ओशो—इस संबंध में दो बातें ख्याल में लेनी चाहिए। एक तो स्थिरता और गति दोनों ही वह नहीं होती। और इस लिए समझना बहुत कठिन होगा। हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्थिरता होगी। स्थिरता न हो, तो गति होगी। क्योंकि हमारे ख्याल में गति और स्थिरता दो ही संभावनाएं है। और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि ये दोनों एक दूसरे से विरोधी है।
पहली तो बात गति और स्थिरता विरोधी नहीं है। गति और स्थिरता एक ही चीज की तारतम्यताएं है। जिसको हम स्थिरता कहते है। वह ऐसी गति है। जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते है वह भी ऐसी स्थिरता है जो हमारे ख्याल में नहीं आती। तो पहली तो बात गति और स्थिरता दो विरोधी चीजें नहीं है। बहुत तीव्र गति हो तो भी स्थिर मालूम होगी।
यह ऊपर पंखा है, यह तेज गति से चलता हो तो इसकी तीन पंखुडियां दिखाई नहीं देंगे। बहुत तेज चले तो संभावना ही नहीं है, अनुमान करने की कि कितनी पंखुडियां है। क्योंकि बीच की जो खाली जगह है तीन पंखुड़ियों के, इसके पहले कि वह हमें दिखाई पड़ें, पंखुडी उस जगह को भर देती है। वह पंखा इतनी तेज चल सकता है कि हम इसके आर पार किसी चीज को भी न निकाल सकें। यह इतना तेज भी चल सकता है कि हम इसका छुएँ और इसकी गति न मालूम पड़े। जब हम किसी चीज को हाथ से छूत है, बीच का वो खाली हिस्सा है जो हमारे हाथ के स्पर्श के पकड़ने से पहले दुसरी पंखुडी फिर नीचे आ जाए तो हमें पता नहीं चल सकेगा। इस लिए विज्ञान कहता है इस लिए जो चीज हमे थिर मालूम पड़ती है, वह सब गति मान है। पर गति बहुत तीव्र है, हमारी पकड़ के बाहर है। तो गति और थिर होना दो चीजें नहीं है। और एक ही चीज की डिग्रीज़ है।
उस जगत में जहां शरीर नहीं है। दोनों नहीं होंगी। क्योंकि जहां शरीर नहीं है वहां स्पेस भी नहीं है। टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते है, ऐसा कोई स्थान भी नहीं है। कोई समय भी नहीं है। समय और स्थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्थान के बाहर हो।
तो वहां क्या होगा अगर दोनों नहीं है तो?
तो हमारे पास कोई शब्द नहीं है, जो कहे कि वहां क्या होगा। जब पहली दफा धर्म के अनुभव में उस स्थिति की खबरें आनी शुरू हुई तब भी यह कठिनाई खड़ी हुई। कहें क्या? ऐसे ठीक समानांतर उदाहरण विज्ञान के पास भी है। जहां कठिनाई खड़ी हो गई है कि क्या कहें? जब भी हमारी धारणाओं से भिन्न कोई स्थिति का अनुभव होता है तो बडी कठिनाई खड़ी होती है।
जेसे कि पिछले साठ-सत्तर साल पहले जब पहली दफा इलैक्ट्रा का अनुभव विज्ञान को हुआ तो सवाल उठा कि इलेक्ट्रॉन कण है या तरंग? और बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। क्योंकि न तो उसे कण कह सकते , कण तो ठहरा हुआ होता है, तरंग गतिमान होती है। वह दोनों एक साथ है। तब सिर घूम जाता है, क्योंकि हमारी समझ में इन दोनों में से एक ही हो सकता है। और इलैक्ट्रा दोनों एक साथ है—कण भी ओ तरंग भी। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह कण है। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह तरंग है। और तब शब्द ही नहीं था। दुनिया की किसी भाषा में। और तब वैज्ञानिको ने कहा ये तो कण तरंग दोनों है। लेकिन उनके लिए भी कंसीवेब़ल नहीं रहा है। रहस्य हो गई बात। और जब आइंस्टीन से लोगों ने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ कहते है जो कि तर्क में नहीं आती है; ये तो बड़ी रहस्य की बातें हो गई। तो आइंस्टीन ने कहा कि हम तर्क को माने कि तथ्य को मानें। तथ्य यही है कि वह दोनों है। एक साथ और तर्क यही कहता है कि दो में एक ही हो सकता है।
