दूसरी बात जब ये व्यक्तियों में प्रवेश कर जाएं तब ये वाणी का उपयोग कर सकते है। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्यक्ष और सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुए है। संवाद हुए है। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं है वे काल्पनिक लोगों के द्वारा नहीं हे, वे इन लोको में रहने वाले लोगों के ही द्वारा है। लेकिन किसी के माध्यम से है।
इसलिए बहुत पुराने दिनों में जो व्यवस्था थी वह यह थी—जैसे कि वेद है—तो वेद का कोई ऋषि नहीं कहेगा कि हम इनके लेखक है। वे है भी नहीं। इसमें कोई विनम्रता कारण नहीं है, कि हम लेखक नहीं है। इसमे तथ्य है। ये जो-जो कही गई है बातें, ये उनहोंने कही नहीं है। किसी आत्मा ने उनके द्वारा कहल वाई है। और ये अनुभव इतना साफ होता है, जब कोई और आत्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करके बोलेगी तब यह अनुभव इतना साफ है, क्योंकि तुम पूरी तरह से जानते हो, कि तुम अलग बैठे हो, और तुम बोल ही नहीं रहे हो, और कोई और ही बोल रहा है। तुम भी सुनने वाले हो। बोलने वाले नहीं हो। बाहर से तो पता चलाना मुश्किल है, लेकिन बहार से भी जो लोग ठीक से कोशिश करें तो पता चल जायेगा। क्योंकि आवाज का ढंग बदल जायेगा। टोन बदल जायेगी। शैली बादल जायेगी। भाषा भी बदल सकती है। और उस व्यक्ति को भी भीतर बहुत ही साफ मालूम पड़ेगा।
अगर प्रेत आत्मा प्रवेश की है तो शायद वह इतना भयभीत हो जाए कि मूर्च्छित हो जाए। लेकिन अगर देव आत्मा प्रवेश की है तो वह इतना जागरूक होगा जितना कि कभी भी नहीं था। और तब स्थिति बहुत साफ उसे दिखाई पड़ेगी। तो जिनमें प्रेतात्माएं प्रवेश करेंगी। वे तो प्रेतात्माओं के जाने के बाद ही कह सकेंगे कि कोई हमारे में प्रवेश कर गया था। वे इतने भयभीत हो जायेंगे कि मूर्च्छित हो जाएंगे। लेकिन जिनमे दिव्य आत्मा प्रवेश करेगी, वे उसी क्षण भी कह सकेंगे कि यह कोई और बोल रहा है। यह मैं नहीं बोल रहा। ये दो आवाजें एक ही उपकरण उपयोग करेगी। जैसे एक ही माइक्रोफोन का दो आदमी एक साथ उपयोग कर रहे हो। एक चुप खड़ा रह जाए और दूसरा बोलना शुरू कर दें।
तो शरीर की इंद्रियों का ऐसा उपयोग हो तब संवाद हो पाता है। इसलिए देवताओं के, प्रेतों के संबंध में जो भी उपलब्ध है जगत में , वह संवादित है, वह कहा गया है। और जो जानने का कोई उपाय नहीं है। जानने का वहीं उपाय है। और इन सबके पूरे के पूरे विज्ञान निर्मित हो गए थे। और जब विज्ञान पूरा होता है तो बड़ी आसानी हो जाती है। तब हम चीजों को समझ-बूझ पूर्वक उपयोग कर सकते है। जब विज्ञान नहीं होता तो समझ-बूझ पूर्व उपयोग नहीं कर सकते। कभी घटनाएं घटती है। तो इनका ठीक विज्ञान तय हो गया था। जैसे एक व्यक्ति प्रवेश कर गया, कोई दिव्य आत्मा किसी में प्रवेश कर गई। आकस्मिक रूप से, तो धीरे-धीरे इसका विज्ञान निर्मित कर लिया गया कि किन परिस्थितियों में वह दिव्य आत्मा प्रवेश करती है। वे परिस्थितियां अगर पैदा कर दी जाये तो। क्या आत्मा फिर से प्रवेश कर सकेगी।
