ाकर ज़ंजीरें डलवा लेता है। इन ज़ंजीरों में कोई दंश नहीं है। इनमें कोई पीड़ा नहीं है। वह अंधेरी दीवारों के पास सो जाता है। इससे उसको अड़चन नहीं है। क्योंकि किसी ने उसे कहा नही था कि वह भीतर जाए। वह खुले आकाश के नीचे रह सकता था। अपनी ही मर्जी से आया है, यह उसका चुनाव है।
जब परतंत्रता भी चुनी जाती है तो वह स्वतंत्रता है। और स्वतंत्रता भी बिना चुनी मिलती है तो वह परतंत्रता है। स्वतंत्रता-परतंत्रता इतनी सीधी बंटी हुई चीजें नहीं है। अगर हमने परतंत्रता भी स्वंय चुनी है तो वह स्वतंत्रता है। और अगर हमें स्वतंत्रता भी जबरदस्ती दे दी गई है तो वह परतंत्रता ही होती है। उसमे कोई स्वतंत्रता नहीं है।
फिर भी ऐसे व्यक्ति के लिए सी बातें साफ होती है। इसलिए वह चीजों को तय कर सकता है। जैसे उसे पता है कि वह सत्तर साल में चला जाएगा तो वह चीजों का तय कर पता है। जो उसे करना है, वह साफ कर लेता है। चीजों को उलझाता नहीं। जो सत्तर साल में सुलझ जाए ऐसा ही काम करता है। जो कल पूरा हो सकेगा, वह निपटा देता है। वह इतने जाल नहीं फैलाता जो की कल के बाहर चले जाएं। इसलिए वह कभी चिंता में नहीं होता। वह जैसे जीता है वैसे ही मरने की भी सारी तैयारी करता रहता है। मौत भी उसके लिए एक प्रिपरेशन है, एक तैयारी है।
एक अर्थ में वह बहुत जल्दी में होता है, जहां तक दूसरों का संबंध है। जहां तक खुद का संबंध है, उसकी कोई जल्दी नहीं होती। क्योंकि कुछ करने को उसे बचा नहीं होता है। फिर भी इस मृत्यु को, वह कैसे घटित हो, इसका चुनाव कर सकता है। सीमाओं के भीतर। सत्तर साल उसका शरीर चलना है तो सीमाओं के भीतर वह सत्तर साल में ठीक मोमेंट दे सकता है मरने का। कि वह कब मरे, कैसे मेरे, किस व्यवस्था और किस ढंग से मेरे।
एक झेन फकीर औरत हुई। उसने कोई छह महीने पहले अपने मरने की खबर दी। उसने अपनी चिता तैयार करवाई। फिर वह चिता पर सवार हो गई। फिर उसने सबको नमस्कार किया। सारे मित्रों ने आग लगा दी। तब एक साधु, जो देख रहा था, खड़ा हुआ उसने जोर से पूछा—जब आग की लपटें लग गई और वह जलने के करीब होने लगी—उसने पूछा उससे कि वहां भीतर गर्मी तो बहुत मालूम होती होगी। तो वह फकीर औरत हंसी और उसने कहा कि तुम मूढ़ हो। अभी भी इस तरह के सवाल उठाए जा रहे हो, मतलब और तुम्हें कोई काम नहीं। कोई काम की बात पूछने का भी ख्याल तुम्हारे दिमाग में नहीं आया। अब यह तो तुम्हें दिखाई ही पड़ रहा है कि आग में बैठूंगीं तो गर्मी तो लगेगी ही। ये बात भी कोई पूछने की थी।
पर यह चूना हुआ है। वह हंसते हुए जल जाती है। वह अपनी मृत्यु के क्षण को चुनती है। और उसके जो हजारों शिष्य जो इकट्ठे हुए थे उनको वह दिखा देना चाहती थी कि हंसते हुए मरा जा सकता है। जिनके लिए हंसते हुए जीना मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है। जिनके लिए हंसते हुए जीना भी बहुत कठिन है। कि कैसे हंसते हुए मरा जा सकता है।