अब एक आदमी खड़ा हुआ है या चल रहा है। तर्क कहेगा, दो में से एक ही हो सकता है। आप कहें कि वह खड़ा भी है और चल भी रहा है—एक साथ। तर्क नहीं मानेगा, तर्क के पास ऐसी कोई धारणा नहीं हे। लेकिन इलेक्ट्रॉन के अनुभव ने वैज्ञानिकों को कहा कि अब तर्क की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि या तो तथ्य को झुठलाओ, सारे प्रयोग कहते है कि वह दोनों है। यह मैनें उदाहरण के लिए आपको कहा।
सारे धार्मिक लोगों के अनुभव कहते है कि वह स्थिति दोनों नहीं है—न ठहरी हुई है, न गतिमान है। लेकिन जो भी यह कहेगा कि दोनों नहीं है अंतराल का क्षण , एक शरीर से छूटने और दूसरा शरीर के मिलने के बीच के क्षण में दोनों नहीं है। वह समझ के बाहर की बात है। इसलिए कुछ धर्मों ने तय किया है वे कहेंगे कि वह थिर है। कुछ धर्मों ने तय किया है कि वह कहेंगें की वह गतिमान है। लेकिन वह सिर्फ समझाने की कठिनाई का परिणाम है। अन्यथा कोई इस बात के लिए राज़ी नहीं है कि वहां स्थिति को स्थिति कहे की गति कहे। दोनों नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जिस परिवेश में स्थिति और गति घटित होती है। वह परिवेश ही वहां नहीं है। स्थिति और गति दोनों के लिए शरीर चाहिए। शरीर के बिना गति नहीं हो सकती। और शरीर के बीना स्थिति भी नहीं हो सकती। उसी के माध्यम से गति हो सकती है।
अब जैसे यह हाथ है मेरा, मैं इसे हिला रहा हूं या इसे ठहराए हुए हूं। कोई मुझसे पूछ सकता है कि इस हाथ के भीतर जो मेरी आत्मा है, जब हाथ नहीं रहेगा तो वह आत्मा ठहरी हुई रहेगी की गति में रहेगी। दोनों बातें व्यर्थ है। क्योंकि इस हाथ के बिना न वह गति कर सकती है और न ठहरी हुई हो सकती है। ठहराना और गति दोनों ही शरीर के गुण है। शरीर के बाहर ठहरने और गति का कोई भी अर्थ नहीं है।
ठीक यही बात समस्त द्वंद्वों पर लागू होगी। बोलने या मौन होने पर शरीर के बीना न तो बोला जा सकता है और न मौन हुआ जा सकता है। आमतौर से हमारी समझ में आ जाएगी यह बात कि शरीर के बिना बोला नहीं जा सकता। लेकिन मौन भी नहीं हुआ जा सकता। यह समझ में आनी कठिन पड़ेगी। क्योंकि हम सोचते है शरीर के लिए मौन......। लेकिन असली बात यह है कि जिस माध्यम से बाला जा सकता है उसी माध्यम से मौन हुआ जा सकता है। क्योंकि मौन होना भी बोलने का एक ढंग है। मौन होना बोलने की ही एक अवस्था है। न बोलने की है, लेकिन है बोलने की ही।
जैसे उदाहरण के लिए, एक आदमी अंधा है। तो हमे ख्याल होता है कि शायद उसको अँधेरा दिखाई देता होगा। वह हमारी भ्रांति है। अँधेरा देखने के लिए भी आँख जरूरी है। आँख के बिना अँधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता। पर हम आँख बंद करके सोचते है तो हम गलत है। क्योंकि आँख बंद करके भी आँख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक दफा आपके पास आँख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक आपके पास आँख रही हो और आप अंधे हो जाए, तो भी आपको अंधेरे का ख्याल रहेगा। जो कि झूठा है। जो कि जन्म से अंधे आदमी को नहीं है। क्यों कि अँधेरा जो है वह आँख का ही अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है। उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। तो जो जन्मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं होता। अँधेरा भी जानेगा कैसे?