अब जैसे की मुसलमान लोबान जलाएंगे। वह किन्हीं विशेष दिव्य आत्माओं के प्रवेश करने के लिए सुगंध के द्वारा वातावरण निर्मित करना है। या हिन्दू धूप जलाएंगे, या घी का दीपक जलाएंगे। ये सिर्फ औपचारिक है। लेकिन कभी इसके कारण थे। एक विशेष मंत्र बोलेंगे। विशेष मंत्र इनवोकेशन बन जाता है। इसलिए जरूरी नहीं है कि मंत्र में कोई अर्थ हो। अक्सर उसका अर्थ नहीं होता। क्योंकि अर्थ वाले मंत्र विकृत हो जाते है। अर्थहीन मंत्र विकृत नहीं होते। अर्थ में आप कुछ और भी प्रवेश कर सकत है। समय के अनुसार उसका अर्थ बदल जाता है। लेकिन अर्थहीन मंत्र में आप कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकते। समय के अनुसार कोई अर्थ नहीं बदलता।
इसलिए जितने गहरे मंत्र है वे अर्थहीन है। मीनिंगलेस है। उसमे कोई अर्थ नहीं है। जिसमे कि युग के अनुसार कोई फर्क पड़ेगा। सिर्फ घ्वनियां है। और ध्वनि उच्चारण की एक विशेष व्यवस्था है, उसी ढंग से उसका उच्चारण होना चाहिए। उतनी चोट, उतनी ही तीव्रता, उतना उतार, उतना चढ़ाव, उतनी चोट होने पर वह आत्मा तत्काल प्रवेश कर जायेगी। यह वह आत्मा खो गई होगी तो उस जैसी कोई आत्मा प्रवेश कर सकती है।
सारी दूनिया के धर्मों के जो मंत्र है, जैसे कह जैनों का नमो कार ह, उसके पाँच हिस्से है, और प्रत्येक हिस्से पर जो इनवोकेशन है, जो आह्वान है, वह गहरा होता जाता है। प्रत्येक पद पर आह्वान गहना होता जाता है। और गहरी आत्माओं के लिए होता चला जाता है। और साधारण: जैसा लोग समझते है, जैसा आज चलता है कि पूरे नमो कार को पढ़ेंगे—वह ठीक स्थिति नहीं है। जैसे पहले पद से संबंध जोड़ना है। उसको पहले पर को ही दोहराना चाहिए। बाकी चार को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। उस पर ही जोर देना चाहिए। क्योंकि उस पद से संबंधित आत्माएं बिलकुल अलग है।
जैसे नमो अरिहंताणम्। उसमें अरिहंत के लिए नमस्कार। अब ‘’अरिहंत’’ विशेष रूप से जैनों का शब्द है। जिसने अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया हो। अरिहंत का अर्थ है। ‘’अरि’’ का अर्थ है, शत्रु और हंत का अर्थ है जिसने मार डाला। तो वह ऐसी आत्मा के लिए पुकार है जो अपनी इंद्रियों को बिलकुल ही समाप्त करके विदा हुई है। यह उस आत्मा के लिए पुकार है जिसका सिर्फ एक ही जन्म हो सकता है। यह एक ही पर दोहराना है एक विशेष ध्वनि और चोट के साथ।