तो मृत्यु को नियोजित किया जा सकता है। वह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह कैसा चुनाव करता है। लेकिन सीमाओं के भीतर सारी बात होगी। असीम नहीं है। मामला सीमाओं के भीतर वह कुछ तय करेगा। इस कमरे के भीतर हो रहना पड़ेगा मुझे, लेकिन मैं किस कोने में बैठूं यह मैं तय कर सकता हूं। बांए सोऊं कि दाएं सोऊं, यह मैं तय कर सकता हूं। ऐसी स्वतंत्रताएं होंगी।
और ऐसे व्यक्ति अपनी मृत्यु का निश्चित ही उपयोग करते है। कई बार प्रकट दिखाई पड़ता है उपयोग, कई बार प्रगट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग करते है, वे मृत्यु का भी उपयोग करते है। असल में वे आते ही अब किसी उपयोग के लिए है। उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रह गया। अब उनका आना कुछ किसी के काम पड़ जाने के लिए है। तो वे जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग कर लेते है।
पर बड़ा कठिन है, बड़ा कठिन है कि हम उनके प्रयोग को समझ पाएँ। जरूरी नहीं है। अक्सर हम नहीं समझ पाते। क्योंकि जो भी वे कुछ कर रहे है, हमें तो कुछ पता नहीं होता। और हमे पता करवा कर किया भी किया नहीं जा सकता है।
अब जैसे बुद्ध जैसा आदमी नहीं कहेगा कि मैं कल मर जाने वाला हूं। क्योंकि कल मरना है यह आज कह देने का मतलब होगा कि कल तक जो भी जीवन का उपयोग होने वाला था वह मुश्किल हो जायेगा। ये लोग आज से ही रोना-धोना, चिल्लाना शुरू कर देंगे। ये चौबीस घंटे का जो उपयोग हो सकता था वह भी नहीं हो सकेगा। तो कई बार चुपचाप रह कर वैसा व्यक्ति ठीक समझेगा तो करेगा, कई दफे घोषणा भी करेगा—जैसी तत्काल परिस्थिति। पर इतनी सीमा तक वह तय करता है।
और ज्ञान के बाद का जन्म, जन्म से लेकिन मृत्यु तक पूरा ही पूरा शिक्षण है। खुद के लिए नहीं। एक अनुशासन है, खुद के लिए नहीं। और हर बार स्ट्रेजी पुरानी बदलनी पड़ती है। क्योंकि सब बोथली हो जाती है। और लोगों को समझने में मुश्किल पड़ जाती है।
अब गुरजिएफ था अभी। महावीर कभी पैसा नहीं छुएंगे; गुरजिएफ से आप एक सवाल पूछेंगे तो वह कहेगा, सौ रूपये पहले रख दें। सौ रूपये बिना रखे वह सवाल भी स्वीकार नहीं करेगा। सौ रूपये रखवा लेगा। तब एक सवाल का जवाब देगा। हो सकता है एक वाक्य बोले, हो सकता है दो वाक्य बोले। फिर दूसरी बात पूछनी है तो फिर सौ रूपये रख दें।
अनेक बार लोगों ने उससे कहा कि आप यह क्या करते है? और जो उसे जानते थे वे हैरान होते थे, क्योंकि ये रूपये यहां आए और यहां वे बंट जाने वाले है। कुछ भी होने वाला है उनका। कोई गुरजिएफ उनको रखने वाला है एक क्षण को, ऐसा भी नहीं है; वे इधर-उधर बंट जाने वाले है। फिर किस लिए ये सौ रूपये मांग लिए है?