कान से आप सुनते है। भाषा से ठीक लगता है कि जिसके पास कान नहीं है, हम कहेंगे कि तुम मत कहो, वह नहीं सुन रहा। लेकिन नहीं सुनने की घटना भी नहीं घटती है। बहरे के लिए। नहीं सुनने की जो प्रतीति है, वह कान वाले कि प्रतीति है। कभी ऐसा होता है कि आप नहीं सुनते है। पर वह कान उसके लिए भी जरूरी है। कान के बिना ‘’नहीं सुनने’’ का भी कोई पता नहीं चल सकता है। वह अंधेरे की तरह है।
तो जिस इंद्रिय से गति होती है। उसी इंद्रिय से ठहराव होता है। और दो में से एक भी चीज नहीं है। तो दूसरी भी नहीं होगी। तो वैसी अवस्था में आत्मा बोलती है या चुप रहती है। दोनों ही बातें संभव नहीं है। उपकरण ही नहीं है। बोलने का या चुप रहने का। ये सब उपकरण निर्भर घटनाएं है। इन दोनों के लिए उपकरण चाहिए। जगत के समस्त अनुभव के लिए उपकरण चाहिए। साधन चाहिए, इंद्रिय चाहिए।
जहां भी शरीर नहीं हे। वहां शरीर से संबंधित समस्त अनुभव तिरोहित हो जाते है। फिर वहां कुछ बचेगा? अगर आपके जीवन में कोई भी शरीर के भीतर रहते हुए अशरीरी अनुभव हुआ हो, तो बचेगा। अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा। अगर आप के जीते जी, शरीर के रहते हुए कोई भी अनुभव हुआ हो जिसके लिए शरीर माध्यम नहीं था, वह बचेगा।
ध्यान के कोई भी अनुभव हों गहरे, तो बचेंगे। साधारण अनुभव नहीं। ध्यान में आपको प्रकाश दिखाई पडा, वह नहीं बचेगा। लेकिन ध्यान में कोई ऐसा अनुभव हुआ हो जिससे शरीर ने कोई माध्यम का काम नहीं किया था। आप कह सकते थे कि शरीर था या नहीं यह भी मुझे कोई संबंध नहीं रह गया था। तो बच जाएगा। पर ऐसे अनुभव के लिए कोई भाषा नहीं है। शरीर रहते हुए भी हो, तो भी भाषा नहीं है। ये सारी कठिनाइयां है।
फिर भी इसका यह मतलब नहीं है कि वैसी आत्मा मोक्ष में पहुंच गई, क्योंकि वे दोनों विवरण एक जैसे लगेंगे। फिर मोक्ष में और दो शरीरों के बीच में जो अंतराल है, इसमें क्या भेद रहा। भेद पोटेंशियलिटी के, बीज के रहेंगे, वास्तविकता के नहीं रहेंगे। दो शरीरों के बीच में जो अशरीरी व्यवधान है बीच का। उसमें आपके जीतने संस्कार है समस्त जन्मों के, वे बीज-रूप में सब मौजूद रहेंगे। शरीर के मिलते ही वह फिर से सक्रिय हो जायेंगे। जैसे एक आदमी के पैर हमने काट दिए, तो भी उसके दौड़ने के जो अनुभव है वे विदा नहीं हो जाएंगे। दौड़ नहीं सकता, रूक भी नहीं सकता, क्योंकि दौड़ नहीं सकता तो रुकेगा कैसे। लेकिन अगर पैर मिल जाएं तो दौड़ने की समस्त संस्कार धारा पुन: सक्रिय हो जाएगी।
जैसे एक आदमी कार चलाता है। लेकिन कार छीन ली। तो अब कार नहीं चला सकता, ऐक्सलरेटर नहीं दबा सकता। लेकिन ब्रेक भी नहीं लगा सकता। कार रोक भी नहीं सकता। वे दोनों ही कार के अनुभव थे। अब वह कार के बाहर है। लेकिन कार के चलाने का जो भी अनुभव है, वह सब बीज रूप में मौजूद है। वर्षों बाद, ऐक्सलरेटर पर पैर रखेगा, कार चला सकता है।
मोक्ष में संस्कार-रहित हो जाता है। दो शरीरों के बीच में सिर्फ इंद्रिय-रहित होता है। मोक्ष में समस्त अनुभव, समस्त अनुभवजन्य संस्कार, सब कर्म, सब तिरोहित हो जाते है। उनकी निर्जरा हो जाती है। इस बीच और मोक्ष की अवस्था में एक समानता है—दोनों में शरीर नहीं होता। एक असमानता है—मोक्ष में शरीर नहीं होता, शरीर से संबंधित अनुभवों का जाल भी नहीं होता। यहां शरीर से संबंधित अनुभवों की सब सूक्ष्म तरंगें बीज रूप से मौजूद होती है। जो कभी भी सक्रिय हो सकती है। और इस बीच जो-जो अनुभव होंगे। वह शरीर जहां नहीं था, वैसे अनुभव होंगे। जैसे मैंने कहा कि ध्यान के अनुभव होंगे।
लेकिन ध्यान के अनुभव तो बहुत कम लोगों के है। कभी करोड़ में किसी एक आदमी को ध्यान का अनुभव होता है। शेष का क्या कोई अनुभव नहीं होगा?