यह बहुत स्पेसिफिक पुकार है। विशेष पुकार है। इस पुकार के द्वारा इतर जैन दिव्य आत्मा से संबंध नहीं होगा। वह एक पारिभाषिक शब्द है, जो सिर्फ जैन दिव्य आत्मा से संबंध जुड़ा पाएंगे। इसमें क्राइस्ट से संबंध नहीं हो सकता है। इसमे आकांशा नहीं है। इसमें बुद्ध से संबंध नहीं हो सकता। यह पारिभाषिक शब्द है। और यह पारिभाषिक आत्मा के लिए पुकार है। ठीक ऐसे ही, अलग-अलग पूरे पाँच हिस्सों में पाँच अलग तरह की आत्माओं के लिए पूकार है। अंतिम जो पुकार है। नमो लोए, सव्व हसहूणं, वह समस्त साधुओं को नमस्कार है। उसमें विशेष पुकार नहीं है। उसमे साधु आत्मा मात्र के लिए आह्वान है। उसमे जैन और इतन जैन का प्रश्न नहीं है। उसमे कोई भी साधु आत्मा से संबंध जोड़ने की आकांशा है। वह बड़ी जनरालाइज्ड पुकार है। कोई विशेष निमंत्रण नहीं है उसमें।
सारी दुनिया के धर्मों के पास ऐसे मंत्र है जिनसे संबंध जोड़ा जाता रहा है। अब तक वे शक्ति मंत्र बन गये है। और बड़ी उनकी बीज-महता हो गई। वे नाम की तरह है। जैसे आपका नाम रख दिया राम। फिर राम की आवाज दी तो आप चौकन्ने हो गए। ऐसे ही सारे मंत्र है। प्रेतात्माओं के लिए भी वैसे ही मंत्र है। और दोनों का अपना शास्त्र है। व्यक्ति तो खोते चले जाएंगे। आत्माएं बदलती चली जाएंगी, लेकिन तालमेल खाती आत्माएं सदा उपलब्ध होती रहेगी। जिनसे संबंध जोड़ा जा सके। इस स्थिति में संवाद हो सकता है।
अब जैसे मोहम्मद को......इसलिए मोहम्मद ने कभी नहीं कहा, मोहम्मद ने सदा यही कहा कि मैं सिर्फ पैगंबर हूं....सिर्फ पैगाम दे रहा हूं। मैसेंजर। क्योंकि मोहम्मद को कभी ऐसा नहीं लगा। कि जो वे दे रहे है वह उनका है। इतनी साफ आवाज ऊपर से आई। जिसे, मुसलमान इलहाम कहते है, रिवील हुआ—कि कोई और भीतर प्रवेश कर गया और बोल रहा है। खुद मोहम्मद को भरोसा नहीं आया कि यह जो मैं बोल रहा हूं, कोई मेरी मानेगा। क्योंकि कभी मैं यह बोला नहीं। मेरा कोई परिचय नहीं है लोगों से ऐसा। लोग जानते नहीं है, कि मैं इस तरह से बात बोल सकता हूं। इसलिए कोई मेरा मानने वाला नहीं है।
इसलिए मोहम्मद डरे हुए घर लौटे। और रास्ते में बचे हुए घर आए कि कहीं किसी से बोल न दें, अन्यथा अविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पीछे कोई भी तो आधार नहीं है। पृष्ठ भूमि नहीं है। तो जाकर पहले सिर्फ अपनी पत्नी को कहा। और उससे भी कहा कि तुम भरोसा हो तो करना, नहीं भरोसा हो तो मत करना। और तुम भरोसा आ जाए तो फिर मैं किसी और को कहूं। अन्यथा मैं न कहूं। क्योंकि जो हुआ है, जो आया है। वह ऊपर से आया है। वह कोई बोल गया है। वह मेरी नहीं है आवाज। सिर्फ शब्द मेरे है, बोल कोई और रहा है। पत्नी को भरोसा आया। तो फिर और निकट के किसी को कहा।