गुरजिएफ ने कभी कहा कि जिन लोगों के मन में सिर्फ रूपये का मूल्य है उन्हें परमात्मा के संबंध में मुफ्त कहना गलत है—एकदम गलत है। क्योंकि उनकी जिंदगी में मुफ्त चीज का कोई मुल्य नहीं है। और गुरजिएफ कहता है कि हर चीज के लिए चुकाना पड़ेगा कुछ। जो चुकाने की तैयारी नहीं रखता कुछ भी चुकाने की तैयारी नहीं रखता, उनको पाने का हक नहीं है।
लेकिन लोग समझते थे कि गुरजिएफ को पैसे पर बड़ी पकड़ है। जो दूर से ही देखते है उनको तो लगता है कि पैसे की बड़ी पकड़ है। बिना पैसे के सवाल का जवाब भी नहीं देते।
पर मैं मानता हूं कि जिस जगह वह था, पश्चिम में, वहां पैसा एकमात्र मूल्य हो गया, वहाँ उसी तरह के शिक्षक की जरूरत थी। एक-एक शब्द का मूल्य ले लेना। क्योंकि वह जानता है जिस शब्द के लिए तुमने सौ रूपये दिए है, तुमने सौ रूपये देने की तैयारी दिखाई है जिस शब्द के लिए तुम उसको ही ले जाओगे, बाकी तुम कुछ ले जाने वाले नहीं हो।
गुरूजिएफ बहुत से ऐसे काम करेगा जो बिलकुल ही कठिन मालूम पड़ेंगे। उसके शिष्य बहुत मुश्किल में पड़ जायेंगे, वे कहेंगे, यह आप ने करते तो अच्छा था। और वह जान कर करेगा। वह बैठा है, आप उससे मिलने गए है। वह ऐसी शक्ल बना लेगा कि ऐसा लगे कि जैसे ठीक गंडा-बदमाश है। साधु तो बिलकुल नहीं है। बहुत दिन तक सूफी प्रयोग करने की वजह से आंखों के कोण को वह तत्काल कैसा भी बदल सकता था। और आंखों के कोण के बदलने से पूरी शक्ल बदल जाती है। एक गुंडे में और साधु में आँख के अलावा और कोई फर्क नहीं होता। बाकी तो सब एक सा ही होता है। पर आँख का कोण जरा ही बदला कि सब साधु गुंडा हो जाते है। गुंडा साधु हो जाता है। आंखे उसकी बिलकुल ढीली थी दोनों। आंखों को वह कैसा ही, उसकी पुतलियाँ कैसे ही कोण ले सकती थी। वह एक सेकेंड में, इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता था। वह बगल वाले काक पता ही नहीं चलेगा कि उसने दूसरे को गुंडा दिखा दिया है। वह बगल वाले को पता ही नहीं चलेगा की उसने एक आदमी को घबरा दिया है। और बगल वाला आदमी घबरा गया कि ये आदमी कैसा है, मैं कहां आ गया।
उसके मित्रों ने जब धीरे-धीरे पकड़ा कि वह इस तरह कई लोगों को परेशान करता है तो उन्होंने कहा कि आप यह क्या करते है? हमे पता ही नहीं चलता कि वह बेचारा आया था, और आपने उसे ऐसा........।
तो गुरजिएफ कहता कि वह आदमी, अगर मैं साधु भी होता तो मुझ में गुंडा खोज लेता। थोड़ी देर लगती। मैंने उसका वक्त जाया नहीं करवाया। मैंने कहा, तू ले, तू जा। क्योंकि तू नाहक दो चार दिन चक्कर लगाएगा, खोजेगा तू यही। मैं तुझे खुद ही सौंपे देता हूं। अगर वह इसके बाद भी रूक जाता तो मैं उसके साथ मेहनत करता।
इसलिए बहुत मुश्किल मामला है। जो गुरजिएफ को गुंडा समझ कर चला गया है, अब कभी दोबारा नहीं आयेगा। लेकिन गुरजिएफ का जानना गहरा है। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी यही खोज लेना। इसको खुद मेहनत करना पड़ती। वह काम मैंने हल कर दिया। इसके चार दिन खराब होते, इसके चार दिन बच गए। अगर ये सच में ही किसी खोज में आया था, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, यह फिर भी रुकता। यह मेरे बावजूद रुके तो ही रुका, मेरी वजह से रुके तो मैं इसको रूकना नहीं कहूंगा। यह खोजने आया हो तो रुके, धैर्य रखे, थोड़ी जल्दी न करे। इतने जल्दी नतीजे लेगा कि मेरी आँख जरा ऐसी हो गई तो इसने समझा की आदमी गड़बड़ है। इतने जल्दी नतीजे लेगा तो मुझमें कुछ न कुछ इसे मिल जाएगा जिसमें वह नतीजे लेकिर चला जाए।
अब यह एक-एक शिक्षक के साथ होगा कि वह क्या करता है, कैसे करता है। बहुत बार तो जिंदगी भर पता नहीं चलता है कि उसके करने की व्यवस्था क्या है। पर वह जिंदगी से प्रत्येक क्षण का उपयोग करता है—जन्म से लेकिर मृत्यु तक। एक भी क्षण व्यर्थ नहीं है। उसकी कोई गहरी, सार्थकता है, किसी बड़े प्रयोजन और किसी बड़ी नियति में उपयोग है।
ओशो
मैं कहता हूं आंखन देखी,
प्रवचन—3
(संस्करण:1996)
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