अनुभव होगा—स्वप्न के अनुभव। स्वप्न में शरीर की कोई इंद्रियाँ काम नहीं करती। इस बात की संभावना है कि हम एक आदमी को जो स्वप्न में हो, और उसे स्वप्न में ही रखे हुए उसके सारे शरीर को काट कर अलग कर दें, तो आवश्यक नहीं है कि उसके स्वप्न में जरा सा भी भंग पड़े। कठिनाई है कि उसकी नींद टूट जाएगी। काश, हम उसे नींद में रख सके। और हम उसके एक-एक अंग को अलग करते चले जाए। तो उसका स्वप्न जरा भी भंग नहीं होगा। क्योंकि शरीर का कोई हिस्सा उसके स्वप्न में अनिवार्य नहीं है। स्वप्न में शरीर बिलकुल सक्रिय नहीं है। शरीर का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। स्वप्न के अनुभव आपके शेष रहेंगे। बल्कि आपके समस्त अनुभव स्वप्न का ही रूप लेकिन शेष रहेंगे।
अगर कोई आपसे पूछे कि स्वप्न में आप थिर होते है कि गतिमान होत है? तो कठिनाई होगी, स्वप्न में थिर होते है कि गतिमान होत है? स्वप्न से जाग कर तो यह अनुभव होता है कि अपनी जगह पड़े है, थिर, स्वप्न के भीतर। लेकिन स्वप्न के बहार आकर पता चला की स्वप्न की भीतर तो गति थी। स्वप्न में गति भी नहीं होती। अगर बहुत ठीक से समझें तो स्वप्न में आप भागीदार भी नहीं होते। बहुत गहरे में केवल आप साक्षी होते है। इसलिए स्वप्न में आपने को मरता हुआ भी देख सकते है। और स्वप्न में आपने आप को चलता हुआ भी देख सकते है। स्वप्न में अपनी ला श को पड़े हुए भी देख सकते है। और स्वप्न में अगर आप अपने को चलता भी देखते है, तो भी जिसे आप चलता देखते है वह सिर्फ स्वप्न होता है। आप तो देखने वाल ही होते है। स्वप्न को अगर ठीक से समझें तो आप सिर्फ विटनेस होते है स्वप्न में।
इसीलिए धर्म ने एक सूत्र खोज निकाला कि जो व्यक्ति जगत को स्वप्न की भांति देखने लगे, वह परम अनुभूति को उपलब्ध हो जाएगा। इसलिए जगत को माया और स्वप्न कहने वाली चेतनाएं पैदा हुई। राज उनका यही है कि अगर जगत को हम सपने की भांति देखने लगें तो हम साक्षी हो जाएंगे। सपने में कभी भी कोई पार्टिसिपेंट नहीं होता। हमेशा विटनेस होता है, कभी भी किसी भी स्थिति में आप सपने में पात्र नहीं होते। भला आपको पात्र दिखाई पड़ें आप; लेकिन आप तो वही है जिसका दिखाई पड़ता है। आप हमेशा ही देखने वाले होते है। दर्शक होत है।
तो जितने अनुभव होंगे। बीज होंगे। शरीर रहित होंगे। स्वप्न जैसे होंगे। जिनके अनुभव दुःख को निर्मित किए है वे नरक के स्वप्न देखेंगे, नाईटमेयर्स देखेंगे। जिनके अनुभव सुख को अर्जित किए है, वे स्वर्ग देखते रहेंगे। सुखद होंगे सपने उनके। लेकिन वे सब सपने जैसे अनुभव होंगे।
कभी-कभी इसमें और भी घटनाएं घटेगी। उन घटनाओं के अनुभव में भेद पड़ेगा। कभी-कभी ऐसा होगा कि ये जो आत्माएं न गतिमान है, न चलित है, ये आत्माएं कभी-कभी किन्हीं शरीरों में प्रवेश कर जाएंगी। अब यह भाषा की ही भूल है, कि वे प्रवेश कर जाएंगी। उचित होगा ऐसा कहना कि कभी-कभी कोई शरीर इनको अपने में प्रवेश दे देगा।
इन आत्माओं का लोक कुछ इससे भिन्न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में है। ठीक हम एक ही जगत में अस्तित्ववान है। यहां इंच-इंच जगह भी आत्माओं से भरी है। यहां जो हमें खाली जगह दिखाई पड़ती है। वह भी भरी हुई है।
अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्टिव हालत में हो, और दो तरह से शरीर-दूसरे लोगों के शरीर-ग्राहक अवस्था में होते है। या तो बहुत भयभीत अवस्था में। जितना भयभीत व्यक्ति होगा, उसकी खुद की आत्मा उसके शरीर में भीतर सुकड़ जाती है। मतलब शरीर के बहुत से हिस्सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास-पड़ोस की कोई भी आत्मा ऐसे गह सकती है जैसे गड्ढे में पानी बह जाता है। तब इसको जो अनुभव होते है वे ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे शरीर धारी आत्मा को होते है। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्मा प्रवेश कर सकती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्मा सिकुड़ जाती है।