मूसा के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। वाणी उतरी। यह जो वाणियों का उतरना है, वह किसी और बड़ी दिव्य आत्मा के द्वारा किसी का प्रयोग करना है। हर किसी का प्रयोग नहीं हो सकता। उसी का प्रयोग हो सकता है जो इतना वैहिकल, वाहन बनने की पवित्रता तो चाहिए ही, उतनी पवित्रता चाहिए, तब संवाद हुआ है। संवाद तो हो सकता है। लेकिन तब दूसरे के शरीर का उपयोग करना पड़ता है।
अभी इस तरह की कोशिश कृष्णामूर्ति के साथ चली, जो कि असफल हुई।
बुद्ध का एक अवतार होने की बात है—मैत्रेय। बुद्ध ने कहा है कि मैं मैत्रेय के नाम से एक बार और लौटूंगा। पर बहुत वक्त हो गया, ढाई हजार साल हो गए है। और ऐसी प्रतीति है कि कोई योग्य गर्भ उपलब्ध नहीं हो रहा है। और मैत्रेय जन्म लेना चाहता है। लेकिन कोई योग्य गर्भ उपलब्ध नहीं है। तब एक दूसरी कोशिश करने की व्यवस्था कि गई कि गर्भ अगर नहीं मिल सकता है तो कोई व्यक्ति को विकसित किया जाए और उस व्यक्ति के माध्यम से वह बोल डाले।
तो इसके लिए बड़ा आयोजन चला। सारी थियोसाफी का पूरा का पूरा आंदोलन सिर्फ एक काम के लिए निर्मित हुआ कि वह इतना काम कर दे, पूरा आंदोलन, कि एक व्यक्ति को खोज कर तैयार कर दे सब तरह से कि वह वैहिकल बन जाए।
मोहम्मद से जो आत्मा संदेश देना चाहती थी। उसको यह तकलीफ नहीं हुई। वैहिकल बनाना नहीं पडा। तैयार मिला। मूसा से जिस आत्मा ने संदेश देना था उसको वाहन मिल गय। वे बहुत सरल युग थे। वाहन मिलना कठिन नहीं था। अहंकार इतना कम था कि कोई दूसरा उसका उपयोग कर सकता है। वह अपने शरीर से हट जाए बिलकुल ऐसे जैसे है ही नहीं। अब यह असंभव हो गया है। इंडीवीजुअलटी प्रगाढ़ है। व्यक्ति अहंकार भारी है। कोई इंच भर नहीं हट सकता। तो कठिन है मामला। तो व्यक्ति तैयार कर लिए जाए।
तो थायोसोफिस्ट ने तीन-चार छोटे बच्चों को चुना, क्योंकि पक्का भरोसा नहीं है कि किस बच्चे का भविष्य क्या हो जाए। उसमे कृष्ण मूर्ति को चुना, उसके एक भाई नित्या नंद को चुना गया, कृष्ण मेनन को भी पीछ चूना गया। एक और व्यक्ति जार्ज अरंडेल को भी चूना। नित्या नंद की तो मृत्यु हुई अति चेष्टा करने से , दुर्घटना हुई। नित्या नंद पर इतनी चेष्टा की गई—कृष्ण मूर्ति के भाई पर। कि वह ठीक माध्यम बन जाए मैत्रेय का संदेश देने का। उस चेष्टा में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु से भी कृष्ण मूर्ति को इतना धक्का पहुंचा कि उनके भी माध्यम बनने में बाधा पड़ी। उसकी मृत्यु उस पूरे प्रयोग में हुई।
कृष्ण मूर्ति को नौ साल की उम्र में ऐनि बेसेंट और लीट बिटर ने लिया। लेकिन यह मजे का खेल है, जगत एक बड़ा ड्रामा है। और छोटी शक्तियों का खेल नहीं। बड़ी शक्तियां खेल रही है। और जब मैत्रेय की आत्मा की संभावना बढ़ने लगी कि हो सकता है कृष्णामूर्ति से उतर जाएं, तो जिस आत्मा ने, देवदत्त नाम के व्यक्ति ने, जिसने बुद्ध का जीवन भर विरोध किया, बुद्ध के जीवन में बुद्ध की हत्या की अनेक कोशिश की। बुद्ध का चचेरा भाई था, उसकी आत्मा कृष्ण मूर्ति के पिता पर हावी हो गई। और एक मुकदमा चला जो प्रिवी कौंसिल तक गया।
यह बात कभी नहीं कही गई। यह मैं पहली दफा कहा रहा हूं। कृष्ण मूर्ति के पिता के द्वारा यह दावा करवाया गया कि उसके बच्चे को जबरदस्ती इन लोगों ने कब्जा कर लिया है और वह वापस चाहते है। नाबालिग बच्चा है। एनी बेसेंट ने जी-जान लगा कर वह संघर्ष किया। फिर भी नियमानुसार वह जी नहीं सकती थी। क्योंकि नाबालिग बच्चे ते और बाप का हक था। अगर बच्चे भी कहें तो भी कोई बात नहीं थी। क्योंकि वे नाबालिग थे। उनकी बात का कोई मतलब नहीं हो सकता था।
इसलिए कृष्ण मूर्ति को लेकिर हिंदुस्तान के बाहर भाग जाना पडा। इधर मुकदमा चलाया गया, उधर लेकर भाग गए। इधर मुकदमा चला, इधर से हारी एनी बेसेंट। लेकिन तब तक कृष्ण मूर्ति को बाहर निकाल लिया गया। फिर वह सुप्रीम कोर्ट में चला, वहां से भी एनी बेसेंट हारी। क्योंकि वह तो कानूनी मामला था। देवदत्त के हाथ में ज्यादा ताकत थी। और अक्सर ऐसा होता है, बुरे आदमियों के हाथ में कानून अक्सर सहयोगी हो जाता है। क्योंकि अच्छे आदमी को कानून की बहुत फिक्र नहीं होती। बुरे आदमी कानून का पहले इंतजाम कर लेते है। फिर वह प्रिवी कौंसिल में गया। लेकिन प्रिवी कौंसिल ने, सब कानून को तोड़ कर निर्णय दिया कि वह एनी बेसेंट के पार रहे। इसके लिए कोई प्रिसीडेंट नहीं था। यह बिलकुल ही न्यायोचित नहीं थी घटना। इसके लिए कोई नियम नहीं था। यह बिलकुल ही गैर कानूनी था फैसला। लेकिन प्रिवी कौंसिल के ऊपर तो कोई उपाय नहीं थ।
यह निर्णय भी मैत्रेय की आत्मा के द्वारा ही संभव हुआ। नहीं तो संभव नहीं हो सकता था। और इसीलिए छोटी कोर्ट में इसकी कोशिश नहीं की गई क्योंकि उनके ऊपर बड़ी कोर्ट थी। आखिरी कोर्ट में ही उपयोग किया गया। छोटी अदालतों में इसका उपयोग करना बेकार था। क्योंकि बड़ी अदालत से वह फिर हार हो जाती। इसलिए आखिरी आदलत के लिए रोक कर रखा गया।
यह नीचे के तल पर तो एक खेल था, जो इधर दिखाई पड़ रहा था, अखबारों में चल रहा था, अदालतों में मुकदमा लड़ा जा रहा था। लेकिन ऊपर के तल पर भी शक्तियों का एक संघर्ष था। फिर कृष्णामूर्ति पर जितनी मेहनत की गई, इतनी शायद ही कभी किसी व्यक्ति पर की गई है। व्यक्तियों ने खुद की है अपने ऊपर, इससे भी ज्यादा मेहनत की है। लेकिन दूसरे लोगों ने किसी पर इतनी मेहनत की हो, ऐस कभी नहीं हुआ। पर सारी मेहनत के बावजूद भी बात बिगड़ गई। और ऐन वक्त पर।