लेकिन भय कि अवस्था में केवल वे ही आत्माएं सरक कर भीतर प्रवेश कर सकती है जो दुःख-स्वप्न देख रही हो। जिन्हें हम बुरी आत्माएं कहें। वे प्रवेश कर सकती है। क्योंकि भयभीत व्यक्ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्थिति में है। उसमें कोई श्रेष्ठ आत्मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्यक्ति गड़े की भांति है। जिसमें नीचे उतरने वाली आत्माएं ही प्रवेश कर सकती है।
प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति शिखर की भांति है, जिसमें सिर्फ ऊपर चढ़ने वाली आत्माएं प्रवेश कर सकती है। और प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भरा हुआ होता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्ठ आत्माएं को हो सकता है। वे भी निकट में है। तो जिनको इनवोकेशन कहते है, आह्वान कहते है। प्रार्थना कहते है। उसमे भी प्रवेश होता है। लेकिन श्रेष्ठतम आत्माएं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे कि शरीर में हुए, इन दोनों अवस्थाओं में।
तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता है, उसका पूरा विज्ञान है। वे देवता कही आकाश से नहीं आते। जिन्हें भूत-प्रेत कहा जाता है वे कही नरक से नहीं आते। किसी प्रेत लोक से नहीं आते। वे सब मौजूद है, यहीं, असल में एक ही स्थान पर मल्टी-डायमेंशनल एक्झिस्टेंस है। एक ही बिंदु पर बहुआयामी आस्तित्व है1 अब जैसे यह कमरा है, यहां हम बैठे है। हवा भी है यहां। यहां कोई घूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी। यहां कोई गीत गाने लगे तो ध्वनि तरंगें भी भर जाएंगी। धूप का कोई कण ध्वनि तरंग के किसी कण से नहीं टकरायेगा। इस कमरे में संगीत भी भर सकता है। प्रकाश भी भर सकता है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग संगीत की किसी तरंग से टकराएँगीं नहीं। और न ही संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बहार निकलना पड़ेगा। कि तुम थोड़ी जगह खाली करो।
असल में इसी स्थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती है। और प्रकाश की तरंगें दूसरे आयाम में। वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती है। और इस तरह से हजारों आयाम इस कमरे को हजार तरह सक भरते है। एक दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक दूसरे को एक दूसरे के लिए कोई स्थान खाली नहीं करना होता। इसलिए स्पेस जो है वह मल्टी-डायमेंशनल है।
यहां हमने एक टेबल रखी है। अब दूसरी टेबल नहीं रख सकते इस जगह। क्योंकि एक टेबल और दूसरी टेबल एक ही आयाम की है। तो इस टेबल को रख दिया तो इस स्थान पर—इस टेबल के स्थान पर—इस टेबल के स्थान पर दूसरी टेबल नहीं रख सकते। वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का आस्तित्व इस टेबल को कोई बाधा नहीं डालेगा।
ये सारी आत्माएं ठीक हमारे निकट है। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनका प्रवेश होंगे तब जो इनके अनुभव होंगे वे ठीक वैसे ही हो जाएंगे जैसे शरीर में प्रवेश पर होते है।
क्रमश: अगले पाठ में...........
ओशो
मैं कहता हूं आंखन देखी,
प्रवचन—4
संस्करण—1996
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