जिस दिन थायोसोफिस्ट ने सारी दुनिया से छह हजार लोगों को हॉलैंड में इक्ट्ठा कर रखा था। और जिस दिन घोषणा होने वाली थी। कि कृष्ण मूर्ति उस दिन अपने व्यक्तित्व को छोड़ देंगे और मैत्रेय के व्यक्तित्व को स्वीकार कर लेंगे। सारी तैयारियाँ हो गई थी। आखिरी इंच की घोषणा थी, एक बिंदु की बात थी, कि मंच पर खड़े होकर वह कहेंगे कि अब मैं कृष्णामूर्ति नहीं हूं। बस इतनी सी घोषणा थी। सारी भीतरी तैयारी हो चुकी थी। कृष्ण मूर्ति अपने व्यक्तित्व को इंकार कर देंगे और खाली बैठ जायेंगे। ताकि मैत्रेय की आत्मा प्रवेश हो जाए और बोलना शुरू कर दे।
सारी दुनियां से छह हजार लोग जो समझते थे और उत्सुक थे और प्यासे थे। वे इकट्ठे हुए थे। दूर-दूर से आकर घटना को देखने के लिए—मैत्रेय की आवाज को सुनने के लिए। वह बहुत अनूठी घटना होने वाली थी। लेकिन ऐन वक्त पर कुछ नहीं हुआ। और कृष्ण मूर्ति ने इनकार कर दिया। देवदत्त फिर धक्का दिया। और वह जो प्रिवी कौंसिल में नहीं हो सका था वह अंतत: आखिरी अदालत में हार गया मामला। देवदत्त फिर धक्का दिया और ऐन वक्त पर इनकार कर दिया। कि मैं शिक्षक नहीं हूं। में कोई जगतगुरू नहीं हूं। किसी कि आत्मा से मुझे कुछ लेना देना नहीं है। मैं केवल मैं हूं, और जो मुझे कहना थ वह कह दिया।
बहुत बड़ा प्रयोग असफल हुआ। पर एक अर्थ में पहला ही प्रयोग था उस तरह का और असफल होने की ही ज्यादा संभावना थी। उस तल पर आत्माएं संवाद नहीं कर सकती। जब तक वे किसी के शरीर को न ग्रहण कर लें। और बीच में उनकी कोई प्रगति नहीं होती। इसीलिए मनुष्य जन्म फिर अनिवार्य है। आज कोई मरा और सौ साल तक वह अशरीरी हालत में रहे, तो इस सौ साल में किसी तरह का विकास नहीं होता। वह जहां मरा था पिछले जन्म में, ठीक वही से नये जन्म में प्रवेश करेगा। चाहे कितने ही समय बाद प्रवेश करे। वह विकास का काल नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे रात जहां आप सोते है, सुबह आप वहीं उठते है। नींद कोई विकास का काल नहीं है।
इसलिए अगर बहुत से धर्म नींद के खिलाफ हो गये तो उसका कारण था, और उसको कम करने में लग गए। क्योंकि वह विकास का काल नहीं है। उसमें कोई विकास नहीं होता। जहां आप थे सुबह वहीं उठते है। ऐसे ही दो शरीरों के बीच में, जहां से आप मरे थे, वहीं आप जन्मते है। आपकी स्थिती में कोई अंतर नहीं आता। बिलकुल ऐसे जैसे हमने एक घड़ी बंद कर दी अभी और जब हम दुबारा शुरू करेंगे तो वह वहीं से शुरू हो जाएंगी। जहां हमनें बंद की थी। बीच में सब विकास अवरूद्ध है।
इसलिए कोई भी देव-योनि से मोक्ष नहीं जा सकता है। देव-योनि से मोक्ष न जाने का कुछ कारण इतना है कि देव-योनि में कोई कर्म योनि नहीं है। आप कुछ कर नहीं सकते। कुछ हो नहीं सकता। सपने देख सकते है। अंतहीन सपने देख सकते है। तो मनुष्य होने लौटना ही पड़े।
क्रमश: अगले अंक में........
ओशो
मैं कहता हूं आंखन देखी,
प्रवचन—4
(संस्करण-1996)
सुंदर !
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